हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “अम्बर परियां ” (उपन्यास) – उपन्यासकार – श्री बलजिंदर नसराली  ☆ समीक्षा – श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “अम्बर परियां ” (उपन्यास) – उपन्यासकार – श्री बलजिंदर नसराली  ☆ समीक्षा – श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : अम्बर परियां (उपन्यास)

उपन्यासकार – श्री बलजिंदर नसराली 

अनुवाद : श्री सुभाष नीरव

प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली।

मूल्य : 350 रुपये (पेपरबैक)

☆ “विवाह जैसी परंपरा पर सवाल उठाता बलजिंदर नसराली का उपन्यास अम्बर परियां” – कमलेश भारतीय ☆

एक दिन मित्र डाॅ विनोद शाही का फोन आया कि पंजाबी लेखक बलजिंदर नसराली आपको अपना उपन्यास भेजेंगे, आप इसे पढ़कर कुछ लिखना! मज़ेदार बात यह है कि इस वर्ष की शुरुआत डाॅ विनोद शाही के उपन्यास से हुई, फिर कुछ ऐसा मूड बना कि ब्रह्म दत्त शर्मा का लम्बा उपन्यास भी पढ़ डाला और मनोज शर्मा का कविता संग्रह भी यानी यह वर्ष मेरे पढ़ने का वर्ष ज्यादा रहा और लिखने का कम! अरे! मैं तो पाठक बन गया! खैर, बलजिंदर नसराली का उपन्यास आ गया और मेज़ पर पड़ा रहा, फिर एक दिन मेज़ साफ करने की आपाधापी में इधर उधर रखा गया। बलजिंदर का फोन आया कि इसे पढ़कर कुछ न कुछ लिख दीजिये तो जिन खोजा तिन पाइया और उपन्यास ढूंढकर पढ़ना शुरू!

अम्बर परियां बड़ा सादा सा, स्पष्ट सा नाम है कि नायक अम्बर और उसकी ख्वाबों की, ख्यालों की प्रेमिकाओं की कहानी! वह भी उस अम्बर की, जो पहले से विवाहित है, दो प्यारे प्यारे बच्चे भी हैं उसके और उसे अपनी पत्नी किरणजीत कौर से प्यार नहीं, तो नफरत भी नहीं लेकिन जब वह काॅलेज में अपनी खूबसूरत सहयोगी संगीत की प्राध्यापिका अवनीत को देखता है तो वह उसे परी से कम नहीं लगती। इसके बावजूद वह बड़े सधे तरीके से कदम बढ़ाता है जबकि अवनीत की मंगनी हो चुकी होने के बावजूद उसके साथ वह वहीं पहुंच जाती है, जहां अम्बर पेपर पढ़ने के लिए जाता है और दो रात वे इकट्ठे एक ही कमरे में बिताते हैं! परी को इतने पास पाकर सुखद अहसास में भर जाता है अम्बर। जैसे परी  आकाश से धरती पर उतर आई हो। अवनीत संगीत की प्राध्यापिका है और मंगेतर से ज्यादा संगीत में स्टार बनना चाहती है और यही होता है। वह संगीत में स्टार बन जाती है, मंगेतर और अम्बर कहीं पीछे छूट जाते हैं! अम्बर खुद टीवी स्टार के साथ साथ अपने छात्रों का स्टार प्राध्यापक है।

फिर अम्बर को जम्मू विश्वविद्यालय के पंजाबी विभाग में नयी जाॅब मिल जाती है और वहां जोया उसके दिल को धीरे धीरे छू जाती है। वह भी किसी परी से कम नहीं। किरणजीत कौर को अम्बर पीएचडी तक पढ़ा कर  प्राध्यापिका लगवा देता है और जोया के साथ विवाह करवाना चाहता है। हालांकि किरणजीत यह सोचती है कि जैसे अवनीत के साथ सब चक्कर के बावजूद अम्बर घर ही तो लौट आता था। लेकिन अम्बर किरणजीत पर दबाव बनाता है तलाक देने के लिए और बच्चों का वास्ता देती किरणजीत आखिर मान जाती है लेकिन जोया के बदलते व्यवहार से अम्बर अकेले ही रहना पसंद करता है, वह किरणजीत से तलाक लिये बिना ही आगे बढ़ जाता है!

जो सिर्फ नावल रीडिंग करेंगे, उनके लिए तो उपन्यास इतना ही है लेकिन जो गहरे जायेंगे, वे जानेंगे समझेंगे कि अम्बर उस परिवार से आया जिसका ताया अरजन अविवाहित है, जैसा कि पंजाब के पुराने समय में ज़मीन को आगे बंटने से बचाने के लिए किया जाता था या हो जाता था। ताया रंग का काला है और अम्बर कुछ सांवला सा, ताये व‌ मां के काले अंधेरे में पैदा हुआ बच्चा, जिसे गांव भर में यह सहना पड़ता है ‘ओ अरजन दा’ और वह इससे चिढ़कर सीधे लड़ने दौड़ता है, अम्बर पढ़ाई में अच्छा है और ताया भी चाहता है कि अम्बर पढ़ लिख जाये ताकि आठ खेत बंटे तो चार खेत वाले की शादी कैसे होगी? अम्बर स्कूल में भाषण देने आये निहंग सिंह से किताबों से प्रेम करना सीख जाता है और अपनी सहपाठी चरनी से भी प्रेम करने लगता है और रजिस्ट्री से अपना प्रेम निवेदन भेजता है तब अध्यापिका समझाती है कि इतने गहरे पढ़ने वाला लड़का साधारण सी चरनी पर क्यों मर मिटना चाहता है ?

उपन्यास की शुरुआत भी पुराने स्कूल में प्राध्यापक बन चुके अम्बर के भाषण व यादों से होती है। अम्बर कैसे अपने घर के माहौल से परेशान था बचपन से ही क्योंकि पिता इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि अम्बर उनका बेटा है और मां बाप की कहा सुनी हो जाती, मा़ं कपड़े लत्ते लेकर अपने मायके लेकर चल‌ देती अम्बर को! अम्बर सोचता कि वह अपनी शादी के बाद ऐसा माहौल नहीं रहने देगा लेकिन परियों के आने के बाद वह अम्बर नहीं रह पाता! डगमगाते, उलझन में रहते, अंतर्द्वंद में पहले अवनीत निकट आती है, फिर जोया! ये परियां विवाह परंपरा पर सवाल बन जाती हैं कि क्या शादीशुदा अम्बर को ऐसा करना चाहिए था या किसी भी अवनीत को, जोया को शादीशुदा अम्बर के प्यार में पड़ना चाहिए था ? क्या ये लिव इन की ओर उठते कदम हैं या परियों को पाकर अम्बर की तरह सब कुछ समझते हुए भी बेबस हो जाने की विवशता ? क्या अम्बर सही है? यह सवाल पाठक के लिए छोड़ा गया है! शिक्षा व्यवस्था पर भी यह उपन्यास सवाल उठाता चलता है लगातार!

वैसे इस उपन्यास को देहरादून की एक संस्था द्वारा एक लाख रुपये का पुरस्कार दिया जायेगा और राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होने से पहले पंजाबी में इसके अब तक छह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, इसका अंग्रेज़ी संस्करण भी आने वाला है। उपन्यास मूलत: पंजाबी में लिखा गया है और अनुवाद हमारे मित्र सुभाष नीरव ने किया है लेकिन कुछ शब्दों को जानबूझकर कर पंजाबी से ज्यों के त्यों रख दिये जाने से वे खटकते हैं। अगले संस्करण में इन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए उल्था  की जगह अनुवाद शब्द आना चाहिए जबकि उल्था ही बार बार लिखा गया। यह थोड़ी जल्दबाजी दिखती है। पर बहुत प्यारा अनुवाद किया है। बधाई दोनों को! अंग्रेज़ी में भी पढ़ेंगे भाई।

भाषा बहुत प्रवाहमयी है। अपनी ओर खींचती लिए चलती है और अम्बर व परियां जैसे हमारे आसपास ही विचरते दिखाई देते हैं! भाषाओं का, जम्मू, डोगरी, पंजाबी सबका स्वाद आता है लगातार! कितने उदाहरण हैं जो अम्बर को श्रेष्ठ प्राध्यापक साबित करते हैं और छात्रों का प्रिय प्राध्यापक भी! वह अपनी इमेज के प्रति सचेत होते होते भी जोया की ओर कदम बढ़ा लेता है पर वह पत्नी किरणजीत को धोखा देने का अहसास भी कमाल है। चिनाव और पहाड़ियों का खूबसूरत चित्रण भी मोह लेता है। बलजिंदर को बहुत बहुत बधाई!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मनमंथन  — कहानीकार : मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’ — ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 18 ?

? मनमंथन  — कहानीकार : मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’ ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम : मनमंथन

विधा : कहानी

कहानीकार : मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’

प्रकाशन : क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? मनमंथन : बोलती-बतियाती कहानियाँ  श्री संजय भारद्वाज ?

