हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा ☆ खामोशियों की गूँज (काव्य संग्रह) – सुश्री अदिति सिंह भदौरिया ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆

श्री दीपक गिरकर

☆ पुस्तक चर्चा ☆ खामोशियों की गूँज (काव्य संग्रह) – सुश्री अदिति सिंह भदौरिया ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆

पुस्तक  : खामोशियों की गूँज  (काव्य संग्रह) 

लेखिका  : अदिति सिंह भदौरिया 

प्रकाशक : पंकज बुक्स, 109-, पटपड़गंज गांव, दिल्ली -110091

आईएसबीएन : 978-81-8135-150-0

मूल्य   : 195 रूपए

☆ रूहानी प्रेम की कविताएं – श्री दीपक गिरकर ☆

खामोशियों की गूँजसुपरिचित लेखिका अदिति सिंह भदौरिया का प्रथम कविता संग्रह हैं। पत्र-पत्रिकाओं में इनके लेख, कहानियाँ, लघुकथाएँ, कविताएं और समसामयिक विषयों पर आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। इस संग्रह में प्रेम, इश्क़,  मोहब्बत, रूमानियत को अभिव्यक्त करती कविताएं हैं। साहित्यिक विधाओं में कविता ही ऐसी विधा है जो रूहानी इल्म के सबसे ज्यादा करीब है। इस संकलन में 119 छोटी-छोटी कविताएं संकलित हैं। इस कविता संग्रह की भूमिका बहुत ही सारगर्भित रूप से वरिष्ठ साहित्यकार एवं राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के संपादक डॉ. लालित्य ललित ने लिखी है। डॉ. लालित्य ललित ने अपनी भूमिका में लिखा है – जीवन के हर पक्ष को बड़ी मासूमियत से अदिति ने ऑब्ज़र्व किया है। इसी कारण से इनकी रचनाओं में परिवेश की मौलिकता और उसका आकर्षण बोध यहाँ देखने को मिलता है।

सुश्री अदिति सिंह भदौरिया

इस कविता संग्रह की पहली कविता अक्स ही इतनी प्रभावशाली है कि पाठक अपनी उत्सुकता रोक नहीं पाता है। सहज और निश्छल प्रेम में जीवंतता को अभिव्यक्त करती ये कविताएं पाठकों को प्रेम, मोहब्बत और मानवीय संवेदनाओं से अभिभूत कर देती हैं। अदिति सिंह रचना में डूबकर सृजन करती हैं इसी वजह से इनकी रचनाएं पाठकों से भी उसी शिद्दत से संवाद करती हैं। अक्स”, “अश्कों के प्रवाह और खामोशियाँ को उनके इस काव्य संग्रह की सबसे सशक्त कविताएं कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ये कविताएं पाठकों को अंदर तक झकझोर देती है। अदिति सिंह ने अत्यंत सूक्ष्मता के साथ इन कविताओं को रचा हैं। अक्स कविता की पंक्तियाँ – तुम मुझे भूल गए तुझको भुलाऊँ कैसे? / आईनादिल से तेरा अक्स मिटाऊँ कैसे? / जिसको रखा सदा सीप में मोती की तरह, / तू बता अश्क़ वह रुख पर गिराऊँ कैसे ! इस कविता के अंत में कवयित्री लिखती हैं – हाँ छिपाना चाहूँ तुझसे मैं ज़ख्म अपने, / पर टूटा आईना कहे मुझे, तेरा अक्स छिपाऊँ कैसे? अश्कों के प्रवाह रचना में लेखिका कहती हैं – कागज़ पर क़लम से मैंने खुद को सींचा है, / अश्कों के प्रवाह को सीने में भरकर देखा है ! / पढ़ पाओगे तुम शब्दों को, / पर अहसास नहीं इनमें होंगे ! / क्योंकि ख़ामोशी के शब्दों को मैंने, / पलकों की स्याही से सोखा है ! “खामोशियाँ कविता की पंक्तियों को देखिए – खामोशियों की चीखें दूर तक फ़ैल गई, / वरना शब्दों ने तो कब का कफ़न ओढ़ लिया है !  

कवयित्री की रचनाओं में कहीं-कहीं तो भाव इतने गहन हैं कि मन ठहर सा जाता हैसन्नाटे की गूँज में खोना चाहती हूँ, / मैं शब्दों के अहसास से दूर, / जीवन को जीना चाहती हूँ ! / मैं चाहती हूँ एक क्षितिज के / छोर मिलते हुए देखना / और उस छोर तक, / जीवन की डोरी को बुनना चाहती हूँ ! / जाने कब सांझ ढले जीवन की, / इस जीवन में खुद को जीना चाहती हूँ ! / तन्हाई की कब्र पर, / एक आह का इंतज़ार है ! (सन्नाटे की गूँज) संकलन की अन्य कविताएं फसल यादों की”, “सपनों की बूँद”, “खामोशी”, “तन्हाई”, “ख़्वाब”, “सागर का सूनापन”, “क़लम के रंग”, “कारवांदिल को झकझोर कर रख देती हैं।

अदिति सिंह की कविताएं सहज, सरल और संप्रेषणीय हैं। कवयित्री की रचनाएं सीधी और सादा लफ़्ज़ों में है। कविता की भाषा और शब्दों का चयन प्रभावपूर्ण है। कवयित्री की रचनाओं में आदि से अंत तक आत्मिक संवेदनशीलता व्याप्त है। लेखिका की रचनाओं में जीवन के तमाम रंग छलछलाते नज़र आते हैं। कुछ कविताओं में भाव रूमानी हैं तो कुछ कविताओं में भाव साधारण हैं। संग्रह की कुछ कविताओं में उपमाएं आकर्षित करती है। संग्रह का शीर्षक खामोशियों की गूँजबहुत लुभावना, सटीक और सार्थक है। इश्क़ और मोहब्बत में खामोशियों की भी जुबां होती है। यहाँ खामोशियाँ हैं, ऐसे ज़ख्म हैं जो आँखों से दिखते नहीं, कसक है, यादों की टीस है, तन्हाईयाँ हैं, धड़कन है, विश्वास है, ख़्वाब है, उम्मीद है, सपने हैं, जूनून है, भीगे पलों के गहरे अहसास है। ये कविताएं इबादत की मंज़िल खड़ी करती हैं। यह कविता संग्रह इश्क, मोहब्बत के बेहद रूमानी सफर पर पाठकों को ले जाने का प्रयास करता है। काव्य प्रेमियों के लिए यह एक अच्छा कविता संग्रह है। आशा है अदिति सिंह भदौरिया के इस प्रथम काव्य संग्रह खामोशियों की गूँज का हिंदी साहित्य जगत में स्वागत होगा।

समीक्षक – श्री दीपक गिरकर

संपर्क – 28-सीवैभव नगरकनाडिया रोडइंदौर– 452016 

मोबाइल : 9425067036

मेल आईडी : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ पुस्तक चर्चा ☆ “बचते बचते प्रेमालाप (व्यंग्य संग्रह)” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆ श्री राहुल देव ☆

श्री राहुल देव 
 
पुस्तक चर्चा ☆ “बचते बचते प्रेमालाप (व्यंग्य संग्रह)” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆ श्री राहुल देव ☆

पुस्तक – बचते बचते प्रेमालाप (व्यंग्य संग्रह)

लेखिका – सुश्री अनीता श्रीवास्तव

पृष्ठ 142

मूल्य – 450/-

संस्करण – 2022

प्रकाशक – अनामिका प्रकाशन, प्रयागराज

☆  सार्थक व्यंग्य की उमड़ती नदी  –    राहुल देव ☆

कहा जाता है कि विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले लेखक कला वर्ग के साहित्यिकों के बनिस्पत अच्छे साहित्यकार होते हैं | व्यंग्यभूमि मध्य प्रदेश की उभरती हुई व्यंग्य लेखिका अनीता श्रीवास्तव का पहला व्यंग्य संग्रह ‘बचते बचते प्रेमालाप’ पढ़ते हुए यह बात पूरी तरह से सच होती दिखाई देती है | सबसे पहले तो मुझे किताब के कलात्मक कवर व रोमांटिक शीर्षक को देखकर एकबारगी कविता संग्रह का भ्रम हुआ लेकिन नहीं यह तो भरे पूरे व्यंग्यों से सजा हुआ शानदार व्यंग्य संग्रह निकला | इस संग्रह में उनके 42 व्यंग्य शामिल है जिनसे लेखिका के व्यंग्य प्रेम और उनके रचना प्रक्रिया का पर्याप्त परिचय पाठक को प्राप्त हो जाता है |

सुश्री अनीता श्रीवास्तव

अधिसंख्य लेखकों की तरह अनीता भी कविता, कहानी और बाल गीतों की यात्रा तय करते हुए व्यंग्य तक पहुंची हैं और अब उन्हें समझ में आ गया है की यही उनकी असली विधा है | अपनी बात में लेखिका की ईमानदार आत्मस्वीकारोक्ति पढ़कर मैं यही कहूंगा देर आए दुरुस्त आए | वैसे तो परिमाणात्मक रूप से व्यंग्य साहित्य में स्त्री लेखिकाओं की आमद बढ़ी है लेकिन आमतौर पर कई सीमाओं में बंद होने के कारण उनका लेखन गुणात्मक रूप में उस तरह से विकसित नहीं हो पाता जैसा कि साहित्यगत कसौटियों की अपेक्षा होती हैं | आमतौर पर वह विचार के तौर पर कमजोर होते हैं या उनमें विषयगत विविधताएँ नहीं होती हैं | उनमें रचनात्मक इकहरापन पाया जाता है या उनमे सामाजिक सन्दर्भों की बहुआयामिकता नही दिखती | वह राजनीति से बचती हैं और हल्के-फुल्के व्यंग्य लिखकर ही संतुष्ट हो जाया करती हैं | लेकिन अनीता अपनी व्यंग्य प्रतिभा से इस क्लीशे को तोड़ती दिखाई देती है वह स्त्री सुलभ  सीमाओं को तोड़कर मानो नदी की तरह उमड़ती हुई आगे बढ़ती जाती है | अगर संग्रह से लेखिका का नाम हटा दिया जाए तो आप बता नहीं पाएंगे कि यह किसी महिला व्यंग्यकार का संग्रह होगा | उनके इस संग्रह की अधिकांश रचनाएं गजब की समझ, साहस और आत्मविश्वास के साथ लिखी गई मालूम पड़ती हैं |

‘आस्तीन के साँप’ शीर्षक व्यंग्य में वे लिखती हैं, ‘इधर आधी आबादी (महिलाएं) भी कम सशंकित नहीं है | समाज और परिवार में दोयम दर्जे की हैसियत के कारण वे दो तरफा हमले की शिकार हो रही हैं | ऐसे में अपने सम्मान की खातिर उन्होंने भी कुछ एतिहाती कदम उठाए | ख़ासकर जो खुद को मॉडर्न मानती हैं और जिनके हाथों में महिला सशक्तिकरण की मशाल है ऐसी लड़कों ने आज तीन छोटी करवा ली या विदाउट स्लीव्स पहनने लगी | कॉलेज में लड़के ऐसा करते तो इसे उनका स्टाइल समझा जाता | उन्हें लताड़ा जाता | लड़कियां आस्तीन से बचतीं तो उन्हें फैशनेबल समझा जाता | उन्हें अच्छी लड़कियों में नहीं गिना जाता और कुछ दकियानूसी टाइप लोग इन लड़कियों को बिगड़ा हुआ भी मान लेते | मगर उम्रदराज महिलाओं की बात अलग है उन्हें पूरा हक है आधी आबादी के लिए मार्ग प्रशस्त करने का।’

उनके व्यंग्यो में जगह-जगह मार्मिक टिप्पणियाँ उपस्थित मिलती हैं | ‘दो हफ्ते की ऑक्सीजन’ शीर्षक व्यंग्य में उनका यह कथन देखिये कि- ‘एक बूढ़ा पीपल अपनी डाली पर बैठी चिड़िया को उदास देख बोला तुम चिंता मत करो मैं हूं ना !’ इसी तरह एक अन्य स्थल पर वे लिखती हैं, ‘मैंने उन्हें अलग ला कर बैठा लिया, एक बंद दुकान के आगे बनी बेंच पर जोकि ऐसे ही थके हुए लोगों के इंतजार में तैनात रहती है |’ अनीता सीधी-सरल भाषा शैली से पाठक के मर्मस्थल पर प्रहार करती है | जहाँ अधिकांश व्यंग्य रचनाओं में रम्यता और पठनीयता है वहीं कुछ रचनाओं में एक किस्म का कच्चापन भी है | स्वाभाविकता व निजता का गुण इनकी रचनाओं की अपनी खासियत है | अनीता श्री अपने इस व्यंग्य संग्रह के जरिए समकालीन व्यंग्य पटल पर संभावनाशील व्यंग्य लेखिका के रूप में सशक्त उपस्थिति दर्ज करती हैं |

