(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है सुश्री मनोरमा दीक्षित जी द्वारा लिखित यात्रा वृत्तांत “स्मृति के झरोखे से…” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 126 ☆
☆ “स्मृति के झरोखे से…” (यात्रा वृतांत) – सुश्री मनोरमा दीक्षित ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆
पर्यटन व यात्राओ को साहित्य की जननी कहा जाता है. पर्यटन के दौरान साहित्यकार का मन प्रकृति का सानिध्य पाकर स्वाभाविक रूप से उर्वर हो जाता है. नये नये अनुभव व दृश्य वैचारिक विस्फोट करते हैं. कुछ रचनाकार इस अवस्था में उपजे मनोविचारो को तुरंत बिंदु रूप में लिख लेते हैं व अवकाश मिलते ही उस पर रचना लिख डालते हैं. कुछ के मन में उपजे यात्रा जन्य विचार उमड़ते घुमड़ते हुये बड़े लम्बे अंतराल के बाद कविता, कहानी या लेख के रूप में आकार ले पाते हैं, तो अनेक बार मन में ही रचना का गर्भपात भी हो जाता है. यह सब कुछ लेखकीय संवेदनाये हैं. राहुल सास्कृत्यायन जी को घुमक्ड़ी साहित्य का बड़ा श्रेय है. इधर यात्रा साहित्य के क्षेत्र में कुछ नवाचारी प्रयोग भी किये गये हैं. लेखक समूह की किसी स्थान विशेष की यात्रायें आयोजित की गईं, फिर सभी से यात्रा वृत्तांत लिखवाया गया तथा उसे पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया है,मुझे ऐसी किताबें पढ़ने व उन पर चर्चा करने का सौभाग्य मिला है. मैंने पाया कि एक ही यात्रा के सहभागी लेखको की रचनाओ में उनके अनुभवो, वैचारिक स्तर के अनुसार व्यापक वैभिन्य था. अस्तु, इस सब के बाद भी हिन्दी का पर्यटन साहित्य बहुत समृद्ध नही है. ट्रेवेलाग की तरह की किताबों की बड़ी जरूरत है, जिससे पाठक के मन में पर्यटन स्थल के प्रति रुचि जागृत हो, उसे स्थल विशेष की अनुभूत जानकारियां मिल सकें तथा पर्यटन को बढ़ावा मिले. ऐसी पुस्तकें न केवल साहित्य को समृद्ध करती हैं, वरन पर्यटन को बढ़ावा देती हैं.
सुश्री मनोरमा दीक्षित
स्मृति के झरोखे से श्रीमती मनोरमा दीक्षित जी की ऐसी ही अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक के रूप में मेरे सम्मुख आई है. अपने जीवन काल में उन्होने जिन अनेक पर्यटन स्थलो की यात्रायें की हैं उनमें से कुछ जैसे बद्रीनाथ, केदारनाथ, नेपाल, गंगोत्री, यमुनोत्री, हैदराबाद, अमरकंटक, कुल्लू मनाली, घृष्णेश्वर, त्रयम्बकेश्वर, शिरडी, जगन्नाथपुरी, कोणार्क, द्वारिका, रामेश्वरम, तिरुपति बालाजी, सहित उनकी कार्यस्थली मण्डला से जुड़ी अनेक विभूतियों का सविस्तार वर्णन प्रस्तुत पुस्तकमें उन्होने किया है. संक्षिप्त में कहा जावे तो किताब में विषय वैविध्य है. वर्णित स्थलो का आंखों देखा हाल है. सामान्यतः आम आदमी जो यात्रायें करता है, उसके अनुभव उस तक या वाचिक परम्परा से उसके परिवार व मित्रो तक ही सीमित रह जाते हैं, किन्तु जब श्रीमती मनोरमा दीक्षित जैसी कोई विदुषी, साधन संपन्न लेखिका ऐसी यात्रायें करती है तो उनके अनुभवो का लाभ ऐसी पुस्तको के प्रत्येक पाठक को मिलता है. निश्चित ही यह श्रीमती दीक्षित का नवाचारी विचार है, हमारी हार्दिक शुभकामना लेखिका के साथ हैं, मुझे भरोसा है कि यह पुस्तक साहित्य जगत में एक नई दस्तक देगी तथा यात्रा साहित्य के समुचित पुरस्कार से स्मृति के झरोखे से को सम्मानित कर हिन्दी साहित्य जगत गौरवान्वित होगा.
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री कुमार सुरेश जी द्वारा लिखी कृति “व्यंग्य राग” पर चर्चा।
“मैं इन्हीं औरतों की कड़ी हूँ। मुझमें मोहब्बत और भय समुचित मात्रा में है। मैं आज़ाद होना चाहती हूँ, इस शरीर से, इस मन से, मैं सिर्फ़ मैं बनना चाहती हूँ, अपनी मर्जी की मालिक, अपने फ़ैसले लेने की अधिकारी, चाहे ग़लत हो सही, अपने तरीके से जीवन जीने की आज़ादी । किसी भी शील से परे। किसी में टैग के परे । मैं अच्छी औरत बुरी औरत नहीं बनना चाहती। मैं सिर्फ़ औरत रहना चाहती हूँ, जीवन शालीनता से जीना चाहती हूँ, दूसरों को दिलदारी और समझ देना चाहती हूँ और उतना ही उनसे लेना चाहती हूँ। मैं नहीं चाहती कि किसी से मुझे शिक्षा मिले, नौकरी मिले, बस में सीट मिले, क्यू में आगे जाने का विशेष अधिकार मिले। मैं देवी नहीं बनना चाहती, त्याग की मूर्ति नहीं बनना चाहती, अबला बेचारी नहीं रहना चाहती। मैं जैसा पोरस ने सिकन्दर को उसके प्रश्न “तुम मुझसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हो” के जवाब में कहा था, “वैसा ही जैसे एक राजा किसी दूसरे राजा के साथ रखता है, ” बस ठीक वैसा ही व्यवहार मेरी आकांक्षाओं में है, जैसे एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ रखता है जैसे एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ रखती है, जैसे एक इनसान किसी दूसरे इनसान के साथ पूरी मानवीयता में रखता है। मैं दिन-रात कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती। मैं दिन-रात अपने को साबित करते रहने की जद्दोजहद में नहीं गुजारना चाहती। मैं अपना जीवन सार्थक तरीक़े से अपने लिए बिताना चाहती हूँ, एक परिपूर्ण जीवन जहाँ परिवार के अलावा ख़ुद के अन्तरलोक में कोई ऐसी समझ और उससे उपजे सुख की नदी बहती हो, कि जब अन्त आए तो लगे कि समय जाया नहीं किया, कि ऊर्जा व्यर्थ नहीं की, कि जीवन जिया। मैं प्रगतिशील कहलाने के लिए पश्चिमी कपड़े पहनूँ, गाड़ी चलाऊँ, सिगरेट शराब पियूं देर रत आवारागर्दी करुं ऐसे स्टीरियो टाइप में नहीं फसंना चाहती।“
