(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री अनूप शुक्ल जी द्वारा संपादित पुस्तक – “आलोक पुराणिक-व्यंग्य का ATM” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 151 ☆
☆ “आलोक पुराणिक-व्यंग्य का ATM” – संपादन अनूप शुक्ल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
हास्य एवं व्यंग्य समय की अत्यंत लोकप्रिय विधा के रूप में स्थापित होता जा रहा है । आलोक पुराणिक हिंदी ब्लॉगिंग के प्रारंभ से ही सक्रिय व्यंगकार हैं । प्रायः सभी समाचार पत्रों में उनके व्यंग्य पढ़ने को मिलते हैं। देश के लगभग 32 प्रसिद्ध व्यंग्यकारों ने अपने मंतव्य आलोक पुराणिक जी के विषय में इस कृति में संकलित किए हैं। साथ ही आलोक पुराणिक की 16 लोकप्रिय व्यंग कृतिया भी किताब में संकलित है । संपादक अनूप शुक्ल जी ने विभिन्न विषयों पर आलोक पुराणिक से साक्षात्कार लेकर उसे भी प्रश्न उत्तर के रूप में किताब में संग्रहित किया है ।इस किताVब को पढ़ने से आलोक पुराणिक की रचना प्रक्रिया उन के व्यंग के सफ़र के विषय में ऐसी जानकारी मिलती है जिससे नए व्यंग्यकार प्रेरणा ले सकते हैं। किताब मनोरंजक है और पढ़ने योग्य है। ईबुक के रूप मे भी पुस्तक किंडल पर सुलभ है । समीक्षक।
☆ पुस्तक समीक्षा ☆ संवेदना के स्वर – कृतिकार – डॉ. संध्या शुक्ल ‘मृदुल’ ☆ समीक्षक – प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆
कृति – संवेदना के स्वर
कृतिकार – डॉ. संध्या शुक्ल ‘मृदुल’
पृष्ठ संख्या – 80
मूल्य – 101 रू.
प्रकाशन – पाथेय प्रकाशन, जबलपुर
☆ ‘‘संवेदना के स्वर’*’ लघुकथाओं का बेहतरीन समुच्चय है – प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे ☆
“संवेदना के स्वर” लघु कथाओं का बेहतरीन समुच्चय है। वर्तमान की सुपरिचित लेखिका, कवयित्री, लघुकथाकार डॉ. संध्या शुक्ल ’मृदुल’ की ताजातरीन कृति लघुकथा संग्रह के रूप में जो पाठकों के हाथ में आयी है, वह है ‘संवेदना के स्वर’। इस उत्कृष्ट लघुकथा संग्रह में समसामयिक चेतना, परिपक्वता, चिंतन, मौलिकता, विशिष्टता, उत्कृष्टता व एक नवीन स्वरूप को लिए हुए उनसठ लघुकथाएं समाहित हैं।
डॉ. संध्या शुक्ल ’मृदुल’
पाथेय प्रकाशन, जबलपुर से प्रकाशित यह लघुकथा संग्रह अस्सी पृष्ठीय है जिसमें वर्तमान के मूर्धन्य साहित्यकारों एवं स्वनामधन्य व्यक्तित्वों ने अपनी भूमिका, आशीर्वचन लिखा है जिनमें डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’, प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे, कांताराय, डॉ. हरिशंकर दुबे आदि प्रमुख हैं। वर्तमान में लघुकथाएं व्यापक रूप में लिखी जा रहीं हैं, पढ़ी जा रहीं हैं और सराही भी जा रहीं हैं, पर यह नहीं कहा जा सकता है कि सभी लघुकथाएं, लघुकथाएं होती हैं, स्तरीय होती हैं और सभी को पढ़ा जाता है, सभी को सराहा जाता है, पर निःसंदेह मैं यह कहूंगा कि यदि वे लघुकथाएं ‘संवेदना के स्वर’ जैसी लघुकथाएं होंगी तो उन्हें पढ़ा भी जाएगा, उन्हें सराहा भी जाएगा और उन्हें लघुकथाओं की मान्यता भी दी जाएगी।
समीक्ष्य कृति में डॉ. संध्या शुक्ल ‘मृदुल’ ने विभिन्न विषयक लघुकथाएं प्रस्तुत की हैं। हर लघुकथा वास्तव में लघुकथा है। कहीं पर भी कोई लघुकथा न तो आत्मकथ्य हैे, न संस्मरण है और न वृत्तांत है। बल्कि हर लघुकथा में लघुकथा का शिल्प समाहित है, उसमें एक संदेश है और कथ्य भी है। वर्तमान में सामाजिक विडंबनाएं हैं, नैतिक मूल्य गिर रहे हैं, रिश्ते-नाते बिखर रहें हैं, व्यक्ति स्वार्थ केन्द्रित हो रहा है राजनैतिक अवमूल्यन भी है, नारी का भी अवमूल्यन हो रहा है, पुरुष का भी अवमूल्यन हो रहा है, और दाम्पत्य का भी अवमूल्यन हो रहा है। शिक्षा के नाम पर भी व्यापार चल रहा है और व्यापार-व्यवसाय में भी लूट है। व्यापक रूप में जो विकार व्याप्त हैं, विद्रूपताएं, नकारात्मकताएं व्याप्त हैं, जो दर्द और टीस व्याप्त है उसको देखकर निश्चित रूप से हर संवंदनशील व्यक्ति की संवेदनाएं आहत होती हैं, संवेदनाएं मुखर भी होती हैं और यदि वह रचनाकार, कलाकार हैे तो वह अपनी कलाकृति, अपनी रचना के माध्यम से अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्ति देगा, भावनाओं को अभिव्यक्ति देगा क्योंकि रचना के सृजन के मूल में भावनाएं और संवेदनाएं ही होती हैं। डॉ. संध्या शुक्ल ‘मृदुल’ की पूर्व की कृतियों को मैं पढ़ा हूं। उनमें भी संवेदनाएं हैं और उनकी लघुकथाओं में भी अच्छी गहरी संवेदनाएं दिखलाई देती है। वो सामाजिक विडंबनाओं को अपना दर्द और अपनी संवेदना बना करके प्रस्तुत करती हैं। इसी कसौटी व सत्य पर यह लघुकथा संग्रह भी खरा उमरता है।
देखा जाए तो वो कर्तव्य की बात भी करती हैं, अन्नदान की बात भी करती हैं, स्वच्छता का संदेश भी देती हैं, स्वतंत्रता का अहसास भी हमें कराती हैं, रोजी-रोटी की बात भी करती हैं। वे संतान के दायित्व का उल्लेख भी करती हैं, कहीं पुरानी साइकिल से भी उनका नाता जुड़ा दिखाई देता है, कहीं कन्या भोज की विडंबनाएं और यथार्थ है और वे विसंगतियों पर पिन पॉइंट करती हैं, वोे इंसानियत का जो बिगड़ता हुआ स्वरूप है, उस पर भी प्रहार करती हैं। वो सुकून सहृदयता और गुरु दक्षिणा की बात करके समाज को एक संदेश देती दिखाई देती हैं, वो मां की सीख को भी गांठ में बांधे दिखाई देती हैं। नानी का गांव की बात भी याद आती है। बुजुर्गों की छाया के माध्यम से वो भारतीय संस्कृति का बखान करती हैं। वो गोरैया की संख्या जो घटती जा रही है, खत्म ही लगभग होती जा रही है, वो चिड़ियों का चहचहाना भी याद करती हैं और ये अपेक्षा, कामना भी करती हैं, काश चिड़िया, गोरैया फिर से चहचहाए। वो अपने देश का गौरव अभिव्यक्त करती हैं। वो लघुकथा के माध्यम से भलाई की बात भी करती हैं, मानवीय मूल्यों की, चेतना की बात भी करती हैं। वो मूल में परोपकार, नैतिकता, करुणा, दया की बात भी करती हैं। उनमें श्रद्धांजली को और उसकी सच्चाई को व्यक्त करने का साहस भी है। वे बिटिया के दान की भी बात करती हैं।
