हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ व्यंग्य संग्रह – ‘लाकडाउन’’ – संपादक : श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ चर्चाकार – डा. साधना खरे

 ☆  व्यंग्य संग्रह – ‘लाकडाउन’’ – संपादक – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  चर्चाकार – डा. साधना खरे ☆ 

व्यंग्य संग्रह  – लाकडाउन

संपादन.. विवेक रंजन श्रीवास्तव  

पृष्ठ – १६४

मूल्य – ३५० रु

IASBN 9788194727217

प्रकाशक – रवीना प्रकाशन’ गंगा विहार’ दिल्ली

हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की स्वीकार्यता लगातार बढ़ी है. पाठको को व्यंग्य में कही गई बातें पसंद आ रही हैं.   व्यंग्य लेखन घटनाओ पर त्वरित प्रतिक्रिया व आक्रोश की अभिव्यक्ति का सशक्त मअध्यम बना है. जहां कहीं विडम्बना परिलक्षित होती है’ वहां व्यंग्य का प्रस्फुटन स्वाभाविक है. ये और बात है कि तब व्यंग्य बड़ा असमर्थ नजर आता है जब उस विसंगति के संपोषक जिस पर व्यंग्यकार प्रहार करता है’ व्यंग्य से परिष्कार करने की अपेक्षा’ उसकी उपेक्षा करते हुये’ व्यंग्य को परिहास में उड़ा देते हैं. ऐसी स्थितियों में सतही व्यंग्यकार भी व्यंग्य को छपास का एक माध्यम मात्र समझकर रचना करते दिखते हैं.

विवेक रंजन श्रीवास्तव देश के एक सशक्त व्यंग्यकार के रूप में स्थापित हैं. उनकी कई किताबें छप चुकी हैं. उन्होने कुछ व्यंग्य संकलनो का संपादन भी किया है. उनकी पकड़ व संबंध वैश्विक हैं. दृष्टि गंभीर है. विषयो की उनकी सीमायें व्यापक है.

वर्ष २०२० के पहले त्रैमास में ही सदी में होने वाली महामारी कोरोना का आतंक दुनिया पर हावी होता चला गया. दुनिया घरो में लाकडाउन हो गई. इस पीढ़ी के लिये यह न भूतो न भविष्यति वाली विचित्र स्थिति थी. वैश्विक संपर्क के लिये इंटरनेट बड़ा सहारा बना. ऐसे समय में भी रचनात्मकता नही रुक सकती थी. कोरोना काल निश्चित ही साहित्य के एक मुखर रचनाकाल के रूप में जाना जायेगा. इस कालावधि में खूब लेखन हुआ. इंटरनेट के माध्यम से फेसबुक’ गूगल मीट’ जूम जैसे संसाधनो के प्रयोग करते हुये ढ़ेर सारे आयोजन हो रहे हैं. यू ट्यूब इन सबसे भरा हुआ है.  विवेक जी ने भी रवीना प्रकाशन के माध्यम से कोरोना तथा लाकडाउन विषयक विसंगतियो पर केंद्रित व्यंग्य तथा काव्य रचनाओ का अद्भुत संग्रह लाकडाउन शीर्षक से प्रस्तुत किया है. पुस्तक आकर्षक है. संकलन में वरिष्ठ’ स्थापित युवा सभी तरह के देश विदेश के रचनाकार शामिल किये गये हैं.

गंभीर वैचारिक संपादकीय के साथ ही रमेशबाबू की बैंकाक यात्रा और कोरोना तथा महादानी गुप्तदानी ये दो महत्वपूर्ण व्यंग्य लेख स्वयं विवेक रंजन श्रीवास्तव के हैं’ जिनमें कोरोना जनित विसंगति जिसमें परिवार से छिपा कर की गई बैंकाक यात्रा तथा शराब के माध्यम से सरकारी राजस्व पर गहरे कटाक्ष लेखक ने किये हैं’ गुदगुदाते हुये सोचने पर विवश कर दिया है.

जिन्होने भी कोरोना के आरंभिक दिनो में तबलीकी जमात की कोरोना के प्रति गैर गंभीर प्रवृत्ति और टीवी चैनल्स की स्वयं निर्णय देती रिपोर्टिग देखी है उन्हें जहीर ललितपुरी का व्यंग्य लाकडाउन में बदहजमी पढ़कर मजा आ जायेगा. डा अमरसिंह का लेख लाकडाउन में नाकडाउन में हास्य है, उन्होने पत्नी के कड़क कोरोना अनुशासन पर कटाक्ष किया है. लाकडाउन के समाज पर प्रभाव भावना सिंह ने मजबूर मजदूर’ रोजगार’ प्रकृति सारे बिन्दुओ का समावेश करते हुये  पूरा समाजशास्त्रीय अध्ययन कर डाला है.

कुछ जिन अति वरिष्ठ व्यंग्य कारो से संग्रह स्थाई महत्व का बन गया है उनमें इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि ब्रजेश कानूनगो जी का व्यंग्य ” मंगल भवन अमंगल हारी ” है. उन्होंने संवाद शैली में गहरे कटाक्ष करते हुये लिखा है ” उन्हें अब बहुत पश्चाताप भी हो रहा था कि शास्त्रा गृह को समृद्ध करने के बजाय वे औषधि विज्ञान और चिकित्सालयों के विकास पर ध्यान क्यो नही दे पाये “. केनेडा से धर्मपाल महेंद्र जैन की व्यंग्य रचना वाह वाह समाज के तबलीगियों से पठनीय वैचारिक व्यंग्य रचना है. उनकी दूसरी रचना लाकडाउन में दरबार में उन्होंने धृतराष्ट्र के दरबार पर कोरोना जनित परिस्थितियों को आरोपित कर व्यंग्य उत्पन्न किया है. इसी तरह प्रभात गोस्वामी देश के विख्यात व्यंग्यकारो में से एक हैं’ कोरोना पाजिटिव होने ने पाजिटिव शब्द को निगेटिव कर दिया है’उनका व्यंग्य नेगेटिव बाबू का पाजिटिव होना बड़े गहरे अर्थ लिये हुये है’वे लिखते हैं  हम राम कहें तो वे मरा कहते हैं.  सुरेंद्र पवार परिपक्व संपादक व रचनाकार हैं’ उन्होंने अपने व्यंग्य के नायक बतोले के माध्यम से ” भैया की बातें में”  घर से इंटरनेट तक की स्थितियों का रोचक वर्णन कर पठनीय व्यंग्य प्रस्तुत किया है. डा प्रदीप उपाध्याय वरिष्ठ बहु प्रकाशित व्यंग्यकार हैं’ उनके दो व्यंग्य संकलन में शामिल हैं’ “कोरोनासुर का आतंक और भगवान से साक्षात्कार” तथा “एक दृष्टि उत्तर कोरोना काल पर”. दोनो ही व्यंग्य उनके आत्मसात अनुभव बयान करते बहुत रोचक हैं.  कोरोना काल में थू थू करने की परंपरा के माध्यम से युवा व्यंग्यकार अनिल अयान ने बड़े गंभीर कटाक्ष किये हैं’ थू थू करने का उनका शाब्दिक उपयोग समर्थ व्यंग्य है. अजीत श्रीवास्तव बेहद परिपक्व व्यंग्यकार हैं’ उनकी रचना ही  शायद संग्रह का सबसे बड़ा लेख है  जिसमें छोटी छोटी २५ स्वतंत्र कथायें कोरोना काल की घटनाओ पर उनके सूक्ष्म निरीक्षण से उपजी हुई’ पठनीय रचनायें हैं. राकेश सोहम व्यंग्य के क्षेत्र में जाना पहचाना चर्चित नाम है’ उनका छोटा सा लेख बंशी बजाने का हुनर बहुत कुछ कह जाताने में सफल रहा है. रणविजय राव ने कोरोना के हाल से बेहाल रामखेलावन में बहुत गहरी चोट की है’ उन जैसे परिपक्व व्यंग्यकार से ऐसी ही गंभीर रचना की अपेक्षा पाठक करते हैं.

महिला रचनाकारो की भागीदारी भी उल्लेखनीय है. सबसे उल्लेखनीय नाम अलका सिगतिया का है. लाकडाउन के बाद जब शराब की दूकानो पर से प्रतिबंध हटा तो जो हालात हुये उससे उपजी विसंगती उनकी लेखनी का रोचक विषय बनी ” तलब लगी जमात ” उनका पठनीय व्यंग्य है.  अनुराधा सिंह ने दो छोटे सार्थक व्यंग्य सांप ने दी कोरोना को चुनौती और वर्क फ्राम होम ऐसा भी लिखा है. छाया सक्सेना प्रभु समर्थ व्यंग्यकार हैं उन्होने अपने व्यंग्य जागते रहो में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं वे लिखती हैं लाकडाउन में पति घरेलू प्राणी बन गये हैं’ कभी बच्चो को मोबाईल से दूर हटाते माता पिता ही उन्हें इंटरनेट से पढ़ने  प्रेरित कर रहे हैं’ कोरोना सब उल्टा पुल्टा कर रहा है. शेल्टर होम में डा सरला सिंह स्निग्धा की लेखनी करुणा उपजाती है .सुशीला जोशी विद्योत्तमा की दो लघु रचनायें लाकडाउन व व्यसन संवेदना उत्पन्न करती हैं. राखी सरोज के लेख गंभीर हैं.

गौतम जैन ने अपनी रचना दोस्त कौन दुश्मन कौन में संवेदना को उकेरा है. डा देवेश पाण्डेय ने लोक भाषा का उपयोग करते हुये पनाहगार लिखा है. डा पवित्र कुमार शर्मा ने एक शराबी का लाकडाउन में शराबियो की समस्या को रेखांकित किया है. कोरोना से पीड़ित हम थे ही और उन्ही दिनो में देश में भूकम्प के जटके भी आये थे’ मनीष शुक्ल ने इसे ही अपनी लेखनी का विषय बनाया है.डा अलखदेव प्रसाद ने स्वागतम कोरोना लिखकर उलटबांसी की हे. राजीव शर्मा ने कोरोना काल में मनोरंजक मीडीया लिखकर मीडीया के हास्यास्पद’ उत्तेजना भरे ‘त्वरित के चक्कर में असंपादित रिपोर्टर्स की खबर ली है. व्यग्र पाण्डे ने मछीकी और मास्क में प्रकृति पर लाकडाउन के प्रभाव पर मानवीय प्रदूषण को लेकर कटाक्ष किया है. एम मुबीन ने कम शब्दो की रचना में बड़ी बातें कह दी हैं. दीपक क्रांति की दो रचनायें संग्रह का हिस्सा हैं ’नया रावण तथा मजबूर या मजदूर’ कोरोना काल के आरंभिक दिनो की विभीषिका का स्मरण इन्हें पढ़कर हो आता है. महामारी शीर्षक से धर्मेंद्र कुमार का आलेख पठनीय है.