‘आज के समय का साक्षात्कार’ शीर्षक व्यंग्य में वे लिखती हैं, ‘जीवन में पतझड़ आने पर इंसान दुखी होता है | जितना लंबा पतझड़ उतना बड़ा दुख, कायदे से होना तो यही चाहिए मगर ऐसा होता नहीं, मसलन, विधुर हुए आदमी को जल्दी ही कोई और स्त्री भा जाती है | पतझड़ समाप्त | बसंत चालू |’ वही ‘अहा बक्सवाहा स्वाहा बक्सवाहा’ नामक व्यंग्य में दिखावे की संस्कृति पर प्रहार करते हुए स्पष्ट रूप से कहती हैं, ‘आज की शिक्षित लोगों में जागरूकता है तभी तो लोग पूरे साल एक खास दिवस की प्रतीक्षा करते हैं उस दिन वे एक पौधा लगाते हैं और चार-छह आदमी उसमें हाथ लगा कर फोटो खिंचवाते हैं | उसे स्टेटस पर डालते हैं | वीआईपी हुए तो अखबार में छपवाते हैं | इनमें से नब्बे प्रतिशत तो पलट कर देखते भी नहीं कि पौधा किस हाल में है | क्यों देखें?…उन्हें जीवन में आगे बढ़ना है | पीछे देखते हुए वे आगे कैसे बढ़ेंगे !’ इन व्यंग्य रचनाओं की उद्देश्यपरकता और सहज व्यंग्यदृष्टि प्रभावशाली है | अंदरूनी रचनाओं के शीर्षकों से ही व्यंग्य झलकता है | यह लगता ही नहीं कि यह किसी लेखिका का पहला व्यंग्य संग्रह है |

‘चुगली की गुगली’ शीर्षक व्यंग्य में लेखिका लिखती है- ‘ये अनुमान अपने आप लग गया कि चुगली समाज में समरसता बनाए रखने में सहायक है | कैसे? जो बातें मुंह पर कह देने से झगड़े का डर होता है यदि चुगली के माध्यम से संबंधित तक पहुंचा दी जाएं तो लाठी भी नहीं टूटती और सांप भी मर जाता है |’ बार-बार दोहराया गया झूठ आखिर क्यों सच होने का भ्रम देता है इस थीम पर लिखा गया ‘बड़ा आदमी आम और देशहित’ इस संग्रह का सबसे महत्वपूर्ण व्यंग्य है | बड़ा होने के लिए जन्म और कर्म के कांसेप्ट से अलग भी क्या कुछ हो सकता है यह व्यंग्य इसकी भी पड़ताल करता है | संग्रह में यह ‘ये टर्राने का मौसम’ और ‘सारी कुकुर जी’ जैसी मज़ेदार रचनाएं पढ़कर बीच-बीच में आप अनायास मुस्कुरा पड़ते हैं | मिडिल क्लास जबान को कुत्तापा की तरह से देखने का तिर्यक नजरिया लेखिका के पास हमेशा मौजूद रहा है | अचानक चल रहे चिंतन से चुहल की ओर मोड़ देने की यह अदा लेखिका को विशिष्ट बनाती है | यहाँ एक और व्यंग्य का जिक्र करना जरुरी समझता हूँ ‘हँसोड़कालीन सभ्यता के अवशेष’ | रूपको और प्रतीकों का व्यंग्य के पक्ष में ऐसा इस्तेमाल बहुत कम देखने को मिलता है- ‘अवसादोन्मुखी सभ्यता के पुरातत्व विभाग ने एक ऐसे नगर की खोज की है जिसे हँसोड़ कालीन सभ्यता कहा जा रहा है | पुरातत्व विभाग के कारिंदे उस वक्त मुंह के बल गिरते गिरते बचे जब खुदाई में लगे मजदूरों ने हाँफते हाँफते बताया कि ईंटें खिलखिला रही हैं।’ आपका यह व्यंग्य इतिहास के आलोक में भविष्य के दृष्टिगत वर्तमान से प्रश्न करता है | समय की ऐसी आवाजाही इनके व्यंग्य को एक अलग पहचान व नया आयाम प्रदान करती है | अनीता श्रीवास्तव के लेखन में मौजूद मौलिकता और मार्मिकता के तत्व, करुणा और हास्य का संतुलन देखकर आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते | मुझे बहुत दिनों बाद प्रचलित मुहावरों से हटकर लिखी गई व्यंग्य रचनाएं पढ़ने को मिली है | उनमें सूर्यबाला की तरह यथार्थ को व्यंग्यार्थ के साथ लक्षित करने की अचूक सामर्थ्य परिलक्षित होती है | ‘प्लेट खोकर चम्मच में खुश होने वाले’ शीर्षक व्यंग्य में वे मानवीय मनोविज्ञान की सूक्ष्म ऑब्जर्वेशन करती हुई लिखती हैं, ‘गोविंद जी ने पलटकर उस काउंटर की ओर वैसे ही देखा जैसे कुछ लोग सजी-धजी महिलाओं को थोड़ा दूर जाने पर देखते हैं | …जब तक पास खड़ी रहती हैं वे इधर-उधर देखते रहते हैं… सभ्यता के नाते |’ अपने आसपास की छोटी-छोटी बातों से व्यंग्य निकाल लाने का हुनर उनमें बखूबी है | विचार के स्तर पर गुंजाइश हमेशा बनी रहती है और यह परिपक्वता धीरे-धीरे लिख-पढ़कर ही आती है |

पुस्तक के शीर्षक व्यंग्य ‘बचते बचते प्रेमालाप’ का यह अंश उल्लेखनीय है, ‘आदमी इमोशनल डायलॉग बोलने में माहिर है | उसने तय कर लिया है कि आज वह भावनाओं के स्विमिंग पूल में उस स्त्री को हंड्रेड परसेंट बहा ले जाएगा जो उसकी पत्नी नहीं है | जल्दी ही वे दोनों सच्ची-मुच्ची के मित्र होंगे | किसी पार्क में मिलेंगे… आमने सामने बैठेंगे नेत्र कोटरो में स्थित प्राकृतिक कैमरों से एक दूजे की यथार्थ फोटो खींचेंगें | उसने यह भी तय किया कि वह उसकी पसंद के फ्रेम में खुद को फिट करके ही दम लेगा भले ही इसके लिए उसे अपने यथार्थ को क्रॉप करना पड़े |’ चरित्र विश्लेषण करने में उन्हें महारथ हासिल है साथ ही शिल्प के स्तर पर इन रचनाओं में काफी विविधता मौजूद है | संग्रह का एक और व्यंग्य ‘महिला सूचक गाली …सांस्कृतिक विरासत है आली’ पढ़कर आप पाते हैं इनके यहां स्त्री विमर्श का आहवादी स्वर नहीं है बल्कि आलोचना के दायरे में वे खुद को भी रखती हैं और अनावश्यक हो हल्ला करने वाले लोगों के डबल स्टैंडर्ड्स को भी रेखांकित करती हैं | वे उलटबांसी की तरह से गालियों के समाजशास्त्र को गाली चिंतन कहकर पुकारती हैं | अनीता व्यंग्य की किसी कुशल सर्जन की तरह विसंगति का आद्योपांत ऑपरेशन कर डालती हैं | किताब में कुछ प्रकाशकीय त्रुटियां भी हैं जैसे कि ‘भैंस के आगे हॉर्न बजाना’ यह व्यंग्य दो बार छप गया है | साथ ही किताब का मूल्य भी ज्यादा है इसे कम होना चाहिए था |

अनीता श्री को व्यंग्य का सटीक निर्वहन करना आता है | मेरी उत्कृष्टता की कसौटी पर 42 में से 22 व्यंग्य खरे उतरे हैं | एक जगह उनका यह कथन दृष्टव्य है, ‘संपन्नता एक ऐसी बुशर्ट है कि चाहे जितनी बड़ी हो, तंग ही रहती है |’ एक उदाहरण और देखें, ‘आदमी का सोचना उसकी सुविधा और पसंद का है | आदमी ने हमेशा यही किया अपना सच दूसरों पर थोपा |’ धार्मिक ढकोसलों पर भी लेखिका पूरी सतर्कता के साथ अपनी कलम चलाती है | आपके यहाँ कल्पना की ऊंची उड़ान भी पूरे खिलंदड़पन के साथ मौजूद रही है | ‘मच्छर का ईमान और आदमी का खून’ शीर्षक व्यंग्य रचना में उनका यह कहना, ‘पिताजी के जीवन में अपने बेटे की बेरोजगारी को देखते हुए यही एकमात्र गर्व का विषय बचा है कि वह ओल्ड पेंशन स्कीम के जमाने में पैदा हुए थे |’ वे बगैर किसी लाग-लपेट के प्रवृत्तिगत सच को अनावृत करती चली जाती हैं |

‘हे मंजे हुए लोगों’ में लेखिका ने शिक्षक, डॉक्टर, नेता और व्यवसायी इन सभी क्षेत्रों के मंजे हुए लोगों की जमकर खबर ली है | सत्ता और पूंजीपतियों की सांठ-गाँठ को खोलते हुए वे लिखती हैं- ‘यह बढ़-चढ़कर चंदा देते हैं | चुनाव का बोझ जब नेताजी के कंधों पर आता दिखता है, अपना कंधा लगा देते हैं | सत्ता की पालकी, ये कहार बनकर ढोते हैं | बदले में सत्ता भी इन्हें हर कहर से बचाती है | इन दोनों की जोड़ी देश की तरक्की के लिए आवश्यक समीकरण रचाती है |’ इस उपक्रम में वे समाज और साहित्य के कोने-अतरे तक झाँक आयी हैं | ‘अमरता सूत्रम समर्पयामि’ शीर्षक व्यंग्य में लेखिका ने अद्भुत देह विमर्श प्रस्तुत किया है | इस किताब में  एक से बढ़कर एक व्यंग्य हैं | आपकी रचनाशीलता में अनुभव और अध्ययन की सम्मिलित गहराई झलकती है | ‘बेहद खुशमिजाज’ हिंदी की दुर्दशा पर एक बेहतरीन व्यंग्य रचना बन गयी है- ‘इधर कुछ दिन से मैं बीपी शुगर की धकेली उतनी ही सुबह सैर पर जाती हूं | वे लोग मुझे कल रास्ते में मिले | मुझे देखकर सामूहिक राधे-राधे हुई | मैंने जुबान पर आती गुड मॉर्निंग को दाढ़ चले दबाया और कहा राधे-राधे जी | तभी मुझे लगा मेरे भीतर एक संस्कारी किस्म की हिंदी भाषी नारी गश खाकर गिर गई |’ तो वही ‘कुछ खास नहीं’ शीर्षक व्यंग्य में वे व्यंग्य करती हुई लिखती हैं, ‘मैं कई दिनों से परमार्थ का कोई काम हथियाना चाह रही थी ताकि जीवन सार्थक हो जाए।‘

अगर मैं इसे अब तक प्रकाशित इस साल का सबसे उल्लेखनीय संग्रह कहूं तो शायद कोई अतिशयोक्ति न होगी | विज्ञान की इस अध्यापिका में अदम्य प्रतिभा और व्यंग्याभिव्यक्ति की एक सघन बेचैनी है | अगर वे इसी तरह लिखती रहीं तो बहुत आगे जायेंगीं | आगे चलकर इस युवा लेखिका में बड़ा साहित्यकार बनने की संभावनाएं विद्यमान हैं | उनका यह पहला संग्रह तो यही उम्मीद जगाता है कि वह सही दिशा में है | व्यंग्य जगत को अपनी इस नई लेखिका का खुले दिल से स्वागत करना ही चाहिए |

चर्चाकार… श्री राहुल देव  

संपर्क –  9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर (उ.प्र.) 261203

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 116 – “रास्ते बंद नहीं होते” – सुश्री अनिता रश्मि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है सुश्री अनिता रश्मि द्वारा लिखित लघुकथा संग्रह “रास्ते बंद नहीं होते” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 116 ☆

☆ “रास्ते बंद नहीं होते” – सुश्री अनिता रश्मि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

 

पुस्तक – रास्ते बंद नहीं होते (लघुकथा संग्रह)

लेखिका – सुश्री अनिता रश्मि

पृष्ठ – १९६ , मूल्य – ३७५ ,

संस्करण – २०२१

प्रकाशक – इंडिया नेटबुक्स नोयडा

अनिता रश्मि

सुश्री अनिता रश्मि

लघुकथा का साहित्यिक भविष्य व्यापक है, क्योंकि परिवेश विसंगतियों से भरा हुआ है  – चर्चाकार विवेक रंजन श्रीवास्तव , भोपाल

युग २० २० क्रिकेट का है. युग ट्विटर की माइक्रो ब्लागिंग का है. युग इंस्टेंट अभिव्यक्ति का है. युग क्विक रिस्पांस का है. युग १० मिनट में २० खबरो का है. युग २ मिनट में नूडल्स का है. आशय केवल इतना है कि साहित्य में भी आज पाठक जीवन की विविध व्यस्तताओ के चलते समयाभाव से जूझ रहा है. पाठक को कहानी का, उपन्यास का आनन्द तो चाहिये किंतु वह यह सब फटाफट चाहता है.

संपादक जी को शाम ६ बजे ज्ञात होता है कि साहित्य के पन्ने पर कार्नर बाक्स खाली है, और उसके लिये वे ऐसी फिलर सामग्री चाहते हैं जो पाठक के लिये आकर्षक हो.

इतना ही नहीं रचनाकार भी किसी घटना से अंतर्मन तक प्रभावित होते हैं, वे उस विसंगति को अपने पाठकों तक पहुंचाने पर मानसिक उद्वेलन से विवश हैं किन्तु उनके पास भी ढ़ेरों काम हैं, वे लम्बी कथा लिख नही सकते. यदि उपन्यास लिखने की सोचें तो सोचते ही रह जायें और रचना की भ्रूण हत्या हो जावे. ऐसी स्थिति में कविता या लघुकथा एक युग सापेक्ष साहित्यिक विधा के रूप में अभिव्यक्ति की छटपटाहट का सहारा बनती है.