वास्तव में यदि देखा जाए तो इस लघुकथा संग्रह के माध्यम से ‘मृदुल’ जी ने समाज को संदेश दिया है। उनकी लघुकथाएं केवल प्रेरक प्रसंग नहीं हैं या लघुकथाएं केवल उपदेश नहीं देती हैं, बल्कि वे एक ताने-बाने के माध्यम से एक आदर्श का बिखराव करती हैं, एक आदर्श को लोगों तक पहुंचाती हैं। कहा भी जाता है की साहित्य वो है जिसमें समाज का हित समाहित हो। संध्या जी की जो लघुकथाएं हैं उनमें समाज के लिए बहुत कुछ दिशा है, बहुत कुछ सार्थकता है और हर लघुकथा पाठक को अपने जीवन की कथा इसलिए लगेगी क्योंकि जो भी संवेदनशील पाठक होता हैे वह धरातल से जुड़ा होता है, भावनाओं से युक्त होता है और वह अपने हृदय में बहुत सारी भावनाएं, बहुत सारी कामनाएं, बहुत सारे अरमान, बहुत सारी यादें, बहुत सारा अतीत समाहित किए होता है। जैसे ही लघुकथा उसके किसी अरमान, उसकी किसी याद या उसके किसी अतीत को स्पर्श करती है वो लघुकथा उसको अपनी लगने लगती है। सशक्त रचनाकार की यह बहुत बड़ी विशेषता होती है कि वो अपने सृजन को पाठक का सृजन बना देता है। अपनी संवेदना को पाठक की संवेदना बना देता हैे, अपनी भावना को पाठक की भावना बना देता है और अपने लेखन को पाठक के जीवन का यथार्थ बना देता हैे।
निश्चित रूप से इस संग्रह की जो लघुकथाएं हैं उनको सफलता पूर्वक संध्या जी ने न केवल लिखा है, न केवल सृजा है बल्कि गढ़ा भी है। इसीलिए ये लघुकथाएं एक प्रकार से दस्तावेज हैं, समाज का दस्तावेज हैं, समाज की मूर्तता का दस्तावेज हैं, समाज की बयानी हैं। इन लघुकथाओं को हम पाठक की लघुकथाएं समझ सकते हैं, समाज की लघुकथाएं समझ सकते हैं, सार्वजनिक लघुकथाएं समझ सकते हैं। चिंतन और लेखन-सृजन तो लेखक का अपना होता है किंतु जब वो व्यापकता के साथ में लिखता है, जब वो समग्रता के साथ में लिखता है, जब वो उत्कृष्टता के साथ में लिखता है, जब वो गहनता के साथ में लिखता है, जब वो उसका केनवास बहुत विस्तृत कर देता है तो उस लेखक का सृजन, कवि का सृजन, कृतिकार का सृजन, लघुकथाकार का सृजन समाज का, पाठक का और सर्व का सृजन बन जाता है। मैं डॉ. संध्या शुक्ल जी को एक सार्थक कृति एक सार्थक सृजन के लिए बधाई देता हूं और इस कृति की उत्कृष्ट सफलता और सुयश के लिए बहुत-बहुत मंगल कामनाएं अर्पित करता हूं।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है सुश्री मंजू वशिष्ठ जीकी पुस्तक – “हेलो पेरेंट्स (लालन पालन)” पर चर्चा।
☆ माता पिता को छोटी बड़ी सही सलाह… विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
बढ़ते एकल परिवार, माता पिता दोनो की नौकरी, बच्चों की परवरिश के प्रति शिक्षित पैरेंट्स में अति सतर्कता आदि वे कारण हैं जिनके चलते शायद प्रसिद्ध रेकी ग्रेँड मास्टर मंजू वशिष्ठ को इस किताब को लिखने की प्रेरणा हुई। विदेशों में तो स्कूलों में बच्चे पिस्तौल चलाने जैसे अपराध करते दिखते हैं। इंटरनेट और टी वी पर हिंसा तथा बच्चों की इस सब तक निर्बाध पहुंच ने तथा सायबर मोबाईल गेम्स ने बच्चों की परवरिश के प्रति सजगता जरूरी कर दी है। पब्जी जैसे गेम्स से बच्चे हत्या, आत्महत्या तक करते पाये जा रहे हैं। वर्तमान स्कूली शिक्षा में बेहिसाब प्रतियोगी दौड़ ने बच्चों को मानसिक दबाव में ला दिया है। इस सारे परिवेश ने प्रस्तुत पुस्तक को बहुत प्रासंगिक कर दिया है। पुस्तक में ढ़ेरों ऐसी छोटी छोटी बातें सरल भाषा में चैप्टर्स के रूप में लिखी गई हैं जिनका हमें ज्ञान तो है पर ध्यान नहीं। उदाहरण के रूप में बच्चों को समय दें माता पिता, गलती पर पनिशमेंट जरूरी पर बच्चे को पता होना चाहिये क्यों ?, स्क्रीन टाइम का निर्धारण, मोबाईल का झुनझुना बच्चों को देना बंद करें, बच्चे क्यों बोलते हें झूठ, जैसा खाओ अन्न वैसा रहेगा मन, गलती मानने में हिचक न हो, धन्यवाद कहने में कंजूसी न करें, आचरण से सिखायें, बच्चों की गलतियों पर पर्दा न डालें, किशोरावस्था की विशेष बातें आदि आदि चैप्टर्स में लेखिका ने बहुत सामान्य किन्तु उपयोगी परामर्श दिया है। किताब रीडर्स फ्रेंडली प्रिंत में सचित्र है। संस्कृत सूक्तियां, कवितायें , प्रचलित कहानियां और उदाहरणो के माध्यम से सामान्य जनो के लिये अपनी बात
बताने में रचनाकार सफल रही है। नये एकाकी माता पिता शिशु की छोटी सी बीमारी से भी घबरा जाते हैं, उनके लिये बच्चों के सामान्य रोग और उन्हें जानने के तरीके पर पूरा एक बिन्दुवार चैप्टर ही है। पैरेंट्स के झगड़ों का बच्चो पर प्रभाव होता है इससे बचाव आवश्यक है। जहाँ एकल परिवार में बच्चों की परवरिश की कठिनाईयां हैं वहीं संयुक्त परिवार में भी कई बार मनमाफिक पेरेंटिंग नहीं हो पाती उस पर भी एक चैप्टर में सविस्तार चर्चा है। कुल मिलाकर अच्ची पेरेंटिंग एक अनिवार्य निवेश होती है। यह समझना सबके लिये आवश्यक है। मेरी दृष्टि में यदि प्रत्येक दम्पति समाज को सुसंस्कृत बच्चे ही दे दें तो समाज से अपराध, महिला उत्पीड़न, स्वयमेव कम हो जाये। इस दिशा में यह पुस्तक पाठको का मार्ग दर्शन करने में सफल है। नव दम्पति को उपहार स्वरूप दिये जाने योग्य किताब है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार – डा महेंद्र अग्रवाल जी के व्यंग्य संग्रह – “व्यंग्य के अखाड़े और बाज” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 149 ☆
☆ “व्यंग्य के अखाड़े और बाज” – व्यंग्यकार – डा महेंद्र अग्रवाल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
कृति चर्चा
व्यंग्य संग्रह – व्यंग्य के अखाड़े और बाज
व्यंग्यकार – डा महेंद्र अग्रवाल
प्रकाशक – सर्व प्रिय प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य – १५० रु, पृष्ठ – १२४
☆ पाठक को कचोटती उसका भोगा हुआ दिखाती रचनायें… विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
डा महेंद्र अग्रवाल व्यंग्य में छोटे शहर से बड़ा धमाका करते व्यंग्यकार हैं। संग्रह के अंतिम आलेख “व्यंग्य के अखाड़े और उनके बाज” में व्यंग्य के क्षेत्र में वर्तमान गुटबाजी पर कटाक्ष करते हुये लेखक ने लिखा है कि… ज्यादातर खेमे या गिरोह बड़े शहरों में ही ज्यादा पनपते हैं… यदि किसी दूकान का मालिक सम्मानो का प्रायोजक हो तो उसकी कीमत बढ़ जाती है… ऐसे परिवेश में डा महेंद्र अग्रवाल गुट निरपेक्ष तटस्थ भाव से बस विशुद्ध व्यंग्य के पक्ष में खड़े हैं। उन्होंने संपादन भी किया है, आकाशवाणी और टी वी पर भी रचनापाठ किया है। व्यंग्य के सिवाय गजलें भी लिखी हैं। म प्र साहित्य अकादमी सहित अनेकानेक संस्थाओ से सम्मान के रूप में उन्हें साहित्यिक स्वीकार्यता भी मिली है।
