(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है श्री रंगा हरि जी की पुस्तक “धर्म और संस्कृति -एक विवेचना” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – धर्म और संस्कृति – एक विवेचना # 90 ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – धर्म और संस्कृति एक विवेचना
लेखक – श्री रंगा हरि
☆ पुस्तक चर्चा ☆ धर्म और संस्कृति – एक विवेचना – श्री रंगा हरि ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆
धर्म को लेकर भारत में तरह तरह की अवधारणायें पनपती रही हैं . यद्यपि हमारा संविधान हमें धर्म निरपेक्ष घोषित करतया है किन्तु वास्तव में यह चरितार्थ नही हो रहा. देश की राजनीति में धर्म ने हमेशा से बड़ी भुमिका अदा की है. चुनावो में जाति और धर्म के नाम पर वोटो का ध्रुवीकरण कोई नई बात नहीं है. आजादी के बाद अब जाकर चुनाव आयोग ने धर्म के नाम पर वोट मांगने पर हस्तक्षेप किया है. तुष्टीकरण की राजनीति हमेशा से देश में हावी रही है. दुखद है कि देश में धर्म व्यक्तिगत आस्था और विश्वास तथा मुक्ति की अवधारणा से हटकर सार्वजनिक शक्ति प्रदर्शन तथा दिखावे का विषय बना हुआ है. ऐसे समय में श्री रंगाहरि की किताब धर्म और संस्कृति एक विवेचना पढ़ने को मिली. लेखक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अनुयायी व प्रवर्तक हैं. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को हिन्दूवादी संगठन माना जाता है. स्वाभाविक रूप से उस विचारधारा का असर किताब में होने की संभावना थी, पर मुझे पढ़कर अच्छा लगा कि ऐसा नही है, बल्कि यह हिन्दू धर्म की उदारवादी नीति ही है जिसके चलते पुस्तक यह स्पष्ट करती है कि हिन्दूत्व, धर्म से ऊपर संस्कृति है. मुस्लिम धर्म की गलत विवेचना के चलते सारी दुनियां में वह किताबी और कट्टरता का संवाहक बन गया है, ईसाई धर्म भारत व अन्य राष्ट्रो में कनवर्शन को लेकर विवादस्पद बनता रहा है.
सच तो यह है कि सदा से धर्म और राजनीति परस्पर पूरक रहे हैं. पुराने समय में राजा धर्म गुरू से सलाह लेकर राजकाज किया करते थे. एक राज्य के निवासी प्रायः समान धर्म के धर्मावलंबी होते थे. आज भी देश के जिन क्षेत्रो में जब तब विखण्डन के स्वर उठते दिखते हैं, उनके मूल में कही न कही धर्म विशेष की भूमिका परिलक्षित होती है.
अतः स्वस्थ मजबूत लोकतंत्र के लिये जरूरी है कि हम अपने देश में धर्म और संस्कृति की सही विवेचना करें व हमारे नागरिक देश के राष्ट्र धर्म को पहचाने. प्रस्तुत पुस्तक सही मायनो में छोटे छोटे सारगर्भित अध्यायों के माध्यम से इस दिशा में धर्म और संस्कृति की व्यापक विवेचना करने में समर्थ हुई है.
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
( आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार जी की एक चर्चित पुस्तक “मोहल्ला 90 का” के कुछ अंश जो निश्चित ही आपको कुछ समय के लिए ही सही अवश्य ले जायेंगे 90 के दशक में। )
☆ पुस्तक समीक्षा ☆ आत्मकथ्य – मोहल्ला 90 का ☆ श्री आशीष कुमार ☆
इस संस्मरण के मुख्य शीर्षक हैं – अच्छे दिन, दुनिया बदल रही है, त्यौहारों की खुशबू, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँव की शादी, खट्टे मीठे दिन स्कूल के, खुशबू लड़कपन के प्यार की, नाम की सवारी, 2020 का जमाना, मुकाबला वापसी के लिए।
यादों के झरोखे से ” मोहल्ला 90 का” के कुछ अंश –
बचपन संभवतय हर व्यक्ति की सबसे पुरानी यादों के साथ जुड़ा हुआ होता है। उसी उम्र में बच्चा पढ़ना शुरु करता है। माता – पिता के बार बार कहने के बावजूद भी समय बे समय वो अपने दोस्तों के साथ खेलने चला जाता है। उस वक्त गर्मी, सर्दी या बरसात उसे रोक नहीं पाती।बचपन की ज्यादातर यादें उस वक्त के दोस्तों की और परिवार या आस-पड़ोस, अध्यपक आदि की बातों से भरी होती हैं जो चाह कर भी भुलाई नहीं जा सकती है उस समय घर में डाँट पड़े या मार दोस्तों के साथ खेलना कूदना ही सबसे जरूरी लगता है। इस समय की यादे काफी भावुक और गहरी होती हैं।उम्र के बढ़ने के साथ साथ सोच भी बदलनी शुरू हो जाती हैआप सबको याद है की हमारे खेलों में भी बदलाव आते रहते हैं। पहले छुपन – छुपाई होती थी, फिर लूड़ो-साँप सीढी का जमाना आता है, उसके बाद व्यापार आदि। शाम हुई नहीं कि भागे मैदान की तरफ, परीक्षा के दिनों में भी हम घंटे दो खेल ही लेते थे पर अब?सड़क के नुक्कड़ पर बैठकर गप्पें मारना तो ऐसा था की कब दिन से रात हुई, यह आभास भी नहीं होता था।क्या आप लोग भूल गए की खेलो के पीरियड भी होते थे और अगर नहीं है हफ्ते-दो हफ्ते में हर विषय के सर या मैडम से उनका एक पीरियड खेल का करवाने की ज़िद करके हम उसे खेल का करवा लेते थे। आज कल तो बड़ो को छोड़ो 3-4 साल के बच्चे भी मोबाइल में ही घुसे रहते है।
क्या आप लोग मिस नहीं करते वो बारिश की बूंदें, वो ठंडी पछवाड़े, वो सपनो से भरी कागज़ की नाव, वो मिटटी के खेल, वो डबल बैड पर एक ओर लेट कर रोल होते होते डबल बैड के दूसरे कोने तक जाना।वो बिस्कुट के ऊपर लगे काजू, बादाम निकाल कर खाना, स्कूटर पर आगे खड़े होकर या पीछे उलटे बैठ कर जाना।परीक्षा से पहले पापा का कहना, पढ़ाई मत कर लेना टी.वी. हीदेखते रहना, याद आया सामने वाली गली में और हमारी इसी छत पर घंटो क्रिकेट खेलना, लुड्डो, सांप- सीडी, कैरम, लंगड़ी टाँग, खो खो और पता नहीं क्या क्या?
समय लगातार बदलता रहता है वक्त की रफ्तार में दौड़ते दौड़ते कब पैसे की ज़रूरत महसूस होने लगी इसकाअंदाजा आपको भी महँगी महँगी कारो और लोगो की लाइफस्टाइल को देखकर ही लगा होगा ना? आप में से बहुत सारे लोगो को नौकरी के लिए घर छोड़कर दूसरे शहरो में जाना पड़ा, शहर अनजान सा था। एक छोटा सा कमरा जो सामान से ही भरा रहता था। शुरू-शुरू में होटल का खाना अच्छा लगता होगा लेकिन आज बताओ घर के खाने का ही मन करता है ना।जिन कामो को जब मम्मी या पापा हमारे लिए कर देते थे तो वो बड़े आसान से लगते थे लेकिन अब जब खुद करने पड़ते है तो वो बड़े मुश्किल से लगते हैना? मेहनत से काम करने के बावजूद ऑफिस में बॉस की डांटमन को कचोटती है ना? हमने घर में कभी किसी की सुनी नही थी लेकिन पैसों की चाह ने यहाँ सब कुछ चुपचाप सहन करना सीखा दिया। आज लगता है ना की घर के जिस चैन को हम दुखो का दौर समझते थे असल मे वो ही हमारा गोल्डन टाइम था । जिसको शायद पैसा कभी भर नही सकता।
मौसम भी वही है हम भी वही हैं मगर पहले जैसी, अब बात नहीं है वही बारिश है वही बारिश की बूंदे हैं मगर अब उनमे हमारे जज्बात नहीं है, गलियां भी वही है यार भी वही हैं मगर पहले जैसे,अब मिलते नहीं हैं क्योकि आज वो भी बिजी है और हम भी।
चलो आप लोगो को स्कूल के उस दौर में ले चलता हूँ और अध्यापको द्वारा दिए गए कुछ ज्ञान याद करवाता हूँ:
मुझे क्लास में पिन ड्रॉप साइलेन्स चाहिये(मुझे आज तक वो पिन नहीं मिली)
बहुत हँसी आ रही है हमें भी तो बताओ थोड़ा हम भी हँस लें (अरे हाँ पहले सच्ची हँसी भी तो हुआ करती थी)
क्या बेटा, बाहर देखने में ज़्यादा आनन्द आ रहा हो तो बाहर ही निकल जाओ (अब तो अंदर का एकांत पसंद है बस)
आज आप लोगों का सरप्राइज़ टेस्ट है (काश आज फिर कोई सेSurprise टेस्ट ले ले)
ज़रा सा बाहर जाते ही क्लास को सब्जी मंडी बना देते हो, सब खड़े हो जाओ (टीचर द्वारा कुर्सी पर हाथ ऊपर करके खड़े होने की सज़ा याद है ना?)