मैं अनिता रश्मि की स्फुट लघुकथायें यत्र तत्र पढ़ता रहा हूं. किंतु जब एक जिल्द में रास्ते बंद नहीं होते पढ़ने मिली तो मैं उनके विशद स्तरीय लघुकथा लेखन से अंतस तक प्रभावित हुआ. किताब को भूमिका या आत्मकथ्य के पारम्परिक तरीके की जगह समय समय पर अलग अलग लघुकथाओ पर अनेकानेक पाठको की जो प्रतिक्रियायें लेखिका को मिलती रही हैं उन्हें किताब के अंत में संग्रहित किया गया है. अनुक्रम में  “आज की दुनिया” उपशीर्षक से माब लिंचिंग, रैलियां, भक्त, श्रद्धांजली, सच बोलने की सजा जैसे विभिन्न मुद्दों पर २९ लघुकथाओ, “विभाजन का दंश” उप शीर्षक से रिफ्यूजी, रिस्तों की चमक, काली रात आदि दस लघुकथायें, “अन्नदाता” उपशीर्षक से रोटी, चोरी, नियति स्वीकार, हार, किसान या आसान नहीं जैसी २० विषयों पर मर्मस्पर्शी रचनायें हैं. स्त्री उप शीर्ष से १९ संग्रहित कहानियों में से कुछ के शीर्षक हैं लालन पालन , दया, कन्या पूजन, बोरे में, वह लड़की, अवाक्, हिरणी ये शीर्षक ही कथ्य इंगित करने में समर्थ हैं. त्रासद महामारी के अंतर्गत कोरोना जनित बिम्बों पर २६ लघुकथाओ में कारुणिक दृश्य लेखिका की नजरों से देखने को मिले हैं. जिन्होंने जन्म दिया एक उपशीर्ष है, जिसमें माता, पिता परिवार को लेकर १० बिम्ब हैं. सेल्फी, एक चिट्ठी, प्राकृतिक आपदा, आत्महत्या आदि २४ प्रभावी लघुकथायें “अन्य” उपशीर्षक के अंतर्गत हैं और १२ लघुकथायें “पर्यावरण” के उपशीर्ष के अंतर्गत प्रस्तुत की गई हैं. विभिन्न उपशीर्षक जिनके अंतर्गत संग्रह की रचनाओ को समेटा गया है, अनिता रश्मी की सोच, समाज के प्रति उनकी दृष्टि और विसंगतियों के प्रति उनकी व्यकुलता समझाने को पर्याप्त हैं. कुल १५१ पठनीय , चिंतन को प्रेरित करती, पाठक की भावनायें उद्वेलित करती स्तरीय रचनायें किताब में हैं. लघुकथायें लम्बे समय अंतराल में लिखी गई हैं, जिन्हें समन्वित कर पुस्तक के स्वरूप में प्रस्तुत किया गया है. उनका रचना कर्म बताता है कि वे गंभीर लेखिका हैं, और शांत एकल प्रयास करती दिखती हैं. उनकी लघुकथा पर निर्मित पोस्टर व फिल्मांकन और उन्हें प्राप्त पुरस्कार उनकी साहित्यिक स्वीकार्यता बताते हैं.

लघुकथा संक्षिप्त अभिव्यक्ति की प्रभावशाली विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है. मुझे स्मरण है कि १९७९ में मेरी पहली लघुकथा दहेज, गेम आफ स्किल, बौना आदि प्रकाशित हुईं थी. तब नई कविता का नेनो स्वरूप क्षणिका के रूप में छपा करता था और लघुकथायें फिलर के रूप में बाक्स में छपती थीं. समय के साथ लघुकथा ने क्षणिका को पीछे छोड़कर आज एक महत्वपूर्ण साहित्यिक विधा का स्थान अर्जित कर लिया है. लघुकथा  के समर्पित लेखकों का संसार बड़ा है. इंटरनेट ने दुनियां भर के लघुकथाकारों को परस्पर एक सूत्र में जोड़ रखा है. भोपाल में लघुकथा शोध केंद्र के माध्यम से इस विधा पर व्यापक कार्य हो रहा है. यद्यपि लघुकथा के सांझा संग्रह बड़ी संख्या में छप रहे हैं पर लघुकथा के एकल संग्रहों की संख्या अपेक्षाकृत सीमित है. ऐसे समय में इंडिया नेटबुक्स से अनिता रश्मि जी का यह संग्रह “रास्ते बंद नहीं होते” महत्वपूर्ण है. लघुकथा का साहित्यिक भविष्य व्यापक है, क्योंकि परिवेश विसंगतियों से भरा हुआ है, अपने अनुभवो को व्यक्त करने की छटपटाहट एक नैसर्गिक प्रक्रिया है, जो लघुकथाओ की जन्मदात्री है. अनिता रश्मि जैसे रचनाकारो से लघुकथा को व्यापक अपेक्षायें हैं. मैं पाठको को यह किताब खरीदकर पढ़ने की सलाह दे सकता हूं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा ☆ भीड़ और भेड़िए (व्यंग्य संग्रह) – श्री धर्मपाल महेन्द्र जैन ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆

श्री दीपक गिरकर

☆ पुस्तक चर्चा ☆भीड़ और भेड़िए (व्यंग्य संग्रह) – श्री धर्मपाल महेन्द्र जैन ☆ श्री दीपक गिरकर ☆

समीक्षित कृति : भीड़ और भेड़िए (व्यंग्य संग्रह)

लेखक   : धर्मपाल महेन्द्र जैन     

प्रकाशकभारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली – 110003 

मूल्य   : 260 रूपए

☆ विसंगतियों पर तीव्र प्रहार का रोचक संग्रह  – श्री दीपक गिरकर ☆

भीड़ और भेड़िएचर्चित वरिष्ठ कवि-साहित्यकार श्री धर्मपाल महेन्द्र जैन का चौथा व्यंग्य संग्रह हैं। धर्मपाल जैन के लेखन का कैनवास विस्तृत है। वे कविता और गद्य दोनों में सामर्थ्य के साथ अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार हैं। धर्मपाल महेन्द्र जैन की प्रमुख कृतियों में सर क्यों दाँत फाड़ रहा है”, “दिमाग वालो सावधान”, “इमोजी की मौज में (व्यंग्य संग्रह), इस समय तक”, “कुछ सम कुछ विषम” (काव्य संग्रह) शामिल हैं। इनकी रचनाएँ निरंतर देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। धर्मपाल महेन्द्र जैन की गिनती आज के चोटी के व्यंग्यकारों में है। इनका व्यंग्य रचना लिखने का अंदाज बेहतरीन है। व्यंग्यकार ने इस संग्रह की रचनाओं में वर्तमान समय में व्यवस्था में फैली अव्यवस्थाओं, विसंगतियों, विकृतियों, विद्रूपताओं, खोखलेपन, पाखण्ड इत्यादि अनैतिक आचरणों को उजागर करके इन अनैतिक मानदंडों पर तीखे प्रहार किए हैं। साहित्य की व्यंग्य विधा में धर्मपाल जी की सक्रियता और प्रभाव व्यापक हैं। व्यंग्यकार वर्तमान समय की विसंगतियों पर पैनी नज़र रखते हैं। लेखक अपनी व्यंग्य रचनाओं को कथा के साथ बुनते हुए चलते हैं।

श्री धर्मपाल महेन्द्र जैन

भीड़ और भेड़िए”, “प्रजातंत्र की बस”, दो टाँग वाली कुर्सी”, भैंस की पूँछ”, “पहले आप सुसाइड नोट लिख डालें”, लाचार मरीज और वेंटिलेटर पर सरकारें”, कोई भी हो यूनिवर्सल प्रेसिडेंट”, “हाईकमान के शीश महल में”, “लॉक डाउन में दरबार”, “देश के फूफा की तलाश”, “चापलूस बेरोजगार नहीं रहते संविधान को कुतरती आत्माएँ जैसे रोचक और चिंतनपरक व्यंग्य पढ़ने की जिज्ञासा को बढ़ाते हैं और साथ ही अपनी रोचकता और भाषा शैली से पाठकों को प्रभावित करती हैं। भीड़ और भेड़िएसमकालीन राजनीति की बखिया उधेड़ता एक रोचक व्यंग्य रचना है। रचना भीड़ और भेड़िएव्यंग्य में लेखक लिखते है सत्तारूढ़ राजनेता या मोक्ष बुकिंग एजेंट जिस तरह भीड़ का भावुक हृदय जीतते हैं वह सबके बस की बात नहीं है। वे भीड़ में घुसी भेड़ों में यह आत्मविश्वास जमा देते हैं कि वे अपनी आत्मा की आवाज सुन कर वहाँ हैं। जो प्रायोजित भीड़ दैनिक भत्ते पर आती है वह पेशेवर भेड़ों से बनी होती है। ये भेड़ें तय अवधि के लिए आँखें बंद कर अपनी आत्मा किराए पर उठा देती हैं। दाम दो और आत्मा ले लो। आदमी से बनी भेड़ का चरित्र आदमी जैसा ही रहता है, संदिग्ध। आदमी पशु बनकर भी पशु जैसा वफादार नहीं बन सकता। (पृष्ठ 16)

प्रजातंत्र की बसलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों पर करारा और सार्थक व्यंग्य है। बस को धक्का लगाने के लिए सरकार ने बड़ा अमला रखा है। दायीं तरफ से आईएएस धक्का लगा रहे हैं। बायीं तरफ से मंत्रीगण लगे हैं। पीछे से न्यायपालिका दम लगा के हाइशा बोल रही है और आगे से असामाजिक तत्व बस को पीछे ठेल रहे हैं। लोग सात दशकों से पुरजोर धक्का लगा रहे हैं पर गाडी साम्य अवस्था में है। गति में नहीं आती, इसलिए स्टार्ट नहीं होती। प्रजातंत्र की बस सिर्फ चर्रचूँ कर रही है। (“प्रजातंत्र की बस”) यह यथार्थ को चित्रित करता बेहतरीन शैली में तराशा गया एक सराहनीय व्यंग्य है।

दो टाँग वाली कुर्सी व्यंग्य लेख वर्तमान परिस्थितियों में एकदम सटीक है तथा यह व्यंग्य लेख अवसरवादी राजनीति पर गहरा प्रहार करता है। जिस कुर्सी पर आपको बैठना हो उसके लिए यदि कोई और उत्सुक दिखे तो अपना दावा ठोक दें। प्रतिद्वंद्वी को आप खुद नहीं ठोकें। अपने चार लोगों को इशारा कर दें। वे उसकी ठुकाई करेंगे और आपका जोरशोर से समर्थन भी। प्रतिद्वंद्वी समझ जाएगा कि वह कुर्सी सिर्फ आपके लिए बनी है। हर कुर्सी में सिंहासन बनने की निपुणता नहीं होती। कुछ लोग जो अपनी कुर्सी को नरमुंडों और मनुष्यरक्त की जैविक खाद देकर पोषित कर पाते हैं, वे अपनी कुर्सी को सिंहासन बना पाते हैं। (“दो टाँग वाली कुर्सी”)

भैंस की पूँछ”, पहले आप सुसाइड नोट लिख डालेंजैसे व्यंग्य धर्मपाल जैन के अलहदा अंदाज के परिचायक है। धर्मपाल महेन्द्र जैन के कहनपन का अंदाज अलग है। बिन बारूद की तीलीधड़ाधड़ व्यंग्य लिखने वालों पर कटाक्ष है। भैंस की पूँछ बहुत ही मजेदार और चुटीला व्यंग्य है। आप रसीलाजी को नहीं जानते तो पक्का सुरीलीजी को भी नहीं जानते होंगे। वे महान बनने के जुगाड़ में जी जान से लगे थे पर पैंदे से ऊपर उठ नहीं पा रहे थे। उन्हें पता था कि विदेश में रहकर महान बनना बहुत सरल है। हिंदी नाम की जो भैंस है बस उसको दोहना सीख जाएँ तो उनके घर में भी घीदूध की नदियाँ बह जाएँ। (“भैंस की पूँछ”) “पहले आप सुसाइड नोट लिख डालेंयथार्थ को चित्रित करता बेहतरीन शैली में तराशा गया एक सामयिक प्रभावशाली व्यंग्य है जो पुलिस की कार्यशैली पर भी सार्थक हस्तक्षेप करती है। व्यंग्यकार दृश्य चित्र खड़े करने में माहिर हैं। एक बार फिर चेक कर लें कि आप ने सुसाइड नोट लिखकर अपनी ऊपरी जेब में विधिवत रख दिया है। पुलिस की नजर का कोई भरोसा नहीं है। विटामिन एम खाया हो तो वे सुसाइड नोट पाताल में भी खोज सकते हैं। यदि उन्हें विटामिन का पर्याप्त डोज़ मिले तो वे आँखों के सामने पड़ा सुसाइड नोट भी नहीं देख पाते। (“पहले आप सुसाइड नोट लिख डालें)         

