हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “पुत्तल का पुष्प वटुक” – सुश्री मीना अरोड़ा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “पुत्तल का पुष्प वटुक” – सुश्री मीना अरोड़ा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पुत्तल का पुष्प वटुक (हास्य व्यंग्य उपन्यास)

सुश्री मीना अरोड़ा

शब्दाहुति प्रकाशन, नई दिल्ली

पृष्ठ १४४ मूल्य ३९५ रु

मीना अरोड़ा का उपन्यास ‘पुत्तल का पुष्पवटुक ‘

इसी वर्ष मई माह में दिनेशपुर के लघुपत्रिका सम्मेलन में जाने का अवसर मिला तो हल्द्वानी से रचनाकार मीना अरोड़ा से भी आभासी दुनिया से निकल कर इसी दुनिया में मुलाकात हुई । ऐसी कि वे हमें दिनेशपुर से हल्द्वानी अपने घर मेहमान बना कर ही मानीं । प्यारा सा परिवार । आधी रात तक वे और उनके पतिदेव के साथ खूब सुनते सुनाते बीती । दूसरे दिन उन्होंने चलते समय मुझे अपना उपन्यास ‘पुत्तल का पुषेपवटुक’ दिया तो मैने भी अपना नया कथा संग्रह ‘नयी प्रेम कहानी’ सौंपा ।

अब मई से सितम्बर आ गया तो लगा कि एक बार उपन्यास की राह से गुजर कर देखा जाये । उपन्यास गांव के प्रधान वीरेंद्र के दूसरे बेटे पप्पू के जन्म लेने , उसे अवतार सिद्ध करने और छोटे भाई की लड़कियों संजू व रंजू से लिंगभेद करने , संत देवमूनि और डाकू तेजा के विधायक बनने जैसे अनेक प्रसंगों से चलते चलते न केवल ग्रामीण बल्कि देश की राजनीति ही नहीं धर्म के भी असली चेहरे उजागर करता आगे बढ़ता जाता है । चूंकि लेखिका ने इसके मुखपृष्ठ पर ही हास्य व्यंग्य उपन्यास का ठप्पा लगाया है तो स्वाभाविक है कि हास्य भी है और व्यंग्य की धार भी लेकिन मैं इसे शुद्ध उपन्यास ही कहना चाहूंगा । चोर चोर मौसेरे भाइयों की तरह डाकू तेजपाल और संत देवमुनि एक ही टीले के ऊपर रहते हैं । न डाकू संत के काम में दखल देते हैं और न संत डाकू के काम में । यही हमारे देश की राजनीति की डील है ।

पप्पू को वीरेंद्र व दादी रेवती अवतार साबित करने में जुटे रहते हैं लेकिन निराशा ही हाथ लगती है । वीरेन्द्र का छोटा भाई नितिन पहले आदर्शवादी और बाद में तेजपाल विधायक का निजी सचिव बनने पर समझौतावादी हो जाता है । उसकी पत्नी कंचन नितिन के बदलाव से खुश नहीं । अनेक प्रसंग हैं जब पप्पू अच्छा करने जाता है और हास्यास्पद स्थितियां बनती जाती हैं । अंत में मालती के साथ दुर्व्यवहार, करने वाले वकलू को खोजकर लाता है और मालती के परिवार को सारे गांव को भोज देने के संकट से उभार लेता है । वीरेंद्र को एक बार फिर लगता है कि पप्पू के लिए आश्रम बनवाया जा सकता है । हालांकि संजू और,रंजू ने ही पप्पू को ऐसा करने का आइडिया दिया था ! ये बेटियों लिगभेद के खिलाफ अपनी मां कंचन से मिलकर इस तरिके से आवाज उठाती हैं ।

भाषा बहुत ही चुटीली है और सचमुच व्यंग्यात्मक भी । कैसे सरकारी योजनाएं गायब हो जाती हैं । कुछ दिन बाद ही पुत्तुल गांव से सड़क, पुल , स्कूल के गायब हो जाने पर कमेटी बिठाई गयी ! दोष निर्दोष दोषियों के सिर धरा गया !

बलात्कार के दोषी वकलू को पप्पू खोजकर लाता है और पीट पीट कर कहता है -मांस , इस नीच का कटेगा और पकेगा भी ! कोई हीरा चाचा , कमला चाची और मालती को गांव से बाहर जाने को नहीं कहेगा ! यह है क्रांतिकारी पप्पू जो अंत में जाकर पिता वीरेंद्र की अवतार बनाने की आस जिंदा कर देता है !

इसी तरह यह पंचायत के बारे में कहना कि नियम , कायदे कानून , गरीब , छोटे और कमज़ोर वर्ग के लिए ही होते हैं ! ताकतवर और ऊंचे लोग कभी न्याय और कानून के मोहताज नहीं होते ! नितिन अब पहले जैसा नहीं रह गया था । वह तेजपाल का सचिव और वीरेंद्र का आज्ञाकारी भाई बन गया था !

गांव बदला, गांव वाले भी कुछ बदले पर गांव में कुछ नहीं बदला तो वह था वीरेंद्र की हुकूमत, पप्पू की अक्ल और कुछ परिवारों की गरीबी !

यही राजनीति है और यही हमारा देश ! जहां डाकू विधायक बन जाता है और हत्यारा देवमुनि ! यही डील चलती आ रही है कि कोई एक दूसरे के काम में टांग नहीं

अड़ायेगा! इसे कौन तोड़ेगा? इस दुष्चक्र से कौन निकालेगा ? इसलिए मैंने कहा कि यह सारा हास्य व्यंग्य उपन्यास नहीं कहा जा सकता । पूरा उपन्यास है जो विचार करने के लिए बहुत कुछ देता है पाठक को !

बहुत बहुत बधाई मीना अरोड़ा! लिखती रहो और हम पढ़ते रहें ! पाठक मंच की ओर से भी बधाई । इस सार्थक उपन्यास के लिए ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 123 – “व्यंग्य राग” – श्री कुमार सुरेश ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री कुमार सुरेश जी द्वारा लिखी कृति  “व्यंग्य राग” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 123 ☆

☆ “व्यंग्य राग” – श्री कुमार सुरेश ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

कृति : व्यंग्य राग

लेखक : कुमार सुरेश

प्रकाशक: सरोकार प्रकाशन, भोपाल (मप्र),

मूल्य: 200 रुपये, संस्करण वर्ष २०२०

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

कुमार सुरेश की पुस्तकें “व्यंग्य राग” व्यंग्य संकलन, व्यंग्य उपन्यास तंत्र कथा, शब्द तुम कहो, एवं भाषा सांस लेती है प्रकाशित हो चुकी हैं. स्पष्ट है कि वे बहुविध रचनाकार हैं. कविता की तरह नपे तुले शब्दों में गहरी अभिव्यक्ति इस संग्रह के छोटे छोटे व्यंग्य लेखों में पढ़ने मिली. जरा धीरे धीरे उड़ो मेरे साजना शीर्षक के साथ वे स्वप्न लोक में उड़ जाते हैं, लोग चिल्लाते हुये उनका पीछा करते हैं ” तेरी हिम्मत कैसे हुई उड़ने की, हम जमीन पर खड़े हैं और तू उड़ने लगा “, नींद खुलती है तो पत्नी सुनाती है ” क्या उड़ना उड़ना बक रहे थे, उड़ने की कोशिश भी मत करना ” मैंने उनका यह व्यंग्य उनके मुंह से सुना हुआ है. ” मुझे पता लगा कि ऊचाई के साथ दूसरों को नुकसान पहुंचाने की ताकत भी होनी चाहिये तभी लोग सफलता को स्वीकार करते हैं ” जैसे गहरे कटाक्षों से लबरेज व्यंग्य में उन्होंने अच्छे तरीके से  भाषाई ट्रीटमेंट के साथ कथ्य को निभाते हुये अपनी बात रखी है.

नदी किनारे क्षण भर मुर्गा में वे भाषा चातुर्य के साथ बैंक के लोन वसूली अभियान की बात करते हैं, किसान को नया लोन देकर, क्षण भर के लिये बैंक की कागजों पर पुराने लोन की वसूली बता, किसान को क्षण भर कर्ज मुक्त बता दिया गया, नदी के किनारे को भी अंग्रेजी में बैंक कहते हैं,  नदी किनारे किसान मुर्गा बन गया,  किसान की पीड़ा में अपना उल्लू सीधा करते वसूली कर्मचारियों पर बुनी गई हास्य व्यंग्य कथा है.

