हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 98 – साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक) ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका  पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  म प्र साहित्य अकादमी के मासिक प्रकाशन  “साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक)” – की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक)

अंक ४८५..४८६ संयुक्तांक नवम्बर दिसम्बर

म प्र साहित्य अकादमी का मासिक प्रकाशन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 98 – साक्षात्कार (बाल साहित्य विशेषांक) ☆ 

साक्षात्कार का संभवतः पहला प्रयास है , अंक ४८५..४८६ संयुक्तांक नवम्बर दिसम्बर २०२० जो बाल साहित्य पर केंद्रित है, तथा इतनी महत्वपूर्ण शोध सामग्री बाल साहित्य की उपयोगिता, लेखन, बच्चों के लिये साहित्य लेखन में नवाचार, वैज्ञानिक दृष्टि, सकारात्मकभावनाओ का विकास जैसे बहुविध विषय समेटे हुये है.

३०० पृष्ठो से ज्यादा की विशद सामग्री निश्चित ही शोधार्थियो हेतु  संग्रहणीय है. यह निर्विवाद है कि बच्चो के कोरे मन पर बाल साहित्य वह पटकथा लिखता है, जो भविष्य में उनका व्यक्तित्व व चरित्र गढ़ता ह . बच्चो को विशेष रूप से गीत तथा कहानियां व नाटिकायें अधिक पसंद आती हैं. बाल साहित्य रचने के लिये बड़े से बड़े लेखक को बाल मनोविज्ञान को समझते हुये बच्चे के मानसिक स्तर पर उतर कर ही लिखना पड़ता है तभी वह रचना बाल उपयोगी बन पाती है.

हिन्दी में जितना कार्य बाल साहित्य पर आवश्यक है उससे बहुत कम मौलिक नया कार्य हो रहा है, पीढ़ीयो से वे ही बाल गीत पाठ्य पुस्तको में चले आ रहे हैं, जबकि वैज्ञानिक सामाजिक परिवर्तनो के साथ नई पीढ़ी का परिवेश बदलता जा रहा है.  

बाल कवितायें जहां जीवन पर्यंत स्मरण में रहती हैं व किंकर्तव्यविमूढ़ स्थोति में पथ प्रदर्शन करती हैं वहीं बचपन में पढ़ी गई कहानियां अवचेतन में ही व्यक्तित्व बनाती हैं. बाल कथा के नायक बच्चे के संस्कार गढ़ते हैं.

मैं इस अंक के साठ से अधिक लेखको को और उन सब को साक्षात्कार के एकल मंच पर सारगर्भित तरीके से प्रस्तुत करने के लिये संपादक डा विकास दवे जी को हृदय से शुभकामनायें देता हूँ व इस महती कार्य के लिये आभार व्यक्त करता हूँ.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘रुद्र्देहा’ ☆ श्रीमती प्रतिमा अखिलेश एवं श्री अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’

☆ पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘रुद्र्देहा’ ☆ श्रीमती प्रतिमा अखिलेश एवं श्री अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’ ☆

पुस्तक – रुद्र्देहा

लेखक द्वय – श्रीमती प्रतिमा अखिलेश एवं श्री अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’  

प्रकाशक – उत्कर्ष प्रकाशन, मेरठ (उत्तर प्रदेश) 

मूल्य – 250 रु  

पृष्ठ संख्या –  296

अमेज़न लिंक ==>>  रुद्रदेहा  

यह उपन्यास और मन की बात… श्रीमती प्रतिमा अखिलेश एवं श्री अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’ 

[मध्य प्रदेश के सिवनी निवासी विद्वान लेखक श्री अखिलेश श्रीवास्तव उर्फ दादूभाई एवं पैनी लेखनी की धनी विख्यात कवयित्री व लेखिका श्रीमती प्रतिमा अखिलेश जी द्वारा लिखित युगनायिका नर्मदा की अद्भुत गाथा को इस पुस्तक में बड़े ही रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया गया है जिसके लिए दोनों प्रबुद्ध कलमकारों को साधुवाद…भावुक असरदार भाषा-शैली पुस्तक ‘रुद्रदेहा’ को प्रभावकारी बनाते हैं जो लेखकों को विद्वता की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। मां नर्मदा के विविध सन्दर्भों का गहन अध्ययन मंथन कर इस पुस्तक को लेखनी दी गयी है जिसका भास पाठकों को स्वतः ही हो जायेगा कि पाठक एक बार कथा पढ़ना आरम्भ करे तो पूरी पुस्तक धारा-प्रवाह पढ़ जाये…उसमें डूबता चला जाये।]

नर्मदा! हमारी नर्मदा; प्रबोधिनी नर्मदा; जीवन-तारिणी नर्मदा; विचारों को विराटता देने वाली नर्मदा; संस्कृति और सभ्यता परिवर्द्धनी नर्मदा; शुष्क धरा की आस नर्मदा; प्यासे कंठों का तारल्य नर्मदा; सागर को समृद्ध करने वाली नर्मदा; आश्रयदात्री नर्मदा; वर्षभोग्य आजीविका और भोजन प्रदायिनी नर्मदा; लोकजीवन रक्षक नर्मदा; क्षीरवाहिनी नर्मदा; ग्रंथों, मन्त्रो की प्रणयन स्थली नर्मदा;  उदीयमान सौभाग्य दायिनी नर्मदा; दर्शन मात्र से कल्याणकारी नर्मदा; मेकलसुता नर्मदा; धरा की पवित्र जलधार, मुना, मुरंदला, मुरला, तमसा, मंदाकनी, विपाशा, शिवतनया, रुद्र्देहा, नर्मदा…! नर्मदा… !! नर्मदा…!!! कोटिशः प्रणाम…!!! इन्हीं अर्पित भावों के साथ साकार हूई इस कृति की बात आपसे करता हूँ।

उमारुद्रांगसंभूता नर्मदा! क्या यह शिव तनया है, क्या यह देवी है, क्या यह एक नदी है या कुछ और…? कौन है यह, कहाँ से आई, क्यों रखते हैं लोग इतनी श्रद्धा…? इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक है- ‘आस्था-भाव…!’ जो जिस भाव से देखेगा, चाहेगा वह उसी भाव-से दिखेगी। मान लो तो माता अन्यथा जल राशि, एक नदी। 

नर्मदा समानता का वह उत्स है, जिससे सभी लाभांवित होते हैं। हमारे भाव ही इसे हमारे दृष्टि-सम्मुख, भावानुकूल प्रस्तुत करते हैं, अन्यथा वह स्वयं तो शील-सौरभ की सुगंध बिखेरती, जीवन के भूषण को बाँटती, विद्युल्लता-से चली जा रही है।

वह दिवस अविस्मरणीय है जब मैं और प्रतिमा नर्मदा सेवी अमृतलाल वेगड़ जी (दादा) के निवास पर उनसे भेंट हेतु गए। याद है, चाची जी ने अदरक छीलते हुए सहज भाव-से मुस्कराते हुए कहा था- “तुम दोनों अच्छा लिखते हो; नर्मदा मैया पर भी लिखो।” जिस पर वेगड़ जी ने भी ज़ोर देते हुए कहा- “हाँ! तुम भी नर्मदा-संतान हो तो दो कोई अक्षर भेंट माई को।” हमने कहा, “जी निश्चय कर के निकले हैं, अवश्य कुछ सृजन करेंगे नर्मदा पर, किंतु आशीष वचन तो आपको ही लिखना होगा।” दुःखद! समय ने हमें यह सुअवसर ही नहीं दिया, दादा अनंत की परिक्रमा पर चले गए।

हम ग्वारीघाट माँ नर्मदा के दर्शन हेतु गए। पूजा उपरांत एक दूसरे से पूछा, “क्या माँगा…?” दोनों का उत्तर एक ही था, “माँ हमारी लेखनी को आशीर्वाद दो तुम पर कुछ लिख सकें।”

सिवनी, अपने घर पहुँच के हम इसी विषय पर चर्चा करते रहे, क्या लिखें ? स्वयं से याचित अनुत्तरित प्रश्नों के साथ कुछ दिन और बीते। खुले हृदय-से स्वीकार करते हैं, आस्था को परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता, यह भाव है और आत्मा-से अनुभासित होता है। यह माँ नर्मदा का ही प्रभाव था कि हमें एक साथ नदी की गाथा, कन्या रूप में लिखने का विचार आया। हम विस्मित थे कि एक ही दिन, एक साथ दोनों के मन में समान विचार कैसे आए।

हमने उपन्यास का शुभारंभ किया ही था कि संयोग वश अठारह वर्ष से प्रतिक्षित हमारा वाहन द्वारा नर्मदा-परिक्रमा का कार्यक्रम बन गया। यह परिक्रमा-काल हम पति-पत्नी की लेखनी को अनेक चित्र; कई बिंब दिखा गया जो ‘रुद्रदेहा’ के पृष्ठों में हमारे विचारों के साथ मित्रता कर कथा-अंश बने। जिन साधु-संतों, नर्मदा-भक्तों ने हमारे कल्पनाश्रित उपन्यास के विषय को सुना, वे भाव-विभोर हो उठे परिणामतः हमारे प्रेरणा-द्वार और खुलते गए। इसी प्रेरणा की फलश्रुति है कि इस उपन्यास के पूर्व नर्मदा-परिक्रमा पर हमने एक वृत्त-चित्र भी बनाया जो यू-टयूब पर हमारे ‘कवितालेख’  चेनल पर देखा जा सकता है।

‘रुद्र्देहा’ अर्थात रूद्र-सी पवित्र देह वाली एक ऐसी कन्या की कथा जिसका जन्म देवों के देव महादेव शिव के अंश रूप में हुआ। जल-सिद्धि, औषधीय-ज्ञान, प्रकृति-प्रेम, शस्त्र-ज्ञान, शास्त्र-सामर्थ्य, मानवता, बंधुत्व भावना, प्रेम इस कन्या के भूषण हैं।

यह गाथा है उस काल कि जब सभ्यता की कोंपलें फूट रही थीं; यह गाथा है उस किशोरी शांकरी की जिसे दैवीय सामर्थ्य प्राप्त था, जिसका जीवन पश्चिम-गामिनी जलधार के भौगोलिक स्वरूप-से मेल खाता था; यह  गाथा है उस नर्मदांश की जिसने मानव को आखेट युग-से कृषि-युग की और मोड़ा; यह गाथा है उस ग्रामीण बाला मेकलसुता, मुरला की जो नर्मदा रूप में लोक-कल्याण करती है, साभ्यतिक विकास सुनिश्चित करती है तो दूसरी ओर रण सिद्ध ज्वाला, रुद्रदेहा रूप धारण कर बुराई का अंत व असुरों का संहार करती है।