लाचार मरीज और वेंटिलेटर पर सरकारें एक बेहतरीन व्यंग्य रचना है, जिसमें लाचार मरीज़ों की मन:स्थिति, उनकी पीड़ा, उनकी मजबूरियों का यथार्थ चित्रण किया गया है और साथ ही सरकार की कार्यशैली का कच्चा चिट्ठा खोला गया है। इस व्यंग्य रचना में अस्पतालों की बदहाल स्थिति का पोस्टमार्टम किया गया है। यह व्यंग्य रचना हमारी चिकित्सा व्यवस्था की पोल खोलती है। देश बीमार है। वेंटिलेटर मिल गया है पर उसका एडॉप्टर नहीं है। इसे अस्पताल की ऑक्सीजन लाइन से जोड़ें कैसे अधिकारियों का काम थोक में वेंटिलेटर खरीदना था, उन्होंने वह कर दिया। वेंटिलेटर आँकड़ों में दर्ज कर दिए। राजनेता गए, फीता काट कर बटन दबा आए। वे कोई तकनीकी आदमी तो थे नहीं कि जाँच करते कि वेंटिलेटर इंस्टाल हुआ या नहीं। टेक्निकल भर्ती की मांगे सचिवालयों के स्वास्थ्य विभागों में दबी पड़ी हैं। देश में बेरोजगारों की भीड़ है। (“लाचार मरीज और वेंटिलेटर पर सरकारें”) हम जीडीपी गिराने वालेरचना के माध्यम से लेखक ने सामाजिक विषमता / वर्ग विभेद पर करारा व्यंग्य किया है। आइंस्टीन का चुनावी फार्मूला माफिया तंत्र को उकेरती एक सशक्त व्यंग्य रचना है। इसे दस लोगों को फॉरवर्ड करें सोशल मीडिया पर गहरा तंज है। हाईकमान के शीश महल मेंव्यंग्य रचना में करारे पंच के साथ गहराई से वर्तमान सियासत पर तंज कसा गया है। संविधान को कुतरती आत्माएँराजनेताओं की यथार्थ स्थिति को उद्घाटित करती हुई एक उम्दा रचना है जिसमें राजनीतिज्ञ अपनी आत्मा को हाईकमान की तिजोरी में रखकर पद हथियाते हैं। फिर ये आत्माएँ संविधान को कुतरती हैं। वैशाली में ऑक्सीजन कंसंट्रेटर एक रोचक रचना है जिसमें राजा को अमेरिका से मिले पोर्टेबल ऑक्सीजन कंसंट्रेटर गिफ्ट राजा से महारानी, महारानी से उसके प्रेमी सेनापति, सेनापति से सेनापति की प्रेयसी विपक्षी नेत्री, विपक्षी नेत्री से उसके प्रियतम एंकर, एंकर से वैशाली की नगरवधू और नगरवधू से वापस राजा के पास आ जात्ता है। डिमांड ज्यादा है, थाने कम रचना में व्यंग्यकार ने थानों की बिक्री को निविदाओं से जोड़कर अनूठा प्रयोग किया है। लेखक समाज में व्याप्त विसंगतियों को चुटीलेपन के साथ उजागर करते हैं। लॉकडाउन में दरबाररचना में लेखक के सरोकार स्पष्ट होते हैं। इस रचना को लेखक ने एक नाट्य के रूप में प्रस्तुत किया है। व्यंग्यकार ने लॉकडाउन के दौरान सरकारी कार्यप्रणाली पर गहरा प्रहार किया है। साठोत्तरी साहित्यकार का खुलासाऔर हिंदी साहित्य का कोरोना गाथाकालवर्तमान साहित्यिक परिदृश्य पर सही, सटीक सारगर्भित सार्थक हस्तक्षेप करती हुई व्यंग रचनाएं हैं।  

हम जीडीपी गिराने वाले”, “साठोत्तरी साहित्यकार का खुलासा”, “लॉकडाउन में दरबार”, “पशोपेश में हैं महालक्ष्मीजी”, माल को माल ही रहने दो, “हिंदी साहित्य का कोरोना गाथाकाल इत्यादि इस संग्रह की काफी उम्दा व्यंग्य रचनाएँ हैं। संग्रह की रचनाओं के विषयों में नयापन अनुभव होता है। संग्रह की विभिन्न रचनाओं की भाषा, विचार और अभिव्यक्ति की शैली वैविध्यतापूर्ण हैं। इस व्यंग्य संग्रह की भूमिका बहुत ही सारगर्भित रूप से वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखी है। व्यंग्यकार ने इस संग्रह में व्यवस्था में मौजूद हर वृत्ति पर कटाक्ष किए हैं। लेखक के पास सधा हुआ व्यंग्य कौशल है। धर्मपाल जैन की प्रत्येक व्यंग्य रचना पाठकों से संवाद करती है। चुटीली भाषा का प्रयोग इन व्यंग्य रचनाओं को प्रभावी बनाता है। व्यंगकार ने इन  व्यंग्य रचनाओं में चुटीलापन कलात्मकता के साथ पिरोया है। धर्मपाल जैन की व्यंग्य लिखने की एक अद्भुत शैली है जो पाठकों को रचना प्रवाह के साथ चलने पर विवश कर देती है। व्यंग्यकार ने अपने समय की विसंगतियों, मानवीय प्रवृतियों, विद्रूपताओं, विडम्बनाओं पर प्रहार सहजता एवं शालीनता से किया है। व्यंग्यकार धर्मपाल जैन के लेखन में पैनापन और मारक क्षमता अधिक है और साथ ही रचनाओं में ताजगी है। लेखक के व्यंग्य रचनाओं की मार बहुत गहराई तक जाती है। धर्मपाल जैन अपनी व्यंग्य रचनाओं में व्यवस्था की नकाब उतार देते हैं। लेखक की रचनाएँ यथास्थिति को बदलने की प्रेरणा भी देती है। आलोच्य कृति भीड़ और भेड़िए में कुल 52 व्यंग्य रचनाएँ हैं। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 136 पृष्ठ का यह व्यंग्य संग्रह आपको कई विषयों पर सोचने के लिए मजबूर कर देता है। यह व्यंग्य संग्रह सिर्फ पठनीय ही नहीं है, संग्रहणीय भी है। आशा है यह व्यंग्य संग्रह पाठकों को काफी पसंद आएगा और साहित्य जगत में इस संग्रह का स्वागत होगा।

समीक्षा – श्री दीपक गिरकर

संपर्क – 28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोडइंदौर– 452016 

मोबाइल : 9425067036

मेल आईडी : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 115 – “पुत्तल का पुष्प वटुक” – सुश्री मीना अरोड़ा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है सुश्री मीना अरोड़ा द्वारा लिखित हास्य व्यंग्य उपन्यास  “पुत्तल का पुष्प वटुक” की समीक्षा।

💐 आज 28 जुलाई को विवेक रंजन के जन्म दिवस पर ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से उन्हें बहुत बहुत बधाई 💐 शुभकामनाएं 💐

साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 115 ☆

☆ “पुत्तल का पुष्प वटुक” – सुश्री मीना अरोड़ा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुत्तल का पुष्प वटुक (हास्य व्यंग्य उपन्यास)

सुश्री मीना अरोड़ा

शब्दाहुति प्रकाशन, नई दिल्ली

पृष्ठ १४४ मूल्य ३९५ रु

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल ४६२०२३

उपन्यास मानव-जीवन के  विभिन्न आयामों के कथा चित्र ही हैं, मानवीय -चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना उपन्यास का मूल तत्व है. कथ्य की सजीवता और स्वाभाविकता उपन्यास के वांछनीय तत्व होते हैं. उपन्यास की सफलता यही होती है कि वह पाठक को उसके परिवेश का बोध करवा सके. पात्रो के संवाद, वर्णन शैली में हास्य तथा व्यंग्य का संपुट कहानी में पाठकीय रोचकता बढ़ा देता है. उपन्यास के लेखन का उद्देश्य स्पष्ट हो तो रचनाकार अपने पाठको व उपन्यास के पात्रों के साथ समुचित न्याय करने में सफल होता है. मीना अरोड़ा एक सुस्थापित व्यंग्य लेखिका हैं. उनकी कवितायें वैचारिक धरातल पर परिपक्व होती हैं. उनकी कविताओ की किताबें “शेल्फ पर पड़ी किताब” तथा ” दुर्योधन एवं अन्य कवितायें ” पूर्व प्रकाशित तथा पुरस्कृत हैं. मीना अरोड़ा की लेखनी का मूल स्वर स्त्री विमर्श कहा जाना चाहिये.

“पुत्तल का पुष्प वटुक ”  एक लम्बी ग्रामीण कहानी है.  भारतीय ग्रामीण परिवेश, गांव के मुखिया के इर्द गिर्द बुनी हुई कथा, जिसमें डाकू भी हैं, देवमुनि का आश्रम भी है. पुत्री की अपेक्षा पुत्र की कामनाएं… लेखिका का गांव के परिवेश का अच्छा अध्ययन है. उपन्यास में पाखण्ड पर प्रहार है, सामाजिक भ्रष्टाचार है, बिगड़ैल मुखिया की दास्तान है,  अंधविश्वास है और विसंगति का व्यापक  अंतर्विरोध भी है. अपने दायरे में मुखिया की माँ का दबदबा है. पुत्तल का पुष्प वटुक एक ग्रामीण परिवेश की कथा समेटे सामाजिक कथ्य की रचना है.

उपन्यास से कुछ व्यंग्य प्रयोग देखिये “रेवती माँ हर साल भगवान बदल बदल कर मन्नतें मांगती ” फरियाद पूरी होते न देख रेवती माँ को मंदिर में रखीं देवी देवताओ की मूर्तियां एक्सपायरी डेट की लगने लगी थीं”

“लोग आँखो देखी से ज्यादा कानों सुनी पर विश्वास करते थे. सयाने बुजुर्गों के पास लोगों के पाप कर्मों का लेखा जोखा, शायद चित्रगुप्त से भी अधिक था… अपने परिजनो से मारपीट, दूसरे की स्त्री ताड़ना, पाप के क्षेत्र में नहीं आता था, यद्यपि रोज मंदिर न जाना, लड़की जनना जैसे कार्य पाप की श्रेणि में थे.”

जब किसी व्यक्ति को उसके पापों का अहसास करवाया जाता तो वह गांव की नदी में सौ डुबकी लगा कर बिना साबुन अपने पाप धो डालता.

हत्या जैसे बड़े पाप हो जाने पर गंगा स्नान के लिये जाना अनिवार्य था. गंगा, गांव से बहुत दूर थी इसलिये लोग उतने ही पाप करते जितना गांव की नदी सह सके.

इसी तरह हास्य के अनेक रोचक प्रसंग भी सहजता से कथा प्रसंगों में प्रचुरता में हैं. मुखिया का बड़ा बेटा इंजीनियरिंग कर शहर में एक फ्लैट लेता है तब का प्रसंग देखें “… तीन कमरों पर पाँच कमरे भी बनाये जा सकते हैं, बस मकान को भूतल से ऊँचा उठाने के बाद आसपास हवा में उपलब्ध क्षेत्र को कब्जाना होता है, इसे अतिक्रमण नही एक्सटेंशन कहा जाता है….. वैसे यह कला मनुष्य से ही सीखी गई होगी, जैसे दो टांगो पर खड़ा आदमी अपना बड़ा सा पेट लेकर ज्यादा स्थान घेर लेता है.

नारी विमर्श की प्रतिनिधि पात्र पप्पू की दो चचेरी  बहनें संजना और रंजना हैं, वे ही एक बाहरी मजदूर द्वारा गांव की एक लड़की मालती के साथ किये गये अत्याचार के विरुद्ध निकम्में पप्पू को  गीता के  श्लोक “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानम् धर्मस्य तदात्मनम् सृजाञ्यहम्”  की व्याख्या कर जगाती हैं.   इससे अनुप्राणित नाकारा पप्पू गांव से भाग गये अपराधी बकलू को बांधकर गांव में घसीट लाता है और चिल्लाता है “मांस तो इस नीच का कटेगा…. कोई हीरा चाचा कमला चाची और मालती को गाँव से बाहर जाने नही कहेगा “…  अस्तु सहज सरल भाषा वाद संवाद में व्यंग्य और हास्य, कहानी के ट्विस्ट उपन्यास की रोचकता बरकरार रखने में कामयाब हुये हैं. पठनीय पुस्तक है. हिंदी में व्यंग्य हास्य के उपन्यास बहुत ज्यादा नहीं हैं, महिला लेखिकाओ के तो नगण्य. मेरी शुभेच्छा  मीना जी के साथ हैं.

शब्दाहुति प्रकाशन ने आजादी की वर्षगांठ को मनाने इस उपन्यास को मनिकर्णिका सिरीज के अंतर्गत, त्रुटि रहित मुद्रण, अच्छे कागज पर, उम्दा तरीके से प्रकाशित कर किया, वे भी बधाई के सुपात्र हैं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ एक देश जिसे कहते हैं – बचपन – दीप्ति नवल ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

☆ पुस्तक चर्चा ☆ एक देश जिसे कहते हैं – बचपन – दीप्ति नवल ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(एक संवेदनशील अभिनेत्री, कवियित्री एवं लेखिका की संवेदनशील पुस्तक पर चर्चा निश्चित रूप से श्री कमलेश भारतीय जी जैसे संवेदनशील-साहित्यकार की संवेदनशील दृष्टी एवं लेखनी ही न्याय दे सकती है, यह लिखने में मुझे कोई संदेह नहीं है। श्री कमलेश भारतीय जी की इस चर्चा को पढ़कर इस पुस्तक की ई-बुक किंडल पर डाउनलोड कर कुछ अंश पढ़ने से स्वयं को न रोक सका। इसका एक कारण और भी है, और वह यह कि दीप्ति नवल जी हमारे समय की उन अभिनेत्रियों में हैं, जिनके प्रति हमारी पीढ़ी के हृदय में अभिनेत्री एवं साहित्यकार के रूप में सदैव आदर की भावना रही है। – हेमन्त बावनकर, संपादक – ई- अभिव्यक्ति  )

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

‘मैंने अपने घर चंद्रावली की छत से एक पत्थर का टुकड़ा साथ की मसीत के गुम्बद की ओर फेंका – आखिरी बार। गुम्बद पर बैठे कबूतर उड़ गये। मैंने एक आह भरकर खुद से पूछा -जैसे ये कबूतर उड़कर वापिस आ जाते हैं, क्या मैं भी कभी अपने इसी घर में अमेरिका से वापिस आ पाऊंगी ?