… पारा पारा से ही न्यूयार्क में भारतीय एम्बेसी में प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन और झिलमिल-अमेरिका द्वारा आयोजित कार्यक्रम में अनूप भार्गव जी के सौजन्य से पारा पारा की लेखिका प्रत्यक्षा जी से साक्षात्कार करने का सुअवसर मिला। नव प्रकाशित पारा पारा पर केंद्रित आयोजन था. पारा पारा पर तो बातचीत हुई ही ब्लॉगिंग के प्रारम्भिक दिनो से शुरू हो कर प्रत्यक्षा के कविता लेखन, चित्रकारी, कहानियों और उनके पिछले उपन्यासो पर भी चर्चा की।
समीक्षा के लिए प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन के सौजन्य से पारा पारा की प्रति प्राप्त हुई। मैनें पूरी किताब पढ़ने का मजा लिया। मजा इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि प्रत्यक्षा की भाषा में कविता है। उनके वाक्य विन्यास, गद्य व्याकरण की परिधि से मुक्त हैं। स्त्री विमर्श पर मैं लम्बे समय से लिख पढ़ रहा हूँ, पारा पारा में लेखिका ने शताब्दियों का नारी विमर्श, इतिहास, भूगोल, सामाजिक सन्दर्भ, वैज्ञानिकता, आधुनिकता, हस्त लिखित चिट्ठियो से ईमेल तक सब कुछ काव्य की तरह सीमित शब्दों में समेटने में सफलता पाई है। उनका अध्ययन, अनुभव, ज्ञान परिपक्व है। वे विदेश भ्रमण के संस्मरण, संस्कृत, संस्कृति, अंग्रेजी, साहित्य, कला सब कुछ मिला जुला अपनी ही स्टाइल में पन्ने दर पन्ने बुनती चलती हैं।
उपन्यास के कथानक तथा कथ्य मे पाठक वैचारिक स्तर पर कुछ इस तरह घूमता, डूबता उतरता रहता है, मानो हेलोवीन में घर के सामने सजाये गए मकड़ी के जाले में फंसी मकड़ी हो। उपन्यास का भाषाई प्रवाह, कविता की ठंडी हवा के थपेड़े देता पाठक के सारे बौद्धिक वैचारिक द्वन्द को पात्रों के साथ सोचने समझने को उलझाता भी है तो धूप का एक टुकड़ा नई वैचारिक रौशनी देता है, जिसमे स्त्री वस्तु नहीं बनना चाहती, वह आरक्षण की कृपा नहीं चाहती, वह सिर्फ स्त्री होना चाहती है । स्त्री विमर्श पर पारा पारा एक सशक्त उपन्यास बन पड़ा है। यह उपन्यास एक वैश्विक परिदृश्य उपस्थित करता है। इसमें १८७४ का वर्णन है तो आज के ईमेल वाले ज़माने का भी। स्त्री की निजता के सामान टेम्पून का वर्णन है तो रायबहादुर की लीलावती के जमाने और बालिका वधु नन्ना का भी। रचना में कथा, उपकथा, कथ्य,वर्णन, चरित्र, हीरो, हीरोइन, रचना विन्यास, आदि उपन्यास के सारे तत्व प्रखरता से मौजूद मिलते हैं। प्रयोगधर्मिता है, शैली में और अभिव्यक्ति में, लेखन की स्टाइल में भाषा और बुनावट में ।
मैंने उपन्यास पढ़ते हुए कुछ अंश अपने पाठको के लिए अंडरलाइन किये हैं जिन्हें यथावत नीचे उदृत कर रहा हूँ।
“….. और इस तरह वो माँ पहले बनीं, बीवी बनने की बारी तो बहुत बाद में आई । विवाह के तुरंत बाद किसी ज़रूरी मुहिम पर राय बहादुर निकल गए थे। किसी बड़ी ने बताया था किस तरह रोता बालक बहू की गोद में चुपा गया था। इस बात की आश्वस्ति पर तसल्ली कर वो निकल पड़े थे। घर में मालकिन है इस बात की तसल्ली।”
“…… एक बार उसने मुझे कहा था-
“To take a photograph is to align the head, the eye and the heart. It’s a way of life.” वो सपने में हमेशा मुस्कुराते दिखते हैं। तस्वीरों में नहीं।
अच्छी तस्वीर लेना उम्दा ज़िन्दगी जीने जैसा है दिल-दिमाग़ और आँख सब एक सुर में…वो सपने में ऐसे ही दिखते हैं। हँसते हुए भी नहीं, उदास भी नहीं और थोड़ा गहरे सोचने पर, शायद मुस्कुराते हुए भी नहीं । “
इन पैराग्राफ्स मे आप देख सकते हैं कि प्रत्यक्षा के वाक्य गद्य कविता हैं। उनकी अभिव्यक्ति में नाटकीयता है , लेखन हिंदी अंग्रेजी सम्मिश्रित है।
इसी तरह ये अंश पढ़िए। …
“ मैं निपट अकेली अपने भारी-भरकम बड़े सूटकेस और डफल बैग के साथ सुनसान स्टेशन पर अकेली रह गई थी, हिचकिचाहट दुविधा और घबड़ाहट में।
लम्बी फ़्लाइट ने मुझे थका डाला था और रात के ग्यारह बज रहे थे। सामान मेरे पैरों के सामने पड़ा था और मुझे आगे क्या करना है की कोई ख़बर न थी। मैं जैसे गुम गई थी। अनजान जगह, अनजान भाषा किस शिद्दत से अपने घर होना चाहती थी अपने कमरे में। एक पल को मैंने आँखें मूँद ली थीं। अफ्रीकी मूल के दो लड़के मिनियेचर एफिल टावर बेच रहे थे, की-रिंग और बॉटल ओपनर और तमाम ऐसी अल्लम-गल्लम चीजें जो टूरिस्ट न चाहते हुए भी यादगारी के लिए ख़रीद लेते हैं। अचानक मुझे किसी दोस्त की चेतावनी याद आई, ऐसे और वैसे लोगों से दूर रहना, ठग ली जाओगी। या रास्ते की जानकारियाँ सिर्फ़ बूढ़ी औरतों से पूछना और अपने वॉलेट और पासपोर्ट को पाउच में कपड़ों में छुपाकर चलना । मैं यहाँ अनाथ थी। कोई अपना न था, मेरे सर पर कोई छत न थी। “
भले ही प्रत्यक्षा ने पारा पारा को हीरा, तारा, लीलावती, कुसुमलता, भुवन, जितेन, निर्मल, तारिक, नैन, अनुसूया वगैरह कई कई पात्रों के माध्यम से बुना है, और हीरा उपनयास की मुख्य पात्र हैं। पर जितना मैंने प्रत्यक्षा को थोड़ा बहुत समझा है मुझे लगता है कि यह उनकी स्वयं की कहानी भले ही न हो पर पात्रों की अभिव्यक्ति मे वे खुद पूरी तरह अधिरोपित हैं। उनके व्यक्तिगत अनुभव् ही उपन्यास के पात्रों के माध्यम से सफलता पूर्वक सार्वजनिक हुए हैं। लेखिका के विचारों का, उनके अंतरमन का ऐसा साहित्यिक लोकव्यापीकरण ही रचनाकार की सफलता है.