इसी शैली में सोशल मीडीया श्रमिक, पीछा छुड़ा लो जी इस नाक से, उड़ जायेगा हंस अकेला, छेड़ना हो तो सुर छेड़िये, एक इंडियन की भारतीयों से अपील, गठबंधन, ठग बंधन और लठ बंधन, ब्यूटी पार्लर और साहित्य, इनका उनका राजनैतिक कैरियर, नेता नीति नेति नेति, घोड़े कहाँ बिकते हैं भैया आदि छोटे छोटे राजनैतिक, सामाजिक विषयों पर व्यंग्य लेख पुस्तक में संकलित हैं. ये लेख वर्ष १९८७ से २०२० की लम्बी अवधि में विभिन्न समाचार पत्रों यथा नईदुनिया, राज एक्सप्रेस, विजय दर्पण टाईम्स, आदि  में प्रकाशित हुये हैं, जिसका उल्लेख फुट नोट में किया गया है.वर्तमान में  व्यंग्य, पाठक, संपादक, लेखक सभी की प्रिय विधा है. व्यंग्य को यह स्वरूप देने में श्रीलाल शुक्ल, परसाई,  शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी, नरेंद्र कोहली, शंकर पुणतांबेकर, सुशील सिद्धार्थ, की राह पर बढ़ते प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, ज्ञान चतुर्वेदी,  गिरीश पंकज, सुभाष चन्दर, सुरेश कांत जैसे अनेकानेक व्यंग्यकारों का सतत लेखन है. कुमार सुरेश भी इसी राह के अनथक यात्री हैं. वे व्यंग्य उपन्यास से व्यंग्य कविता तक के विस्तृत विधा आयाम के व्यंग्यकार हैं. एक एक्टिविस्ट से बातचीत  प्रश्न उत्तर शैली में रचा गया व्यंग्य है. साहित्य पुरस्कार योजना में हास्य कटाक्ष से भरी बिन्दु रूप नियमावली में व्यंग्य अभिव्यक्ति है. यथा नियमावली में एक नियम है कि पुरस्कार लेन देन योजना के अंतर्गत उस रचनाकार को प्रदाय किया जायेगा जो खुद किसी पुरस्कार का कर्ता धर्ता होगा, उसे अलिखित समझौता करना होगा कि “वह मेरी किताब को पुरस्कृत करेगा और मैं उसकी “. साहित्यकारों का नार्को टेस्ट, एक आभार पत्र जैसे व्यंग्य लेखो में थोड़ा डिफरेंट तरीके से मस्ती में वे व्यंग्य रस प्रवाहित करते मिले.

ओम वर्मा ने किताब की भूमिका लिखी है, उन्होंने संग्रह के व्यंग्य लेखों में सार्थकता और जीवंतता महसूस की है. पुस्तक  त्रुटि रहित मुद्रण के संग,  स्तरीय प्रस्तुति है. कुमार सुरेश से पाठको को बहुत कुछ निरंतर मिल रहा है, बस उन्हें सोशल मीडीया पर फालो कीजीये अखबार, पत्र पत्रिकाओ में उन्हें पढ़ते रहिये.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 122 – “धापू पनाला” – श्री कैलाश मण्डलेकर ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री कैलाश मण्डलेकर

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 122 ☆

☆ “धापू पनाला” – श्री कैलाश मण्डलेकर ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री कैलाश मण्डलेकर जी द्वारा लिखी कृति   “धापू पनाला” पर चर्चा ।

☆ पुस्तक चर्चा – “धापू पनाला” – श्री कैलाश मण्डलेकर – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कृति : धापू पनाला,

लेखक : कैलाश मण्डलेकर,

प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, सीहोर(मप्र),

मूल्य: 200 रुपये

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

शिवना प्रकाशन सीहोर, छोटे शहर से बड़ा साहित्यिक काम करता संस्थान है. जो अंतर्राष्ट्रीय स्तार पर पुस्तक  एवं पत्रिका प्रकाशन के साथ ही साहित्यिक गोष्ठियों तथा सम्मान के बहुमुखी आयोजन कर अपनी पहचान दर्ज कराता रहा है. यह सब शिवना के संचालक साहित्यकार तथा विचारक पंकज सुबीर की व्यैक्तिक अभिरुचियों तथा प्रयासों का सुपरिणाम है.

हाल ही शिवना ने सुप्रसिद्ध, साहित्यिक सम्मानो से देश भर में पुरस्कृत खंडवा के प्रसिद्ध व्यंग्य कर्मी श्री कैलाश मंडलेकर के हास्य व्यंग्य संग्रह धापू पनाला,का प्रकाशन कर अपनी पुस्तक सूची में मनोरंजक विविधता जोड़ी है. खुली सड़क पर, सर्किट हाउस पर लटका चांद, एक अधूरी प्रेम कहानी का दुखांत, लेकिन जाँच जारी है, बाबाओ के देश में जैसी व्यंग्य पुस्तको से कैलाश जी बेहद शांत, शालीन तरीके से व्यंग्य जगत में अपनी लम्बी पैठ बनाते चले आ रहे हैं. खण्डवा की धरती से जुड़े अनेक साहित्यकार हिन्दी के राष्ट्रीय क्षितिज पर परचम लहराते दिखते हैं, ललित निबंध में डा श्रीराम परिहार, कहानी में स्व.जगन्नाथप्रसाद चौबे ‘वनमाली’, और भी अनेको नामो की उत्कृष्ट परंपरा में कैलाश जी का नाम सुस्थापित हो चुका है.

व्यंग्य की मारक क्षमता के साथ हास्य की मार करना एक बड़ी कला है और इस कला के दर्शन करने हों तो यह किताब जरूर पढ़िये. मजेदार लेखों का संग्रह है. कालोनी के दंत चिुकित्सक, बिगड़ा हुआ कूलर और एक अदद ठेलेवाले की तलाश, एक ठहरी हुई बारात, धापू पनाला में वसंत की अगवानी, रेन कोट पहनकर नहाने के निहितार्थ, पकौड़ा पालिटिक्स, एंटी रोमियो स्क्वाड और आशिक का गिरेबान,उत्सव के पंडालों में चंदा उगाही की रोशनी, … जैसी कुल जमा बयालीस रचनायें अपने लम्बे शीर्षको में ही पाठको को आकर्षित करने के लिये काफी कुछ हिंट देती हैं. चर्चित फिल्मी गीतों के मुखड़ों को को भी कैलाश जी व्यंग्य के रूपकों के रूप में ले उड़े हैं. सुन दर्द भरे मेरे नाले, जिस गली में तेरा घर न हो बालमा, सिलि सिलि बिरहा की रात, ऐसी ही हास्य रंजक रचनायें हैं.अपने व्यंग्य लेखो के बीच बीच वे कविताओ, चौपाईयों, मुहावरों, लोकोक्तियो के प्रयोग से पाठको को बांधे रखते हैं. उनका संस्कृत अध्ययन परिपक्व है, वे मेघदूत से प्रासंगिक कथा भी अपने व्यंग्य में कोट करते दिखते हैं.

कुछ उदाहरण उधृत करना प्रासंगिक होगा जिससे मेरे पाठक समीक्षा पढ़कर किताब मंगवाने के लिये प्रेरित होंगे…

” दांत की बीमारियों के विशेषज्ञ बढ़ते जा रहे हैं… आगे चलकर हर दांत का अलग विशेषज्ञ होगा…..”

” कई बार कूलर इस दौर के नेताओ की तरह धोखाधड़ी करते नजर आते हैं…” 

“खेती को लाभ का धंधा बनाने के लिये जरूरी नही कि खेरती ही की जाये, खेत को प्लाट काटकर कालोनी भी बनाई जा सकती है  “

”  लड़के लोग रात के बारह बजे तक प्रेम करने के इरादे से सड़क पर आवारा भटका करते थे “

डा ज्ञान चतुर्वेदी ने किताब की भूमिका लिखी है, उन्होंने संग्रह के व्यंग्य लेखों में ग्रामीण परिवेश और भाषा की जीवंतता महसूस की है. पुस्तक का मुद्रण त्रुटि रहित, प्रस्तुति स्तरीय है. कैलाश जी से पाठको को बहुत कुछ निरंतर मिल रहा है, बस अखबार, पत्र पत्रिकायें पढ़ते रहिये और उन्हें सोशल मीडीया पर फालो कीजीये.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 121 – “व्यंग्य यात्रा” – संपादक… प्रेम जनमेजय ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 121 ☆

☆ “व्यंग्य यात्रा  त्रैमासिकी” – संपादक… प्रेम जनमेजय ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री प्रेम जनमेजय जी द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका  “व्यंग्य यात्रा ” पर चर्चा ।

☆ चर्चा पत्रिका की – “व्यंग्य यात्रा ”  संपादक – श्री प्रेम जनमेजय – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

व्यंग्य यात्रा  त्रैमासिकी

वर्ष १८ अंक ७१..७२ अप्रैल सितम्बर २०२२

संपादक… प्रेम जनमेजय

मूल्य मात्र २० रु

ई मेल.. [email protected]

२० रु में १५० पृष्ठो की स्थाई महत्व की विषय विशेष पर सार गर्भित सामग्री,  शार्ट में पत्रिका के रूप में किताब ही है व्यंग्य यात्रा त्रैमासिकी. यदि पत्रिका में प्रकाशित महत्वपूर्ण सामग्री में से  प्रेम जनमेजय जी के बरसों के संबंध, उनकी निरंतर व्यंग्य साधना हटा ली जाये तो किसी खास मुद्दे पर समर्थ रचनाकारो की इतनी सशक्त रचनायें तक, पत्रिका के अंतराल के तीन महीनों के सीमित टाइम फ्रेम में एकत्रित नहीं की  जा सकतीं. व्यंग्ययात्रा तो इस सीमित समय में छप भी जाती है और सुधी पाठको तक पहुंच भी जाती है. इसलिये १८ बरसों से निरंतरता बनाये हुये ऐसी गुरुतर पत्रिका की चर्चा करना आवश्यक है. मुझे तो लगता है कि व्यंग्य यात्रा त्रैमासिकी के हर अंक का समारोह पूर्वक विमोचन होना चाहिये, पर नहीं जो शांत काम करते हैं वे ढ़ोल तमाशे से दूर दूर ही रहते हैं.