किताब कहाँ है ? घर पर दूध दे रही है क्या? (अब तो किताब भी मोबाइल में घुस गयी)
माँ बाप का खूब नाम रोशन कर रहे हो बेटा, क्यों उनकी मेहनत की गाढ़ी कमाई बर्बाद कर रहे हो ? (नाम ही माँ-बाप का दिया हुआ है)
खाना खाना भूले थे ? होमवर्क कैसे भूल गये ? (अब तो होम में वर्क ही होता है बस शरारत कहाँ?)
हाँ तुमसे ही पूछ रही हूँ खड़े हो जाओ, इधर उधर क्या देख रहे हो, Answer दो (मेरे पास आज भी Answer नहीं है)
ज़ोर से पढ़ो यहाँ तक आवाज़ आनी चाहिये, मस्ती में तो बहुत गला फाड़ते हो, पढ़ने में क्या हो जाता है ? (पूर्ण मौन)
कल से तुम दोनों को अलग अलग बैठना है (दोस्त अब कुछ ज्यादा ही अलग अलग हो गए है)
अगर वह कुँए में कूदेगा तो क्या तुम भी कूद जाओगे ?( मन करता है कि अब तो कुँए में ही कूद जाये)
इतने सालों में कभी इतनी ख़राब क्लास और इतने ढीठ बच्चे नहीं देखे (ढीठ तो अब हो गए है)
स्कूल में हम सबकी टीचरों द्वारा सबके सामने भी पिटाई होती थी पर तब भी हमारा Ego हमें कभी परेशान नही करता था हम बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि Ego होता क्या है। क्योकि पिटाई के एक घंटे बाद ही हम फिर से हंसते हुए कोई और शैतानी करने लगते।
पढ़ाई फिर नौकरी के सिलसिलें में हम शहर-शहर में मरे फिरते है पर सच बताओ हमारे बचपन की ये गालियाँ, वो स्कूल का जीवन, तीज- त्यौहारो की मस्ती हमारा आज भी पीछा करते हैं ना और उन्हें ही याद करके अब हम सब शायद सबसे ज्यादा खुश होते है।याद है वो घर में मूंगफली भी जितने भाई-बहन है उतने हिस्सों में बाटी जाती थी और हमेशा लगता था की मेरे हिस्से में ही एक-दो मूंगफली कम है।ये नया जमाना हमे कहाँ ले आया?, नल की टोटी का काई वाला पानी पी के जो प्यास बूझती थी उसका कोई जवाब नहीं,अब तो RO का शुद्ध पानी पीकर भी बरसो से प्यासे ही है।आप सब कभी एक मिनट भी एक दूसरे के बगैर नहीं रह पाते थे कभी स्कूल में साथ तो कभी स्कूल के बाद शाम ढलने तक रोज मिलते थे फिर भी रोज नयी और ज्यादा खुशी। और आप लोग आज काफी समय बाद मिल रहे है कुछ को तो शायद बीस सालो से भी ज्यादा हो गए, क्या मुझे बातयेंगे जब इतने समय बाद आप लोग आज यहाँ पर मिले कितनो ने एक दूसरे से कितनी देर बात की? एक मिनट, दो मिनट या ज्यादा से ज्यादा पांच मिनट और फिर लग गए सब अपने अपने मोबाइलो में।नाम मोबाइल है पर इस 6-7 इंच की वस्तु ने सबकी जिंदगी स्थायी बिना किसी गति के बना दी है।
याद करिये वो दिन जब हमारे पास न तो Mobile, DVD’s, PlayStation, Xboxes, PC, Internet, चैटिंग कुछ नहीं था फिर भी हम हर पल को जीते थे क्योकि तब हम दोस्तों के साथ जीते थे।पोशम्पा भाई पोशम्पा डाकूो ने क्या किया सौ रूपये की घड़ी चुराई, आज फिर कोई सौ रूपये की घडी चुरा ले जिससे समय हमेशा के लिए रुक जाये कम से कम और आगे ना बढ़े।
चलो क्यों ना फिर से बचपन में जाये, चलो क्यों ना अन्य उत्सवों की तरह बचपन भी मनाये क्यों ना हफ्ते में या महीने में या कम से कम साल में एक बार सब कुछ भूल जाये।चलो फिर से तबियत ना बिगड़ने के डर से आगे बढ़े और बारिश की बूंदो के साथ मज़े करे, कागज़ की नाव फिर से चलाये, फिर से मिट्टी में खेले, छत की ज़मीन पर एक रात फिर सो ले।आज मोबाइल पर फिर से लूडो खेलते हो ना चलो एक असली लूडो लाये और फिर से टोलिया बनाये।चलो फिर एक बार एक कक्षा की रौनक बढ़ाये, फिर से कुछ कागज के जहाज उड़ाये।अपनी अपनी कारों को पार्क ही रहने दो चलो फिर से साइकिलो से दौड़ लगायें।
एक दिन के लिए फिर से Health Un conscious हो जाओ और मीठी चाय में रस या पापे डूबा कर खाओ।क्यों ना बाजार की आइसक्रीम छोड़ कर आज फिर से घर पर आइसक्रीम जमायी जाये।पापड़ और स्नैक्स भी बहार के खाते हो, भूल गए बचपन में मम्मी के हाथो से बने पापड़ और कचरियों जो छतो पर सूखते थे और हम उनके ऊपर से कूदते थे। इस बार क्यों ना आपने हाथो से बने पापड़ मम्मी को खिलाये…………….. चलो इसी बहाने घर लौट आये।
चलो फिर से अपने कमरों में क्रिकेटरों के पोस्टर लगायें, यादो के लिए ही सही पर एक बार फिर से स्टोर में पड़े धूल लगे थैले में से कुछ ऑडियो कैसेट निकाले और उसके एक खांचे में पैंसिल फसा कर फिर से घुमा ले।क्यों ना आज अपनी कॉमिको के सारे सुपर हीरो बुला ले।कल होली पर मोहल्ले के हर घर में जाकर रंग लगाने के लिए आज ही टोलिया बना ले।मैं तो कहता हूँ इस बार अपने अपने बच्चो को भी उसमे मिला ले। 15-20 तो हम है ही, इस बार दशहरा पर क्यों ना अपने मोहल्ले में ही रामलीला का मंच लगा ले। किसी को रावण किसी को हनुमान बना ले।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है उपन्यास “ककनमठ ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – उपन्यास – ककनमठ # 89 ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – उपन्यास – ककनमठ
लेखक – पंडित छोटेलाल भारद्वाज
पृष्ठ – 180
मूल्य – 500 रु
☆ पुस्तक चर्चा ☆ उपन्यास – ककनमठ – पंडित छोटेलाल भारद्वाज ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆
विक्रम संवत 1015 से 1025 के मध्य काल में अद्भुत विशाल कच्छप घात राजवंश के शैव संप्रदाय में राजा कीर्तिराज और रानी कंगनावती के प्रेम की परिणीति के स्मारक के रूप में भगवान शंकर का विशाल लगभग 115 फिट ऊंचा मंदिर ककनमठ का निर्माण कराया गया था, जो आज भी मुरैना जिले के अश्व नदी के किनारे महमूद ग़ज़नवी, अल्तमश और अन्य सिकंदर लोदी जैसे आक्रांताओं के प्रहारों को सहने के कारण क्षत-विक्षत स्वरूप में ही भले हो पर अपना गौरवशाली इतिहास समेटे हुए मीलों दूर से उच्च मीनार जैसा दिखने वाला शिल्प समुच्चय आज भी मौजूद है । राजा कीर्तिराज और कंकण की प्रेम कहानी की अमरता का यह आध्यात्मिक प्रतीक बना । प्रेम के आध्यात्मिक परिणीति की हमारी पुरातन संस्कृति का यह स्मारक खजुराहो, कोणार्क जैसे भव्य मंदिरों श्रृंखला में एक कम चर्चित पर पौराणिक स्थल है।
लेखक ने इस पुरातात्विक स्मारक के ऐतिहासिक मूल्यों की रक्षा करते हुए जनश्रुतियों के आधार पर कहानी को बुना है। सरल भाषा में यह ऐतिहासिक विषय वस्तु का उपन्यास पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है।
यह महमूद गजनवी जैसे आक्रांता पर राजा कीर्तिराज की वीरता पूर्ण जीत का भी गवाह है। जिसके कारण गजनवी केवल लूटपाट करके ही इस क्षेत्र से भाग गया था।
उपन्यास में वर्णन के माध्यम से लेखक ने अनेक शाश्वत मूल्य को भी स्थान दिया है उदाहरण के तौर पर गुरु हृदय शिव राजा से कीर्ति राज से कहते हैं “वत्स राज्य संचालन के लिए हृदय की जिस गरिमा की आवश्यकता है वही देश की रक्षा के लिए भी आवश्यक है संकुचित है ना स्वयं की रक्षा कर पाता है और ना अपने देश की”
यह ऐतिहासिक आंचलिक कथावस्तु पर आधारित उपन्यास वीरता व प्रेम का दस्तावेज भी है, जो तब तक प्रासंगिक बना रहेगा जब तक ककनमठ के क्षतिग्रस्त अवशेष भी हमारी धरोहर बने रहेंगे।
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा पुस्तक चर्चा ‘जिजीविषा (कहानी संग्रह) – डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव’। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 40 ☆
☆ ☆ पुस्तक चर्चा – जिजीविषा (कहानी संग्रह) – डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव ☆
