हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 131 – “कोणार्क” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा संजीव कुमार जी की पुस्तक “कोणार्क ” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 131 ☆

☆ “कोणार्क” – डा संजीव कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कोणार्क

डा संजीव कुमार

इंडिया नेट बुक्स,नोयडा

मूल्य १७५ रु, पृष्ठ ११६

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

कोणार्क पर हिन्दी साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है. कोणार्क मंदिर के इतिहास पर परिचयात्मक किताबें हैं. प्रतिभा राय का उपन्यास कोणार्क मैंने पढ़ा है. जगदीश चंद्र माथुर का नाटक “कोणार्क” भी है. स्फुट लेख और अनेक कवियों ने कोणार्क पर केंद्रित कवितायें लिखी हैं. इसी क्रम में साहित्य सेवी डा संजीव कुमार ने कोणार्क नाम से हाल में ही मुक्त छंद में कविता संग्रह या बेहतर होगा कि कहें कि उन्होने खण्ड काव्य लिखा है.

पुरी और भुवनेश्वर मंदिरों की नगरियां है. कोणार्क सूर्य मंदिर ओडिशा के पुरी में आज से लगभग ९०० वर्षो पूर्व बनवाया गया था. पुरातत्वविदों के अनुसार यह कलिंग शैली में बना मंदिर है. यह स्वयं में अनूठा है, क्योंकि मंदिर  रथ की आकृति में हैं.  12 जोड़ी भव्य विशाल पहियों की आकृतियां  हैं, 7 घोड़े रथ को खींच रहे हैं. इस दृष्टि से सूर्य देव के रथ की आध्यात्मिक भारतीय कल्पना को मूर्त रूप दिया गया है. समुद्र तट पर मंदिर इस तरह निर्मित है कि सूरज की पहली किरण मंदिर के प्रवेश द्वार पर पड़ती है. समय की आध्यात्मिकता दर्शाते कोणार्क की कहानी रोचक है. इस मंदिर को वर्ष 1984 में यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल घोषित किया था. इस महत्व के दृष्तिगत कोणार्क पर लिखा जाना सर्वथा प्रासंगिक है. मैने पर्यटन के उद्देश्य से कोणार्क की सपरिवार यात्रा की है. वहां मोमेंटो की दूकानो पर कोणार्क पर लिखी किताबें भी देखी थीं, उनमें एक श्रीवृद्धि डा संजीव कुमार की किताब से और हो गई है.

कोणार्क का मंदिर तो बना पर,आज तक वहां कभी विधिवत पूजा नहीं हुई. इसी तरह  भोपाल के निकट भोजपुर में भी एक विशालतम शिवलिंग की स्थापना की गई थी पर वहां भी  आज तक  कभी विधिवत पूजा नहीं हुई. कोणार्क को  लेकर किवदंतियां हमेशा से ही लोगों के बीच चर्चित रही हैं. ये ही कथानक संजीव जी की कविताओ की विषय वस्तु हैं. खजुराहो की ही तरह मंदिर की बाहरी दीवारों पर रति रत मूर्तियां हैं, जो  संदेश देती हैं कि परमात्मा का सानिध्य पाना है तो भीतर झांको किन्तु वासना को बाहर छोडकर आना होगा.

संजीव जी मंदिर के महा शिल्पी को इंगित करते हुये लिखते हैं

समेटे अपने आँचल में

खड़ा है आज भी

एक कालखंड

जिसमें निहित थी

कल्पना की उड़ान

नभ पर उड़ते सूर्य को

अपनी धरती पर उतार लाने का स्वप्न

जो अपनी अभिनवता में

भर लाया होगा।

उत्साह का पारावार और कल्पना के उत्कर्ष

उकेर गया होगा

उन पत्थरों पर

जो हो उठा जीवंत

कला की प्राचुर्यता के साथ विभिन्न मुद्राओं में

जीवन की भंगिमाओं में

मैने स्व अंबिका प्रसाद दिव्य का उपन्यास खजुराहो की अतिरूपा पढ़ा था. उसमें वे कल्पना करते हैं कि शिल्पी ने अतिरूपा को विभिन्न काम मुद्राओ में सामने कर उन जीवंत मूर्तियों को देह के प्रेम की  व्याख्या हेतु तराशा रहा होगा.

कवि डा संजीव कुमार भी लिखते हैं

संगिका थी वह

 मेरे बचपन की

 जिसे पाया था मैंने

 बाल हठ से

 कितने ही वर्षों के बाद

 और आज

 हमारी देहों का

 कण कण

 महकता था

 हमारे प्रेम का साक्षी बनकर

 हमने खेले थे

 बचपन के खेल भी

 और तरूणाई की केलि भी

 पर यौवन हो गया

 समर्पित

 किसी राजहठ को

 और बस

 एक असंभव को

 संभव बनाने में

विभिन्न कविताओ से गुजरते हुये कोणार्क के महाशिल्पी उसके पुत्र की कथा चित्रमय होकर पाठक के सम्मुख उभरती है. 

मंदिर की वर्तमान भग्नावस्था को देख वे लिखते हैं…

 काश! उग सकता

 वह स्वप्न आज भी

 इन भग्नावशेषों के बीच

 जहाँ उतरता

 किरणों भरा रथ

 दिवाकर का

 और जाज्वल्यमान

 हो उठता

 भारत का कण क

 बरस जाती चेतनता विहस पड़ता

 नव जीवन

 उसी कोणार्क के उच्च शिखरों से

 भुवन भर में

 और नवचेतना

 संगीत लहरियों में बसकर

 हवा में बहती.