भावनाओं का इंद्रियों के माध्यम से प्रकटीकरण, जीव में प्राण होने या उसके निष्प्राण होने को परिभाषित करता है। सुनने-सुनाने की वृत्ति सजीव सृष्टि का अनिवार्य गुणधर्म है। वैचारिक अभिव्यंजना की इस तृष्णा ने कहानी को जन्म दिया। विशेषता है कि कहानी ऐसी विधा के रूप में जानी जाती है जो कभी एकांगी नहीं होती। सुनाने वाले (या लेखक) की कामना और सुनने वाले (या पाठक) की जिज्ञासा, दोनों तत्वों का इस विधा में तालमेल होता है। इसके चलते कहानी का इतिहास मनुष्य के इतिहास जितना ही पुराना है।

सनातन संस्कृति में वेदों के बाद पुराणों का लेखन दर्शाता है कि गूढ़ ज्ञान को सरल कथाओं के माध्यम से आम आदमी तक पहुँचाया जा सकता है। उपनिषदों की रूपक कथाओं से लेकर बौद्धवाद की जातक कथाएँ इसी शृंखला की अगली कड़ी हैं। कालांतर में घटित / अघटित कई किंवदतियाँ लोककथाओं के वेश में मनुष्य के चरित्र निर्माण एवं सामाजिक जागृति का माध्यम बनीं।

‘मनमंथन’ कहानी संग्रह का अधिकांश भाग चुनिंदा भारतीय लोककथाओं का आधुनिक संस्करण है। कथाकार ने अपनी प्रस्तावना में इस बात को स्पष्ट भी किया है कि कुछ कथाएँ उसका उसका अपना सृजन है, शेष माँ से सुनी कहानियों का पुनर्लेखन है। लोककथाओं को बालसाहित्य के रूप में प्रकाशित करने का चलन भी है। इस संदर्भ में कहानीकार और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस लीक का अनुसरण नहीं किया। यों भी अनुभवजनित लोककथाएँ मनुष्य वेश के पथिक के लिए हर सोपान पर दिशादर्शक प्रकाशस्तम्भ का काम करती हैं।

संग्रह में समाविष्ट चौदह कहानियों में ‘आत्मसात’ सर्वाधिक प्रभावित करती है। ये ईमानदारी की धरती पर लिखी कथा है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को निर्वाण के चार महाद्वार मानकर समान आदर दिया गया है। संस्कृति की इस उदात्त भावना को समझे बिना ही बाद के समाज ने काम को वासना पूर्ति की परिधि तक सीमित कर दिया। ‘आत्मसात’ इस परिधि का विस्तार करती है। वासना के बेस कैम्प से उपासना के शिखर की यात्रा का मानचित्र तैयार करती है। कथा पूरी सादगी से बिना मुखौटे लगाये, बिना मुलम्मा चढ़ाए चलती है, अत: कहीं अविश्वसनीय नहीं लगती। बुजुर्ग साधु-साध्वी के मन में आजीवन पाले ब्रह्यचर्य के खण्डित होने पर कोई ग्लानिबोध न जगना, परस्पर दोषारोपण न करना, कथा को तार्किक सम्बल प्रदान करता है। कथा प्रत्यक्ष में कोई उपदेश नहीं करती पर परोक्ष में अतंर्निहित संदेश पाठक के मन पर अंकित हो जाता है।

इसके विरुद्ध ‘कुत्ते की पूँछ’ नामक कहानी है जो मात्र किस्सागोई है, किसी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष संदेश नहीं देती। ‘बच्चा किसका’, रात भर अंडा पकाया फिर भी कच्चा रह गया, ‘झूठ के हाथ-पैर नहीं’, इसी श्रेणी की हल्के-फुल्के ढंग से कही गई कथाएँ हैं। ‘दुविधा,’ ‘एक वरदान,’ ‘चने की एक दाल’ विशुद्ध लोक कथाएँ हैं जिनमें विभिन्न मानवीय गुण और काल-पात्र-परिस्थिति के अनुरूप धारण किये जाने वाले धर्म की सूक्ष्म अवधारणा अंतर्निहित है। ‘कल्पना से परे’ और ‘कानाफूसी’ सीधे-सीधे अपना संदेश लेकर आती हैं। ‘नास्तिक के मुख से’ नामक लोककथा लोक में आस्था का बीज रोपने की भूमिका लेकर चलती है। ‘प्रतीक्षा’ में कहानीकार सेना के परिवेश का चित्रण करने में सफल रहा है। ‘गलतफहमी’अतिरंजित लगती है। ‘मरणोपरांत’ एक सैनिक के भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति है।

संग्रह की विभिन्न कथाओं में समाहित विचारसूत्र चिंतन के लिए पर्याप्त संभावनाओं को अवसर प्रदान करते हैं। कुछ विचारसूत्र उल्लेखनीय हैं। यथा-आँसू पीयूष भी है और हलाहल भी…/ आँसू अंदर रहकर तूफान मचाता है पर बाहर निकलकर मरहम का काम करता है…/ गलतफहमी गांधारी है जिसकी कोख से सौ कौरव पैदा होकर महाभारत रचाएँगे और बाद में बिलखती हुई विधवाओं का रुदन और क्रंदन छोड़ जायेंगे…/ साधन एक अवसर पर साधना में सहयोग देता है तो वही साधन किसी दूसरे समय में व्यवधान उत्पन्न करने लगता है।…

लोकसाहित्य की विशेषता है कि उसके संकेत और प्रतीक रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़े होते हैं। फलत: कथ्य तुरंत पाठक तक पहुँचता है। बानगी है- प्यार में दरार आ गई, प्रेम की डोर में गाँठ पड़ गई। बाहर से पता नहीं चलता था परंतु अंदर से खीरे जैसी तीन फाँक ! …

‘मनमंथन’ में मुहावरों और लोकोक्तियों का यथेष्ट प्रयोग हुआ है। कहानियों में प्रयुक्त बिहार की आंचलिक बोली अंचल की माटी की सौंध पाठक तक पहुँचाती है। संग्रह की कथाओं में कम चरित्रों के माध्यम से कथ्य को रखा गया है। अनावश्यक प्रसंग भी ठूँसे नहीं गए हैं। ये इन कहानियों का शक्तिस्थान है।

सेना की पृष्ठभूमि की कहानियाँ अधिक प्रभावी हैं क्योंकि कथाकार के जीवन के 32 वर्ष सेना में बीते हैं। कथाकार से भविष्य में सैनिक परिवेश पर अधिक कहानियों की अपेक्षा की जानी चाहिए। कुल मिलाकर इस संग्रह की कहानियाँ पाठक से बोलती हैं, बतियाती हैं। यह कथाकार आशा जगाता है। उससे लम्बी दौड़ की उम्मीद की जा सकती है।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – हंसा चल घर आपने — कहानीकार-रजनी पाथरे ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 17 ?

?हंसा चल घर आपनेकहानीकार-रजनी पाथरे ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- हंसा चल घर आपने

विधा- कहानी

कहानीकार-रजनी पाथरे

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? प्रभावी और संवेद्य कहानियाँ  श्री संजय भारद्वाज ?

कहानी सुनना-सुनाना अभिव्यक्ति का अनादिकाल से चला आ रहा सुबोध रूप है। यही कारण है कि प्रकृति के हर चराचर की अपनी एक कहानी है। औपचारिक शिक्षा के बिना भी श्रवण और संभाषण मात्र से रसास्वाद के अनुकूल होने के कारण कहानी की लोकप्रियता सार्वकालिक रही है।

लोकप्रिय कहानीकार रजनी पाथरे के प्रस्तुत कहानी संग्रह ‘हंसा चल घर आपने’ की कहानियाँ कुछ मामलों में अपवादात्मक हैं। इस अपवाद का मूल संभवतः उस विस्थापन में छिपा है जिसे काश्मीरी पंडितों ने झेला है। अन्यान्य कारणों से विस्थापन झेलनेवाले अनेक समुदायों की कहानियाँ इतिहास के पन्नों पर दर्ज़ हैं। इन समुदायों के विस्थापन में एक समानता यह रही कि इन्हें अपने देश की मिट्टी से दूर जाकर नए देश में आशियाना बसाना पड़ा। काश्मीरी पंडित ऐसे दुर्भाग्यशाली भारतीय नागरिक हैं जो पिछले लगभग तीन दशकों से अपने ही वतन में बेवतन होने का दंश भोग रहे हैं। पिछले वर्षों में स्थितियाँ कुछ  बदली अवश्य हैं तथापि अभी लम्बी दूरी तय होना बाकी है।

यही कारण है कि काश्मीरी पंडित परिवार की कहानीकार का सामुदायिक अपवाद उनकी कहानियों में भी बहुतायत से, प्रत्यक्ष या परोक्ष दृष्टिगोचर होता है। इस पृष्ठभूमि की कहानियों में लेखिका की आँख में बसा काश्मीर ज्यों की त्यों कागज़ पर उतर आता है। घाटी के तत्कालीन हालात और क़त्लेआम के बीच घर छोड़ने की विवशता के बावजूद जेहलम, शंकराचार्य की पहाड़ी, दुर्गानाग का मंदिर, खिचड़ी अमावस्या, यक्ष की गाथा, अखरोट के पेड़, चिनार की टहनियाँ, बबा; गोबरा जैसे संबोधन, शीरी चाय, हांगुल, गुरन, कानुल साग, कहवा, चश्माशाही का पानी, काश्मीरी चिनान आदि को उनकी क़लम की स्याही निरंतर याद करती रहती है। विशेषकर ‘माइग्रेन्ट’, ‘मरु- मरीचिका’, ‘देवनार’, ‘पोस्ट डेटेड चेक’, ‘हंसा चल घर आपने’, ‘काला समंदर’ जैसी कहानियों की ये पृष्ठभूमि उन्हें प्रभावी और संवेद्य बनाती है।

स्त्री को प्रकृति का प्रतीक कहा गया है। स्त्री वंश की बेल जिस मि‌ट्टी में जन्मती है और फिर जहाँ रोपी जाती है, उन दोनों ही घरों को हरा-भरा रखने का प्रयास करती है। यही कारण है कि रजनी पाथरे ने केवल अपने मायके की पृष्ठभूमि पर कहानियों नहीं लिखी हैं। ससुराल याने महाराष्ट्र की भाषा और संस्कृति भी उतनी ही मुखरता और अंतरंगता से उनकी कहानियों में स्थान पाती हैं।’ आजी का गाँव’, ‘जनाबाई’, ‘कमली’ जैसी कहानियाँ इसका सशक्त उदाहरण हैं।

स्त्री का मन बेहद जटिल होता है। उसकी थाह लेना लगभग असंभव माना जाता है। लेखिका की दृष्टि और अनुभव ‘कुँवारा गीत’, ‘नाम’ और ‘ज़र्द गुलाब’ के माध्यम से इन परतों को यथासंभव खोलते हैं। इस भाव की कहानियों की विशेषता है कि इनमें स्त्री को देवी या भोग्या में न बाँटकर मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। स्त्री स्वतंत्रता या नारी विमर्श का नारा दिए बिना कहानीकार जटिल बातों को सरलता से प्रस्तुत करने का यत्न करती हैं। ‘नाम’ में यह जटिलता व्यापक रूप से उभरती है। ‘कुँवारा गीत’ यह संप्रेषित करने में सफल रहती है कि स्त्री को केवल शारीरिक नहीं अपितु मानसिक ‘ऑरगेज़म’ की भी आवश्यकता होती है।

