काव्य संग्रह – बिन गुलाल के लाल – श्री मनोज श्रीवास्तव
☆ अद्भुत, अनुपम और अद्वितीय कृति ☆
कविता केवल शब्दों का कुशल संयोजन नहीं अपितु भावों का यथावत सम्प्रेषण भी है. रचनाकार को चाहिए कि वह यह भी ध्यान रखे कि उसकी रचना मस्तिष्क का कचरा न होकर ह्रदय की मथानी से मथकर निकला हुआ नवनीत है. इस प्रकार के विचार श्रेष्ठ कवि मनोज श्रीवास्तव की इस पुस्तक “बिन गुलाल के लाल” को पढ़ कर स्वतः कौंधने लगते है.
मनोज जी का मूल स्वर ओज का है किन्तु लगभग सभी रसों में इनकी रचनाएँ मैंने मंचों पर इनसे सुनी है. हास्य-व्यंग्य में भी उतनी ही महारत हासिल है जितनी इन्हें वीर रस में महारत है. अपनी ओज की कविताओं में रचनाकार जहां एक और प्रांजल शब्दों का प्रयोग करके भाव सौन्दर्य के साथ-साथ नाद सौन्दर्य भी प्रतिपादित करता है वही अपनी हास्य-व्यंग्य कविताओं में इस बात का पूरा ध्यान रखता है कि कठिन शब्दों के बोझ के नीचे दबकर संप्रेषणीयता कही मर न जाए. संभवतः इसीलिये श्री मनोज जी हास्य-व्यंग्य की रचनाओं में भारी भरकम शब्दों के प्रयोग से बचते दिखाई देते हैं, किन्तु एक ज़िम्मेदार रचनाकार का भान हमेशा उन्हें रहता है शीर्षक कविता में उन्होंने हास्य में भी हिन्दी की समृद्धता को प्रकाशित किया है-
हिरनी सी उन्मुक्त चंचला चाल लगे भूचाल हो गयी
कंचन देह कामिनी काया देखो तो फ़ुटबाल हो गयी
पर यह चमत्कार देखो तो ब्यूटी पार्लर में जाते ही
अपना रूप देख दर्पण में बिन गुलाल के लाल हो गयी
सयाने लाल शीर्षक की कविता में जहां रचनाकार एक ओर सज हास्य प्रस्तुत करता है वही दूसरी ओर निरर्थक और उबाऊ रचनाकारों पर परोक्ष कटाक्ष भी करता है.
आजकल के काव्य मंचों की गुणा-गणित से कवि व्यथित भी है. जिसे वह हँसी-हँसी में बहुत ही समर्थ तरीके से अपनी कविता बड़े कवि और ये सरकारी कविसम्मेलन में प्रस्तुत करता है. गंभीर बातों को हल्की फुल्की शब्दावली में रखने की कला इन कविताओं में मनोज जी ने बखूबी दिखाई है.सभी कविताएं खूब गुदगुदाती है और विचारों में नयी उत्तेजना भी संचारित करती है.
प्रस्तुत पुस्तक बिन गुलाल के लाल कवि मनोज श्रीवास्तव जी की एक श्रेष्ठ रचना है. हास्य-व्यंग्य के नए रचनाकारों के लिए शब्दों के समुचित उपयोग और भावों की कुशल संप्रेषणीयता सीखने के लिए उपयोगी सिद्ध होगी. सामान्य पाठक जिस समय भारी भरकम साहित्य को बर्दाश्त करने की स्थिति में न हो उस समय यह किताब समय का सद्पुयोग सिद्ध हो सकती है.
मुझे लगता है अग्रज मनोज श्रीवास्तव जी ने इस पुस्तक को लिखकर हिन्दी हास्य-व्यंग्य साहित्य के महायज्ञ में जबरदस्त आहुति दी है. कुल मिलाकर सबको यह पुस्तक पढ़नी चाहिए.