कोणार्क पर काव्य रूप में लिखी गई पुस्तकों में यह एक बेहतरीन कृति है, जिसके लिये डा संजीव कुमार बधाई के सुपात्र हैं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल साहित्य – ‘आधा पुल को पूरा करते बच्चे’ – श्री अमृतलाल मदान ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है  श्री अमृतलाल मदान जी  की पुस्तक  “आधा पुल को पूरा करते बच्चे ” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘आधा पुल को पूरा करते बच्चे’ – श्री अमृतलाल मदान ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

उपन्यास- आधा पुल 

उपन्यासकार- अमृतलाल मदान

प्रकाशक- पारुल प्रकाशन, 35- प्रताप एनक्लेव, मोहन गार्डन, दिल्ली-110059 

पृष्ठ संख्या- 120 

मूल्य- ₹200

समीक्षक ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’, 

बच्चों का उपन्यास बच्चों के लिए हो तो सार्थकता बढ़ जाती है। बच्चा क्या चाहता है? यह आपको पता हो तो बच्चे के उपन्यास की कहानी में प्रवाह बढ़ जाता है। क्योंकि आप स्वयं बच्चा बनकर अपने उपन्यास लिखने को उत्सुक हो जाते हैं।

बच्चों के लिखे उपन्यास की अपनी कुछ विशेषताएं होती है। उसमें आरंभ से उत्सुकता का समावेश हो जाता है। वाक्य छोटे-छोटे होते हैं। उसकी भाषा शैली सरल व रोचक होती है। हर एक भाग में कथा व उसका प्रवाह बना रहता है।

समीक्ष्य उपन्यास आधा पुल को इसी कसौटी पर कस कर देखते हैं। तब हमें पता चलता है कि उपन्यास- आधा फुल का कथानक बहुत रोचक है। इसका पात्र- मोनी अपनी व्यथा से परेशान है। वह चाहता है कि मम्मी-पापा में सुलह हो जाए। इसी कथानक पर पूरी कथा चलती है।

इसी में एक उपपात्र भी है। मोनी की सहायता करता है। उसी के बीच कथा का पूरा कथानाक मुकम्मल होता है। उसी पात्र के द्वारा मुख्य पात्र अपने उपन्यास के प्रवाह को अंत तक बनाए रखता है।

उपन्यास की भाषा सरल, सहज व रोचक है। उपन्यास की कथा कभी अतीत को छूते हुए निकलती है। कभी वर्तमान में आ जाती है। कभी भविष्य के सपने बुनने लगती है। इसी के द्वारा वह अपने रिश्ते के अधुरे पुल को पूरा करने का स्वप्न देखता है।

शैली के रूप में संवाद का उत्कृष्ट उपयोग किया गया है। पूरा उपन्यास संवादशैली में लिखा है। आवश्यकता अनुसार वर्णन भी किया गया है। 25 भाग में बंटे इस उपन्यास का अंत भी रोचक है।

उपन्यास के उपन्यासकार अमृतलाल मदान की संपूर्ण उपन्यास पर पकड़ बनी रहती है। कहीं-कहीं पात्र स्वयं चलने लगते हैं। साजसज्जा की दृष्टि से मुखपृष्ठ आकर्षक है। त्रुटि रहित छपाई और पठनीयता की दृष्टि से उपन्यास बढ़िया बन पड़ा है। पृष्ठ संख्या के हिसाब से मूल्य वाजिब हैं।

कोरोनाकाल में रचित उपन्यास का बाल साहित्य के क्षेत्र में हार्दिक स्वागत किया जाएगा। इसी आशा के साथ उपन्यासकार को हार्दिक बधाई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

19-02-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 130 – “प्रेम चंद मंच पर” – सुश्री रिंकल शर्मा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है सुश्री रिंकल शर्मा जी की पुस्तक “प्रेम चंद मंच पर” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 130 ☆

“प्रेम चंद मंच पर” – सुश्री रिंकल शर्मा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

प्रेम चंद मंच पर

रूपांतरण.. रिंकल शर्मा

कहानी नाट्य रूपांतर

प्रभाकर प्रकाशन दिल्ली

मूल्य १२५ रु

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

बीसवीं सदी के आरंभिक वर्ष प्रेमचंद के रचना काल का समय था, किन्तु अपनी सहज अभिव्यक्ति की शैली  तथा जन जीवन से जुडी कहानियों के चलते उनकी कहानियां आज भी प्रासंगिक बनी हुई हैं. प्रेमचंद के साहित्य की कापी राइट की कानूनी अवधि समाप्त हो जाने के बाद से निरंतर अनेकानेक प्रकाशक लगातार उनके उपन्यास और कहानियां बार बार विभिन्न संग्रहों में प्रकाशित करते रहे हैं.

कोई भी कथानक विभिन्न विधाओ में अभिव्यक्त किया जा सकता है. कविता में भाषाई चतुरता के साथ न्यूनतम शब्दों में त्वरित तथा संक्षिप्त वैचारिक संप्रेषण किया जाता है, तो कहानी में शब्द चित्र बनाकर सीमित पात्रों एवं परिवेश के वर्णन के संग किसी घटना का लोकव्यापीकरण होता है. ललित निबंध में अमिधा में रचनाकार अपने विचार रखता है. उपन्यास अनेक परस्पर संबंधित घटनाओ को पिरोकर लंबे समय की घटनाओ का निरूपण करता है. इसी तरह लघुकथा एक टविस्ट के साथ सीधा प्रहार करती है, तो व्यंग्य विसंगतियों पर लक्षणा में कटाक्ष करता है. नाटक वह विधा है जिसमें अभिनय, निर्देशन, दृश्य और संवाद मिलकर दर्शक पर दीर्घ जीवी मनोरंजक या शैक्षिक प्रभाव छोड़ते हैं. इन दिनों हिन्दी में ज्यादा नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं. फिल्मो ने नाटको को विस्थापित कर दिया है.

ऐसे समय में रिंकल शर्मा ने “प्रेम चंद मंच पर ” में मुंशी प्रेमचंद की सुप्रसिद्ध कहानियों पंच परमेश्वर, नादान दोस्त, गुल्ली डंडा और कजाकी के नाट्य रुपांतरण प्रस्तुत कर अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया है. इससे पहले भी कई प्रसिद्ध रचनाओ के नाट्य रूपांतरण किये गये हैं, हरिशंकर परसाई की रचना मातादीन चांद पर के नाट्य रूपांतरण के बाद जब उसका मंचन जगह जगह हुआ तो वह दर्शको द्वारा बेहद सराहा गया. केशव प्रसाद मिश्र के उपन्यास कोहबर की शर्त पर फिल्म नदिया के पार भीष्म साहनी की रचना तमस पर, अमृता प्रीतम के उपन्यास पिंजर पर आधारित ग़दर एक प्रेम कथा, धर्मवीर भारती के गुनाहों का देवता और सूरज का सातवां घोड़ा, स्वयं मुंशी प्रेमचंद जी के ही उपन्यासों गोदान, सेवासदन, और गबन पर भी फिल्में बन चुकी हैं.