कम ही लेखक होते हैं जिन्हें उनके जीवन काल में ही निर्विवाद रूप से सर्व स्वीकार किया गया है। अपने सहज स्वभाव के चलते गिरीश पंकज को यह श्रेय प्राप्त है। उन्होंने इस किताब की भूमिका लिखी है। वे लिखते हैं कि आज जब ऐसा बहुत कुछ लिखा जा रहा है जिसे व्यंग्य के खाते में नहीँ डाला जा सकता, तब इससंग्रह के व्यंग्य, मानकों पर खरी रचनायें हैं। संग्रह की सारी रचनायें पढ़ने के बाद मैं गिरीश जी से इस बात पर असहमत हूं कि इस संग्रह की रचनायें कथा शैली में हैं। यह सही है कि सेवाराम बनाम राजाराम जैसी कुछ रचनायें जरूर कथा शैली में गढ़ी गई हैं। स्वयं एक व्यंग्यकार होने के नाते मैं कह सकता हूं कि शुद्ध व्यंग्य लेखों में कटाक्ष के संग लक्ष्य मनतव्य के निहितार्थ पाठकों तक संप्रेषित करना कथा व्यंग्य की वनिस्पद ज्यादा चैलेंजिंग होता है, जिसे डा महेंद्र अग्रवाल ने बखूबी निभाया है। किताब में लेखकीय प्राक्थन को ही उन्होंने पूर्वालाप शीर्षक देकर व्यंग्य के तीर चलाने शुरू कर दिये हैं। पराई शवयात्रा में, शिथिलांग शिविर एक नवाचार, किस्सा ए चोट, आदि व्यंग्य लेख अनुभूत घटनाओ के कटाक्षो से भरे रोचक पठनीय वर्णन हैं। इन्हें पढ़कर पाठक को रचना कचोटती है। उसे अहसास होता है कि अरे यह तो उसका भी भोगा हुआ है जिसे पुनः दिखाती रचनायें पढ़कर पाठक आनंदित होता है। लक्ष्य विसंगति पर प्रहार कर डा महेंद्र अग्रवाल समाज के प्रति अपने लेखकीय दायित्व का निर्वाह करते हैं। पर मेरी चिंता यह है कि आज व्यंग्य की ऐसी रचनाओ को पढ़कर हमारा मट्ठर समाज त्रुटियों में परिष्कार की जगह मजे लेकर रचना परे कर फिर उसी सब मे निरत बन रहता है।
विभिन्न व्यंग्य लेखों से कुछ तीखे शब्द बाण जिन्हें मैने पढ़ते हुये लाल स्याही से अंडर लाइन किया है, उधृत हैं… लेखन के सम्मान और लेखक की प्रसिद्धि के लिये लेखक का समय रहते मरना बेहद जरूरी है।
…. जिन वक्तव्य वीरों के मुंह में खुजली थी वे शोक सभा की तैयारियों में लग गये।
… अहो ग्राम्य जीवन भी क्या है ? कहने वाले कवि की आत्मा अभी धरती पर उतरती तो उनके लिये निर्धारित भोज स्थल पर गतिविधियों को देखकर विस्मित हो जाती।
… चेनलों की देखने लायक प्रतिस्पर्धा में चीखने चिल्लाने में कोई किसी से पीछे नहीं है, सभी एक दूसरे से आगे बढ़ते जा रहे हैं।
पुस्तक में संग्रहित सभी बाईस लेखों के लगभग प्रत्येक पेराग्राफ में कम से कम एक ऐसे ही व्यंग्य चातुर्य का संदर्भ सहित साहित्यिक रसास्वादन करने के लिये आपको व्यंग्य के अखाड़े और बाज पढ़ने की सलाह है। शीर्षक में अखाड़ेबाज को विग्रहित किया गया है यही शाब्दिक कलाबाजी अंदर लेखों में भी आपको प्रभावित करेगी इसकी गारंटी है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री सत्यकेतु सांकृतजी द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका “समीक्षा वार्ता” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 148 ☆
☆ “समीक्षा वार्ता” – संपादक – श्री सत्यकेतु सांकृत ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
अव्यवसायिक साहित्य पत्रिका “समीक्षा वार्ता”१९६७ से २०१० तक स्व गोपाल राय के संपादन में लगातार छपती रही। लघु अनियतकालीन अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिकाओ का साहित्यिक अवदान महत्वपूर्ण रहा है। वर्तमान परिदृश्य में वास्तव में ऐसी पत्रिकाओं का प्रकाशन एक जुनून ही होता है। जिसमें आर्थिक प्रबंधन, पत्रिका का स्तरीय कलेवर जुटाना, संपादन, प्रूफ रीडिंग, प्रकाशन से लेकर डिस्पैच तक सब कुछ महज दो चार हाथों ही होता है। एक अंक की बारात बिदा होते ही अगले अंक की तैयारी शुरू हो जाती है। कम ही लोग खरीद कर पढ़ते हैं। डाक व्यय अतिरिक्त लगता है, स्वनाम धन्य रचनाकार तक मिलने की सूचना या प्रतिक्रिया भी नहीं देते। मैं यह सब कर चुका हूं अतः अंतर्कथा और समर्पित प्रकाशक के दर्द से वाकिफ हूं। २०२२ में समीक्षा वार्ता को पुनः मूर्त स्वरूप दिया है वर्तमान संपादक सत्यकेतु जी और रागिनी सांकृत जी ने। नये हाथों में समीक्षा वार्ता के इस नये अभियान को स्व गोपाल राय के सुदीर्घ प्रकाशन से प्रतिबद्ध दिशा, विषय वस्तु और साख मिली हुई है। लैटर कम्पोजिंग प्रेस से १९६७ में प्रारंभ हुई तत्कालीन पत्रिका को यह सीधे ही उडान के दूसरे चरण में ले जाता प्लस पाइंट है।
संपादकीय में दार्शनिक अंदाज में सत्यकेतु जी ने बिलकुल सही लिखा है ” भारतीय जीवन का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है जो मानस में मौजूद नहीं है। राम सर्वत्र हैं। अभिवादन में राम, दुख में हे राम, घृणा में राम राम, और मृत्यु में राम नाम सत्य है। प्रसंगवश मैं इसमें एक आंखों देखी घटना जोड़ना चाहता हूं। हुआ यह था कि एक सार्वजनिक परिवहन में एक ग्रामीण युवा लडकी मुझसे अगली सीट पर बैठी थी, उसके बाजू में बैठे लडके ने उसके साथ कुछ अभद्र हरकत करने का यत्न किया तो उस ग्रामीणा ने जोर से केवल “राम राम” कहा, सबका ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हो गया तथा लडका स्वतः दूरी बनाकर शांत बैठ गया। मैने सोचा यही घटना किसी उसकी जगह किसी अन्य शहरी लडकी के साथ घटती या वह राम नाम का सहारा लेने की जगह कोई अन्य प्रतिरोध करती तो बात का बतंगड़ बनते देर न लगती। मतलब राम का नाम सदा सुखदायी।
इस अंक में विद्वान समीक्षको द्वारा की गई सोलह पुस्तकों की गंभीर विशद सामयिक समीक्षायें सम्मलित हैं। पत्रिका के कंटेंट से अपने पाठको को परिचित करवाना ठीक समझता हूं। ‘जयशंकर प्रसाद महानता के आयाम’ पर लालचंद राम का आलेख है। सवालों के रू-ब-रू शीर्षक से सूर्यनाथ ने, भाषा केंद्रित आलोचना। . बली सिंह, दुनिया के व्याकरण के वरअक्स एक रचनात्मक पहल ‘लोकतंत्र और धूमिल ‘ रमेश तिवारी के आलेख पठनीय है। नंगे पाँव जो धूप में चले, शाहीन ने लिखा है। धर्म और अधर्म की ‘राजनीति’ पर भावना ने, ‘आम्रपाली गावा’ के बहाने इतिहास की समीक्षा गोविन्द शर्मा का लेख है। सूर्यप्रकाश जी ने मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियाँ, जीवन का सुंदर विज्ञान है: इला की कविता किरण श्रीवास्तव का आलेख लिया गया है। लघु पत्रिकाओं के बहाने हिंदी साहित्य की पड़ताल, आसिफ खान ने सविस्तार लिखा है। आउशवित्ज : एक प्रेम कथा लिखा है जय कौशल ने।