दीपक दीक्षित’ बिपिन कुमार चौधरी’ शिवमंगल सिंह’ प्रो सुशील राकेश’ उज्जवल मिश्रा और राहुल तिवारी की कवितायें भी हैं.

कुल मिलाकर  पुस्तक बहुत अच्छी बन पड़ी है ’यद्यपि प्रकाशन में सावधानी की जरूरत दिखती है’ कई रचनाओ के शीर्षक गलती से हाईलाईट नही हो पाये हैं’ रचनाओ के अंत में रचनाकारो के पते देने में असमानता खटकती है.कीमत भी मान्य परमंपरा जितने पृष्ठ उतने रुपये के फार्मूले पर किंचित अधिक लगती है’  पर फिर भी लाकडाउन में प्रकाशित साहित्य की जब भी शोध विवेचना होगी इस संकलन की उपेक्षा नही की जा सकेगी यह तय है. जिसके लिये संपादक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव व प्रकाशक बधाई के पात्र हैं.

 

चर्चाकार.. डा साधना खरे’

भोपाल

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ व्यंग्य संग्रह – ‘‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य’’ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ डा. स्नेहलता पाठक

डा. स्नेहलता पाठक

☆ आदमी होने की तमीज सिखाता व्यंग्य संग्रह ☆

 ☆ पुस्तक चर्चा ☆ व्यंग्य संग्रह – ‘‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य’’ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ डा. स्नेहलता पाठक ☆ 

पुस्तक – व्यंग्य संग्रह – ‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य

व्यंग्यकार  – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव  विनम्र’

प्रकाशक – इंडिया नेट बुक्स, दिल्ली 

मूल्य – 300/- हार्ड बाउंड

200/- पेपर बैक

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव व्यंग्य लेखन जगत का जाना माना नाम है । पेशे से इंजीनियर होते हुए भी भाषा और साहित्य में मजबूत पकड़ रखते हैं । यही कारण है कि लंबी सी बात को कम से कम शब्दों में कह देना उनके लेखन की विशेषता है । उनका मानना है कि कोई भी व्यंग्य रचना अपने आप में इतनी चुटीली हो कि उसे प्रभावशाली बनाने के लिए शाब्दिक साज-सज्जा की जरूरत ही न पड़े । सौम्य स्वभाव के विवेक रंजन का यही स्वभाव रचनाओं में देखा जा सकता है । वे बड़ी से बड़ी विसंगति को बिना आक्रोषित हुए बहुत ही सौम्यता से सामने रखने में महारथी हैं । अर्थात ‘‘जोर का झटका धीरे से’’ वाली कथनी चरितार्थ होती सी लगती है । संग्रह की दसवें नंबर की रचना ‘‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य’’ जो पुस्तक का शीर्षक भी है रचनाकार की इसी गंभीरता को उजागर करती है । लेखक का आशय है कि अक्सर लोगों की भलाई के लिए बनाये गये कानून भी आदमी के लिये समस्या बन चुके हैं । संक्षेप में कहें तो इस संग्रह की सभी  रचनाऐं अव्यवस्थित व्यवस्था को आगाह करती नजर आती हैं ।

व्यंग्य का उद्देश्य है नकारात्मकता से सकारात्मका की ओर चलना । गलत का प्रतिकार करने की ताकत समाज को देना । आज पूरा देश आँकड़ेबाजी के खेल में मस्त है । आँकड़ेबाजी का यह खेल जिस  मजबूती से अपनी जड़ें जमा रहा है उसके सामने मुँह से निकले आश्वासन भी निरर्थक साबित हो रहे हैं । आज पूरा देश इसी आँकड़ेबाजी के मोहजाल में घिरकर अपनी पीठ ठोंक रहा है । टी.वी. पर आने वाला घटिया से घटिया उत्पाद भी मार्केटिंग की इसी चाल से प्रभावित होकर अपने पांसे फेंक रहा है।  ।  ताज्जुब की बात है कि रंग बदलते माहौल में आम आदमी झूठ को ही सच समझकर कठपुतली की तरह नाच रहा है । वह हतप्रभ है आंकड़ेबाजी के इस मायाजाल से, मगर चाहकर भी इससे मुक्त नहीं हो सकता । क्योंकि चाटुकारिता से बजबजाती आज के राजनीतिक जलाशय के किनारे कोई कबीर खड़ा दिखाई नहीं देता जो ललकार कर आवाज बुलंद करने का हौंसला रखता हो । ‘‘जो घर जारे आपना सो चले हमारे साथ’’

आज का समाज ऐसी विषम स्थिति में जीने को मजबूर है, जिसे बार बार हर जरूरत के लिए पंजीकृत होने के अगम्य और दुष्कर रास्तों से होकर गुजरना पड़ रहा है । रह रह कर मन में आशंका जन्म ले रही कि आने वाले समय में शायद आम आदमी को अपने पेट के भूख की पंजीयन के लिये भी मजबूर कर दिया जायेगा । ताकि वह साबित कर सके कि भगवान ने उसे भी वह पेट दिया है जिसमें भूख लगती है । ‘‘व्यंग्यकार समस्या का पंजीकरण में एक जगह लिखता है कि अगले बरस चुनाव होने वाले है । राम भरोसे को उम्मीद है कि कठिनाइयों का कुछ न कुछ तो हल निकलेगा ही । मगर समस्या यह कि जब तक वह समस्या का पंजीकरण नहीं करवायेगा तब तक उसकी समस्या दर्ज ही नहीं होगी । इस पंजीयन के लिये रामभरोसे खिड़की दर खिड़की झांकता फिरता है मगर हर खिड़की  बंद होने के कारण उसे निराश कर देती है । तात्पर्य यह है कि रामभरोसे का भूखे रहना भी पंजीयन के बिना मान्य नहीं है । साथ में पेट की फोटोकापी भी जमा करनी होगी जो डाक्टर द्वारा सत्यापति हो कि यह रामभरोसे का ही पेट है । इतनी जिल्लतों के बाद भी आम आदमी बुरा नहीं मानता । क्योंकि सरकारी फरमान का बुरा मानना भी राष्ट्रद्रोह मान लिया गया है ।

आज की राजनीति की गाड़ी ठकुर सुहाती के पेट्रोल से चलती है । जी हुजूरी में ही पैसा है, रूतवा है और शांति है । इसमें पंजीयन के लिये जिल्लत नहीं उठानी पड़ती । पेट की भूख शांत करना है तो जी हुजूरी का चिमटा बजाकर भजन गाना क्या बुरा है? प्रभु ‘‘मेरे अवगुण चित न धरो’’ । इसमें शर्म किस बात की । आज की राजनीति में शर्म नामक शब्द सिरे से बर्खास्त कर दिया गया है । हमारे पूर्वज भी कह गये हैं कि ‘‘जिसने की शरम उसके फूटे करम’’ आज की व्यवस्था ने उसे जस का तस अपना लिया है । ‘‘शर्म तुम जहाँ कहीं भी हो लौट आओ’’ शीर्षक व्यंग्य संग्रह में दर्ज है । आज के अपडेट होते समय में पुरानी हिदायतों को वापस लाना आउट डेटेड मान लिया गया है । जो शर्म पहले जीवन का आभूषण मानी जाती थी आज वही अभ्रदता और किस्से कहानियों का हिस्सा बन गई है । आज अपनी गलती पर शर्मसार होना अभद्रता की कैटेगरी में शामिल हो गया है, चाहे जितना झूठ बोलो । चाहे जितना दूसरों का सुख छीनकर अपना घर भर लो मगर शर्म मत करो । कुर्सी की खातिर अपने आपको बेंच दो । कोई कुछ नहीं कहेगा । क्योंकि बिकना तो हमारी परंपरा है । जो सदियों से चली आ रही है।

विवेक रंजन जी गांधी और कबीर के सिद्धांतो के हिमायती हैं । एक जगह वे अति संवेदनशील होकर लिखते हैं कि आज खैर मांगने से भी किसी कमजोर की मजबूरी कम नहीं हो सकती । और न ही किसी भूखे को रोटी मिल सकती है । रचनाकार का मानना है कि मांगना केवल एक शब्द मात्र नहीं है । एक आशा है । विश्वास है । प्रार्थना है ।जो किसी मजबूर की हारी हुई आंखों से निकलती है । अतः जब तक व्यवस्था इस मजबूरी को दूर करने का प्रण अपने आचरण में नहीं उतारेगी तब तक किसी रामभरोसे का जीवन सुधर नहीं सकता । आज दिखावे का दौर चल रहा है । जिसमें खाली वायदों के गुब्बारे उड़ाते रहो, समस्यायें वहीं की वहीं रहेंगी । आशय यह है कि जब तक उन गुब्बारों में संवेदनशीलता की हवा नहीं भरी जायेगी तब तक दूर के ढोल सुहावने ही रहेंगे ।

उनके संग्रह में संग्रहीत सभी रचनाएँ सामयिक समस्याओं को लेकर लिखी गई हैं । फिर चाहे शराब की समस्या हो या मास्क की । सीबीआई की बात हो या स्वर्ग के द्वार पर कोरोना टेस्ट की । बिना पंजीकरण के तो आप बीमार भी नहीं पड़ सकते । इस प्रकार हम देखते हैं कि इन रचनाओं को आकार देते समय रचनाकार की पारखी नजर ऊंचाई पर उड़ते द्रोण की तरह चहुँतरफा देखती और परखती है । न केवल देखती है बल्कि उसमें निहित विसंगतियों का विरोध भी करती है । आम आदमी को सचेत करती है । उसे अधिकारों के प्रति सजग होना सिखाती है । लेखक की नजर चाहती है कि जीवन में चारों ओर समरसता का फैलाव हो । ताकि हर आदमी को वे सारे अधिकार मिल सकें जिनका वह अधिकारी होता है ।