किसी कहानी का केंद्र बिंदु एक कथानक होता है, पात्र होते हैं, परिवेश का किंचित वर्णन होता है, कहानी में एक उद्देश्य निहित होता है जो कहानी का चरमोत्कर्ष होता है. पात्रों के माध्यम से लेखक इस उद्देश्य को पाठको तक पहुंचाता है. नाटक की कहानी से यह समानता होती है कि नाटक में भी एक कहानी होती है, नाटक में संवाद होते हैं, पात्रों के मध्य द्वंद्व होता है. नाटक के पात्र संवादों को प्रभावशाली बना कर दर्शक तक अधिक उद्देशयपूर्ण बनाने की क्षमता रखते हैं.

किसी कहानी का नाट्य रूपांतरण करने के लिये कहानीकार की मूल भावना को समझकर बिना कहानी के मूल आशय को बदले संवाद लेखन सबसे महत्वपूर्ण पहलू होता है. जब मुझे रिंकल जी ने समीक्षा के लिये यह पुस्तक भेजी तो मैंने सर्वप्रथम  अपनी बहुत पहले पढ़ी गई मुंशी प्रेमचंद की चारों कहानियों पंच परमेश्वर, नादान दोस्त, गुल्ली डंडा और कजाकी को  उनके मूल रूप में फिर से पढ़ा, उसके बाद जब मैंने यह नाट्य रूपांतर पढ़ा तो मैंने  पाया है कि रिंकल शर्मा ने इन चारों कहानियों के नाट्य रूपांतर में संवाद लेखन का दायित्व बड़े कौशल से निभाया है चूंकि वे स्वयं नाट्य निर्देशिका हैं अतः वे यह कार्य सुगमता पूर्वक कर सकी हैं. अत्यंत छोटे छोटे वाक्यों में संवाद लिखे गये हैं, इससे किशोर वय के बच्चे भी ये रूपातरित नाटक अपने स्कूलों के मंच पर प्रस्तुत कर सकेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है. मैं इस साहित्यिक सुकृत्य हेतु लेखिका, कवियत्री  और स्तंभ लेखिका  रिंकल शर्मा की सराहना करता हूं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 129 – “तंत्र कथा” – श्री कुमार सुरेश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री कुमार सुरेश जी के उपन्यास “तंत्र कथा” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 129 ☆

☆ “तंत्र कथा” – श्री कुमार सुरेश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

तंत्र कथा, उपन्यास

कुमार सुरेश

सरोकार प्रकाशन, भोपाल

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

सरकारी तंत्र से किसका पाला नहीं पड़ता. सफेद पोश बने रहते हुये अधिकारियों एवं हर स्तर पर कर्मचारियों की भ्रष्टाचार में लिप्तता, कार्यालयीन प्रक्रिया में राजनीति की दखलंदाजी के आम आदमी के अनुभवों के साथ ही कार्यालयों की खुद अपनी अंतर्कथायें अनन्त हैं. जिन पर कलम चलाने का साहस कम ही लोग कर पाते हैं. मैं कुमार सुरेश को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, वे यह बेबाक बयानी कर सके हैं क्योकि वे स्वयं सरकारी तंत्र का हिस्सा रह चुके हैं और उन्होने सब कुछ कमरे के भीतर से देखा और समझा है और उससे असहमत होते हुये उच्च पद से सरकारी नौकरी छोड़ कर लेखन को अपनाया है. इस उपन्यास का हर हिस्सा यथार्थ है, उसे अपने लेखन सामर्थ्य से कुमार सुरेश ने रोचक बना दिया है. कुछ टुकड़े बानगी के लिये उधृत हैं…

” जाहिर है सफेद बगुले की तरह दिख रहे सज्जन ही दुबे जी थे “

…. दुबे जी इस कार्यालय के बड़े बाबू थे, महीने में दो तीन दिन थोड़ी देर के लिये आफिस आते और उपस्थिति रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर चले जाते थे. वो सत्ता पक्ष के प्रभावशाली मंत्री श्री कटारिया जी के बंगले पर देश की उन्नति में अपना योगदान दे रहे थे.

… आजकल जिन राष्ट्र निर्माताओ को शिक्षाकर्मी का पवित्र नाम दिया गया है उन्हें उस जमाने में निम्न श्रेणि शिक्षक कहा जाता था.

…. निकृष्ट प्रकार का दौरा तब होता है जब अफसर अपने पूरे परिवार के साथ पर्यटन के लिये निकलता है और इस यात्रा को सरकारी दौरे का स्वरूप दे दिया जाता है.

… अपर कलेक्टर को निकट भविष्य में प्रमोशन की आशा थी, उन्हें कलेक्टर से अभी अपनी सी आर भी लिखवानी थी, इसलिये उन्हे शहर की शांति व्यवस्था से अधिक कलेक्टर को खुश करने की चिंता थी, उन्होने कहा द्वापर में भगवान श्री कृष्ण की प्रशासनिक क्षमतायें इतिहास प्रसिद्ध हैं, मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि कलेक्टर साहब के रूप में हमें हमारा कृष्ण मिल गया है.

…डाकबंगले पर बिना पैसा दिये लंच डिनर करने वाले अधिकारियों और नेताओ के बिलों का भुगतान आखिर करता कौन है ?

… अपनी हैंडराइटिंग में उन्होंने जिले के कर्मचारियों के ट्रांसफर की एक सूची बनाई और उसे टेबल पर छोड़कर टूर पर चले गये, आफिस से दूर जाकर उन्होने स्टेनो को फोन किया कि वह सूची उठाकर रख ले, रीडर ने सूची पढ़कर सुरक्षित रख ली, थोड़ी ही देर में सभी कर्मचारियों तक संभावित ट्रांस्फर की खबर पहुंच गई, और ट्रांसफर न हों जो कभी होने ही न थे के लिये पैसे आने लगे….