एक बात पूर्णतः स्पष्ट करना चहूँगा कि न तो यह कृति एतिहासिक ग्रंथ है; न ही शोधग्रंथ और न ही कोई धर्मग्रंथ है। यह मात्र सरल, सीधे, साहित्यिक आनंद के उद्देश्य-से लोक-कथाओं, मान्यताओं, जन-चर्चाओं के साथ हमारे भावों और प्रमुखतः कल्पनाओं का लिखित रूप है अतः सुधि-पाठक किंचित मात्र भी भ्रमित न हों और इसे हमारी आस्थामई कल्पना की फलश्रुति रूप में स्वीकारें।

प्राचीनकाल में सतकर्मी मानवों को अमरत्व प्रदान करने के लिए उनके नाम से प्राकृतिक उपादानो के नाम रखे जाते थे; उदाहणार्थ– ध्रुव के नाम पर ध्रुव तारा, सभ्यता और संस्कृति संवर्धक सात महा-ऋषियों के नाम पर सप्तऋषि, ग्रहों के नाम, जैसे- ब्राहस्पति, शनि इत्यादि। इसी प्रकार पर्वतों और नदियों के नाम भी रखे गए। आज भी इतिहास प्रसिद्ध लोगों के नाम पर मार्गों, बाँधों, यहाँ तक कि कल्याणकारी योजनाओं के नाम रखे जाते हैं।

हमारे उपन्यास की नायिका आम्रकूट के प्रधान, मेकल की सुपुत्री शिवांश रूप में जन्मी शांकरी, देवयोग-से दिव्य शक्ति संपन्न है। साभ्यता के विकास कार्य से इसका व्यक्तित्व और कृतित्व इतना विशाल हुआ कि इसके समक्ष देव, गंधर्व, नाग, वराह, असुर, ऋषि, राजा, लोक-जन सभी प्रणिपात हो गए और वह एक युग-नायिका के रूप में प्रसिद्ध हुई। इसी संदर्भ तले जल-नर्मदा और कन्या-नर्मदा में देह-छाया का संबंध स्थापित हो गया जो केंद्रीय भाव है हमारी, आपकी, सबकी ‘रुद्रदेहा’ का।

इस कृति-निर्माण के लिए हम जिन ज्ञान-कोशों के शरणागत हुए उनमें लोक कथाएँ, जन-श्रुति, मार्कंडेय पुराण, नर्मदा पुराण विशेष हैं। साभार हम इन सभी को प्रणाम करते हैं। हृदय तल-से आभार व्यक्त करते हैं उन सभी नर्मदा-भक्तों का जिन्होंने हमारी कथा सुनी, हमसे वार्ता की। 

सुस्पष्ट एवं शीघ्र प्रकाशन के लिए उत्कर्ष प्रकाशन के श्री हेमंत जी के साथ पूरी प्रकाशन टीम को अंतर्मन की गहराइयों से साधुवाद। एक बात विशेष- रुद्रदेहा रूप में अपनी फ़ोटो देने के लिए हमारी प्यारी छोटी बेटी नौमी को ढेर सारा प्यार और इस फ़ोटो को प्रभावी रूप-से खींचने के लिए, बड़ी बेटी माही को ढेर सारा आशीर्वाद। गृह मंदिर के सभी बड़ों को सादर नमन।

मित्रो! हम साधारण मानव हैं, अतः भूल सहज-संभाव्य है, जिसके लिए आप सभी से क्षमाप्रार्थी हैं। तो आइए, विनयावनत स्वागत है आपका युगनायिका नर्मदा की अमर गाथा के अद्भुत, अविस्मरणीय, अपूर्व, अलौकिक सुंदर संसार में। जिसका नाम है…

‘रुद्रदेहा…!!’

वंदे…

  • प्रतिमा अखिलेश
  • अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’ 

संपर्क – 9425175861/9407814975

टीप – इस कृति-से प्राप्त राशि लाभार्जन के लिए नहीं अपितु रुद्रदेहा अन्न कुटी में  सेवार्थ उपयोग की जाएगी।

सहयोग राशि : रु 250 200

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ कृष्ण काव्य पीयूष — शब्द अमृत ☆ सुश्री नीलम भटनागर 

सुश्री नीलम भटनागर 

 ☆ पुस्तक चर्चा ☆ कृष्ण काव्य पीयूष — शब्द अमृत ☆ सुश्री नीलम भटनागर ☆ 

कृष्ण काव्य पीयूष — शब्द अमृत 

कृष्ण अमृत में पगी श्याम रंग में रंगी बड़ी देर सो ही रही अब पुनः पढ़कर जगी कुछ समय से ऐसा लगने लगा था कि अब तो भक्ति बस ऊपरी दिखावे की बात हो गई है मंदिरों में टीवी पर या कुछ त्योहारों पर । लेकिन चि विवेक रंजन ने कृष्ण काव्य पीयूष भेजी व समीक्षा करने का आग्रह किया । पढ़ा तो लगा कि  ऐसे ही नहीं कहा गया है कि हमारा धर्म सनातन है । 

 मन जब सोचेगा की इति हुई तभी पुनः आरंभ होता दिखेगा।

 एक नजर में ही लगा 

सच में यह रस की  गागर है या यह भक्ति का सागर है 

कैसे कुछ लिखूं इस पर यह खुद ही तो नट नागर है 

न जाने  क्यों अवचेतन में यह सोच बन गई थी  कि विदेशों में तो प्रवासी भारतीय केवल मौज मजे में डूबे रहते हैं , नित नई पार्टियां या भौतिक आनंद ही उनका लक्ष्य होता है ।

पर इस पुस्तक के दर्शन मात्र से यह भ्रम टूट गया । सच ही बिहारी ने यूं ही नही कहा है –

ज्यों ज्यों  डूबे श्याम रंग 

त्यों त्यों उज्जवल होए

पुस्तक खोलते ही अपनी आदत के अनुसार अनुक्रमणिका पर प्रथम दृष्टि गई सारी दुनिया से भक्ति रस में आकंठ डूबे प्रवासी भारतीय रचनाओं के माध्यम से संकलित हैं। 

कनाडा की पूनम चंद्रा  जी ने ” गिरधर ” में लिखा है 

श्याम सलोने हो गए

 स्वर्ण जैसी किरणों ने 

 श्याम को छुआ 

यह मनमोहक दृश्य सिर्फ मेरे लिए है 

सिर्फ मेरे लिए 

तो पूनम जी हर का कृष्ण उसके लिए ही है और आपने यह सब को याद दिला दिया ।

क्योंकि मन श्याम रंग में डूब कर निकलता है तो उज्जवल होकर निकलता है यह विचित्र सत्य है।  बगल के पृष्ठ पर मनु जी की ब्रज में फाग की पंक्तियां हैं 

नभ धरा दामिनी नर-नारी रास रंग राग

 भाव विभोर हो सब कृष्ण संग खेले फाग 

पढ़कर कभी किसी होली पर लिखी  अपनी ही पंक्तियां याद आ गई 

ऐसी होली मची है ब्रज बरसाने बीच

 रंग और अबीर की मची हुई है कीच

 राधा रंग गई ललिता रंग गई 

रंगे ग्वाल बाल

बावला है मन खेलता यहीं से उनके संग 

कौन कौन सी रचना पढ़ें , जिसे पढ़ो उसी में मन डूबता ही जाता है ।  सारे संग्रह को का भाव पक्ष इतना प्रबल है कि पढ़कर वर्णन करना वैसा ही है जैसे प्रभु के विराट स्वरूप का वर्णन करना । 

अचानक सुशील शर्मा कि धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र पर दृष्टि गई और लगा कि गीता का कितना सुंदर भाव अनुवाद है 

ओम हूं मैं व्योम हूं मैं भूत भवन परमात्मा 

स्वर्ग हूं मैं अपवर्ग हूं मैं हिरन गर्भ आत्मा 

प्रतिभा पुरोहित अहमदाबाद की जीवन का सार पढ़ी,  लगा कि इतने अगम्य कृष्ण को इतना सरल कर लिखा है इन्होंने 

कान्हा ने छेड़ी जब बांसुरी की तान 

वृंदावन में छिड़ गया मधुर रागों का गान 

यही तो है हमारे कान्हा सरल से सरल तम और कठिन से अगम्य ।  रसखान के कान्हा गोपियों से छछिया भर छाछ लेकर नाचते हैं , सूर की मन की आंखों से मन में प्रवेश कर बैठते हैं । भक्ति काल के अनेक अनेक कवियों से ऊपर उठना ही होगा मुझे ,  आखिर कृष्ण काव्य  पीयूष का आस्वाद लेना है । 

 श्री कृष्ण के कर्म योगी रूप पर सदा से ही दुनियां और भारतीय प्रेरित होते रहे हैं ।

उसे ही श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी ने कुछ ही पंक्तियों में इतना अच्छा वर्णन किया है कि प्रत्येक शब्द का अर्थ समझते मन खो जाता है । वे लिखते हैं 

 तुम से अनुप्राणित राजनीति

 तुम से विकसित अध्यात्म ज्ञान

 तुम ज्ञाता पथ दर्शक शिक्षक 

कर्मठ योगी अतिभासमान 

बालक किशोर नवयुवक प्रौढ़ 

और वृद्ध सभी के परम मित्र

शिशु बाल गोपाल तरुण सारथी

तुम्हारे विविध चित्र 

भारत जन मन सम्राट सुखद 

भगवान पूज्य हे सत्य काम 

तुम जल थल कण-कण में विद्यमान

हे देव तुम्हें शत शत प्रणाम

मेरा भी प्रणाम स्वीकार हो प्रभु,  क्योंकि मुझे खुद से तुम्हारा यह रूप अत्यंत आकर्षित करता है । प्रत्येक कवि की रचना में मन डूबा जाता है ।गहरे और गहरे पढ़ने का मन होता है । सचमुच का विशेष अमृत है, यह किताब ।

को बड़ छोटू कहत अपराधू ,   रस में सराबोर हो जाइए ।

दृष्टि गई श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव की रचना कृष्ण ही ब्रह्म है पर । विद्गध जी के पुत्र श्री विवेक रंजन भी बहुमुखी रचनाकार हैं । मुझे पिता-पुत्र एक दूसरे के पूरक लगते हैं । प्रभु सबको ऐसा ही पुत्र दे । 

पढ़िए उनकी रचना 

कृष्ण हैं काफ़ीया कृष्ण ही रदीफ़ 

कृष्ण से नज्म है कृष्ण ही वज्म है

 कृष्ण हैं हर किताब हर्फ-हर कृष्ण है 

कृष्ण है शाश्वत कृष्ण अंत हीन है

कृष्ण ही हैं प्रकृति कृष्ण संसार हैं

राहगीर हैं हम कृष्ण की राह के

तीन पंक्तियों वाले यह छन्द रोचक है 

एक रचनाकार जो अपने उपनाम के कारण अनुक्रम में ही आकर्षित कर बैठी का जिक्र जरूरी लगता है । शीतल जैन  अहमक लड़की , सिंगापुर में बैठकर वे इस तरह कृष्ण प्रेम में डूबी हुई है कि 