ऑपरेशन वस्तर प्रेम और जंग (एक रोमांचक उपन्यास) शीर्षक से रश्मि रानी ने लिखा है। चुप्पियों में आलाप : देह की रागात्मकता और वर्जनाओं से छटपटाहट का व्याकुल उद्गार, जितेन्द्र विसारिया। गहरी संवेदनाओं का दस्तावेज लिखा है प्रियंका भाकुनी ने। कालिंजर : भाषा और शिल्प का उत्सव लेख लक्ष्मी विश्नोई का है। कीड़ा जो पहाड़ पर जड़ित है शीर्षक है मो. वसीम के लेख हैं। ललित गर्ग ने पड़ताल की है तितली है खामोश दोहा संकलन की आलेख पुरातन और आधुनिक समय का समन्वय में।
समीक्षा वार्ता 5764/5, न्यू चन्द्रावल जवाहर नगर, दिल्ली-110007 दूरभाष : 7217610640 से प्रकाशित होती है। लेखक या प्रकाशन ‘समीक्षा वार्ता’ के संपादकीय कार्यालय पर पुस्तक की दो प्रतियाँ भेज सकते हैं। बेहतर होता कि प्रत्येक लेख के साथ एक बाक्स में किताब के विवरण मूल्य प्राप्ति स्थल, किताब की और लेकक तथा समीक्षक के फोटो आदि भी छापे जाते। पत्रिका इंटरनेट पर उपलब्ध करवाई जानी चाहिये जिससे स्थाई संदर्भ साबित हो। पर निर्विवाद रूप से इस स्तुत्य साहित्यिक प्रयास के लिये सत्यकेतु सांस्कृत का अभिनंदन बनता है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री अरविंद तिवारी जी द्वारा रचित व्यंग्य संग्रह “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” पर पुस्तक चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 148 ☆
☆ “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” – लेखक – श्री अरविंद तिवारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक
अरविंद तिवारी
इंडिया नेटबुक्स, नोयडा
मूल्य २२५ रु
पृष्ठ १२८
संस्करण २०२३
☆ “अरविंद जी भी परसाई की ही टीम के ध्वज वाहक हैं” – विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
अरविंद तिवारी तनिष्क के स्वर्ण आभूषणो के शो रूम में आयोजित समारोह में अपनी हास्य-व्यंग्य रचनाओं से श्रोताओं को प्रभावित कर चुके हैं। दरअसल उनकी रचनायें व्यंग्य की कसौटी पर किताबों के शोरूम में सोने सी खरी उतरती हैं। वे बहुविध लेखक हैं व्यंग्य के सिवाय उन्होंने कविता और उपन्यास भी लिखे हैं। मैं उन्हें निरंतर पढ़ता रहा हूं, उनकी कुछ किताबों पर पहले भी लिख चुका हूं। उन्हें पढ़ना भाता है क्योंकि वे उबाऊ और गरिष्ठ लेखन से परहेज करते हैं। शिक्षा विभाग के परिवेश में रहने से वे जानते हैं कि अपनी बात रोचक तरह से कैसे संप्रेषित की जानी चाहिये। परसाई ने लिखा है ” महज दरवाजा खटखटाने से जो मिलता है वह अक्सर अन्याय होता है, दरवाजा तोड़े बिना न्याय नहीं मिलता “, अरविंद तिवारी की व्यंग्य रचनायें दरवाजा तोड़ कथ्य उजागर करने वाली हैं।
लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक किताब के शीर्षक व्यंग्य से ही उधृत कर रहा हूं ” हमारे देश में लोकतंत्र है, (यदि नहीं है तो संविधान के अनुसार होना चाहिये )। …. लोक साहित्य का हिस्सा रहा है, यह संवेदना से भरपूर है। सियासत इस लोक से वह हिस्सा निकालकर तंत्र में जोड़ लेती है जिसमें संवेदना नहीं है। … तंत्र पूरी तरह वैज्ञानिक नियमों से चलता है। …बहरहाल जब तब लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है, जब कहीं चुनाव आता है तो सबसे पहले लोकतंत्र को खतरा पैदा होता है। इसी खतरे के बरबक्स नेता दल बदलते हैं। … नेता जी के चुनाव जीतते ही लोकतंत्र से खतरा टल जाता है। …” लोकतंत्र पर हर व्यंग्यकार ने भरपूर लिखा है, लगातार लिख ही रहे हैं। राजनैतिक व्यंग्यों की श्रंखला में में लोकतंत्र ही केंद्रित विषय वस्तु होतेा है। इसका कारण यह है कि लोकतंत्र जहां एक अनिवार्य आदर्श शासन व्यवस्था है, वहीं वह विसंगतियों से लबरेज है। मनुष्य का चारित्र दोहरा है, वह आदर्श की बातें तो करता है, पर उसे आदर्श के बंधन पसंद नहीं है। परसाई ने लोकतंत्र की नौटंकी, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, लोकतंत्र पर हावी भीड़ तंत्र, आदि आदि कालजयी रचनायें लिखी हैं। अरविंद तिवारी की रचना “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” भी बिल्कुल उसी श्रेणि का उत्कृष्ट व्यंग्य है, यह ऐसा विषय है जिस पर जाने कितना लिखा जा सकता था किन्तु इस व्यंग्य में सीमित शब्दों में मारक चोट करने में अरविंद जी सफल रहे हैं।
किताब की भूमिका प्रेम जनमेजय जी ने लिखी है। उन्होंने “व्यंग्य के समकाल में ” शीर्षक से संग्रह के चुनिंदा व्यंग्य लेखों की सविस्तार चर्चा की है। वे व्यंग्य तो निराकार है के बहाने बिल्कुल सही लिखते हैं कि ” इन दिनों जुट जाने से व्यंग्य लिख जाता है। परसाई और शरद जोशी के जमाने में जुट जाने की सुविधा नहीं थी। जिसने ठाना वह इन दिनों व्यंग्यकार बन जाता है उसका सामना भले ही विसंगतियों से न हुआ हो। विट, वक्रोक्ति, आइरनी, ह्युमर की जरूरत नहीं होती। ” पर इस संग्रह के व्यंग्य लेखों में विट, वक्रोक्ति, आइरनी, ह्युमर सब मिलता है। समुचित मात्रा में पाठक तक कथ्य संप्रेषित करने के लिये जहां जो, जितना चाहिये, उतना विषय वस्तु के अनुरूप, मिलता है। अरविंद जी विधा पारंगत हैं।