… हे मित्र किसी सरकारी अधिकारी को निलंबित करवाने या उसका कहीं दूर स्थानांतरण करवाने के कया उपाय हैं, कृपा करके मुझे कहें… 

… इसी उपन्यास से अंश ( यूं लिखना चाहता हूं की उपन्यास का हर पृष्ठ कोट किए जाने योग्य उद्दरनो से भरा हुआ है)

मेरी तरह जिन्होंने भी बड़े या छोटे पदों पर सरकारी नौकरी की है, वे मीटिंग, योजनाओ की समीक्षायें, प्रगति प्रतिवेदन, मंत्रियों और अफसरों के दौरों, गोपनीय चरित्रावली,  प्रमोशन, स्थानांतरण, प्रशासनिक अधिकारियों के तथा उनके परिवार जनों की वास्तविकता बखूबी समझते हैं. उन्हें तंत्र कथा के रूप में आईना देखकर हंसी भी आती है और मजा भी आता है. कार्यालयों की गुटबाजियां, यूनियन बाजी, मातहत कर्मचारियों की मानसिकता, पीठ पलटते ही किये जाते कटाक्ष, फोन, सरकारी गाड़ी के दुरुपयोग, आदि आदि… इतनी सूक्ष्म दृष्टि से कथानक बुनने, उपन्यास के पात्र चुनने, कार्यालयों के दृश्य प्रस्तुत करने के लिये कुमार सुरेश की जितनी प्रशंसा की जाये कम है.

लेखक ने सरकारी मुहकमों का ऐसा वर्णन किया है मानो कोई गुप्तचर किसी संस्था का हिस्सा बनकर लंबे समय वहां रहने के बाद बाहर निकलकर वहां के किस्से बता रहा हो. यूं तो लोकतंत्र में सरकारी कार्यालय कार्यपालिका के वे मंदिर होने चाहिये जहां समाज के अंतिम आदमी की पूजा की जाये, पर वास्तविकता यह है कि प्रशासनिक पुजारियों ने सारी व्यवस्था हथिया ली है,जनता को चढ़ाये जाने वाले  प्रसाद के बजट मंत्रालयों और राजनेताओ की भेंट चढ़ गये हैं. इन विसंगतियों को लेकर सरकारी अमले पर ढ़ेर सा लिखा गया है, लगातार लिखा जा रहा है, किंतु भोगे हुये यथार्थ का मनोरंजक हास्य तथा तंज भरा चित्रण तंत्र कथा में है.

मैं इस किताब के नाट्य रूपांतरण, फिल्मांकन की व्यापक संभावनाये देखता हूं. मैं कतई तंत्रकथा की कहानी नहीं बताने वाला, यह मजे लेकर पढ़ने वाला उपन्यास है.

चलते चलते उपन्यास से एक छोटा सा अंश और पढ़ लीजीये…

” भीड़ में एक गांधी वादी टाइप बाबू जी भी थे, साथी उन्हें सत्यवादी हरिशचन्द्र की औलाद कहते थे…. उन्होने अपने नैतिक विचार व्यक्त किये.. हम तो इतना ही समझते हैं कि आनेस्टी इज द बेस्ट पालिसी, पहले भी सही थी  और आज भी सही है….

मैं इसी आशा और भरोसे में हूं कि आनेस्टी की यह पालिसी सचमुच सही साबित हो और फिर फिर से किसी कुमार सुरेश को तंत्रकथा लिखने की आवश्यकता न पड़े. तंत्रकथा कार्यालयीन कथानक पर रागदरबारी के बाद मेरे पढ़ने में आया पहला जोरदार उपन्यास है, जिसका समुचित मूल्यांकन व्यंग्य जगत में होना जरुरी है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल साहित्य – ‘गुलाबी कमीज़’ रहस्य रोमांच से भरपूर उपन्यास– सुश्री कामना सिंह ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री कामना सिंह जी  की पुस्तक  “गुलाबी कमीज़” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गुलाबी कमीज़’ रहस्य रोमांच से भरपूर उपन्यास– सुश्री कामना सिंह ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

उपन्यास – गुलाबी कमीज़ 

उपन्यासकार – कामना सिंह 

प्रकाशक – भारतीय ज्ञानपीठ, 18- इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोधी रोड, नई दिल्ली- 110033 मोबाइल नंबर 93505 36020

पृष्ठ संख्या – 135 

मूल्य – ₹270

समीक्षक – ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश

☆ गुलाबी कमीज़ रहस्य रोमांच से भरपूर उपन्यास – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

बच्चों के लिए उपन्यास लिखना टेढ़ी खीर है। इसको लिखते समय बहुतसी बातों का ध्यान में रखना पड़ता है। उसका कथानक बड़ों से अलग होता है। उसकी कहानी सीधी, सरल व सहज हो। भाषा शैली सरल हो। इसमें प्रवाह और रोचकता का ध्यान रखा गया हो।

बच्चों में लिखे उपन्यास का आरंभ रोचक प्रसंग से किया गया हो। ताकि उपन्यास का आरंभ पढ़कर बच्चा उसे उपन्यास को पूरा पढ़ने को लालयित हो जाए। यह बात दीगर है कि यह शर्त बड़ों के उपन्यास पर भी लागू होती है। मगर उनके उपन्यास में यह नियम शिथिल हो जाए तो भी चल सकता है।

दूसरी बात, बच्चों उपन्यास तभी निरंतर आगे पढ़ते हैं जब उनको उसमें एक के बाद एक नई रोचक कहानी मिले। उसी के साथ उपन्यास की मूल कहानी आगे बढ़ती रहे। यानी हरेक भाग में रहस्य के साथ अंत में उसका समाधान होने के साथ एक नया रहस्य का सृजन हो। तभी बच्चे उपन्यास पढ़ते हैं।

इस परिपेक्ष में देखे तो उपन्यासकार कामना सिंह का समीक्ष्य उपन्यास- गुलाबी कमीज़, इस कसौटी पर कितना खरा बैठता है? उपन्यासकार ने यह उपन्यास वैश्विक महामारी कोरोनाकाल के दौरान लिखा था। जब लॉकडाउन के दौरान अनेक मजदूरों का काम छिन गया था। वे रोजी रोटी से मोहताज हो गए थे।

इसी पृष्ठभूमि पर इसके कथानक का निर्माण किया गया था। इसका कथानक इतना भर है कि इसका नायक हीरा 11 साल का मासूम बच्चा है जो कोरोना के भयंकर संत्रास से रूबरू होकर दिल्ली से अपने गांव की यात्रा करता है पुनः दिल्ली लौट आता है।

इसी भयंकर त्रासदी को झेलते हुए में पैदल ही निकल पड़ते हैं। इस कथानक पर उपन्यास की कथावस्तु का सृजन किया गया है। 

उपन्यासकार कामनासिंह ने 14 भाग के इस उपन्यास का आरंभ रोचक ढंग से किया है। उपन्यास के आरंभ में वे लिखती हैं- 24 मार्च 2020। पूर्वी दिल्ली की कमला बस्ती। रात के 10:00 बज रहे हैं। इसी रोचक पंक्ति से उपन्यास में उत्सुकता जगाती उपन्यास का आरंभ करती है।