[कृति विवरण: जिजीविषा, कहानी संग्रह, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, द्वितीय संस्करण वर्ष २०१५, पृष्ठ ८०, १५०/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक जेकट्युक्त, बहुरंगी, प्रकाशक त्रिवेणी परिषद् जबलपुर, कृतिकार संपर्क- १०७ इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट मार्ग जबलपुर।]
जिजीविषा : पठनीय कहानी संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
हिंदी भाषा और साहित्य से आम जन की बढ़ती दूरी के इस काल में किसी कृति के २ संस्करण २ वर्ष में प्रकाशित हो तो उसकी अंतर्वस्तु की पठनीयता और उपादेयता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। यह तथ्य अधिक सुखकर अनुभूति देता है जब यह विदित हो कि यह कृतिकार ने प्रथम प्रयास में ही यह लोकप्रियता अर्जित की है। जिजीविषा कहानी संग्रह में १२ कहानियाँ सम्मिलित हैं।
सुमन जी की ये कहानियाँ अतीत के संस्मरणों से उपजी हैं। अधिकांश कहानियों के पात्र और घटनाक्रम उनके अपने जीवन में कहीं न कहीं उपस्थित या घटित हुए हैं। हिंदी कहानी विधा के विकास क्रम में आधुनिक कहानी जहाँ खड़ी है ये कहानियाँ उससे कुछ भिन्न हैं। ये कहानियाँ वास्तविक पात्रों और घटनाओं के ताने-बाने से निर्मित होने के कारण जीवन के रंगों और सुगन्धों से सराबोर हैं। इनका कथाकार कहीं दूर से घटनाओं को देख-परख-निरख कर उनपर प्रकाश नहीं डालता अपितु स्वयं इनका अभिन्न अंग होकर पाठक को इनका साक्षी होने का अवसर देता है। भले ही समस्त और हर एक घटनाएँ उसके अपने जीवन में न घटी हुई हो किन्तु उसके अपने परिवेश में कहीं न कहीं, किसी न किसी के साथ घटी हैं उन पर पठनीयता, रोचकता, कल्पनाशक्ति और शैली का मुलम्मा चढ़ जाने के बाद भी उनकी यथार्थता या प्रामाणिकता भंग नहीं होती।
जिजीविषा शीर्षक को सार्थक करती इन कहानियों में जीवन के विविध रंग, पात्रों – घटनाओं के माध्यम से सामने आना स्वाभविक है, विशेष यह है कि कहीं भी आस्था पर अनास्था की जय नहीं होती, पूरी तरह जमीनी होने के बाद भी ये कहानियाँ अशुभ पर चुभ के वर्चस्व को स्थापित करती हैं। डॉ. नीलांजना पाठक ने ठीक ही कहा है- ‘इन कहानियों में स्थितियों के जो नाटकीय विन्यास और मोड़ हैं वे पढ़नेवालों को इन जीवंत अनुभावोब में भागीदार बनाने की क्षमता लिये हैं। ये कथाएँ दिलो-दिमाग में एक हलचल पैदा करती हैं, नसीहत देती हैं, तमीज सिखाती हैं, सोई चेतना को जाग्रत करती हैं तथा विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।’
जिजीविषा की लगभग सभी कहानियाँ नारी चरित्रों तथा नारी समस्याओं पर केन्द्रित हैं तथापि इनमें कहीं भी दिशाहीन नारी विमर्ष, नारी-पुरुष पार्थक्य, पुरुषों पर अतिरेकी दोषारोपण अथवा परिवारों को क्षति पहुँचाती नारी स्वातंत्र्य की झलक नहीं है। कहानीकार की रचनात्मक सोच स्त्री चरित्रों के माध्यम से उनकी समस्याओं, बाधाओं, संकोचों, कमियों, खूबियों, जीवत तथा सहनशीलता से युक्त ऐसे चरित्रों को गढ़ती है जो पाठकों के लिए पथ प्रदर्शक हो सकते हैं। असहिष्णुता का ढोल पीटते इस समय में सहिष्णुता की सुगन्धित अगरु बत्तियाँ जलाता यह संग्रह नारी को बला और अबला की छवि से मुक्त कर सबल और सुबला के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
‘पुनर्नवा’ की कादम्बिनी और नव्या, ‘स्वयंसिद्धा’ की निरमला, ‘ऊष्मा अपनत्व की’ की अदिति और कल्याणी ऐसे चरित्र है जो बाधाओं को जय करने के साथ स्वमूल्यांकन और स्वसुधार के सोपानों से स्वसिद्धि के लक्ष्य को वरे बिना रुकते नहीं। ‘कक्का जू’ का मानस उदात्त जीवन-मूल्यों को ध्वस्त कर उन पर स्वस्वार्थों का ताश-महल खड़ी करती आत्मकेंद्रित नयी पीढ़ी की बानगी पेश करता है। अधम चाकरी भीख निदान की कहावत को सत्य सिद्ध करती ‘खामियाज़ा’ कहानी में स्त्रियों में नवचेतना जगाती संगीता के प्रयासों का दुष्परिणाम उसके पति के अकारण स्थानान्तारण के रूप में सामने आता है। ‘बीरबहूटी’ जीव-जंतुओं को ग्रास बनाती मानव की अमानवीयता पर केन्द्रित कहानी है। ‘या अल्लाह’ पुत्र की चाह में नारियों पर होते जुल्मो-सितम का ऐसा बयान है जिसमें नायिका नुजहत की पीड़ा पाठक का अपना दर्द बन जाता है। ‘प्रीती पुरातन लखइ न कोई’ के वृद्ध दम्पत्ति का देहातीत अनुराग दैहिक संबंधों को कपड़ों की तरह ओढ़ते-बिछाते युवाओं के लिए भले ही कपोल कल्पना हो किन्तु भारतीय संस्कृति के सनातन जवान मूल्यों से यत्किंचित परिचित पाठक इसमें अपने लिये एक लक्ष्य पा सकता है।
संग्रह की शीर्षक कथा ‘जिजीविषा’ कैंसरग्रस्त सुधाजी की निराशा के आशा में बदलने की कहानी है। कहूँ क्या आस निरास भई के सर्वथा विपरीत यह कहानी मौत के मुंह में जिंदगी के गीत गाने का आव्हान करती है। अतीत की विरासत किस तरह संबल देती है, यह इस कहानी के माध्यम से जाना जा सकता है, आवश्यकता द्रितिकों बदलने की है। भूमिका लेख में डॉ. इला घोष ने कथाकार की सबसे बड़ी सफलता उस परिवेश की सृष्टि करने को मन है जहाँ से ये कथाएँ ली गयी हैं। मेरा नम्र मत है कि परिवेश निस्संदेह कथाओं की पृष्ठभूमि को निस्संदेह जीवंत करता है किन्तु परिवेश की जीवन्तता कथाकार का साध्य नहीं साधन मात्र होती है। कथाकार का लक्ष्य तो परिवेश, घटनाओं और पात्रों के समन्वय से विसंगतियों को इंगित कर सुसंगतियों के स्रुअज का सन्देश देना होता है और जिजीविषा की कहानियाँ इसमें समर्थ हैं।
सांस्कृतिक-शैक्षणिक वैभव संपन्न कायस्थ परिवार की पृष्ठभूमि ने सुमन जी को रस्मो-रिवाज में अन्तर्निहित जीवन मूल्यों की समझ, विशद शब्द भण्डार, परिमार्जित भाषा तथा अन्यत्र प्रचलित रीति-नीतियों को ग्रहण करने का औदार्य प्रदान किया है। इसलिए इन कथाओं में विविध भाषा-भाषियों,विविध धार्मिक आस्थाओं, विविध मान्यताओं तथा विविध जीवन शैलियों का समन्वय हो सका है। सुमन जी की कहन पद्यात्मक गद्य की तरह पाठक को बाँधे रख सकने में समर्थ है। किसी रचनाकार को प्रथम प्रयास में ही ऐसी परिपक्व कृति दे पाने के लिये साधुवाद न देना कृपणता होगी।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है “साहबनामा ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – साहबनामा # 89 ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – साहबनामा
लेखक – श्री मुकेश नेमा
प्रकाशक – मेन्ड्रेक पब्लिकेशन, भोपाल
पृष्ठ – २२४
मूल्य – २२५ रु
☆ पुस्तक चर्चा ☆ साहबनामा – श्री मुकेश नेमा ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆
कहा जाता है कि दो स्थानो के बीच दूरी निश्चित होती है. पर जब जब कोई पुल बनता है, कोई सुरंग बनाई जाती है या किसी खाई को पाटकर लहराती सड़क को सीधा किया जाता है तब यह दूरी कम हो जाती है. मुकेश नेमा जी का साहबनामा पढ़ा. वे अपनी प्रत्येक रचना में सहज अभिव्यक्ति का पुल बनाकर, दुरूह भाषा के पहाड़ काटकर स्मित हास्य के तंज की सुरंग गढ़ते हैं और बातों बातो में अपने पाठक के चश्मे और अपनी कलम के बीच की खाई पाटकर आड़े टेढ़े विषय को भी पाठक के मन के निकट लाने में सफल हुये हैं.
साहबनामा उनकी पहली किताब है. मेन्ड्रेक पब्लिकेशन, भोपाल ने लाइट वेट पेपर पर बिल्कुल अंग्रेजी उपन्यासो की तरह बेहतरीन प्रिंटिग और बाइंडिग के साथ विश्वस्तरीय किताब प्रस्तुत की है. पुस्तक लाइट वेट है, किताब रोजमर्रा के लाइट सबजेक्ट्स समेटे हुये है. लाइट मूड में पढ़े जाने योग्य हैं. लाइट ह्यूमर हैं जो पाठक के बोझिल टाइट मन को लाइट करते हैं. लेखन लाइट स्टाईल में है पर कंटेंट और व्यंग्य वजनदार हैं.