स्त्री को केवल देह और उसकी देह को अपनी प्रॉपर्टी मानने की अधिकांश पुरुषों की मानसिकता को ‘परतें’ और ‘राजहंस’ कहानियाँ पूरी तल्ख़ी से सामने रखती हैं। ‘परतें’ में एक स्त्री के साथ विभाजन के दौरान हुआ बलात्कार अफगानिस्तान की नाजू के माध्यम से वैश्विक हो जाता है। युद्ध किसीका, किसीके भी विरुद्ध हो, उसका शिकार सदैव स्त्री ही होती है। ‘राजहंस’ रिश्तों की संश्लिष्टता की थोड़ी कही, खूब अनकही दास्तान है जो पाठक को भीतर तक मथकर रख देती है।

संग्रह की कहानियों में विषयों की विविधता है। सांप्रदायिकता की आड़ में आतंकवाद के शिकार अपने अपने पात्रों में लेखिका ने समुदाय भेद नहीं किया है। इन कहानियों को पढ़ते समय घाटी का सांप्रदायिक सौहार्द पूरी आत्मीयता से उभरकर आता है। स्त्री पात्रों के मन की परतें खोलने की प्रक्रिया में जहाँ कहीं तन का संदर्भ आया है, लेखिका की भाषा और बिंब शालीन रहे हैं। ‘बात का बतंगड़’ करने की वृत्ति के दिनों में ‘बतंगड़ से बात बनाने’ का यह अनुकरणीय उदाहरण है।

वातावरण निर्मिति की सहजता संग्रह की सभी कहानियों को स्तरीय बनाती है। कथानक का शिल्पगत कसाव और क्रमिक विकास कथ्य को प्रभावी रूप से प्रस्तुत करता है। कहानियों में कौशल, त्वरा और वेग अनायास आए हैं। कथोपकथन समुचित उत्सुकता बनाए रखता है। अवांतर प्रसंग न होने से कहानी अपना प्रभाव बनाए रखती है। कहानियों के पात्र सजीव हैं। इन पात्रों का चित्रण प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में हुआ है। पात्रों का अंतर्द्वंद्व कहानीकार और पाठक के बीच संवाद का सेतु बनाता है। देश काल का चित्रण कहानीकार की मूल संवेदना और भाव क्षेत्र से पढ़नेवाले का तादात्म्य स्थापित कराने में सफल है।

लेखन का अघोषित नियम है कि लिखनेवाला जब भी कलम उठाए, अमृतपान कराने के लिए ही उठाए। रजनी पाथरे के भीतर मनुष्योचित संवेदनाओं का यह अमृत प्रस्तुत कहानी संग्रह में यत्र-तत्र-सर्वत्र है। संग्रह की अंतिम कहानी ‘काला समंदर’ के अंत में हत्यारों के लिए भी ‘या देवी सर्वभूतेषु क्षमारूपेण संस्थिता’ का मंत्र मानो सारी कहानियों का सार है। विश्वास है कि पाठक इस अमृत के आस्वाद से स्वयं को तृप्त करेंगे। शुभं भवतु ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मैं कविता नहीं करता — कवि – डॉ. सत्येंद्र सिंह ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 18 ?

? मैं कविता नहीं करता — कवि – डॉ. सत्येंद्र सिंह  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम-  मैं कविता नहीं करता

विधा- कविता

कवि- डॉ. सत्येंद्र सिंह

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? ‘कॉमन मैन’ की कविताएँ  श्री संजय भारद्वाज ?

संवेदना कविता का प्राणतत्व है। स्वाभाविक है कि कवि संवेदनशील होता है। कवि भौतिकता की अपेक्षा वैचारिकता में जीवन व्यतीत करता है। उसके चिंतन का आधार मनुष्य के चोले में बीत रहे जीवन की सार्थकता है। प्रस्तुत कवितासंग्रह  ‘मैं कविता नहीं करता’ में कवि डॉ. सत्येंद्र सिंह मनुष्य के रूप में जीवन की पड़ताल करते हुए दिखाई देते हैं।

मैं कविता नहीं करता

अपने आपको देखता हूँ…,

कब मुझे प्रभावित किया-

अहंकार ने, क्रोध ने, लालच ने

और मैं कब गिरा, कब खड़ा हुआ..।

मनुष्यता की भावनाओं में कृतज्ञता प्रमुख है। जिनसे जीवन पाया, जिनके चलते पोषण मिला,जिनसे जीवन का अर्थ मिला, जिन्होंने जीवन को सही मार्ग दिखाया, जिनके कारण जीवन जी सके, उन सब के प्रति आजीवन कृतज्ञ रहना मनुष्यता है। ‘दीप की चाहत’ कविता में यह कृतज्ञता कुछ यूँ शब्द पाती है-

मैं दीप जलाना चाहता हूँ,

उस खेत के कोने में-

जहाँ एक पूरे परिवार ने,

अपने परिश्रम से हमें

अनाज, फल, सब्जी देकर

ज़िंदा बनाए रखा।

कृतज्ञता के साथ सामासिकता और समता भी मानवता के तत्व हैं। कवि की यह आकांक्षा देखिए-

न प्रतिभा दमन हो,

न हो श्रम शोषण,

अखंड विकास ही

केवल साध्य हो।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज, समूह से बनता है। इस सत्य से परिचित होते हुए भी स्वयं को श्रेष्ठ समझने की यह नादानी भी देखिए-

मुझसे कोई श्रेष्ठ नहीं,

मुझसे कोई ज्येष्ठ नहीं,

जो हूँ, मैं ही हूँ, बस

और कोई नहीं..!

नादानी की पराकाष्ठा है कि मनुष्य आत्मकेंद्रित संसार बनाने के मंसूबे बांधना नहीं छोड़ता। इस संदर्भ में कवि की स्पष्टोक्ति देखिए-

हाँ,‘मैं’ का संसार बन सकता है,

अहंकार का संसार बन सकता है,

पर वह होगा नितांत आभासी,

जब तक मेरे साथ तू न होगा.

तब तक संसार नहीं होगा।

कवि अदृश्य ईश्वर को दृश्यमान बनता देखता है और लिखता है-

कहते रहे लोग,

सुनते रहे हम,

रचयिता अदृश्य है

और देखते भी रहे

रचयिता को

दृश्यमान बना रहे हैं लोग।

दृश्यमान की संभावना को अपरिमित करते हुए कवि फिर प्रश्न करता है-

तुम कण-कण में हो-

आप्त वचन है,

फिर एक ही प्रस्तर में क्यों?

यह कोई साधारण प्रश्न नहीं है। कण-कण में ईश्वर को देखने के लिए दृष्टि के पार जाना होता है। पार के बाद अपार होता है और अपार में अपरंपार का दर्शन होता है।

मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मस्थान-सेवासंघ में सेवाएँ दे चुका व्यक्तित्व स्वाभाविक है कि अपने भीतर एक आध्यात्मिक, दार्शनिक उमड़-घुमड़ अनुभव करे। इस आध्यात्मिकता और दर्शनिकता का सराहनीय पक्ष यह है कि कोई मुलम्मा चढ़ाए बिना, अलंकार और रस की चाशनी में डुबोए बिना, कवि जो देखता है, कवि जो सोचता है, वही लिखता है।

यद्यपि कवि ने संग्रह को ’मैं कविता नहीं करता’ शीर्षक दिया है तथापि अनेक स्थानों पर भीतर का कवित्व गागर में सागर-सा प्रकट हुआ है।

निरालंब होने हेतु

ढूँढ़ता हूँ अवलंब..!

मानवता के इतिहास के उपलब्ध न होने की दस्तावेज़ी बात कविता में थोड़े से शब्दों में अभिव्यक्त होती है। कुछ पंक्तियों में लघुता से प्रभुता की यात्रा पूर्ण होती है।

इतिहास के लिए

कुछ करना होता है,

…जैसे युद्ध।

बिना युद्ध वालों का ज़िक्र

कहीं मिला तो

युद्ध के कारण ही।

…इसीलिए

मनुष्यता का

कोई इतिहास नहीं है।

बुज़ुर्ग रचनाकार के पास जीवन का विपुल अनुभव है।  यह अनुभव आने वाली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन के रूप में कविता में स्थान पाता है। कुछ बानगियाँ देखिए-

जिस विगत की उपेक्षा की,

वर्तमान बदलने की इच्छा की,

तो आगत भयावह बन गया,

जो स्वयं नहीं किया कभी,

औरों के  लिए  उद्देश्य बन गया।

अस्तित्व जिस रूप में है,

स्वीकार करो, उपभोग करो,

अपना जीवन सार्थक करो।

अतीत में ही बने रहना,

आदमी का वृद्धत्व है,

कहते गए विद्वान जग में,

आज में जाग बुुद्धत्व है।

यह सूचनाक्रांति का युग है। हर क्षण चारों ओर से मत-मतांतर उँड़ेले जा रहे हैं। अनुभव-संपन्न और प्रबुद्ध होने पर भी दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक है- 

मैं सोचता रहता हूँ कि

मैं, मैं हूँ या एक विचार,

जिसका स्थायित्व नहीं

अस्तित्व नहीं,

पता नहीं कब बन जाती है

विचारों की दुनिया,..मेरी दुनिया,

जहाँ विचार ही होते हैं

पर मैं कहीं नहीं होता।

पूरे संग्रह में आम नागरिक का प्रतिनिधि बनकर उभरा है कवि। आम नागरिक, जिसकी बड़ी आकांक्षाएँ नहीं हैं। आम नागरिक, जो बोलता कम है, लेकिन समझता सब है। आम नागरिक, जिसके लिए उसका राष्ट्र और राष्ट्र के प्रति प्रेम अहम बिंदु हैं (संदर्भ-भारत माता, 26 जनवरी, देशप्रेम व अन्य कविताएँ)। आम नागरिक जिसे रामराज्य चाहिए, माता जानकी का निर्वासन नहीं (संदर्भ- ओ अयोध्या वालो!)। आम नागरिक जो जानता है कि राजनीति कैसे सब्ज़बाग दिखाती है। जनता को उपदेश पिलाना और पालन के नाम पर स्वयं, शून्य रहना अब सामान्य बात हो चली है। (संदर्भ- कर्तव्य की वेदी पर)। कवि ने जो भोगा है, जो अनुभव किया है, किसी नामोल्लेख के बिना पद्य में अनेक स्थानों पर उसे संस्मरण-सा लिखा है (संदर्भ-कंधे और कुछ अन्य कविताएँ)।