उपन्यास की कहानी इतनी है। हीरा के अपने कुछ सपने हैं। वह उसे देखते हुए पैदल ही माता-पिता के साथ चल देता है। यह उन सपनों को रास्ते में पूरा करते हुए मंजिल पर पहुंचता है। आखिर उसे अपने सपनों की मंजिल मिल ही जाती है या नहीं? यह उपन्यास के अंत में पता चलता है।

उपन्यास की भाषा, सरल, सहज व रोचक है। उपन्यासकार ने छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग किया है। वाक्य सरल व रोचक हैं। भाषा में प्रवाह बना हुआ है। कहानी रोचकता से आगे बढ़ती है।

उपन्यास की मूल कहानी के साथ-साथ कई सहायक कहानियां भी चलती है। रास्ते में कई कठिनाइयां आती है। उसका समाधान होता है तो दूसरी समस्या आ जाती है।

कहने का तात्पर्य है कि बच्चों के उपन्यास की कसौटी पर यह उपन्यास खरा उतरता है। इसकी पृष्ठ सज्जा अच्छी है। त्रुटि रहित मुद्रण ने उपन्यास की गुणवत्ता में श्रीवृद्धि की है। उपन्यास का आवरण आकर्षक है। उपन्यास का मूल्य ₹270 बच्चों के मान से अधिक है। मगर बढ़ते मुद्रा मूल्य के कारण इसे वाजिब कह सकते हैं।

इस समीक्षक को आशा है कि बाल साहित्य में इस उपन्यास का जोरदार स्वागत किया जाएगा।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

19-02-2023

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 128 – “काशी काबा दोनो पूरब में हैं जहां से” – अमेरिका यात्रा की डायरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके यात्रा वृत्तांत “काशी काबा दोनो पूरब में हैं जहां से” – अमेरिका यात्रा की डायरी पर आत्मकथ्य।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 128 ☆

☆ “काशी काबा दोनो पूरब में हैं जहां से” – अमेरिका यात्रा की डायरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

पुस्तक चर्चा

काशी काबा दोनो पूरब में हैं जहां से

(अमेरिका यात्रा की डायरी)

विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

प्रकाशक … नोशन प्रेस, चेन्नई

मूल्य 130 रु

पृष्ठ 100

अमेजन लिंक –काशी काबा दोनो पूरब में हैं जहां से

नोशन प्रेस लिंक – काशी काबा दोनो पूरब में हैं जहां से

 ई बुक के रूप में भी उपलब्ध

यात्रा  साहित्य की जननी होती है ,  संस्मरण और यात्रा वृतांत तो सीधे तौर पर यात्राओ का शब्द चित्रण ही हैं . जब पाठक प्रवाहमयी वर्णन शैली में यात्रा वृतांत पढ़ते हैं तो वे लेखक के साथ साथ उस स्थल की यात्रा का आनंद , बिना वहां गये ले सकते हैं जहां का वर्णन किया जाता है . यदि ट्रेवलाग से पाठक की जिज्ञासायें शांत होती हैं तो लेखन सार्थक होता है . यात्रा संस्मरण भौगोलिक दूरियों को कम कर देते हैं . यात्रा संस्मरण एक तरह से समय के ऐतिहासिक साक्ष्य दस्तावेज बन जाते हैं .

अमेरिका यात्रा के रोजमर्रा के ढ़ेर से अनछुये मुद्दों पर इस किताब मे लिखा गया है .  आज जब युवा रोजगार और शिक्षा के लिये लगातार भारत से अमेरिका जा रहे हैं , तब यह किताब ऐसे युवाओ को और उनके पास जाते माता पिता रिश्तेदारों को अमेरिकन जीवन शैली को बेहतर तरीके से समझने में मदद करती है . इस डायरी से अमेरिका के संदर्भ में हिन्दी पाठको का किंचित कौतुहल शांत हो सकेगा ।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “अर्घ, कविता संग्रह” – सुश्री दामिनी खरे ☆ सुश्री नीलम भटनागर ☆

सुश्री नीलम भटनागर 

 ☆ पुस्तक चर्चा ☆ “अर्घ, कविता संग्रह” – सुश्री दामिनी खरे ☆ सुश्री नीलम भटनागर ☆ 

पुस्तक चर्चा

अर्घ, कविता संग्रह

दामिनी खरे

आवरण.. यामिनी खरे

प्रकाशक … कृषक जगत, भोपाल

विवेक रंजन श्रीवास्तव जी ने श्रीमती दामिनी खरे जी की कृति अर्घ उपलब्ध कराई।सच में बहुत अच्छा लगा पढ़कर।आजकल मैं अक्सर सोचती हूं कि अब सब खत्म हुआ, पढ़ना थोड़ा याने समाचार पत्र तक ही रखूं। वह भी अब और कोई घर में पढ़ता नहीं और मुझे उसके बिना सुप्रभात सा लगता नहीं। मुंबईया बोली में कहूं तो सब खल्लास।

पर दामिनी जी के काव्य संग्रह अर्घ ने फिर एक बार कानों में मानो मिस्री घोली नहीं अभी कहां ?जब तक सांस तब तक आस। नहीं ये शायद उतना सही नहीं।मेरी सासू मां एक मुहावरा कहती थीं उस समय उतना उचित नहीं लगता था पर शायद उससे अधिक यहां कुछ नहीं लग रहा।जब तक जीना तब तक सीना।अब यदि आप में से कोई कुछ और जोड़ें तो वह स्वतंत्र है।

मुझे लगा कि दामिनी जी जब नयी कविताएं लिखकर संग्रह प्रकाशित कर सकती है तो प्रेरणा स्वरूप मैं केवल सोचूं नहीं उनके उत्साह वर्धन में उस पर लिखूं भी।‌ जैसा कि मैंने अर्घ नाम पढ़ कर उसे पहले अर्थ शास्त्र से सम्बंधित सोचा, पर केवल अनुक्रमणिका देखकर ही समझ आ गया कि नहीं ये कवियत्री महोदया के पूरे जीवन की संचित रस से भरी गागर है। एक के बाद एक क्या नहीं है इसमें।जैसा कि उन्होंने आत्म कथ्य में कहा कि बीच के अंतराल में लेखन छूट गया पर पढ़ा बहुत।बस यही दिख गया। प्रसाद पंत निराला सबकी मनोहर झांकी और महादेवी जी की तो पूर्ण अनुकृति। बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागनी हूं, तो मानो पूरी तरह उतर कर आ गयी।