अलटते पलटते किताब को पीछे से पढ़ना शुरू किया था, बैक आउटर कवर पर निबंधात्मक शैली में उन्होने अपना संक्षिप्त परिचय लिखा है, उसे भी जरूर पढ़ियेगा, लिखने की स्टाईल रोचक है. किताब के आखिरी पन्ने पर उन्होने खूब से आभार व्यक्त किये हैं. किताब पढ़ने के बाद उनकी हिन्दी की अभिव्यक्ति क्षमता समझकर मैं लिखना चाहता हूं कि वे अपने स्कूल के हिन्दी टीचर के प्रति आभार व्यक्त करना भूल गये हैं. जिस सहजता से वे सरल हिन्दी में स्वयं को व्यक्त कर लेते हैं, अपरोक्ष रूप से उस शैली और क्षमता को विकसित करने में उनके बचपन के हिन्दी मास्साब का योगदान मैं समझ सकता हूं.
जिस लेखक की रचनाये फेसबुक से कापी पेस्ट/पोस्ट होकर बिना उसके नाम के व्हाट्सअप के सफर तय कर चुकी हों उसकी किताब पर कापीराइट की कठोर चेतावनी पढ़कर तो मैं समीक्षा में भी लेखों के अंश उधृत करने से डर रहा हूं. एक एक्साईज अधिकारी के मन में जिन विषयो को लेकर समय समय पर उथल पुथल होती रही हो उन्हें दफ्तर, परिवार, फिल्मी गीतों, भोजन, व अन्य विषयो के उप शीर्षको क्रमशः साहबनामा में १८ व्यंग्य, पतिनामा में ८, गीतनामा में १०, स्वादनामा में १०, और संसारनामा में १६ व्यंग्य लेख, इस तरह कुल जमा ६२ छोटे छोटे,विषय केंद्रित सारगर्भित व्यंग्य लेखो का संग्रह है साहबनामा.
यह लिखकर कि वे कम से कम काम कर सरकारी नौकरी के मजे लूटते हैं, एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी होते हुये भी लेखकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो साहस मुकेश जी ने दिखाया है मैं उसकी प्रशंसा करता हूं. दुख इस बात का है कि यह आइडिया मुझे अब मिल रहा है जब सेवा पूर्णता की कगार पर हूं .
किताब के व्यंग्य लेखों की तारीफ में या बड़े आलोचक का स्वांग भरने के लिये व्यंग्य के प्रतिमानो के उदाहरण देकर सच्ची झूठी कमी बेसी निकालना बेकार लगता है. क्योंकि, इस किताब से लेखक का उद्देश्य स्वयं को परसाई जैसा स्थापित करना नही है. पढ़िये और मजे लीजीये. मुस्कराये बिना आप रह नही पायेंगे इतना तय है. साहबनामा गुदगुदाते व्यंग्य लेखो का संग्रह है.
इस पुस्तक से स्पष्ट है कि फेसबुक का हास्य, मनोरंजन वाला लेखन भी साहित्य का गंभीर हिस्सा बन सकता है. इस प्रवेशिका से अपनी अगली किताबों में कमजोर के पक्ष में खड़े गंभीर साहित्य के व्यंग्य लेखन की जमीन मुकेश जी ने बना ली है. उनकी कलम संभावनाओ से भरपूर है.
रिकमेंडेड टू रीड वन्स.
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ पुस्तक समीक्षा ☆ बँटा हुआ आदमी – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री सुरेखा शर्मा ☆
पुस्तक– बँटा हुआ आदमी
लेखिका – डाॅ• मुक्ता
प्रकाशक —पेवेलियन बुक्स इन्टरनेशनल अन्सारी रोड़ दरियागंज दिल्ली
प्रथम संस्करण –2018
पृष्ठ संख्या —128
मूल्य —220 ₹
☆ संवेदनशील मन की सार्थक अभिव्यक्ति ☆
सुश्री सुरेखा शर्मा
-मैं अब तुम्हारे साथ नहीं रह सकता, तुम विश्वास के काबिल नहीं हो?
जब तुम मेरे लिए अपने घरवालों को छोड़ सकती हो तो किसी दूसरे की अंकशायिनी क्यों नहीं ?” ये पंक्तियाँ हैं भावकथा संग्रह “बँटा हुआ आदमी ” की भावकथा ‘भंवरा’ से। विवाह के चार साल बाद जब राहुल का मन अपनी पत्नी से भर गया तो उसने राहुल से पूछा, ‘मेरा कसूर क्या है? हमने प्रेम विवाह किया है ,एक दूसरे के प्रति आस्था व अगाध विश्वास रखते हुए ••••और आज तुम मुझ पर यह घिनौना इल्जाम लगा रहे हो••!” तो पुरुष प्रवृत्ति सामने आती है,ये आप कथा में पढ़ेंगे ।यह किसी प्रकार का सार संक्षेप न होकर कथा की ही पृष्ठभूमि पर उसके स्वरूपात्मक संदर्भों से जुड़ी वह रचना है, जिसमें केवल शब्द ही सीमित होते हैं चिंतन नहीं।कथानक प्रतिबंधित नहीं अपितु मर्यादित होकर कथ्य का निर्वहन करते हुए सीधे और सपाट ढंग से विषय में मर्म का प्रतिपादन होता है । यह एक ऐसी विधा है,जो कम शब्दों में सशक्त अभिव्यक्ति कर सकने की क्षमता रखती है।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित)
साहित्य जगत की सशक्त हस्ताक्षर, शिक्षाविद्, हरियाणा प्रदेश की पहली महिला जो माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत हो चुकी हैं वे किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। कविता, कहानी, निबन्ध, समालोचना, लघुकथा आदि साहित्य की अन्य विधाओं में अपनी लेखनी से मिसाल कायम की है । कलम की धनी डाॅ मुक्ता जी का संग्रह “बँटा हुआ आदमी ” भावकथा संग्रह जिसमें 118 भावकथाओं ने संग्रह में अपना स्थान लिया है जो अपने परिवेश के सभी विषय समेटे हुए है । वर्तमान परिप्रेक्ष्य की झांकी हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं संग्रह की सभी भावकथाएँ।
संग्रहित भावकथाएँ जीवन की उन सच्चाइयों से परिचित कराती हैं जिनसे हम परिचित होते हुए भी अपरिचित अर्थात अनजान बने रहना चाहते हैं। ‘दीवार पर टंगे हुए ‘ ,’क्या है मेरा अस्तित्व’, उचित निर्णय, ऐसी ही भावकथाएँ हैं जो संवेदनाओं पर प्रहार करती हैं। एक उदाहरण देखिए – ‘शालिनी से सगाई होने पर सौम्य के माता-पिता ने कहा कि •••हम तो आज ही आपकी बेटी को घर ले जाना चाहते हैं। लेकिन शालिनी ने सौम्य से कहा, “जब तक तुम्हारे माता-पिता जिंदा हैं मैं तुम्हारे साथ उस घर में नहीं रह सकती क्योंकि उसे सास-ससुर अच्छे तो लगते है, लेकिन दीवार पर टंगे हुए ।”
नारी मनोविज्ञान के विभिन्न बिंदुओं पर प्रकाश डालती भावकथाएँ नारी के अंतर्द्वन्द्व और उसकी पीड़ा को कैसे दर्शाती हैं ये इन कथाओं में देखा जा सकता है । सबकुछ जानते हुए भी एक पत्नी अपने पति से बिछुड़ने की कभी नही सोच सकती। ‘सुरक्षा कवच’ कथा कुछ यही बयान करती है — –‘शोभा !तुम मेरी बिटिया को बड़ी अफसर बनाना।उसे कभी निराश न करना।वादा करो,तुम हमेशा उसे खुश रखोगी।’
—तुम ऐसी बात मत करो -आप ठीक हो जाओगे ।
–शोभा! तुम्हे पता है न! कैंसर मेरे पूरे शरीर में फैल चुका है। मैं चंद दिनों का मेहमान हूँ । तुम्हें अकेले ही जीवन की कंटीली पथरीली राहों पर चलना है। वादा करो! तुम हमेशा सुहागिन की तरह रहोगी। मंगल सूत्र तुम्हारे गले की शोभा ही नही बढाएगा, पग -पग पर तुम्हारी रक्षा भी करेगा ।यह तुम्हारा सुरक्षा कवच होगा।बोलो करोगी न ऐसा। बोलो•••!’ देखते-देखते उसके प्राण पखेरू उड़ गए । चंद दिनों बाद शोभा को सिंदूर और बिंदिया का महत्व समझ आया कि बिंदिया और मंगलसूत्र विधवा के लिए कैसे सुरक्षा कवच बनते हैं।
संग्रह की लेखिका महिला हैं तो संवेदनशील तो होंगी ही। संवेदनशीलता की पराकाष्ठा तो देखिए। जो बेटा अपने पिता के क्रियाकर्म पर भी नहीं आया उसी बेटे के आने की खबर से सुगंधा के पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे ।कैसी होंगी मेरी पोतियाँ , कैसी होगी उसकी अंग्रेज पत्नी ? मेरी बातें वह समझ पाएगी या नहीं •••।’ सुगंधा इसी उधेड़बुन में खोई थी कि उसकी सहेली ने कहा, ‘कौन से ख्वाबों के महल बना रही हो?