प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण का ‘कॉमन मैन’ भारत के आम आदमी का प्रतिरूप है। एक वाक्य में कहूँ तो- ‘कॉमन मैन’ की कविताएँ हैं, ‘मैं कविता नहीं करता।’

इस आम आदमी का कहना कि मैं कविता नहीं करता, एक रूप में सही है। उनके शब्द सहज हैं, सरल हैं। इनमें भाव हैं, ये अनुभव से उपजे हैं। ये प्राकृतिक रूप से उमगे हैं, इन्हें  कविता में लिखने का प्रयास नहीं किया गया है।

तथापि इन रचनाओं के शब्द इतने व्यापक और मुखर हैं कि व्यक्तिगत होते हुए भी इनका भावजगत, इनकी ईमानदारी, इन्हें समष्टिगत   कर देती है। तब कहना पड़ता है कि ’यह आदमी करता है कविता।’

कामना है कि कवि डॉ. सत्येंद्र सिंह के इस संग्रह को पाठकों का समुचित समर्थन मिले।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 170 ☆ “नीदरलैंड की लोक कथायें” – प्रस्तुती … डा ॠतु शर्मा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा डा ॠतु शर्मा जी द्वारा प्रस्तुत नीदरलैंड की लोक कथायें पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 171 ☆

“नीदरलैंड की लोक कथायें” – प्रस्तुती … डा ॠतु शर्मा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

नीदरलैंड की लोक कथायें

हिन्दी प्रस्तुति डा ॠतु शर्मा

वंश पब्लिकेशन, रायपुर, भोपाल

पहला संस्करण २०२३

पृष्ठ १०८

मूल्य २५०रु

ISBN 978-81-19395-86-6

☆ लोक कथायें बच्चों के अवचेतन मन में संस्कारों का प्रतिरोपण भी करती हैं  ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

प्रत्येक संस्कृति में लोक कथायें पीढ़ियों से मौखिक रूप से कही जाने वाली कहानियों के रूप में प्रचलन में हैं। सामान्यतः परिवार के बुजुर्ग बच्चों को ये कहानियां सुनाया करते हैं और इस तरह बिना लिखे हुये भी सदियों से जन श्रुति साहित्य की ये कहानियां किंचित सामयिक परिवर्तनो के साथ यथावत चली आ रही है। इन कहानियों के मूल लेखक अज्ञात हैं। किन्तु लोक कथायें सांस्कृतिक परिचय देती हैं। आर्थर की लोक कथाओ को ईमानदारी, वफादारी और जिम्मेदारी के ब्रिटिश मूल्यों को अंग्रेजो की राष्ट्रीय पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। भारत में पंचतंत्र की कहानियां नैतिक शिक्षा की पाठशाला ही हैं, उनसे भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का परिचय भी मिलता है। लोक कथायें बच्चों के अवचेतन मन में संस्कारों का प्रतिरोपण भी करती हैं। समय के साथ एकल परिवारों के चलते लोककथाओ के पीढ़ी दर पीढ़ी पारंपरिक प्रवाह पर विराम लग रहे हैं अतः नये प्रकाशन संसाधनो से उनका विस्तार आवश्यक हो चला है। विभिन्न भाषाओ में अनुवाद का महत्व निर्विवाद है। आज की ग्लोबल विलेज वाली दुनियां में अनुवाद अलग अलग संस्कृतियों को पहचानने के साथ ही सामाजिक सद्भाव के लिए भी महत्वपूर्ण है। अनुवाद ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जिसके जरिये क्षेत्रीयता के संकुचित दायरे टूटते हैं। यूरोपियन देशों में नीदरलैंड्स में फ्रांसीसी, अंग्रेज़ी और जर्मन भी समझी जाती है।

प्रस्तुत पुस्तक नीदरलैंड की लोक कथायें में डा ॠतु शर्मा ने बहुत महत्वपूर्ण कार्य करते हुये छै लोककथायें नीदरलैंड से, दो स्वीडन से, इटली से तथा जर्मनी से एक एक कहानी चुनी। डा ॠतु शर्मा ने कोई लेखकीय नहीं लिखा है। यह स्पष्ट नहीं है कि ये लोककथायें लेखिका ने कहां से ले कर हिन्दी अनुवाद किया है। कहानियों को हिन्दी में बच्चों के लिये सहज सरल भाषा में प्रस्तुत करने में लेखिका को सफलता मिली है। यद्यपि कहानियों को किंचित अधिक विस्तार से कहा गया है। जादुई पोशाक, चांदी का सिक्का, बुद्धू दांनचे, स्वर्ग का उपवन, तिकोनी ठुड्डी वाला राजकुमार, और दो लैंपपोस्ट की प्रेम कहानी नीदर लैंड की कहानियां हैं। जिनके शीर्षक ही बता रहे हैं कि उनमें कल्पना, फैंटेसी, चांदी के सिक्के और लैंप पोस्ट जैंसी जड़ वस्तुओ का मानवीकरण, थोड़ी शिक्षा, थोड़ा कथा तत्व पढ़ने मिलता है। स्वीडन की लोककथायें नन्हीं ईदा के जादुई फूल और रेत वाला कहानीकार हैं। इटली की लोक कहानी तीन सिद्धांत और जर्मन लोक कथा तीन सोने के बाल के हिन्दी रूप पढ़ने मिले।

इस तरह का साहित्य जितना ज्यादा प्रकाशित हो बेहतर है। वंश पब्लिकेशन, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश सहित हिन्दी बैल्ट के राज्यो में अपने नये नये प्रकाशनो के जरिये गरिमामय स्थान अर्जित कर रहा उदयीमान प्रकाशन है। वे उनके सिस्टर कन्सर्न ज्ञानमुद्रा के साथ लेखको के तथा किताबों के परिचय पर किताबें भी निकाल रहे हैँ। मेरी मंगल कामनाये। यह पुस्तक विश्व साहित्य को पढ़ने की दृष्टि से बहुउपयोगी और पठनीय है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “माझे दगडाचे हात” – (काव्य-संग्रह) – कवी : श्री सुधाकर इनामदार ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ “माझे दगडाचे हात” – (काव्य-संग्रह) – कवी : श्री सुधाकर इनामदार ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

पुस्तक           : माझे दगडाचे हात (काव्यसंग्रह) 

कवी             :  श्री सुधाकर इनामदार

संपर्क: 9421122017

मूल्य : रु. 200/_

प्रकाशक: तेजश्री प्रकाशन, कबनूर. 8275638396

परिचय : सुहास रघुनाथ पंडित 

☆ माझे दगडाचे हात : दगडाच्या हातातून पाझरलेली काव्यगंगा ☆

… सांगली जिल्ह्य़ातील आटपाडी तालुका म्हणजे साहित्यिकांची खाणच ! याच तालुक्यातील गोमेवाडीचे कवी श्री. सुधाकर इनामदार यांचा ‘ माझे दगडाचे हात ‘ हा काव्य संग्रह काही महिन्यांपूर्वी सांगलीत प्रकाशित झाला. हा त्यांचा चौथा काव्य संग्रह. उत्तम गझलकार म्हणून तर ते प्रसिद्ध आहेतच. पण या काव्यसंग्रहामुळे त्यांचे गझलेतर काव्य प्रकाशात आले आणि काव्य रसिकांना एक नवे लेणे प्राप्त झाले. त्या लेण्याचे यथाशक्ती दर्शन घडवण्याचा हा प्रयत्न !

कविता काय असते, कवितेची ताकद काय असते हे सांगताना ते पहिल्याच कवितेत म्हणतात की कविता ही विश्वाला व्यापून उरणारी असते. ती मौनाला फुटलेला अक्षरपान्हा असते. करुणा, वेदना, भूक, तृप्ती अशी कवितेची अनेक रुप त्यांना दिसतात. एवढेच नव्हे तर आत्महत्येच्या अविचारापासून परावृत्त करण्याचे सामर्थ्यही कवितेत आहे असा विश्वास त्यांना कवितेबद्दल आहे. त्यामुळेच कुटुंबातील वातावरण काव्य निर्मितीला पोषक नसतानाही त्यांनी कवितेला दूर लोटलं नाही. कारण ज्या कवितेने विठूलाही बांधून ठेवलं आहे तीच कविता आपल्या रक्तातून वाहते आहे, ती दूर करता येणारच नाही याची जाणीव त्यांना सुरुवातीपासूनच झाली आहे. मग हा प्रवास अव्याहतपणे चालू राहीला आणि कवितेच्या हव्यासाने लाभलेली फकिरी ही सुद्धा अमीरी वाटू लागली. कविता गझल, अभंग, ओवी होऊन ह्रृदयातून पाझरु लागली. कधी ती गवतासारखी मुलायम बनली तर कधी तलवारीची धार होऊन तळपू लागली. कवितेच्या सामर्थ्यामुळे कवी इतका सामर्थ्यवान बनला की तो आत्मविश्वासपूर्ण सांगू शकतो की 

“अंथरुनिया समुद्र अवघा

 घेऊन निजलो चंद्र उशाला

 पांघरुनी आकाश घेतले

 पायाशी बसवले तमाला “

कविचा कवितेविषयीचा हा दृष्टीकोन, विश्वास म्हणजे कवीच्या रक्तात कविता किती भिनली आहे याचे द्योतक आहे.

 झाड, पारध, चिमणे यांसारख्या काही रुपकात्मक कवितांतूनही कवीच्या भावना व्यक्त होतात.