उपन्यास के चैप्टर्स पात्रों के अनुभव विशेष पर हैं। मसलन “दुनिया टेढ़ी खड़ी और मैं बस उसे सीधा करना चाहती थी। .. हीरा “ या “ नील रतन नीलांजना.. नैन“. स्वाभाविक है कि उपन्यास कई सिटिग में रचा गया होगा, जो गहराई से पढ़ने पर समझ आता है।
पुराने समय मे ग्रामीण परिवेश में खटमल, बिच्छू, जोंक, वगैरह प्राणी उसी तरह घरों में मिल जाते थे जैसे आज मच्छर या मख्खी, एक प्रसंग में वे लिखती हैं “तुम्हारे पापा का नसीब अच्छा था, बिच्छू पाजामें से फिसलता जमीं पर आ गिरा “ यह उदृत करने का आशय मात्र इतना है की प्रत्यक्षा का आब्जर्वेशन और उसे उपन्यास के हिस्से के रूप मे पुनर्प्रस्तुत करने का उनका सामर्थ्य परिपक्वता से मुखरित हुआ है। १९९२ के बावरी विध्वंस पर लिखते हुये एक ऐतिहासिक चूक लेखिका से हुई है वे लिखती हैं कि हजारों लोग इस हिंसा की बलि चढ़ गए जबकि यह आन रिकार्ड है की बावरी विध्वंस के दौरान १७ लोग मारे गए थे, हजारों तो कतई नहीं।
मैं उपन्यास का कथा सार बिलकुल उजागर नहीं करूंगा, बल्कि मैं चाहूंगा कि आप पारा पारा खरीदें और स्वयं पढ़ें। मुझे भरोसा है एक बार मन लगा तो आप समूचा उपन्यास पढ़कर ही दम लेंगे, प्रेम त्रिकोण में नारी मन की मुखरता से नए वैचारिक सूत्र खोजिये। नारी विमर्श पर बेहतरीन किताब बड़े दिनों में आई है और इसे आपको पढ़ना चाहिए।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री राजा सिंहजी द्वारा लिखी कृति ““बिना मतलब” का मतलब”पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 124 ☆
☆ ““बिना मतलब” का मतलब” – श्री राजा सिंह ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆
आदमी को पढ़ कर कहानी गढ़ने वाले राजा सिंह के कहानी संग्रह “बिना मतलब” का मतलब
रचना के बिम्ब, लेखक, प्रकाशक, किताब, समीक्षक और पाठक का अटूट साहित्यिक संबंध होता है. मतलबी दुनिया की भागम भाग के बीच भी यह संबंध किंचित बेमतलब बना हुआ है, यह संतोष का विषय है. भीड़ के हर शख्स का जीवन एक उपन्यास होता है, और आदमी की जिजिविषा से परिपूर्ण दैनंदिनी घटनायें बिखरी हुई बेहिसाब कहानियां होती हैं. जब कोई कहानीकार आम आदमी के इस संघर्ष को पास से देख लेता है तो वह उसमें रचना के बिम्ब ढ़ूंढ़ निकालता है. इस तरह बुनी जाती है कहानी. वास्तविक किरदार अनभिज्ञ रह जाता है पर उसकी जिंदगी का वह हिस्सा, जिसे पढ़कर लेखक ने अपने कौशल के अनुरूप कहानी गढ़ी होती है, जब प्रकाशित होती है तो वह पाठको का मर्म स्पर्श कर उन्हें चिंतन, मनोरंजन, और आंसू देती है. पत्रिका का जीवन एक सीमित अवधि का होता है, पर किताबें दीर्घ जीवी होती हैं. इसलिये किताब की शक्ल में छपी कहानियां उस किरदार और घटना को नव जीवन देती हैं. आम आदमी को पढ़ कर कहानी गढ़ने वाले राजा सिंह के कहानी संग्रह “बिना मतलब” का मतलब समझने का प्रयास मैने किया. दो सौ पन्नो में फैली हुई कुल जमा तेरह कहानियां हैं. कुछ तो ऐसी हैं जिनको स्वतंत्र उपन्यास की शक्ल में पुनर्प्रस्तुत किया जा सकता है. छल ऐसी ही कहानी है, जो पात्र शालिनी के नाम से उपन्यास के रूप में विस्तारित की जा सकती है. मजे की बात है कि पाठको को उनके आस पास कोई न कोई शालिनी जरूर दिख जायेगी. क्योंकि शालिनी को एक वृत्ति के रूप में प्रस्तुत करने में राजा सिंह ने सफलता पाई है. फेसबुक की आभासी दुनिया के इस समय में कई शालिनी हमारे इनबाक्स में घुसी चली आ रही मिलती हैं.
प्रबंधन, नियति, बिना मतलब कुछ लम्बी कहानियां है. रिश्तों की कैद, सफेद परी पठनीय हैं. दरअसल प्रत्येक कहानीकार की बुनावट का अपना तरीका होता है. राजा सिंह बड़ी बारीक घटनाओ का सविस्तार वर्णन करने की शैली अपनाते हैं, इसलिये वे लम्बी कहानियां लिखते है. उसी कथानक को छोटे में भी समेटा जा सकता है. पत्र पत्रिकाओ में मैं राजा सिंह की कहानियां पढ़ता रहा हूं. किताब में पहली बार पढ़ा जब उन्होंने समीक्षार्थ “बिना मतलब” भेजी. वे देशज मिट्टी से जुड़े रचनाकार हैं. कहानियों के साथ कविताई भी करते हैं. उनके दो कथा संग्रह अवशेष प्रणय और पचास के पार शीर्षकों से पहले आ चुके हैं. हंस, परिकथा, पुष्पगंधा, अभिनव इमरोज, साहित्य भारती, रूपाम्बरा, वाक्, कथा बिम्ब, लमही, मधुमती, बया, आजकल आदि पत्रिकाओ के अंको में उनकी ये कहानियां जो इस संग्रह में हैं पूर्व प्रकाशित हैं.
बिना मतलब एक एकाकी बुजुर्ग साहित्यकार के इर्द गिर्द बुनी कहानी है जो बिन बोले मनोविज्ञान के पाठ पढ़ाती बहुत कुछ कहती है और जिंदगी का मतलब समझाती है. “कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बार में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो”. इस परिभाषा पर “बिना मतलब” की कहानियां निखालिस खरी हैं.
मैं अकादमिक बुक्स इंडिया, दिल्ली से प्रकाशित इस किताब को थोड़ा फुरसत से पढ़ने की अनुशंसा करता हूं. मेरी मंगलकामना है कि राजा सिंह निरंतर लिखें, हिन्दी पाठको को उनकी ढ़ेरो और नई नई कहानियां पढ़ने मिलती रहें.
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “जो कुछ याद रहा (आत्मकथात्मक संस्मरण)” – शराफत अली खान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
शराफत अली खान की ‘जो कुछ याद रहा’ – कुछ यादें , कुछ इतिहास , कुछ साहित्य… – कमलेश भारतीय
शराफत अली खान और हमारा रिश्ता ऐसे दोस्त का है जो कभी मिले तो नहीं लेकिन बराबर जुड़े रहे हैं और जुड़े चले आ रहे हैं । एक रिश्ता कहानी लेखन महाविद्यालय भी है । मैं और शराफत इस महाविद्यालय से भी बहुत शुरू से जुड़े हुए हैं । हालांकि इसके भी किसी लेखन शिविर में हम इकट्ठे न हो पाये । फिर भी जब इनकी किताब आई तो बहुत प्यार से मुझे भेजी और पता नहीं किस्सागोई में कितनी महारत हासिल कर ली है शराफत ने कि एकदम से मिलते ही लगभग सौ पृष्ठ में सिमटी इस किताब को पढ़ता चला गया और पूरी पढ़कर ही दम लिया ।
इसमें अपने जीवन संघर्ष , साहित्य के क, ख, ग से लेकर एक प्रतिष्ठित लेखक बनने की गाथा बयान की है । जो जो , जब जब जिस मोड़ पर जीवन में मिला, उसकी याद समेटने की कोशिश से और उससे मिले सबक भी उजागर किये हैं । आधारशिला के दिवाकर भट्ट के साथ पत्रिका शुरू करवाने वाले और फिर दिवाकर द्वारा भुला दिये जाने का दर्द उभरकर सामने आया है । जिसके संपादन में शुरूआत की, उसे ही दिवाकर ने भुला दिया ! कभी नासिरा शर्मा तो कभी असगर वजाहत को याद किया । असगर वजाहत की किताब का तो एक छोटा सा अंश भी प्रकाशित किया है ।
चूंकि वन विभाग में रहे शराफत तो शराफत से उस विभाग की बहुत सारी बातें भी आ गयी हैं । पूरा जनपद घुमा दिया है शराफत ने ! कुछ छोटी छोटी शिकायतें और अधिकारियों की मेहरबानियों की सजा !