कान्हा  जिस पल हम दोनों 

एक साथ एक दूसरे के ख्याल में होते हैं 

तब मैं तुम से भी ऊपर होती हूं 

तब मैं रचती हूं तुमसे 

बसती हूं तुम में 

लीन हो जाती हूं तुम में ही 

तुम्हारे ख्याल मुझसे  मिलकर

मुझे मीरा कर देते हैं 

और मुझे मीरा होना पसंद है 

अहमक लड़की तुम सचमुच मीरा ही हो

 मुझे लगता है काश कभी तुम से मिल पाती ।

पढें तो पूरी पुस्तक , पर इस प्रेम दीवानी को अवश्य आत्मसात करें । मेरी कल्पना में अचानक तुम आ जाती हो,  रहो तुम सिंगापुर में मीरा बनकर पाठकों के हृदय में समाई रहो ।

लिखना तो हर कविता पर चाहती हूँ । इतने कृष्ण प्रेम को देखकर मेरी हालत रथ पर बैठे अर्जुन जैसी हो रही है , कमजोर , कांपते हुए ।उनके पास ज्ञान था हमारे पास प्रेम है। श्री कृष्ण का प्रेम हर युग में दीवाना कर देने वाला है।  कृष्ण काव्य पीयूष की  सारी रचनाए पढ़िए । कविताअमृत रस में डूब जाइए।

संपादक जी के वक्तव्य में एक बात बड़ी गहरी लगी तो मुझे भी लिखनी है ।  कि जिनकी रचनाएं शामिल नहीं कर पाए उनसे वह क्षमा प्रार्थी हैं । मैं भी जिनकी रचनाओं पर टीप नही कर सकी उनसे  क्षमा प्रार्थी हूं । 

सभी पाठकों से की ओर से भगवान कृष्ण से यह प्रार्थना करती हूं । 

मेरी भव बाधा हरो 

राधा नागर सोए 

जा तन की झाई पड़े 

श्याम हरित दुति होय

बिहारी ने राधा की कृपा से श्याम जू  को हरे कर दिया और वह ऐसे हरे हुए की पूरे विश्व में हरे कृष्णा, हरे कृष्णा छा गए हैं । 

तो सबको हरे कृष्णा,  श्री कृष्णा ।

© सुश्री नीलम भटनागर

 502 विज्ञान विहार, गुड़गांव 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 97 – कबूतर का कैटवॉक – सुश्री समीक्षा तैलंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका  पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री समीक्षा तैलंग जी की पुस्तक “कबूतर का कैटवॉक” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 97 – कबूतर का कैटवॉक – सुश्री समीक्षा तैलंग  ☆ 
 पुस्तक चर्चा

चर्चित कृति .. कबूतर का कैटवॉक

संस्मरण लेखिका- सुश्री समीक्षा तैलंग

प्रकाशक- भावना प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य – २०० रु

पृष्ठ – ‍१२८

पर्यटन  साहित्य का जनक होता है क्योंकि जब लेखक भौतिक यात्रा करता होता है तो प्रकृति, परिवेश से प्रभावित उसका मन भी वैचारिक यात्रा पर निकल पड़ता है. लेखक इन अनुभवों को जाने अनजाने अंतस में संजोंता रहता है. कविता, कहानी, रचनाओ में लेखक मन की यह पूंजी जब तब छलकती ही रहती है. किंतु पर्यटन साहित्य व संस्मरण वे विधायें हैं जो स्पष्टतः रचनाकार के मन के दर्शन और उसकी इन अनुभूतियों की आध्यात्मिकता को पाठको के सम्मुख वैचारिक स्वरूप में शब्द चित्रो के जरिये अभिव्यक्त करती हैं. समीक्षा तैलंग हिन्दी पत्रकारिता से प्रारंभ कर, व्यंग्य संग्रह “जीभ अनशन पर है”  के माध्यम से हिन्दी पाठको तक सक्षम रूप से पहुंच चुकीं हैं, उनका यह प्रथम व्यंग्य संग्रह ही लेखिका संघ के भव्य मंच पर समादृत हो चुका है. यह लिखने का आशय मात्र इतना है कि समीक्षा जी को मेरे जैसे पाठक गहन रुचि तथा गंभीरता से पढ़ते हैं.

चर्चित कृति  कबूतर का कैटवॉक, उनके २५ से अधिक रोचक संस्मरणो का पठनीय संग्रह है. अनूप शुक्ल जिन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने संस्मरण लेखन हेतु पुरस्कृत किया है, ने इस संग्ह की भूमिका ” गैर इरादतन घुमक्कड़ी के किस्सों की दास्तान ” लिखी है. समीक्षा जी दुबई में लंबे समय तक रहीं हैं, परदेश में रहते हुये उनकी छोटी बड़ी यात्राओ से उपजे वैचारिक सचित्र आलेख किताब में हैं. संस्मरण “कबूतर का कैटवाक” किताब का शीर्षक संस्मरण है, अतः सबसे पहले वही पढ़ा वे लिखती हैं ” मुझे तो पत्थरों में भी सौंदर्य दिखता है ” उनकी यही दृष्टि और लिखने की यह दार्शनिक शैली जिसमें वे लिखती हैं

” हम सब बड़ी सुंदरता, बड़ी उपलब्धि, बड़ी खुशी, बड़ी उम्मीदें लेकर भागते हैं. बड़े का वजन हमें छोटी छोटी बातों को फील करने से रोकता है. ” पुस्तक को पठनीय बनाती है.  शुक्रवारी यात्रा पर कई  संस्मरण हैं, दरअसल व्यस्त सप्ताह में छुट्टी के दिन ही परिवार के संग लुत्फ के होते हैं और उल्लेखनीय है कि अबूधाबी में साप्ताहिक अवकाश शुक्रवार का होता है. इन दिनों लेखिका पुणे में रहती हैं और कुछ आलेख पुणे के भी हैं, जैसे लोनावाला के डैम पर केंद्रित उनकी रचना जो कोरोना काल में लिखी गई है. पर्यटन स्थलो की साफ सफाई व सार्वजनिक स्वच्छता के प्रति हम सब की जबाबदारी पर वे लिखती हैं

” वहाँ चट्टानो के बीच लोगों ने गजब की गंदगी छोड़ रखी है, टूरिस्ट अपना कचरा वहीं छोड़ चलते बने थे, बच्चों के डायपर, प्लास्टिक की बोतलें, जगह जगह गिरे हुये मास्क, खाने के सामान के खाली पैकेट्स सब वहीं फेंक दिये थे….. जिम्मेदारी किसी को नहीं चाहिये, फिर कहो कि विदेश कितना साफ सु्थरा है. ” यह उनके अंतरमन की राष्ट्रीय कर्तव्यो के प्रति जन लापारवाही की पीड़ा है.  यायावरी के उनके रोचक किस्से ’कबूतर का कैटवॉक’ में प्रवाहमयी भाषा में लिखे गये हैं. पुस्तक जरूर पढ़िये, किताब अमेजन पर सुलभ है.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 96 ☆ श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) से  हाल ही में सेवानिवृत्त में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका  पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” जी की पुस्तक “श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 96 – श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ”  ☆ 
 पुस्तक चर्चा

समीक्षित कृति … श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद 

अनुवादक …. प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” 

प्रकाशक …. रवीना प्रकाशन दिल्ली

पुस्तक प्राप्ति हेतु पता … A 1 , मीनाल रेजीडेंसी , भोपाल 462023

श्रीमदभगवदगीता एक सार्वकालिक ग्रंथ है . इसमें जीवन के मैनेजमेंट की गूढ़ शिक्षा है . आज संस्कृत समझने वाले कम होते जा रहे हैं , पर गीता में सबकी रुचि सदैव बनी रहेगी , अतः संस्कृत न समझने वाले हिन्दी पाठको को गीता का वही काव्यगत आनन्द यथावथ मिल सके इस उद्देश्य से प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव “विदग्ध” ने मूल संस्कृत श्लोक , फिर उनके द्वारा किये गये काव्य अनुवाद तथा शलोकशः ही शब्दार्थ को हार्ड बाउण्ड , बढ़िया कागज व अच्छी प्रिंटिंग के साथ यह बहुमूल्य कृति प्रस्तुत की है . अनेक शालेय व विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमो में गीता के अध्ययन को शामिल किया गया है , उन छात्रो के लिये यह कृति बहुउपयोगी बन पड़ी है . 

भगवान कृष्ण ने  द्वापर युग के समापन तथा कलियुग आगमन के पूर्व (आज से पांच हजार वर्ष पूर्व) कुरूक्षेत्र के रणांगण मे दिग्भ्रमित अर्जुन को ,  जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के समस्त संकेत योद्धाओ को मिल चुके थे, गीता के माध्यम से ये अमर संदेश दिये थे व जीवन के मर्म की व्याख्या की थी .श्रीमदभगवदगीता का भाष्य वास्तव मे ‘‘महाभारत‘‘ है। गीता को स्पष्टतः समझने के लिये गीता के साथ ही  महाभारत को पढना और हृदयंगम करना भी आवश्यक है। महाभारत तो भारतवर्ष का क्या ? विश्व का इतिहास है। ऐतिहासिक एवं तत्कालीन घटित घटनाओं के संदर्भ मे झांककर ही श्रीमदभगवदगीता के विविध दार्शनिक-आध्यात्मिक व धार्मिक पक्षो को व्यवस्थित ढ़ंग से समझा जा सकता है। 

जहॉ भीषण युद्ध, मारकाट, रक्तपात और चीत्कार का भयानक वातावरण उपस्थित हो वहॉ गीत-संगीत-कला-भाव-अपना-पराया सब कुछ विस्मृत हो जाता है फिर ऐसी विषम परिस्थिति मे गीत या संगीत की कल्पना बडी विसंगति जान पडती है। क्या रूद में संगीत संभव है? एकदम असंभव किंतु यह संभव हुआ है- तभी तो ‘‘गीता सुगीता कर्तव्य‘‘ यह गीता के माहात्म्य में कहा गया है। अतः संस्कृत मे लिखे गये गीता के श्लोको का पठन-पाठन भारत मे जन्मे प्रत्येक भारतीय के लिये अनिवार्य है। संस्कृत भाषा का जिन्हें ज्ञान नहीं है- उन्हे भी कम से कम गीता और महाभारत ग्रंथ क्या है ? कैसे है ? इनके पढने से जीवन मे क्या लाभ है ? यही जानने और समझने के लिये भावुक हृदय कवियो साहित्यकारो और मनीषियो ने समय-समय पर साहित्यिक श्रम कर कठिन किंतु जीवनोपयोगी संस्कृत भाषा के सूत्रो (श्लोको) का पद्यानुवाद किया है, और जीवनोपयोगी ग्रंथो को युगानुकूल सरल करने का प्रयास किया है। 