काव्य संग्रह – कोहरे में सुबह – श्री ब्रजेश कानूनगो
☆ उम्मीदों की रोशनी से जगमग करने वाला समकालीन रचनाओंका एक अनूठा काव्य संग्रहहै “कोहरे में सुबह” ☆
“कोहरे में सुबह” चर्चित वरिष्ठ कवि-साहित्यकार श्री ब्रजेश कानूनगो की कविता यात्रा का चौथा पड़ाव हैं। इसके पूर्व इनके “धूल और धुएं के परदे में” (1999), “इस गणराज्य में” (2014), “चिड़िया का सितार” (2017) काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। “कोहरे में सुबह” एक ऐसा कविता संग्रह है जो कई मुद्दों और विषयों पर प्रकाश डालता है। श्री ब्रजेश कानूनगो ने अपने कविता संग्रह “कोहरे में सुबह” में अपने जीवन के कई अनुभवों को समेटने की कोशिश की है। “कोहरे में सुबह” उलझन भरे कोहरे में उम्मीदों की रोशनी से जगमग करने वाला एक अनूठा काव्य संग्रह है। ब्रजेशजी ज़मीन से जुड़े हुए एक वरिष्ठ कवि है। इस संग्रह में प्रकृति, प्रेम, गाँव और ग्रामीण जीवन की स्थितियों को अभिव्यक्त करती कविताएं हैं। यह समकालीन कविताओं का एक सशक्त दस्तावेज़ है। इस संग्रह की हर रचना पाठकों और साहित्यकारों को प्रभावित करती है। इस संकलन में 70 छोटी-बड़ी कविताएं संकलित हैं।
इस संग्रह की शीर्षक कविता कोहरे में सुबह में कवि कहते है “सुबह का रैपर हटेगा / तो दिखाई देगी तश्तरी में छपी तस्वीर”। वे एक ऐसा दृश्य रचते है जिसमें पाठक कल्पनाओं के लोक में खो जाता है। आजकल रिश्ते जीवंतता खोते जा रहे हैं। इंतजार करती माँ, घर की छत पर बिस्तर, क्षमा करें इत्यादि भावपूर्ण कविताएं रिश्तों की अहमियत पर प्रकाश डालती हैं। उसका आना कविता की पंक्तियाँ “रात को आई है सुबह की तरह / लगता है गई ही नहीं थी कभी यहां से” बेटी के घर आने पर उनके द्वारा लिखी गई कविता बेटी के प्रति एक पिता के लगाव को महसूस कराती है।
एक टुकड़ा गाँव एवं छुट्टी मनाते गाँव के बच्चे को उनके इस काव्य संग्रह की सबसे सशक्त कविताएं कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। एक टुकड़ा गाँव कविता की पंक्तियाँ “पढ़ता हूं अख़बार में जब विकास की कोई नई घोषणा एक गाँव मेरे भीतर मिटने लगता है।”छुट्टी मनाते गाँव के बच्चे नामक कविता पाठकों को अंदर तक झकझोर देती हैं। ग्रामीण परिवेश इन कविताओं में बोलता-बतियाता सुना जा सकता हैं। महानगरों में आजकल चारो ओर सीमेंट के जंगल ही जंगल दिखाई देते है और बिल्डरों द्वारा जो विशाल अट्टालिकाएं बनाई जा रही है उनमें जो मजदूर काम कर रहे है वे गाँवों से ही इन महानगरों में आए हैं। इन मजदूरों ने खाली पड़े हुए ज़मीन के टुकड़ों पर छोटी-छोटी टापरी बना ली हैं और अपने परिवार के साथ मस्ती में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यह देखकर कवि को अपने गाँव की और अपने बचपन की बातें याद आ जाती हैं। इस कविता संग्रह की कुछ कविताएं कवि के गाँव के साथ लगाव को उजागर करती हैं। कवि ने इन कविताओं के माध्यम से सही प्रश्न उठाया है कि जिसे हम आज विकास का नाम दे रहे है क्या इससे गाँवों में आर्थिक समृद्धि होगी? आज विकास के नाम पर आपसी रिश्तों के बीच खोखले विकास की दीवार खड़ी हो गई है। इन कविताओं में ब्रजेशजी की बैचेनी और व्यथा महसूस की जा सकती है।