अपनी छोटी छोटी मोहब्बतें जाहिर की हैं । सहयोगियों की छोटी छोटी चालाकियां बयान की हैं । पंजाब के लोगों में मुझे,रेणुका नैयर और गीता डोगरा को याद किया है ।
बदायूं के पुराने इतिहास को खंगाला है तो मुल्ला बदायूंनी के बारे में रोचक जानकारी दी है । अभी यह किताब और यादें बाकी हैं । जल्दी में एक प्रकार से पहला भाग दे दिया गया है लेकिन यह भाग यह बताता है कि कैसे कोई लेखक संघर्ष करके कदम अगर कदम आगे बढ़ता है और साहित्य के नक्शे में कैसे और कितना निशान छोड़ने में सफल हो पाता है ।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “पुत्तल का पुष्प वटुक” – सुश्री मीना अरोड़ा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
पुत्तल का पुष्प वटुक (हास्य व्यंग्य उपन्यास)
सुश्री मीना अरोड़ा
शब्दाहुति प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ १४४ मूल्य ३९५ रु
मीना अरोड़ा का उपन्यास ‘पुत्तल का पुष्पवटुक ‘
इसी वर्ष मई माह में दिनेशपुर के लघुपत्रिका सम्मेलन में जाने का अवसर मिला तो हल्द्वानी से रचनाकार मीना अरोड़ा से भी आभासी दुनिया से निकल कर इसी दुनिया में मुलाकात हुई । ऐसी कि वे हमें दिनेशपुर से हल्द्वानी अपने घर मेहमान बना कर ही मानीं । प्यारा सा परिवार । आधी रात तक वे और उनके पतिदेव के साथ खूब सुनते सुनाते बीती । दूसरे दिन उन्होंने चलते समय मुझे अपना उपन्यास ‘पुत्तल का पुषेपवटुक’ दिया तो मैने भी अपना नया कथा संग्रह ‘नयी प्रेम कहानी’ सौंपा ।
अब मई से सितम्बर आ गया तो लगा कि एक बार उपन्यास की राह से गुजर कर देखा जाये । उपन्यास गांव के प्रधान वीरेंद्र के दूसरे बेटे पप्पू के जन्म लेने , उसे अवतार सिद्ध करने और छोटे भाई की लड़कियों संजू व रंजू से लिंगभेद करने , संत देवमूनि और डाकू तेजा के विधायक बनने जैसे अनेक प्रसंगों से चलते चलते न केवल ग्रामीण बल्कि देश की राजनीति ही नहीं धर्म के भी असली चेहरे उजागर करता आगे बढ़ता जाता है । चूंकि लेखिका ने इसके मुखपृष्ठ पर ही हास्य व्यंग्य उपन्यास का ठप्पा लगाया है तो स्वाभाविक है कि हास्य भी है और व्यंग्य की धार भी लेकिन मैं इसे शुद्ध उपन्यास ही कहना चाहूंगा । चोर चोर मौसेरे भाइयों की तरह डाकू तेजपाल और संत देवमुनि एक ही टीले के ऊपर रहते हैं । न डाकू संत के काम में दखल देते हैं और न संत डाकू के काम में । यही हमारे देश की राजनीति की डील है ।
पप्पू को वीरेंद्र व दादी रेवती अवतार साबित करने में जुटे रहते हैं लेकिन निराशा ही हाथ लगती है । वीरेन्द्र का छोटा भाई नितिन पहले आदर्शवादी और बाद में तेजपाल विधायक का निजी सचिव बनने पर समझौतावादी हो जाता है । उसकी पत्नी कंचन नितिन के बदलाव से खुश नहीं । अनेक प्रसंग हैं जब पप्पू अच्छा करने जाता है और हास्यास्पद स्थितियां बनती जाती हैं । अंत में मालती के साथ दुर्व्यवहार, करने वाले वकलू को खोजकर लाता है और मालती के परिवार को सारे गांव को भोज देने के संकट से उभार लेता है । वीरेंद्र को एक बार फिर लगता है कि पप्पू के लिए आश्रम बनवाया जा सकता है । हालांकि संजू और,रंजू ने ही पप्पू को ऐसा करने का आइडिया दिया था ! ये बेटियों लिगभेद के खिलाफ अपनी मां कंचन से मिलकर इस तरिके से आवाज उठाती हैं ।
भाषा बहुत ही चुटीली है और सचमुच व्यंग्यात्मक भी । कैसे सरकारी योजनाएं गायब हो जाती हैं । कुछ दिन बाद ही पुत्तुल गांव से सड़क, पुल , स्कूल के गायब हो जाने पर कमेटी बिठाई गयी ! दोष निर्दोष दोषियों के सिर धरा गया !
बलात्कार के दोषी वकलू को पप्पू खोजकर लाता है और पीट पीट कर कहता है -मांस , इस नीच का कटेगा और पकेगा भी ! कोई हीरा चाचा , कमला चाची और मालती को गांव से बाहर जाने को नहीं कहेगा ! यह है क्रांतिकारी पप्पू जो अंत में जाकर पिता वीरेंद्र की अवतार बनाने की आस जिंदा कर देता है !
इसी तरह यह पंचायत के बारे में कहना कि नियम , कायदे कानून , गरीब , छोटे और कमज़ोर वर्ग के लिए ही होते हैं ! ताकतवर और ऊंचे लोग कभी न्याय और कानून के मोहताज नहीं होते ! नितिन अब पहले जैसा नहीं रह गया था । वह तेजपाल का सचिव और वीरेंद्र का आज्ञाकारी भाई बन गया था !
गांव बदला, गांव वाले भी कुछ बदले पर गांव में कुछ नहीं बदला तो वह था वीरेंद्र की हुकूमत, पप्पू की अक्ल और कुछ परिवारों की गरीबी !
यही राजनीति है और यही हमारा देश ! जहां डाकू विधायक बन जाता है और हत्यारा देवमुनि ! यही डील चलती आ रही है कि कोई एक दूसरे के काम में टांग नहीं
अड़ायेगा! इसे कौन तोड़ेगा? इस दुष्चक्र से कौन निकालेगा ? इसलिए मैंने कहा कि यह सारा हास्य व्यंग्य उपन्यास नहीं कहा जा सकता । पूरा उपन्यास है जो विचार करने के लिए बहुत कुछ देता है पाठक को !