इसी क्रम मे साहित्य मनीषी कविश्रेष्ठ प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव जी ‘‘विदग्ध‘‘ ने जो न केवल भारतीय साहित्य-शास्त्रो धर्मग्रंथो के अध्येता हैं बल्कि एक कुशल अध्येता भी हैं स्वभाव से कोमल भावो के भावुक कवि भी है। निरंतर साहित्य अनुशीलन की प्रवृत्ति के कारण विभिन्न संस्कृत कवियो की साहित्य रचनाओ पर हिंदी पद्यानुवाद भी आपने प्रस्तुत किया है . महाकवि कालिदास कृत ‘‘मेघदूतम्‘‘ व रघुवंशम् काव्य का आपका पद्यानुवाद दृष्टव्य , पठनीय व मनन योग्य है।गीता के विभिन्न पक्षों जिन्हे योग कहा गया है जैसे विषाद योग जब विषाद स्वगत होता है तो यह जीव के संताप में वृद्धि ही करता है और उसके हृदय मे अशांति की सृष्टि का निर्माण करता है जिससे जीवन मे आकुलता, व्याकुलता और भयाकुलता उत्पन्न होती हैं परंतु जब जीव अपने विषाद को परमात्मा के समक्ष प्रकट कर विषाद को ईश्वर से जोडता है तो वह विषाद योग बनकर योग की सृष्टि श्रृखंला का निर्माण करता है और इस प्रकार ध्यान योग, ज्ञान योग, कर्म योग, भक्तियोग, उपासना योग, ज्ञान कर्म सन्यास योग, विभूति योग, विश्वरूप दर्शन विराट योग, सन्यास योग, विज्ञान योग, शरणागत योग, आदि मार्गो से होता हुआ मोक्ष सन्यास योग प्रकारातंर से है,  तो विषाद योग से प्रसाद योग तक यात्रासंपन्न करता है।

इसी दृष्टि से गीता का स्वाध्याय हम सबके लिये उपयोगी सिद्ध होता हैं . अनुवाद में प्रायः दोहे को छंद के रूप में प्रयोग किया गया है .  कुछ अनूदित अंश बानगी के रूप में  इस तरह  हैं ..

अध्याय ५ से ..

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।

पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥

स्वयं इंद्रियां कर्मरत, करता यह अनुमान

चलते, सुनते,देखते ऐसा करता भान।।8।।

सोते, हँसते, बोलते, करते कुछ भी काम

भिन्न मानता इंद्रियाँ भिन्न आत्मा राम।।9।।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥

हितकारी संसार का,तप यज्ञों का प्राण

जो मुझको भजते सदा,सच उनका कल्याण।।29।।

 

अध्याय ९ से ..

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।

मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥

मै ही कृति हूँ यज्ञ हूँ,स्वधा,मंत्र,घृत अग्नि

औषध भी मैं,हवन मैं ,प्रबल जैसे जमदाग्नि।।16।।

इस तरह प्रो श्रीवास्तव ने  श्रीमदभगवदगीता के श्लोको का पद्यानुवाद कर हिंदी भाषा के प्रति अपना अनुराग तो व्यक्त किया ही है किंतु इससे भी अधिक सर्व साधारण के लिये गीता के दुरूह श्लोको को सरल कर बोधगम्य बना दिया है .गीता के प्रति गीता प्रेमियों की अभिरूचि का विशेष ध्यान रखा है । गीता के सिद्धांतो को समझने में साधको को इससे बडी सहायता मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। अनुवाद बहुत सुदंर है। शब्द या भावगत कोई विसंगति नहीं है। अन्य गीता के अनुवाद या व्याख्येायें भी अनेक विद्वानो ने की हैं पर इनमें  लेखक स्वयं अपनी संमति समाहित करते मिलते हैं जबकि इस अनुवाद की विशेषता यह है कि प्रो श्रीवास्तव द्वारा ग्रंथ के मूल भावो की पूर्ण रक्षा की गई है।

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ व्यंग्य का रिसर्च पेपर ‘धन्नो, बसंती और बसंत’ और व्यंग्य के वैज्ञानिक विवेक रंजन ☆ सुश्री सुषमा व्यास ‘राजनिधि’

सुश्री सुषमा व्यास ‘राजनिधि’

☆ पुस्तक चर्चा ☆ व्यंग्य का रिसर्च पेपर ‘धन्नो, बसंती और बसंत’ और  व्यंग्य के वैज्ञानिक विवेक रंजन ☆ सुश्री सुषमा व्यास ‘राजनिधि’ ☆ 

कोरोना काल में लिखे गए बेहतरीन और प्रभावी व्यंग्य संग्रह में उल्लेखनीय नाम है धन्नो बसंती और बसंत

समकालीन और सक्रिय व्यंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का व्यंग्य संग्रह प्रभावी और मुखरता की श्रेणी में आता है। विवेक रंजन व्यंग्य को तकनीकी दृष्टि से देखते हैं ।वह व्यंग्य के प्रयोग धर्मी रचनाकार है। व्यंग्य संग्रह का शिर्षक “धन्नो बसंती और बसंत” बेहद आकर्षक और एक्सक्लूसिव है ।इस संग्रह में उन्होंने लगभग हर विषय पर लेखनी गंभीरता से चलाई है। ‘आंकड़े बाजी’ हो या ‘अमीर बनने का सॉफ्टवेयर’ या फिर ‘बजट देश का बनाम घर का’ ‘लो फिर लग गई आचार संहिता’ सभी में वे विसंगतियों पर करारी चोट करते हुए  धीरे से चिकुटी काटना भी नहीं भूलते।

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

‘डॉग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान’, ‘ब्रांडेड वर वधू’, ‘पड़ोसी के कुत्ते’ जैसी छोटी-बड़ी समस्याओं और विषयों को उन्होंने बड़ी ही सहजता और सरलता से व्यंग्य में ढाला है।

परिष्कृत भाषा शैली और विवरणात्मक लेखन इस व्यंग्य संग्रह को उच्च स्तरीय बनाता है।

विवेक जी व्यंग्य के तकनीकी विशेषज्ञ हैं, इसीलिए उनके व्यंग्य संग्रह में बौद्धिक और त्वरित तर्कशक्ति बेहद प्रभावित करती है ।

‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की प्रतीक हमारी पत्नी’ में उन्होंने हास्य का पुट भी दिया है। बड़ी ही कुशलता से पत्नी पीड़ित बताकर अंत में पत्नी की तारीफ भी कर दी और उससे देश की समस्या को भी जोड़ दिया यह नवीन प्रयोग है व्यंग्य के क्षेत्र में।

‘ बच्चों आओ बाघ बचाओ’ पाठकों को सोचने पर मजबूर करता है। बच्चों के मासूम और भावुक मन की जरूरत है आम इंसान को। ‘बजट देश बनाम घर का’ में आम नागरिक की पीड़ा नजर आती है। उनके व्यंग्य में कहीं परिस्थिति अनुसार जीने की सीख है, तो कहीं मानवीय गुण को विषय बनाकर जोरदार विसंगति पर प्रहार करना भी वे नहीं भूलते। कहीं वे प्रशासन की खूब खबर लेते नजर आते हैं ,तो कहीं उन्होंने मनुष्य की पीड़ा और दर्द को बखूबी व्यंग्य में ढाला है।

विवेक रंजन जी पाठक के मस्तिष्क को पढ़ लेते हैं ,इसीलिए उनके इस व्यंग्य संग्रह का ताना-बाना ऐसा बना हुआ है जो पाठकों के ह्रदय में गहरे तक पैठ कर सकता है । विवेक जी का वैज्ञानिक दृष्टिकोण व्यंग्य पर गहरा प्रभाव रखता है ।उनके चिंतन मनन की गहनता सामाजिक दृष्टिकोण को उभारती है ,जो इस संग्रह में झलकती है। व्यंग्य विधा आसान विधा नहीं है इसमें सतर्क धैर्यवान और सूक्ष्म दृष्टि के साथ सागर की गहराई सी सोच होना बेहद आवश्यक है। जो विवेक जी के व्यंग्य संग्रह  ‘दोनों किडनी रखने की लग्जरी क्यों’ , ‘बिछड़े हुए होने का सुख लो फिर लग गई आचार संहिता’ जैसे व्यंग्य में बखूबी नजर आती है ।इसमें उन्होंने व्यंग्य को तराशकर मांजने का काम किया है। व्यंग्य संग्रह में अधिकतर व्यंग्य के शीर्षक बड़े हैं यह ऐसा है मानो मजमून देखकर लिफाफा भांप लो। बड़े शिर्षक देखते ही पाठक उस विषय को भांपकर पढ़ने को उत्सुक हो उठता है ।यह भी इस व्यंग्य संग्रह का एक प्लस पॉइंट ही है। शिर्षक बड़े रखकर उन्होंने एक अभिनव प्रयोग किया है ।प्रयोग धर्मी व्यंग्यकार की भूमिका में वे  साहित्य जगत के उभरते सितारे हैं। व्यंग्य को इस संग्रह में उन्होंने एक उत्तरदायित्व की भूमिका में लिया है। बेहद परिष्कृत चिंतन मनन और शाब्दिक भावों का त्रिवेणी संगम है संग्रह में ।इस में भीगने या तैरने की कुशलता पाठक को आ ही जाती है।

अंत में कहा जा सकता है की व्यंग्य के इस वैज्ञानिक ने  संग्रह के साथ उचित न्याय किया है। उन्हें व्यंग का प्रायोगिक रचनाकार  (व्यंग्यशास्त्री) कहा जा सकता है।

 

© सुश्री सुषमा व्यास ‘राजनिधि’

इदौर मध्यप्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 50 ☆ कृति चर्चा : गीत स्पर्श – डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  डॉ पूर्णिमा निगम  ‘पूनम ‘ के गीत संग्रह  ‘गीत स्पर्श’ पर कृति चर्चा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 50 ☆ 

☆ कृति चर्चा : गीत स्पर्श – डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’ ☆

गीत स्पर्श : दर्द के दरिया में नहाये गीत

चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

[कृति विवरण: गीत स्पर्श, गीत संकलन, डॉ. पूर्णिमा निगम ‘पूनम’, प्रथम संस्करण २००७, आकार २१.से.मी.  x १३.से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १२२, मूल्य १५० रु., निगम प्रकाशन २१० मढ़ाताल जबलपुर। ]