आभासी दुनिया में, तुम लिखो कवि, चीख आदि कविताओं में ब्रजेशजी कला और साहित्य के प्रति व्यथित दिखते है। धर्म के नाम पर हिदुस्तान में इंसानों के बीच जो नफ़रत की दीवार खड़ी की जा रही है उस पर भी छोंक रचना में “ये कौन-सा छोंक लगाया है / कि धुँआ-धुँआ सा हो गया है चारों तरफ” कवि की चिंता अभिव्यक्त होती है। जहाँ पर्यटक की तरह कविता में कवि अपने घर को ही तीर्थ स्थान मानता है, छुट्टियों में अपने घर पर ही तरोताजा होने के लिए आता है और अपने माता-पिता के घर को ही चार धाम समझता हैं क्योंकि उसे घर में ही शांति मिलती है। पतंगबाज़ी कविता में उल्लास-उमंग के साथ-साथ हार-जीत का दर्शन है। संग्रह की कविता चीख एवं गारमेंट शो रूम में व्यंग्य है क्योंकि कवि एक व्यंग्यकार भी है। कवि के तीन व्यंग्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। गारमेंट शो रूम में कविता में उपभोक्तावादी संस्कृति की चकाचौंध पर गहरा कटाक्ष है। इस कविता में कवि कहते है “जगमगाते जंगल में कटे सरों के भूत / अपनी टांगों की तलाश में हेन्गरों पर अनगिनत लटके थे।” भरा हुआ इस संग्रह की एक ऐसी विशिष्ठ रचना है जो पाठकों को मानवीय संवेदनाओं के विविध रंगों से रूबरू करवाती है”“पुस्तक मेले में दिख गए गौरीनाथ के पास बैठे विष्णु नागर / साथ आने को कहा तो स्टाल से उतर कर तुरंत चले आए मेरे साथ” प्रेम एवं रिश्तों में जीवंतता को अभिव्यक्त करती यह कविता पाठकों को प्रेम, रिश्ते और मानवीय संवेदनाओं से अभिभूत कर देती है। वैसे इस संग्रह की सभी कविताएं मानवीय संवेदनाओं से भरी हुई हैं। डायरी, देहरी की ठोकर और चकमक कविताओं में कवि के मन के भीतर चल रही उठा पटक महसूस की जा सकती है।
ब्रजेशजी की लेखनी का कमाल है कि उनकी रचनाओं में वस्तु, दृश्य, संदेश, शालीनता और मर्यादा सभी मौजूद है एवं उनके कहने का अंदाज भी निराला है क्योंकि वे एक व्यंग्यकार भी है। ब्रजेश जी की कविताओं में गहरी सोच, वैचारिक सूझ एवं उनकी अपनी शालीनता प्रतिबिंबित होती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कविता ब्रजेश जी की आत्मा में रची-बसी है। कवि की रचनाओं में आदि से अंत तक आत्मिक संवेदनशीलता व्याप्त है। संग्रह की रचनाएं ह्रदय में गहरे चिन्ह छोड़ जाती है। कवि की रचनाओं में जीवन के तमाम रंग छलछलाते नज़र आते हैं। संग्रह की सभी कविताएं कथ्य और शिल्प के दृष्टिकोण से नए प्रतिमान गढ़ती है।
कोहरे में सुबह बोधि प्रकाशन का उत्कृष्ट प्रकाशन है। 120 पृष्ठ का यह कविता संग्रह आपको कई विषयों पर सोचने के लिए मजबूर कर देता है। यह काव्य संग्रह सिर्फ़ पठनीय ही नहीं है, संग्रहणीय भी है। यह काव्य संग्रह भारतीय कविता के परिदृश्य में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाने में सफल हुआ है।
☆ अश्वत्थामा यातना का अमरत्व – सौ. अनघा जोगलेकर ☆ समीक्षक – श्री दीपक गिरकर ☆
पुस्तक : अश्वत्थामा यातना का अमरत्व
लेखिका : अनघा जोगलेकर
प्रकाशक : उद्वेली बुक्स, बी-4, रश्मि कॉम्प्लेक्स, मेन्टल हॉस्पिटल मार्ग, ठाणे (प.) – 400604
मूल्य : 200 रूपए
पेज : 132
अश्वत्थामा के आपराधिक बोध और आत्मग्लानि का दस्तावेज है उपन्यास “ अश्वत्थामा यातना का अमरत्व ”