यह अंक व्यंग्य उपन्यासों पर विशिष्ट सामग्री संजोये हुये है, तय है कि जब कोई शोधार्थी भविष्य में व्यंग्य उपन्यासो पर कोई गम्भीर काम करेगा तो इस अंक का उल्लेख किये बिना उसका लक्ष्य पूरा नही हो सकेगा.

इस अंक में मारीशस में हिन्दी व्यंग्य पर सामग्री है, पाथेय के अंतर्गत पुनर्पठनीय रांगेय राघव, बेढ़ब बनारसी, मनोहर श्याम जोशी, नरेंद्र कोहली, रवीन्द्र नाथ त्यागी, नागार्जुन, परसाई, श्रीलाल शुक्ल उपस्थित हैं. त्रिकोणीय में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर अरविंद तिवारी के उपन्यास ‘लिफाफे में कविता’ पर गोपाल चतुर्वेदी, प्रेन जनमेजय, अनूप शुक्ल, एवं नीरज दइया को पढ़ा जा सकता है. समकालीन व्यंग्यकारों की गद्य और पद्य व्यंग्य की रचनायें पठनीय हैं. प्रकाशन हेतु पारखी चयन दृष्टि के चलते ही व्यंग्य यात्रा में छपना प्रत्येक व्यंग्यकार के लिये प्रतिष्ठा कारक होता है. अनंत श्रीमाली जो हमें अनायास छोड़ गये हैं उन्हें श्रद्धा सुमन स्वरूप उनकी रचना ‘लीकेज की अलौकिक लीला’, बीना शर्मा,  प्रियदर्शी खैरा, राजशेखर चौबे, मुकेश राठौर, प्रभात गोस्वामी सहित निरंतर व्यंग्य सृजन में लगे अनेक नामचीन लेखको को इस अंक में पढ़ सकते हैं. पद्य व्यंग्य में दीपक गोस्वामी, डा संजीव कुमार, वरुण प्रभात, सुमित दहिया, नरेंद्र दीपक शामिल नामों में हैं. जिन व्यंग्य उपन्यासों में चर्चा लेख प्रकाशित हैं उनमें नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘अल्फा बीटा गामा’ पर प्रेम जनमेजय, यशवंत व्तयास के ‘चिंताघर’, ‘आदमी स्वर्ग में..’ विषणु नागर, ‘उच्च शिक्षा का अंडरवर्ल्ड,’ ‘इंफो काप का करिश्मा’, हरीश नवल के बहुचर्चित उपन्यास ‘बोगी नंबर २००३’, सुभाष चंदर के ‘अक्कड़ बक्कड़’, गंगा राम राजी के ‘गुरु घंटाल’, अर्चना चतुर्वेदी के ‘गली तमाशे वाली’, मीना अरोड़ा के ‘पुत्तल का पुष्प वटुक’, अजय अनुरागी के ‘जयपुर तमाशा’ पर गंभीर आलेख पठनीय तथा संदर्भ लेने योग्य हैं. इन नये उपन्यासों के टाइटिल देखें तो हम व्यंग्य के बदलते लक्ष्य, नये युग के सायबर कारपोरेट जगत के प्रभाव की प्रतिछाया देख सकते हैं. संपादकीय में प्रेम जी ने अंक के कलेवर की  व्याख्या और विवेचना गंभीरता से की है. बिना पूरा पढ़े अभी बस इतना ही. 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ सुरमयी लता – भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की सुर साधिका – श्री सुरेश पटवा ☆ डॉ.वन्दना मिश्रा ☆

डॉ.वन्दना मिश्रा

(शिक्षाविद, कवि, लेखक, समीक्षक)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ सुरमयी लता – भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की सुर साधिका – श्री सुरेश पटवा ☆ डॉ.वन्दना मिश्रा 

(संयोगवश श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तक“सुरमयी लता” की समीक्षा श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ द्वारा भी प्राप्त  हुई थी जिसे निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ा जा सकता है। )

☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 119 – “सुरमयी लता” – श्री सुरेश पटवा ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

SURMAYI LATA (HINDI)

पुस्तक : सुरमयी लता

भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की सुर साधिका

लेखक : सुरेश पटवा

प्रकाशक : मंजुल प्रकाशन

मूल्य : 195.00 रुपए

समीक्षक : डॉ.वन्दना मिश्र

सुरमयी लता चरित्र प्रधान कृति अत्यंत मार्मिक और प्रेरक है। इस कृति में लता जी के जीवन के सुरमय गेय पक्ष के वर्णित प्रसंग बहुत प्रभावित करते हैं। लता जी द्वारा गाई गयी लोरियाँ सुनकर बढ़ती हुई पीढ़ी किशोरावस्था में उन्हीं के मधुर कंठ से प्रणय गीतों का आस्वादन कर बड़ी हुई है। उनका भारतीय पारिवारिक मूल्यों, संयमित जीवन शैली का आचरण करोड़ों लोगों की प्रेरणा बना। श्री पटवा भी लता जी के मधुर गायन से आरंभ से अभी तक प्रभावित हैं इसी प्रभाव की परिणति सच्ची श्रद्धांजलि यह कृति सुरमयी लता है। गद्य -पद्य दोनों में अभिव्यक्ति का माध्यम बन सुरेश पटवा अपनी वाग़मयी प्रज्ञा का परिचय भी देते हैं।

(गम्भीर संयत साहित्यकार डॉक्टर वंदना मिश्रा जी ने मेरी पुस्तक की समीक्षा लिखी है। उनको साधुवाद सहित आज आपके समक्ष प्रस्तुत है। – श्री सुरेश पटवा)

सुरमयी लता शीर्षक से अभिव्यक्त यह कृति लता जी के जीवन संघर्ष की गाथा के साथ उनकी मधुर यादें,स्मरणीय तथ्य,विवाद ,रोचक किस्से और उनके प्रसिद्ध गीतों को आत्मीयता के साथ पटवा जी ने पिरोया है। छह अध्याय में विभक्त इस कृति में सुर भी है साज भी है लय भी है, ताल भी है,गीत तैर रहे हैं …गजल भी उदास है”
(चिड़िया फुर्र..पृष्ठ15) यह पंक्तियाँ सब कुछ कह जाती हैं।

चित्रपट संगीत का पर्याय बन चुकी लता जी के पवित्र मन की निर्मलता उनके गीतों में झलकती उनका विलक्षण गायन श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है…स्पष्ट उच्चारित शब्द कानों में अमृत- सा उँडे़ल देते…नाद ब्रह्म है…सच है लता जी की आवाज़ ब्रह्मांड में गूँज रही है…”हिमालय से हिन्द महासागर तक ,नेपाल से श्रीलंका तक,बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक अटक से कटक तक..(.पृष्ठ 23)”जिस दिन लता जी नहीं रही…आवाज गूँज रही थी…

“रहे न रहे हम,महका करेंगें..
चलते चलते वहीं पे कहीं हम तुमसे मिलेंगे ,
बन के कली..”
और.वे रोता छोड़ गईं
“महका करेंगे
बन के सबा बाग़ -ए-वफा़ में हम” (पृष्ठ 23-26)

लता जी की जीवन शैली और विराट व्यक्तित्व भारतीय सिनेमा ही नहीं अपितु हमारी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान है,जो कि अनुकरणीय है।पटवा जी कहते हैं कि यह एक ऐसी आवाज है जो सदियों में कभी एक बार ही गूँजती है..ऐसी आवाज जो मंदिर की घंटियों गिरिजाघर की खामोशी, गुरूद्वारे की तान,और मस्जिद की अजान- सी पाकीजगी देती है।