-‘अरे कुछ नही, मैं तो माधव के बारे में सोच रही थी ।वह आ रहा है न ,अगले हफ्ते । पूरे बीस वर्ष बाद आ रहा है ।’
-तो यह बात है,वह तो अपने पिता की मृत्यु पर भी नहीं आया । फिर भी उसकी बाट जोह रही हो ।कैसे माफ कर सकती हो उसे?
‘-मेरा हिस्सा है वह ••••मैं माँ हूं उसकी•••। ‘
लेखिका ने कथानकों को सुघड़ता से प्रस्तुत कर एक आशावादी स्वर मुखरित किया है ।अधिकांश भावकथाओं में नारी को ललकारा गया है कि नारी,नारी का संबल क्यों नहीं बनती?
‘नहीं बनेगी वह द्रोपदी ‘ भावकथा कुछ ऐसा ही सोचने पर विवश करती है। गरीबी के कारण पिता ने अपनी बेटी का सौदा तो कर दिया । लेकिन उसकी बेटी के साथ क्या हुआ यह उसे नहीं पता••••।
वैश्वीकरण ने हमें इस कदर प्रभावित कर दिया कि हम पाश्चात्य सभ्यता व एकल परिवार को ही सब कुछ मान बैठे ।
जिन माता-पिता ने हमें चलना सिखाया, उन्हीं माता-पिता की सहारे की लाठी बनने की बजाय उन्हें बोझ समझ कर वृद्धाश्रम में छोड़कर अपना कर्तव्य पूरा कर लेते हैं—‘बेटा ! तुम हमें यहां क्यों छोड़कर चले गए ? तुम तो हमें तीर्थयात्रा पर ले जाने वाले थे।शायद यही तीर्थ है हम वृद्धों के लिए, तुम अब कभी नहीं लौटोगे•••मैं जानता हूँ •••लक्ष्मण भी इसी तरह छोड़ कर चला गया था सीता को । सीता को पनाह मिली थी बाल्मीकि आश्रम में हमें मिली वृद्धाश्रम में ।” संग्रह की ‘वृद्धाश्रम ‘ कथा आज के समाज का घिनौना रूप है और पाश्चात्य रंग में रंगी महिलाएँ दहेज व घरेलू हिंसा को हथियार के रूप में प्रयोग करने से नही चूकती -‘घर एक सुखद एहसास ‘ ऐसी ही भावकथा है – ‘- -किस अंजाम की बात कर रहे हो •••कौन -सी सदी में जी रहे हो•••पल भर में तुम सबको जेल भिजवाने का सामर्थ्य रखती हूँ मैं••••।”
‘कैसा न्याय ‘ और ‘ काश! उसने जन्म न लिया होता ‘ कथा भी कुछ ऐसा ही सोचने पर बाध्य करती है।आज के समय में सबसे बडा जूर्म है बेटे का विवाह करना।
—-संगीता बडी खुश होकर अपनी सहेलियों को बता रही थी कि, उसने अपने ससुराल वालों को सलाखों के पीछे पहुंचा ही दिया , अब कोई उसपर रोक-टोक नहीं लगाएगा ।वह पूर्णत स्वतंत्र है।
सहेली ने कारण जानना चाहा और पूछा कि, ‘ आखिर उनका अपराध क्या था,जिसकी तुमने इतनी भयंकर सजा दी है।’
‘अरे वे बडे दकियानूसी विचार वाले थे। हर बात पर रोक-टोक चलती थी।’
संवेदनाओं पर प्रहार करती भावकथा ‘शंकाओं के बादल’ अत्यंत मार्मिक कथा है जिसमें एक पिता की विवशता देखिए—- जिसने अपने हृदय को पत्थर बनाकर किस तरह अपने कलेजे के टुकड़े को मौत की नींद सुलाया होगा ? क्या पिता की सोच सकारात्मक थी •••?सार्थक थी••? उसका निर्णय उचित था ••? इस पर पाठक चिन्तन करें ?
इसमें कोई संदेह नहीं कि आज पारिवारिक रिश्तों की उष्मा कम होती जा रही है ।संवादहीनता पसर रही है। परिवार और समाज में बुजुर्गों के स्थान और सम्मान को लेकर जिस प्रभावशाली ढंग से दोहरी मानसिकता को संग्रह की कुछ कथाओं में उजागर किया है इससे लेखिका के गम्भीर चिन्तन का परिचय मिलता है। वे भावकथा हैं -स्वयंसिद्धा, ,उपेक्षित पात्र, बिखरने से पहले, राफ़्ता आदि । संग्रहित भावकथाओं में टूटते–बिखरते सम्बन्धों और विश्वासों को गहराई से देखने की कोशिश की गई है। ये संबंध कहीं बन रहे हैं तो कहीं टूट रहे हैं। इसी तरह जीवन के प्रति कहीं गहरा लगाव है तो कहीं टूटता नजर आता है ।लेकिन लेखिका की सोच जीवन एवं सम्बन्धों के प्रति गहरी आस्था लिए हुए है ।इसलिए उनकी भावकथाओं में सकारात्मक दृष्टिकोण दिखाई देता है । जीवन के तराशे हुए क्षणों और अनुभवों को लेखिका ने अपनी सृजन धर्मिता का आधार बनाया है ।
कई बार हम कितने संवेदनहीन हो जाते हैं कि हमें दूसरों का कष्ट व दुख महसूस ही नही होता। ‘अनुत्तरित प्रश्न ‘ कथा हम सब की इन्सानियत पर कड़ा प्रहार करती है हमारी संवेदनाओं को झिंझोड़ती है।एक गरीब बच्चा जो दयनीय दशा में स्टेशन पर भीख मांगता था । आने- जाने वाले उसके कटोरे में कुछेक सिक्के डालकर स्वयं को दानवीर समझने लगे थे। भीख मांगने पर भी उसे रात को भूखे पेट सोना पड़ता था । क्यों••••••क्योंकि भीख में मिली रकम तो ••••उसका सरदार बेवड़ा ले जाता था । अगले दिन स्टेशन पर भीड़ को देखते हुए वह भी रुककर देखता है तो वह बच्चा मृत पड़ा था।उसके नेत्र खुले थे। मानो वह हर आने जाने वालों से प्रश्न कर रहा हो. ••••कब तक मासूमों के साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार होता रहेगा ? उन्हें अकारण दहशत के साए में जीना पड़ेगा ••••?’
संपूर्ण भावकथा संग्रह में समाज के हर वर्ग के मन को छूने वाली कोई न कोई कथा निश्चित रूप से पढ़ने को मिलेगी। भाषा सरल व सुगम्य है। जो पाठकों को बिना किसी व्यवधान के पूरी कथा पढ़ने व चिन्तन करने को प्रेरित करती हैं। इन भावकथाओं को पढ़ने से पाठक की मानवीय संवेदनाएं जागृत होंगी, ऐसा मेरा विश्वास है। जनसाधारण को केंद्र में रखकर लिखी गई भावकथाओं का संग्रह लेखिका के मौलिक चिन्तक एवं कथाकार के रूप में उभर कर सामने आता है। लेखिका का भाषा पर ऐसा अधिकार है कि जो कुछ वे कहना चाहती हैं वह ठीक उसी रूप में संपूर्णता से व्यक्त होता है । लेखिका के मन की छटपटाहट, वेदना व समाज के व्यवहार की विभिन्न भंगिमाओं का आकर्षक ताना-बाना कृति की विशेषता है।कभी पाठक पढ़ते-पढ़ते जी उठता है तो कभी विसंगतियो की सड़ांध के प्रति वितृष्णा से भर उठता है।संग्रह की कुछ कथाएं मन -मस्तिष्क पर बेचैनी का प्रभाव छोड़ती हैं।
लेखिका बधाई की पात्र हैं जिसने व्यथा भाव के साथ -साथ पाठकों के समक्ष अनेक प्रश्न रखे हैं । “बँटा हुआ आदमी ” संवेदनशील अभिव्यक्ति बन पड़ी है । यही रचनाकार का उद्देश्य है, प्रयोजन है।सभी कथाएं गहरे सामाजिक सरोकारों की छवियां हैं।
स्वस्थ एवं दीर्घायु होने की कामना करते हुए लेखिका को पुनः बधाई देती हूं,कि वे अपनी लेखनी से साहित्य जगत को समृद्ध करती रहें।
सुश्री सुरेखा शर्मा(साहित्यकार)
सलाहकार सदस्या, हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी।
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(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है “तिष्यरक्षिता” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – खण्ड काव्य – तिष्यरक्षिता# 88 ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – खण्ड काव्य – तिष्यरक्षिता
लेखक – डा संजीव कुमार
IASBN – 9789389856859
वर्ष – २०२०
प्रकाशक – इंडिया नेट बुक्स गौतम बुद्ध नगर, दिल्ली
पृष्ठ – १३२
मूल्य – २०० रु
☆ पुस्तक चर्चा ☆ खण्ड काव्य – तिष्यरक्षिता – डा संजीव कुमार ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆
नव प्रकाशित खण्ड काव्य तिष्यरक्षिता को समझने के लिये हमें तिष्यरक्षिता की कथा की किंचित पृष्ठभूमि की जानकारी जरूरी है. इसके लिये हमें काल्पनिक रूप से अवचेतन में स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट अशोक के समय में उतारना होगा. अर्थात 304 बी सी ई से 232 बी सी ई की कालावधि, आज से कोई 2300 वर्षो पहले. तब के देश, काल, परिवेश, सामाजिक परिस्थितियो की समझ तिष्यरक्षिता के व्यवहार की नैतिकता व कथा के ताने बाने की किंचित जानकारी लेखन के उद्देश्य व काव्य के साहित्यिक आनंद हेतु आवश्यक है.