संग्रह में राजनीति केंद्रित व्यंग्य नेता जी की तीर्थ यात्रा, चुनावी दुश्वारियां और हम, सियासत भी फर्जी विधवा है, लोकतंत्र और गणतंत्र की पिटाई, बाढ़ का हवा हवाई सर्वे, खादी का कारोबार, भैया जी को टिकिट चाहिये, गणतंत्र दिवस और कबूतर, आदि के सिवाय स्वयं लेखको की मानसिकता तथा साहित्य जगत की विसंगतियों पर लिखे गये व्यंग्य लेखों की बहुतायत है। उदाहरण स्वरूप संग्रह का पहला ही लेख गुमशुदा पाठक की तलाश है। वे लिखते हैं “इन दिनों साहित्य की दीवारों पर पाठकों की गुमशुदगी के इश्तिहार चस्पा हैं ” …. “जब तक पाठक से पता नहीं चलता तब तक यह पता लगाना मुश्किल है कि किताब कैसी है। ” मुझे इन व्यंग्य लेखों को पढ़कर आशा है कि अब जब साहित्य प्रकाशन जगत में प्रिंट आन डिमांड की सुविधा वाली प्रिंटिग मशीने छाई हुई हैं और १० किताबों के संस्करण छप रहे हैं, पाठको के बीच “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” लोकप्रिय साबित होगी। हिन्दी के पिटबुल डाग, सर इसे पढ़ने की इच्छा है, अब रायल्टी की कमी नहीं, साहित्य का ड्रोन युग, छपने के लिये सेटिंग, आपदा में टिप्पणी लिखने के अवसर, आ गई आ गई, उपन्यास मोटा बनाने के नुस्खे, वगैरह लेखकीय परिवेश के व्यंग्य हैं। संग्रह में समसामयिक घटनाओ पर लिखे गये कुछ व्यंग्य सामाजिक विषयों पर भी हैं। मसलन उनके कुत्ते से प्रेम, रुपये को धकियाता डालर, एट होम में शर्मसार शर्म, आदि मजेदार व्यंग्य हैं। ” डी एम साहब को पता नहीं होता कि उनके घर की किचन का खर्च कौन चलाता है ” … ऐसे सूक्ष्म आबजर्वेशन और उन्हेंसही मोके पर उजागर करने की शैली तिवारी जी की लेखकीय विशेषता तथा बृहद अनुभव का परिणाम है। संग्रह के प्रायः व्यंग्य नपी तुली शब्द सीमा में हैं, संभवतः मूल रूप से किसी कालम के लिये लिखे गये रहे होंगे जिन्हें अब किताब की शक्ल में संजोने का अच्छा कार्य इण्डिया नेटबुक्स ने कर डाला है। आफ्रीका से लाये गये चीतों पर अहा चीतामय देश हमारा संग्रह का अंतिम लेख है। अरविंद जी लिखते हैं ” उस दिन बहस करते हुये एक दूसरे से कुत्तों की तरह भिड़ गये ” … ” शेर से जब चीता टकराता है तो वह घायल हुये बिना नहीं रहता “।
परसाई की चिंता थी समाज की सत्ता की साहित्य की विसंगतियां। ये ही विसंगतियां इस संग्रह में भी मुखरित हैं। इस तरह व्यंग्य की रिले रेस में अरविंद जी भी परसाई की ही टीम के ध्वज वाहक हैं। उन्होने लिखा है “अपने को बुद्धिजीवी कहने वाले लोग गलत जगह वोट डालेंगे तो चुनावों में शुचिता कैसे आयेगी ? किताब पढ़िये, समझिये कुछ करिये जिससे अगली पीढ़ी के व्यंग्य के विषयों में समीक्षकों को बदलाव मिल सकें।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री राजेंद्र नागदेव जी द्वारा रचित काव्य संग्रह “धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर” पर पुस्तक चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 147 ☆
☆ “धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर” – लेखक – श्री राजेंद्र नागदेव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर
राजेंद्र नागदेव
बोधि प्रकाशन, जयपुर
मूल्य १५० रु
पृष्ठ १००
राजेंद्र नागदेव एक साथ ही कवि, चित्रकार और पेशे से वास्तुकार हैं. वे संवेदना के धनी रचनाकार हैं. १९९९ में उनकी पहली पुस्तक सदी के इन अंतिम दिनो में, प्रकाशित हुई थी. उसके बाद से दो एक वर्षो के अंतराल से निरंतर उनके काव्य संग्रह पढ़ने मिलते रहे हैं. उन्होने यात्रा वृत भी लिखा है. वे नई कविता के स्थापित परिपक्व कवि हैं. हमारे समय की राजनैतिक तथा सामाजिक स्थितियों की विवशता से हम में से प्रत्येक अंतर्मन से क्षुब्ध है. जो राजेंद्र नागदेव जी जैसे सक्षम शब्द सारथी हैं, हमारे वे सहयात्री कागजों पर अपने मन की पीड़ा उड़ेल लेते हैं. राहत इंदौरी का एक शेर है
” धूप बहुत है, मौसम ! जल, थल भेजो न. बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न “
अपने हिस्से के बादल की तलाश में धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर भटकते “यायावर” को ये कवितायें किंचित सुकून देती हैं. मन का पंखी अंदर की दुनियां में बेआवाज निरंतर बोलता रहता है. “स्मृतियां कभी मरती नहीं”, लम्बी अच्छी कविता है. सभी ३८ कवितायें चुनिंदा हैं. कवि की अभिव्यक्ति का भाव पक्ष प्रबल और अनुभव जन्य है. उनका शब्द संसार सरल पर बड़ा है. कविताओ में टांक टांक कर शब्द नपे तुले गुंथे हुये हैं, जिन्हें विस्थापित नहीं किया जा सकता. एक छोटी कविता है जिज्ञासा. . . ” कुछ शब्द पड़े हैं कागज पर अस्त व्यस्त, क्या कोई कविता निकली थी यहां से “. संभवतः कल के समय में कागज पर पड़े ये अस्त व्यस्त शब्द भी गुम हो जाने को हैं, क्योंकि मेरे जैसे लेखक अब सीधे कम्प्यूटर पर ही लिख रहे हैं, मेरा हाथ का लिखा ढ़ूढ़ते रह जायेगा समय. वो स्कूल कालेज के दिन अब स्मृति कोष में ही हैं, जब एक रात में उपन्यास चट कर जाता था और रजिस्टर पर उसके नोट्स भी लेता था स्याही वाली कलम से.
संवेदना हीन होते समाज में लोग मोबाईल पर रिकार्डिंग तो करते हैं, किन्तु मदद को आगे नहीं आते, हाल ही दिल्ली में चलती सड़क किनारे एक युवक द्वारा कथित प्रेमिका की पत्थर मार मार कर की गई हत्या का स्मरण हो आया जब राजेंद्र जी की कविता अस्पताल के बाहर की ये पंक्तियां पढ़ी
” पांच से एक साथ प्राणो की अकेली लड़ाई. . . . . मरे हुये पानी से भरी, कई जोड़ी आंखें हैं आस पास, बिल्कुल मौन. . . . किसी मन में खरौंच तक नहीं, आदमी जब मरेगा, तब मरेगा, पत्थर सा निर्विकार खड़ा हर शख्स यहां पहले ही मर गया है. “
राजेंद्र नागदेव की इन कविताओ का साहित्यिक आस्वासादन लेना हो तो खुद आराम से पढ़ियेगा. मैं कुछ शीर्षक बता कर आपकी उत्सुकता जगा देता हूं. . . संवाद, बस्ती पर बुलडोजर, दिन कुछ रेखा चित्र, मेरे अंदर समुद्र, मारा गया आदमी, अंधे की लाठी, कवि और कविता, सफर, लहूलुहान पगडंडियां, अतीतजीवी, मशीन पर लड़का, जा रहा है साल, कुहासे भरी दुनियां, हिरण जीवन, प्रायश्चित, स्टूडियो में बिल्ली, तश्तरी में टुकड़ा, कोलाज का आत्मकथ्य, टुकड़ों में बंटा आदमी, अंतिम समय में, जैसे कहीं कुछ नहीं हुआ, उत्सव के खण्डहर संग्रह की अंतिम कविता है. मुझे तो हर कविता में ढ़ेरों बिम्ब मिले जो मेरे देखे हुये किन्तु जीवन की आपाधापी में अनदेखे रह गये थे. उन पलों के संवेदना चित्र मैंने इन कविताओ में मजे लेकर जी है.
सामान्यतः किताबों में नामी लेखको की बड़ी बड़ी भूमिकायें होती हैं, पर धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर में सीधे कविताओ के जरिये ही पाठक तक पहुंचने का प्रयास है. बोधि प्रकाशन, जयपुर से मायामृग जी कम कीमत में चुनिंदा साहित्य प्रकाशित कर रहे है, उन्होंने राजेंद्र जी की यह किताब छापी है, यह संस्तुति ही जानकार पाठक के लिये पर्याप्त है. खरीदिये, पढ़िये और वैचारिक पीड़ा में साहित्यिक आनंद खोजिये, अर्थहीन होते सामाजिक मूल्यों की किंचित पुनर्स्थापना पाठकों के मन में भी हो तो कवि की लेखनी सोद्देश्य सिद्ध होगी.