अनघा जोगलेकर का ऐतिहासिक उपन्यास अश्वत्थामा यातना का अमरत्व इन दिनों काफी चर्चा में है। इस उपन्यास के पूर्व अनघा जी की तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इस उपन्यास में अनघा जी ने महाभारत युद्ध के एक ऐसे योद्धा पर अपनी कलम चलाई है जिसका उल्लेख अधिक नहीं है। यह उपन्यास शापित योद्धा अश्वत्थामा के आपराधिक बोध और आत्मग्लानि की अभिव्यक्ति का दस्तावेज है। लेखिका ने इस उपन्यास में अश्वत्थामा के दृष्टिकोण से महाभारत की कुछ पहलुओं को बहुत ही रोचक तरीके से प्रस्तुत किया हैं। हस्तिनापुर के कुलगुरू द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा एक सर्वगुण संपन्न महारथी था लेकिन उसने अधर्म का साथ दिया। लेकिन अश्वत्थामा से ऐसा कौन सा अक्षम्य अपराध हुआ कि श्रीकृष्ण को मजबूर होकर उसे यातना के अमरत्व का श्राप देना पड़ा, जिसका फल वह अभी तक भोग रहा है। वह ऐसा कौन सा कुकृत्य कर बैठा, कि आज भी उसकी आँखों में महाभारत का सत्य तांडव कर रहा है। लेकिन समय बीत चुका है। अब चाहकर भी कुछ नहीं बदला जा सकता है। उस श्राप के कारण वह आज भी वन-वन भटक रहा है। उपन्यास में अनघा जी ने इस उपेक्षित महारथी का दर्द, पीड़ा और यातना का मार्मिक चित्रण किया है। अश्वत्थामा को होने वाला आपराधिक बोध पूरे उपन्यास में फैला हुआ है। उपन्यास का नायक पश्चाताप की अग्नि में अभी तक जल रहा है, न जाने कितने युगयुगों तक वह मुक्ति के लिए तड़पता रहेगा और यातना भोगता रहेगा।
इस उपन्यास का काल महाभारत युद्ध के कुछ दशक पश्चात का है। इस उपन्यास की कथा का सूत्रधार शारणदेव है जो कुरुक्षेत्र के पास के गाँव का एक ब्राह्मण है। अश्वत्थामा यातना का अमरत्व एक कथा नहीं सत्य है, एक सच है… अश्वत्थामा का सच…, जिसकी विभीषिका अश्वत्थामा आज भी वहन कर रहा है और आगे भी अनंतकाल तक उसे वहन करना है क्योंकि प्रारब्ध से कोई नहीं बच सकता है। परंतु प्रारब्ध लिखता कौन है? हर व्यक्ति अपना प्रारब्ध स्वयं ही रचता है और अश्वत्थामा ने भी अपना प्रारब्ध स्वयं ही निश्चित किया था। यह उपन्यास अश्वत्थामा के जीवन संघर्ष एवं यातना के अमरत्व का श्राप मिलने के बाद उसके आत्मविश्लेषण की गाथा और महाभारत युद्ध के युग का दर्पण है। इस पुस्तक में लेखिका ने अश्वत्थामा के जीवन संघर्ष और यातना को बहुत ही सहज-सरल और पारदर्शी भाषा में प्रस्तुत किया है। उपन्यास में अनेक ऐसे प्रसंग आते हैं जहां उपन्यास का नायक अश्वत्थामा का मन अपने पिताजी द्रोणाचार्य के लिए वितृष्णा से भर उठता है। अनघा जी ने गुरू द्रोणाचार्य की महत्वाकांक्षा एवं उनके अभिमान को और महाभारत के सभी पात्रों के मनोविज्ञान को अश्वत्थामा के माध्यम से भली-भाँति निरूपित किया है। इस उपन्यास में आख्यान के माध्यम से महाभारत के पात्रों के जीवन संघर्ष और मानसिक सोच-विचार को अभिव्यक्त किया गया है। पुस्तक में महाभारत के महारथियों की शौर्यगाथाएं, राजनीति, षड्यंत्र, दर्द, पीड़ा, यातना, पश्चाताप का चित्रण तो है ही और साथ में गुरु द्रोणाचार्य की शिक्षा प्रणाली का भी चित्रण है। इस उपन्यास में सजीव, सार्थक, संक्षिप्त, स्वाभाविक और सरल संवादों का प्रयोग किया गया है।
महाभारत जैसी कालजयी कृति के साथ लेखिका ने पूर्ण न्याय किया है। पौराणिक कथाओं पर हिंदी में अनेक ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गए है उनमें अश्वत्थामा यातना का अमरत्व निश्चित ही प्रशंसनीय है। यह उपन्यास अपने कथ्य, प्रस्तुति और चिंतन की दृष्टि से भिन्न है। कथाकार अनघा जोगलेकर की प्रतिभा अनेक संभावनाओं से परिपूर्ण है। लेखिका ऐतिहासिक तथ्यों की तह तक गई है। लेखिका ने अधिकांश अध्याय के अंत में उस अध्याय से संबंधित दंतकथा का सार्थक प्रयोग किया है, सही तथ्य प्रस्तुत किये है, पाठकों से प्रश्न किये है और उन प्रश्नों के संभावित उत्तर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ पाठकों के सामने रखें हैं। उपन्यास में इस तरह की अभिव्यक्ति