संक्षेप में कह सकते हैं कि व्यंग्य लेखन ऐसा पाना है जिसकी सहायता से समाज में फैली  बुराइयों को उखाड़ फेंका जा सकता है । परसाई के शब्दों में व्यंग्य एक ऐसी स्पिरिट है जो समाज को अंधेरे से उजाले की ओर प्रेरित करता है । इसी उद्देश्य के साथ संग्रह की सभी रचनाएँ आदमी को आदमी होने की तमीज सिखाती हुई आगे बढ़ती हैं । पेशे से इंजीनियर होने के नाते उनका संग्रह इस बात की पुरजोर वकालत करता है कि रचनायें लिखी नहीं जाती गढ़ी जाती हैं । वह अपनी वैचारिक छैनी और हथौड़ी से एक एक शब्द के अर्थ और प्रसंग को

ध्यान में रखते हुये इस प्रकार गढ़ता है कि कोई भी रचना व्यर्थ के शब्दों से बोझीली न होने पाये । उनकी छोटे छोटे कलेवर वाली हर रचना ‘‘देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’’ वाली बिहारी के दृष्टिकोण को साबित करती है । यही कारण है कि उनकी हर रचना शुरू से अंत तक एक माला में, गुंथे हुये फूलों सी लगती है । समीक्षक यदि संग्रह में किसी त्रुटि का उल्लेख न करें तो उसकी ईमानदारी पर शक होता है । अतः एक बात कहना चाहूंगी कि संग्रह के शीर्षक में जुड़े ‘‘व अन्य व्यंग्य’’ शब्द पढ़ते हुये किसी आधार पाठ्य पुस्तक सा भ्रम होने लगता है । अतः ये शब्द व्यंग्य संग्रह के लिए सार्थक से नहीं लग रहे।

इन्हीं शब्दों के साथ व्यंग्यकार को शुभकामनाएँ देती हूँ और आशा करती हूँ कि उनका यह व्यंग्य संग्रह अपने उद्देश्य में सफल होकर व्यंग्य जगत में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करेगा ।

समीक्षाकार

डा. स्नेहलता पाठक

9406351567

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 47 ☆ व्यंग्य संग्रह – बता दूं क्या… – संपादन – डा प्रमोद पाण्डेय ☆ सह संपादन – श्री राम कुमार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है व्यंग्य  संग्रह   “बता दूं क्या…” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – बता दूं क्या… # 47 ☆ 
पुस्तक चर्चा

पुस्तक – व्यंग्य संग्रह – बता दूं क्या…

संपादन – डा प्रमोद पाण्डेय

सह संपादन – श्री राम कुमार 

प्रकाशक – आर के पब्लिकेशन, मुम्बई

पृष्ठ – १४४

मूल्य – २९९ रु हार्ड कापी

ISBN 9788194815273

वर्ष २०२०

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – बता दूं क्या… – संपादन – डा प्रमोद पाण्डेय ☆ सह संपादन – श्री राम कुमार ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

महाराष्ट्र के राजभवन में, राज्यपाल कोशियारी जी ने विगत दिनो आर के पब्लिकेशन, मुम्बई से सद्यः प्रकाशित व्यंग्य संग्रह बता दूं क्या… का विमोचन किया. संग्रह में देश के चोटी के पंद्रह व्यंग्यकारो के महत्वपूर्ण पचास सदाबहार व्यंग्य लेख संकलित हैं. एक मराठी भाषी प्रदेश से प्रकाशन और फिर बड़े गरिमामय तरीके से राज्यपाल जी द्वारा विमोचन यह रेखांकित करने को पर्याप्त है कि हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की स्वीकार्यता लगातार बढ़ रही है. लगभग सभी समाचार माध्यमो से इस किताब के विमोचन की व्यापक चर्चा देश भर में हो रही है.

पाठक व्यंग्य पढ़ना पसंद कर रहे हैं. लगभग प्रत्येक समकालीन घटना पर व्यंग्य लेखन, त्वरित प्रतिक्रिया व आक्रोश की अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में पहचान स्थापित कर चुका है. यह समय सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक विसंगतियो का समय है. जहां कहीं विडम्बना परिलक्षित होती है, वहां व्यंग्य का प्रस्फुटन स्वाभाविक है. हर अखबार संपादकीय पन्नो पर प्रमुखता से रोज ही स्तंभ के रूप में व्यंग्य प्रकाशन करते हैं. ये और बात है कि तब व्यंग्य बड़ा असमर्थ नजर आता है जब उस विसंगति के संपोषक जिस पर व्यंग्यकार प्रहार करता है, व्यंग्य से परिष्कार करने की अपेक्षा, उसकी उपेक्षा करते हुये, व्यंग्य को परिहास में उड़ा देते हैं. ऐसी स्थितियों में सतही व्यंग्यकार भी व्यंग्य को छपास का एक माध्यम मात्र समझकर रचना करते दिखते हैं. पर इन सारी परिस्थितियो के बीच चिरकालिक विषयो पर भी क्लासिक व्यंग्य लेखन हो रहा है. यह तथ्य बता दूं क्या… में संकलन हेतु चुने गये व्यंग्य लेख स्वयमेव उद्घोषित करते हैं. जिसके लिये युवा संपादक द्वय बधाई के सुपात्र है.

बता दूं क्या… पर टीप लिखते हुये प्रख्यात रचनाकार सूर्यबाला जी आश्वस्ति व्यक्त करती है कि अपनी कलम की नोंक तराशते वरिष्ठ व युवा व्यंग्यकारो का यह संग्रह व्यंग्य की उर्वरा भूमि बनाती है. निश्चित ही इस कृति में पाठको को व्यंग्य के कटाक्ष का आनंद मिलेगा, विडम्बनाओ पर शब्दो का अकाट्य प्रहार मिलेगा, व्यंग्य के प्रति रुचि जागृत करने और व्यंग्य के शिल्प सौष्ठव को समझने में भी यह कृति सहायक होगी. हय संग्रह किसी भी महाविद्यालयीन पाठ्य क्रम का हिस्सा बनने की क्षमता रखती है क्योंकि इसमें में पद्मश्री डा ज्ञान चतुर्वेदी, डा हरीश नवल, डा सुधीर पचौरी, श्री संजीव निगम, श्री सुभाष काबरा, श्री सुधीर ओखदे, श्री शशांक दुबे, श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव, डा वागीश सारस्वत, सुश्री मीना अरोड़ा, डा पूजा कौशिक, श्री धर्मपाल महेंद्र जैन, श्री देवेंद्रकुमार भारद्वाज, डा प्रमोद पाण्डेय व श्री रामकुमार जैसे मूर्धन्य, बहु प्रकाशित व्यंग्य के महारथियो सहित युवा व्यंग्य शिल्पियो के स्थाई महत्व के दीर्घ कालिक व्यंग्य प्रकाशित किये गये हैं. व्यंग्यकारो में व्यवसाय से चिकित्सक, इंजीनियर, बैंककर्मी, शिक्षाविद, राजनेता, लेखक, संपादक, महिलायें, मीडीयाकर्मी, विदेश में हिन्दी व्यंग्य की ध्वजा लहराते व्यंग्यकार सभी हैं, स्वाभाविक रूप से इसके चलते रचनाओ में शैलीगत भाषाई विविधता है, जो पाठक को एकरसता से विमुक्त करती है.

किताब का शीर्षक व्यंग्य युवा समीक्षक डा प्रमोद पाण्डेय व कृति के संपादक का है, जिसमें उन्होने एक प्रश्न वाचक भाव बता दूं क्या.. को लेकर मजेदार व्यंग्य रचा है.आज जब सूचना के अधिकार से सरकार पारदर्शिता का स्वांग रच रही है,एक क्लिक पर सब कुछ स्वयं अनावृत होने को उद्यत है, तब भी  सस्पेंस, ब्लैकमेल से भरा हुआ यह वाक्य बता दूं क्या किसी की भी धड़कने बढ़ाने को पर्याप्त है, क्योकि विसंगति यह है कि हम भीतर बाहर वैसे हैं नही जैसा स्वयं को दिखाते हैं. डा प्रमोद पाण्डेय के ही अन्य व्यंग्य भावना मर गई तथा गाली भी किताब का हिस्सा हैं. केनेडा के धर्मपाल महेंद्र जैन की तीन रचनायें साहब के दस्तखत, कलमकार नारे रचो व महालक्षमी जी की दिल्ली यात्रा प्रस्तुत की गई हैं. श्री देवेनद्र कुमार भारद्वाज की रचनायें काला धन, कलम किताब और स्त्री नरक में परसू, इश्तिहारी शव यात्रा व किट का कमाल, और रिटेलर चीफ गेस्ट का जमाना हैं.विवेक रंजन श्रीवास्तव देश के एक सशक्त व्यंग्यकार के रूप में स्थापित हैं  उनकी कई किताबें छप चुकी हैं कुछ व्यंग्य संकलनो का संपादन भी किया है उनकी पकड़ व संबंध वैश्विक हैं,दृष्टि गंभीर है ” आत्मनिर्भरता की उद्घोषणा करती सेल्फी”, “आभार की प्रतीक्षा”, और “श्रेष्ठ रचनाकारो वाली किताब के लिये व्यंग्य ” उनकी प्रस्तुत रचनायें हैं. जिन अति वरिष्ठ व्यंग्य कारो से संग्रह स्थाई महत्व का बन गया है उनमें सबसे बड़ी उपलब्धि पद्मश्री डा ज्ञान चतुर्वेदी जी के व्यंग्य ” मार दिये जाओगे भाई साब ” एवं “सुअर के बच्चे और आदमी के” हैं ये व्यंग्य इंटरनेट या अन्य स्थानो पर पूर्व सुलभ स्थाई महत्व की उल्लेखनीय रचनायें हैं . डा हरीश नवल जी की छोटी हाफ लाइनर,बड़े प्रभाव वाली रचनायें हैं ” गांधी जी का चश्मा”, लाल किला और खाई, चलती ट्रेन से बरसती शुचिता, वर्तमान समय और हम, अमेरिकी प्याले में भारतीय चाय. ये रचनायें वैचारिक द्वंद छेड़ते हुये गुदगुदाती भी हैं. डा सुधीश पचौरी साहित्यकार बनने के नुस्खे बताते हैं, हवा बांधने की कला सिखाते और हिन्दी हेटर को प्रणाम करते दिखते हें.  गहरे कटाक्ष करते हुये संजीव निगम ने “ताजा फोटो ताजी खबर” लिखा है, उनकी “अन्न भगवान हैं हम पक्के पुजारी” तथा तारीफ की तलवार, स्पीड लेखन की पैंतरेबाजी, एवं तकनीकी युग के श्रवण कुमार पढ़कर समझ आता है कि वे बदलते समय के सूक्ष्म साक्षी ही नही बने हुये हैं अभिव्यक्ति की उनकी क्षमतायें भी उन्हें लिख्खाड़ सिद्ध करती हैं. सुभाष काबरा जी वरिष्ठ बहु प्रकाशित व्यंग्यकार हैं, उनके तीन व्यंग्य संकलन में शामिल हैं, बोरियत के बहाने, अपना अपना बसंत एवं विक्रम बेताल का फाइनल किस्सा. सुधीर ओखदे जी बेहद परिपक्व व्यंग्यकार हैं, उनकी रचना सिगरेट और मध्यमवर्गीय, ईनामी प्रतियोगिता, व आगमन नये साहब का  पठनीय रचनायें हैं. शशांक दुबे व्यंग्य के क्षेत्र में जाना पहचाना स्थापित नाम हैं. दाल रोटी खाओ, आपरेशन कवर, रद्दी तो रद्दी है उनकी महत्वपूर्ण रचनाये ली गई हैं. डा वागीश सारस्वत परिपक्व संपादक संयोजक व स्वतंत्र रचनाकार हैं, उन्होंने अपने व्यंग्य दीपक जलाना होगा, होली उर्फ इंडियन्स लवर्स डे, चमचई की जय हो, बेचारे हम के माध्यम से स्थितियों का रोचक वर्णन कर पठनीय व्यंग्य प्रस्तुत किये हैं.