सुखासुखी जीवन जगणं कुणाला नको असतं ? पण राजमार्ग सोडून संकटांना सामोरं जाणं ज्याला जमतं त्यालाच जगणं समजतं. वादळवा-याशी टक्कर देत उभं असलेलं झाड म्हणून तर कविला आकर्षित करत नसेल ना ? कविला झाड व्हायचय. ते इतक सोप नसतं हे त्याला माहित आहे. पण तरीही त्याला झाड व्हायचंय. बहरणं असणार तशी पानगळही असणार. पाऊस बरसणार. विजा झेलाव्या लागणार. सावली देऊनही कु-हाडीचे घाव सोसावे लागणार. पण हे सगळ्याला त्याची तयारी आहे. कारण स्वतः मातीखाली मुजून दुस-यासाठी वर फुलून येण्यातली सार्थकता कविला अनुभवायची आहे. कवीचं मातीशी असलेलं नातं कधीच तुटणार नाही हेच यातून स्पष्ट होतय.

‘पारध’ ही कवितेतून कवीने गावरान वातावरण निर्माण करत एक मोलाच इशाराही देऊन ठेवला आहे. रानाची राखण करता करता आपली पारध होणार नाही याची काळजी घ्यायचा सल्ला देताना काळाच्या बेरकेपणाची जाणीव करुन देऊन सर्वांनाच सावध केलं आहे. तरारलेल्या रानाची राखण करताना खडा पहारा तर हवाच पण त्याच रानाची भुरळ पडू देऊ नकोस, गाफील राहू नकोस ही रुपकात्मक भाषा ‘ ऊसाला लागलं कोल्हा ‘ ची आठवण करुन देते. ‘चिमणे ‘ या कवितेतून कवीने चिमणीशी साधलेला संवाद हा सावधानतेचा इशारा देऊन स्त्रीचे बळ वाढवणाराच आहे.

त्यांच्या अनेक कवितांमधून विठूमाऊलीचा उल्लेख आढळतोच. पण काही कविता या भक्तिरसात न्हाऊन निघाल्या आहेत. ’ धाव रे विठ्ठला, तुझा कैवल्याचा मळा ‘ यासारख्या कविता आपल्याला त्यांच्या सश्रद्ध मनाचे दर्शन घडवतात. तरी सुद्धा…..

 “ज्यांच्या तळहाती घट्टे

 आणि भाळावर घाम

 कसा आठवावा त्यांना

 सांज सकाळचा राम “

हा प्रश्न त्यांना पडतोच. या विठुरायाचे गुणगान गाताना ते दुस-या देवाला- देशालाही- विसरत नाहीत.

संतांची, शूरांची भूमी असलेल्या या भूमीचा जयजयकार करुन ते थांबत नाहीत तर वास्तवाचे भान ठेवून सांगतात ” सावध ठेवा सीमा अपुल्या करेल शत्रू मारा “. ही सावधानता डोळस भक्तीची द्योतक आहे.

‘जख्ख दुपारी ‘…. ही कविता म्हणजे एक उत्तम शब्दचित्रच आहे. भर दुपारच्या रखरखराटाचे केलेले वर्णन वाचून कवीच्या निरीक्षण शक्तीचा अंदाज येतो. पोरकी पेठ, सुनामुका माळ, कळसाची सावली, पडलेला वारा यासारखे संदर्भ दुपारच्या तीव्रतेचे नेमके चित्रण करतात. दुपार किती ‘ जख्ख ‘ आहे ते डोळ्यासमोर येते.

कवितेवर प्रेम करणारा असा कोणताच कवी नसेल की ज्याने प्रेमकवीता लिहीली नाही. कवी सुधाकर हेही याला अपवाद नाहीत. तिची उडणारी बट, फडफडणारी ओढणी, तिच्या पैंजणांचा नाद कवीला आकृष्ट करुन घेतातच. पण तिच्या मनाच्या समुद्रात वादळ उठतेय आणि इकडे त्याची ओली सळसळ त्याच्या इंद्रियात होतेय. या सळसळीतून नकळत मुरलीचे सूर झरे लागतात. कृष्ण कृष्ण रहात नाही. राधा राधा रहात नाही. कारण

“मी कृष्ण सावळा होतो

 तू शुभ्र पिठोरी राधा

 मज डसते शुभ्रता आणिक

 तूज डसते सावळबाधा “

अशा एकरुपतेनेच मग तिच्या परिस स्पर्शाने त्याचे लोखंडी ओठही सोन्याचे होऊन जातात. तर कधी तिच्या येण्यानेच डोळ्यांना भाषा सुचते आणि मौनाचे अक्षर होते. ही प्रेमाची किमया त्याची खात्री पटवून देते की तिचं चंद्रकोरी लेणं आपल्या मिठीत लाभलं की आपले दगडाचे हात सुद्धा मेणाचे बनून जातील.

कविता संग्रहातील अनेक कविता कवीच्या चिंतनशील मनाची साक्ष पटवतात. दुःखाकडे पाहण्याचा कविचा दृष्टिकोन काय आहे हे ‘दुःख ‘ या कवितेत व्यक्त झाले आहे. शेवटी कवी म्हणतो…

“पडझडत्या सुखांना 

 दुःख घालते लिंपण 

 दुःख म्हणजे सुखाच्या

 नाकामधली वेसण “

कवीच्या दुःखाविषयीच्या चिंतनातून आलेले हे नेमके शब्द आपल्यालाही विचार करायला लावतात. म. वाल्मिकींच्या महाकाव्यापासून वाहत आलेली ही दुःख सरिता आजच्या काव्यातही जीवंत आहे. पण कवी या दुःखाला कवटाळून न बसता मशाल होऊन दाही दिशा उजळण्याची जिद्द बाळगतो. कवी म्हणतो

“माझ्यातच माझी बीजे

 मी रोज पेरती करतो

 मी काळीज नांगरणारा 

 ह्रृदयाची शेती करतो “

मग असेच कधीतरी

“परसामध्ये स्मृती पेरल्या

 त्याचे होते झाड उगवले

 सुखदुःखाच्या फुलाफळांनी 

 अंगोपांगी पूर्ण लगडले. “

तर कधी कवी अंतर्मुख होऊन पाहतो तेव्हा त्याला स्वतःतील (खरे तर आपल्या सर्वांतील) दोष, दुर्गुण दिसू लागतात आणि कशासाठी जगतोय आपण असे वाटावे इतकी उद्वीग्नता मनात निर्माण होते. मला डोहात नेऊन बुडवा आणि तरंगलो तरी वाचवू नका असे बजावणारी ‘ मला बुडवा डोहात…. ‘ ही कविता सर्वांनी आवर्जून वाचावी अशी आहे. या चिंतनशिलतेमुळेच कवी पुढे एका कवितेत म्हणतो,

“ह्या मौनातील शब्दांच्या

 मी रोज ऐकतो हाका

 श्र्वासांच्या हिंदोळ्यावर 

 मी रोजच घेतो झोका “

आपण कोण आहोत, कसे आहोत याची जाणीव कविला असल्यामुळेच कवी म्हणतो

“मी फक्त धुलीकण आहे

 ह्या संतांच्या पायाचा “

याहून दुसरी थोरवी कविला नको आहे. त्याची इच्छा एवढीच आहे,

“त्या पावन मातीमध्ये

 माझाही शेवट व्हावा

 इतकेच वाटते माझा

 जळण्यातच जन्म सरावा “

दुस-यासाठी जळण्याचे हे बळ संतांच्या, संतसाहित्याच्या शिकवणुकीतूनच मिळाले आहे. त्यामुळे देहाचा आणि आत्म्याचा संवाद चालू आहे असे कवी म्हणू शकतो. माणूस म्हणजे भरवसा नसलेल्या देहाचा दास आहे, त्याचा श्वासही त्याच्या ताब्यात नाही हे संतांनी सांगितलेले तत्वज्ञान कवी सोपे करुन आपल्याला सांगू शकतो ते चिंतनशीलतेमुळेच !

‘पाऊलखुणा ‘ आणि ‘ह्याच अंगणात ‘ या कविता भूतकाळात घेऊन जाणा-या आहेत. धुळीची वाट, आमराई, पाखरे, गायी, गुरे कविला अजूनही खुणावत आहेत. गावाची, घरातल्या अंगणाची आठवण मनात घर करुन बसली आहे. या मातीनेच आपल्याला घडवले आहे याची जाणीव कवीला आहे. तो कृतज्ञतापूर्वक म्हणतो,

“आज सोहळा शब्दांचा जो माझ्या ओठी आला

अंगणातल्या ह्याच मातीने जन्माला घातला “

संग्रहात काही अभंग रचनाही आहेत. तुकोबाची शेती, दळण, लोकोद्धार, जन्माची चाहूल यासारख्या अभंगांतून तुकोबांचे कार्य, प्रपंचाचे चित्रण, वर्तमान स्थिती असे विविध विषय हाताळले आहेत. तर वैरीण होते नीज, विराणी या कवितांतून समाजातील उपेक्षित स्त्रीयांचे दुःख प्रभावीपणे मांडले आहे.

या संग्रहातील कविता वाचताना विषयांची विविधता आहे हे लक्षात येते. तरीही सभोवतालचे जग, परिसर, वर्तमान परिस्थिती या सर्वांकडे कवीचे लक्ष असल्यामुळे सामाजिक आशयाच्या कविता संख्येने जास्त आहेत. जवळ जवळ निम्म्या कविता या सामाजिक जाणिवेतून जन्माला आल्या आहेत. असे असले तरीही प्रत्येक कवितेची मांडणी भिन्न भिन्न असल्यामुळे सर्वच कविता वाचनीय आहेत.

अशा सर्व कवितांचा उल्लेख करण्यापेक्षा काही काव्य पंक्ती पाहिल्या तर कवीच्या मनातील अस्वस्थतेची कल्पना येईल.

… समस्यांचा डोंगर पार करत जगणं हे मुश्किल होऊन गेलं आहे. त्याचे उत्तर मात्र कोणाकडेच नाही. कवी म्हणतो,

 “लाख समस्या लाख प्रश्न 

 त्याचं द्याल का उत्तर

 स्वप्नांवरती आश्वासनांच

 शिंपडू नका अत्तर “

तुटणारी नाती पाहून तो अस्वस्थ होतो….

” घरांस आले कुंपण आणिक

 बंद जाहली दारे

 चार भिंतीच्या विश्व आतले

 आम्हा वाटे प्यारे “

माणसाचे माणूसपण संपत चालले आहे हे पाहून कवी लिहीतो,

“मज नख्या सुळे फुटल्याने

 मी क्रूर भयानक झालो

 मी मनुष्य असलेल्याचे 

 नुसतेच कथानक झालो. “

चांगुलपणाची होणारी अवहेलना पाहून कवी लिहितो……

“इथला प्रत्येक चांगला माणूस

 मेल्यावरती संत झालाय “

 

”जितके झेंडे तितक्या जाती “

ही वस्तुस्थिती आहे.