बहुत बहुत बधाई मीना अरोड़ा! लिखती रहो और हम पढ़ते रहें ! पाठक मंच की ओर से भी बधाई । इस सार्थक उपन्यास के लिए ।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री कुमार सुरेश जी द्वारा लिखी कृति “व्यंग्य राग” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 123 ☆
☆ “व्यंग्य राग” – श्री कुमार सुरेश ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆
कृति : व्यंग्य राग
लेखक : कुमार सुरेश
प्रकाशक: सरोकार प्रकाशन, भोपाल (मप्र),
मूल्य: 200 रुपये, संस्करण वर्ष २०२०
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
कुमार सुरेश की पुस्तकें “व्यंग्य राग” व्यंग्य संकलन, व्यंग्य उपन्यास तंत्र कथा, शब्द तुम कहो, एवं भाषा सांस लेती है प्रकाशित हो चुकी हैं. स्पष्ट है कि वे बहुविध रचनाकार हैं. कविता की तरह नपे तुले शब्दों में गहरी अभिव्यक्ति इस संग्रह के छोटे छोटे व्यंग्य लेखों में पढ़ने मिली. जरा धीरे धीरे उड़ो मेरे साजना शीर्षक के साथ वे स्वप्न लोक में उड़ जाते हैं, लोग चिल्लाते हुये उनका पीछा करते हैं ” तेरी हिम्मत कैसे हुई उड़ने की, हम जमीन पर खड़े हैं और तू उड़ने लगा “, नींद खुलती है तो पत्नी सुनाती है ” क्या उड़ना उड़ना बक रहे थे, उड़ने की कोशिश भी मत करना ” मैंने उनका यह व्यंग्य उनके मुंह से सुना हुआ है. ” मुझे पता लगा कि ऊचाई के साथ दूसरों को नुकसान पहुंचाने की ताकत भी होनी चाहिये तभी लोग सफलता को स्वीकार करते हैं ” जैसे गहरे कटाक्षों से लबरेज व्यंग्य में उन्होंने अच्छे तरीके से भाषाई ट्रीटमेंट के साथ कथ्य को निभाते हुये अपनी बात रखी है.
नदी किनारे क्षण भर मुर्गा में वे भाषा चातुर्य के साथ बैंक के लोन वसूली अभियान की बात करते हैं, किसान को नया लोन देकर, क्षण भर के लिये बैंक की कागजों पर पुराने लोन की वसूली बता, किसान को क्षण भर कर्ज मुक्त बता दिया गया, नदी के किनारे को भी अंग्रेजी में बैंक कहते हैं, नदी किनारे किसान मुर्गा बन गया, किसान की पीड़ा में अपना उल्लू सीधा करते वसूली कर्मचारियों पर बुनी गई हास्य व्यंग्य कथा है.
इसी शैली में सोशल मीडीया श्रमिक, पीछा छुड़ा लो जी इस नाक से, उड़ जायेगा हंस अकेला, छेड़ना हो तो सुर छेड़िये, एक इंडियन की भारतीयों से अपील, गठबंधन, ठग बंधन और लठ बंधन, ब्यूटी पार्लर और साहित्य, इनका उनका राजनैतिक कैरियर, नेता नीति नेति नेति, घोड़े कहाँ बिकते हैं भैया आदि छोटे छोटे राजनैतिक, सामाजिक विषयों पर व्यंग्य लेख पुस्तक में संकलित हैं. ये लेख वर्ष १९८७ से २०२० की लम्बी अवधि में विभिन्न समाचार पत्रों यथा नईदुनिया, राज एक्सप्रेस, विजय दर्पण टाईम्स, आदि में प्रकाशित हुये हैं, जिसका उल्लेख फुट नोट में किया गया है.वर्तमान में व्यंग्य, पाठक, संपादक, लेखक सभी की प्रिय विधा है. व्यंग्य को यह स्वरूप देने में श्रीलाल शुक्ल, परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी, नरेंद्र कोहली, शंकर पुणतांबेकर, सुशील सिद्धार्थ, की राह पर बढ़ते प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, ज्ञान चतुर्वेदी, गिरीश पंकज, सुभाष चन्दर, सुरेश कांत जैसे अनेकानेक व्यंग्यकारों का सतत लेखन है. कुमार सुरेश भी इसी राह के अनथक यात्री हैं. वे व्यंग्य उपन्यास से व्यंग्य कविता तक के विस्तृत विधा आयाम के व्यंग्यकार हैं. एक एक्टिविस्ट से बातचीत प्रश्न उत्तर शैली में रचा गया व्यंग्य है. साहित्य पुरस्कार योजना में हास्य कटाक्ष से भरी बिन्दु रूप नियमावली में व्यंग्य अभिव्यक्ति है. यथा नियमावली में एक नियम है कि पुरस्कार लेन देन योजना के अंतर्गत उस रचनाकार को प्रदाय किया जायेगा जो खुद किसी पुरस्कार का कर्ता धर्ता होगा, उसे अलिखित समझौता करना होगा कि “वह मेरी किताब को पुरस्कृत करेगा और मैं उसकी “. साहित्यकारों का नार्को टेस्ट, एक आभार पत्र जैसे व्यंग्य लेखो में थोड़ा डिफरेंट तरीके से मस्ती में वे व्यंग्य रस प्रवाहित करते मिले.
ओम वर्मा ने किताब की भूमिका लिखी है, उन्होंने संग्रह के व्यंग्य लेखों में सार्थकता और जीवंतता महसूस की है. पुस्तक त्रुटि रहित मुद्रण के संग, स्तरीय प्रस्तुति है. कुमार सुरेश से पाठको को बहुत कुछ निरंतर मिल रहा है, बस उन्हें सोशल मीडीया पर फालो कीजीये अखबार, पत्र पत्रिकाओ में उन्हें पढ़ते रहिये.
☆ “धापू पनाला” – श्री कैलाश मण्डलेकर ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री कैलाश मण्डलेकर जी द्वारा लिखी कृति “धापू पनाला” पर चर्चा ।
☆ पुस्तक चर्चा – “धापू पनाला” – श्री कैलाश मण्डलेकर – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
कृति : धापू पनाला,
लेखक : कैलाश मण्डलेकर,
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, सीहोर(मप्र),
मूल्य: 200 रुपये
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
शिवना प्रकाशन सीहोर, छोटे शहर से बड़ा साहित्यिक काम करता संस्थान है. जो अंतर्राष्ट्रीय स्तार पर पुस्तक एवं पत्रिका प्रकाशन के साथ ही साहित्यिक गोष्ठियों तथा सम्मान के बहुमुखी आयोजन कर अपनी पहचान दर्ज कराता रहा है. यह सब शिवना के संचालक साहित्यकार तथा विचारक पंकज सुबीर की व्यैक्तिक अभिरुचियों तथा प्रयासों का सुपरिणाम है.
हाल ही शिवना ने सुप्रसिद्ध, साहित्यिक सम्मानो से देश भर में पुरस्कृत खंडवा के प्रसिद्ध व्यंग्य कर्मी श्री कैलाश मंडलेकर के हास्य व्यंग्य संग्रह धापू पनाला,का प्रकाशन कर अपनी पुस्तक सूची में मनोरंजक विविधता जोड़ी है. खुली सड़क पर, सर्किट हाउस पर लटका चांद, एक अधूरी प्रेम कहानी का दुखांत, लेकिन जाँच जारी है, बाबाओ के देश में जैसी व्यंग्य पुस्तको से कैलाश जी बेहद शांत, शालीन तरीके से व्यंग्य जगत में अपनी लम्बी पैठ बनाते चले आ रहे हैं. खण्डवा की धरती से जुड़े अनेक साहित्यकार हिन्दी के राष्ट्रीय क्षितिज पर परचम लहराते दिखते हैं, ललित निबंध में डा श्रीराम परिहार, कहानी में स्व.जगन्नाथप्रसाद चौबे ‘वनमाली’, और भी अनेको नामो की उत्कृष्ट परंपरा में कैलाश जी का नाम सुस्थापित हो चुका है.