ऐतिहासिक पात्रो पर केंद्रित अनेक रचनायें हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं. तिष्यरक्षिता, भारतीय मौर्य राजवंश के महान चक्रवर्ती सम्राट अशोक की पांचवी पत्नी थी. जो मूलतः सम्राट की ही चौथी पत्नी असन्ध मित्रा की परिचारिका थी. उसके सौंदर्य से प्रभावित होकर अशोक ने आयु में बड़ा अंतर होते हुये भी उससे विवाह किया था. पाली साहित्य में उल्लेख मिलता है कि तिष्यरक्षिता बौद्ध धर्म की समर्थक नहीं थी. वह स्वभाव से अत्यंत कामातुर थी.
अशोक की तीसरी पत्नी पद्मावती का पुत्र कुणाल था. जिसकी आँखें बहुत सुंदर थीं. सम्राट अशोक ने अघोषित रूप से कुणाल को अपना उत्तराधिकारी मान लिया था. कुणाल तिष्यरक्षिता का समवयस्क था. उसकी आंखो पर मुग्ध होकर उसने उससे प्रणय प्रस्ताव किया. किंतु कुणाल ने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया. तिष्यरक्षिता अपने सौंदर्य के इस अपमान को भुला न सकी. जब एक बार अशोक बीमार पड़ा तब तिष्यरक्षिता ने उसकी सेवा कर उससे मुंह मांगा वर प्राप्त करने का वचन ले लिया. एक बार तक्षशिला में विद्रोह होने पर जब कुणाल उसे दबाने के लिए भेजा गया तब तिष्यरक्षियता ने अपने वरदान में सम्राट, अशोक की राजमुद्रा प्राप्तकर तक्षशिला के मंत्रियों को कुणाल की आँखें निकाल लेने तथा उसे मार डालने की मुद्रांकित आज्ञा लिख भेजी. इस हेतु अनिच्छुक मंत्रियों ने जनप्रिय कुणाल की आँखें तो निकलवा ली परंतु उसके प्राण छोड़ दिए. अशोक को जब इसका पता चला तो उसने तिष्यरक्षिता को दंडस्वरूप जीवित जला देने की आज्ञा दी.
त्रिया चरित्र की यही कथा खण्ड काव्य का रोचक कथानक है. जिसमें इतिहास, मनोविज्ञान, साहित्यिक कल्पना सभी कुछ समाहित करते हुये डा संजीव कुमार ने पठनीय, विचारणीय, मनन करने योग्य, प्रश्नचिन्ह खड़े करता खण्ड काव्य लिखा है. उन्होने अपनी वैचारिक उहापोह को अभिव्यक्त करने के लिये अकविता को विधा के रूप में चुना है.तत्सम शब्दो का प्रवाहमान प्रयोग कर १६ लम्बी भाव अकविताओ में मनोव्यथा की सारी कथा बड़ी कुशलता से कह डाली है.
कुछ पंक्तियां उधृत करता हूं
क्रोध भरी नारी
होती है कठिन,
और प्रतिशोध के लिये
वह ठान ले, तो
परिणाम हो सकते हैं
महाभयंकर.
वह हो प्रणय निवेदक तो
कुछ भी कर सकती है वह
क्रोध में प्रतिशोध में
या
यूं तो मनुष्य सोचता है
मैं शक्तिमान
मैं सुखशाली
मैं मेधामय
मैं बलशाली
पर सत्य ही है
जीवन में कोई कितना भी
सोचे मन में सब नियति का है
निश्चित विधान.
राम के समय में रावण की बहन सूर्पनखा, पौराणिक संदर्भो में अहिल्या की कथा, गुरू पत्नी पर मोहित चंद्रमा की कथा, कृष्ण के समय में महाभारत के अनेकानेक विवाहेतर संबंध, स्त्री पुरुष संबंधो की आज की मान्य सामाजिक नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह हैं. दूसरी ओर वर्तमान स्त्री स्वातंत्र्य के पाश्चात्य मापदण्डो में भी सामाजिक बंधनो को तोड़ डालने की उच्छृंखलता इस खण्ड काव्य की कथा वस्तु को प्रासंगिक बना देती है. पढ़िये और स्वयं निर्णय कीजीये की तिष्यरक्षिता कितनी सही थी कितनी गलत. उसकी शारीरिक भूख कितनी नैतिक थी कितनी अनैतिक. उसकी प्रतिशोध की भावना कुंठा थी या स्त्री मनोविज्ञान ? ऐसे सवालो से जूझने को छोड़ता कण्ड काव्य लिखने हेतु डा संजीव बधाई के सुपात्र हैं.
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है व्यंग्य संग्रह “अब तक ७५, श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – अब तक ७५, श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें # 87 ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – व्यंग्य संग्रह – अब तक ७५, श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें
संचयन व संपादन – डा लालित्य ललित और डा हरीश कुमार सिंह
प्रकाशक – इंडिया नेट बुक्स गौतम बुद्ध नगर, दिल्ली
पृष्ठ – २३६
मूल्य – ३०० रु
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – अब तक ७५, श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें – संचयन व संपादन – डा लालित्य ललित और डा हरीश कुमार सिंह ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆
लाकडाउन अप्रत्याशित अभूतपूर्व घटना थी. सब हतप्रभ थे. किंकर्त्व्यविमूढ़ थे. कहते हैं यदि हिम्मत न हारें तो जब एक खिड़की बंद होती है तो कई दरवाजे खुल जाते हैं. लाकडाउन से जहां एक ओर रचनाकारो को समय मिला, वैचारिक स्फूर्ति मिली वहीं उसे अभिव्यक्त करने के लिये इंटरनेट के सहारे सारी दुनियां का विशाल कैनवास मिला. डा लालित्य ललित वह नाम है जो अकेले बढ़ने की जगह अपने समकालीन मित्रो को साथ लेकर दौड़ना जानते हैं. वे सक्रिय व्यंग्यकारो का एक व्हाट्सअप समूह चला रहे हैं. देश परदेश के सैकड़ो व्यंग्यकार इस समूह में उनके सहगामी हैं. इस समूह ने अभिनव आयोजन शुरू किये. प्रतिदिन एक रचनाकार द्वारा नियत समय पर एक व्यंग्यकार की नयी रचना की वीडीयो रिकार्डिंग पोस्त की जाने लगी. उत्सुकता से हर दिन लोग नयी रचना की प्रतीक्षा करने लगे, सबको लिखने, सुनने, टिप्पणिया करने में आनंद आने लगा. यह आयोजन ३ महीने तक अविराम चलता रहा. रचनायें उत्कृष्ट थी. तय हुआ कि क्यो न लाकडाउन की इस उपलब्धि को किताब का स्थाई स्वरूप दिया जाये, क्योंकि मल्टी मीडिया के इस युग में भी किताबों का महत्व यथावत बना हुआ है. ललित जी की अगुआई में हरीश जी ने सारी पढ़ी गई रचनायें संग्रहित की गईं, वांछित संपादन किया गया. इस किताब में स्थान पाना व्यंग्यकारो में प्रतिष्ठा प्रश्न बन गया. इ्डिया नेटबु्क्स ने प्रकाशन भार संभाला, निर्धारित समय पर महाकाल की नगरी उज्जैन में भव्य आयोजन में विमोचन भी संपन्न हुआ. देश भर के समाचारो में किताब बहुचर्चित रही.
अब तक पचहत्तर में अकारादि क्रम में अजय अनुरागी की रचना लॉकडाउन में फंसे रहना, अजय जोशी की छपाक लो एक और आ गया, अतुल चतुर्वेदी की कैरियर है तो जहान है, अनीता यादव की रचना ऑनलाइन कवि सम्मेलन के साइड इफेक्ट, अनिला चाड़क की रचना करोना का रोना, अनुराग बाजपाई की रचना प्रश्न प्रदेश बनाम उत्तर प्रदेश, अमित श्रीवास्तव की भैया जी ऑनलाइन, अरविंद तिवारी की खुद मुख्तारी के दिन, अरुण अरुण खरे की रचना साब का मूड, अलका अग्रवाल नोट नोटा और लोटा, अशोक अग्रोही की रचना करोना के सच्चे योद्धा, अशोक व्यास चुप बहस चालू है, आत्माराम भाटी सपने में कोरोना,आशीष दशोत्तर संक्रमित समय और नाक का सवाल, मेरी राजनीतिक समझ कमलेश पांडे, मेरा अभिनंदन कुंदन सिंह परिहार, 21वीं सदी का ट्वेंटी ट्वेंटी केपी सक्सेना दूसरे, मैं तो पति परमेश्वर हूं जी गुरमीत बेदी, नाम में क्या रखा है चन्द्रकान्ता, चीन की लुगाई हमार गांव आई जय प्रकाश पांडे, अगले जन्म मोहे खंबानी कीजो जवाहर चौधरी, बाप रे इतना बुरा था आदमी टीका राम साहू, टथोफ्रोबिया दिलीप तेतरवे, जाने पहचाने चेहरे दीपा गुप्ता शामिल हैं.