 

 ” सत्तेमधुनी मिळतो पैसा

 सत्तेवरती टोळ्या जगती

 लाल फितीचे नाल ठोकले

 फक्त कागदी घोडे झुलती “

किंवा 

 “जन्माच्या सगळ्या वाटा

 मरणाने मिंध्या केल्या

 हे दलाल आले ज्यांनी

 मातीच्या चिंध्या केल्या “

हे शब्द दाहक सत्य प्रभावीपणे मांडत नाहीत काय ?

अशा अनेक काव्यपंक्ती उद्धृत करता येतील ज्यातून कवीने समाजाचे वास्तव चित्रण नेमकेपणाने केले आहे. असत्य, दांभिकपणा, नीतीहीनता, भ्रष्टाचार यांनी समाज पोखरून निघाला आहे. सत्ता आणि संपत्ती यांचे साटेलोटे असल्यामुळे मूल्यहीन जीवनपद्धती फोफावत चालली आहे. आपल्या कवितांमधून कवीने हे स्पष्टपणे मांडले आहे.

कोणतेही पुस्तक म्हटले की प्रस्तावना आलीच. पण या कवितासंग्रहात मात्र स्वतः कविनेच कवितेआधीचा संवाद साधला आहे. हा संवाद ‘ऐकल्याशिवाय ‘ म्हणजेच वाचल्याशिवाय पुढे जाणे योग्य ठरणार नाही. कारण कवितेकडे प्रथमपासूनच अत्यंत गंभीरपणे पाहिले असल्यामुळे कवीची कवितेविषयीची भूमिका काय आहे, कविता निर्मिती मागची प्रेरणा काय आहे या प्रश्नांची उत्तरे या संवादात मिळतात. त्यामुळे पुढे कवीच्या रचना वाचताना प्रत्येक कवितेमागची भावना समजून घेणे सोपे जाते. या संवादात कवीने स्वतःचे अंतरंग उघडे करताना अनेक ठिकाणी, नकळतपणे, काव्य निर्मितीविषयी प्रकट चिंतन केले आहे जे सर्वांनाच मार्गदर्शक ठरणारे आहे. स्वतःचा खरा चेहरा असणारी कविता कशी आकारत जाते हे समजू शकते किंवा कवितेच्या आकृतीबंधाचे त्यांनी केलेले विश्लेषण वाचनीय आहे. स्वतःच्या अनुभवातून लक्षात आलेल्या काव्य निर्मितीच्या प्रमुख जागा त्यांनी दाखवून दिल्या आहेत. काव्यगंगेच्या एवढे खोलीपर्यंत शिरुनही ते नम्रपणे म्हणतात मी काव्य-वारीचा एक साधा पाईक आहे. काव्याच्या पेशी रक्तात भिनलेल्या असल्यामुळेच ते म्हणतात

 ” ह्या नव्हेत नुसत्या कविता

 आत्माचे लेणे आहे “

फत्तरांनी गीत गावं त्याप्रमाणे दगडाच्या हातांनी कोरलेलं हे आत्म्याचं काव्यलेणं डोळे भरुन पहायला नव्हे वाचायलाच हवं. अशीच दुर्मिळ काव्यलेणी यापुढेही त्यांच्या हातून कोरली जावोत हीच सदिच्छा !

पुस्तक परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मीराबाई से वार्तालाप — लेखिका- सुश्री रीटा शहाणी ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 16 ?

?मीराबाई से वार्तालाप — लेखिका- सुश्री रीटा शहाणी ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- मीराबाई से वार्तालाप

विधा- लघु उपन्यास

लेखिका- रीटा शहाणी

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? नींद उड़ानेवाली स्वप्नयात्रा  श्री संजय भारद्वाज ?

‘मीराबाई से वार्तालाप’, लेखिका रीटा शहाणी का अपने प्रतिबिंब से संवाद है। शीशमहल में दिखते जिस प्रतिबिंब की बात उन्होंने की है, वह शीशमहल लेखिका के भीतर भी कहीं न कहीं बसा है। अंतर इतना है कि कथा का शीशमहल जीव को प्राण देने के लिए विवश कर देता है जबकि लेखिका के भीतर का शीशमहल नित नए प्रतिबिंबों एवं नए प्रश्नों को जन्म देता है। अपने आप से संघर्ष को उकसाता है, चिंतन को विस्तार देता है। ये सार्थक संघर्ष है।

वस्तुतः इस वार्तालाप को स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का संवाद भी कहा जा सकता है। नायिका का एक रूप वो है जो वह है, दूसरा वो जो वह होना चाहती हैं। यह स्वप्नयात्रा हो सकती है पर नींद मेें तय की जानेवाली नहीं, बल्कि ऐसी स्वप्नयात्रा जो लेखिका को सोने नहीं देती।

भारतीय समाज में अध्यात्म की जड़ें बहुत गहरी हैं। हमारे आध्यात्मिक चिंतन में अचेतन के चित्र और अवचेतन की धारणा भीतर तक बसी है। ये चित्र और धारणाएँ शाश्वत हैं। लेखिका की मीरा, ललिता गोपी से मीरा तक की यात्रा तो करती ही है, यात्रा के उत्कर्ष में लेखिका तक भी पहुँचती है। सूक्ष्म और स्थूल का मिलन कथा की प्राणवायु है। अवचेतन के सनातन का वर्तमान से एकाकार हो जाता है। यह एकाकार, इहलोक की तमाम चौखटों की परिधि से अधिक विस्तृत है।

अपनी यात्रा को लेखिका संवाद की शैली के साथ-साथ चिंतन-मनन एवं विश्लेषण से जोड़कर रखती हैं। कहीं पात्रों के वार्तालाप से और अधिकांश स्थानों पर सपाटबयानी से वे अपने चिंतन को पाठकों के आगे ज्यों का त्यों रखती हैं।

स्वाभाविक है कि पूरी यात्रा में लेखिका, पथिक की भूमिका में हैं। पथिक होने के खतरों से वे भली-भाँति परिचित हैं। इसलिए लिखती हैं, ‘ यह जानना भी आवश्यक है कि उस रास्ते की मंज़िल कौनसी होगी, अंतिम पड़ाव क्या होगा। उसे पता है कि अपना एक पग उठाने से धरती का एक अंश छोड़ना पड़ता है। पैर उठाने से धरती तो छूट जाएगी और पुन: नई धरती पर पाँव धरना पड़ेगा। कुछ प्राप्त होगा, कुछ खोना पड़ेगा।’

यात्रा में पड़ने वाले संभावित अंधेरों से चिंतित होने के बजाय वे इसे सुअवसर के रूप में लेती हैं। कहती हैं, ‘यदि देखा जाए तो हर वस्तु का जन्म अंधेरे में ही होता है, प्रात: के उजाले में नहीं। बीज अंकुरित होते हैं धरती की कोख की अंधेरी दरारों में।’

जो कुछ भौतिक रूप से पाया, वह स्थायी नहीं हो सकता, इसका भान भी है। ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं, ‘किसी प्रकार का भी आनंद अधिक काल तक नहीं टिकता। अत: वह सही अर्थ में आनंद है ही नहीं। वह तो केवल मृग- कस्तूरी का खेल है जिसकी प्रतिध्वनि हमें अन्य वस्तुओं में सुनाई पड़ती है।’

वे कृष्ण की अनुयायी हैं। अतः सिद्धांतों से परे वे कर्म में विश्वास करती हैं। जीवन को ‘लीला’-सा विस्तार देना चाहती हैं। फलतः शब्द बोलते हैं, ‘कृष्ण ने अपने को सिद्धांतों के बंधनों से मुक्त रखा है । उसने कोई रेखा नहीं खींची है। परिणामस्वरूप उसके जीवन को लीला कहा जाता है।’

लेखिका अपनी यात्रा में दीवानगी के आलम की शुरुआत ढूँढ़ती हैं। इस शुरुआत का दर्शन और तार्किक विश्लेषण देखिए, ‘पर्दा हमने खुद डाला है, अत: हमें ही हटाना है। वह पट बाह्य नेत्रों पर नहीं है । वह है हमारी आन्तरिक चक्षुओं पर। हम उसको हटाने की शक्ति रखते हैं। एक बार घूँघट हट गया तो दीवानगी का आलम आरंभ होता है।’

दीवानगी के चरम का सागर लेखिका ने अपनी गागर में समेटने का प्रयास किया है। उनकी गागर भी मीरा की गागर की भाँति तरह-तरह के भाव एवं भावनाओं से लबालब है। ‘तारी’, ‘बैत’, ‘सुर्त चढ़ना’ जैसे सिंधी शब्दों का प्रयोग हिंदी पाठकों को नया आनंदमयी विस्तार देता है। सिंधी आंचलिकता गागर के जल को सौंधी महक व मिठास देती है।

लेखिका परम आनंद की अनुभूति के साथ यात्रा के उत्कर्ष तक पहुँचना चाहती हैं। इसलिए टहनी के दृष्टांत की भाँति स्वयं को सागर को समर्पित कर देती हैं, ‘टहनी आनंदित थी, प्रफुल्लित थी। उसे कोई भी चिंता न थी क्योंकि उसने खुद को लहरों के हवाले  कर दिया था।’

इस आनंदमयी यात्रा का पथिक होने के लिए समर्पण या दीवानगी पाठकों से भी अपेक्षित है-

अक्ल के मदरसे से उठ, इश्क के मयकदे में आ।

जामे पयामें बेखुदी हम नेे पिया, जो हो सो हो।

निराकार प्रेम के इस साकार शब्दविश्व में पाठक अनोखी अनुभूति से गुजरेगा, इसका विश्वास है। लेखिका को बधाई।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘लोग भूल जाते हैं’ – श्री कमलेश भारतीय ☆ समीक्षक – सुश्री सीमा जैन ☆

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘लोग भूल जाते हैं’ – श्री कमलेश भारतीय ☆ समीक्षक – सुश्री सीमा जैन ☆

पुस्तक: लोग भूल जाते हैं

लेखक: कमलेश भारतीय

प्रकाशक: न्यूवर्ल्ड पब्लिकेशन्स 

पृष्ठ संख्या : 88 

मूल्य: 213/- रुपये

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

कमलेश भारतीय जी हिन्दी पत्रकारिता व साहित्य जगत के जाने माने हस्ताक्षर हैं। लेकिन साहित्य के क्षेत्र में वह अधिकतर कथा और लघु कथा के क्षेत्र में अपना लोहा मनवाते रहे थे। यदा कदा उनकी कविताएं भी पढ़ने को मिलती रहीं जो कि बहुत दमदार होतीं थीं। “लोग भूल जाते हैं” उनका पहला काव्य संग्रह है जिसे उन्होंने अपने मित्रों की आग्रह पर छपवाया है। इस संग्रह की 56 कविताएं बहुत ही प्रभावशाली हैं।

यह कविताएँ कवि की परिपक्व सोच और जीवन के अनुभवों का निचोड़ होने के साथ-साथ एक सहज अभिव्यक्ति करती हुयी भी दिखाई देती है। बदलती जीवन शैली और उसकी विषमताओं में घिरे हुए कवि का अपने गांव, उसकी पगडंडियों और उसकी मिट्टी की खुशबू के प्रति आकर्षण भी दिखाई देता है। इसकी झलक मिलती है “महानगर, कुछ क्षणिकाएँ” तथा “देर गए जब चांदनी रात में” जैसी कविताओं में !