अपनी शालीन नाजुक गहरी और रूहानी आवाज से लता जी ने सात दशकों तक भारतीय जीवन की साँसों में खुशियों, उमगों,शरारतों,उदासियों, दु:ख-सुख, हताशा, अकेलेपन व उत्सवों में भागीदारी की है।उन्होंने प्रणय को सुर,व्यथा को कंधा और आँसुओं को तकिया देकर तीस से ज्यादा भाषाओं में तीस हजार से अधिक गीत गाकर मानवीय भावनाओं के सुर को पकड़ा और अन्तर्गत को सहलाया और दिलों पर राज किया है। लता जी के गायन में अभिनय का अद्भुत मिश्रण देकर कला को सहज ऊँचाई दी।

पटवा जी लिखते हैं-” जीवन भर गीता के कुछ पदों का पाठ करने वाली- गालिब, मीर, मोमिन, ज़ौक़ और दाग को सही-सही उच्चारण में पढ़ने वाली महान गायिका अपने संगीत के विस्तार से गीत गजलों की आत्मा की गहराइयों तक शताब्दियों के आर-पार जाने वाला उजाला फैलाना शुरूकर चुकी थीं (पृष्ठ35)”

गीत संगीत की लंबी पारी खेलने वाली महान कलाकार का जीवन भी आम आदमियों की संघर्ष गाथा भी है और कुछ हद तक विवादित भी पर उससे अहम उनका उजला पक्ष है जो उन्हें सराहना के सर्वोच्च शिखर तक ले जाता है। गायन की यह अलंघ्य ऊँचाई हर मन तक बात पहुँचाती है..उनकी आवाज सुनकर हर दिल गा उठता है…भौतिक रुप से ढेरों पुरस्कार पाने वाली लता जी हर दिल से सम्मानित हैं।

पार्श्वगायन इतिहास का रोचक दस्तावेज इस कृति के रुप में तेजी से रचनाकर्म से चमत्कृत करने वाले साहित्यकार सुरेश पटवा के लेखन का सफल आयाम है।

डॉ. वन्दना मिश्रा

शिक्षाविद, कवि, लेखक, समीक्षक

भोपाल,  मध्यप्रदेश।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 120 – “टांग खींचने की कला” – श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 120 ☆

☆ “टांग खींचने की कला” – श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री रामस्वरुप दीक्षित जी की पुस्तक  “टांग खींचने की कला” पर चर्चा ।

व्यंग्य सँग्रह : टाँग खींचने की कला

लेखक : रामस्वरूप दीक्षित

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली

मूल्य : 200₹

प्रकाशन वर्ष : 2022

समीक्षक : विवेकरंजन श्रीवास्तव

समीक्षक सम्पर्क [email protected]

☆ टांग खींचने की कला : एक पठनीय व्यंग्य संग्रह – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

समसामयिक घटनाओं पर हिन्दी व्यंग्य पिछली सदी के अंतिम दशकों से लिखे जाते रहे हैं. अब ये अधिकांश पत्र पत्रिकाओं के लोकप्रिय स्तंभ बन चुके हैं.तानाशाही व कम्युनिस्ट सरकारों के राज में जहां खबरों पर प्रशासन का पहरा होता है, खबरों की वास्तविक तह का अंदाजा लगाने के लिये भी लोग व्यंग्यकारों को रुचि से पढ़ते हैं. पाठक संपादकीय पन्नों  पर रुचि पूर्वक पिछले दिनो हुई घटनाओं को व्यंग्यकारों के नजरिये से पढ़कर मुस्कराता है, अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुरूप रचनाकार का इशारा समझता है, कुछ मनन भी करता है.इनके माध्यम से पाठक को बौद्धिक सामग्री मिलती है. ये व्यंग्यलेख पाठक के मानस पटल पर त्वरित रूप से गहरा प्रभाव छोड़ते हैं. और इस तरह व्यंग्यकार क्रांतिकारी भूमिका में होते हैं. तारीखों के बदलते ही अखबार अवश्य ही रद्दी में तब्दील हो जाता है पर अखबारों में प्रकाशित ऐसे व्यंग्य लेखों का साहित्यिक महत्व बना रहता है. मैने अनुभव किया है कि किंचित बदलाव के साथ घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है, और पुराने पढ़े हुये व्यंग्य पुनः सामयिक लगने लगते हैं. यह व्यंग्यकार का कौशल ही होता है कि जब वह किसी घटना का अपनी शैली में लोक व्यापीकरण कर उसे अभिव्यक्त करता है तो वह व्यंग्य, साहित्य बन जाता है. अखबार अल्पजीवी होता है, पर साहित्य का महत्व हमेशा बना रहता है. इसीलिये अखबारों में छपे ऐसे व्यंग्य लेखों के पुस्तकाकार प्रकाशन की जिम्मेदारी लेखक पर आ जाती है. इन व्यंग्य संग्रहों से कोई शोधार्थी कभी सामाजिक घटनाओं के साहित्यिक प्रभाव का पुनर्मूल्यांकन करेगा. बदलती पीढ़ीयों के पाठक जब जब इन संग्रहों के व्यंग्य लेखों के कथ्य को पढ़ेंगे, समझेंगे, उनके परिवेश तथा अनुभनुवों के साथ बदलते समय के नये बिम्ब बनाएंगे. स्मित मुस्कान, किंचित करुणा, विवशता, युग  की व्यथा, हर बार पाठक को गुदगुदायेगी, हंसायेगी, रुलायेगी, सोचने पर मजबूर करेगी.

जब मैं भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली से हाल ही प्रकाशित श्री रामस्वरूप दीक्षित की कृति ” टांग खींचने की कला ” पढ़ रहा था तो मुझे स्मरण हुआ कि मिलते जुलते टाइटिल “टांग अड़ाने के मजे” का संपादन मैंने किया था. वह किताब व्यंग्यकार मित्र  राकेश सोह्म का पहला  व्यंग्य संग्रह था.  श्री रामस्वरूप दीक्षित वरिष्ठ कवि, तथा सुस्थापित व्यंग्यकार हैं. वे समकालीन व्यंग्य नामक एक वैश्विक स्तर के साहित्यिक समूह के संस्थापक भी हैं, जिसके माध्यम से उन्होंने विशद साहित्यिक गोष्ठियां तथा व्यंग्य के विभिन्न पहलुओं पर व्यापक चर्चायें भी की हैं. टांग खींचने का भाषाई अर्थ प्रयोग के अनुरूप व्यापक होता है, जहाँ घोड़े या टट्टू भौतिक रूप से टांग खींचने पर दुलत्ती झाड़ते हैं, वहीं मनोविज्ञान के अनुसार जो पति पत्नी बातों बातों में  एक दूसरे की प्यार भरी टांग खिंचाई करते रहते हैं, उनमें परस्पर बेहतर तालमेल होता है. लायन्स क्लब में तो टेल ट्विस्टर का एक पद ही होता है, जिसका काम ही होता है कि वह उस पदाधिकारी की खिंचाई करे जो अपना दायित्व भलिभांति न निभा रहा हो, इस तरह मैनेजमेंट के फंडे के अनुसार टांग खिंचाई से कार्य दक्षता बढ़ती है. दूसरी ओर केंकड़ों की तरह की टांगखिंचाई भी होती है, जिसमें जो दौड़ में आगे निकल रहा हो उसकी टांग खिंचाई कर उसकी प्रगति बाधित कर दी जाती है. बहरहाल मैंने मनोयोग से रामस्वरूप दीक्षित जी की यह पुस्तक टांग खींचने की कला आद्योपांत पढ़ी. और इसके सभी तीस बत्तीस व्यंग्य लेखों का निहितार्थ यही समझा कि जब एक मंजा हुआ दीक्षित जी जैसा व्यंग्यकार समाज की टांगें खींचता है तो उसका मंतव्य गिराना नहीं उठाना होता है. वह इतनी कलात्मक भाषाई शैली से विसंगतियों को पकड़ कर व्यंग्य के मृदु प्रहार से टांगे खींचता है कि जिस पर दांव चला जाता है वह तुरंत सजग हो उठ खड़ा होना चाहता है, और मुड़कर देखता है कि किसी ने उसे गिरते देखा तो नहीं. रामस्वरूप जी का पहले भी एक व्यंग्य संग्रह आ चुका है, “कढ़ाही में जाने को आतुर जलेबियां ”  जो काफी चर्चित हुआ है।