साहित्य संवेदनाओं की सदानीरा सलिला है। संवेदनाविहीन लेखन गणित की तरह शुष्क और नीरस विज्ञा तो हो सकता है, सरस साहित्य नहीं। साहित्य का एक निकष ‘सर्व हिताय’ होना है। ‘सर्व’ और ‘स्व’ का संबंध सनातन है। ‘स्व’ के बिना ‘सर्व’ या ‘सर्व’ के बिना ‘स्व’ की कल्पना भी संभव नहीं। सामान्यत: मानव सुख का एकांतिक भोग करना चाहता है जबकि दुःख में सहभागिता चाहता है।इसका अपवाद साहित्यिक मनीषी होते हैं जो दुःख की पीड़ा को सहेज कर शब्दों में ढाल कर भविष्य के लिए रचनाओं की थाती छोड़ जाते हैं। गीत सपर्श एक ऐसी ही थाती है कोकिलकंठी शायरा पूर्णिमा निगम ‘पूनम’ की जिसे पूनम-पुत्र शायर संजय बादल ने अपनी माता के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में प्रकाशित किया है। आज के भौतिकवादी भोगप्रधान कला में दिवंगता जननी के भाव सुमनों को सरस्वती के श्री चरणों में चढ़ाने का यह उद्यम श्लाघ्य है।

गीत स्पर्श की सृजनहार मूलत: शायरा रही है। वह कैशोर्य से विद्रोहणी, आत्मविश्वासी और चुनौतियों से जूझनेवाली रही है। ज़िंदगी ने उसकी कड़ी से कड़ी परीक्षा ली किन्तु उसने हार नहीं मानी और प्राण-प्राण से जूझती रही। उसने जीवन साथी के साथ मधुर सपने देखते समय, जीवन साथी की ज़िंदगी के लिए जूझते समय, जीवनसाथी के बिछुड़ने के बाद, बच्चों को सहेजते समय और बच्चों के पैरों पर खड़ा होते ही असमय विदा होने तक कभी सहस और कलम का साथ नहीं छोड़ा। कुसुम कली सी कोमल काया में वज्र सा कठोर संकल्प लिए उसने अपनों की उपेक्षा, स्वजनों की गृद्ध दृष्टि, समय के कशाघात को दिवंगत जीवनसाथी की स्मृतियों और नौनिहालों के प्रति ममता के सहारे न केवल झेला अपितु अपने पौरुष और सामर्थ्य का लोहा मनवाया।

गीत स्पर्श के कुछ गीत मुझे पूर्णिमा जी से सुनने का सुअवसर मिला है। वह गीतों को न पढ़ती थीं, न गाती थीं, वे गीतों को जीती थीं, उन पलों में डूब जाती थीं जो फिर नहीं मिलनेवाले थे पर गीतों के शब्दों में वे उन पलों को बार-बार जी पाती थी। उनमें कातरता नहीं किन्तु तरलता पर्याप्त थी। इन गीतों की समीक्षा केवल पिंगलीय मानकों के निकष पर करना उचित नहीं है। इनमें भावनाओं की, कामनाओं की, पीरा की, एकाकीपन की असंख्य अश्रुधाराएँ समाहित हैं। इनमें अदम्य जिजीविषा छिपी है। इनमें अगणित सपने हैं। इनमें शब्द नहीं भाव हैं, रस है, लय है। रचनाकार प्राय: पुस्तकाकार देते समय रचनाओं में अंतिम रूप से नोक-फलक दुरुस्त करते हैं। क्रूर नियति ने पूनम को वह समय ही नहीं दिया। ये गीत दैनन्दिनी में प्रथमत: जैसे लिखे गए, संभवत: उसी रूप में प्रकाशित हैं क्योंकि पूनम के महाप्रस्थान के बाद उसकी विरासत बच्चों के लिए श्रद्धा की नर्मदा हो गई हिअ जिसमें अवगण किया जा सकता किन्तु जल को बदला नहीं जा सकता। इस कारण कहीं-कहीं यत्किंचित शिल्पगत कमी की प्रतीति के साथ मूल भाव के रसानंद की अनुभूति पाठक को मुग्ध कर पाती है। इन गीतों में किसी प्रकार की बनावट नहीं है।

पर्सी बायसी शैली के शब्दों में ‘ओवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोस विच टेल ऑफ़ सेडेस्ट थॉट’। शैलेन्द्र के शब्दों में- ‘हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’। पूनम का दर्द के साथ ताज़िंदगी बहुत गहरा नाता रहा –

भीतर-भीतर रट रहना, बहार हंसकर गीत सुनाना

ऐसा दोहरा जीवन जीना कितना बेमानी लगता है?

लेकिन इसी बेमानीपन में ज़िंदगी के मायने तलाशे उसने –

अब यादों के आसमान में, बना रही अपना मकान मैं

न कहते-कहते भी दिल पर लगी चोट की तीस आह बनकर सामने आ गयी –

जान किसने मुझे पुकारा, लेकर पूनम नाम

दिन काटे हैं मावस जैसे, दुःख झेले अविराम

जीवन का अधूरापन पूनम को तोड़ नहीं पाया, उसने बच्चों को जुड़ने और जोड़ने की विरासत सौंप ही दी –

जैसी भी है आज सामने, यही एक सच्चाई

पूरी होने के पहले ही टूट गयी चौपाई

अब दीप जले या परवाना वो पहले से हालात नहीं

पूनम को भली-भाँति मालूम था कि सिद्धि के लिए तपना भी पड़ता है –

तप के दरवाज़े पर आकर, सिद्धि शीश झुकाती है

इसीलिए तो मूर्ति जगत में, प्राण प्रतिष्ठा पाती है

दुनिया के छल-छलावों से पूनम आहात तो हुई पर टूटी नहीं। उसने छलियों से भी सवाल किये-

मैंने जीवन होम कर दिया / प्रेम की खातिर तब कहते हो

बदनामी है प्रेम का बंधन / कुछ तो सोची अब कहते हो।

लेकिन कहनेवाले अपनी मान-मर्यादा का ध्यान नहीं रख सके –

रिश्ते के कच्चे धागों की / सब मर्यादाएँ टूट गयीं

फलत:,

नींद हमें आती नहीं है / काँटे  सा लगता बिस्तर

जीवन एक जाल रेशमी / हम हैं उसमें फँसे हुए

नेक राह पकड़ी थी मैंने / किन्तु जमाना नेक नहीं

‘बदनाम गली’ इस संग्रह की अनूठी रचना है। इसे पढ़ते समय गुरु दत्त की प्यासा और ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है’ याद आती है। कुछ पंक्तियाँ देखें-

रिश्ता है इस गली से भाई तख्तो-ताज का / वैसे ही जैसे रिश्ता हो चिड़ियों से बाज का

 जिनकी हो जेब गर्म वो सरकार हैं यहाँ / सज्जन चरित्रवान नोचते हैं बोटियाँ

वो हाथ में गजरा लपेटे आ रहे हैं जो / कपड़े की तीन मिलों को चला रहे हैं वो

रेखा उलाँघती यहाँ सीता की बेटियाँ / सलमा खड़ी यहाँ पे कमाती है रोटियाँ

इनको भी माता-बहनों सा सत्कार चाहिए / इनको भी प्रजातन्त्र के अधिकार चाहिए

अपने दर्द में भी औरों की फ़िक्र करने का माद्दा कितनों में होता है। पूनम शेरदिल थी, उसमें था यह माद्दा। मिलन और विरह दोनों स्मृतियाँ उसको ताकत देती थीं –

तेरी यादे तड़पाती हैं, और हमें हैं तरसातीं

हुई है हालत मेरी ऐसी जैसे मेंढक बरसाती

आदर्श को जलते देख रही / बच्चों को छलते देख रही

मधुर मिलान के स्वप्न सुनहरे / टूट गए मोती मानिंद

अब उनकी बोझिल यादें हैं / हल्के-फुल्के लम्हात नहीं

ये यादें हमेशा बोझिल नहीं कभी-कभी खुशनुमा भी होती हैं –

एक तहजीब बदन की होती है सुनो / उसको पावन ऋचाओं सा पढ़कर गुनो

तन की पुस्तक के पृष्ठ भी खोले नहीं / रात भर एक-दूसरे से बोले नहीं

याद करें राजेंद्र यादव का उपन्यास ‘सारा आकाश’।

एक दूजे में मन यूँ समाहित हुआ / झूठे अर्पण की हमको जरूरत नहीं

जीवन के विविध प्रसगों को कम से कम शब्दों में बयां  करने की कला कोई पूनम से सीखे।

उठो! साथ दो, हाथ में हाथ दो, चाँदनी की तरह जगमगाऊँगी मैं

बिन ही भाँवर कुँवारी सुहागन हुई, गीत को अपनी चूनर बनाऊँगी मैं

देह की देहरी धन्य हो जाएगी / तुम अधर से अधर भर मिलाते रहो

लाल हरे नीले पिले सब रंग प्यार में घोलकर / मन के द्वारे बन्दनवारे बाँधे मैंने हँस-हँसकर

आँख की रूप पर मेहरबानी हुई / प्यार की आज मैं राजधानी हुई

राग सीने में है, राग होंठों पे है / ये बदन ही मेरा बाँसुरी हो गया

साँस-साँस होगी चंदन वन / बाँहों में जब होंगे साजन

गीत-यात्री पूनम, जीवन भर अपने प्रिय को जीती रही और पलक झपकते ही महामिलन के लिए प्रस्थान कर गयी –

पल भर की पहचान / उम्र भर की पीड़ा का दान बन गई

सुख से अधिक यंत्रणा /  मिलती है अंतर के महामिलन में

अनूठी कहन, मौलिक चिंतन, लयबद्ध गीत-ग़ज़ल, गुनगुनाते-गुनगुनाते बाँसुरी  सामर्थ्य रखनेवाली पूनम जैसी शख्सियत जाकर भी नहीं जाती। वह जिन्दा रहती है क़यामत  मुरीदों, चाहनेवालों, कद्रदानों के दिल में। पूनम का गीत स्पर्श जब-जब हाथों में आएगा तब- तब पूनम के कलाम के साथ-साथ पूनम की यादों को ताज़ा कर जाएगा। गीतों में  अपने मखमली स्पर्श से नए- नए भरने में समर्थ पूनम फिर-फिर आएगी हिंदी के माथे पर नयी बिंदी लिए।हम पहचान तो नहीं सकते पर वह है यहीं कहीं, हमारे बिलकुल निकट नयी काया में। उसके जीवट  के आगे समय को भी नतमस्तक होना ही होगा।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ विवेक के व्यंग्य…. ☆ श्री सुरेन्द्र सिंह पँवार

श्री सुरेन्द्र सिंह पँवार

☆ पुस्तक चर्चा ☆ विवेक के व्यंग्य….  ☆ श्री सुरेन्द्र सिंह पँवार ☆ 

पुस्तक – व्यंग्य संग्रह – ‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य

व्यंग्यकार  – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव  विनम्र’

प्रकाशक – इंडिया नेट बुक्स, दिल्ली 

मूल्य – 300/- हार्ड बाउंड

200/- पेपर बैक

अमेज़न लिंक >>>>  समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य

 

विवेक के व्यंग्य….  