व्यंग्य की मारक क्षमता के साथ हास्य की मार करना एक बड़ी कला है और इस कला के दर्शन करने हों तो यह किताब जरूर पढ़िये. मजेदार लेखों का संग्रह है. कालोनी के दंत चिुकित्सक, बिगड़ा हुआ कूलर और एक अदद ठेलेवाले की तलाश, एक ठहरी हुई बारात, धापू पनाला में वसंत की अगवानी, रेन कोट पहनकर नहाने के निहितार्थ, पकौड़ा पालिटिक्स, एंटी रोमियो स्क्वाड और आशिक का गिरेबान,उत्सव के पंडालों में चंदा उगाही की रोशनी, … जैसी कुल जमा बयालीस रचनायें अपने लम्बे शीर्षको में ही पाठको को आकर्षित करने के लिये काफी कुछ हिंट देती हैं. चर्चित फिल्मी गीतों के मुखड़ों को को भी कैलाश जी व्यंग्य के रूपकों के रूप में ले उड़े हैं. सुन दर्द भरे मेरे नाले, जिस गली में तेरा घर न हो बालमा, सिलि सिलि बिरहा की रात, ऐसी ही हास्य रंजक रचनायें हैं.अपने व्यंग्य लेखो के बीच बीच वे कविताओ, चौपाईयों, मुहावरों, लोकोक्तियो के प्रयोग से पाठको को बांधे रखते हैं. उनका संस्कृत अध्ययन परिपक्व है, वे मेघदूत से प्रासंगिक कथा भी अपने व्यंग्य में कोट करते दिखते हैं.
कुछ उदाहरण उधृत करना प्रासंगिक होगा जिससे मेरे पाठक समीक्षा पढ़कर किताब मंगवाने के लिये प्रेरित होंगे…
” दांत की बीमारियों के विशेषज्ञ बढ़ते जा रहे हैं… आगे चलकर हर दांत का अलग विशेषज्ञ होगा…..”
” कई बार कूलर इस दौर के नेताओ की तरह धोखाधड़ी करते नजर आते हैं…”
“खेती को लाभ का धंधा बनाने के लिये जरूरी नही कि खेरती ही की जाये, खेत को प्लाट काटकर कालोनी भी बनाई जा सकती है “
” लड़के लोग रात के बारह बजे तक प्रेम करने के इरादे से सड़क पर आवारा भटका करते थे “
डा ज्ञान चतुर्वेदी ने किताब की भूमिका लिखी है, उन्होंने संग्रह के व्यंग्य लेखों में ग्रामीण परिवेश और भाषा की जीवंतता महसूस की है. पुस्तक का मुद्रण त्रुटि रहित, प्रस्तुति स्तरीय है. कैलाश जी से पाठको को बहुत कुछ निरंतर मिल रहा है, बस अखबार, पत्र पत्रिकायें पढ़ते रहिये और उन्हें सोशल मीडीया पर फालो कीजीये.
☆ “व्यंग्य यात्रा त्रैमासिकी” – संपादक… प्रेम जनमेजय ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री प्रेम जनमेजय जी द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका “व्यंग्य यात्रा ” पर चर्चा ।
☆ चर्चा पत्रिका की – “व्यंग्य यात्रा ” संपादक – श्री प्रेम जनमेजय – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
२० रु में १५० पृष्ठो की स्थाई महत्व की विषय विशेष पर सार गर्भित सामग्री, शार्ट में पत्रिका के रूप में किताब ही है व्यंग्य यात्रा त्रैमासिकी. यदि पत्रिका में प्रकाशित महत्वपूर्ण सामग्री में से प्रेम जनमेजय जी के बरसों के संबंध, उनकी निरंतर व्यंग्य साधना हटा ली जाये तो किसी खास मुद्दे पर समर्थ रचनाकारो की इतनी सशक्त रचनायें तक, पत्रिका के अंतराल के तीन महीनों के सीमित टाइम फ्रेम में एकत्रित नहीं की जा सकतीं. व्यंग्ययात्रा तो इस सीमित समय में छप भी जाती है और सुधी पाठको तक पहुंच भी जाती है. इसलिये १८ बरसों से निरंतरता बनाये हुये ऐसी गुरुतर पत्रिका की चर्चा करना आवश्यक है. मुझे तो लगता है कि व्यंग्य यात्रा त्रैमासिकी के हर अंक का समारोह पूर्वक विमोचन होना चाहिये, पर नहीं जो शांत काम करते हैं वे ढ़ोल तमाशे से दूर दूर ही रहते हैं.
यह अंक व्यंग्य उपन्यासों पर विशिष्ट सामग्री संजोये हुये है, तय है कि जब कोई शोधार्थी भविष्य में व्यंग्य उपन्यासो पर कोई गम्भीर काम करेगा तो इस अंक का उल्लेख किये बिना उसका लक्ष्य पूरा नही हो सकेगा.
इस अंक में मारीशस में हिन्दी व्यंग्य पर सामग्री है, पाथेय के अंतर्गत पुनर्पठनीय रांगेय राघव, बेढ़ब बनारसी, मनोहर श्याम जोशी, नरेंद्र कोहली, रवीन्द्र नाथ त्यागी, नागार्जुन, परसाई, श्रीलाल शुक्ल उपस्थित हैं. त्रिकोणीय में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर अरविंद तिवारी के उपन्यास ‘लिफाफे में कविता’ पर गोपाल चतुर्वेदी, प्रेन जनमेजय, अनूप शुक्ल, एवं नीरज दइया को पढ़ा जा सकता है. समकालीन व्यंग्यकारों की गद्य और पद्य व्यंग्य की रचनायें पठनीय हैं. प्रकाशन हेतु पारखी चयन दृष्टि के चलते ही व्यंग्य यात्रा में छपना प्रत्येक व्यंग्यकार के लिये प्रतिष्ठा कारक होता है. अनंत श्रीमाली जो हमें अनायास छोड़ गये हैं उन्हें श्रद्धा सुमन स्वरूप उनकी रचना ‘लीकेज की अलौकिक लीला’, बीना शर्मा, प्रियदर्शी खैरा, राजशेखर चौबे, मुकेश राठौर, प्रभात गोस्वामी सहित निरंतर व्यंग्य सृजन में लगे अनेक नामचीन लेखको को इस अंक में पढ़ सकते हैं. पद्य व्यंग्य में दीपक गोस्वामी, डा संजीव कुमार, वरुण प्रभात, सुमित दहिया, नरेंद्र दीपक शामिल नामों में हैं. जिन व्यंग्य उपन्यासों में चर्चा लेख प्रकाशित हैं उनमें नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘अल्फा बीटा गामा’ पर प्रेम जनमेजय, यशवंत व्तयास के ‘चिंताघर’, ‘आदमी स्वर्ग में..’ विषणु नागर, ‘उच्च शिक्षा का अंडरवर्ल्ड,’ ‘इंफो काप का करिश्मा’, हरीश नवल के बहुचर्चित उपन्यास ‘बोगी नंबर २००३’, सुभाष चंदर के ‘अक्कड़ बक्कड़’, गंगा राम राजी के ‘गुरु घंटाल’, अर्चना चतुर्वेदी के ‘गली तमाशे वाली’, मीना अरोड़ा के ‘पुत्तल का पुष्प वटुक’, अजय अनुरागी के ‘जयपुर तमाशा’ पर गंभीर आलेख पठनीय तथा संदर्भ लेने योग्य हैं. इन नये उपन्यासों के टाइटिल देखें तो हम व्यंग्य के बदलते लक्ष्य, नये युग के सायबर कारपोरेट जगत के प्रभाव की प्रतिछाया देख सकते हैं. संपादकीय में प्रेम जी ने अंक के कलेवर की व्याख्या और विवेचना गंभीरता से की है. बिना पूरा पढ़े अभी बस इतना ही.