महिला रचनाकारो की भागीदारी भी उल्लेखनीय है. मीना अरोड़ा के व्यंग्य जिन चाटा तिन पाईयां, भविष्य की योजना, योजना में भविष्य अलबेला सजन आयो रे, हेकर्स, टैगर्स, हैंगर्स उल्लेखनीय है. डा पूजा कौशिक बेचारे चिंटुकेश्वर दत्त, बुरे फंसे महाराज, पर्स की आत्मकथा लिखकर सहभागी हैं.

पुस्तक में व्यंग्य लेखों के एवं लेखको के चयन हेतु संपादक डा प्रमोद पाणडेय  व प्रकाशक तथा सह संपादक श्री रामकुमार बधाई के पात्र हैं.  सार्थक, दीर्घकालिक चुनिंदा व्यंग्य पाठको को सुलभ करवाने की दृष्टि से सामूहिक  संग्रह का अपना अलग महत्व होता है, जिसे दशको पहले तारसप्तक ने हिन्दी जगत में स्थापित कर दिखाया था, उम्मीद जागती है कि यह व्यंग्य संग्रह, व्यंग्य जगत में चौदहवी का चांद साबित होगा और ऐसे और भी संग्रह संपादक मण्डल के माध्यम से हिन्दी पाठको को मिलेंगे . शुभेस्तु.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 46 ☆ व्यंग्य संग्रह – मोरे अवगुन चित में धरो – श्री आशीष दशोत्तर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है श्री आशीष दशोत्तर जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “मोरे अवगुन चित में धरो” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 46 ☆ 
पुस्तक चर्चा

पुस्तक – व्यंग्य संग्रह – मोरे अवगुन चित में धरो

व्यंग्यकार – श्री आशीष दशोत्तर

प्रकाशक – बोधि प्रकाशन,

पृष्ठ – १८४

मूल्य – २०० रु

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह  – मोरे अवगुन चित में धरो – व्यंग्यकार –श्री आशीष दशोत्तर ☆ समीक्षक -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

श्री आषीश दशोत्तर व्यंग्य के सशक्त समकालीन हस्ताक्षर के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके हैं. वे विज्ञान,  हिन्दी, शिक्षा,  कानून में उपाधियां प्राप्त हैं. साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओ ने उनकी साहित्यिक प्रतिभा को पहचान कर उन्हें सम्मानित भी किया है. परिचय की इस छोटी सी पूर्व भूमिका का अर्थ गहरा है. आषीश जी के लेखन के विषयो की व्यापकता और वर्णन की विविधता भरी उनकी शैली में उनकी शिक्षा का अपरोक्ष प्रभाव दृष्टिगोचर होता है. किताब की भूमिका सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने लिखी है,  वे लिखते हैं ” आषीश दशोत्तर के लेखन में असीम संभावनायें है,  उनके पास व्यंग्य की दृष्टि है और उसके उचित प्रयोग का संयम भी है. ” मैने इस किताब के जो  कुछ व्यंग्य पढ़े हैं और जितना इस चर्चा से पहले से यत्र तत्र उन्हें पढ़ता रहा हूं उस आधार पर मेरा दृष्टिकोण भूमिका से पूरी तरह मेल खाता है. व्यंग्य तभी उपजता है जब अवगुन चित में धरे जाते हैं. दरअसल अवगुणो के परिमार्जन के लिये रचे गये व्यंग्य को समझकर अवगुणो का परिष्कार हो तो ही व्यंग्य का ध्येय पूरा होता है. यही आदर्श स्थिति है.  इन दिनो व्यंग्य की किताबें और उपन्यास,  किसी जमाने के जासूसी उपन्यासो सी लोकप्रियता तो प्राप्त कर रही हैं पर गंभीरता से नही ली जा रही हैं. हमारे जैसे व्यंग्यकार इस आशा में अवगुणो पर प्रहार किये जा रहे हैं कि हमारा लेखन कभी तो महज पुरस्कार से ऊपर कुछ शाश्वत सकारात्मक परिवर्तन ला सकेगा. आषीश जी की कलम को इसी यात्रा में सहगामी पाता हूँ.

किताब के पहले ही व्यंग्य पेड़ पौधे की अंतरंग वार्ता में वे लिखते हैं “पेड़ की आत्मा बोली अच्छा तुम्हें जमीन में रोप भी दिया गया तो इसकी क्या गारंटी है कि तुम जीवित रहोगे ही “. .. पेड़ की आत्मा पौधे को बेस्ट आफ लक बोलकर जाने लगी तो पौधा सोच रहा था उसे कोई न ही रोपे तो अच्छा है. ऐसी रोचक नवाचारी बातचीत  विज्ञान वेत्ता के मन की ही उपज हो सकती थी.

पुराने प्रतीको को नये बिम्बों में ढ़ालकर,  मुहावरो और कथानको में गूंथकर मजेदार तिलिस्म उपस्थित करते आषीश जी पराजय के निहितार्थ में लिखते है ” कछुये को आगे कर खरगोश ने राजनीति पर नियंत्रण कर लिया है,  कछुआ जहां था वहीं है,  वह वही कहता और करता है जो खरगोश चाहता है ” वर्तमान कठपुतली राजनीति पर उनका यह आब्जरवेशन अद्भुत है. जिसकी सिमली पाठक कई तरह से ढ़ूंढ़ सकता है. हर पार्टी के  हाई कमान नेताओ को कछुआ बनाये हुये हैं,  महिला सरपंचो को उनके पति कछुआ बनाये हुये हैं,  रिजर्व सीटों पर पुराने रजवाड़े और गुटो की खेमाबंदी हम सब से छिपी नही है,  पर इस शैली में इतना महीन कटाक्ष दशोत्तर जी ही करते दिखे.

शब्द बाणों से भरे हुये चालीस ताकतवर तरकश लिये यह एक बेहतरीन संग्रह है जिसे मैं खरीदकर पढ़ने में नही सकुचाउंगा. आप को भी इसे पढ़ने की सलाह है.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ आलेख संग्रह – “चिन्तन के आयाम” – डॉ मुक्ता ☆ श्री पवन शर्मा परमार्थी

☆ आलेख संग्रह – चिन्तन के आयाम  – डॉ मुक्ता ☆  समीक्षक – श्री पवन शर्मा परमार्थी ☆

चिन्तन के आयाम’…एक श्रेष्ठत्तम कृति – श्री पवन शर्मा परमार्थी

आदरणीया डॉ. मुक्ता जी की नवीन श्रेष्ठत्तम कृति ‘चिन्तन के आयाम’ आलेख-संग्रह के विषय में मुझे कुछ शब्द लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, अपितु कृति की रचनाकार के सम्मुख मेरी लेखनी बहुत ही बौनी है। फिर भी उनके लिए माँ शारदे की कृपा से कुछ लिखने का साहस जुटा पा रहा हूँ। वैसे तो लेखिका डॉ. मुक्ता ने पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर स्वयं का विस्तृत रूप से विवरण प्रस्तुत किया है, उनके बारे में मेरा लिखना इतना आवश्यक नहीं। फिर भी उनके विषय में संक्षिप्त रूप में कुछ लिखना मेरा भी दायित्व बनता है। डॉ. मुक्ता एक महान्, यशस्वी, सुविख्यात कवयित्री व साहित्यिकार के रूप में साहित्य जगत् में प्रतिष्ठित हैं, जो समस्त हिन्दी साहित्य जगत् का गर्व व गौरव हैं तथा उन्हें विशिष्ट हिन्दी सेवाओं के निमित्त भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्व. प्रणव मुखर्जी जी द्वारा सन् 2016  में सम्मानित भी किया जा चुका है। आप महिला महाविद्यालय की पूर्व-प्राचार्यहरियाणा साहित्य अकादमीहरियाणा ग्रंथ अकादमी की निदेशक रही हैं और केंद्रीय साहित्य अकादमी की सदस्या के रूप में भी आपने अपने दायित्व का बखूबी वहन किया है। आपकी विविध विधाओं में तेतीस कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी है। आपकी रचनाओं पर कई विद्यार्थी एम• फिल• कर चुके हैं तथा एक छात्रा को पीएच• डी• की उपाधि भी प्राप्त हो चुकी है। दो अन्य विद्यार्थी पीएच• डी• कर रहे हैं। अनेक साहित्यिक पुस्तकों में भी आपके आलेख, कहानी व कविताएं प्रकाशित हो चुके हैं तथा आपका साहित्य-सृजन निरंतर जारी है। ‘चिन्तन के आयाम’ आपका सद्य:प्रकाशित आलेख- संग्रह है। इस पुस्तक के जितने भी स्तम्भ चुने गये हैं, वे वास्तव में प्रशंसनीय व सराहनीय हैं। सभी स्तम्भ अपने भीतर विशेष-वैचित्र्य संजोए हैं, जिसका आकलन आप पुस्तक पढ़ने के पश्चात् स्वयं ही कर पाएंगे।

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत) 

कथा संग्रह – चिन्तन के आयाम
लेखक – डॉ मुक्ता
प्रकाशक – साहित्यभूमि
मूल्य – रु 260