सरस्वती वंदना में पूरी तरह निराला जी का वीणा वादिनी वर दे का प्रबल प्रभाव दिखता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर जी का भाव  बने लेखनी निडर सच्चाई का बल दे में स्पष्ट दिखाई देता है।

अपने‌ परिवार में मां पिताजी भाई छोटी बहना पर बाल हृदय के सहज भावनाओं को बड़े वत्सल भाव तो पति के लिए आदर मिश्रित प्रेम को अभिव्यक्त करने में वे बहुत सफल रहीं हैं। मुझे कहने में कोई संकोच नहीं है कि आजकल यह कम होता दिखाई दे रहा है। इस के बाद आप देखें कि आधुनिक जितने विषय है उन पर बड़ी सार्थक कविताये रची हैं। बेटी पर तो अपने समय से लेकर आज तक की सारी सम सामयिक समस्याएं सकारात्मक भाव से प्रस्तुत की गई है। श्रंगार से लेकर अधिकाधिक रसों पर इतनी हृदयग्राही शैली में रची हैं कि बस इन सुरुचिपूर्ण कविताओ को पढ़ते रहो, पढ़ते रहो‌। जिस किसी के पुस्तक हाथ आये, वह अवश्य पढ़े। आज की पीढ़ी पढ़ने में कुछ कोताही बरतती है पर मुझे ऐसा लगता है कि जिस सहजता की ये कविताये है मिलने पर वे भी अवश्य पढ़ेंगे। कठिन बातों को सरल बनाना दामिनी जी की बहुत बड़ी विशेषता है।

अंत में फिर कहना चाहूंगी कि हृदय से चढ़ाये गये इन काव्य कुसुमों को  पूजा में चढ़ाते अंजली लिए जल पुष्प रूपी अर्घ जैसे भाव से गृहण करें। अत्यधिक बधाई की पात्र हैं दामिनी जी और मुझे इन कविताओं पर लिखने को प्रेरित करने हेतु श्री विवेकरंजन श्रीवास्तव जी का हृदय से आभार।

ई-अभिव्यक्ति ने श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी द्वारा श्रीमती दामिनी खरे जी के काव्य संग्रह अर्घ की समीक्षा को प्रकाशित किया था। आप उसे निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं 👇🏻

☆ “अर्घ, कविता संग्रह” – सुश्री दामिनी खरे ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

चर्चाकार… श्रीमती नीलम भटनागर

सेवा निवृत व्याख्याता हिंदी, जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “स्नेहगंधा माटी मेरी” (काव्य संग्रह)– श्री केशव दिव्य ☆ चर्चाकार – सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

इन्दिरा किसलय

☆ पुस्तक चर्चा  ☆ “स्नेहगंधा माटी मेरी” (काव्य संग्रह)– श्री केशव दिव्य ☆ चर्चाकार – सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

पुस्तक – स्नेहगंधा माटी मेरी

कवि – श्री केशव दिव्य

प्रकाशक – बुक्सक्लिनिक पब्लिशिंग, बिलासपुर (छ ग)

मूल्य – 150/- रुपए

समीक्षक –  सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ स्नेहगंधा माटी मेरी – संवेदना की अविकल छवि” – इन्दिरा किसलय ☆

अपनी माटी की गंध को पूरी ईमानदारी से शब्दों के हवाले करते हुये कवि केशव दिव्य कहने पर विवश कर देते हैं कि “कला, कला के लिये नहीं, जीवन के लिये होती है।”

छत्तीसगढ़ का अनिंद्य वन-वैभव, खेत, वादियां, मजदूर किसान, सभी के आँगन में पूरी निष्ठा से उतरी है उनकी संवेदना।आंचलिक सन्दर्भ, संज्ञाएं, दृश्य, भाषा बोलियां अपनी माटी से प्रतिश्रृत हैं।

नयी सदी के नवालोक में तकनीकी नवाचारों से लदी फँदी, बिंब बोझिल, बुद्धिवादी कविताओं की भीड़ में उनकी कविताएं नितान्त नैसर्गिक हैं।भाव एवं शिल्प दोनों दृष्टियों से द्रविड़ प्राणायाम नहीं करवातीं। वे सच्चे जनवादी के रूप में पाठकों के सम्मुख हैं।

कवि केशव दिव्य

ऐसा नहीं कि सर्वहारा की पीर ही व्यंजित हुई है, उसी के बरक्स समकाल के विकराल सवाल भी उनकी कविता को अग्निधर्मा बना रहे हैं। अगर भोगवादी व्यवस्था पर अंकुश न रहा तो “पृथ्वी नष्ट हो जायेगी।”

कोरोनाकाल में मजदूरों के विस्थापन से जैसे “हाथ कटे शहर” छटपटा रहे हैं। तंत्र की विद्रूपताएं  निरंतर टीसती हैं—

“लकड़बग्घा उठाता है सवाल/

कहाँ गये जंगल के सारे हिरण/

तभी ली किसी ने चुटकी/जनाब/पहले अपने खून से सने मुँह को तो कर लें साफ//-“

इसके खिलाफ जैसे जंगल भी आक्रोशित है – “पलाश और सेमल की /अगुआई में/आज जंगल भी/तमतमाया हुआ लगता है//-“

“क्रिया की प्रतिक्रिया” कविता में पर्यावरण ध्वंस का चित्र उपस्थित करने के लिये कवि ने हाथी के रूपक से काम लिया है।

  अर्धसत्य का पीछा करते हुये जनमन से, वे कहना चाहते हैं “पिता”–आज मुझे लगता है/काश तुम मुझे/कलम के साथ/हल की मूठ फावड़ा और कुदाल भी पकड़ाए होते//-

“सच पूछो तो” एवं “क्या नाम दूँ” जैसी नर्म कोमल कविताएं भी हैं। स्नेहगंधा शीर्षक कविता, शहर के आकर्षण से उपजे भटकाव से मुक्त कर अपनी माटी की ओर लौटा लाती है।

“चिड़िया”– सुन्दर कविता है। वह मात्र प्रकृति गीत गाती है। वह साम्प्रदायिक नहीं है।