कहानी कान की देवकिशन पुरोहित, हे कोरोना कब तक रोएं तेरा रोना देवेंद्र जोशी, पिंजरा बंद आदमी और खुले में टहलते जानवर निर्मल गुप्त, टांय टांय फिस्स नीरज दैया, हिंदी साहित्य का नया वाद कोरोनावाद पिलकेंद्र अरोड़ा, बहुमत की बकरी प्रभात गोस्वामी, स्थानांतरण मस्तिष्क का प्रमोद तांबट, सुन बे रक्तचाप प्रेम जनमेजय, यस बास प्रेमविज, सेवानिवृति का संक्रमण काल बल्देव त्रिपाठी, मन के खुले कपाट बुलाकी शर्मा, मेरा स्कूल ब्युटीफुल भरत चंदानी, जी की बात मलय जैन, आवश्यकता गरीब बस्ती की मीनू अरोड़ा, हिंदी साहित्य की मदद मुकेश नेमा, श्रद्धांजलि की ब्रेकिंग न्यूज़ मुकेश राठौर, छबि की हत्या मृदुल कश्यप, और सपने को सिर पर लादे चल पड़ा रामखेलावन गांव की ओर रण विजय राव, यमलोक में सन्नाटा रतन जेसवानी, चालान रमाकांत ताम्रकार, छूमंतर काली कंतर रमेश सैनी, बुरी नजर वाले रवि शर्मा मधुप, झक्की मथुरा प्रसाद रश्मि चौधरी, डरना मना है राकेश अचल, करोना से मरो ना राजशेखर चौबे, वाह री किस्मत राजेंद्र नागर, स्वच्छ भारत राजेश कुमार, लॉकडाउन में आत्मकथा लिखने का टाइम रामविलास जांगिड़, पांडेय जी बन बैठे जिलाधिकारी गाजियाबाद लालित्य ललित, कोरोना वायरस वर्षा रावल के लेख हैं
फॉर्मेट करना पड़ेगा वायरस वाला 2020 विवेक रंजन श्रीवास्तव, आई एम अनमैरिड वीणा सिंग, सरकार से सरकार तक वेद प्रकाश भारद्वाज, रतन झटपट आ और करोड़पति बन वेद माथुर, दीपिका आलिया और मेरी मजबूरी शरद उपाध्याय, नैनं छिद्यन्ति शस्त्राणि श्याम सखा श्याम, करोना तुम कब जाओगे संजय जोशी, टीपूजी से कपेजी संजय पुरोहित, अंगुलीमाल का अहिंसा का नया फंडा संजीव निगम, मैडम करुणा की प्रेस कान्फ्रेंस संदीप सृजन, हमाई मजबूरी जो है समीक्षा तैलंग, तस्वीर बदलनी चाहिये सुदर्शन वशिष्ठ, रुपया और करोना सुधर केवलिया, लॉकडाउन के घर में सुनीता शानू, मन लागा यार फकीरी में सुनील सक्सेना, तुम क्या जानो पीर पराई सुषमा राजनीति व्यास, लाकडाउन में तफरी सूरत ठाकुर, भाया बजाते रहो स्वाति श्वेता, क्वारंटाइन वार्ड स्वर्ग में हनुमान मुक्त, मैं तो अपनी बैंक खोलूंगा पापा हरीश कुमार सिंह और अस्पताल में एंटरटेनमेंट हरीश नवल के व्यंग्य सम्मलित हैं.
जैसा कि व्यंग्य लेखों के शीर्षक ही स्पष्ट कर रहे हैं किताब के अधिकांश व्यंग्य करोना पर केंद्रित तत्कालीन पृष्ठभूमि के हैं. जब भी भविष्य में हिन्दी साहित्य में कोरोना काल के सृजन पर शोध कार्य होंगे इस किताब को संदर्भ ग्रंथ के रूप में लिया ही जायेगा यह तय मानिये. आप को इन व्यंग्य लेखो को पढ़ना चाहिये. देखना सुनना हो तो यूट्यूब खंगालिये शायद लेखक के नाम या व्यंग्य के नाम से कहीं न कही ये व्यंग्य सुलभ हों. क्योकि हर व्यंग्य का वीडियो पाठ मैंने व्हाट्सअप ग्रुप पर कौतुहल से देखा सुना है. बधाई सभी सम्मलित रचनाकारो को, जिनमें वरिष्ठ, कनिष्ठ, नियमित सक्रिय, कभी जभी लिखने वाले, महिलायें, इंजीनियर, डाक्टर, संपादक, सभी शामिल हैं. बधाई संपादक द्वय को और प्रकाशक जी को.
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ पुस्तक “शारदा संगीत” – श्री प्रकाश नारायण संत ☆ डॉ मेधा फणसळकर ☆
संतांच्या ‛वनवास’ या कथासंग्रहाचा पुढचा भाग म्हणजे ‛शारदा संगीत’! आई- वडिलांपासून दूर आजी- आजोबांकडे नुकताच राहू लागलेला लंपन वनवासमध्ये चित्रित केला आहे. तर कोवळ्या वयातून हळूहळू मोठा झालेला लंपन शारदासंगीतमध्ये चित्रित केला आहे. आई- वडिलांना सोडून आज्जी – आजोबांकडे राहायला लागल्यामुळे आपल्याला वनवासी समजू लागलेला लंपन आता थोडा mature झाला आहे. सुमीशी त्याची गट्टी जमली आहे. त्याचेही एक विश्व तयार झालेले यात दिसून येते.
एकूण पाच दीर्घकथांचा यात समावेश आहे. वनवास मधील गोंधळलेला लंपन ‘शारदा संगीतमध्ये’ आजूबाजूच्या वातावरणात रमलेला दिसतो.त्याचे वर्तुळ अधिक विस्तारलेले दिसते. या कथांमध्ये केवळ व्यक्तीच नव्हे तर त्याच्या खेळण्याचा अविभाज्य भाग असणारे ग्राउंड, आगगाडीचे रुळ, घसरगुंडी या निर्जीव घटकांना पण एकप्रकारची संजीवनी देऊन लेखकाने सजीवत्व प्राप्त करुन दिले आहे. शिवाय म्हापसेकर मास्तरांची शांत पण शिस्तप्रिय असणारी प्रतिमा, उच्चपदस्थ असूनही अतिशय नम्र व माणुसकी जपणारे जमखंडीकर, मास्तरांच्या अनुपस्थितीत तितक्याच सक्षमपणे क्लास चालू ठेवणारी लक्ष्मी, सरस्वती केरुर, ‛परचक्र’ कथेतील जीवनातील एक काळी बाजू दाखविणारे करसुंदीकर अण्णा व त्यांचे कुटुंब लंपनचे अनुभवविश्व अधिक समृद्ध करुन जातात.
त्यांच्या लेखनाची एक सिग्नेचर स्टाईल होती. “मॅड स्वैपाकघर, एकदम बेष्ट, मॅडसारखा झोपून गेलो, काजूबीयांचे रिक्रुट, सुमीने आणि मी एकोणीस तास शोध घेतल्यानंतर मांजराचे पिल्लू सापडले, बाबांशिवाय इतर बविसशे लोक तिथे होते” अशी वाक्ये वाचताना संतांची ती विशिष्ट शैली जाणवते. महाराष्ट्र – कर्नाटक सीमेवरील गावात त्यांचे हे बालपण गेल्यामुळे त्या भाषेचा एक विशिष्ट बाज वाचकाला सुखावून जातो. आणि प्रत्येकाच्याच मनात दडलेला तो लंपन शब्दांच्या माध्यमातून वाचकाला सापडतो. म्हणूनच आवर्जून वाचावे असे हे पुस्तक आहे.
☆ व्यंग्य संग्रह – ‘लाकडाउन’’ – संपादक – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ चर्चाकार – डा. साधना खरे ☆
व्यंग्य संग्रह – लाकडाउन
संपादन.. विवेक रंजन श्रीवास्तव
पृष्ठ – १६४
मूल्य – ३५० रु
IASBN 9788194727217
प्रकाशक – रवीना प्रकाशन’ गंगा विहार’ दिल्ली
हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की स्वीकार्यता लगातार बढ़ी है. पाठको को व्यंग्य में कही गई बातें पसंद आ रही हैं. व्यंग्य लेखन घटनाओ पर त्वरित प्रतिक्रिया व आक्रोश की अभिव्यक्ति का सशक्त मअध्यम बना है. जहां कहीं विडम्बना परिलक्षित होती है’ वहां व्यंग्य का प्रस्फुटन स्वाभाविक है. ये और बात है कि तब व्यंग्य बड़ा असमर्थ नजर आता है जब उस विसंगति के संपोषक जिस पर व्यंग्यकार प्रहार करता है’ व्यंग्य से परिष्कार करने की अपेक्षा’ उसकी उपेक्षा करते हुये’ व्यंग्य को परिहास में उड़ा देते हैं. ऐसी स्थितियों में सतही व्यंग्यकार भी व्यंग्य को छपास का एक माध्यम मात्र समझकर रचना करते दिखते हैं.
विवेक रंजन श्रीवास्तव देश के एक सशक्त व्यंग्यकार के रूप में स्थापित हैं. उनकी कई किताबें छप चुकी हैं. उन्होने कुछ व्यंग्य संकलनो का संपादन भी किया है. उनकी पकड़ व संबंध वैश्विक हैं. दृष्टि गंभीर है. विषयो की उनकी सीमायें व्यापक है.