सच कहा, सोचा दीप्ति नवल ने हम कभी वहीं, वैसे के वैसे जीवन में वापिस नहीं लौट सकते लेकिन जो लौट सकती हैं – वे होती हैं मधुर यादें। यही इस किताब के लेखन का केंद्र बिंदु है, बचपन लौट नहीं सकता लेकिन उसकी यादें जीवन भर, समय-समय पर लौटती रहती हैं।

दीप्ति नवल ने अपने बचपन और टीनएज के कुछ सालों की यादों को इस पुस्तक में पूरे 380 पन्नों में बहुत ही रोचक ढंग से लिखा है। वैसे इसे दीप्ति नवल की आत्मकथा का पहला पड़ाव भी माना जा सकता है। और खुद दीप्ति ने भूमिका में लिखा है कि इसे मेरी बचपन की कहानियां भी कहा जा सकता है। छोटी से छोटी यादें और उनसे मिले छोटे-छोटे सबक, सब इसमें समाये हुए हैं। जैसे बहुत बच्ची थी तो दीप्ति अपनी नानी से कहती ‘चीनी दे दो, चीनी दे दो’ कहती रहती और, जब चीनी न मिलती तो कहती – लूण ही दे दो। यानी समझौता और सबक यह कि फिर समझौते न करने की कसम खाई ली। ज़िंदगी में किसी भी कीमत पर कोई भी समझौता नहीं। जब माँ दूध बांटने जाती हैं और नन्ही दीप्ति साथ जाती है। एक दिन जब सारा दूध बंट चुका होता हो तो एक बच्चा दूध मांगता है और खत्म होने की बात सुनकर जो चेहरे पर उदासी आती है, निराशा होती है, वह दीप्ति को आज तक नहीं भूली और वे कोई पेंटिग बनाने की सोचती रहती हैं।

दीप्ति नवल एक एक्ट्रेस ही क्यों बनीं ? इसका जवाब कि इनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि। दादा बहुत बड़े वकील थे लेकिन अमृतसर के दो तीन सिनेमाघरों में एक बाॅक्स बुक रखते और शाम को कोर्ट से लौटते हुए पहले किसी न किसी फिल्म का कुछ हिस्सा देखकर ही घर आते। मां हिमाद्रि भी कलाकार, डांसर और स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान के लिए नाटक करती रहीं। सचमुच एक्ट्रेस ही बनना चाहती थीं। पर दीप्ति की दादी ने एक दिन इनकी माँ को कहा कि मेरी वीमेन कान्फ्रेंस की औरतें  कहती हैं कि तेरी बहू तो ड्रामे करती है। बस। दादी की बात दिल को ऐसी लगी कि वह दिन गया, फिर कभी मंच पर कदम नहीं रखा। इनके एक कजिन इंदु भैया बिल्कुल देवानंद दिखते थे और ‘दोस्ती’ फिल्म में छोटा सा रोल भी मिला लेकिन मुम्बई से असफल रहने पर लौट आये। इंदु भैया का देवानंद की लुक में फोटो भी है।

पर दीप्ति नवल जब बच्ची थी तब प्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी अमृतसर एक नाटक मंचन करने आए और दीप्ति अपने पिता के साथ गईं। भरी भीड़ में अपने करीब से निकलते बलराज साहनी को बहुत धीमी आवाज में कहा कि ऑटोग्राफ प्लीज, वे थोड़ा आगे निकल गये। फिर अचानक लौटे और हाथ बढ़ाया ऑटोग्राफ बुक लेने के लिए। ऑटोग्राफ किये और कहा -माई डियर। यदि मैं इसी तरह ऑटोग्राफ देता रहा तो मेरी ट्रेन छूट जायेगी। यह वही उम्र थी जब दीप्ति ने फैसला कर लिया कि मैं एक्ट्रेस ही बनूंगी। किस किस एक्ट्रेस से प्रभावित रही यह पूरा खुलासा किया है -फिल्ममेनिया अध्याय में। कभी मीना कुमारी, तो कभी वहीदा रहमान, तो कभी शर्मिला टैगोर, तो कभी अमृतसर का काका यानी राजेश खन्ना, तो कभी साधना। साधना कट भी बनवाया। कत्थक सीखा, यूथ फेस्टिवल में पुरस्कार जीते लेकिन जब टिकटों के साथ दीप्ति के प्रोग्राम में लाइट चली गयी और माँ ने कुछ हुड़दंग देखा तब इस तरह के प्रोग्राम से तौबा करने का आदेश दे दिया और माँ की तरह खुद दीप्ति भी मन मसोस कर रह गयी। पर सफर जारी रहा। कोई सोचे कि दीप्ति ने अचानक से पेंटिंग शुरू कर दी। यह शौक भी बचपन से ही है। एक आर्ट स्टुडियो में बाकायदा कला की क्लासें लगती रहीं। और अब तो मनाली के पास बाकायदा पेंटिंग स्टूडियो है। हालांकि फिल्मी दुनिया का सफर कैसा रहा ? यह अनुभव नहीं लिखे गये, लेकिन एक बहुत प्यारी बात लिखी कि-  जिस दीप्ति नवल को कत्थक नृत्य आता था, उससे किसी फिल्म में किसी निर्देशक ने एक भी डांस नहीं करवाया।

यह हिंदी फिल्मों की भेड़चाल को उजागर करने के लिए काफी है कि कैसे किसी कलाकार को एक ही ढांचे में फिट कर दिया जाता है। फिर दीप्ति ने फिल्में भी बनाईं और सीरियल्ज भी, निर्देशन भी किया। वह एक्टिंग से आगे बढ़ गयी। वैसे दीप्ति नवल को वहीदा रहमान का ‘गाइड’ फिल्म का गाने ‘कांटों से खींच के ये पायल’ बहुत पसंद था और वहीदा रहमान की लुक की तरह मंच पर किसी और गाने पर प्रोग्राम भी दिया था। वहीदा रहमान की लुक में भी फोटो है। कविता लेखन भी स्कूल के दिनों में ही शुरू कर दिया था और इनकी सीनियर किरण बेदी ने इनकी कविता पढ़ी तो कहा किअच्छा लिखती हो और लिखती रहो। अमृता प्रीतम से मिली तो उन्होंने भी कहा कि आप कविता लिखा करो। इनका काव्य संग्रह ‘लम्हा लम्हा’ इससे पहले आकर चर्चित हो चुका है।

 पिता उदय चंद्र एक चिंतक, लेखक और अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। दीप्ति उन्हें ‘पित्ती’ कहती थी यानी पिता जी का शाॅर्ट नेम पित्ती। सुबह अपनी बेटियों को हारमोनियम बजा कर जगाया करते थे। पंडित जवाहर लाल नेहरु, सर्वपल्ली राधाकृष्णन् और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर जैसे विद्वानों तक सम्पर्क रहा। पुस्तकें लिखीं। काॅलेज में प्रोफैसरी  की और दोस्त से कहा -यार तीन सौ रुपये में क्या होगा ? फिर इसी प्रोफैसरी से प्यार हो गया। इसी ने अमेरिका तक पहुंचाया। हालांकि वहां भी कम मेहनत नहीं करनी पड़ी। दिन में किसी लाइब्रेरी में तो रात में कहीं सिक्युरिटी गार्ड पर बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए सब खुशी खुशी करते गये और आखिर एक साल के भीतर बच्चों को अमेरिका बुला लिया।

मैंने इसलिए शुरू में इस पुस्तक को दीप्ति नवल की आत्मकथा का पहला भाग कहा। इसमें बचपन को ही समेटा है। स्कूल के दिनों की शरारतें, सहेली का पीछा करने वाले लड़के की पिटाई, भाग कर बैलगाड़ियों की सवारी के मजे, नकल मोमबत्तियों के साये में और पेपर रद्द लेकिन दीप्ति का कहना कि उसने कोई नकल नहीं की थी। नीटा देवीचंद का वो रूप जो बाद में मनोवैज्ञानिक शब्दावली में ‘लेस्बियन’ समझ में आया। पागलखाने में दाखिल नीटा देवीचंद को देखने जाना और फिर बरसों बाद पता लगना कि विदेश में नीटा देवीचंद ने आत्महत्या कर ली। शिमला में नीटा की मां को बुलाकर मिलना। इसी तरह मुन्नी सहित कितनी सखियों की यादें। यह सब संवेदनशील दीप्ति के रूप हैं। इतना सच कि फिल्मों में देखे कश्मीर को देखने के लिए अकेली घर से भाग निकली और रेलवे-स्टेशन पुलिस ने वापिस अमृतसर पहुंचाया। और पापा का कहना कि बेटा  एक रात घर से भागकर तूने मेरी बरसों की कमाई इज्जत मिट्टी में मिला दी पर बाद में एक सफल एक्ट्रेस बन कर ‘पित्ती’ यानी पिता का नाम खूब रोशन भी किया। एक पिता का दर्द बयान करने के लिए काफी है। यह भी उस समय की फिल्मों के प्रभाव को बताने के लिए काफी है कि बालमन पर ये फिल्में कितना प्रभाव छोड़ती थीं। कभी देशभक्ति उमड़ती थी तो दीप्ति नवल गीत गाती थी -साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल या हकीकत फिल्म के गीत।

अमृतसर की बहुत कहानियां हैं।  इन कहानियों में भारत पाक विभाजन, सन् 1965 और सन् 1967 के युद्धों की विभीषिका, ब्लैक आउट के साथ साथ बर्मा के संस्मरण कि कैसे मां का परिवार वापिस पहुंच पाया। विश्व युद्ध की झलक और बहुत कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का मार्मिक वर्णन। यह सिर्फ बचपन की स्मृतियां नहीं रह गयीं बल्कि अपने समय, समाज और देश का एक जीवंत दस्तावेज भी बन गयी हैं। अमृतसर के जलियांवाला बाग का मार्मिक चित्रण। वे वहां काफी देर तक बहुत भावुक होकर बैठी रहीं और यह प्रभाव आज तक बना हुआ है। सिख म्यूजियम और बाबा दीप चंद का फोटो। बहुत से फोटोज है ब्लैक एड व्हाइट।

बहुत कुछ है इन यादों में छिपा हुआ। अपने माता पिता के आपसी झगड़ों को भी लिखकर दीप्ति ने यह साबित कर दिया कि लेखन में वे कितनी सच्ची और ईमानदार हैं।

बहुत सी क्लासफैलोज के जिक्र भी हैं जिनमें इनको बड़ी बहन की  सहपाठी किरण पशौरिया जो बाद में किरण बेदी बनी – पहली महिला आईपीएस और नीलम मान सिंह जो बड़ी चर्चित थियेटर आर्टिस्ट हैं और पंजाब विश्वविद्यालय के इंडियन थियेटर विभाग की अध्यक्ष भी रहीं।

तो लिखने को तो बहुत कुछ है, अगर लिखने पे आते।

सबसे अंत में दीप्ति नवल के पिता हमारे नवांशहर के थे और यहीं इनका जन्म हुआ। यह किताब मुझे पंजाब के अमृतसर, नवांशहर, जलालाबाद और मुकेरियां तक ले गयी। जलालाबाद को छोड़कर सब देखे हुए हैं और इससे भी ज्यादा सुखद आश्चर्य कि वही वर्ष मैंने भी पंजाब के नवांशहर में बिताये और ऐसी बहुत सी स्मृतियां मिलती सी हैं पर जिस ढंग से, पूरी खोज, जांच पड़ताल से दीप्ति ने यह किताब लिखी, वह बहुत ही सराहनीय है और इसके लिए ढेरों बधाइयां।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 114 – “थाने थाने व्यंग्य” – संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशु ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशु द्वारा सम्पादित पुस्तक  “थाने थाने व्यंग्य” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 114 ☆

☆ “थाने थाने व्यंग्य ” – संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशु ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

थाने थाने व्यंग्य  (३४ व्यंग्यकारों के पोलिस पर व्यंग्य लेखों का संग्रह)

संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशु

वनिका पब्लिकेशनन्स, बिजनौर

पृष्ठ १२४, मूल्य २०० रु

“सैंया भये कोतवाल फिर डर काहे का” या “चाहे तन्खा आधी कर दो पर नाम दरोगा धर दो ” जैसी लोकप्रिय प्राचीन  कहावतें ही पोलिस के विषय में बहुत कुछ अभिव्यक्त कर देती हैं. बड़े बूढ़े कहते हैं पोलिस से न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी.  दरअसल संतरी, दरोगा और  थाना ही शासन का वह स्वरूप है जिससे आम आदमी का सरकार से सामना होता रहा है. स्वतंत्रता के बाद भी पोलिस की इस छबि को बदलने की लगभग असफल कोशिशें ही की गईं हैं. यही कारण है कि  लगभग प्रत्येक व्यंग्यकार ने इस मुद्दे को कभी न कभी अपने लेखन का विषय बनाया है. परसाई जी ने  इंस्पैक्टर मातादीन को चांद तक पहुंचा दिया था, रवीन्द्रनाथ त्यागी के” थाना लालकुर्ती का दरोगा राष्ट्रपति से ज्यादा प्रभावशाली है, वर्ष २००९ में डा गिरिराज शरण के संपादन में प्रभात प्रकाशन से पोलिस व्यवस्था पर व्यंग्य शीर्षक से एक संकलन प्रकाशित हुआ था जिसमें तत्कालीन व्यंग्यकारो के पोलिस पर लिखे गये २४ व्यंग्य शामिल हैं. संग्रह में शामिल व्यंग्यकारों में शरद जोशी, ईश्वर शर्मा, लतीफघोंघी, शंकर पुणतांबेकर, रवीन्द्र नाथ त्यागी,बालेंदुशेखर तिवारी और  हरिशंकर परसाई जी भी हैं.