शिल्प में बेजोड़ है और लेखिका की रचनात्मक सामर्थ्य का जीवंत दस्तावेज है। उपन्यास के बुनावट में कहीं भी ढीलापन नहीं है। इस तरह के ऐतिहासिक उपन्यास लिखना अत्यंत कठिन कार्य है। लेखिका ने इस उपन्यास को बहुत गंभीर अध्ययन और शोध के पश्चात लिखा है। अश्वत्थामा यातना का अमरत्व उपन्यास शिल्प और औपन्यासिक कला की दृष्टि से सफल रचना है। यह उपन्यास सिर्फ पठनीय ही नहीं है, संग्रहणीय भी है। भविष्य में अनघा जोगलेकर से ऐसी और भी पुस्तकों की प्रतीक्षा पाठकों को रहेगी।
(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा भी वर्तमान सामाजिक परिवेश के ताने बाने पर आधारित है। डॉ प्रदीप जी की शब्द चयन एवं सांकेतिक शैली मौलिक है। )
☆ कुत्तों से सावधान ☆
चंदा बंगले का गेट खोलकर जैसे ही अंदर दाखिल हुई ,मेमसाहब ने तीखी आवाज में चिल्लाना शुरू कर दिया – ” कहाँ मर गई थीं , इतनी देर से आ रही है ? ”
” मेमसाब , अभी 9 ही तो बजा है , देर कहां हुई । ”
” जुबान लड़ाती है , चुपचाप काम कर ।” मेमसाब नें डांटते हुए कहा ।
वह चुपचाप बर्तन मांजने एवं कपड़े धोने लगी । जब तक उसका काम खत्म नहीं हुआ तब तक मेमसाब बड़बड़ाती ही रही ।
काम खत्म कर वह बाहर निकलने लगी तो देखा गार्डन में खड़े साहब माली पर चिल्ला रहे थे ।
गेट के अंदर एक कोने में टॉमी दुबका पड़ा था । चंदा ने उसे देखा तो सोचने लगी कि टॉमी के भोंकने की आवाज तो कभी सुनाई भी नहीं पड़ी, लेकिन रोज सुबह से साहब और मेमसाब जरूर माली, धोबी, सब्जी वाले जैसे हम छोटे लोगों पर भोंकते रहते हैं ।
बाहर निकलकर जब वह गेट बंद कर रही थी, तब उसकी निगाह गेट पर लगी तख्ती पर पड़ी , जिसमें लिखा था – कुत्तों से सावधान ।
चंदा व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ दूसरे घर की ओर बढ़ गई ।
(श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं।
आपकी नई पुस्तक ‘स्त्री-पुरुष की कहानी ’ जून में प्रकाशित होने जा रही हैं जिसमें स्त्री पुरुष के मधुर लेकिन सबसे दुरुह सम्बंधों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में तुलनात्मक रूप से की गई है। प्रस्तुत हैं उसके कुछ अंश।)
☆ स्त्री-पुरुष की कहानी ☆
मेरी एक पुस्तक “स्त्री-पुरुष की कहानी” जून में प्रकाशित होने जा रही हैं जिसमें स्त्री पुरुष के मधुर लेकिन सबसे दुरुह सम्बंधों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में तुलनात्मक रूप से की गई है। प्रस्तुत हैं उसके कुछ अंश।
भारतीय दर्शन शास्त्र में संसारी के लिए वर्णित चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, अर्थ में से काम और अर्थ प्रबल प्रेरणा हैं, परंतु गम्भीरता पूर्वक ध्यान से आकलन करो तो असल प्रेरणा काम है। काम को यहाँ केवल यौन (सेक्स) के रूप में न लेकर उसे मनुष्य के इन्द्रिय और मानसिक सुख के सभी सोपान में ग्रहण किया जाना चाहिए। ज्ञान-इंद्रियों यथा आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा से मिलने वाले आभासी सुख, कर्मेंद्रियों यथा हाथ, पैर, मुँह, मस्तिष्क और जनन इन्द्रिय के कायिक सुख, मनोरंजन, आराम और विलासिता के सभी अंग काम के वृहद अर्थ में समाहित हैं। इन अवयवों के कारण ही मनुष्य का समाज से जुड़ाव होता है, रिश्ते बनते हैं। अन्तरवैयक्तिक सम्बंधों के आयाम खुलते हैं, वह एक सामाजिक प्राणी बनकर जीवन व्यतीत करता है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि दाम्पत्य के रिश्ते का आधार काम होता है परंतु सिर्फ़ काम ही नहीं होता और भी बहुत कुछ होता है, यहाँ तक कि जीवन में सब कुछ दाम्पत्य सम्बन्धों की गुणवत्ता जैसे रिश्ते की मधुरता या मलिनता के आसपास घूमता है।