“टांग खींचने की कला ” में इस शीर्षक व्यंग्य के सिवाय लेखकीय परिवेश के कई व्यंग्य हैं जैसे साहित्य क्षेत्रे, स्तंभ लेखन के मजे, कवि का दुःख, एक व्यंग्यकार की चिट्ठी समीक्षक के नाम, सफल लेखक होने के उपाय, जे बिनु काज दाहिनेहु बांए आदि आदि. दूसरे समूह के व्यंग्य परिवार और पत्नी के इर्द गिर्द वाले हैं मसलन कैसे खुश रखें पत्नी को, नहानेवाले और न नहाने वाले, पति,  परिभाषा प्रकार और महत्व, पत्नीभ्याम नमः, जब हमने मकान ढ़ूंढ़ा वगैरह.  राजनीति और पुलिस पर व्यंग्य के बिना भी कोई किताब पूरी हो सकती है ? तीसरे समूह में इसी केटेगरी के व्यंग्य रखे जा सकते हैं पुलिस सम्मान, मंत्री जी के जूते, पटवारी की कलम, अथ विभूति वर्णन, इत्यादि. संग्रह के सारे व्यंग्यों की खासियत है कि वे अपेक्षाकृत दीर्घ जीवी विषयों पर हैं. किताब में हर उम्र, प्रत्येक अभिरुचि के पाठकों के लिये मसाला है. पुस्तक ज्ञानपीठ से प्रकाशित है स्पष्टतः त्रुटिहीन मुद्रण तथा स्तरीय प्रस्तुति है. पति,  परिभाषा प्रकार और महत्व व्यंग्य की रचनाशैली नवीनता लिये हुये है. जिसमें उपशीर्षकों के माध्यम से मजेदार व्याख्या है. उदाहरण स्वरूप पतियों के प्रकार बताते हुये उपशीर्षक है… हालावादी पति.. जो पति दिन भर काम के बाद रात को नशे में चूर होकर घर लौटते हैं और पत्नी के आपत्ति करने पर अश्लील सुभाषित उच्चारित करने लगते हैं, उन्हें दीक्षित जी हालावादी पति की श्रेणि में रखते हैं. यूं हालावादियों की एक उप श्रेणि और लिखी जानी चाहिये थी, जिसमें वे नवधनाड्य पति भी हो सकते हैं जो पत्नी के साथ जाम टकराते हुये ही हाला सेवन करते हैं. अस्तु  रचनायें उम्दा हैं. गहरे कटाक्षों से किताब भरी पड़ी हैं उदाहरण के लिये ” कुछ तो अफसर होने साथ मनुष्य भी होते हैं “, ” कैसे मुसीबत के दिनों में कविता (स्त्री का नाम नहीं )ने आपको समय से जूझने की ताकत दी, या ” विक्रमादित्य को चुप देख बेताल ने फिर कहा बोल विक्रम जबाब दे नहीं तो तेरा सिर फट जायेगा, विक्रमादित्य के मुंह से निकल गया नहीं, और बेताल फिर पेड़ पर जा लटका “… बेताल कथा को अनेकानेक व्यंग्यकारों ने अपनी अभिव्यक्ति का अवलंबन बनाया है,मैंने कई  ऐसे व्यंग्य पढ़े हैं,  किन्तु दीक्षीत जी का मंहगाई की बेताल कथा को निभा ले जाना डिफरेंट लगा. बहरहाल सर्वथा पठनीय संग्रह के लिये दीक्षित जी बधाई के सुपात्र हैं, उनके आने वाले संग्रहों की प्रतीक्षा रहेगी.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 119 – “सुरमयी लता” – श्री सुरेश पटवा ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

SURMAYI LATA (HINDI)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 119 ☆

☆ “सुरमयी लता” – श्री सुरेश पटवा ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(संयोगवश श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तक“सुरमयी लता” की समीक्षा अन्य लेखक / लेखिकाओं द्वारा भी प्राप्त हुई है जिसे हम शीघ्र ही अगले अंकों में प्रकाशित कर रहे हैं।)

 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी की नवीन पुस्तक  “सुरमयी लता” की समीक्षा।

कृति. . . सुरमयी लता

लेखक. . . . सुरेश पटवा

मूल्य. . . . १९५ रु, पृष्ठ. . . १०६

प्रकाशक. . . सर्वत्र, मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपाल

चर्चाकार. . . विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

☆ तुम्हारा ये जाना न माने जमाना, रहेंगी सदा गुलजार लता – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

अलेक्सा प्ले हिट्स आफ लता, इतना कहने भर की जरूरत है और अलेक्सा अनफारगेटबल एलबम बजाने लगेगी ” तू जहाँ जहाँ भी होगा मेरा साया साथ होगा “. कुछ व्यक्ति होते हैं जो मर कर भी अमर होते हैं. अपनी सुरीली आवाज के साथ लता हमेशा हर पीढ़ी के साथ रहेंगी. सुख, दुख, राष्ट्रीय पर्व, भक्ति, त्यौहार कोई भी अवसर हो लता का कोई न कोई गीत सहज सुलभ है. गीतकार और संगीतकार को कम ही लोग याद करते हैं, अधिकांश लता जी की आवाज को पहचानते हैं और उसके जरिये ही फिल्म, हीरोईन, या गीत को जानते हैं. लता जी गीत की ब्रांड एम्बेसडर बन चुकी हैं. ऐसी लीजेंड हस्ती पर स्वाभाविक रूप से ढ़ेर सारे काम हुये हैं. नसरीन मुन्नी की किताब “लता मंगेशकर-इन हर ऑन वॉइस“, लेखक हरीश भिमानी की चर्चित किताब इन सर्च ऑफ लता मंगेशकर, लता मंगेशकर: ए बायॉग्रफी बाई राजू भारतन, ऑन स्टेज विद लता, लेखिका: नसरीन मुन्नी कबीर और रचना शाह, लता: वॉइस ऑफ द गोल्डन एरा द्वारा मंदर वी बिचू, इंफ्लुएंस ऑफ लता मंगेशकर्स सॉन्ग्स इन माई सॉन्ग्स ऐंड लाइफ, लेखक: तारिकुल इस्लाम आदि किताबें अंग्रेजी में आ चुकी हैं. मूलतः हिन्दी में अपेक्षाकृत कम काम हुआ है. यद्यपि यतींद्र मिश्रा की पुस्तक “लता: सुर गाथा” प्रकाशित हो चुकी है. हिन्दी में लता जी पर किताबों की इस कमी को बहुविध लेखक तथा अध्यययन कर्ता श्री सुरेश पटवा ने बड़ी मेहनत से सुरमयी लता लिखकर किंचित पूरा किया है. और इस तरह उन्होंने हिन्दी जगत का अर्ध्य लता जी को समर्पित किया है.

श्री सुरेश पटवा

इस पुस्तक की विशेषता है कि  शताब्दी की इस सुरसाम्राज्ञी की बड़ी जीवनी को सुरेश जी ने अत्यंत संक्षेप में आम आदमी की जिज्ञासा के अनुरूप मनोहारी तरीके से समेट कर प्रस्तुत किया है. किताब लता पर संदर्भ के रूप में तो उपयोगी है ही, गीत संगीत में रुचि रखने वाले प्रत्येक पाठक का ध्यानाकर्षण करती है. लता की आवाज में जादू था, वे बच्चों सी मीठी बोली, अठखेली करती किशोरी से लेकर प्रौढ़ संजीदगी भरी आवाज में लय ताल राग के अनुरूप गाती थीं.

1974 में लता मंगेशकर का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में सबसे अधिक गाने गानेवाली गायिका के तौर दर्ज किया गया था, जिसमें कहा गया था कि उनके द्वारा 1948 से 1974 तक सोलो, ड्यूट और कोरस में लगभग 25000 गाने गाये गये हैं, ये संख्या 20 से अधिक भारतीय भाषाओं को मिलाकर बताई गयी थी. लेकिन इस रिकॉर्ड के लिए मोहम्मद रफी साहब ने भी चुनौती कर दी और गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड को पत्र के माध्यम से दावा कर दिया कि उन्होंने सोलो ड्यूट और कोरस में लगभग 28000 गाने गाए हैं. गिनीज बुक के दूसरे एडिशन के आने के पहले ही सन 1980 में रफी साहब का निधन हो गया और उनके निधन के बाद जब 1987 में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड का नया एडिशन आया तो उसमें मोहम्मद रफी साहब के नाम के साथ लता मंगेशकर का नाम भी शामिल था, क्योंकि लता मंगेशकर लगातार गाने गा रहीं थी. परंतु  इन रिकॉर्ड के तथ्यों एवं प्रमाणिकता पर सवाल खड़े होने लगे. शोधकर्ता हरमिंदर सिंग हमराज ने लता जी के प्रत्येक गाये हुये गाने को अपनी किताब में सूचीबद्ध किया जो संख्या लगभग छः हजार गिनी गई. अतः गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड ने 1991 के एडिशन में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी दोनों का ही नाम हटा दिया. अस्तु महान व्यक्तित्व और विवादों का चोली दामन का साथ बना ही रहता है, यह असामान्य नही है. ईर्ष्या उसी से होती है जो सफल हो. फिर लता जी को तो स्वयं उनकी बहन आशा भोंसलें जी, जो स्वयं एक अत्यंत सफल प्ले बैक सिंगर हैं, उनसे भी चैलेंज मिलता रहा. पटवा जी ने अपनी किताब में एक चैप्टर ही “विवादों के साये ” लिखा है. जिसमें उन्होंने बेबाकी से लता जी के ओ पी नैयर, मोहम्मद रफी, आदि से विवादों का उल्लेख कर पाठको के लिये स्पष्ट वादिता का लेखन किया है.