संभवतः इसी से प्रेरित होकर स्व सुशील सिद्धार्थ जी ने इसके समानांतर आज के व्यंग्यकारों को लेकर इस संग्रह की परिकल्पना की रही हो. संपादक द्वय डा हरीश कुमार सिंग और डा नीरज सुधा्ंशुने बड़ी संजीदगी से इस परिकल्पना को थाने थाने व्यंग्य  के रूप में साकार कर दिखाया है. थाने थाने व्यंग्य 

में ३३ समकालीन व्यंग्यकारों की रचनायें हैं. सभी एक से बढ़कर एक व्यंग्य हैं. यह उल्लेख करना उचित होगा कि  जहां गिरिराज शरण जी के संपादन में आये व्यंग्य संग्रह में केवल मीना अग्रवाल ही एक मात्र लेखिका थीं, जिनका लेख अपराध विरोधी पखवाड़ा और दरोगा गैंडासिंह उस किताब में शामिल था, वहीं थाने थाने व्यंग्य में अर्चना चतुर्वेदी, अनीता यादव, मीना अरोड़ा, डा नीरज सुधा्ंशु, वीना सिंग, स्वाति श्वेता, सुनीता सानू और शशि पांडे सहित ८ महिला व्यंग्य लेखिकाओ ने पोलिस पर कलम चलाई है. यह स्टेटिक्स विगत दस बारह वर्षो में महिला व्यंग्यकारो की उपस्थिति दर्ज करता है.  मजे की बात यह है कि गिरिराज शरण जी के संपादन में आई पुस्तक में परसाईजी का जो व्यंग्य था वह भी किताब का अंतिम व्यंग्य इंस्पैक्टर मातादीन चांद पर था और इस किताब का अंतिम व्यंग्य भी मेरा  व्यंग्य ” मातादीन के इंस्पैक्टर बनने की कहानी ” है, जो परसाई जी के इंस्पैक्टर मातादीन पर ही अवलंबित एक्सटेंशन व्यंग्य है. आज के वरिष्टतम व्यंग्यकारो मेंसे डा ज्ञान चतुर्वेदी जी का व्यंग्य कर्फ्यू में रामगोपाल, अरविंद तिवारी का व्यंग्य हवलदार खोजा सिंह का थाना, डा हरीश कुमार सिंह का पुलिस की पावर, शशांक दुबे का खंबे पर टंगा सी सी टी वी कैमरा,  आषीश दशोत्तर का थाने में सांप, राजेश सेन का नकली पुलिस के असली कारनामें, डा नीरज सुधा्ंशु का चोर पुलिस और कैमिस्ट्री,कमलेश पाण्डेय का अथश्री थाना महात्म्य,  पंकज प्रसून के दो छोटे व्यंग्य ट्रैफिक हवलदार का दर्द और अपराध हमारी रोजी रोटी के लिये बहुत जरुरी है, जैसे मजेदार कटाक्षों से भरी समाज और पुलिस की वास्तविकताओ के कई कई दृश्य  किताब  से उजागर होते हैं.

पढ़कर न केवल मजे लीजीये बल्कि इन लेखको के व्यंग्य कथ्य मन ही मन गुनिये और कुछ व्यवस्था में सुधार सकते हों तो अवश्य कीजिये जो लेखकों का अंतिम प्रयोजन है किताब की ग्रेडिंग धांसू कही जा सकती है, खरीद कर पढ़ने योग्य संकलन के लिये प्रकाशक, संपादकों, सहभागी व्यंग्यकारो और इसकी परिकल्पना करने वाले स्व सिद्धार्थ जी को साधुवाद. सरकार को सुझाव है कि पोलिस सुधार पर जो सेमीनार किये जाते हैं उनमें और प्रत्येक थाने में  थाने थाने व्यंग्य की प्रतियां अवश्य बंटवायें.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “माई लाइफ़” – लेखिका – इज़ाडोरा डंकन – अनुवाद : युगांक धीर ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।

आज से प्रस्तुत है इज़ाडोरा डंकन की आत्मकथा  “माय लाइफ” के श्री युगांक धीर द्वारा हिंदी भावानुवाद पर श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तक चर्चा)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “माई लाइफ़” – लेखिका – इज़ाडोरा डंकन – अनुवाद : युगांक धीर ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

पुस्तक : माई लाइफ़

लेखिका : इज़ाडोरा डंकन

प्रकाशक : संवाद प्रकाशन

अनुवाद : युगांक धीर

क़ीमत : 350.00

प्रकाशन वर्ष : 2002

यह समीक्षा इज़ाडोरा की आत्मकथा ‘माय लाइफ’ के हिन्दी अनुवाद ‘इज़ाडोरा की प्रेमकथा’ पढ़कर लिखी गयी है। उसके जन्मदिन 29 अप्रैल के दिन अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस (इंटरनेशनल डांस डे) मनाया जाता है।

नृत्य, नाच, झूमना, गाना या डांस इन्सानों की नैसर्गिक प्रवृत्तियों में से एक प्रवृत्ति है। यह माना जा सकता है। इसमें बहस मुबाहसे की जरूरत नहीं है। भारत में तो क्लासिक संगीत की तरह क्लासिक नृत्य भी हैं। इस लेख का उद्देश्य अमरीका की आधुनिक नृत्य की जननी महान इज़ाडोरा की आत्मकथा के बहाने स्त्रीत्व को समझना होगा। गौरतलब हो कि इस महान नृत्यांगना को इतिहास में कई तरीक़ों से याद किया जाता रहा है। इसके साथ ही उनकी मुक्त विचारधारा और जीवनशैली को भी निशाने पर लिया जाता रहा है। हैरत की बात है कि जिस नृत्य को लेकर अमरीका बीसवीं शताब्दी में माइकल जैकसन को लेकर दीवाना रहा वहीं इस मशहूर नृत्यांगना का ज़िक्र भी नहीं सुनाई देता या बहुत बड़े पैमाने पर सुनाई नहीं देता। ज़िक्र होता भी है तो बहुत ही धीमी आवाज़ में। आज का समाज भी आज़ाद स्त्री से डरा हुआ है।

भारत में भी तमाम तरह की नृत्य प्रतियोगिताओं के कार्यक्रमों के दौरान माइकल जैकसन का नाम आता रहता है पर इज़ाडोरा का नाम सुनाई भी नहीं देता। यह भी सच है कि सत्ताओं ने जिस इतिहास को दिखाना चाहा, लोगों तक वही पहुंचा भी। जिसे स्कूली किताबों में जगह मिली उनका मनमाना चेहरा दिखाया गया। जो लोग/ व्यक्तित्व /समाज बनाई गई लीक पर चले उन्हें फ्रेम में लिया गया। पर जो लीक पर चलने को राज़ी न हुए उन्हें एक अंधेरा और लंबी खामोशी दी गई। यह हर जगह के इतिहासों के साथ है। महिलाओं और दबाये गए लोगों के साथ यह काम और भी क्रूरता से किया गया। लेकिन कुछ लोग इतिहास में किसी भी तरह मारे नहीं जा सके और उभर आए।

एंजेला इज़ाडोरा डंकन का जन्म 27 मई 1878 को अमरीका के सेन फ्रांसिस्को में हुआ था। बेहद छोटी अवस्था में उनके माता पिता के बीच तलाक हो गया था। उनके परिवार में उनकी माँ को मिलाकर पाँच लोग थे। माँ ने ही अकेले अपने चारों बच्चों की परवरिश की। इज़ाडोरा ने अपनी आत्मकथा ‘माय लाइफ’ में अपने बचपन का बेहद प्रभावपूर्ण वर्णन किया है। वह आत्मकथा में नृत्य के बारे में लाजवाब बात कहती हैं- “अगर लोग मुझसे पूछते हैं कि मैंने नाचना कब शुरू किया तब मैं जवाब देती हूँ- ‘अपनी माँ के गर्भ में। शायद शहतूतों और शैम्पेन के असर की वजह से, जिन्हें प्रेम की देवी एफ़्रोदिती की खुराक कहा जाता है।”

वह यह भी कहती हैं- “मुझे इस बात का शुक्रगुजार होना चाहिए कि जब हम छोटे थे तब मेरी माँ गरीब थी। वह बच्चों के लिए नौकर या गवर्नेस नहीं रख सकती थी।। इसी वजह से मेरे अंदर एक सहजता है, ज़िंदगी को जीने की एक कुदरती उमंग है, जिसे मैंने कभी नहीं खोया।” बीसवीं शताब्दी के आरंभ में इज़ाडोरा का इस तरह से ज़िंदगी के प्रति मुखर होना सचमुच आकर्षित करता है।

वे स्कूल में भी इस कदर पेश आती थी कि परंपरा में ढली टीचर की निगाह में वे चुभ जाया करती थीं। आत्मकथा में वे लिखती हैं कि एक बार टीचर ने अपनी जिंदगी का इतिहास लिखकर लाने को कहा। अपने दिये जवाब में वे कहती हैं- “जब मैं पाँच वर्ष की थी तब तो तेइसवीं गली में हमारा एक कॉटेज था। पर किराया न दे पाने के कारण हम वहाँ नहीं रह सके और सत्रहवीं गली में चले गए। पर पैसों की तंगी के कारण जल्दी ही मकान मालिक यहाँ भी तंग करने लगा और हम बाइसवीं गली में शिफ्ट हो गए। वहाँ भी शांति से नहीं रह सके और वहाँ से भी खाली करके दसवीं गली में जाना पड़ा। इतिहास इसी तरह चलता रहा और हम लोगों ने जाने कितनी बार घर बदले।” टीचर ने जब यह सुना तो वह गुस्से से लाल हो गई और नन्ही इज़ादोरा को प्रिन्सिपल के पास भेज दिया गया। प्रिन्सिपल ने माँ को बुलाया। जब माँ ने यह देखा तो वह खूब रोने लगीं और कसम खाकर कहा कि यह सच है।

सभी बच्चों के लिए टीचर की एनक में एक ही फ्रेम है। एक ही साँचे में ढालने की कोशिश। आज भी यही शिक्षा है। टीचर को किसी भी विद्यार्थी की स्वतंत्र स्वतन्त्रता को सम्मान देते बहुत हद तक नहीं देखा गया। उसकी मूल दिलचस्पी या चाहत की समझ बहुत से कम शिक्षकों को हो पाती है। यह स्कूली शिक्षा की एक कड़वी सच्चाई भी है। इसलिए जब इज़ाडोरा का स्कूल चल पड़ा तब उन्होंने इस पढ़ाई को नकार दिया। पर व्यक्तिगत रूप से परिवार के अन्य लोगों के साथ उन्होंने जगह-जगह की लाइब्रेरी में बहुत सा समय बिताया। बेहद कम उम्र से आसपड़ोस के बच्चों को इज़ाडोरा ने नृत्य सिखाने की शुरुआत की और लगभग दस वर्ष की होते होते उन्हों ने एक बढ़िया नृत्य प्रशिक्षण स्कूल खोल लिया। इसकी मूल प्रेरणा उनकी माँ रहीं जो नृत्य और संगीत की गहराई से समझ रखती थीं। उन्होंने अपने बच्चों में भी उसका पर्याप्त प्रवाह किया।

इज़ाडोरा दो शताब्दियों के बीच के बिन्दु पर विख्यात रहीं। इस प्रसिद्धि की मूल वजह उनका आधुनिक नृत्य था। कहना न होगा कि उन्होंने नितांत अपनी शैली विकसित की बल्कि उसे नए आयामों तक भी पहुंचाया। इसी शैली ने उन्हें यूरोप और अमरीका में विख्यात कर दिया। उनके लिए लोग दीवाने हो जाया करते थे। उनके नृत्य के बाद लोग घंटों सम्मोहन में रहते थे। इंग्लंड के मशहूर नृत्य समीक्षक रिचर्ड ऑस्टिन के मुताबिक- “एक तरह से वह एक ऐसी नृत्यांगना थी जो किसी शास्त्रीय अध्ययन और प्रशिक्षण की देन होने की बजाय विशुद्ध प्रकृति की पैदाइश थी।” खुद इज़ादोरा आत्मकथा में यह कहती भी हैं कि उनका बचपन संगीत और काव्य से भरा था। इसका स्रोत उनकी माँ थी जो पियानो पर संगीत बजाने में इतनी खो जाती थी कि कई बार रात से सुबह हो जाया करती थी।