व्यंग्य, हिन्दी साहित्य की बेगानी विधा है। फ़क्खड़ कवि और समाज-सुधारक संत कबीर ने इस विधा से हम सभी को परिचित कराया। उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों, पाखंडवाद और विसंगतियों पर इसी मखमली-पनही से प्रहार किया था। व्यंग्य में उपहास, मजाक (लुफ़त) और इसी क्रम में आलोचना का प्रभाव रहता  है। दांते की लैटिन भाषा में लिखी किताब ‘डिवाइन कॉमेडी’ मध्ययुगीन व्यंग्य का महत्वपूर्ण कार्य है जिसमें तत्कालीन व्यवस्था का मजाक उड़ाया गया है। हिन्दी में हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, रवींद्रनाथ त्यागी, के. पी. सक्सेना, शरद जोशी  इसी कंटकाकीर्ण पथ पर चले और उन्होंने जो प्रतिमान स्थापित किये उसी का अनुसरण करते हुए अभियंता-कवि  विवेकरंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ हौले-हौले बढ़ रहे हैं।

समीक्षित कृति “समस्याओं का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य”, व्यंग्यविद विवेकरंजन का ताजा व्यंग्य-संग्रह है जिसमें 33 विविधवर्णी व्यंग्य सम्मिलित हैं। इसके पूर्व उनकी  ‘रामभरोसे’, ‘कौआ कान ले गया’, ‘मेरे प्रिय व्यंग्य’, ‘धन्नो बसंती और बसंत’ जैसी व्यंग्य की किताबें प्रकाशित, चर्चित व पुरस्कृत हो चुकीं हैं। अलावा इसके, उन्होंने ‘मिली भगत’ एवं  ‘लॉकडाउन’ नाम से दो  संयुक्त व्यंग्य-संग्रहों का संपादन भी किया जिसमें दुनिया भर के व्यंग्यकारों के व्यंग्य शामिल हैं। “आक्रोश” शीर्षक से उनकी नई कविताओं की किताब भी है।

विवेक रंजन: एक स्नातकोत्तर सिविल इंजीनियर हैं, नर्मदा तट के वासी हैं, साहित्य-संस्कारी हैं, उनकी भाषा शिष्ट-विशिष्ट है। मध्यप्रदेश विद्युत विभाग में अधिकारी पद पर कार्य करते हुए उनकी तीखी (कटाक्ष करने वाली) लेखन-शैली का स्वाभाविक विकास हुआ और उन्होंने उसमें सिद्धि भी प्राप्त की। सामान्यत: वे अपनी बंदूक खुद पर ही तानते हैं, सधे-अंदाज में खुद पर व्यंग्य कसते हैं। और इसलिए वे भली-भांति जानते हैं कि एक औसत-आदमी, व्यंग्य का कितना वेग (प्रहार) झेल सकता है ? दूसरे शब्दों में कहूँ तो वे व्यंग्य में उतने ही वोल्टेज का प्रयोग करते हैं, जो सामने वाला व्यक्ति आसानी से सहन कर सके, जिसके झटके से वह बावला (विक्षिप्त) न जाए, अपने बाल न नौचने लगे। ‘वाटर स्पोर्ट्स’, ‘क्या रखा है शराफत में’ जैसी व्यंग्य रचनाएं इसी श्रेणी के हैं। प्रथम पुरुष में सृजित ऐसी व्यंग्य-शैली (आयरनी) में प्रत्यक्षत: जो कहा गया है, वही उसका अर्थ नहीं है, वह कुछ-और व्यंजित करता है। समझदार समझ लेता है। अहंकार में डूबा पाखंडी व्यक्ति उसे नहीं समझ पाता। विवेक रंजन ने व्यंग्य की इसी पराशक्ति का फायदा उठाया और व्यवस्था का हिस्सा होते हुए व्यवस्था पर चोट कर पाए।

‘मांगे सबकी खैर’, ‘जिसकी चिंता है वह जनता कहाँ है’, ‘समस्या का पंजीकरण’, ‘स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट’ जैसे व्यंग्यों में उन्होंने रामदीन, रामभरोसे, रमेश बाबू जैसे पात्रों का सृजन किया है, उनके माध्यम से अपने पड़ोसियों पर निशाना साधा है, सहकर्मियों को भी जद में लिया है और अन्य-पुरुष में वक्रोंक्तियाँ दी हैं। ‘अथ चुनाव कथा’, ‘सीबीआई का सीबीआई के द्वारा सीबीआई के लिए’, ‘जीएसटी बनाम एक्साईज और सर्विस टेक्स’, ‘फ़ोटो में आत्मनिर्भरता यानी सेल्फ़ी’, ‘हैलो व्हाट्स अप’, ‘आँकड़ेबाजी’ जैसे व्यंग्य वर्तमान व्यवस्थाओं की विद्रूपताओं से उपजे हैं।

मास्क के घूँघट और हैंडवाश की मेहंदी के साथ मेड की वापिसी’, फार्मेट करना पड़ेगा वायरस वाला 2020’, ‘करोना का रोना’, ‘अप्रत्यक्ष दानी शराबी’  ‘जरूरी है आटा और डाटा’, ‘स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट’, ‘रमेश बाबू की बैंकाक यात्रा और करोना’, कोरोजीवी व्यंग्य हैं (कोरोजीवी व्यंग्य शीर्षक, श्री प्रकाश शुक्ल के व्याख्यान कोरोजीवी कविता : अर्थ और संदर्भ से प्रेरित होकर लिया है, जिसका लिप्यंतरण “आजकल” के नवंबर, 2020 में प्रकाशित है)। देखा जावे तो, कोरोनाकाल के इन व्यंग्यों की भाषा और संरचना दोनों ही बदले-बदले से है। इनमें निजी अनुभूतियाँ सार्वजनिक हुईं हैं। इनमें बदलते समय के नए बिम्ब हैं, लॉकडाउन में फंसे-बिछड़े मजबूरों की विवशता है, सरकारों की बेवसी  है, इंटरनेट के जरिए मोबाइल पर सिमट आए रिश्ते हैं। इन व्यंग्यों में प्रतिभा से अधिक श्रम को  महत्व मिला है। इन कोरोजीवी व्यंग्यों का महत्व इस कारण नहीं है कि वे महामारी के बीच लिखे गए हैं बल्कि इस कारण से हैं कि वे महामारी के बावजूद लिखे गए हैं जिनमें युगबोध की उपस्थिति तो है ही, साथ-ही-साथ इतिहास-बोध की नई अंतर्दृष्टि भी है। ‘इदं पादुका कथा’, ‘शर्म! तुम जहां हो लौट आओ’, ‘बसंत और बसंती’ को ललित व्यंग्य की श्रेणी में रखा जा सकता है।

रोजमर्रा के क्रम में; हम सम-सामयिक विषयों की जानकारी न्यूज पेपर्स, टी व्ही चैनल्स, इंटरनेट, मोबाइल इत्यादि से लेते हैं, प्रिय विषयों पर विस्तार से चर्चा करते हैं, कभी-कभी अति महत्वपूर्ण विषयों पर टिप्पणियाँ (नोट्स) भी बनाकर रख लेते हैं और इस प्रकार किसी तड़कती-भड़कती सूचना या घटना की इति-श्री हो जाती है। परंतु इन सूचनाओं को संग्रहित कर, उन्हें विचारों से मथकर, उनका नैनू (सार-तत्व) निकालकर, उनकी विसंगति को पहचान कर प्रहार करने का काम व्यंग्यकार करता है। जैसे कि, गांधी जी की तस्वीर तो हर सरकारी कार्यालय में साहब की कुर्सी के पीछे लगी होती है- दुशाला ओढ़े, हाथ में लाठी लिए, लेकिन यही तस्वीर विवेक जैसे व्यंग्यकार के लिए व्यंग्य की सामग्री जुटाती है(देखिए ई-अभिव्यक्ति.कॉम/ साहित्य एवं कला विमर्श का साप्ताहिक स्तम्भ ‘विवेक साहित्य’ के अंतर्गत विवेक जी का व्यंग्य- “गांधी जी आज भी बोलते हैं”)

व्यंग्य लेखक निर्मम, कठोर और मनुष्य-विरोधी नहीं होता है, ऐसा भी नहीं कि उसे सिर्फ बुराई या विसंगति ही दिखती है और ऐसा भी नहीं है कि व्यंग्य, मरखना बैल या कटखना कुत्ता होता है, जिसका स्वभाव ‘जल्दी क्रोध में सींग मारने’ या ‘अकसर काटने वाला’ होता है। व्यंग्य-लेखन एक गंभीर कर्म है। परंपरा से हर समाज की कुछ संगतियाँ होती हैं, सामंजस्य होते हैं, अनुपात होते हैं। ये व्यक्ति और समाज दोनों के होते हैं। जब यह संगति गड़बड़ होती है, तभी व्यंग्य का जन्म होता है। व्यंग्यकार विवेक द्वारा अपने व्यंग्यों में प्रयुक्त  ‘वोट की जुगत में’, ‘गरीबी हटाओ’, ‘सुनहरे कल की और’, ‘फील गुड’, ‘पंद्रह लाख का प्रलोभन’, ‘सीने की नाप’, ‘चाय पर चर्चा’, ‘खटिया पर चौपाल’, ‘मोदी मंत्र’ जैसे जुमले जनता-जनार्दन के बीच से ही उठाए हैं। दरअसल व्यंग्य एक माध्यम है, जो समाज की विसंगतियों, भ्रष्टाचार, सामाजिक शोषण अथवा राजनीति के गिरते स्तर की घटनाओं पर अपरोक्ष रूप से व्यंग्य या तंज कसता है, कटाक्ष करता है जो इन आबाँछित स्थितियों के प्रति पाठकों को सचेत करता है।

अपने व्यंग्यों में व्यंग्य-शिल्पी विनम्र अपने पूर्वज कबीर को स्मरण करते हैं, उनका अनुगमन करते हैं और उनके जैसी खरी-खरी सुनाते हैं। परंतु वे बाजार में खड़े सब की खैर नहीं मांगते, उनका तर्क है कि  ‘क्या खैर मांगने से बात बन जाएगी’? कदापि नहीं। वे, ‘महात्मा कबीर के विचारों से अपनी एक मीटिंग फिक्स करने’ यानी इस पर ‘पुनर्विचार करने’ का सुझाव देते है। खड़ी हिन्दी में आंग्ल भाषा के शब्दों की प्रचुरता, वाक्यों का संक्षिप्तीकरण, संभाषण में कोडिंग-डिकोडिंग कुल मिलाकर हिंगलिश जैसी है इन व्यंग्यों की भाषा। उदाहरण के तौर पर,