“गांव तक जाने वाली पगडंडियां/ सब सड़क बन गयीं/ और सादगी बुहार कर फेंक दी/ कैसे लौटाऊँ/ अपना वह भोला सा, मासूम सा/गांव…?”

या फिर देखिए यह क्षणिका:

“गांव ने उलाहना दिया/ महानगर के नाम/ मेरे सपूत छीन लिए/ दिखा मृगतृष्णा की छांव”

कुछ कविताएं पिता को समर्पित हैं जैसे कि संग्रह की पहली कविता “जादूगर नहीं थे पिता” जिसमें कवि कहता है:

“जादूगर नहीं थे पिता/पर किसी बड़े जादूगर से कम भी नहीं थे!/ सुबह घर से निकलते समय/ हम जो जो फरमाइशें करते/ शाम को आते ही/ अपने थैले से सबको मनपसंद चीज हंस-हंसकर सौंपते जाते!/ जैसे कोई जादूगर का थैला हो/ और उसमें से कुछ भी निकाला जा सकता हो!/

पिता बन जाने पर/ समझ में आया कि जादूगर की हंसी के पीछे/ कितनी पीड़ा छिपी होती है। “

इसी प्रकार कविता “पिता को याद करते हुए” में कवि बचपन में ही पिता को खो देने के अवसाद का बड़ा भावुकता से वर्णन करता है और कहता है:

मेरे सपने में जब भी आप आते हो/ मैं यही विनती करता हूं/लौट आओ ना पिता/मुझे मेरा बचपन दे दो/आप थे तो बचपन था… अब आप नहीं हो/ तो बचपन कहां?”

संग्रह की अनेकों रचनाओं में हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन के अनेक पहलुओं पर कवि का दृष्टिकोण खुलकर हमारे सामने आता है! इनमें से कुछ कविताएं संग्रह की बेहतरीन कविताएँ हैं, ऐसा निस्संकोच कहा जा सकता है। इस क्रम में “राजा को क्या पसंद है, ” “आजकल हर रोज सुबह, ” “जनता बनाम रोटी, ” “संपादक के नाम, ” “अपनी आवाज डूबने से पहले, ” “वाह बापू, ” “न जाने कब” जैसी कविताओं का उल्लेख किया जा सकता है। इस श्रेणी की कविताओं में अक्सर कवि व्यंग्यात्मक शैली अपना कर अपनी बात रखता है। उदाहरण के तौर पर यह पंक्तियां देखिए:

“संपादक जी, इक बात कहूं/ बुरा तो नहीं मानोगे जी/आपका अखबार स्याही से नहीं/ लहू से छपता है जी/ कहीं गोली ना चले/ बम ना फटे आगजनी ना हो/ तब आप क्या करेंगे जी?”

इसी प्रकार कविता “न जाने कब” में कवि पंजाब में आतंकवाद के दिनों में एक आम व्यक्ति की स्थिति को इस प्रकार अभिव्यक्त करता है:

“न जाने कब, कहां/ किस मोड़ पर/ मेरी लाश बिछा दी जाएगी/ आप चौंकिए नहीं/मेरी किसी से कोई दुश्मनी नहीं! पर सड़क के एक किनारे/ त्रिशूल/ और दूसरे किनारे तलवार/ मेरी इंतजार में हैं!/ ना जाने कब, क्यों/ त्रिशूल या तलवार/ मेरी दुश्मन हो जाए। “

इसी प्रकार कविता “वाह बापू”में आज के नेताओं पर कटाक्ष करते हुए कवि कहता है:

वाह बापू/क्या मंत्र दिया नेताओं को/ वे कुछ भी बुरा नहीं देखते/ कहीं ट्रक से कुचल कर/ सबूत मिटाने की कोशिश/ या फिर कोमल सी लड़की से/ लगातार यौन शोषण/ वे कुछ भी नहीं देखते/ सचमुच पुलिस, है मूकदर्शक/ और कोर्ट है बंधे हाथ/ वे कुछ भी नहीं सुनते/ चाहे कितने ही प्रदर्शन कर लो/ या फिर कितनी ही मोमबत्तियां जला लो/ वे बिल्कुल नहीं पिघलते”

इसी प्रकार संग्रह की कुछ कविताएं कवि के अपने दायित्व के बारे में हैं जिन में कवि अपने दोस्तों से कहता है कि वह उसे जगाए रखें ताकि वह अपने दायित्व से विमुख न हो! कविता “साहित्यकार की वसीयत में” वह एक साहित्यकार की संघर्षपूर्ण परिस्थितियों का इन पंक्तियों में बखूबी वर्णन करता है:

मेरे शव पर एक भी फूल ना चढ़े/ ध्यान रखना मेरे दोस्त!/ मैंने फूलों के लिए नहीं/ सिर्फ कांटों की चुभन के लिए जन्म लिया था/ ना थैलियां भेंट करना मेरी पीढियों को/ थैलियां किसी काम की नहीं/ मैं जीवन भर कर्ज़ तले दबा/ कराहता रहा और सिसकता रहा”

इसी प्रकार एक छोटी कविता में कवि कहता है:

मेरे काले दिनों के/ संघर्ष के साथी/ मुझे जगाए रखना!/ मैं सच का साथ देना बंद करने लगूँ/ या अन्याय के खिलाफ आवाज/ ना उठा सकूं/ तुम मुझे जगाए रखना/ ताकि मैं संघर्ष करता रहूं/ और काली शक्तियों के खिलाफ/ लड़ता रहूं। “

कवि के दायित्व को प्रखरता से रखती हुई एक और रचना है “मेरी कविता” जिसमें कवि कहता है:

“मेरी कविता/ जरा होशियार रहना/बदलते वक्त से/ कहीं ऐसा ना हो कि/ शब्द हो जाएं चापलूस/ और तुम किसी बड़े सेठ की/ खुशी के लिए/ छोड़ दे विरोध/ बन जाए गलत राह की हमसफर…”

संग्रह की कुछ अन्य कविताएं कवि की गहन संवेदनशीलता की परिचायक हैं जैसे कि किताबें नामक यह रचना जिसमें कवि किताबों के प्रति अपना प्रेम इस प्रकार व्यक्त करता है:

किताबें/ मुझे प्रेमिकाओं जैसी लगती हैं/ जिन दिनों बहुत उदास होता हूं/ ये मेरे पास आती हैं/ और मुझे गले से लगा लेती हैं!”

“डायरी के बहाने” कविता में कवि डायरी में लिखे नाम और पतों को देखकर उससे जुड़े लोगों को याद करता है तो कविता “बसंत” में अपने आसपास पसरी अव्यवस्थाओं और समस्याओं की बात करते हुए बसंत की सार्थकता की कामना करता है:

बसंत तुम आए हो/पर मैं तुम्हारे फूलों का/ क्या करूं?/ मेरी तो हर गली उदास है!/ कहीं कर्फ्यू तो कहीं आग लगी है/ बसंत मेरे नन्हे मुन्ने के होठों पर/ मुस्कान खिला दो/ जरा मेरे शहरों से कर्फ्यू तो हटा दो। / जरा मेरी गलियों में/ रौनक तो लौटा दो। “

संग्रह की अंतिम कविता “कपोतों की व्यथा” भी अत्यंत सटीक है जिसमें कवि शांति सद्भावना के प्रतीक स्वरूप नेताजी के कर कमल से खुले आकाश में छोड़े गए दो श्वेत कपोतों के बारे में जानना चाहता है कि यह बेचारे श्वेत कपोत कब तक पिंजरे में बंद रखे गए? और अंत में व्यंग्यात्मक शैली में कवि कहता है:

पिंजरे में बंद करने/और खुला छोड़ने वाले हाथ/ सच कहूं?/ मुझे बिल्कुल एक ही लगे। “

कुल मिलाकर एक बहुत ही प्रभावशाली और सशक्त काव्य संग्रह के लिए कमलेश भारतीय जी बधाई के पात्र हैं। आशा है कि वह कहानियों के साथ साथ अपना काव्य लेखन भी इसी तरह जारी रखेंगे और जल्द ही अपने एक और काव्य संग्रह से हिंदी साहित्य जगत को समृद्ध करेंगे।

समीक्षक – सुश्री सीमा जैन 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – अंजुरी (काव्य-संग्रह)– पुष्पा गुजराथी ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 14 ?

?अंजुरी (काव्य-संग्रह)– पुष्पा गुजराथी  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- अंजुरी 

विधा- कविता

कवयित्री – पुष्पा गुजराथी 

? ढलती दुपहरी की अंजुरी में ओस की बूँदें  श्री संजय भारद्वाज ?