☆ पुस्तक चर्चा ☆ सुरमयी लता – भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की सुर साधिका – श्री सुरेश पटवा ☆ डॉ.वन्दना मिश्रा☆
(संयोगवश श्री सुरेश पटवाजी की पुस्तक“सुरमयी लता” की समीक्षा श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ द्वारा भी प्राप्त हुई थी जिसे निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ा जा सकता है। )
सुरमयी लता चरित्र प्रधान कृति अत्यंत मार्मिक और प्रेरक है। इस कृति में लता जी के जीवन के सुरमय गेय पक्ष के वर्णित प्रसंग बहुत प्रभावित करते हैं। लता जी द्वारा गाई गयी लोरियाँ सुनकर बढ़ती हुई पीढ़ी किशोरावस्था में उन्हीं के मधुर कंठ से प्रणय गीतों का आस्वादन कर बड़ी हुई है। उनका भारतीय पारिवारिक मूल्यों, संयमित जीवन शैली का आचरण करोड़ों लोगों की प्रेरणा बना। श्री पटवा भी लता जी के मधुर गायन से आरंभ से अभी तक प्रभावित हैं इसी प्रभाव की परिणति सच्ची श्रद्धांजलि यह कृति सुरमयी लता है। गद्य -पद्य दोनों में अभिव्यक्ति का माध्यम बन सुरेश पटवा अपनी वाग़मयी प्रज्ञा का परिचय भी देते हैं।
(गम्भीर संयत साहित्यकार डॉक्टर वंदना मिश्रा जी ने मेरी पुस्तक की समीक्षा लिखी है। उनको साधुवाद सहित आज आपके समक्ष प्रस्तुत है। – श्री सुरेश पटवा)
सुरमयी लता शीर्षक से अभिव्यक्त यह कृति लता जी के जीवन संघर्ष की गाथा के साथ उनकी मधुर यादें,स्मरणीय तथ्य,विवाद ,रोचक किस्से और उनके प्रसिद्ध गीतों को आत्मीयता के साथ पटवा जी ने पिरोया है। छह अध्याय में विभक्त इस कृति में सुर भी है साज भी है लय भी है, ताल भी है,गीत तैर रहे हैं …गजल भी उदास है” (चिड़िया फुर्र..पृष्ठ15) यह पंक्तियाँ सब कुछ कह जाती हैं।
चित्रपट संगीत का पर्याय बन चुकी लता जी के पवित्र मन की निर्मलता उनके गीतों में झलकती उनका विलक्षण गायन श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है…स्पष्ट उच्चारित शब्द कानों में अमृत- सा उँडे़ल देते…नाद ब्रह्म है…सच है लता जी की आवाज़ ब्रह्मांड में गूँज रही है…”हिमालय से हिन्द महासागर तक ,नेपाल से श्रीलंका तक,बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक अटक से कटक तक..(.पृष्ठ 23)”जिस दिन लता जी नहीं रही…आवाज गूँज रही थी…
“रहे न रहे हम,महका करेंगें.. चलते चलते वहीं पे कहीं हम तुमसे मिलेंगे , बन के कली..” और.वे रोता छोड़ गईं “महका करेंगे बन के सबा बाग़ -ए-वफा़ में हम” (पृष्ठ 23-26)
लता जी की जीवन शैली और विराट व्यक्तित्व भारतीय सिनेमा ही नहीं अपितु हमारी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान है,जो कि अनुकरणीय है।पटवा जी कहते हैं कि यह एक ऐसी आवाज है जो सदियों में कभी एक बार ही गूँजती है..ऐसी आवाज जो मंदिर की घंटियों गिरिजाघर की खामोशी, गुरूद्वारे की तान,और मस्जिद की अजान- सी पाकीजगी देती है।
अपनी शालीन नाजुक गहरी और रूहानी आवाज से लता जी ने सात दशकों तक भारतीय जीवन की साँसों में खुशियों, उमगों,शरारतों,उदासियों, दु:ख-सुख, हताशा, अकेलेपन व उत्सवों में भागीदारी की है।उन्होंने प्रणय को सुर,व्यथा को कंधा और आँसुओं को तकिया देकर तीस से ज्यादा भाषाओं में तीस हजार से अधिक गीत गाकर मानवीय भावनाओं के सुर को पकड़ा और अन्तर्गत को सहलाया और दिलों पर राज किया है। लता जी के गायन में अभिनय का अद्भुत मिश्रण देकर कला को सहज ऊँचाई दी।
पटवा जी लिखते हैं-” जीवन भर गीता के कुछ पदों का पाठ करने वाली- गालिब, मीर, मोमिन, ज़ौक़ और दाग को सही-सही उच्चारण में पढ़ने वाली महान गायिका अपने संगीत के विस्तार से गीत गजलों की आत्मा की गहराइयों तक शताब्दियों के आर-पार जाने वाला उजाला फैलाना शुरूकर चुकी थीं (पृष्ठ35)”
गीत संगीत की लंबी पारी खेलने वाली महान कलाकार का जीवन भी आम आदमियों की संघर्ष गाथा भी है और कुछ हद तक विवादित भी पर उससे अहम उनका उजला पक्ष है जो उन्हें सराहना के सर्वोच्च शिखर तक ले जाता है। गायन की यह अलंघ्य ऊँचाई हर मन तक बात पहुँचाती है..उनकी आवाज सुनकर हर दिल गा उठता है…भौतिक रुप से ढेरों पुरस्कार पाने वाली लता जी हर दिल से सम्मानित हैं।
पार्श्वगायन इतिहास का रोचक दस्तावेज इस कृति के रुप में तेजी से रचनाकर्म से चमत्कृत करने वाले साहित्यकार सुरेश पटवा के लेखन का सफल आयाम है।
डॉ. वन्दना मिश्रा
शिक्षाविद, कवि, लेखक, समीक्षक
भोपाल, मध्यप्रदेश।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ “टांग खींचने की कला” – श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री रामस्वरुप दीक्षितजी की पुस्तक “टांग खींचने की कला” पर चर्चा ।
☆ टांग खींचने की कला : एक पठनीय व्यंग्य संग्रह – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
समसामयिक घटनाओं पर हिन्दी व्यंग्य पिछली सदी के अंतिम दशकों से लिखे जाते रहे हैं. अब ये अधिकांश पत्र पत्रिकाओं के लोकप्रिय स्तंभ बन चुके हैं.तानाशाही व कम्युनिस्ट सरकारों के राज में जहां खबरों पर प्रशासन का पहरा होता है, खबरों की वास्तविक तह का अंदाजा लगाने के लिये भी लोग व्यंग्यकारों को रुचि से पढ़ते हैं. पाठक संपादकीय पन्नों पर रुचि पूर्वक पिछले दिनो हुई घटनाओं को व्यंग्यकारों के नजरिये से पढ़कर मुस्कराता है, अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुरूप रचनाकार का इशारा समझता है, कुछ मनन भी करता है.इनके माध्यम से पाठक को बौद्धिक सामग्री मिलती है. ये व्यंग्यलेख पाठक के मानस पटल पर त्वरित रूप से गहरा प्रभाव छोड़ते हैं. और इस तरह व्यंग्यकार क्रांतिकारी भूमिका में होते हैं. तारीखों के बदलते ही अखबार अवश्य ही रद्दी में तब्दील हो जाता है पर अखबारों में प्रकाशित ऐसे व्यंग्य लेखों का साहित्यिक महत्व बना रहता है. मैने अनुभव किया है कि किंचित बदलाव के साथ घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है, और पुराने पढ़े हुये व्यंग्य पुनः सामयिक लगने लगते हैं. यह व्यंग्यकार का कौशल ही होता है कि जब वह किसी घटना का अपनी शैली में लोक व्यापीकरण कर उसे अभिव्यक्त करता है तो वह व्यंग्य, साहित्य बन जाता है. अखबार अल्पजीवी होता है, पर साहित्य का महत्व हमेशा बना रहता है. इसीलिये अखबारों में छपे ऐसे व्यंग्य लेखों के पुस्तकाकार प्रकाशन की जिम्मेदारी लेखक पर आ जाती है. इन व्यंग्य संग्रहों से कोई शोधार्थी कभी सामाजिक घटनाओं के साहित्यिक प्रभाव का पुनर्मूल्यांकन करेगा. बदलती पीढ़ीयों के पाठक जब जब इन संग्रहों के व्यंग्य लेखों के कथ्य को पढ़ेंगे, समझेंगे, उनके परिवेश तथा अनुभनुवों के साथ बदलते समय के नये बिम्ब बनाएंगे. स्मित मुस्कान, किंचित करुणा, विवशता, युग की व्यथा, हर बार पाठक को गुदगुदायेगी, हंसायेगी, रुलायेगी, सोचने पर मजबूर करेगी.