शब्दों से छिनते हुये मानी कवि को अपार तकलीफ पहुँचाते हैं। उनकी आकाशगामी पुकार सर्वत्र व्याप्त है– “छलछद्म की कारा से मुक्त करो हमें।”

वैश्विक आतंक की विस्फोटक आवाजों के बीच उनकी कलम वेणु का स्वर रोपती है–

“सारी फिज़ाओं में/बारूद की गंध नहीं/ फूलों की खुशबू बिखरे //”

कृति में — सोनहा किरण, अंजोर, कुरिया, पसिया पानी, खोंप, गौंटिया जैसे इलाकाई शब्द, कविता के शिल्प को, माटी की अस्मिता से जोड़ते हैं।

कवि ने सारे प्रतीक प्रतिमान प्रकृति से चुने हैं।त्वदीय वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव समर्पए।

लू शुन कहते हैं– “कवि को अपने खून से लिखना चाहिए।”

संग्रह की कविताएं इसका प्रमाण स्वयं देती हैं।

कवि  – श्री केशव दिव्य

समीक्षक – सुश्री इंदिरा किसलय 

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “काँच के घर” (उपन्यास)– डॉ हंसा दीप ☆ चर्चाकार – श्री मुकेश दुबे ☆

श्री मुकेश दुबे

☆ पुस्तक चर्चा  ☆ “काँच के घर” (उपन्यास)– डॉ हंसा दीप ☆ चर्चाकार – श्री मुकेश दुबे ☆

पुस्तक  : काँच के घर (उपन्यास)

लेखिका : डॉ हंसा दीप

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली

मूल्य : 260/

☆ साहित्यिक बदसूरती का खूबसूरत दस्तावेज है यह उपन्यास” – मुकेश दुबे ☆

जीव विज्ञान और आयुर्विज्ञान की एक शाखा है ‘शारीरिकी’ या ‘शरीररचना-विज्ञान’ जिसे अंग्रेजी में Anatomy कहा जाता है । इस विज्ञान के अंतर्गत किसी जीवित (चल या अचल) वस्तु का विच्छेदन कर, उसके अंग प्रत्यंग की रचना का अध्ययन किया जाता है। हंसा दीप ने अपने सद्य प्रकाशित उपन्यास काँच के घर में हिन्दी साहित्य की बजबजाती और सड़ांध मारती देह का सूक्ष्मता से विच्छेदन किया है। यह उनकी लेखनी का कौशल है कि वर्तमान साहित्यिक कुरूपता भी लच्छेदार तंज और भाषायी सौंदर्य से संवर कर मनभावन हो उठी है। लेखिका रह भले ही विदेशी धरती पर रही हैं किन्तु इनकी लेखनी आज भी स्वदेशी सरोकारों को केन्द्र में रखकर सृजन कर रही है।

समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में लेखन से महत्वपूर्ण है लेखक का कद और वो बढ़ता है पुरस्कार से, सम्मान से। इस धारणा को कुछ लोग व संस्थाओं ने अपनी कर्मभूमि बनाकर नवीन व्यवसाय बना लिया है। मुद्दा यह नहीं क्या लिखा है, महत्वपूर्ण है किसने लिखा है… लिखे गए को कितने पुरस्कार मिले हैं और उनमें अन्तरराष्ट्रीय स्तर के कितने हैं। जाहिर है कि इस ट्रेंड में साहित्य दोयम दर्जे का और सम्मान मुख्य हो गया है। एक जगह हंसा दीप जी लिखती हैं इसी किताब में “सम्मान के लिए साहित्य की क्या जरूरत है”, सटीक व धारदार व्यंग्य है आज की भाषाई सेवा व सृजनशीलता पर। सम्मान की जुगाड़ और बंदरबांट में लगे तथाकथित बुद्धिजीवियों व साहित्यकारों और उनकी इस कमजोरी को पोषित कर फायदा उठाने वाली संस्थाओं के क्रियाकलापों को जमीन बनाकर लिखा गया यह उपन्यास सत्य के इतना करीब लगता है कि इसके मुख्य पात्र मोहिनी देववंशी व नंदन पुरी अपने आसपास के अनगिनत साहित्यकारों में नज़र आने लगते हैं। दरअसल ये फकत नाम नहीं हैं, ये जाति विशेष के प्रतिनिधि चेहरे हैं, स्वयंभू हिमालय हैं। ये अपने आप को आसमान में दमकता सितारा समझते हैं भले ही अपनी झूठी शान की आँच में इनका रोम-रोम झुलसता रहे लेकिन प्रतिद्वंदिता की पाशविक प्रवृत्ति इन्हें इंसान रहने ही नहीं देती और ये स्वयं को शीर्ष का साहित्यकार मानते हैं। साहित्य इनके लिए शतरंज की बिसात से अधिक कुछ नहीं है। शह और मात की लत में ये इतना नीचे गिर गये हैं कि मानवता भी शर्मसार है इन पर बस इनको शर्म नहीं आती है।

डॉ. हंसा दीप

स्वनामधन्य इन साहित्यकारों की कुकुरमुत्ते सी उगी साहित्यिक संस्थाएँ हिन्दी भाषा की सेवा की ओट में तरह-तरह का शिकार कर रही हैं। लेखिका के अनुसार “बहुत कुछ बदला था। सब अपनी सुविधाओं के अनुसार चीजें बदल रहे थे। लोग सिर्फ़ समूहों में ही नहीं बँटे थे, उनके दिल भी बँट गये थे।” कितना सही आकलन किया गया है लेखिका द्वारा। दिल बँट गये हैं और आत्मा शायद मृतप्राय है। वैचारिक मतभेद अब मनभेद बन गये हैं जिन्हें समयकाल व परिस्थितियों के अनुकूल कर सही साबित करने के लिए बाकायदा किलाबंदी कर सुनियोजित चालें चली जाती हैं। इन शतरंजी नबावों के वजीर, हाथी-घोड़े व पैदल भी होते हैं जो अपनी कूवत अनुसार खाने बदलते रहते हैं और कभी-कभी तो बड़ी शय पर छोटे मोहरे भी बाजी पलट देते हैं। कथानक में एक दृश्य खासा प्रभावित करता है। मोहिनी देववंशी की बेटी का विवाह और विवाह की मजबूरी पढ़ते हुए सामान्य भले लगे परन्तु हंसा जी ने इस ढेले से कई चिड़िया मार गिराई हैं। यही वो भाषाई अभिभावक बन रहे हैं जिनसे अपनी संतान का पालन ठीक से नहीं हो सका और चले हैं हिन्दी का पोषण करने। ऐसे अनेक दृश्य व उदाहरण हैं कथानक में जो गहरा प्रभाव छोड़ते हैं मन-मस्तिष्क पर।