अमेजन लिंक –  चिन्तन के आयाम

डॉ• मुक्ता ने अपनी नवीनतम आलेख-संग्रह ‘चिन्तन के आयाम’ में समाज में घटित अनेक तथ्यों को छुआ है; अनगिनत विषमताओं, विकृतियों, विसंगतियों, कु-नीतियों, कुरीतियों आदि का विशद विवेचन किया है। विभिन्न घटनाओं–तन्दूर काण्ड, तेज़ाब काण्ड, दहेज व घरेलू हिंसा के भीषण हादसे, नशे की लत के कारण लूटपाट, फ़िरौती व अपहरण कर बच्चियों के साथ बलात्कार के जानलेवा किस्से सामान्य हैं। एक-तरफ़ा प्यार, ‘लिव-इन’, ‘मी-टू’ और ‘ऑनर किलिंग’ में अंजाम दी गई हृदय-विदारक हत्याओं से कौन अवगत नहीं है…यह तो घर-घर की कहानी है।

डॉ. मुक्ता ने अपनी कृति ‘चिंतन के आयाम’ में अनेक सामाजिक विसंगतियों की ओर ध्यान केन्द्रित किया है। लेखिका ने लगभग हर विषय को छूने का अदम्य साहस किया है, जिससे यह पुस्तक किसी भी विषय से अनछुई नहीं रही है, जिस पर प्रश्न उठाकर, लेखिका ने समाज को जाग्रत करने का हर संभव प्रयास न किया हो? उन्होंने हर विषय का चिंतन- मनन ही नहीं, नीर-क्षीर विवेकी दृष्टि से मन्थन भी किया है तथा समाज की जड़ों को खोखला करने वाली मान्यताओं की ओर केवल हमारा ध्यान ही आकृष्ट नहीं किया, उन्हें समूल नष्ट करने का संदेश भी दिया है।

सबसे बड़ी बात यह है कि लेखिका का ध्यान विशेष रूप से नारी-उत्पीड़न पर ही रहा हैं। नारी-वेदना को बुद्धिमत्ता के साथ उद्घृत किया है। नारी-शोषण, घरेलू-हिंसा, मासूम बच्चों से भीख मंगवाना व नादान बच्चियों को देह-व्यापार में झोंकना व उनकी तस्करी करना धनोपार्जन का मुख्य उपादान बन गया है। दहेज-उत्पीड़न एवं दहेज के लालची दानवों द्वारा नव-विवाहिता की कभी गैस से जला-कर, कभी बिजली का करंट लगाकर, कभी फांसी लगा कर, कभी गोली व चाकू मार कर हो रही हत्याएं हृदय को उद्वेलित करती हैं, कचोटती हैं। अक्सर वारिस को जन्म न दे पाने के नाम पर तिरस्कृत किया जाना व पुन:विवाह की अवधारणा सामान्य-सी बात है। कन्या भ्रूण-हत्या समाज का कोढ़ है, ला-इलाज है। मिथ्या अहंतुष्टि के लिए ‘ऑनर किलिंग’ जैसा घिनौना अपराध करना जन-मानस में कूट-कूट कर भरा है। अबोध-निर्दोष बच्चियों का शील-भंग व बलात्कार कर हत्या करना वासना के भूखे भेड़ियों का शौक है। यदि पीड़िता शिकायत दर्ज कराने, किसी भी पुलिस-स्टेशन व अदालत में जाती है, तो उससे अधिवक्ताओं द्वारा बार-बार विभिन्न प्रकार के अश्लील प्रश्न पूछना, केवल चिन्तन के नहीं, चिंता के विषय ही तो हैं। इस कारण वह इस भ्रष्ट व कुत्सित समाज में कुलटा, कुलक्षिणी, पापिनी, कुल-नाशिनी आदि संबोधनों से अलंकृत की जाती है, जो विडम्बना तो है ही, परंतु बहुत दुर्भाग्यपूर्ण भी है । हाँ! यहाँ मैं इतना कहना उचित समझता हूँ कि इस कृति में पुरुष का उल्लेख बहुत ही कम है… है भी तो एक नारी के उपेक्षक व शोषक के स्वरूप में। ग़ौरतलब है कि नारी-शोषण व नारी-उत्पीड़न में पुरुष की ही नहीं, नारी की भी कुछ भूमिका होती है। परंतु इस संदर्भ में नारी की कम और पुरुष की….। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी बात का निर्णय अधिकतम/ न्यूनतम के हिसाब से किया जाता है, यहाँ भी यही समझना होगा। परन्तु हर परिस्थिति में पीड़ित तो नारी ही होती है, शारीरिक यातना व मानसिक प्रताड़ना भी उसे ही झेलनी पड़ती है।

इसके अतिरिक्त लेखिका अपने गृह राज्य की महिमा का गुणगान करना भी नहीं भूली हैं। उन्होंने समाज में हो रहे अनाचार, भ्रष्टाचार, अत्याचार व गरीबी की मार झेल रहे लोगों की ओर ही ध्यान आकृष्ट नहीं किया है; शासन-प्रशासन में हो रही त्रुटियों को भी उजागर करने का प्रयास किया है। ध्यातव्य है कि लेखिका ने राष्ट्रीय व साहित्यिक मंचों पर हो रही ठेकेदारी, चुटकलेबाज़ी, निज-यशोगान व स्वार्थपरता के कारण पुरस्कारों के आदान-प्रदान व धन के लेन-देन पर भी अपनी चिंता व्यक्त की है। साहित्यिक मंचों पर कुछ मठाधीशों के आधिपत्य से नवांकुर, उदीयमान कवियों/ लेखकों के भविष्य पर भी चिंता जताई है। कश्मीर समस्या के समाधान पर भी प्रसन्नता व्यक्त की गयी है। देश में आरक्षण के नाम पर हो रही भ्रष्ट-राजनीति व गलत नीतियों का बखान करना भी वे भूली नहीं हैं तथा देश के प्रति कर्त्तव्य-विमुख लोगों को भी चेताने का प्रयास भी उन्होंने बखूबी किया है।

उपरोक्त कृति को ‘चिन्तन के आयाम’ कहना कदाचित् अनुचित नहीं होगा, क्योंकि यह अत्यंत -उत्तम कृति है, जो भावनाओं को झकझोरती है तथा श्रेय-प्रेय व औचित्य-अनौचित्य के बारे में सोचने पर विवश करती है। मैं समझता हूँ कि समाज में घटित कोई भी ऐसा घटनाक्रम नहीं है, जिसकी ओर लेखिका ने इंगित नहीं किया है। यह पुस्तक विलक्षण है, सबसे भिन्न है तथा इसमें पाठक को लगभग हर विषय पर, पढ़ने-समझने व चिंतन-मनन करने को सामग्री प्राप्त होगी। सो! मेरा मंतव्य यह है कि ‘चिन्तन के आयाम’ कृति सभी सुधीजनों को अवश्य पढ़नी चाहिए तथा इस स्तुत्य कृति के लिए लेखिका डॉ. मुक्ता जी को हार्दिक बधाई व साधुवाद।

 

शुभापेक्षी,

पवन शर्मा परमार्थी

कवि-लेखक, पूर्व-सम्पादक (परशुराम एक्सप्रेस, फ़ास्ट इंडिया) दिल्ली-110033, भारत ।

मो. 9911466020, 9354004140

Email : psparmarthikavi@gmail. com Tweeter : @parmarthipawan

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ कथा संग्रह – यह आम रास्ता नहीं है – श्री कमलेश भारतीय ☆ सुश्री कृष्णलता यादव

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

गुरुग्राम में डाॅ प्रेम जनमेजय के आवास पर एक माह पूर्व मेरे कथा संग्रह के विमोचन पर हरियाणा की सशक्त लेखिका सुश्री कृष्णलता यादव भी मेरे आग्रह पर आईं थीं । उन्हें वहीं नया कथा संग्रह भेंट किया था । उन्होंने इस पर विस्तारपूर्वक अपनी प्रतिक्रिया इस प्रकार दी है :::

सुश्री कृष्णलता यादव 

कथा संग्रह – यह आम रास्ता नहीं है  – लेखक – श्री कमलेश भारतीय  ☆ पुस्तक समीक्षा – सुश्री कृष्णलता यादव ☆

कथा संग्रह – यह आम रास्ता नहीं है
लेखक – श्री कमलेश भारतीय
प्रकाशक – इण्डिया नेटबुक्स
मूल्य – रु 150
ISBN –  9789389856941
पृष्ठ – 123

फ्लिपकार्ट लिंक – यह आम रास्ता नहीं है 

# आम जन की खास कहानियाँ   

नामचीन कथाकार श्री कमलेश भारतीय का सद्य प्रकाशित कहानी-संग्रह, ‘यह आम रास्ता नहीं है’ पढ़ने का सुअवसर मिला। 16 रचनाओं से सज्जित यह संग्रह आम जन की खास बातें करता है। ये कहानियाँ पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है मानो हम उस घटना विशेष के साक्षी रहे हों। कथानक को बहुत लम्बा न करके कहानियों को उबाऊ होने से बचाया है।

‘अर्जी’ कहानी में लेखक के पत्रकारीय व लेखकीय रूप प्रकट हुए हैं। एक अनपढ़ महिला ने बड़ी कुर्सी तक अपनी बात पहुँचाने के लिए एक कदम तो बढ़ाया। यद्पि वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकी क्योंकि उसे बलात् रोक दिया गया; तो भी उसका बढ़ा हुआ कदम प्रतीक है – स्त्री की जागरूकता का, उसकी चेतनता का और सबको संगठित करने की क्षमता का। कहानी में वात्सल्य की फुहार है, राजनीति का कुत्सित रूप है और है दहेज की समस्या। इस समस्या से सम्बन्धित अनेक प्रश्न हैं। लेखक ने इनके उत्तर नहीं दिए। वह क्यों दे? उत्तर देने बनते हैं- हम सबको, आखिर हम भी तो समाज के घटक हैं। आँचलिकता का पुट कहानी को रससिक्त बनाता है।

महिलाओं के सामने अनेक लक्ष्मण रेखाएँ होती हैं, उससे इधर-उधर पाँव रखे नहीं कि तरह-तरह की बातें बनने लगती हैं। कितना सीमित है उसका संसार। लेखक ने हाँफ-हाँफ जानेवाली कथानायिका अमृता को घर से बाहर का रास्ता दिखाया है किन्तु कहाँ मिल पाया उसको पाक-साफ़ संसार। उसे शक-शुबहा के श्वान रास्ता रोकते मिले। यह अलग बात है कि वह उनकी परवाह किए बिना आगे बढ़ जाती है। यह आम रास्ता नहीं है शीर्षक कथ्य पर एकदम सटीक बैठता है।