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री प्रभाशंकर उपाध्यायजी द्वारा रचित उपन्यास “बहेलिया” पर पुस्तक चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 146 ☆
☆ “बहेलिया” – लेखक – श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆
उपन्यास – बहेलिया
उपन्यासकार – श्री प्रभाशंकर उपाध्याय
प्रकाशक – इंक पब्लिकेशन, प्रयागराज
पृष्ठ – २१०, मूल्य – २५० रु
मुंशी प्रेमचंद की कहानी बैंक का दिवाला पढ़ी थी, मुजतबा हुसैन की कहानी स्विस बैंक में खाता हमारा पाडकास्ट में सुनी पर बैंकिंग पट दृश्य पर यह पहला ही उपन्यास पढ़ने मिला।
“वक्त ऐसा बेदर्द बहेलिया है जो राजा को रंक बना देता है। मशीनीकरण के बेरहम बहेलिया और इंसानी संवेदनहीनता ने एक जिन्दा दिल जीवट व्यक्ति का शिकार कर लिया। ” ये संवेदना से भरी पंक्तियां प्रभाशंकर उपाध्याय के उपन्यास बहेलिया से ही उधृत हैं, जो उपन्यास के नामकरण को रेखांकित करती हैं। आज हमारे आपके हर हाथ में मोबाईल है, और टेक्नालाजी की तरक्की ऐसी हुई है कि हर स्मार्ट मोबाईल में कई कई बैंक एक छोटे से ऐप में समाये हुये हैं। इलेक्ट्रानिक बैंकिंग के चलते अब सायबर अपराधी किसी की जेब में ब्लेड मारकर थोड़ा बहुत रुपया नहीं मारते वे सुदूर अंयत्र कहीं बैठे बैठे एनी डेस्क एप से मोबाईल हैक करके या किसी के भोले विश्वास की हत्या कर ओटीपी फ्राड करते हैं और पलक झपकते सारा बैंक अकाउंट ही खाली कर देते हैं।
श्री प्रभाशंकर उपाध्याय
उपन्यास बहेलिया बैंकिंग व्यवस्था में लेजर के पु्थन्नो से कम्प्यूटर में ट्रांजीशन के दौर के बैंक परिवेश के ताने बाने पर रचा गया रोचक उपन्यास है। सत्य घटनाओ के कहानीनुमा छोटे छोटे दृश्य कथानक पाठक को बांधे रखने में सक्षम हैं। कथानक का नायक सौरभ, एक बैंक कर्मी है। जो लोग लेखक प्रभाशंकर जी को जानते हैं कि वे स्वयं एक बैंक कर्मी रहे हैं वे सौरभ के रूप में उन्हें कथानक के हर पृष्ठ पर उपस्थित ढ़ूंढ़ निकालेंगे। किन्तु उपन्यास का वास्तविक नायक सौरभ नहीं हरिहर शर्मा उर्फ हरिहर जानी कामरेड उर्फ बड़े बाबू हैं। वे यूनियन लीडर भी हैं, वे साधू वेश में भी मिलते हैं। विभिन्न वेशों में वे जिंदादिल और समावेशी प्रकृति के अच्छे इंसान हैं। वे “उलझा है तो सुलझा देंगे ” वाले मूड में समस्याओ को हल करने के लिये साहब की मेज पर डंक निकले रेंगते बिच्छू को छोड़ने का माद्दा रखते हैं। उनका प्रिंसिपल है कि ” उग्र प्रदर्शन से ज्यादा ताकत मौन विरोध में होती है “। किंतु बदलती बैंकिंग व्यवस्था के चलते तरक्की का लड्डू खाने के बाद वसूली का दायित्व उनकी असामयिक मृत्यु का कारण बनता है, जिसे लेखक ने बहेलिये द्वारा उनके शिकार के रूप में निरूपित करते हुये उपन्यास का मार्मिक अंत किया है।
जैन साहब ब्रांच मैनेजर, गोयल, चड्ढ़ा, बैंक प्यून, हार्ड नट विथ साफ्ट हार्ट वाले सोमानी सर, अंबालाल, मिस्टर गुप्ता, लढ़ानी जी आदि पात्रो के माध्यम से उपन्यास में राजस्थान में बैंक की कार्यप्रणाली के आंखो देखे दृश्य शब्दो चित्रो में पढ़ने मिलते हैं। कार्यस्थलो पर महिला कर्मियों की सुरक्षा के लिये अब तरह तरह के कानून बन गये हैं, शिकायत और समस्याओ के निराकरण के लिये एस ओ पी बन गई हैं, पर उपन्यास के काल क्रम में महिला पात्र नसरीन उपन्यास में एक बैंक कर्मी के रूप में उपस्थित है। उसके माध्यम से तत्कालीन महिला कर्मियों की रोजमर्रा की आई टीजिंग या शाब्दिक फब्तियों से होती हेरासमेंट जैसी दुश्वारियों और बैंक मैनेजर द्वारा फ्रंट फुट पर आकर उसका हल भी उपन्यास में वर्णित है। आज सहकर्मियों या मातहत कर्मचारी के लिये इतने स्टैंड लेने वाले अधिकारी बिरले ही मिलते हैं। उपन्यास में वर्णित एक अन्य घटना में काउंटर क्लर्क से बेवजह उलझते किसी उपभोक्ता को स्मोक सेंसर को वायस रिकार्डर बताकर मामला सुलझाने की घटना भी मैनेजर की त्वरित बुद्धि की परिचायक है।
बड़े पदों से सेवा निवृत लोगों के पास हमेशा ढ़ेर सारे अनुभव होते हैं। जिन्हें वे आत्मकथा या अन्य तरीको से लिपिबद्ध करते हैं। गोपनीयता कानून से बंधे हुये लोग भी कुछ अरसे बाद अपने कार्यकाल के बड़े बड़े खुलासे करते हैं। बहेलिया में प्रभाशंकर जी ने बैंकिंग की नौकरी के उनके अनुभव उजागर किये हैं। मेरा स्वयं का व्यंग्य उपन्यास “जस्ट टू परसेंट” बड़े दिनों से लेखन क्रम में है। हाल ही केंद्र सरकार ने पेंशन कानून में संशोधन राजपत्र में प्रकाशित किया है, जिसके बाद शायद अब सेवानिवृति के उपरांत नौकरी के अनुभवों पर ज्यादा न लिखा जा सके।
उपन्यास में संस्कृत की उक्ति सहित उर्दू और अंग्रेजी का भी भरपूर उपयोग मिलता है। संवादों से बुने इस उपन्यास में रोब झाड़ने के लिये परिचय देते हुये पात्र अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं, या अधिकारी अपने संवादों में हिन्दी अंग्रेजी मिक्स भाषा का इस्तेमाल करते दिखते हैं। उर्दू के शेर भी पुस्तक में मिलते हैं ” बदलता है, रोज शबे मंजर मिरे आगे ” या ” दुनियां ने तजुर्बातओ हवादिस की शक्ल में जो कुछ मुझे दिया वही लौटा रहा हूं मै “। उपन्यास के प्रारंभ में एक अनुक्रमणिका दिये जाने की पूरी गुंजाइश है, क्योंकि कहानी को घटनाओ के आधार पर चैप्टर्स में बांटा तो गया है किन्तु चैप्टर्स की सूची न होने के कारण पाठक सीधे वांछित चेप्टर खोलने में असमर्थ होता है। बुद्धिमान आदमी सदा एक पैर से चलता है, न राज न काज फिर भी राजा बाबू, उभरना एक जांबाज यूनियन लीडर का, एक कौआ मारकर टांग दो तो, भूले बिसरे भेड़ खायी, अब खायी तो राम दुहाई, सारे सांप तो मैने ही पकड़वा दिये थे, आर्डर इज आर्डर इत्यादि रोचक उपशीर्षक स्वयं ही पाठक को आकर्षित करते हैं।