वर्ष २०२० के पहले त्रैमास में ही सदी में होने वाली महामारी कोरोना का आतंक दुनिया पर हावी होता चला गया. दुनिया घरो में लाकडाउन हो गई. इस पीढ़ी के लिये यह न भूतो न भविष्यति वाली विचित्र स्थिति थी. वैश्विक संपर्क के लिये इंटरनेट बड़ा सहारा बना. ऐसे समय में भी रचनात्मकता नही रुक सकती थी. कोरोना काल निश्चित ही साहित्य के एक मुखर रचनाकाल के रूप में जाना जायेगा. इस कालावधि में खूब लेखन हुआ. इंटरनेट के माध्यम से फेसबुक’ गूगल मीट’ जूम जैसे संसाधनो के प्रयोग करते हुये ढ़ेर सारे आयोजन हो रहे हैं. यू ट्यूब इन सबसे भरा हुआ है. विवेक जी ने भी रवीना प्रकाशन के माध्यम से कोरोना तथा लाकडाउन विषयक विसंगतियो पर केंद्रित व्यंग्य तथा काव्य रचनाओ का अद्भुत संग्रह लाकडाउन शीर्षक से प्रस्तुत किया है. पुस्तक आकर्षक है. संकलन में वरिष्ठ’ स्थापित युवा सभी तरह के देश विदेश के रचनाकार शामिल किये गये हैं.
गंभीर वैचारिक संपादकीय के साथ ही रमेशबाबू की बैंकाक यात्रा और कोरोना तथा महादानी गुप्तदानी ये दो महत्वपूर्ण व्यंग्य लेख स्वयं विवेक रंजन श्रीवास्तव के हैं’ जिनमें कोरोना जनित विसंगति जिसमें परिवार से छिपा कर की गई बैंकाक यात्रा तथा शराब के माध्यम से सरकारी राजस्व पर गहरे कटाक्ष लेखक ने किये हैं’ गुदगुदाते हुये सोचने पर विवश कर दिया है.
जिन्होने भी कोरोना के आरंभिक दिनो में तबलीकी जमात की कोरोना के प्रति गैर गंभीर प्रवृत्ति और टीवी चैनल्स की स्वयं निर्णय देती रिपोर्टिग देखी है उन्हें जहीर ललितपुरी का व्यंग्य लाकडाउन में बदहजमी पढ़कर मजा आ जायेगा. डा अमरसिंह का लेख लाकडाउन में नाकडाउन में हास्य है, उन्होने पत्नी के कड़क कोरोना अनुशासन पर कटाक्ष किया है. लाकडाउन के समाज पर प्रभाव भावना सिंह ने मजबूर मजदूर’ रोजगार’ प्रकृति सारे बिन्दुओ का समावेश करते हुये पूरा समाजशास्त्रीय अध्ययन कर डाला है.
कुछ जिन अति वरिष्ठ व्यंग्य कारो से संग्रह स्थाई महत्व का बन गया है उनमें इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि ब्रजेश कानूनगो जी का व्यंग्य ” मंगल भवन अमंगल हारी ” है. उन्होंने संवाद शैली में गहरे कटाक्ष करते हुये लिखा है ” उन्हें अब बहुत पश्चाताप भी हो रहा था कि शास्त्रा गृह को समृद्ध करने के बजाय वे औषधि विज्ञान और चिकित्सालयों के विकास पर ध्यान क्यो नही दे पाये “. केनेडा से धर्मपाल महेंद्र जैन की व्यंग्य रचना वाह वाह समाज के तबलीगियों से पठनीय वैचारिक व्यंग्य रचना है. उनकी दूसरी रचना लाकडाउन में दरबार में उन्होंने धृतराष्ट्र के दरबार पर कोरोना जनित परिस्थितियों को आरोपित कर व्यंग्य उत्पन्न किया है. इसी तरह प्रभात गोस्वामी देश के विख्यात व्यंग्यकारो में से एक हैं’ कोरोना पाजिटिव होने ने पाजिटिव शब्द को निगेटिव कर दिया है’उनका व्यंग्य नेगेटिव बाबू का पाजिटिव होना बड़े गहरे अर्थ लिये हुये है’वे लिखते हैं हम राम कहें तो वे मरा कहते हैं. सुरेंद्र पवार परिपक्व संपादक व रचनाकार हैं’ उन्होंने अपने व्यंग्य के नायक बतोले के माध्यम से ” भैया की बातें में” घर से इंटरनेट तक की स्थितियों का रोचक वर्णन कर पठनीय व्यंग्य प्रस्तुत किया है. डा प्रदीप उपाध्याय वरिष्ठ बहु प्रकाशित व्यंग्यकार हैं’ उनके दो व्यंग्य संकलन में शामिल हैं’ “कोरोनासुर का आतंक और भगवान से साक्षात्कार” तथा “एक दृष्टि उत्तर कोरोना काल पर”. दोनो ही व्यंग्य उनके आत्मसात अनुभव बयान करते बहुत रोचक हैं. कोरोना काल में थू थू करने की परंपरा के माध्यम से युवा व्यंग्यकार अनिल अयान ने बड़े गंभीर कटाक्ष किये हैं’ थू थू करने का उनका शाब्दिक उपयोग समर्थ व्यंग्य है. अजीत श्रीवास्तव बेहद परिपक्व व्यंग्यकार हैं’ उनकी रचना ही शायद संग्रह का सबसे बड़ा लेख है जिसमें छोटी छोटी २५ स्वतंत्र कथायें कोरोना काल की घटनाओ पर उनके सूक्ष्म निरीक्षण से उपजी हुई’ पठनीय रचनायें हैं. राकेश सोहम व्यंग्य के क्षेत्र में जाना पहचाना चर्चित नाम है’ उनका छोटा सा लेख बंशी बजाने का हुनर बहुत कुछ कह जाताने में सफल रहा है. रणविजय राव ने कोरोना के हाल से बेहाल रामखेलावन में बहुत गहरी चोट की है’ उन जैसे परिपक्व व्यंग्यकार से ऐसी ही गंभीर रचना की अपेक्षा पाठक करते हैं.
महिला रचनाकारो की भागीदारी भी उल्लेखनीय है. सबसे उल्लेखनीय नाम अलका सिगतिया का है. लाकडाउन के बाद जब शराब की दूकानो पर से प्रतिबंध हटा तो जो हालात हुये उससे उपजी विसंगती उनकी लेखनी का रोचक विषय बनी ” तलब लगी जमात ” उनका पठनीय व्यंग्य है. अनुराधा सिंह ने दो छोटे सार्थक व्यंग्य सांप ने दी कोरोना को चुनौती और वर्क फ्राम होम ऐसा भी लिखा है. छाया सक्सेना प्रभु समर्थ व्यंग्यकार हैं उन्होने अपने व्यंग्य जागते रहो में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं वे लिखती हैं लाकडाउन में पति घरेलू प्राणी बन गये हैं’ कभी बच्चो को मोबाईल से दूर हटाते माता पिता ही उन्हें इंटरनेट से पढ़ने प्रेरित कर रहे हैं’ कोरोना सब उल्टा पुल्टा कर रहा है. शेल्टर होम में डा सरला सिंह स्निग्धा की लेखनी करुणा उपजाती है .सुशीला जोशी विद्योत्तमा की दो लघु रचनायें लाकडाउन व व्यसन संवेदना उत्पन्न करती हैं. राखी सरोज के लेख गंभीर हैं.
गौतम जैन ने अपनी रचना दोस्त कौन दुश्मन कौन में संवेदना को उकेरा है. डा देवेश पाण्डेय ने लोक भाषा का उपयोग करते हुये पनाहगार लिखा है. डा पवित्र कुमार शर्मा ने एक शराबी का लाकडाउन में शराबियो की समस्या को रेखांकित किया है. कोरोना से पीड़ित हम थे ही और उन्ही दिनो में देश में भूकम्प के जटके भी आये थे’ मनीष शुक्ल ने इसे ही अपनी लेखनी का विषय बनाया है.डा अलखदेव प्रसाद ने स्वागतम कोरोना लिखकर उलटबांसी की हे. राजीव शर्मा ने कोरोना काल में मनोरंजक मीडीया लिखकर मीडीया के हास्यास्पद’ उत्तेजना भरे ‘त्वरित के चक्कर में असंपादित रिपोर्टर्स की खबर ली है. व्यग्र पाण्डे ने मछीकी और मास्क में प्रकृति पर लाकडाउन के प्रभाव पर मानवीय प्रदूषण को लेकर कटाक्ष किया है. एम मुबीन ने कम शब्दो की रचना में बड़ी बातें कह दी हैं. दीपक क्रांति की दो रचनायें संग्रह का हिस्सा हैं ’नया रावण तथा मजबूर या मजदूर’ कोरोना काल के आरंभिक दिनो की विभीषिका का स्मरण इन्हें पढ़कर हो आता है. महामारी शीर्षक से धर्मेंद्र कुमार का आलेख पठनीय है.
दीपक दीक्षित’ बिपिन कुमार चौधरी’ शिवमंगल सिंह’ प्रो सुशील राकेश’ उज्जवल मिश्रा और राहुल तिवारी की कवितायें भी हैं.
कुल मिलाकर पुस्तक बहुत अच्छी बन पड़ी है ’यद्यपि प्रकाशन में सावधानी की जरूरत दिखती है’ कई रचनाओ के शीर्षक गलती से हाईलाईट नही हो पाये हैं’ रचनाओ के अंत में रचनाकारो के पते देने में असमानता खटकती है.कीमत भी मान्य परमंपरा जितने पृष्ठ उतने रुपये के फार्मूले पर किंचित अधिक लगती है’ पर फिर भी लाकडाउन में प्रकाशित साहित्य की जब भी शोध विवेचना होगी इस संकलन की उपेक्षा नही की जा सकेगी यह तय है. जिसके लिये संपादक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव व प्रकाशक बधाई के पात्र हैं.
चर्चाकार.. डा साधना खरे’
भोपाल
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