संस्मरणात्मक रेखाचित्र ‘भुगतान’, महादेवी वर्मा के भक्तिन चरित्र की याद ताजा करवाता है। अतीत की एक रील लेखक के यहाँ चल रही है, इसके समानान्तर एक रील पाठक के समक्ष भी चल रही होती है – भगतराम की कमियों-खूबियों व अपनत्व की। कहानी खुलासा करती है – मानव की फितरत का कि किस प्रकार दुनियादारी का पहाड़ पचास बरस की लम्बी सेवा को पलक झपकते ओझल कर देता है। रचना का समापन बिन्दु आँखें नम कर जाता है। सही अर्थों में, यही है लेखक व लेखन की सार्थकता-सफलता। भगतराम का तकियाकलाम सिद्ध करता है कि उसमें सकारात्मकता का समन्दर ठाठें मारता था। यह रचना ग्रामीण संस्कृति को जीवंत करती है, इसमें स्वार्थ की पोटलियाँ खुली हैं वहीं नेकदिली व ईमानदारी के ध्वज भी लहराए हैं। निजी तौर पर मुझे यह रचना बहुत भायी है क्योंकि मैं स्वयं ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी हूँ।

मज़बूरियों की बात करती है ‘सूनी माँग का गीत’ कहानी। भूख क्या न करवा दे! घर का मुखिया कितना कुछ सहता है ताकि उसके परिजन चैन से जी सकें। दुनिया से उसके जाने का अर्थ है परिजनों के सामने एक बीहड़ का उग आना, जहाँ असुरक्षा बोध के भेड़िए गुर्राते हैं, भूख के चीते मर्यादा की बाड़ फलांगते हैं और तथाकथित सभ्य समाज तमाशबीन बनकर देखता रह जाता है। यहाँ कशमकश है – जवानी, बुढ़ापे तथा अभावों के मध्य। तभी फैसले का झोंका आता है -कोई नई राह पा जाता है, कोई कसमसाता-सा जहाँ का तहाँ खड़ा रह जाता है। तनावपूर्ण स्थिति में पात्रों से विदा लेता पाठक चिंतन-चिंतना में ऊबने-डूबने लगता है। कथ्य में स्वाभाविकता, घटनाक्रम में गत्यात्मकता बनी रही है। शीर्षक आकर्षक है।

मिर्चपुर गाँव की राई-सी घटना का पर्वत-सा रूप ले लेने की कहानी है ‘अपडेट’। यहाँ भी लेखक का पत्रकार का रूप स्पष्ट उभरकर आया है। राजनीति का असली चेहरा प्रस्तुत करती यह कहानी दर्शाती है कि न तो पीड़ितों के साथ नए-नए खेल खेलने वालों की कमी, न घटना से फायदा उठाने वालों की। व्यंग्य शैली, दमदार शीर्षक, चुटीले वाक्य, भाषाई प्रवाहशीलता कहानी की अतिरिक्त विशेषताएँ हैं, जो पाठक को आकर्षित करती हैं। बानगीस्वरूप – सरकार चौकन्नी रहकर भी फेल हो गई। बड़ा बेटा जो सबसे बड़ा मोहरा था, वह छिटककर विपक्ष के हाथ लग गया। साधारण-सा गाँव देश के चैनलों की सुर्खियाँ बन गया। हर दलित नेता फायर ब्रांड भाषण देकर चला जाता।

‘कठपुतली’ कहानी मानो एक प्रश्न-मंजूषा है, जिसमें स्त्री को लेकर प्रश्न दर प्रश्न हैं, जिनके उत्तर पाठकों को ही सोचने हैं, लिंग-भेद से ऊपर उठकर यथा – क्या नारी की कोई भूमिका नहीं?….?….? बड़ी बात यह कि चोट खाई नारी ने स्वयं को सम्भाला, वह टूटकर भी साबुत रही, किस्मत का रोना नहीं रोती रही। वह उठी और उसका उठना उसे उसकी मंज़िल तक ले गया।

दहेज नामक सामाजिक बुराई के इर्द-गिर्द घूमती ‘हिस्सेदार’ कहानी वर-वधू पक्ष वालों की मनोदशा की परत दर परत खोलती है वहीं यह भी सिद्ध करती है कि सामाजिक कुप्रथाओं के लिए समाज का हर व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिस्सेदार होता है। अत: ज़रूरत है अपनी प्रतिरोधात्मक शक्ति को कुंद होने से बचाने की तथा बुराई का जोरदार खंडन करने की।

अब बात करती हूँ पाठक की चेतना को झिंझोड़ने वाली ‘एक सूरजमुखी की अधूरी परिक्रमा’ कहानी की। शीर्षक ऐसा कि पाठक चाहे तो भी इसकी दहलीज पर खड़ा नहीं रह सकता। उसकी उत्सुकता उसे अंदर ठेलकर ही मानती है। आत्मकथात्मक शैली में, स्त्री को केन्द्र में रखकर लिखी गई है यह कहानी दर्शाती है कि किस प्रकार पति और पुत्र के मध्य विभिन्न भूमिकाएँ निभाती स्त्री कहीं न कहीं कमजोर पड़ गई और अन्त में अपने जिगर के टुकड़े को खो बैठी। किसी ने भी उसके दुख-दर्द को समझने की कोशिश नहीं की। आखिर वही हुआ, जो नहीं होना चाहिए था। समाज की निधि लुटती रही और समाज सोता रहा। स्त्री के पक्ष में कौन खड़ा हुआ? ज़्यादतियाँ करने वाला मनमानी करता रहा। उसका सामना करने की हिम्मत समाज क्यों नहीं जुटा पाया? परोक्षत: कहानी प्रश्नों के हथौड़े मारती है। निस्सन्देह स्त्री समाज की इकाई है मगर विडम्बना यह कि जब यह इकाई संकटग्रस्त होती है तब समाज मात्र तमाशा क्यों देखता रह जाता है? उसे इससे सहानुभूति क्यों नहीं होती?

‘अगला शिकार’ कहानी राजनीति व शिक्षा जगत का कच्चा चिठ्ठा खोलती है। जब-जब समाज पर राजनीति हावी होती है, कर्मठता की बजाय चमचागिरी की पूछ होती है, मनचाही मुराद पूरी होती है।

साम्प्रदायिक दंगों की त्रासदी का चित्रण करती, प्रतीकात्मक शीर्षकधारी कहानी ‘अंधेरी सुरंग’ में संवेदना की धार बहती है। सिख युवक की गमगीनी में गमगीन पाठक ‘इंसानियत कभी नहीं मरती’ के फलसफे के साथ चैन की साँस लेता है। कहानी आईना दिखाती है कि सम्प्रदायवाद की जंजीरों में जकड़े व्यक्ति के लिए इंसान, उसके गुण और इंसानियत कोई मायने नहीं रखते। सामाजिक मनोविज्ञान का यथार्थ चित्रण तथा प्रगतिशील सोच का प्रतिनिधित्व करती है ‘मैंने अपना नाम बदल लिया है’ कहानी। दूसरे विवाह के रूप में कथानायिका साहस भरा कदम उठाती है। आखिर क्यों सहे वह पति नामक प्राणी की ज्यादतियाँ? किले के बहाने सचमुच देश दर्शन करवाती है ‘देश दर्शन’ कहानी। कथानायक रतन गाइड बहुत रोचक ढंग से राजनीति की बखिया उधेड़ता है, किसी को बुरा लगे तो लगे। ऊपरी तौर पर बड़बोला किन्तु सत्यबोला भी है वह। ऐसा प्रतीत होता है एक हाथ में अतीत के, दूसरे हाथ में वर्तमान के गुब्बारे सम्भाले हुए है वह; जैसा जी में आता है, वही गुब्बारा फोड़ देता है और हल्कापन महसूस करता है। कुल मिलाकर गाइड के मुख से देश की राजनीति, अफसरशाही की कारगुजारियों व जनता जनार्दन की हालत बयां कर डाली है। यह कहानी अन्य कहानियों से एकदम हटकर है।

‘नीले घोड़े वाले सवारों के नाम’ रचना का मूल विषय है – दहेज की समस्या। इसके समाधान हेतु मात्र नारे लगाने की नहीं, ठोस कदम उठाए जाने व दहेज लोभियों को सबक सिखाए जाने की ज़रूरत है। आत्मकथात्मक शैली में रचित, मिट्टी की महक से सराबोर करती, गाँवपन से गले मिलाती, शहरीकरण से रूबरू करवाती ‘माँ और मिट्टी’ कहानी में कभी गाँव, कभी शहर में घूमते हुए पाठक का मन खूब रमता है।

सम्पूर्ण संग्रह में भाषिक सौंदर्य, बिम्बों की चमक और देर तक साथ बना रहने वाला वातावरण बहुत हद तक घुला-मिला है। इसलिए ये पाठक पर अपनी पकड़ बनाए रखने में सक्षम हैं। कहानियों के पात्र पाठकों के साथ निरन्तर रूबरू होते हुए, अपने संवादों से उनके मनोभावों को संवेदित करते हुए आगे बढ़ते हैं।  कहा जा सकता है कि ये कहानियाँ व्यक्ति को आईना दिखाती हैं कि लो देखो अपना चतुर्दिक परिवेश और यदि कुछ कुव्यवस्थित दिखाई देता है तो उसे सुव्यवस्थित करने के लिए चेतना का द्वार खटखटाओ, चिन्तन का सूरज उगाओ और समाज को कमजोर करने वाले कारकों के खात्मे के लिए जोरदार आन्दोलन चलाओ, बिना इस बात पर ध्यान दिए कि तुम किस जाति-सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखते हो।

श्री कमलेश भारतीय के लेखन में साफगोई है, वे अनुभव सहेज कर तथा हृदय की भावना उकेर कर रख देते हैं। पुस्तक की साज-सज्जा, आवरण, मूल्य, मुद्रण आदि सामान्य पाठक के अनुकूल है। कामना है, भारतीय जी स्वस्थ रहते हुए साहित्य यज्ञ में सतत सारस्वत समिधाएँ डालते रहें।

© सुश्री कृष्णलता यादव

संपर्क – 677 सैक्टर 10ए,  गुरुग्राम 122001

मो – 9811642789

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 45 ☆ व्यंग्य संग्रह – ७५ वाली भिंडी – सुश्री नूपुर अशोक ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  सुश्री नूपुर अशोक जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “७५ वाली भिंडी” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 45 ☆ 

व्यंग्य संग्रह – ७५ वाली भिंडी

व्यंग्यकार – सुश्री नूपुर अशोक 

प्रकाशक – रचित प्रकाशन, कोलकाता  

पृष्ठ १२०

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह  – ७५ वाली भिंडी – व्यंग्यकार –सुश्री नूपुर अशोक ☆ पुस्तक चर्चाकार -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

परसाई जी ने लिखा है “चश्मदीद वह नहीं है जो देखे, बल्कि वह है जो कहे कि मैने देखा है” नूपुर अशोक वह लेखिका हैं जो अपने लेखन से पूरी ताकत से कहती दिखती हैं कि हाँ मैंने देखा है, आप भी देखिये. उनकी कविताओ की किताब आ चुकी है. व्यंग्य में  वे पाठक को आईना दिखाती हैं, जिसमें हमारे परिवेश के चलचित्र नजर आते हैं. नूपुर जी की पुस्तक से गुजरते हुये मैंने अनुभव किया कि इसे और समझने के लिये गंभीरता से, पूरा पढ़ा जाना चाहिये.