“दरअसल यह लव मैरिज का अरेंज़्ड वर्सन था”(शर्म !तुम जहां कहीं हो लौट आओ/24)

”लिंक फॉरवर्ड, रिपोस्ट ढूंढते हुए सर्च इंजिन को भी पसीने आ जाते हैं”(फेक न्यूज/71)

“दुनिया में हर वस्तु का मूल्य मांग और सप्लाई के एकोनॉमिक्स पर निर्भर होता है”(किताबों के मेले/78)

“गड़े मुर्दों को खोज कर सर्च रिसर्च करने लगे”,(सीबीआई का सीबीआई के द्वारा सीबीआई के लिए /98)

व्यंग्यकार ने  अपने व्यंग्यों में कतिपय नए शब्दों को गढा और प्रयोग किया है जैसे, कनफुजाया (किंकर्तव्य विमूढ़), ठुल्ला (पुलिस के लिए प्रयोग कतिपय अशिष्ट शब्द), मिस्सड़ ( बिस्किट, खटमिट्ठा नमकीन और मीठे खुरमों के तीन डिब्बों में जो भी थोड़ा-थोड़ा चूरा बचा का मिश्रण) आदि । व्यंग्यकार ने सामाजिक विसंगतियों की सपाट बयानी (‘अमिधा’ में अभिव्यक्ति ) न कर परोक्षत: (‘व्यंजना’ में व्यंजित) चित्रण किया है। मुहावरे, प्रतीकों और मिथकों का आसरा लेकर वे किसी घटना या व्यक्ति की परतें उधेड़ते हैं तो निशाने पर बैठा व्यक्ति न तो ठीक से हँस पाता है और न ही रो पाता है, बस ! तिलमिला कर रह जाता है। हाँ, कई बार आक्रोश अवश्य पैदा होता है और यही व्यंग्य की ताकत है। उदाहरण के तौर पर –

#“हड़बड़ी में गड़बड़ी से उपजे फेक न्यूज सोशल मीडिया में वैसे ही फैल जाते हैं जैसे कोरोना का वायरस, सस्ता डाटा फेक न्यूज प्रसारण के लिए रक्तबीज है”। (फेक न्यूज/71)

#“मैं पादुका हूँ । वही पादुका, जिन्हें भरत ने भगवान राम के चरणों से उतरवाकर सिंहासन पर बैठाया था। इस तरह मुझे वर्षों राज करने का विशद अनुभव है। सच पूछा जाये तो राज काज सदा से मैं ही चला रही हूँ, क्योंकि जो कुर्सी पर बैठ जाता है वह बाकी सबको जूती के नोक पर ही रखता है। आवाज उठाने वाले को जूती तले मसल दिया जाता है”। (इदं पादुका कथा/91)

#”कलमकार जी ज्यों ही धार्मिक किताबों के स्टाल के पास से निकले तो ये किताबें पूँछ बैठी हैं उनके आसपास सीनियर सिटीजन ही क्यों नजर आते हैं”। (किताबों के मेले)

#“नेता जी बोलते तो हम ना भी मानते, पर जब आँकड़े बोल रहे हैं कि देश की विकास दर  नोट बन्दी से कम नहीं हुई तो क्या करें, मानना ही पड़ेगा। हम तो एक दिन स्टेशन पर अपना मोबाइल वैलेट लेकर स्टाल-स्टाल पर चाय ढूंढ रहे थे, पर हमें चाय नसीब नहीं हुई थी, पर एक कप चाय से देश की विकास दर थोड़े ही गिरती है”। (आँकड़ेबाजी/105)

इंडिया नेटबुक्स, नोएडा से प्रकाशित और बालाजी ऑफसेट से मुद्रित  इस व्यंग्य संग्रह में यदि मुद्रण की भूलों को नजरंदाज कार दिया जावे तो दो सौ रुपये मूल्य का पेपरबैक में आकर्षक आवरण युक्त यह एक उत्तम संकलन है। अपनी बात समाप्त करने के पहले अनुज अभियंता विवेकरंजन से छोटी-छोटी दो बातें अवश्य कहना चाहूँगा-

पंच लाइन (वन लाइनर व्यंग्य वाण) व्यंग्य को रोचकता प्रदान करते हैं, जैसा कि श्रीलाल शुक्ल के “राग दरबारी” में हैं। विशिष्ट दक्षता के बावजूद वे इनका सीमित प्रयोग किया है

माँ(जननी), मातृ भूमि (जन्म भूमि) के क्रम में मातृभाषा से प्रतिबद्धता हमारी जीवंतता का प्रतीक है। अन्य भाषाओं के; विशेषकर अंग्रेजी, प्रचलित शब्दों के अधिकाधिक प्रयोग से हमारी भाषा के भंडार में श्रीवृद्धि तो अवश्य हो रही है , परंतु डर है ! कल को ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ी यह कहने लगे कि, “हम क्या करें हम तो वही पढ़ रहे थे जो हमें पढ़ाया जा रहा था, जैसा हमें पढ़ाया जा रहा था, हम तो यही समझते हैं कि  हमारी भाषा ऐसी ही है, या होना चाहिए”।

देखा जावे तो, व्यंग्यकार ने व्यंग्यों के आंतरिक ढांचे में विडंबनाओं / विसंगतियों / विद्रूपताओं  को पहचानकर सार्वजनिक रूप से प्रकटीकरण करने और अपने अंतस को परिष्कृत करने  का भरपूर प्रयास किया है। उन्होंने आज के फैशन और पैशन को अपने व्यंग्यों में व्यंजित किया है। उनकी अपनी जमीन है, उनका अपना आकाश हैं। जिस आयु-वर्ग और कार्य-संस्कृति के व्यस्त युवालिए ये व्यंग्य लिखे गए हैं, वे वास्तव में उन्हें पढ़ रहे हैं, पढ़ने का आनंद ले रहे हैं, पढ़ना उनकी आदत बनती जा रही है, वे [व्यंग्य के] मर्म को ग्राह्य कर अपनी जीवन-पद्धति (लाइफ स्टाइल) में सकारात्मक सुधार ला रहे हैं। अत: कहा जा सकता है कि व्यंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ अपने उद्देश्य में सफल हुए हैं। यहाँ यह कहने में भी कोई संकोच नहीं  कि इस व्यंग्य-संग्रह (समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य ) को उसके हिस्से का प्यार और दुलार अवश्य प्राप्त होगा।  हम सभी व्यंग्यकार की अन्य प्रकाशाधीन व्यंग्य-कृतियों यथा; “खटर-पटर”, “बकवास काम की”, “जय हो भ्रष्टाचार की” की उत्सुकता से प्रतीक्षा करेंगे।

समीक्षाकार

श्री सुरेन्द्र सिंह पँवार     

201,शास्त्री नगर,गढ़ा,जबलपुर(म.प्र.)-482003 मोबाइल9300104296/7000388332/ईमेल [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 94 ☆ ओ मातृभूमि! – डॉ सुधा कुमारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक चर्चा /समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  डा सुधा कुमारी द्वारा लिखित काव्य संग्रह   “ओ मातृभूमि !” – की चर्चा।

ओ मातृभूमि ! – कवि – डा सुधा कुमारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक – ओ मातृभूमि !

(पांच खण्डो में काव्य रचनाओ का पठनीय संकलन)

कवि – डा सुधा कुमारी

पृष्ठ संख्या – १६०

मूल्य  – ४५० रु,  हार्ड बाउंड

ISBN- 9788194860594

प्रकाशक – किताब वाले, दरिया गंज, नई दिल्ली २

रचना को गहराई से समझने के लिये वांछित होता है कि रचनाकार के व्यक्तित्व, उसके परिवेश, व कृतित्व का किंचित ज्ञान पाठक को भी हो, जिससे अपने परिवेश के अनुकूल लिखित रचनाकार का साहित्य पाठक उसी पृष्ठभूमि पर उतरकर हृदयंगम कर आनन्द की वही अनुभूति कर सके,  जिससे प्रेरित होकर लेखक के मन में रचना का प्रादुर्भाव हुआ होता है. शायद इसीलिये किताब के पिछले आवरण पर  रचनाकार का परिचय प्रकाशित किया जाता है. आवरण के इस प्रवेश द्वार से भीतर आते ही भूमिका, व प्राक्कथन पाठक का स्वागत करते मिलते हैं, जिससे किताब के कलेवर से किंचित परिचित होकर पाठक रचनाओ के अवगाहन का मन बनाता है, और पुस्तक खरीदता है. पुस्तक समीक्षायें इस प्रक्रिया को संक्षिप्त व सरल बना देती हैं और समीक्षक की टिप्पणी को आधार बनाकर पाठक किताब पढ़ने का निर्णय ले लेता है. किंतु इस सबसे परे ऐसी रचनायें भी होती हैं जिन पर किताब अलटते पलटते ही यदि निगाह पड़ जाये तो पुस्तक खरीदने से पाठक स्वयं को रोक नहीं पाता. ओ मातृभूमि ! की रचनायें ऐसी ही हैं. छोटी छोटी सधी हुई, गंभीर, उद्देश्यपूर्ण. दरअसल ये रचनायें लंबे कालखण्ड में समय समय पर लिखी गईं और डायरी में संग्रहित रही हैं. लगता है अवसर मिलते ही डा सुधा कुमारी ने इन्हें पुस्तकाकार छपवाकर मानो साहित्य के प्रति अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर उस प्रसव पीड़ा से मुक्ति पाई है जिसकी छटपटाहट उनमें  लेखन काल से रही होगी.

डा सुधा कुमारी में कला के संस्कार हैं. वे उच्चपद पर सेवारत हैं, उनकी बौद्धिक परिपक्वता हर रचना में प्रतिबिंबित होती है.  वे मात्र शब्दों से ही नहीं, तूलिका और रंगों से केनवास पर भी चित्रांकन में निपुण हैं. ओ मातृभूमि में लघु काव्य खण्ड, देश खण्ड, भाव खण्ड, प्रकृति खण्ड, तथा ईश खण्ड में शीर्षक के अनुरूप समान धर्मी रचनायें संग्रहित हैं.

मैं लेखिका को कलम की उसी यात्रा में सहगामी पाता हूं, जिसमें कथित पाठक हीनता की विडम्बना के बाद भी प्रायः रचनाकार समर्पण भाव से लिख रहे हैं, स्व प्रकाशित कर, एक दूसरे को पढ़ रहे हैं. नीलाम्बर पर इंद्रधनुषी रंगो से एक सुखद स्वप्न रच रहे हैं.