लोकोक्तियों व मुहावरों के प्रयोग से भाषाई पंच और अधिक पैना हो गया है। संवाद जब समाप्त होता है, होठों की कमान पर व्यंग्य का तीर कस जाता है और लक्ष्य भेदन के साथ बरबस ही मुस्कान बिखर जाती है। शायद ही कोई पहलू शेष रहा हो हंसा जी की दृष्टि से। लेखन, सम्पादन, प्रकाशन व प्रचार-प्रसार पर भी गहरे प्रहार किए हैं आपने। विदेशी मुद्रा के बदले लिए जाने वाले फायदों को भी समाहित कर लिया है। ‘लिटरेरी फेस्टिवल’ की असलियत भी जान जायेगा पाठक और हो सकता है शीघ्र ही ऐसे किसी किसी आयोजन की भूमिका बनाने लगे। छद्म वाहवाही और सम्मान के आढ़तियों को भी नहीं बख्शा है हंसा जी ने। अंत में बड़े सम्मान की आस में भारत आए प्रवासी साहित्यकारों को खाली हाथ लौटाकर यह संदेश भी दिया है कि अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है। रचना ही मूल है रचयिता की पहचान का, सप्रयास बढ़ाया कद ढलते सूरज की धूप है जो परछाईं को बड़ा तो कर सकती है लेकिन स्थाई नहीं बना सकती। क्षणिक सुख केवल मरीचिका है।

लेखिका – डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada  Phone – 001 647 213 1817 Email – [email protected]

समीक्षक – मुकेश दुबे

संपर्क – विजय विला, 107, डी.डी. एस्टेट, कॉलोनी सीहोर (म.प्र.) 466001 मोबाइल – 9826243631 ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 124 ☆ ~  कृति चर्चा ~ मधुर निनाद : गीत संग्रह ~गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर” ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर” के गीत संग्रह “~ मधुर निनाद ~” पर चर्चा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 124 ☆ 

 कृति चर्चा ~ मधुर निनाद : गीत संग्रह ~गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर” ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

पुस्तक विवरण –

मधुर निनाद, गीत संग्रह

गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर”

प्रथम संस्करण २०१७

पृष्ठ १३५

मूल्य २००/-

साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर

गीतकार संपर्क चलभाष ८१२७७८९७१०, दूरभाष ०७६१ २६५५५९९)

(आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित)

समीक्षक – आचार्य संजीव वर्मा “सलिल”

छंद हीन कविता और तथाकथित नवगीतों के कृत्रिम आर्तनाद से ऊबे अंतर्मन को मधुर निनाद के रस-लय-भाव भरे गीतों का रसपान कर मरुथल की तप्त बालू में वर्षा की तरह सुखद प्रतीति होती है। विसंगतियों और विडम्बनाओं को साहित्य सृजन का लक्श्य मान लेने के वर्तमान दुष्काल में सनातन सलिला नर्मदा के अंचल में स्थित संस्कारधानी जबलपुर में निवास कर रहे अभियंता कवि गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर” का उपनाम ही मधुर नहीं है, उनके गीत भी कृष्ण-वेणु की तान की तरह सुमधुर हैं। कृति के आवरण चित्र में वेणु वादन के सुरों में लीन राधा-कृष्ण और मयूर की छवि ही नहीं, शीर्षक मधुर निनाद भी पाठक को गीतों में अंतर्निहित माधुर्य की प्रतीति करा देता है। प्रख्यात संस्कृत विद्वान आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी ने अपने अभिमत में ठीक ही लिखा है कि मधुर निनाद का अवतरण एक साहित्यिक और रसराज, ब्रजराज की आह्लादिनी शक्ति श्री राधा के अनुपम प्रेम से आप्लावित अत:करण के मधुरतम स्वर का उद्घोष है…..प्रत्येक गीत जहाँ मधुर निनाद शीर्षक को सार्थक करता हुआ नाद ब्रह्म की चिन्मय पीठिका पर विराजित है, वहीं शब्द-शिल्प उपमान चयन पारंपरिकता का आश्रय लेता हुआ चिन्मय श्रृंगार को प्रस्तुत करता है।

विवेच्य कृति में कवि के कैशोर्य से अब तक गत पाँच दशकों से अधिक कालावधि की प्रतिनिधि रचनाएँ हैं। स्वाभाविक है कि कैशोर्य और तारुण्य काल की गीति रचनाओं में रूमानी कल्पनाओं का प्रवेश हो।

इंसान को क्या दे सकोगे?, फूलों सा जग को महकाओ, रे माँझी! अभी न लेना ठाँव, कब से दर-दर भटक रहा है, रूठो नहीं यार आज, युग परिवर्तन चाह रहा, मैं काँटों में राह बनाता जाऊँगा आदि गीतों में अतीत की प्रतीति सहज ही की जा सकती है। इन गीतों का परिपक्व शिल्प, संतुलित भावाभिव्यक्ति, सटीक बिंबादि उस समय अभियांत्रिकी पढ़ रहे कवि की सामर्थ्य और संस्कार के परिचायक हैं।

इनमें व्याप्त गीतानुशासन और शाब्दिक सटीकता का मूल कवि के पारिवारिक संस्कारों में है। कवि के पिता स्वतंत्रता सत्याग्रही स्मृतिशेष माणिकलाल मुसाफिर तथा अग्रजद्वय स्मृतिशेष प्रो. जवाहर लाल चौरसिया “तरुण” व श्री कृष्ण कुमार चौरसिया “पथिक” समर्थ कवि रहे हैं किंतु प्राप्य को स्वीकार कर उसका संवर्धन करने का पूरा श्रेय कवि को है। इन गीतों के कथ्य में कैशोर्योचित रूमानियत के साथ ईश्वर के प्रति लगन के अंकुर भी दृष्टव्य हैं। कवि के भावी जीवन में आध्यात्मिकता के प्रवेश का संकेत इन गीतों में है।

समीक्षक – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-१२-२०२२, ७•३२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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