नूपुर आकाशवाणी की नियमित लेखिका है. शायद इसीलिये उनकी  लेखनी संतुलित है. वाक्य विन्यास छोटे हैं. भाषा परिपक्व है.  वे धड़ल्ले से अंग्रेजी शब्दो को देवनागरी में लिखकर हिन्दी को समृद्ध करती दिखती हैं.  बिना सीधे प्रहार किये भी वे व्यंग्य के कटाक्ष से गहरे संदेश संप्रेषित करती हैं “गांधी जी की सत्य के प्रयोग पढ़ी है न तुमने… इस प्रश्न के जबाब में भी वह सत्य नही बोल पाता.. किताब मिली तो थी हिन्दी पखवाड़े में पुरस्कार में और सोशल मीडिया में सेल्फी डाली भी थी.. गाट अ प्राइज इन हिन्दी दिवस काम्पटीशन”. लिखना न होगा कि मेरी बात रही मेरे मन में लेख में उन्होने इन शब्दो से मेरे जैसे कईयो के मन की बात सहजता से लिख डाली है.

व्यंग्य और हास्य को रेखांकित करते हुये प्रियदर्शन की टीप से मैं सहमत हूं कि नूपुर जी के व्यंग्य एक तीर से कई शिकार करते हैं. भारतीय संस्कृति के लाकडाउन में वे कोरोना, जनित अनुभवो पर लिखते हुये बेरोजगारी, डायवोर्स वगैरह वगैरह पर पैराग्राफ दर पैराग्राफ लेखनी चलाती हैं, पर मूल विषय से भटकती नहीं है. रचना एक संदेश भी देती है. रचना को आगे बढ़ाने के लिये वे कई रचनाओ में फिल्मी गीतो के मुखड़ो का सहारा लेती हैं, इससे कहा जा सकता है कि उनकी दृष्टि सजग है, वे सूक्ष्म आब्जर्वर हैं तथा मौके पर चौका लगाना जानती हैं.

कुल जमा १६ रचनायें संग्रह में हैं, प्रकाशक ने कुशलता से संबंधित व्यंग्य चित्रो के जरिये किताब के पन्नो का कलेवर पूरा कर लिया है. लेखो के शीर्षक पर नजर डालिये चुनाव का परम ज्ञान, प्रेम कवि का प्रेम, हम कंफ्यूज हैं, संडे हो या मंडे, यमराज के नाम पत्र, बेटा बनाम बकरा, पूरे पचास, किस्सा ए पति पत्नी, अथ श्री झारखण्ड व्यथा, इनके अलावा दो तीन रचनायें कोरोना काल जनित भी हैं. अपनी बात में वे बेबाकी से लिखती हैं कि अंत की ६ रचनायें अस्सी के दशक की हैं और यथावत हैं, मतलब उनकी लेखनी तब भी परिपक्व ही थी.

अस्तु, त्यौहारी माहौल में, दोपहर के कुछ घण्टे और पीडीएफ किताब पर सरसरी नजर डालकर लेखिका की व्यापक दृष्टि पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि इस पीढ़ी की जिन कुछ महिलाओ से व्यंग्य में व्यापक संभावना परिलक्षित होती है नूपुर अशोक उनमें महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं.

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 44 ☆ व्यंग्य संग्रह – अपनी ढपली अपना राग – श्री मुकेश राठौर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री मुकेश राठौर  जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “अपनी ढ़पली अपना राग” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 44 ☆ 

व्यंग्य संग्रह – अपनी ढ़पली अपना राग 

व्यंग्यकार – श्री मुकेश राठौर 

प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर 

पृष्ठ १००

मूल्य १२० रु

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह  – अपनी ढ़पली अपना राग – व्यंग्यकार – श्री मुकेश राठौर ☆ पुस्तक चर्चाकार -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

यूं तो मुझे किताब पढ़ने का सही आनंद लेटकर हार्ड कापी पढ़ने में ही मिलता है, पर ई बुक्स भी पढ़ लेता हूं. मुकेश राठौर जी का व्यंग्य संग्रह अपनी ढ़पली अपना राग चर्चा में है.  इसकी ई बुक पढ़ी.

मुकेश जी जुझारू व्यंग्यकार हैं. नियमित ही यहां वहां पढ़ने मिल रहे हैं व अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करवाते हैं.

उन्हें स्वयं के लेखन पर भरोसा है. संग्रह के कुछ व्यंग्य पूर्व पठित लगे संभवतः किसी पत्र पत्रिका या समूह में नजरो से गुजरे हैं. राजनीति, सोशल मीडीया,मोबाईल, बजट, प्याज, और ग्राम्य परिवेश के गिर्द घूमते विषयो पर उन्होने सार्थक कलम चलाई है. भेडियो की दया याचना संवाद शैली में व्यंग्य का अच्छा प्रयोग है. प्रतीको के माध्यम से न्याय व्यवस्था पर गहरी चोट समझी जा सकती है. बाजा, गाजा और खाजा से शुरू किताब का शीर्षक व्यंग्य अपनी ढ़पली अपना राग  छोटा है, वर्णात्मक ज्यादा है  इसको अधिक मुखर, संदेश दायक व प्रतीकात्मक लिखने की संभावनायें थीं. सच है जीवन में संगीत का महत्व निर्विवाद है. हर कोई अपने तरीके से अपनी सुविधा से अपनी जीवन ढ़पली पर अपने राग ठेल ही रहा है.

ठगबंधन का कामन मिनिमम प्रोग्राम वर्तमान राजनैतिक स्थितियो कर गहरा कटाक्ष है. घर में ” जितनी बहुयें उतने ही बहुमत “, हम वो नही जो चुनाव जीतने के बाद बदल जायें हमने आपकी सेवा के लिये ही पार्टी बदली है, या बाबुओ की थकती कलम के कारण विलम्बित वेतन जैसे अनेक शैली गत व्यंग्य प्रयोग बताते है कि मुकेश जी में व्यंग्य रचा बसा है वे जिस भी विषय पर लिखेंगे उम्दा लिख जायेंगे. बस विषय के चयन का केनवास बड़ा बना रहे तो उनसे हमें धड़ाधड़ धाकड़ व्यंग्य मिले रहेंगे. यही आकांक्षा भी है मेरी.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 42 ☆ व्यंग्य संग्रह – वे रचना कुमारी को नहीं जानते – श्री शांतिलाल जैन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री शंतिलाल जैन जी  के  व्यंग्य  संग्रह   वे रचना कुमारी को नहीं जानते” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। संयोग से  इस व्यंग्य संग्रह को मुझे भी पढ़ने का अवसर मिला। श्री शांतिलाल जी के साथ कार्य करने का अवसर भी ईश्वर ने दिया। वे उतने ही सहज सरल हैं, जितना उनका साहित्य। श्री विवेक जी ने भी उसी सहज सरल भाव से पैंतालीस कॉम्पैक्ट व्यंग्य रचनाओं परअपने सार्थक विचार रखे हैं। यह तय है कि एक बार प्रारम्भ कर आप भी बिना पूरी पुस्तक पढ़े नहीं रह सकते।)

साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 42 ☆ 

पुस्तक – वे रचना कुमारी को नहीं जानते

व्यंग्यकार – श्री शांतिलाल जैन

प्रकाशक – आईसेक्ट पब्लिकेशन , भोपाल

पृष्ठ – १३२

मूल्य – १२०० रु

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह  – वे रचना कुमारी को नहीं जानते– व्यंग्यकार – श्री शांतिलाल जैन

किताबों की दुनियां बड़ी रोचक होती है. कुछ लोगों को ड्राइंगरूम की पारदर्शी दरवाजे वाली आलमारियों में किताबें सजाने का शौक होता है. बहुत से लोग प्लान ही करते रहते हैं कि वे अमुक किताब पढ़ेंगे, उस पर लिखेंगे. कुछ के लिये किताबें महज चाय के कप के लिये कोस्टर होती हैं, या मख्खी भगाने हेतु हवा करने के लिये हाथ पंखा भी.

मैं इस सबसे थोड़ा भिन्न हूँ. मुझे रात में सोने से पहले किताब पढ़ने की लत है. पढ़ते हुये नींद आ जाये या नींद उड़ जाये यह भी किताब के कंटेंट की रेटिंग हो सकता है.  अवचेतन मन पढ़े हुये पर क्या सोचता है, यह लिख लेता हूँ और उसकी चर्चा कर लेता हूँ जिससे मेरे पाठक भी वह पुस्तक पढ़ने को प्रेरित हो सकें.

श्री शांति लाल जैन जी अन्य महत्वपूर्ण सम्मानो के अतिरिक्त प्रतिष्ठित डा ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य सम्मान २०१८ से सम्मानित सुस्थापित व्यंग्यकार हैं . “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” उनका चौथा व्यंग्य संग्रह है . लेखन के क्षेत्र में बड़ी तेजी से ऐसे लेखको का हस्तक्षेप बढ़ा है, जिनकी आजीविका हिन्दी से इतर है. इसलिये भाषा में अंग्रेजी, उर्दू का उपयोग, सहजता से प्रबल हो रहा है. श्री शान्तिलाल जैन जी भी उसी कड़ी में एक बहुत महत्वपूर्ण नाम हैं, वे व्यवसायिक रूप से बैंक अधिकारी रहे हैं.