अर्थ कामना को पूरा करने का एक साधन है लेकिन अब साधन के संचय में मनुष्य इतना व्यस्त हो रहा है कि उसे साधन ही साध्य लगने लगा है। काम प्रबल दैहिक धर्म होते हुए भी पीछे खिसक कर अर्थ की तुला में तौलने वाली वस्तु सा बनता जा रहा है या कहें तो अपनी स्वाभाविकता खो कर मशीनी होता जा रहा है। वह हमारी साँस से जुड़ा होकर भी निरंतर दमन के कारण कई बार अजीब सी विकृति के साथ उद्घाटित हो रहा है या उच्छंखलित हो विरूपता को प्राप्त हो रहा है। काम शारीरिक विज्ञान का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग होता है लेकिन उसके वास्तविक स्वरूप पर एक धुँध सी छाई रहती है, उसे छुपा कर या दबा कर रखने के कारण प्रकट नहीं होने दिया जा रहा है।
विज्ञान ने कभी नहीं कहा कि वह भगवान के विरुद्ध है, यह एक बड़ी अजीबोग़रीब बात है कि कतिपय निहित स्वार्थ ने विज्ञान के सामने भगवान को खड़ा कर दिया है जबकि विज्ञान भगवान की बनाई दुनिया के रहस्य खोलने की तपस्या के समान है। विज्ञान ने मनुष्य जाति की श्रेष्ठता के कई भ्रमों को तोड़ा है। पहला भ्रम उस समय टूटा था जब कोपरनिकस ने कहा था कि पृथ्वी विश्व का केंद्र नहीं है, बल्कि कल्पनातीत अन्तरिक्ष में एक छोटा बिंदु मात्र है। गेलीलिओ ने कहा कि सूर्य आकाश गंगा का केंद्र है पृथ्वी नहीं। दूसरा भ्रम तब टूटा जब डारविन ने जैविकीय गवेषणा से मनुष्य की विशेषता छीन ली कि उसका निर्माण ईश्वर ने किसी विशेष तरह से किया है, उसे पशु-जगत से विकसित हुआ बताया और कहा कि उसमें मौजूद पशु प्रकृति को पूरी तरह उन्मूलित नहीं किया जा सकता है याने मनुष्य किसी न किसी स्तर पर एकांश में पशु होता है। मनुष्य का तीसरा भ्रम उस समय टूटना शुरू हुआ जब फ्रायड ने मनोविश्लेषण से यह सिद्ध करना शुरू किया कि तुम अपने स्वयं के स्वामी नहीं हो, बल्कि तुम्हें अपने चेतन की थोड़ी सी जानकारी से संतुष्ट होना पड़ता है जबकि जो कुछ तुम्हारे अंदर में अचेतन रूप से चल रहा है उसके बारे में तुम्हें बहुत ही कम जानकारी है। तुम्हें तुम्हारी मानसिक शक्तियाँ चला रहीं हैं न कि तुम अपनी मानसिक शक्तियों के परिचालक हो।
पिछले पचास सालों में भारत की महिला आर्थिक आज़ादी की तरफ़ तेज़ी से बढ़ी है। बैंक, बीमा, रेल्वे, चिकित्सा, इंजीनियर, संचार, सरकारी, ग़ैर-सरकारी और निजी रोज़गार के सभी क्षेत्रों में उनकी भागीदारी के प्रतिशत का ग्राफ़ तेज़ी से ऊपर बढ़ा है जबकि पहले सिर्फ़ शिक्षाकर्मी का क्षेत्र उनके लिए सुरक्षित समझा जाता था। इसका एक बड़ा प्रभाव यह देखने में आ रहा है कि जब लड़कियाँ केरियर के प्रति सजग होंगी तो घरेलू काम-काज और साज-संभाल कुशलता में उनका पिछड़ना लाज़िमी है। दूसरी तरफ़ लड़कों में शुरू से ही घरेलू काम के प्रति उपेक्षित उदासी हमारे समाज की पहचान रही है। बहुत ही कम घर होंगे जहाँ लड़कों को कभी झाड़ू-पौंछा का अनुभव होगा या उन्होंने कभी तरकारी काटी होगी या आँटा गूँथा होगा। कुल मिलाकर पूरा समीकरण तेज़ी से बदल रहा है। परस्पर अधिकारों और कर्तव्यों के बदलते समीकरण व ढीली पड़ती मर्यादा के परिणाम स्वरूप लोगों के आचरण में आए बदलाव से एक धुँधली सी अराजकता ने पुरानी दाम्पत्य व्यवस्था को झकझोर कर रख दिया है। फलस्वरूप दाम्पत्य सम्बन्धों में स्वाभाविक तनाव में वृद्धि हुई है इसलिए नवीन दांपत्यों में टकराव और सम्बंध विछेद के मामले बढ़े हैं।