अटैची करती ब्रांच मैनेजरी पढ़कर मुझे याद आया, जब से हमारे कार्यालय में बायो मेट्रिक अटेंडेंस शुरू हुई, मेरे अधीनस्थ एक अधिकारी ठीक समय पर आफिस पहुंचते, सबसे हलो हाय करते अपनी कुर्सी पर अपना कोट टांगते और स्कूटर पर किक मारकर जाने कहां फुर्र हो जाते थे, बुलवाने पर उनका चपरासी रटा हुआ उत्तर देता, अभी तो साहब यहीं थे आते ही होंगे, उनका कोट तो टंगा हुआ है। कहना न होगा कि मोबाईल के जमाने में सूचना उन तक पहुंच जाती और या तो जल्दी ही वे स्वयं प्रगट हो जाते या उनका फोन आ जाता। यूं मुझे इस संदर्भ में जसपाल भट्टी का एक वीडीयो व्यंग्य याद आता है जिसमें वे कहते हैं कि सी एम डी के केबिन में एक तोता बैठा दिया जाना चाहिये जो हर बात पर यही कहे कि कमेटी बना दो, मीटिंग बुला लो। सरकारी तंत्र में यही तो हो रहा है।
बैंकिंग लक्ष्मी की प्रतीक है अतः बैंक में प्रवेश के समय जूते उतारना पुराने लोगों की संस्कृति में था। भारतीय वित्त वर्ष दीपावली से दीपावली का होता है, सेठ साहूकार तब लक्ष्मी पूजा के साथ अपने नये बही खाते प्रारंभ करते हैं। बैंकिंग में वित्त वर्ष अप्रैल से मार्च का होता है। बीच में इसे कैलेंडर वर्ष में जनवरी से दिसम्बर बदलने की चर्चायें भी हुई थीं। बैंक हर किसी की आवश्यकता है, जनधन खातों से तो अब गरीब से गरीब व्यक्ति भी बैंक से जुड़ चुका है। बेंकिंग के प्रत्येक के कुछ न कुछ अपने अनुभव हैं। बैंक कर्मियों पर काम का भारी दबाव है। उपभोक्ता असंतोष हर उस सर्विस सेक्टर की समस्या है जहां पब्लिक विंडो वर्क है। कई बार लगता है कि ऐसी नौकरियां थैंकलेस होती हैं। एक वाकया याद आता है, तब मैं इंजीनियरिंग का छात्र था। हमारे कालेज कैंपस में स्टेट बैंक ने एक कमरे में एक क्लर्क के साथ एक्सटेंशन काउंटर खोल रखा था। मुझे स्मरण है अस्सी के दशक में तब हमारा मैस बिल ९६ रु मासिक आता था। हमारे वार्डन ने मैस बिल एकत्रित करने के लिये बैंक में खाता खुलवा दिया, अब छात्रों की लम्बी कतार रुपये जमा करने के लिये बैंक में लगने लगी, नियमानुसार बैंक रुपये लेने से मना भी नहीं कर सकता था और यदि सबसे रुपये जमा करे तो अकेला व्यक्ति सैकड़ो लड़को के बिल आखिर कैसे ले ? अंततोगत्वा बात प्रिंसीपल तक पहुंची और तब कहीं होस्टल प्रिफेक्ट के माध्यम से राशि जमा होना प्रारंभ हुआ। बैंक ने एटीएम, पासबुक एंट्री मशीन, चैक डिपाजिट मशीन आदि कई नवाचार किये हैं। प्रसंगवश लिखना चाहता हूं कि बैंक बिना हस्ताक्षर मिलाये सौ रुपये भी हमारे ही खाते से हमें ही नहीं देता पर आखिर क्यों और कैसे एक इनक्रिप्टैड अपठनीय मेसेज के आधार पर बिना हस्ताक्षर के हमारा सारा खाता ही मोबाईल और यू पी आई से जोड़ दिया जाता है, जिसके चलते ही कई फ्राड हो रहे हैं। होना तो यह चाहिये कि हस्ताक्षरित पत्र के बाद ही कोई खाता किसी यू पी आई या मोबाईल से जोड़ने का नियम बने, इससे अनेक फ्राड रुक सकेंगे।
बहरहाल बहेलिया के लिये प्रभाशंकर जी को बधाई। व्यंग्य उनकी मूल विधा है, व्यंग्य की उनकी चार पुसतकें प्रकाशित हैं। इस उपन्यास में भी अनेक संवादों में उनका वह व्यंग्य, कटाक्ष लिये ध्वनित है। बैंकिंग की पृष्ठभुमि पर साहित्यिक उपन्यास के रूप में बहेलिया पठनीय विशिष्ट कृति है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री रामस्वरूप दीक्षित जी द्वारा रचित पुस्तक “कोरोना काल में अचार डालता कवि” पर पुस्तक चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 145 ☆
☆ “कोरोना काल में अचार डालता कवि” – लेखक – श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
कोरोना काल में अचार डालता कवि
रामस्वरूप दीक्षित
भारतीय ज्ञानपीठ
२०० रु, पृष्ठ १०८
हिन्दी व्यंग्य और कविता में रामस्वरूप दीक्षित जाना पहचाना नाम है। वे टीकमगढ़ जेसे छोटे स्थान से साहित्य जगत में बड़ी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं। हिन्दी साहित्य सम्मेलन में सक्रिय रहे हैं तथा इन दिनो सोशल मीडीया के माध्यम से देश विदेश के रचनाकारों को परस्पर चर्चा का सक्रिय मंच संचालित कर रहे हैं। भारतीय ज्ञान पीठ से २०२२ में प्रकाशित ५३ सार्थक नई कविताओ के संग्रह कोरोना काल में अचार डालता कवि के साथ उन्होंने वैचारिक दस्तक दी है। इसे पढ़ने के लिये भारतीय ज्ञानपीठ से किताब का प्रकाशन ही सबसे बड़ी संस्तुति है। किताब में परम्परा के विपरीत किसी की कोई भूमिका नहीं है। वे बिना प्राक्कथन में कोई बात कहे पाठक को कविताओ के संग साहित्यिक अवगाहन कर वैचारिक मंथन के लिये छोड़ देते हैं। हमारे समय की राजनैतिक तथा सामाजिक स्थितियों की विवशता से सभी अंतर्मन से क्षुब्ध हैं। समाज विकल्प विहीन किंकर्तव्यमूढ़ जड़ होकर रह जाने को बाध्य बना दिया गया है। रामस्वरूप दीक्षित जी जैसे सक्षम शब्द सारथी कागजों पर अपने मन की पीड़ा उड़ेल लेते हैं। वे लिखते हैं ” यूं तो कविता कुछ नहीं कर सकती, उसे करना भी नहीं चाहिये, कवि के अंतर्मन के भावों का उच्छवास ही तो है वह… किन्तु, वे अगली पंक्तियों में स्वयं ही कविता की उपादेयता भी वर्णित करते हैं…कविता कह देती है राजा से बिना डरे कि तुम्हारी आँखो में उतर आया है मोतिया बिंद ” इस संग्रह की प्रत्येक कविता में साहस के यही भाव पाठक के रूप में मुझे अंतस तक प्रभावित करते हैं। वे अपनी कविताओ में संभव शाब्दिक समाधान भी बताते हैं किन्तु दुखद है कि जमीनी यथार्थ दुष्कर बना हुआ है। लोगों के मनों में शाश्वत मूल्यों की स्थापना के लिये इस संग्रह जैसा चेतन लेखन आवश्यक हो चला है।
श्री रामस्वरूप दीक्षित