दिल से, धुंधली यादें, किस्सा रस, विवादों के साये, गीत संगीत की लंबी पारी, सराहना का सर्वोच्च शिखर इन छः चैप्टर्स में सुरेश जी ने गागर में सागर भरने का प्रयास कर लता जी के प्रति एक फिल्मी संगीत के रसिक श्रोता की श्रद्धांजली के रूप में लता जी के दुखद अवसान पर मात्र ३ दिनों में यह किताब लिख कर पूरी की है. लता जी का निधन ऐसी पीड़ा दायक घटना थी, जिससे सभी स्तब्ध रह गये थे. स्वाभाविक रूप से इस मर्मांतक घटना को अपने अपने तरीके से प्रत्येक भावुक हृदय व्यक्ति ने अभिव्यक्त किया था. मैंने ये पंक्तियां लिखी थी तब जो वेब दुनिया पोर्टल पर प्रकाशित हैं…

स्वर साम्राज्ञी कोकिल कंठी, हम सब का है प्यार लता

भारत रत्न, रत्न भारत का, गीतो का सुर, सार लता ।

रागो का जादू, जादू गजल का, सरगम की लय, तार लता,

तबले की धिन् पर, सितारों की धड़कन, नगमों की रस धार लता ।

बनारस घराना, जयपुर तराना, गीतो का इकरार लता,

बैजू सुना था सुर बावरा वो, तानसेन दीदार लता।

सरहद की रेखा से सुर बड़ा है, नूपुर की झंकार लता

भारत पाक लाख दुश्दुमन हों, जनता की सरकार लता ।

तुम्हारा ये जाना न माने जमाना, रहेंगी सदा गुलजार लता

कुल मिलाकर कहना चाहता हूं कि सुरमयी लता लिखकर सुरेश पटवा जी ने एक समसामयिक जागरूख अन्वेषी लेखक होने का दायित्व निभाया है. पुस्तक तथ्यात्मक जानकारियों के साथ रोचक शैली में लिखी गई भावात्मक अभिव्यक्ति है. पठनीय है और संदर्भ में बार बार पढ़ी जाती रहेगी. पुस्तक त्रुटि रहित मुद्रण के साथ अच्छे कागज पर स्तरीय है. लता जी जैसे किरदार सार्वजनिक संपदा हो जाते हैं, जिनके विषय में हर कोई जानना चाहता है, इस तरह की परिचयात्मक किताबों की सीरीज अन्य गायको तथा फिल्म जगत के कलाकारों पर सुरेश पटवा जी से अपेक्षित है. संतोष इस बात का है कि लता जी को गायकी में स्थापित होने के लिये भले ही संघर्ष करने पड़े किंतु नये संसाधनो के जरिये आज हर मोबाईल पर स्टार मेकर्स जैसे  ऐप हैं जिनसे प्रतिभायें अपनी सार्वजनिक उपस्थिति दर्ज कर रही हैं. इंडियन आईडल जैसे रियलटी शो प्लेटफार्म हैं जिनसे लता जी के कई प्रतिरूप शनैः शनैः गायिकी में अपना स्थान बना रहे हैं. किन्तु निर्विवाद तथ्य है कि लता दी तो लता दी ही थीं, न भूतो न भविष्यति. यद्यपि जिस दिन एक नई लता स्थापित होगी, संभवतः स्वर्ग में बैठी लता जी को ही सर्वाधिक प्रसन्नता होगी, क्योंकि सुर साधना सरस्वती की तपस्या और पूजा है.


चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 119 – श्रीमदभगवदगीता – हिन्दी पद्यानुवाद – पद्य अनुवादक – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध “☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध “ जी के काव्य-संग्रह श्रीमदभगवदगीता – हिन्दी पद्यानुवादकी समीक्षा।

कृति –  श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद

पद्य अनुवादक – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध “

मूल्य – ४५० रु, पृष्ठ – २५४

पुस्तक प्राप्ति हेतु पता – ए २३३, ओल्ड मीनाल, भोपाल, ४६२०२३

☆ श्रीमदभगवदगीता – हिन्दी पद्यानुवाद– पद्य अनुवादक – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

दुख के महासागर मे जो मन डूब गया हो

अवसाद की लहरो मे उलझ ऊब गया हो

तब भूल भुलैया मे सही राह दिखाने

कर्तव्य के सत्कर्म से सुख शांति दिलाने

पावन पवित्र भावो का संधान है गीता

है धर्म का क्या मर्म, कब क्या करना  सही है

जीवन मे व्यक्ति क्या करे गीता मे यही है

पर जग के वे व्यवहार जो जाते न सहे है

हर काल हर मनुष्य को बस छलते रहे है

आध्यात्मिक उत्थान का विज्ञान है गीता

करती हर एक भक्त का कल्याण है गीता

श्रीमदभगवदगीता एक सार्वकालिक  वैश्विक ग्रंथ है. इसमें जीवन के मैनेजमेंट की गूढ़ शिक्षा है. धीरे धीरे संस्कृत जानने समझने वाले कम होते जा रहे हैं. किन्तु गीता में सबकी रुचि सदैव बनी रहेगी, अतः संस्कृत न समझने वाले हिन्दी पाठको को गीता का वही ज्ञान और काव्यगत आनन्द यथावत मिल सके इस उद्देश्य से संस्कृत मर्मज्ञ, शिक्षाविद, आध्यात्मिक तथा राष्ट्रीय भावधारा के कवि प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव  “विदग्ध” ने मूल संस्कृत श्लोक, फिर उनके द्वारा किये गये काव्य अनुवाद तथा शलोकशः भावार्थ को बढ़िया कागज व अच्छी प्रिंटिंग के साथ यह बहुमूल्य कृति प्रस्तुत की है. अनेक शालेय व विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमो में गीता के अध्ययन को शामिल किया गया है, उन छात्रो के लिये यह कृति बहुउपयोगी बन पड़ी है. स्वयं हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी ने अनेक राष्ट्राध्यक्षो को भेंट में भगवत गीता की प्रतियां भेंट में दी हैं. भगवत गीता की विशद टीकायें, अनेकानेक भाषाओ में अनुवाद के साथ ही कई रचनाकारों ने हिन्दी में भी इसके अनुवाद किये हैं. गीता के अध्येता भविष्य में भी ऐसा करते रहेंगे, क्योंकि गीता का मनोयोग से अध्ययन हृदय को स्पंदित करता है. प्रेरणा देता है. राह दिखाता है. 

भगवान कृष्ण ने द्वापर युग के समापन तथा कलियुग आगमन के पूर्व (आज से पांच हजार वर्ष पूर्व) कुरूक्षेत्र के रणांगण मे दिग्भ्रमित अर्जुन को, जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के समस्त संकेत योद्धाओ को मिल चुके थे, गीता के माध्यम से ये अमर संदेश दिये थे. गीता के इन सूत्र श्लोकों के जरिये जीवन के मर्म की व्याख्या की गई है . श्रीमदभगवदगीता का भाष्य वास्तव मे ‘‘महाभारत‘‘ है। गीता को स्पष्टतः समझने के लिये गीता के साथ ही महाभारत को पढना और हृदयंगम करना भी आवश्यक है। महाभारत तो भारतवर्ष का क्या ? मानव  इतिहास है। ऐतिहासिक एवं तत्कालीन घटित घटनाओं के संदर्भ मे झांककर ही श्रीमदभगवदगीता के विविध दार्शनिक-आध्यात्मिक व धार्मिक पक्षो को व्यवस्थित ढ़ंग से समझा जा सकता है।

जहॉ भीषण युद्ध, मारकाट, रक्तपात और चीत्कार का भयानक वातावरण उपस्थित हो वहॉ गीत-संगीत-कला-भाव-अपना-पराया सब कुछ विस्मृत हो जाता है फिर ऐसी विषम परिस्थिति मे ज्ञान चर्चा की कल्पना बडी विसंगति जान पडती है। क्या रूदन में संगीत संभव है?  किंतु यह संभव हुआ है- तभी तो गीता के माहात्म्य में कहा गया है ‘‘गीता सुगीता कर्तव्य‘‘  । अतः संस्कृत मे लिखे गये गीता के श्लोको का पठन-पाठन भारत मे जन्मे प्रत्येक भारतीय के लिये अनिवार्य है। संस्कृत भाषा का जिन्हें ज्ञान नहीं है- उन्हे भी कम से कम गीता और महाभारत ग्रंथ क्या है ? कैसे है ? इनके पढने से जीवन मे क्या लाभ है ? यही जानने और समझने के लिये भावुक हृदय प्रो चित्र भूषण जी ने साहित्यिक श्रम कर कठिन किंतु जीवनोपयोगी संस्कृत भाषा के इन सूत्रो  का पद्यानुवाद किया है, और युगानुकूल सरल करने का प्रयास किया है।