माना जाता है कि कविता लिखना संतान को जन्म देने जैसा है। तथापि निजी अनुभव प्रायः कहता है कि कविता संतान की नहीं अपितु माँ की भूमिका में होती है। कवि, कविता को चलना सिखा नहीं सकता बल्कि उसे स्वयं कविता की उंगली पकड़ कर चलना होता है। एक बार उंगली थाम ली तो अंजुरी खुद-ब-खुद संवेदना की तरल अभिव्यक्ति से भर जाती है। पुष्पा गुजराथी की अनुभूति ने कविता की उंगली इतने अपनत्व से थामी है कि उनकी अंजुरी की अभिव्यक्ति नवयौवना नदी-सी श्वेत लहरियों वाला वस्त्र पहने झिलमिल-झिलमिल करती दिखती है।

पुष्पा गुजराथी की कविताओं के ये पन्ने भर नहीं बल्कि उनके मन की परतों पर लिखे भावानुभवों के संग्रहित दस्तावेज़ हैं। कवयित्री ने हर कविता लिखने से पहले संवेदना के स्तर पर उसे जिया है। यही कारण है कि उनकी कविता स्पंदित करती है। यह स्पंदन इन दस्तावेज़ों की सबसे बड़ी विशेषता और सफलता है।

ओशो दर्शन कहता है कि उद्गम से आगे की यात्रा धारा है जबकि उद्गम की ओर लौटने के लिए राधा होना पड़ता है। पुष्पा गुजराथी इन कविताओं में धारा और राधा, दोनों रूपों में एक साथ प्रवाहित होती दिखती हैं। ये कविताएँ कभी अतीत की केंचुली उतारकर जीवन का वसंतोत्सव मनाना चाहती हैं तो कभी अतीत के सुर्ख़ गुलाब की पंखुड़ियाँ सहेज कर रख लेती हैं। कभी धूप और बरखा के मिलन से उपजा  इंद्रधनुषी रंग वापस लौटा लाना चाहती हैं तो कभी यादों को यंत्रणाओं की शृंखलाओं-सा सिलसिला मानकर स्वयं को थरथराती दीपशिखा घोषित कर देती हैं। कवयित्री कभी सरसराती हवा के परों पर सवार हो जाती हैं तो कभी हौले से आकाश से नीचे उतर आती हैं, यह जानकर कि आकाश में घर तो बनता नहीं।

पुष्या गुजराथी की ‘अंजुरी’ को खुलने के लिए जीवन की ढलती दुपहरी तक प्रतीक्षा क्यों करनी पड़ी, यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय है।  आश्चर्य से अधिक सुखद बात यह है कि ढलती दुपहरी में खुली अंजुरी में भी ओस की बूँदे ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं। यह बूँदें उतनी ही ताज़ा, चमकदार और स्निग्ध हैं जितनी भोर के समय होती हैं।

कच्चे गर्भ-सी रेशमी यह नन्हीं ‘अंजुरी’ पाठक के मन के दरवाज़े पर हौले से थाप देती है, मन की काँच-सी पगडंडियों पर अपने पदचिह्न छाप देती है। पाठक मंत्रमुग्ध होकर कविता के कानों में गुनगुनाने लगता है- ‘आगतम्, स्वागतम्, सुस्वागतम् ।’

हिंदी साहित्य में पुष्या गुजराथी की सृजनधर्मिता का स्वागत है। वे निरंतर चलती रहें –

जागो !

उठो चलो।

चलते ही रहो,

चलना ही तुम्हारी मंज़िल है,

अगर रुके तो ख़त्म !

हर एक के हिस्से में आता है,

दर्द अपना-अपना,

किसी के हिस्से चलने का !

किसी के हिस्से रुकने का !

कवयित्री को ढेरों शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “त्तोत्तो चान” – लेखिका – तेत्सुको कुरोयानागी ☆ समीक्षा – डॉ गुलाब चंद पटेल ☆

डॉ गुलाब चंद पटेल

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “त्तोत्तो चान” – लेखिका – तेत्सुको कुरोयानागी ☆ समीक्षा – डॉ गुलाब चंद पटेल ☆

पुस्तक – त्तोत्तो चान

लेखिका – तेत्सुको कुरोयानागी

अनुवाद – सुश्री पूरवा याज्ञिक कुशवाहा

चित्र – चिहीरो इवसाकी

पृष्ठ संख्या – 140 

मूल्य – रु 140 

प्रकाशक – राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत

ISBN-10 ‏ : ‎ 8123717601

ISBN-13 ‏ : ‎ 978-8123717609

42 साल पहले 1887 में लिखी गई एक किताब है। त्तोत्तो चान एक जापानी लड़की का नाम है। यह किताब बच्चों के दिमाग पर अंकित अनुभवों के बारे में है। यह एक संस्मरण है चैन को कई स्कूल बदलने पड़े, इसने दुनिया भर के माता-पिता को यह दृष्टिकोण दिया है कि आप अपने बच्चे को कैसे शिक्षित कर सकते हैं। इस पुस्तक में केवल अनुभव दिखाए गए हैं।

परिचय में बहुत सारी बातें लिखी हैं, स्कूल के बारे में, प्रिंसिपल के बारे में, किताब के बारे में अनुभव लिखे हैं, स्कूल के शिक्षक कहते हैं कि “तुम बहुत छोटी लड़की हो।” टोटो चान ना की 1981 में 19 लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। 2003 में 65 लाख किताबें बिक चुकी हैं। कई भाषाओं के विशेषज्ञ पत्रकार रमन सोम ने यह किताब गुजराती में लिखी है। 2004 तक 6 आयोजन हो चुके हैं।

यह पुस्तक बच्चे , माता-पिता पढ़ सकते हैं। इस लड़की का कक्षा में व्यवहार अच्छा नहीं था इसलिए उसे अनुत्तीर्ण कर दिया गया।

उनका एडमिशन पहली कक्षा में ही रद्द कर दिया गया था. शिक्षिका ने उसकी मां से शिकायत की। वह टोटो चान को दूसरे स्कूल में ले गई। क्लास माशियान ट्रेन के कोच में थी। उसकी मां ने

त्तोत्तो चान को स्कूल में छोड़ा और साथ में बातें करने चली गईं चार घंटे तक उस लड़की से। फिर चैन ने इस स्कूल में पढ़ने का फैसला किया। चार घंटे बाद हेडमास्टर ने पूछा कि अब तुम्हारे पास कहने को कुछ नहीं है । तो चैन को यह शिक्षक बहुत पसंद आया। अंत में वह कहता है कि हमें ऐसी शैली ढूंढनी चाहिए जो बच्चे के मन को भाए। प्रधानाध्यापक ने इस पुस्तक में थोड़ा सा समुद्र से और थोड़ा पहाड़ से पढ़ने की सलाह दी प्रिंसिपल. टीचर और कुत्ता चार अक्षर हैं. स्कूल का नाम था ट्रेन का डिब्बा. उसने एक लड़की की फ्रॉक पसंद की. यहां टीचर का पढ़ाने का तरीका अलग था रुचि । उसके मन के बारे में सोचने के लिए। टॉमोय स्कूल की खासियत यह थी कि इस स्कूल में ऐसे शिक्षक का चयन किया जाता है जो बच्चे के साथ खेल सके। जेन को लड़के और लड़कियों को अलग रखने का डर होता है। एक यादगार दिन पर वह आपके सामने बिना कपड़े पहने आती थीं। बच्चों को अपनी शारीरिक संरचना की कोई समझ नहीं होती वहाँ।

हम बच्चों को इस तरह से बड़ा नहीं कर सकते कि वे शरीर की संरचना के बारे में सीख सकें जिसका उपयोग बच्चों और वयस्कों को करना होगा सीखता है. विश्व युद्ध के दौरान भोजन उपलब्ध नहीं था. तोता चान के पिता वायलिन पर युद्ध मंत्र बजाते हैं , और उन्हें ढेर सारी चीनी और चाय का नाश्ता मिलता है। मैं इस प्रकार का संगीत बजाता हूँ।

हम बच्चों को इस तरह से बड़ा नहीं कर सकते कि वे शरीर की संरचना के बारे में सीख सकें जिसका उपयोग बच्चों और वयस्कों को करना होगा सीखता है. विश्व युद्ध के दौरान भोजन उपलब्ध नहीं था. तोता चान के पिता वायलिन पर युद्ध मंत्र बजाते हैं, और उन्हें ढेर सारी चीनी और चाय का नाश्ता मिलता है। मैं इस प्रकार का संगीत बजाता हूँ।

यह पुस्तक पीटीसी के अध्ययन क्रम में बताई गई थी। यह पुस्तक पढ़ने लायक है। इस पुस्तक की नायिका को आज तेत्सुको कुरोया नेगी के नाम से जाना जाता है। यह पुस्तक जापान की उत्कृष्ट शिक्षा प्रणाली का एक संस्मरण है। इस पुस्तक का अनुवाद इस पुस्तक के लेखक रमन भाई सोनी ने किया है एक प्रसिद्ध टी.वी. टेटसुको कुरोया एक कलाकार, अभिनेत्री, ओपेरा गायिका और यूनिसेफ सद्भावना राजदूत हैं। उनके पास एक छोटी लड़की के रूप में अपने स्कूली जीवन की कई यादें हैं और उन्होंने इसे उपाख्यानों और सच्ची कहानियों के रूप में प्रस्तुत किया है 26 भाषाओं में अनुवाद किया गया।

यह ट्रेन के डिब्बे में चलने वाले टोमो स्कूल के बारे में है। यह लड़की उछल-कूद कर एक जगह बैठने वाली लड़की नहीं थी। स्कूल की प्रिंसिपल कोबा याशी ने संतुलित आहार सिखाया वह खाना शुरू करती है, गाना गाती है, भगवान से कहती है, हे भगवान, मैं तुम्हें धन्यवाद देती हूं।

चार घंटे तक त्तोत्तो की बकबक सुनने के बावजूद उसे उबासी तक नहीं आई. टेटसुको लिखते हैं कि जिंदगी में पहली बार उनकी मुलाकात किसी अच्छे इंसान से हुई है.

© डॉ गुलाब चंद पटेल 

कवि लेखक अनुवादक

अध्यक्ष महात्मा गांधी साहित्य सेवा संस्था गुजरात Mo 8849794377 <[email protected]>  <[email protected]>

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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