भारतीय समाज कमोबेश पूरी तरह पश्चिमी जीवन जीने के तरीक़े अपना चुका है। भारत का सामाजिक विकास पश्चिमी देशों की तुलना में कम से कम पचास से सौ साल पीछे चलता रहा था यह अंतर संचार क्रांति के फलस्वरूप घट रहा है। पश्चिम में औद्योगिक क्रांति के बाद सामाजिक बदलाव की आधुनिक विचारधारा विकसित हुई थी, उसके बाद कम्प्यूटर क्रांति और मोबाईल क्रांति ने आधुनिक जीवन शैली को एक नए साँचे मे ढाल दिया है। जिसने खान-पान, रहन-सहन और वैवाहिक सम्बंधों को क्रांतिकारी रूप से बदलकर रख दिया। भारतीय समाज ने भी वे तरीक़े तेज़ी से अपनाए हैं। पश्चिम के फ़ूड-पिरामिड, रहन-सहन, स्वास्थ्य मानक, अर्थ-तंत्र, सम्पत्ति निर्माण हमने अपना लिया है तो समाजिक टूटन के मानक भी हमारे अंदर सहज ही आ गए हैं। युवाओं में मधुमेह के रोग और हृदयाघात से मौत के मामलों और तलाक़ व परस्पर वैमनस्य के मामलों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। पश्चिम में जीवन शैली के बदलाव के साथ मनोवैज्ञानिक खोजों और अंतरवैयक्तिक सम्बन्धित खोजों ने रिश्तों को एक नई दिशा दी है जिसे हमारे महानगरीय समाज ने सीखा और अपनाया है परंतु अधिकांश भारतीय समाज उनसे अछूता है। इसलिए इस विषय को मौलिक रूप से हिंदी मे भारतीय जनमानस को उपलब्ध कराना इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य है।
यह सार्वभौमिक सत्य है कि सुखी समाज का आधार पारिवारिक सामंजस्य और परिवार में सुख का आधार रिश्ते की मधुरता होती है। कोई भी रिश्ता जब टूटकर के बिखरता है तो मनुष्य के अंदर की पूरी कायनात टूट के रोती है। टूटन की सिसकियों में जीवन का संगीत एक भयानक रौरव में बदल जाता है। अवसाद-निराशा-कुंठा के अंधेरे कुएँ में छुपे ज़हरीले नाग फ़न फैलाये लपलपाती जीभों से मन-कामना और स्वाभाविक लालसा को डँसकर हृदय को बियाबांन कँटीला रेगिस्तान बना कर छोड़ते हैं, जहाँ नफ़रत और घृणा की कँटीली झाड़ियों में प्रेम, स्नेह, ममता का दामन उलझते-फटते रहता है, विद्वेष के अलावा कुछ नहीं पनपता। इनसे बचने या निजात पाने का रास्ता है कि ऐसी परिस्थिति के सतही पहलू की बजाय उनके गम्भीर मनोवैज्ञानिक पहलू पर ध्यान दिया जाए। मनुष्य प्रकटत: चेतन बुद्धि से विचार करता है लेकिन उसके द्वारा की जाने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया का निर्णय उसका अचेतन-मन करता है। गुत्थियों के रहस्य उसकी अचेतन गुफा में छुपे होते हैं। वहीं से मानवीय व्यवहार चेतन धरातल पर आकर तूफ़ान की शक्ल लेता है जैसे समुद्री तूफ़ान जल की गहराई में पनपता है और किनारों को तहस-नहस कर देता है। समुद्र की सतह पर मचलती लहरें उसका चेतन स्वरुप है उनमें रवानगी है, उसकी अतल गहराई में अचेतन मन है जहाँ समुद्री तूफ़ान पलते हैं। योगी पुरुष या महिला चेतन-अचेतन का भेद समाप्त करके शांतचित्त हो जाते हैं। महिला-पुरुष के दो विपरीत मन जब एक भूमिका निबाह के दायरे में आते हैं तो दैहिक सुख से अलहदा मानसिक द्वन्द की भूमि तैयार होती है। जो दोनों को कभी न ख़त्म होने वाले संघर्ष के गहरे कुएँ में धकेल देती है। यह किताब इन्हीं गुत्थियों को समझने की कोशिश है। इसमें मनोविज्ञान के गूढ़ सिद्धांतों के बजाय उनके व्यवहारिक पहलूओ की व्याख्या की गई है।