साहित्य मनीषी कविश्रेष्ठ प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव जी, जो न केवल भारतीय साहित्य-शास्त्रो धर्मग्रंथो के अध्येता हैं बल्कि एक कुशल प्रवक्ता भी हैं, वे स्वभाव से कोमल भावो के भावुक कवि भी है। निरंतर साहित्य अनुशीलन की प्रवृत्ति के कारण विभिन्न संस्कृत कवियो की साहित्य रचनाओ पर हिंदी पद्यानुवाद भी आपने प्रस्तुत किया है. महाकवि कालिदास कृत ‘‘मेघदूतम्‘‘ व रघुवंशम् काव्य का आपका पद्यानुवाद दृष्टव्य, पठनीय व मनन योग्य है।गीता के विभिन्न पक्षों जिन्हे योग कहा गया है जैसे विषाद योग जब विषाद स्वगत होता है तो यह जीव के संताप में वृद्धि ही करता है और उसके हृदय मे अशांति की सृष्टि का निर्माण करता है जिससे जीवन मे आकुलता, व्याकुलता और भयाकुलता उत्पन्न होती हैं परंतु जब जीव अपने विषाद को परमात्मा के समक्ष प्रकट कर विषाद को ईश्वर से जोडता है तो वह विषाद योग बनकर योग की सृष्टि श्रृखंला का निर्माण करता है. और इस प्रकार ध्यान योग, ज्ञान योग, कर्म योग, भक्तियोग, उपासना योग, ज्ञानयोग,  कर्मयोग,   विभूति योग, विश्वरूप दर्शन विराट योग, सन्यास योग, विज्ञान योग, शरणागत योग, आदि मार्गो से होता हुआ मोक्ष योग प्रशस्त होता है. प्रकारातंर से  विषाद योग से प्रसाद योग तक यात्रा संपन्न होती है।

इसी दृष्टि से गीता का स्वाध्याय हम सबके लिये चरित्र निर्माण, किंकर्तव्यविमूढ़ पलों में जीवन की राह ढूंढने में उपयोगी हैं. अनुवाद में प्रायः दोहे को छंद के रूप में प्रयोग किया गया है. कुछ अनूदित अंश इस तरह हैं..

पहला ही श्लोक है

धर्म क्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय

शब्दशः अनुवाद किया गया है

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध हेतु तैयार

मेरों का पाण्डवों से संजय क्या व्यवहार

पहले ही अध्याय के २० वें श्लोक में आत्मा की अमरता इस तरह प्रतिपादित की गई है. . .

आत्मा शाश्वत अज अमर, इसका नहीं अवसान

मरता मात्र शरीर है, हो इतना अवधान

भावार्थ भी नीचे दिया गया है…

आत्मा न तो किसी काल में जन्म लेती है, और न ही मरती है. आत्मा अजन्मी नित्य, सनातन, और पुरातन है. शरीर के मारे जाने पर यह नहीं मरती.

एक चर्चित श्लोक है…

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहृणाति नरोपराणी

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्ययानि संयाति नवानि देहि

पदयानुवाद किया गया है…

जीर्ण वसन ज्यों त्याग नर, करता नये स्वीकार

त्यों ही आत्मा त्याग तन, नव गहती हर बार

अध्याय ५ कर्म सन्यास योग है जिसके ८वें और ९वें श्लोक का भावानुवाद है…

स्वयं इंद्रियां कर्मरत, करता यह अनुमान

चलते, सुनते, देखते ऐसा करता भान।।8।।

सोते, हँसते, बोलते, करते कुछ भी काम

भिन्न मानता इंद्रियाँ भिन्न आत्मा राम।।9।।

इसी अध्याय का २९वां श्लोक है

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥

 

हितकारी संसार का, तप यज्ञों का प्राण

जो मुझको भजते सदा, सच उनका कल्याण।।29।।

अध्याय ९ से..

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।

मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥

मै ही कृति हूँ यज्ञ हूँ, स्वधा, मंत्र, घृत अग्नि

औषध भी मैं, हवन मैं, प्रबल जैसे जमदाग्नि।।16।।

इस तरह प्रो श्रीवास्तव ने श्रीमदभगवदगीता के श्लोको का पद्यानुवाद कर हिंदी भाषा के प्रति अपना अनुराग तो व्यक्त किया ही है किंतु इससे भी अधिक सर्व साधारण के लिये गीता के दुरूह श्लोको को सरल कर बोधगम्य बना दिया है. गीता के प्रति गीता प्रेमियों की अभिरूचि का विशेष ध्यान रखा है । गीता के सिद्धांतो को समझने में साधको को इससे बडी सहायता मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। अनुवाद बहुत सुदंर है। शब्द या भावगत कोई विसंगति नहीं है।  गीता के अन्य अनुवाद या व्याख्यायें भी अनेक विद्वानो ने की हैं पर इनमें लेखक स्वयं अपनी संमति समाहित करते मिलते हैं जबकि इस अनुवाद की विशेषता यह है कि प्रो श्रीवास्तव द्वारा ग्रंथ के मूल भावो की पूर्ण रक्षा की गई है।

आखिरी अठारहवें अध्याय के अंतिम श्लोक का अनुवाद है…

जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं तथा धनुर्धर पार्थ

विजय सुनिश्चित वहाँ ही, मेरी मति निस्वार्थ

अंत में यही कहूंगा कि

श्री कृष्ण का संसार को वरदान है गीता

निष्काम कर्म का बडा गुणगान है गीता

तो घर पर गीता को केवल पूजा के स्थान पर अगरबत्ती लगाने के लिये न रखें. उसे पढ़ने की टेबल पर रखें, और ऐसा माहौल बनायें कि बच्चे इसे पढ़ें समझें. आवश्यक हो तो बच्चो के लिये हिन्दी या अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध करवायें.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 118 – “आज की मधुशाला (काव्य संग्रह)” – डॉ संजीव कुमार ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 118 ☆

☆ “आज की मधुशाला (काव्य संग्रह)” – डॉ संजीव कुमार ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ संजीव कुमार जी के काव्य-संग्रह “आज की मधुशाला” की समीक्षा।

पुस्तक – आज की मधुशाला

लेखक  – डा संजीव कुमार

प्रकाशक – इंडिया नेटबुक्स, नोयडा

संस्करण –  २०२२,

मूल्य – ३५० रु

☆ एक सदी के अंतराल से मधुशाला का सार्थक रिमेक – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मनोभावना और सरोकारों को स्पर्श करता साहित्य अमर हो जाता है. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला ऐसी ही अद्भुत काव्य कृति है, जिसके लक्षणा और व्यंजना अर्थ अमिधा अर्थो से कहीं ज्यादा व्यापक और मर्मस्पर्शी हैं. वर्ष 1935 में प्रकाशित मधुशाला के अनगिनत संस्करण पुनर्प्रकाशित हो चुके हैं, अनेक भाषाओ में इसके अनुवाद और भावार्थ तथा आध्यात्मिक व्याख्यायें की गई हैं. उमर खैय्याम की रूबाइयों से प्रेरित मधुशाला हिन्दी साहित्य की धरोहर है. मधु, मदिरा, हाला (शराब), साकी (शराब पड़ोसने वाली),  प्याला  (ग्लास), मधुशाला और मदिरालय की मदद से जीवन की जटिलताओं की सरल, गेय व्याख्या ने इसे रसिक स्वरूप में प्रतिष्ठित किया. बाद में नृत्य-नाटिका, आडियो व विभिन्न स्वरूपों में मधुशाला की अनेक प्रस्तुतियां होती रही हैं. रुबाईयों के सहज छंद बार बार अनेक कवियों के द्वारा अपनाये जाते रहे हैं. बच्चन जी के स्वर्गवास पर मैने “नीर नर्मदा का मधु है” लिखकर उन्हें श्रद्धांजली दी थी..

“कण कण शंकर बन आप्लावित ऐसी है माँ की मधुशाला,

माँ के दर्शन से पायें सुदर्शन को बन साकी पीने वाला”.