युद्ध की जरूरत में वे लिखते हैं कि जंगल बिना आपस में लड़े बिना बचाये रखते हैं अपना हरापन, …मनुष्य ही है जिसे खुद को बचाने के लिये युद्ध की जरूरत है। हत्यारे शीर्षक से लम्बी कविताओ के तीन खण्ड हैं। तारीफ की बात यह है कि भाव के साथ साथ कोरोना काल में अचार डालता कवि की सभी कविताओ में नई कविता के विधान की साधना स्पष्ट परिलक्षित होती है। मट्ठरता की हदों तक परिवेश से आंखें चुराने वाले समाज के इस असहनीय आचरण को इंगित करते हुये वे लिखते हैं कि ” जब खोटों को पुरस्कृत और खरों को बहिृ्कृत किया जा रहा था तब आप क्या कर रहे थे ? के उत्तर में हम कहेंगें कि हम सयाने हो चुके थे और हमने चुप रहना सीख लिया था “। राम स्वरुप जी की कवितायें जनवादी चिंतन से भरपूर हैं। कुछ शीर्षक देखिये गूंगा, बाज, भेड़िये, मुनादी, मजदूर, ताले, इतवार, खतरनाक कवि, तानाशाह, आदि सभी में मूल भाव सदाशयता और मानवीय मूल्यों के लिये आम आदमी की आवाज बनने का यत्न ही है। पिता, पिता का कमरा, माँ के न रहने पर वे रचनायें हैं जो रिश्तों की संवेदना संजोती हैं। संग्रह की शीर्षक रचना कोरोना काल में अचार डालता कवि में वे लिखते हैं कि अचार डालने में डूबा कवि भूल गया कि बाहरी दुनियां में जिस रोटी के साथ अचार खाया जाता है वह तेजी से गायब हो रही है। इन गूढ़ प्रतीको को डिकोड करना पाठक को साहित्यिक आनंद देता है। अनेक बिन्दुओ पर कथ्य से असहमत होते हुये भी मैने दीक्षित जी की सभी रचनायें इत्मिनान से शब्द शब्द की जुगाली करते हुये तथा उनके परिवेश को परिकल्पित करते हुये पढ़ीं और उनके विन्यास, शब्द योजना, रचना काल तथा भाषाई ट्विस्ट का साहित्यिक आनंद लिया। संग्रह पढ़ने मनन करने योग्य है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत हैश्री प्रतुल श्रीवास्तवजी द्वारा रचित पुस्तक “मौन” पर पुस्तक चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 144 ☆
☆ “मौन” – लेखक – श्री प्रतुल श्रीवास्तव☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक – मौन
लेखक – श्री प्रतुल श्रीवास्तव
प्रकाशक – पाथेय प्रकाशन जबलपुर
संस्करण – २०२३
अजिल्द, पृष्ठ – ९६, मूल्य – १५०रु
चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
किताब के बहाने थोडी चर्चा पाथेय प्रकाशन की भी हो जाये. पाथेय प्रकाशन, जबलपुर अर्थात नान प्राफिट संस्थान. डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जी और कर्ता धर्ता भाई राजेश पाठक का समर्पण भाव. बहुतों की डायरियों में बन्द स्वान्तः सुखाय रचित रचनाओ को साग्रह पुस्तकाकार प्रकाशित कर, समारोह पूर्वक किताब का विमोचन करवाकर हिन्दी सेवा का अमूल्य कार्य विगत अनेक वर्षों से चल रहा है. मुझे स्मरण है कि मैंने ही राजेश भाई को सलाह दी थी कि आई एस बी एन नम्बर के साथ किताबें छापी जायें जिससे उनका मूल्यांकन किताब के रूप में सर्वमान्य हो, तो प्रारंभिक कुछ किताबों के बाद से वह भी हो रहा है. तेरा तुझ को अर्पण वाले सेवा भाव से जाने कितनी महिलाओ, बुजुर्गों जिनकी दिल्ली के प्रकाशको तक व्यक्तिगत पहुंच नही होती, पाथेय ने बड़े सम्मान के साथ छापा है. विमोचन पर भव्य सम्मान समारोह किये हैं. आज पाथेय का कैटलाग विविध किताबों से परिपूर्ण है. अस्तु पाथेय को और उसके समर्पित संचालक मण्डल को वरिष्ट पत्रकार एवं समर्पित साहित्य साधक श्री प्रतुल श्रीवास्तव जो स्वयं एक सुपरिचित साहित्यिक परिवार के वारिस हैं उनकी असाधारण कृति “मौन” के प्रकाशन हेतु आभार और बधाई.
किताब बढ़िया गेटअप में चिकने कागज पर प्रकाशित है.
अब थोड़ी चर्चा किताब के कंटेंट की. डा हरिशंकर दुबे जी की भूमिका आचरण की भाषा मौन पठनीय है. वे लिखते हैं छपे हुये और जो अप्रकाशित छिपा हुआ सत्य है उसे पकड़ पानासरल नहीं होता.
श्री प्रतुल श्रीवास्तव
बिटवीन द लाइन्स के मौन का अन्वेषण वही पत्रकार कर सकता है जो साहित्यकार भी हो. प्रतुल जी ऐसे ही कलम और विचारों के धनी व्यक्तित्व हैं. श्री राजेश पाठक ‘प्रवीण’ ने अपनी पूर्व पीठिका में लिखा है कि बोलना एक कला है और मौन उससे भी बड़ी योग्यता है. मौन एक औषधि है. समाधि की विलक्षण अवस्था है. वे लिकते हें कि प्रतुल जी की यह कृति आत्म शक्ति, आत्म विस्वास और अंतर्मन की दिव्य ढ़्वनि को जगाने का काम करती है.
स्वयं प्रतुल श्रीवास्तव बताते हैं कि जो क्षण मुखर होने से अहित कर सकते थे उन्हें मौन सार्थक अभिव्यक्ति देता है. मौन अनावश्यक आवेगों पर नियंत्रण और संकल्प शक्ति में वृद्धि करता है. मौन के उनके अपने स्वयं के अनुभव तथा साधकों के कथन किताब में शामिल हैं. मौन के रहस्य को समझकर जीवन को तनाव मुक्त और ऊर्जावान बनाना हो तो यह किताब जरूर पढ़िये. पुस्तक में छोटे छोटे विषय केंद्रित रोचक पठनीय तथा मनन करने योग्य २८ आलेख है.
मौन, चुप्पी मौन नहीं, स्वाभाविक मौन छिना, मौन से ऊर्जा संग्रहण, मौन एक साधना, मौन और सृजन, चार तरह के मौन, मौन से जिव्हा परिमार्जन, मौन पर विविध अभिमत, मन के कोलाहल पर नियंत्रण, मौन से शांति-ध्यान और ईश्वर, क्या है अनहद नाद ?, हिन्दू धर्म में मौन का महत्व, मुस्लिम धर्म में मौन, मौन एक महाशक्ति, शब्द संभारे बोलिये, मौन की मुखरता, मौन जीवन का मूल है, मौन से प्रगट हुई गीता, मौन स्वयं से जुड़ने का तरीका, मौन का संबंध मर्यादा से
बातों से प्राप्त क्रोध बर्बाद करता है समय, मौन है मन की मृत्यु, चित्त की निर्विकार अवस्था है मौन, मौनं सर्वार्थ साधनम्, मौन की वीणा से झंकृत अंतस के तार, मौन साधना तथा उसका परिणाम, तथा मौन ध्यान की ओर पहला कदम
शीर्षकों से मौन पर अत्यंत्य सहजता से सरल बोधगम्य भाषा में मौन के लगभग सभी पहलुओ पर विषद विवेचन पुस्तक में पढ़ने को मिलता है.
मौन व्रत अनेक धार्मिक क्रिया कलापों का हिस्सा होता है. हमारी संस्कृति में मौनी एकादशी हम मनाते हैं. राजनेता अनेक तरह के आंदोलनों में मौन को भी अपना अस्त्र बना चुके हैं. गृहस्थी में भी मौन को हथियार बनाकर जाने कितने पति पत्नी रूठते मनाते देखे जाते हैं. पुस्तक को पढ़कर मनन करने के बाद मैं कह सकता हूं कि मौन पर इतनी सटीक सामग्री एक ही जगह इस किताब के सिवाय अंयत्र मेरे पढ़ने में नहीं आई है. प्रतुल श्रीवास्तव जी के व्यंग्य अलसेट, आखिरी कोना, तिरछी नजर तथा यादों का मायाजाल, और व्यक्तित्व दर्शन किताबों के बाद वैचारिक चिंतन की यह पुस्तक मौन उनके दार्शनिक स्वरूप का परिचय करवाती है . वे जन्मना अन्वेषक संवेदना से भरे, भावनात्मक साहित्यकार हैं. यह पुस्तक खरीद कर पढ़िये आपको शाश्वत मूल्यों के अनुनाद का मौन मुखर मिलेगा जो आपके रोजमर्रा के व्यवहार में परिवर्तनकारी शक्ति प्रदान करने में सक्षम होगा.