इज़ाडोरा ‘माय लाइफ’ में कई जगह अपनी कला यानि नृत्य से जुड़े अपने विचार रखती हैं। वे कई घंटों तक आत्म केन्द्रित होकर उस आयाम को खोजती रही थीं जो मनुष्य की सर्वोच्च आकांक्षाओं को अभिव्यक्त कर सके। उन्होंने गति के उस सिद्धान्त की खोज की जो मन, मस्तिष्क और संवेगों से जुड़ा हुआ था। वे कहती हैं- “… मन की, आत्मा की वह जागृति चाहिए जिसके द्वारा हम अपने शरीर के सभी संवेगों को और अपने अंगों की सभी क्रियाओं को महसूस कर सकें। एक तरह से मन, शरीर औए मस्तिष्क का पूरा तालमेल।” एक जगह इज़ाडोरा ‘प्रिमाविरा’ पेंटिंग से प्रभावित होकर अपने ‘डांस ऑफ फ्यूचर’ की ईजाद भी करती हैं। इसमें इस नृत्य के माध्यम से ज़िंदगी की भव्यता और उसके चरम आनंद का संदेश देना उनका लक्ष्य था।

ऐसे ढेरों उदाहरण उनकी आत्मकथा में भरे पड़े हैं जहां वे अपनी कला के प्रति पूरी तरह से समर्पित और आत्मा से जुड़ी हुई दिखाई देती हैं। खुला हाथ और स्कूल को बनाए रखने के कारण उन्हें हर जगह अपने नृत्य कार्यक्रम पेश करने होते थे। पूरी आत्मकथा में कहीं भी वे यह नहीं कहती कि इस ज़िंदगी से वे ऊब गई हैं। बल्कि ज़िंदगी से मिले दुखों में वे हमेशा नृत्य की ओर मुड़ती हैं।

जरा सोचिए कि आज के समय में हमारे समाज में उन लड़कियों या औरतों को लेकर हम क्या सोच बनाते हैं जिनके बिना विवाह के बच्चे हो जाते हैं। आज के दौर में तो फिर भी एक समझ धीरे धीरे विकसित हो रही है। पर नीना गुप्ता (अभिनेत्री) ने जब बिना विवाह अपनी बेटी को जन्म दिया तब उन्हें क्या क्या सुनना पड़ा था। अपने कई इंटरव्यूज़ में वे बार बार इसका ज़िक्र भी करती हैं। आज भी यदि कोई महिला पिता के नाम के बिना अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला करवाने जाती है तब कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कितने ही गलत विचारों और मानसिकता से टकराना पड़ता है।

इज़ाडोरा ने बचपन से अपनी माँ की दुखद और दयनीय स्थिति देखी थी। इसलिए वे शादी जैसी संस्था को कड़े आलोचनात्मक नज़रिये से देखती थीं। वे स्वतंत्र मस्तिष्क वाली स्त्री की बात करती हैं। ‘माय लाइफ’ में वे लिखती भी हैं- “आज से बीस वर्ष पहले (1905 में) जब मैंने विवाह करने से इंकार किया और बिना विवाह के बच्चे पैदा करने के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दिखाया तब अच्छा-खासा हँगामा हुआ था।” उनके मुताबिक,“विवाह संस्था की नियम संहिता को निभा पाना किसी भी स्वतंत्र दिमाग की स्त्री के लिए संभव नहीं है।”

इतना ही नहीं वे समाज और परिवार के संकुचित विचारों को भी निशाना बनाती हैं। उनकी मौसी आगस्ता के जीवन की बरबादी वे परिवार के संकुचित विचारों के कारण ही मानती हैं। मौसी को नृत्य-नाटिकाएँ करने का शौक था। वह थिएटर में काम को लेकर उत्साहित रहती थीं। पर उनके नाना नानी को यह पसंद नहीं था। मौसी की कलात्मक प्रतिभा के खत्म होने को इज़ाडोरा इसी संकुचित सोच को मानती हैं। अपनी मृत्यु के कुछ वर्षों पहले जब वे रूसी नौजवान कवि से विवाह भी करती हैं तब उसके पीछे की वजहों को जानकार पता चलता है कि उनके मन में विवाह के प्रति विचारों में कोई खास अंतर नहीं आया था।

इज़ाडोरा और उनके अन्य भाई-बहन ने अपनी भावनाएँ और कला को दबाने के बजाय उसे निखारा और ताउम्र उसके प्रति समर्पित भी रहे। अपनी कला और उसको और ऊंचाई तक ले जाने के लिए वे लगभग योरोप भ्रमण से लेकर रूस तक घूमे। अपने संघर्ष के दिनों में वे शिकागो, न्यूयॉर्क और लंदन तक ठोकरे खाते रहे।इस दरमियान वे कई बार भूखे रहे तो कई बार बिना छत के इधर उधर भटकते रहे।

इज़ाडोरा की आलोचना का एक कारण उनके और कई पुरुषों के बीच के संबंध भी रहे। उनकी ज़िंदगी में कई पुरुष आए और गए। उनका पहला प्रेम का भाव पोलिश चित्रकार इवान मिरोस्की के लिए था। वह उम्र में काफी बड़ा था और इज़ाडोरा बेहद कम उम्र की थीं। लेकिन यह प्रेम प्रसंग आगे न बढ़ पाया क्योंकि इज़ाडोरा को कुछ बनने के जुनून ने कला की कदर के लिए दूसरे शहर में जाने को मजबूर कर दिया। बाद में उनके भाई ने जब इस चित्रकार के बारे में छानबीन की तो पाया कि यह पहले से शादीशुदा है। इसके बाद हंगेरियन अभिनेता ऑस्कर बरजी से उनके प्रेम संबंध रहे। इतिहासविद् हेनरीख थोड से भी गहराई में प्रभावित हुई और आध्यात्मिक प्रेम के पक्ष को भी जाना। मंच सज्जाकार गार्डन क्रेग से प्रेम संबंध काफी सुखद रहे और इन्हीं से सन् 1905 में अपनी पहली संतान द्रेद्रे को जन्म दिया।

गार्डन क्रेग का साथ लंबा चला. पर उसके साथ रहने के लिए इज़ाडोरा को तालमेल बिठाना पड़ा। ‘माय लाइफ’ में वह एक जगह जिक्र करती हैं- “यह मेरी नियति थी कि मैं इस जीनियस के महान प्रेम को प्रेरित करूँ और यह भी मेरी नियति थी कि उसके प्रेम के साथ अपने करियर का तालमेल बिठाने का अथक प्रयत्न करूँ।” क्रेग कई बार इज़ाडोरा को अपने काम और कला को छोड़ने की बात कहता था। उसकी सलाह थी कि घर पर रह कर वह उसकी पेंसिलों की नोकें तैयार करे। यही वजह भी रहे कि उनके सम्बन्धों में खटास भी मिलती चली गई।

एक बड़े नृत्य स्कूल खोलने के सपने ने उन्हें सिंगर मशीन कंपनी के वारिस पेरिस सिंगर से मिलाया। सिंगर के साथ इज़ाडोरा ने अपने चरम पर जाकर एश्वर्य का जीवन जिया और इन्हीं से सन् 1911 में एक बच्चे पेट्रिक को भी जन्म दिया। सिंगर से हुए मन मुटाव के बाद भी कई लोग आए और गए। पर इज़ाडोरा इनसब के साथ अपने नृत्य और स्कूल को कभी नहीं भूलीं। नृत्य उनके लिए जीवन था।

इस सब प्रेम सम्बन्धों के चलते उन्हें बहुत कुछ सहना भी पड़ा। लेकिन उन्हों ने इसकी ज़्यादा परवाह नहीं की और अपने काम में लगी रहीं। एक आकस्मिक दुर्घटना में उनके दोनों बच्चों के डूब के मर जाने का सदमा उनके साथ ताउम्र रहा और वह इस सदमे से कभी भी उबर नहीं पाईं। यह समय 1913 का था। इस बीच वह तमाम जगह राहत पाने के लिए भटकती रहीं। वे एक बार फिर गर्भवती हुईं पर यह तीसरा बच्चा भी जल्दी ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। इसके बाद मानसिक रूप से वह बहुत टूट चुकी थीं। मरने के खयाल तक ने उनके दिमाग में दस्तक दे थी। पर फिर भी वे वापसी करती हैं। यही वजह है कि इज़ाडोरा मामूली चरित्र बनकर नहीं रह जातीं।

हालातों से टकराते हुए वे रूस से आए न्योते को स्वीकार करती हैं और वहीं के एक युवा कवि से सन् 1922 में विवाह भी करती हैं। यह चौंका देने वाली घटना थी। लेकिन इसके पीछे की पृष्ठभूमि को समझना होगा। उनकी एक प्रिय शिष्या इस बारे में अहम जानकारी देती है। 1922 को इज़ाडोरा की माँ का निधन अमरीका में होता है। इसके साथ ही उन्हें रूस में स्कूल चलाने की दिक्कतें और रुपयों की कमी ने आ घेरा था। इसके अलावा सेर्जी एसेनिन जो उनका युवा पति था, काफी बीमार रहने लगा था। इसलिए उसे एक बेहतर इलाज़ और अमरीका और यूरोप की यात्रा के जरिये रचनात्मकता का बेहतर माहौल देना चाहती थीं। बिना विवाह के पासपोर्ट या यात्रा मुश्किल थी। अत: उन्हों ने मई में इस युवा कम उम्र कवि से विवाह कर लिया। एक वजह यह भी थी वे इस व्यक्ति में अपने बेटे का चेहरा भी पाती थीं और मोहित भी थीं।

इस विवरण से स्त्री पुरुष सम्बन्धों की झलक भी मिलती है। उनके आलोचक उनके वफादार न होने का उन पर इल्ज़ाम लगते हैं। पर वहीं पुरुषों को इस तरह की आलोचनात्मकता का सामना नहीं करना पड़ता। उनकी आत्मकथा के हिन्दी अनुवादक युगांक धीर लिखते भी हैं कि इज़ाडोरा अपने समय से काफी आगे थीं। अनुवादक की ओर से लिखे नोट में वे लिखते हैं“…एक सहज स्वाभाविक स्वतंत्र स्त्रीत्व की तलाश। एक ऐसी स्वतन्त्रता जिसका अर्थ सिर्फ ‘पुरुषों से मुक़ाबला’नहीं—‘स्त्रीत्व को त्यागकर ‘पुरुषत्व’ अपना लेना नहीं—बल्कि एक स्त्री के रूप में जीते हुए, अपने स्त्रीत्व का पूरा आनंद उठाते हुए,‘प्रेमत्व’ और ‘मातृत्व’ दोनों का सुख भोगते हुए, अपनी क्षमताओं और प्रतिभाओं की, अपनी आकांक्षाओं और अपने सपनों की असीम संभावनाएँ तलाशना।” इज़ाडोरा कुल मिलाकर यही चरित्र थीं।

समीक्षक  – श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 113 –“पंचमढ़ी एक खोज” – लेखक – श्री सुरेश पटवा  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है लेखक… श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तक  “पंचमढ़ी एक खोज” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 113 ☆

☆ “पंचमढ़ी एक खोज” – लेखक – श्री सुरेश पटवा  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पंचमढ़ी एक खोज

लेखक.. सुरेश पटवा

वालनट पब्लिकेशन, भुवनेश्वर

पृष्ठ ८४, मूल्य १४९ रु

अमेज़न लिंक (कृपया यहाँ क्लिक करें)  👉 पंचमढ़ी एक खोज

पर्यटन और साहित्य में गहरा नाता होता है. जब लेखक को पर्यटन के माध्यम से सुन्दर दृश्य, मनोरम वातावरण मिलता है तो नये विचार जन्मते हैं, जो उसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति में किसी न किसी विधा में कभी न कभी महज यात्रा वृतांत या पर्यटक स्थलो पर केंद्रित साहित्य से इतर भी शब्द बनकर फूटते ही हैं, और कविता, कहानी, साहित्य का नवसृजन करते हैं.

पचमढ़ी मध्य प्रदेश में सतपुड़ा पर्वत श्रंखला का एक मनोहारी रमणीय पर्यटन स्थल है. जब पचमढ़ी पर केंद्रित श्री सुरेश पटवा की पुस्तक “पंचमढ़ी की खोज” नाम से मुझे प्राप्त हुई तो सर्वप्रथम मेरा ध्यान  पचमढ़ी कहे जाने वाले इस स्थल को “पंचमढ़ी” लिखे जाने पर गया और मैं पूरी किताब पढ़ गया. सुरेश पटवा जी पचमढ़ी के निकट सोहागपुर में ही पले बढ़े हैं. स्वाभाविक रूप से जब उन्होनें अध्ययन और लेखन के क्षेत्र में कदम बढ़ाये तो  पचमढ़ी के विषय में उनकी उत्सुकता ने ही उन्हें जेम्स फार्सायथ की अंग्रेजी पुस्तक पढ़कर, पंचमढ़ी की खोज को हिन्दी पाठको हेतु सुलभ करने को प्रेरित किया.