डा संजीव कुमार वर्तमान साहित्य जगत में वह नाम बन गया है, जो श्रेष्ठ विगत का अध्ययन कर, वर्तमान पर संधारित करके नितांत नया बनाकर आज के हिन्दी प्रेमी विश्व के लिये नूतन गढ़ रहे हैं. मुझे खुशी है कि मुझे डा संजीव कुमार रचित आज की मधुशाला के अध्ययन का सुअवसर मिला. मूल मधुशाला में १३५ हिंदी रुबाईयां हैं, उसी का अवलंब लेकर आज की मधुशाला में भी डा संजीव कुमार ने १३५ रुबाईयां ही लिखी हैं, वही शैली है बस दृश्य परिवर्तित हैं. बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशको में सूफी वाद का प्रतिनिधित्व करती मूल मधुशाला लिखी गई थी. डा संजीव कुमार की आज की मधुशाला को पढ़ते हुये  ऐसा लगता है कि एक सदी के अंतराल से पुनः स्टेज का गिरा हुआ पर्दा उठा है और मूल मधुशाला का सार्थक रिमेक हिन्दी प्रेमियों के लिये आया है.

उदाहरण देखिये, पहला ही पद है…

मधुशाला सौगात मानकार दिल ने सदा संभाली है,

हरि की इच्छा नेह समझकर हमने अब तक पाली है.

युग बदला है जीवन बदले बदल गई साकी बाला,

मौन ताकती रहती व्याकुल अब तो सबको मधुशाला.

या आत्म केंद्रित युग परिवर्तन पर यह देखिये…

प्यास तपाती थके पांव से

नाच नहीं पाता कोई

प्याला लेकर साकी बनकर

आज नहीं गाता कोई

४६ वीं रुबाई में हरिवंश राय बच्चन जी ने लिखा था…

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,

ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,

कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?

शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।

आज की मधुशाला में वहीं पर डा संजीव कुमार लिखते हैं…

मंदिर मस्जिद के विवाद में बडी सियासत होती है

देख दिलों की आज दूरियां साकी घायल होती है

कहाँ शरण पीने वाले को कहां मार्ग का दर्शन है

भटक रहा हे प्याले के संग वह ढ़ूंढ़ रहा हे मधुशाला…  ४६

किसी रचना के इस तरह के महत्वपूर्ण कालांतरण कार्य हेतु मूल कवि के चोले में परकाया प्रवेश कर यथा स्वरूप रचना करने में डा संजीव कुमार की सफलता हेतु वे हिन्दी जगत की बधाई के सुपात्र हैं. यह आज की मधुशाला उसी तरह बारम्बार पढ़ी जायेगी जैसे मूल मधुशाला सदैव प्रासंगिक बनी हुई है. डा संजीव कुमार स्वयं इंडिया नेटबुक्स, नोयडा के निदेशक हैं, कहना न होगा कि पठनीय सामग्री के साथ साथ किताब का प्रकाशन, प्रस्तुति, कागज,  त्रुटि रहित मुद्रण आदि सब कुछ उत्कृष्ट कोटि का वैश्विक स्तर का है. मैं और उदाहरण देकर या रुबाईयों की व्याख्या करके आपके स्वयं पढ़ने के आनंद को कम नहीं करना चाहता, इसलिये बस यह लिखते हुये कि तुरंत आर्डर करें और इत्मिनान से मूल मधुशाला के संग संग आज की मधुशाला पढ़ें, और वैचारिक मधुर द्वंद का आनंद उठायें. एकदम पैसा वसूल, अवश्य पठनीय तथा संग्रहणीय किताब है.

अंत में एक सौ तैंतीसवा छंद देखिये..

पहले पंथ मतो का इतना उग्र रूप न दिखता था

अब तो घड़ी घडी लिखते हैं सब जैसे सेक्युलर बन के

पहले फिरते थे मधुशाला के पीछे याची बनकर

अब तो सबने छोड़ दिया है फिर फिर जाना मधुशाला

युग परिवर्तन को महसूस कीजिए.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 117 – “अस्तित्व की यात्रा (लघुकथा संग्रह)” – श्रीमती कान्ता राय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्रीमती कान्ता राय जी के लघुकथा संग्रह “अस्तित्व की यात्रा” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 117 ☆

☆ “अस्तित्व की यात्रा (लघुकथा संग्रह)” – श्रीमती कान्ता राय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – अस्तित्व की यात्रा (लघुकथा संग्रह)   

लेखिका – कान्ता राय

पृष्ठ १६८, मूल्य ३६०, संस्करण २०२१

प्रकाशक… अपना प्रकाशन, भोपाल

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

श्रीमती कान्ता राय

हाल ही राही रेंकिंग के इस वर्ष घोषित रचनाकारों में इस कृति की लेखिका कान्ता राय का नाम भी शामिल है, यह उल्लेख इसलिये कि लघुकथा के क्षेत्र में स्वयं के लेखन तथा लघुकथा शोध केंद्र के माध्यम से लघुकथा वृत्त के नियमित प्रकाशन, लघुकथा केंद्रित वेबीनारों के संयोजन आदि के जरिये लंबे समय से लेखिका लघुकथा पर एक टीम वर्क कर रही हैं, जिसे साहित्य जगत स्वीकार रहा है. मूलतः कान्ता राय एक अहिन्दी भाषी, हिन्दी रचनाकार हैं. उन्हें समर्पित भाव से भोपाल के विभिन्न साहित्यिक आयोजनो में सक्रिय भूमिका निभाते देखा जा सकता है. मैंने उनकी पुस्तक अस्तित्व की यात्रा लघुकथा संग्रह की छोटी छोटी किन्तु बड़े संदेशे देती कहानियां पढ़ीं. कविता के बाद लघुकथा ही वह विधा है जिसमें न्यूनतम वाक्यों में अधिकतम कथ्य व्यक्त किया जा सकता है. इस तरह यह ‘गागर में सागर’ भर देने की कला है. अस्तित्व की यात्रा की लघुकथाओ से गुजरते हुये मैंने पाया कि कान्ता राय ने अपनी कहानियों से जो शब्द चित्र रचे हैं वे यथावत पाठक के मानस पटल पर पुनर्चित्रित होते हैं. पाठक रचना का संदेश ग्रहण करता है एवं कथा बिम्ब से ध्वनित होती व्यंजना से प्रभावित होता है . उनकी लघुकथाओ में भाषाई मितव्ययता है. तीक्ष्णता है, अभिधा में संक्षिप्त वर्णन है तो  लक्षणा और व्यंजना शक्ति का उपयुक्त प्रयोग मिलता है.

प्रभावोत्पादकता में लघुकथा का शीर्षक अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान करता है, कान्ता राय की लघुकथाओ के कुछ शीर्षक इस तरह हैं.. लाचार आँखें, आबदाना, कागज का गांव, मेरे हिस्से का चाँद, डोनर चाहिये, अस्तित्व की यात्रा, मेड इन इंडिया, ९वर टेक, खटर पटर… इस तरह वे शीर्षक सेही पाठक को आकर्षित करती हैं और कौतुहल जगा कर उसे लघुकथा पढ़ने के लिये प्रेरित करती हैं. लघुकथा के विन्यास में विसंगति पर “सौ सुनार की एक लुहार की” वाला ठोस प्रहार देखने को मिलता है. कथ्य घटना का नाटकीय और रोचक वर्णन तभी किया जा सकता है, जब रचनाकार में अभिव्यक्ति का कौशल एवं भाषा पर पकड़ हो, यह गुण लेखिका की कलम में मुखरित मिलता है. शब्द विन्यास और आकार में कान्ता राय की लघुकथायें आकार की सीमाओ का निर्वाह करती हैं. संभवतः “व्रती” शीर्षक से लघुकथा संग्रह की सबसे छोटी रचना है… ” सालों गुजर गये, मोहित विदेश से वापस नहीं लौटे. प्रतिदिन आने वाला फोन धीरे धीरे महीनों के अंतराल में बदल गया. पतिव्रता अपना धर्म निर्वाह कर रही थी कि आज अशोक आफिस में दोस्ती से जरा आगे बढ़ गये, उसने भी इंकार नहीं किया और व्रत टूट गया “.

इस छोटी से कथा में लांग डिस्टेंस रिलेशनशिप की वर्तमान सामाजिक समस्या, स्त्री पुरुष संबंधो का मनोविज्ञान बहुत कुछ संप्रेषित करने में वे सफल हुई हैं.

पुस्तक की शीर्षक लघुकथा अस्तित्व की यात्रा है. इस लघुकथा का कला पक्ष कितना प्रबल है यह देखिये  “… वह ठिठकी.. आँखो में कठोरता उतर आई, वह प्रसवित जीव को लेकर स्वयं शिकार करने शेरनी बनकर निकल पड़ी, वह अब स्त्री नहीं कहलाना चाहती थी. “

संक्षेप में अपने पाठको से यही कहना चाहता हूं कि किताब पैसा वसूल है, अब तक लघुकथा के एकल संग्रह कम ही हैं, यह महत्वपूर्ण संग्रह पठनीय है और लघुकथा साहित्य में एक मुकाम बनायेगा यह विश्वास देता है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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