किताब की लम्बी भूमिका में डा ज्ञान चतुर्वेदी जी ने उन्हें एक बेचैन व्यंग्यकार लिखा, और तर्को से सिद्ध  भी किया है. लेखकीय आभार अंतिम पृष्ठ है.  मैं श्री शांति लाल जैन जी को पढ़ता रहा हूँ, सुना भी है . “वे रचना कुमारी को नहीं जानते ” पढ़ते हुये मेरी मेरी नींद उचट गई, इसलिये देर रात तक बहुत सारी किताब पढ़ डाली. मैने पाया कि उनका मन एक ऐसा कैमरा है जो जीवन की आपाधापी के बीच विसंगतियो के दृश्य चुपचाप अंकित कर लेता है. मैं डा ज्ञान चतुर्वेदी जी से सहमत हूं कि वह दृश्य लेखक को बेचैन कर देता है, छटपटाहट में  व्यंग्य लिखकर वे स्वयं को उस पीड़ा से किंचित मुक्त करते हैं . वे प्रयोगवादी हैं.

लीक से हटकर किताब का नामकरण ही उन्होंने “ये तुम्हारा सुरूर” व्यंग्य की पहली पंक्ति “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” पर किया है , अन्यथा इन दिनो किसी प्रतिनिधि व्यंग्य लेख के शीर्षक पर किताब के नामकरण की परंपरा चल निकली है. इसलिये संग्रह के लेखो की पहली पंक्तियो की चर्चा प्रासंगिक है.  कुछ लेखो की पहली पंक्तियां उधृत हैं जिनसे सहज ही लेख का मिजाज समझा जा सकता है. पाठकीय कौतुहल को प्रभावित करती लेख की प्रवेश पंक्तियो को उन्होंने सफल न्यायिक विस्तार दिया है.

वाइफ बुढ़ा गई है … , ” मि डिनायल में नकारने की अद्भुत प्रतिभा है” कार्यालयीन जीवन में ऐसे अनेको महानुभावो से हम सब दो चार होते ही हैं, पर उन पर इस तरह का व्यंग्य लिखना उनकी क्षमता है. इसी तरह आम बड़े बाबुओ से डिफरेंट हैं हमारे बड़े बाबू ,हुआ यूं कि शहर में एक्स और वाय संप्रदाय में दंगा हो गया …

उनके लेखन में मालवा का सोंधा टच मिलता है “अच्छा हुआ सांतिभिया यहीं पे मिल गये आप” मालगंज चौराहे पर धन्ना पेलवान उनसे कहता है . ….

या पेलवान की टेरेटरी में मेंढ़की का ब्याह …

वे करुणा के प्रभावी दृश्य रचने की कला में पारंगत हैं ..

बेबी कुमारी तुम सुन नही पातीं, बोल नही पाती, चीख जरूर निकल आती है, निकली ही होगी उस रात. बधिर तो हम ठहरे दो दो कान वाले . …

राजा, राजकुमार, उनके कई व्यंग्य लेखो में प्रतीक बनकर मुखरित हुये हैं. गधे हो तुम .. सुकुमार को डांट रहे थे राजा साहब …. , या बादशाह ने महकमा ए कानून के वजीर को बुलाकर पूछा ये घंटा कुछ ज्यादा ही जोर से नही बज रहा ?

मुझे नयी थ्योरी आफ रिलेटिविटी रिलेटिंग माडर्न इंडिया विथ प्राचीन भारत पढ़कर मजा आ गया. इसी तरह छीजते मूल्य समय में विनम्र भावबोध की मनुहार वादी कविताएं वैवाहिक आमंत्रण पत्रो पर मुद्रित पंक्तियो का उनका रोचक आब्जरवेशन है. इसी तरह समय सात बजे से दुल्हन के आगमन तक भी वैवाहिक समारोहो पर मजेदार कटाक्ष है.

वे लोकप्रिय फिल्मी गीतों का अवलंबन लेकर लिखते मिलते हैं, जैसे महिला संगीत में बालीवुड धूम मचा ले से शुरूकरके, जस्ट चिल तक पहुँचता गुदगुदाता भी है, वर्तमान पर कटाक्ष भी करता है.

मैं पाठको को अपनी कुछ विज्ञान कथाओ में अगली सदियो की सैर करवा चुका हूँ इसलिये आँचल एक श्रद्धाँजंली पढ़कर हँस पड़ा, रचना यूँ  शुरू होती है “३ जुलाई २०४८ … आप्शनल सब्जेक्ट हिंदी क्लास टेंथ . …

पैंतालीस काम्पेक्ट व्यंग्य लेख. वैचारिक दृष्टि से नींद उड़ा देने वाले, सूक्ष्म दृष्टि, रचना प्रक्रिया की समझ के मजे लेते हुये, खुद के वैसे ही देखे पर अनदेखे दृश्यो को याद करते हुये जरूर पढ़िये.

रेटिंग – मेरे अधिकार से ऊपर

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “सिद्धार्थ” ☆ सौ. राधिका भांडारकर

 ☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “सिद्धार्थ” ☆ सौ. राधिका भांडारकर ☆ 

पुस्तकाचे नाव: सिद्धार्ध

लेखिका : स्मिता बापट जोशी

प्रकाशक: राजहंस प्रकाशन 

पहिली आवृत्ती : २१ मे २०१९

किंमत : रु.१६०/—

सिद्धार्थ  हे पुस्तक वाचल्यावर पहिली प्रतिक्रिया द्यायची म्हणजे हे पुस्तक मातृत्वाच्या कसोटीची एक कहाणी सांगते. हा एक प्रवास आहे. सिद्धार्थ आणि त्याच्या आई वडीलांचा. या प्रवासात खूप खाचखळगे होते. आशा निराशेचे लपंडाव होते. सुखाचा नव्हताच हा प्रवास. सुखदु:खाच्या पाठशिवणीची ही एक खडतर वाटचाल होती.  वेदना, खिन्नता, चिंता, भविष्याचा अंधार वेढलेला होता.

सिद्धार्थच्या ह्रदयाला जन्मत:च छिद्र होतं. २६/२७ वर्षापूर्वी विज्ञान आजच्याइतकं प्रगत नव्हतं. शिवाय सिद्धार्थची समस्याच मूळात अवघड आणि  गुंतागुंतीची होती.

एका हसतमुख, गोर्‍या ,गोंडस बाळाला मांडीवर घेऊन प्रेमभरे पाहताना,या असाधारण समस्येमुळे त्याच्या आईचं ह्रदय किती पिळवटून गेलं असेल याचा विचारच करता येत नाही. त्या आईची ही शोकाकुल असली तरी सकारात्मक कथा आहे.

सिद्धार्धच्या आई म्हणजेच स्वत: लेखिका स्मिता बापट जोशी. सिद्धार्थला, त्याच्या शारिरीक, मानसिक त्रुटींसह मोठं करताना आलेल्या चौफेर अनुभवांचं, भावस्पर्शी  कथन या पुस्तकात वाचायला मिळतं..

सिद्धार्थच्या अनेक शस्त्रक्रिया, त्यातून ऊद्भवलेल्या इतर अनेक व्याधी..जसं की,त्याच्या मेंदुच्या कार्यात आलेले अडथळे…पर्यायाने त्याला आलेलं धत्व, बाळपणीचे लांबलेले माईलस्टोन्स.. चोवीस तास, सतत त्याच्यासाठी अत्यंत जागरुक, सावध राहण्याचा तो, भविष्य अवगत नसलेला काळ भोगत असाताना झालेल्या यातनांची ही चटका लावणारी जीवनगाथाच…

पण असे जरी असले तरी सकारात्मकपणे स्मिता बापट जोशी यांनी एक आई म्हणून दिलेली ही झुंज खूप ऊद्बोधक, या वाटेवरच्या दु:खितांसाठी, मार्गदर्शक आहे. Never Give Up ही मानसिकता या पुस्तकात अनुभवायला मिळते. आणि ती आश्वासक आहे. समाजाकडुन मिळालेले दु:खद नजराणे, ऊलगडत असताना, त्यांनी समाजाच्या चांगुलपणाचीही दखल घेतलेली आहे. किंबहुना त्यांनी त्यावरच अधिक प्रकाश टाकलेला आहे. राग, चीड याबरोबरच ऊपकृततेची भावनाही त्यांनी मनापासून व्यक्त केली आहे.

विज्ञानाची मदत असतेच. पण भक्कमपणे, अनुभवाने मिळालेले ज्ञान जोडून, या काटेरी प्रवासातही फुलांची बरसात कशी होईल,आणि त्यासाठी प्रयत्नांची केलेली पराकाष्ठा यशाचं दार ऊघडते, हे या पुस्तकात ठळकपणे जाणवते आणि म्हणूनच या पुस्तकाशी आपलं नातं जुळतं..

जन्मापासून ते वयाच्या सव्वीसाव्या वर्षापर्यंतचा, सिद्धार्थचा हा जीवनपट, एका जिंकलेल्या युद्धाचीच हकीकत सांगतो.

आज सिद्धार्थला एक स्वत:ची ओळख आहे.

ज्याला संवादही साधता येत नव्हता, तो आज “झेप” नावाच्या एका विशेष  मुलांच्या संस्थेत शिक्षक आहे,

जिगसाॅ पझल सोडवण्याच्या कलेने, त्यात असलेल्या प्राविण्याने, त्याचे नांव गिनीज बुक मधे नोंदले गेले.

स्मिता आणि भूषण या जन्मदात्यांच्या संगोपनाचा हा वेगळा प्रवास वाचनीय आहे..

पुस्तकाच्या शेवटच्या टप्प्यात लेखिका त्यांच्या मनोगतात म्हणतात, “जेव्हां,स्मिता एक व्यक्ती आणि स्मिता ..सिद्धार्थची आई म्हणून विचार करते,तेव्हां मला हरल्यासारखे वाटते..

स्मिताला तिची स्वत:ची स्वप्नं,महत्वाकांक्षा अर्पण कराव्या लागल्या या भावनेने कुठेतरी दु:ख होऊन  पराभूत झाल्यासारखे वाटते.पण मग,सिद्धार्थच्या जडणघडणी मधे विजीगीषु वृत्तीची स्मिताच तर होती….हे जेव्हां जाणवतं तेव्हां दृष्टी बदलते. हात बळकट होतात.

…”आज या जगाला गर्जून सांगावसं वाटतं, आम्ही दोघीही जिंकलो.”

सुंदर!!

जरुर वाचावे असे हे पुस्तक..!!

© सौ. राधिका भांडारकर

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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