लेखिका चिर आशान्वित हैं, वे लिखती हैं ” समानांतर रेखायें भी अनंत पर मिलती हैं, तुम्हारे साथ चलने की वजह यही उम्मीद रखती है “. या “बुद्धिरूपी राम को दूर किया, अनसुनी कर दी तर्क रूपी  लक्ष्मण की, फिर से दुहराई गई कथा , हृदय सीता हरण की. ” अब इन कसी हुई पंक्तियों की विवेचना प्रत्येक पाठक के स्वयं के अनुभव संसार के अनुरूप व्यापक होंगी ही.

देश खण्ड की एक रचना का अंश है.. ” नित्य जब सताई जाती हैं ललनाएँ, या समिधाओ सी धुंआती हैं दुल्हने तो चुप क्यों रह जाते हो ? तुमने पाषाण कर दिया अहिल्या को ” नारी विमर्श के ये शब्द चित्र बनाते हुये डा सुधा की नारी उनकी लेखनी पर शासन कर रही दिखाई देती है.

ओ मातृभूमि, पुस्तक की शीर्षक रचना में वे लिखती हैं ” तेरा रूप देख कूंची फिसली, मेरे गीत में सरिता बह निकली, ऊंचे सपने जैसे पर्वत, बुन पाऊँ, ओ देश मेरे ” काश कि यही भाव हर भारतीय के मन में बसें तो डा सुधा की लेखनी सफल हो जावे.

उनका आध्यात्मिक ज्ञान व चिंतन परिपक्व है. ईश खण्ड से एक रचना उधृत है ” बंधन में सुख, सुख में बंधन, अर्जुन सा आराध मुझे ! प्रेम विराट कृष्ण सा कहता, आ दुर्योधन! बांध मुझे. बनती मिटती देह जरा से, कर इससे आजाद मुझे. तू लय मुझमें मैं लय तुझमें, दे बंधन निर्बाध मुझे. जीवन स्त्रोत प्रलय ज्वाला हूं, तृष्णा से मत बाँध मुझे. पूर्ण काम हूं, निर्विकार हूं, अंतरतम में साध मुझे.

भाव खण्ड में अपनी “अकविता” में वे लिखती हैं ” क्या कहूं, क्या नाम दूं तुझे ? गीत यदि कहूं तो सुर ताल की पायल तुझे बाँधी नहीं, कविता जो कहूँ तो, किसी अलंकार से सजाया नही. अनाभरण, अनलंकृत, फिर भी तू सुंदर है, संगीत भर उठता है, मन आँगन में जब जब तू घुटनों के बल चलती है, अकविता मेरी बच्ची ! ”

काव्यसंग्रह चित्रयुक्त है एवं देशखण्ड में महामानव सागर तीरे में  संदेश है कि अंतरिक्ष की खोज से पहले   संपूर्ण धरा का जीवन सुखमय बनाना आवश्यक है,  यह उल्लेखनीय है.

यद्यपि छंद शास्त्र की कसौटियों पर संग्रह की रचनाओ का आकलन पिंगल शास्त्रियो की समालोचना का  विषय हो सकता है किंतु हर रचना के भाव पक्ष की प्रबलता के चलते  मैं इस पुस्तक को खरीदकर पढ़ने में जरा भी नही सकुचाउंगा. आप को भी इसे पढ़ने की सलाह देते हुये मैं आश्वस्त हूं.

समीक्षक .. श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 93 ☆ २१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार – संपादक – डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित द्वारा सम्पादित पुस्तक “२१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार” – की समीक्षा।

२१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार – संपादक – डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक – २१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार

संपादन – डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित

प्रकाशक – इण्डिया नेट बुक्स, नोयडा

इण्डिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड लिंक >> २१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार

अमेज़न व फ़्लिपकार्ट पर भी उपलब्ध

व्यंग्य का बहुरंगी अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक संकलन

हिन्दी जगत में साझे साहित्यिक संकलनो की प्रारंभिक परम्परा तार सप्तक से शुरू हुई थी. वर्तमान अपठनीयता के युग में साहित्यिक किताबें न्यूनतम संख्या में प्रकाशित हो रही हैं, यद्यपि आज भी व्यंग्य के पाठक बहुतायत में हैं. इस कृति के संपादक द्वय डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित ने व्यंग्य के व्हाट्स अप समूह का सदुपयोग करते हुये यह सर्वथा नवाचारी सफल प्रयोग कर दिखाया है.तकनीक के प्रयोग से  इस वैश्विक व्यंग्य संकलन का प्रकाशन ३ माह के न्यूनतम समय में पूरा हुआ है. नवीनतम हिन्दी साफ्टवेयर के प्रयोग से इस किताब की प्रूफ रीडिंग कम्प्यूटर से ही संपन्न की गई है. किताब भारी डिमांड में है तथा प्रतिभागी लेखको को मात्र ८० रु के कूरियर चार्ज पर घर पहुंचाकर भेंट की जा रही है.   तार सप्तक से प्रारंभ साझा प्रकाशन की परम्परा का अब तक का चरमोत्कर्ष है व्यंग्य का बहुरंगी कलेवर वाला,अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक व्यंग्य संकलन”२१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार”. ६०० से अधिक पृष्ठों के इस ग्रंथ का शोध महत्व बन गया है. इससे पहले डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित”अब तक ७५”, व उसके बाद”इक्कीसवीं सदी के १३१ श्रेष्ठ व्यंग्यकार” सामूहिक व्यंग्य संकलनो का संपादन, प्रकाशन भी सफलता पूर्वक कर चुके हैं.

व्यंग्य अभिव्यक्ति की एक विशिष्ट विधा है. व्यंग्यकार अपनी दृष्टि से समाज को देखता है और समाज में किस तरह से सुधार हो सके इस हेतु व्यंग्य के माध्यम से विसंगतियां उठाता है. संग्रह की रचनाएं समाज के सभी वर्ग के विविध विषयों का प्रतिनिधित्व करती हैं. एक साथ विश्व के 251 व्यंग्यकारों की रचनाएं एक ही संकलन में सामने आने से पाठकों को एक व्यापक फलक पर वर्तमान व्यंग्य की दशा दिशा का एक साथ अवलोकन करने का सुअवसर मिलता है. व्यंग्य प्रस्तुति में टंकण हेतु केंद्रीय हिन्दी निदेशालय की देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण के दिशा निर्देश अपनाये गये हैं. रचनाओ के संपादन में आधार भूत मानव मूल्यों, जातिवाद, नारी के प्रति सम्मान, जैसे बिन्दुओ पर गंभीरता से ध्यान रखा गया है, जिससे ग्रंथ शाश्वत महत्व का बन सका है.

“इक्कीसवीं सदी के 251 अंतरराष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार” में व्यंग्य के पुरोधा परसाई की नगरी जबलपुर से इंजी विवेक रंजन श्रीवास्तव, इंजी सुरेंद्र सिंह पवार, इंजी राकेश सोहम, श्री रमेश सैनी, श्री जयप्रकाश पाण्डे, श्री रमाकांत ताम्रकार की विभिन्न किंचित दीर्घजीवी विषयों की रचनायें शामिल हैं. मॉरीशस स्थित विश्व हिंदी सचिवालय द्वारा विश्व को पाँच भौगोलिक क्षेत्रो  में बाँटकर अंतरराष्ट्रीय व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था. संकलन में इस प्रतियोगिता के विजेताओं में से सभी प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले व्यंग्यकारों कुसुम नैपसिक (अमेरिका),  मधु कुमारी चौरसिया (युनाइटेड किंगडम),  वीणा सिन्हा (नेपाल),  चांदनी रामधनी‘लवना’ (मॉरीशस),  राकेश शर्मा (भारत) जिन्होंने प्रथम पुरस्कार जीते और आस्था नवल (अमेरिका),  धर्मपाल महेंद्र जैन (कनाडा),  रोहित कुमार ‘हैप्पी’ (न्यूज़ीलैंड),  रीता कौशल (ऑस्ट्रेलिया) की रचनायें भी संकलित हैं. इनके अलावा विदेश से शामिल होने वाले व्यंग्यकार हैं- तेजेन्द्र शर्मा (युनाइटेड किंगडम),  प्रीता व्यास (न्यूज़ीलैंड),  स्नेहा देव (दुबई),  शैलजा सक्सेना,  समीर लाल ‘समीर’ और हरि कादियानी (कनाडा) एवं हरिहर झा (ऑस्ट्रेलिया)  इस तरह  की भागीदारी से यह संकलन सही मायनों में अंतरराष्ट्रीय संकलन बन गया है.

भारत से इस संकलन में 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के व्यंग्यकारों ने हिस्सेदारी की है.  मध्य प्रदेश के 65,उत्तर प्रदेश  के 39,  नई दिल्ली  के  32, राजस्थान के 32,  महाराष्ट्र  के 18, छत्तीसगढ़  के 12,  हिमाचल प्रदेश के 8, बिहार के 6, हरियाणा के 4, चंडीगढ़ के 3, झारखंड  के 4, उत्तराखंड के 4, कर्नाटक के 4,  पंजाब के 2, पश्चिम बंगाल के 2, तेलंगाना से 2, तमिलनाडु से 1, गोवा से 1 और  जम्मू-कश्मीर से 1 व्यंग्यकारों के व्यंग्य हैं.

यदि स्त्री और पुरुष लेखकों की बात करें तो इसमें 51 व्यंग्य लेखिकाएँ शामिल हुई हैं. इस बहु-रंगी व्यंग्य संचयन में जहां डॉ सूर्यबाला, हरि जोशी,  हरीश नवल, सुरेश कांत, सूरज प्रकाश, प्रमोद ताम्बट, जवाहर चौधरी, अंजनी चौहान, अनुराग वाजपेयी, अरविंद तिवारी, विवेक रंजन श्रीवास्तव, विनोद साव,शांतिलाल जैन, श्याम सखा श्याम, मुकेश नेमा, सुधाकर अदीब, स्नेहलता पाठक, स्वाति श्वेता, सुनीता शानू जैसे सुस्थापित व चर्चित हस्ताक्षरो के व्यंग्य  भी पढ़ने मिलते हैं, वही नवोदित व्यंग्यकारों  की रचनाएं एक साथ पढ़ने को सुलभ है

संवेदना की व्यापकता, भाव भाषा शैली और अभिव्यक्ति की दृष्टि से व्यंग्य एक विशिष्ट विधा व अभिव्यक्ति का लोकप्रिय माध्यम है. प्रत्येक अखबार संपादकीय पन्नो पर व्यंग्य छापता है. पाठक चटकारे लेकर रुचि पूर्वक व्यंग्य पढ़ते हैं.  इस ग्रंथ में व्यंग्य की विविध शैलियां उभर कर सामने आई है जो शोधार्थियों के लिए निश्चित ही गंभीर शोध और अनुशीलन का विषय होगी. इस महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्य की अनुगूंज हिन्दी साहित्य जगत में हमेशा रहेगी.

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print