जब मैं भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली से हाल ही प्रकाशित श्री रामस्वरूप दीक्षित की कृति ” टांग खींचने की कला ” पढ़ रहा था तो मुझे स्मरण हुआ कि मिलते जुलते टाइटिल “टांग अड़ाने के मजे” का संपादन मैंने किया था. वह किताब व्यंग्यकार मित्र राकेश सोह्म का पहला व्यंग्य संग्रह था. श्री रामस्वरूप दीक्षित वरिष्ठ कवि, तथा सुस्थापित व्यंग्यकार हैं. वे समकालीन व्यंग्य नामक एक वैश्विक स्तर के साहित्यिक समूह के संस्थापक भी हैं, जिसके माध्यम से उन्होंने विशद साहित्यिक गोष्ठियां तथा व्यंग्य के विभिन्न पहलुओं पर व्यापक चर्चायें भी की हैं. टांग खींचने का भाषाई अर्थ प्रयोग के अनुरूप व्यापक होता है, जहाँ घोड़े या टट्टू भौतिक रूप से टांग खींचने पर दुलत्ती झाड़ते हैं, वहीं मनोविज्ञान के अनुसार जो पति पत्नी बातों बातों में एक दूसरे की प्यार भरी टांग खिंचाई करते रहते हैं, उनमें परस्पर बेहतर तालमेल होता है. लायन्स क्लब में तो टेल ट्विस्टर का एक पद ही होता है, जिसका काम ही होता है कि वह उस पदाधिकारी की खिंचाई करे जो अपना दायित्व भलिभांति न निभा रहा हो, इस तरह मैनेजमेंट के फंडे के अनुसार टांग खिंचाई से कार्य दक्षता बढ़ती है. दूसरी ओर केंकड़ों की तरह की टांगखिंचाई भी होती है, जिसमें जो दौड़ में आगे निकल रहा हो उसकी टांग खिंचाई कर उसकी प्रगति बाधित कर दी जाती है. बहरहाल मैंने मनोयोग से रामस्वरूप दीक्षित जी की यह पुस्तक टांग खींचने की कला आद्योपांत पढ़ी. और इसके सभी तीस बत्तीस व्यंग्य लेखों का निहितार्थ यही समझा कि जब एक मंजा हुआ दीक्षित जी जैसा व्यंग्यकार समाज की टांगें खींचता है तो उसका मंतव्य गिराना नहीं उठाना होता है. वह इतनी कलात्मक भाषाई शैली से विसंगतियों को पकड़ कर व्यंग्य के मृदु प्रहार से टांगे खींचता है कि जिस पर दांव चला जाता है वह तुरंत सजग हो उठ खड़ा होना चाहता है, और मुड़कर देखता है कि किसी ने उसे गिरते देखा तो नहीं. रामस्वरूप जी का पहले भी एक व्यंग्य संग्रह आ चुका है, “कढ़ाही में जाने को आतुर जलेबियां ” जो काफी चर्चित हुआ है।
“टांग खींचने की कला ” में इस शीर्षक व्यंग्य के सिवाय लेखकीय परिवेश के कई व्यंग्य हैं जैसे साहित्य क्षेत्रे, स्तंभ लेखन के मजे, कवि का दुःख, एक व्यंग्यकार की चिट्ठी समीक्षक के नाम, सफल लेखक होने के उपाय, जे बिनु काज दाहिनेहु बांए आदि आदि. दूसरे समूह के व्यंग्य परिवार और पत्नी के इर्द गिर्द वाले हैं मसलन कैसे खुश रखें पत्नी को, नहानेवाले और न नहाने वाले, पति, परिभाषा प्रकार और महत्व, पत्नीभ्याम नमः, जब हमने मकान ढ़ूंढ़ा वगैरह. राजनीति और पुलिस पर व्यंग्य के बिना भी कोई किताब पूरी हो सकती है ? तीसरे समूह में इसी केटेगरी के व्यंग्य रखे जा सकते हैं पुलिस सम्मान, मंत्री जी के जूते, पटवारी की कलम, अथ विभूति वर्णन, इत्यादि. संग्रह के सारे व्यंग्यों की खासियत है कि वे अपेक्षाकृत दीर्घ जीवी विषयों पर हैं. किताब में हर उम्र, प्रत्येक अभिरुचि के पाठकों के लिये मसाला है. पुस्तक ज्ञानपीठ से प्रकाशित है स्पष्टतः त्रुटिहीन मुद्रण तथा स्तरीय प्रस्तुति है. पति, परिभाषा प्रकार और महत्व व्यंग्य की रचनाशैली नवीनता लिये हुये है. जिसमें उपशीर्षकों के माध्यम से मजेदार व्याख्या है. उदाहरण स्वरूप पतियों के प्रकार बताते हुये उपशीर्षक है… हालावादी पति.. जो पति दिन भर काम के बाद रात को नशे में चूर होकर घर लौटते हैं और पत्नी के आपत्ति करने पर अश्लील सुभाषित उच्चारित करने लगते हैं, उन्हें दीक्षित जी हालावादी पति की श्रेणि में रखते हैं. यूं हालावादियों की एक उप श्रेणि और लिखी जानी चाहिये थी, जिसमें वे नवधनाड्य पति भी हो सकते हैं जो पत्नी के साथ जाम टकराते हुये ही हाला सेवन करते हैं. अस्तु रचनायें उम्दा हैं. गहरे कटाक्षों से किताब भरी पड़ी हैं उदाहरण के लिये ” कुछ तो अफसर होने साथ मनुष्य भी होते हैं “, ” कैसे मुसीबत के दिनों में कविता (स्त्री का नाम नहीं )ने आपको समय से जूझने की ताकत दी, या ” विक्रमादित्य को चुप देख बेताल ने फिर कहा बोल विक्रम जबाब दे नहीं तो तेरा सिर फट जायेगा, विक्रमादित्य के मुंह से निकल गया नहीं, और बेताल फिर पेड़ पर जा लटका “… बेताल कथा को अनेकानेक व्यंग्यकारों ने अपनी अभिव्यक्ति का अवलंबन बनाया है,मैंने कई ऐसे व्यंग्य पढ़े हैं, किन्तु दीक्षीत जी का मंहगाई की बेताल कथा को निभा ले जाना डिफरेंट लगा. बहरहाल सर्वथा पठनीय संग्रह के लिये दीक्षित जी बधाई के सुपात्र हैं, उनके आने वाले संग्रहों की प्रतीक्षा रहेगी.