उन्होंने अपने गहन आध्यात्मिक, एतिहासिक  अध्ययन  वैज्ञानिक तर्क वितर्क और, अपने मित्र श्रीकृष्ण श्रीवास्तव के संग कहे, सुने, घूमे पचमढ़ी की जंगल यात्रा के संस्मरणो को अपनी विशिष्ट  सरल भाषा, सहज शैली, और रोचक, रोमांचक, किस्सागोई, तथ्य पूर्ण जानकारियों से भरपूर सामग्री के रूप में यह पुस्तक लिखी है. किताब में जेम्स फार्सायथ, देनवा घाटी की गोद में, पंचमढ़ी का पठार, बायसन लाज की दिक्कतें, नागलोक का सच, पर्यटन  जैसे दस चैप्टर्स में लेखक ने अपनी बात रखी है. लेखक बताते हैं कि आज की सुप्रसिद्ध पर्यटन स्थली पचमढ़ी की खोज १८६१..६२ में अंग्रेजो ने की थी. तत्कालीन इतिहास और भूगोल को समझाते हुये वे लिखते हैं ” तब भारत १८५७ के भयानक तूफान से गुजरा था, पिपरिया बसा नहीं था, ट्रेन लाईन उसके दस बरस बाद बिछाई गई. ” 

(‘पंचमढ़ी की खोज’  श्री सुरेश पटवा की प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक है। आपका जन्म देनवा नदी के किनारे उनके नाना के गाँव ढाना, मटक़ुली में हुआ था। उनका बचपन सतपुड़ा की गोद में बसे सोहागपुर में बीता। प्रकृति से विशेष लगाव के कारण जल, जंगल और ज़मीन से उनका नज़दीकी रिश्ता रहा है। पंचमढ़ी की खोज के प्रयास स्वरूप जो किताबी और वास्तविक अनुभव हुआ उसे आपके साथ बाँटना एक सुखद अनुभूति है। 

श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं। )

 

श्री सुरेश पटवा के लेखन की विशेषता है कि वे अपने सारे अध्ययन के आधार पर सिलसिले से पाठक से बातें करते सा लेखन करते हैं, वे पौराणिक संदर्भो, इतिहास, भूगोल,वैज्ञानिक विश्लेषण,  साहित्य आदि सारी जानकारियां जुटा कर लिखने बैठते हैं. उप शीर्षकों में छोटे छोटे पैराग्राफ्स में लेखन करते हैं. यह अच्छा भी है किन्तु उन उपशीर्षक सामग्री को किंचित बेहतर तारतम्य में पिरोया जा सकता है.   जैसे उदाहरण स्वरूप “बायसन लाज की दिक्कतें ” चैप्टर में “उन्नीसवीं सदी का आदिवासी जीवन” या “शिवरात्रि मेला ” जैसे उपशीर्षकों का समावेश समीक्षा की दृष्टि से अप्रासंगिक तथा विषय विचलन कहा जा सकता है. किन्तु विषय के ज्ञान पिपासु पाठक हेतु प्रत्येक छोटी बड़ी जानकारी किसी भी क्रम में मिले महत्वपूर्ण ही होती है. मांधाता उपशीर्ष में लेखक आर्य अनार्य, स्कंद पुराण, राजा रघु की चर्चा करते हैं तो वे हजारों वर्षो के इतिहास को समेटते हुये भीलों की भौगोलिक उपस्थिति की बातें भी बताते हैं. 

कुल मिलाकर पचमढ़ी पर जो हिन्दी साहित्य अब तक मिलता है उससे हटकर, एक शोधपूर्ण पठनीय किताब हिन्दी में पढ़ने मिली, जिसमें पर्यटन की जानकारियां भी हैं और पचमढ़ी के आदिकालीन नागलोक, धूपगढ़ के किस्से भी हैं.   हिन्दी जगत को इस कृति के लिये पटवा जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी ही चाहिये. उन्होने कविता, गजल, इतिहास, यात्रा वृतांत, बहुविधा लेखन किया है और उनमें हर नई विधा को सीखने समझने की अभिरुचि है, यही कारण है कि वे सतत नये विषयों पर नई नई किताबों के साथ अपनी वजनदार उपस्थिति साहित्य जगत में दर्ज कर रहे हैं. शुभकामना.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “वह” – लेखक – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘’निसार’’ जी ☆ सुश्री अंजली खेर ☆

सुश्री अंजली खेर 

(ई अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध लेखिका सुश्री अंजली खेर जी का स्वागत है। आप भारतीय जीवन बीमा निगम में कार्यरत हैं। जीवन बीमा निगम की विविध पत्र पत्रिकाओं में विगत 10 वर्षो से आलेख प्रकाशित एवं पुरस्‍कृत । आकाशवाणी भोपाल से चिंतन एवं महिला सभा में आलेख प्रसारित, विगत दस वर्षो से वनिता, गृहशोभा, गृहलक्ष्‍मी, अहा जिंदगी, जागरण सखी, फेमिना आदि में लगभग 1000 से ज्‍यादा लेख/ कहानियां प्रकाशित एवं कुछ पुरस्‍कृत। बिग एफ एम से प्रसारित “हीरो ख्‍वाबों का सफ़र” कहानी प्रतियोगिता में लिखी कहानी भारत भर में द्वितीय स्‍थान पर रही। वर्तमान में ‘’यू ट्यूब’’ पर समाज उत्‍थान उद्देश्‍यपरक 12 कहानियां प्रसारित हो चुकी हैं जिन्‍हें आप “कहानियों का सफर” फेसबुक पेज पर सुन सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री गोपाल सिंह सिसोदिया “निसार” जी की शोधपरक पुस्तक “वह” की सारगर्भित समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “वह” – लेखक – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘’निसार’’ जी ☆ सुश्री अंजली खेर ☆  

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं।)

पुस्तक चर्चा

पुस्तक वह 

लेखक … श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘’निसार’’

प्रकाशक .. श्वेतांशु प्रकाशन, नई दिल्ली

चर्चाकार .. सुश्री अंजली खेर, भोपाल

आदरणीय श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘’निसार’’ जी द्वारा लिखी ‘’वह’’ शीर्षित  पुस्‍तक  का कवरपेज देख अनायास ही समाज के उस वर्ग के चेहरे मानस पटल पर जीवंत हो उठे,    जिन्‍हे समाज मे  केवल तिरस्‍कृत दृष्टि से ही देखा गया हो,  जिन्‍हें पग-पग पर अपमानित होकर शापित जीवन जीने को मजबूर होना पड़ा हो वह भी उस विषय पर, जिसके जिम्‍मेदार वे कतई हैं ही नहीं ।

जी हां, इन्‍हें हम किन्‍नर, हिजड़ा, मंगलमूर्ति, थर्ड जेंडर या कि अर्जुन और नागकन्‍या उलुपी के पुत्र ‘’अरावन’’ के नाम से जानते हैं ।

पाठकों का ध्यानाकर्षण करते हुए लेखक लिखते है कि बेशक यह जानते समझते हुए भी कि यह कोई संक्रामक बीमारी नहीं, ना ही बच्‍चे के इस जन्‍म के लिए माता-पिता ही जिम्‍मेदार है, बावजूद इसके इन्‍हें हमारा सभ्‍य सुसंस्‍कृत और तथाकथित रूप से शिक्षित समाज, यहां तक कि उसके परिजन भी उन्‍हें मन:पूर्वक स्‍वीकार करने को तैयार नहीं।

पुस्‍तक में लेखक “निसार जी” ने पुरूष-स्‍त्री और उभयलिंगी किन्‍नर के जन्‍म के वैज्ञानिक कारणों का सविस्‍तार उल्‍लेख किया हैं ।

परिस्थितियों के दुश्‍चक्र की उहापोह को एकलय में बांधती पुस्‍तक ’’वह’’ की कहानी लेखक तप शर्मा के बचपन में माँ, फिर पिता और अंतत: दिलोंजान से प्‍यार करने वाले दादा जी  के परलोक गमन की पीड़ा अंतस में थामने वाले नन्‍हे बेटे के जीवन के झंझावातों से शुरू होती हैं, जिसने  ताई-ताउजी के घर शारीरिक-मानसिक असह्य उत्‍पीडन सहने के बाद अंतत: बगावत कर परिचित के घर आश्रय लेकर आत्‍मनिर्भर बनने तक का सफ़र तय किया ।

कहानी आगे गति लेती हैं । घुमक्‍कड़ी प्रवृत्ति वाले लेखक तप शर्मा फतेहपुर सींकरी से वापसी के दौरान हादसे का शिकार हो जाते हैं, होश आने पर खुद को एक सहृदय किन्‍नर के आश्रय में पाते हैं, जिसकी सेवा-सुश्रुंषा से लेखक को नवजीवन मिलता है ।

हादसे के बाद से वर्तमान तक की बातें जानने के पश्‍चात लेखक तप शर्मा की सवालिया नज़रों को पुस्‍तक की मुख्‍य पात्र अंजु पढ़ लेती हैं और तप की आँखों मे तैरते सवालों के जवाब में अपने विधिलिखित दुर्भाग्‍य की पुस्‍तक के एक-एक पन्‍ने को खोलती चली जाती हैं ।

अंजु बताती हैं कि अव्‍वल तो बेटे की चाहत रखने वाले पिता पहले-पहल तीसरी बेटी होने पर बड़े आघात के चलते अनिश्चित कालीन बिजनेस टूर पर निकल पड़ते है, फिर थोड़ी बड़ी होने पर उसके किन्‍नर होने की खबर बिजली की कौंध सी ही द्रुतगति से फैलते ही समाज के साथ परिजनों से उलाहने और  उपहास ही मिलता रहा ।

अंजु  आगे कहती हैं कि किन्‍नर समाज के शामिल होने के बाद शुरू हुआ दुर्भाग्‍य की अग्निपरीक्षा जिसमें किन्‍नर समाज की प्रताड़नाओं से लबरेज़ ट्रेनिंग, चुनरी रस्‍म के बाद घर-घर वसूली के साथ समाज के जाने-माने प्रबुद्ध –ओहदेदार सम्‍मानीय लोगों की हैवानियत और वहशीपन का शिकार बनने मजबूर किये जाने की विडंबनाओं का लंबा दौर किस तरह उसके अंतस को तार-तार कर गया ।

पुस्‍तक में उल्‍लेख हैं कि भले ही सदियों पूर्व पुराणों में किन्नरों के उल्लेख मिलते हो, यद्यपि दशकों पूर्व सेना में इन्हें उच्चपद प्रदान किये जाते रहे हो, फिर भी चाहे अंजू हो या  उसपर निगरानी रखने वाली कोमल,,या फिर उसके सम्पर्क में आने वाली रविन्दर, रजिया या सुमन,,,और भी कितने ही असमंजस में जीते किन्नर,,,सभी अपने जीवन की इस भयावह आंधी के थपेड़ों से जूझते, कभी अपने तो कभी परिजनों के पेट की क्षुधा को शांत करने कितनी ही यंत्रणाएँ बिन प्रतिरोध के सहने को बाध्य है । कारण सिर्फ यहीं कि उन्‍हे सामान्‍य मानव की तरह जीने, पढ़ने और आत्‍मनिर्भर बनने का अधिकार नहीं ।

अंजु को सुनने के बाद अनायास ही लेखक तप शर्मा के दिमाग मे इस तिरस्कृत वर्ग को उनके हिस्से का अधिकार और सम्मान से जीने का  हक दिलाने एक NGO स्थापित करने का विचार कौंधा ।

स्वस्थ होने के बाद अंजू और उसकी साथी किन्नरों के साथ “हम भी मानव है” NGO की नींव रखी गयी,,जिसमे रास्तों पर भीख मांगने वाले किन्‍नरों सहित  उन किन्नरों की काउंसलिंग करना भी सुनिश्चित हुआ जो मेहनत कर पेट भरने और मान सम्‍मान से जीने की इच्‍छा रखते थे ।

हालांकि मुहिम के शुरू होते ही किन्‍नर अंजु की व्‍यक्तिगत पहल से कई किन्‍नर जुड़ते चले गये पर एक बड़े तबके के उत्थान की मंशा लेकर लेखक तप शर्मा द्वारा उठाया गया यह कदम इतना आसान भी न था क्‍योंकि इन सारी कवायदों के लिये पैसों की अत्‍यंत आवश्‍यकता थी।

सरकार से अनुदान पाने सरकारी दफ्तरो में फाइलों को आगे बढाने चपरासियों-बाबुओं की चिरौरी करना, किन्नर समुदायों की नाराज़गी जैसी कई अन्य समस्याओं से जूझते हुए अंततः किन्नरों को अपने हक  के लिए आमरण अनशन पर बैठना  पड़ा ।

किन्नरों के बढ़ते हौसलों को लगाम लगाने पुलिस बल द्वारा किये गये हमले के चलते कई किन्नरों के गम्भीर रूप से घायल हुए ।

पर अंतिम साँस तक हार न मानते हुए अपनी जान की बाजी लगा “वह”  की मुख्य पात्र “किन्नर अंजू” ने अपना  बलिदान देकर सरकार को “किन्नर समुदाय” के लिए मदद का हाथ बढाने के लिए बाध्‍य कर ही दिया ।

अंततः लेखक ‘’निसार’’ जी पुस्‍तक में लिखते है कि हक की इस लड़ाई में सबसे अग्रणी भूमिका निभाने वाली ‘’वह’’ यानि अंजु जंग में हुई जीत के आनंद और जश्न की साक्षी बनने के लिए शेष न थी ।

इस विशेष तबके के हक की ओर देश-समाज और सम्‍मानीय पाठक वर्ग का ध्‍यानाकर्षण करने हेतु  आदरणीय श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘’निसार’’ जी द्वारा पुस्‍तक ‘’वह’’ के माध्‍यम से की गई पहल काबिलेतारीफ हैं, आशा ही नहीं, विश्‍वास हैं कि जीवन जीने के समानाधिकार के भागीदार किन्‍नर समाज को भी उसके हिस्‍से का अधिकार प्रदान करने की मुहिम इस पुस्‍तक के माध्‍यम से गति प्राप्‍त करेगी । ’’निसार’’ जी का अनेक अभिनंदन ।

चर्चाकार…  सुश्री अंजली खेर

भारतीय जीवन बीमा निगम शाखा क्र-2, जी टी बी कॉम्‍पलेक्‍स पंजाब बूट हाउस के उपर, रंगमहल चौराहा न्‍यू मार्केट, भोपाल 462 003 म;प्र;

9425810540 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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