(प्रस्तुत है डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी के काव्य संग्रह “नेहांजलि” पर डॉ राम विनय सिंह, अध्यक्ष हिन्दी साहित्य समिति, एसोसिएट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, डी0ए0वी0 (पी0जी0) कॉलेज, देहरादून, उत्तराखण्ड के सकारात्मक एवं सार्थक विचार।)
काव्य मानव-मन के सत्व चिन्तन से समुदगत वह शब्द-चित्र है जो रस- वैभिन्नय में भी आहलाद के धरातल पर सर्वथा साम्य की स्थापना करता है। जीवन के प्रत्येक रंग में प्राकाशिक भंगिमा की अलौकिक आनुभूतिक छटा की साकार शाब्दी- स्थापना काव्य का अभिप्रेत है। वाच्य-वाचक सम्बन्ध से सज्जित शब्दार्थ मात्र से भिन्न व्यंग्य-व्यंजक सम्बन्ध की श्रेष्ठता के साथ व्यंग्य-प्राधान्य में काव्य के औदात्य के दर्शन का रहस्य भी तो यही है। अन्यथा तो शब्द कोष मात्र ही महाकाव्य का मानक बन जाता। लोक में लोकोत्तर का सौन्दर्य बोध क्योंकर उतरता! नितान्त नीरव मन में अदृश्य अश्राव्य ध्वनि के संकेत प्रकृत पद से पृथक अर्थबोध कैसे करा पाते! यही कारण है कि कवि निरन्तर ही नव-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के माध्यम से नित नूतन की खोज में सृजन करता रहता है, अनन्त आकाश से अपनी सामर्थ्य के अनुरूप चुम्बकीय शक्ति से शब्दार्थ को आकर्षित कर अभिव्यंजन अनामय आयाम रचता रहता है! और यह सिलसिला अनन्त काल से चली आ रही प्राकृतिक घटना है! न तो प्रकृति अपना निर्माण रोक सकती है, न प्रकृति का उद्घोषक और पोषक कवि इससे विमुख हो सकता है। सम्पूर्ण कवि-परम्परा इस प्रक्रिया के अनुपालन में ही निरत है।
यह अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है कि वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न हृदय में काव्य की नवोन्मेषी संवेदना लेकर डॉ0 प्रेम कृष्ण साहित्य देवता के मन्दिर में ’’नेहांजलि’’ रूपी भाव-नैवेद्य समर्पित करने आये हैं। उनके पवित्र हृदय में प्रेम की सपर्या विविध विच्छित्तियों के द्वार खोलती है। कामायन, कामिनी, कामायनी, कामना, काम्या, अनुभूति, अनुरक्ति, प्रेरणा, प्रार्थना, एंव भारती उपशीर्षकों के माध्यम से कवि ने तत्तद विभावानुभावव्यभिचारि के संयोग से तत्तद रसों की हृदयहारिणी व्यंजना का सफल प्रयास किया है। श्रृंगार की आत्मानुभूति में डूबे कवि को मन से मन तक की राह मिल जाती है जो अतीत से आती हुई खुशबू तक पहुँचाने में भावात्मक साहाय्य प्रदान करती है। नयन मिलन से अभिसार तक की साभिलाष भावनाओं की अभिव्यक्ति हो अथवा परस्पर ढूँढने की वांच्छा प्रत्येक स्तर पर कवि रागासक्ति के अधीन प्रीतिमार्ग को ही खोजता है। प्रेरणा, प्रार्थना, एंव भारती उपशीर्षकों में संकलित रचनाओं में कवि राग-पराग की मादक सुगन्धि से कुछ हट कर युग धर्म की वेदना, लोकोत्तर की आराधना और राष्ट्र की साधना के पथ पर अग्रसर होते हैं जहाँ जीवन के इन्द्रधनुषी रंग उज्जवल प्रकाश में लीन होते से प्रतीत होते हैं।
निःसन्देह कवि के भाव अच्छे हैं परन्तु भाव-प्रवाणता और रागजन्य रसपेशलता के वशीभूत वैज्ञानिक कवि ने काव्य के विज्ञान की अनदेखी की है। मैं अपेक्षा करता हूँ कि काव्य सौन्दर्य की भावात्मक व्यंजना में कवि भविष्य में सावधान भी होगें और नूतनोंन्मेषी भी।
इस अभिनव काव्य संग्रह ’’नेहांजलि’’ के लिए मैं कवि डॉ0 प्रेम कृष्ण जी को सादर साधुवाद समर्पित करता हूँ और मंगल कामनाओं सहित वाग्देवी से प्रार्थना करता हूँ कि इस काव्य को अपेक्षित यश प्रदान करें।
डॉ0 राम विनय सिंह, अध्यक्ष हिन्दी साहित्य समिति, देहरादून, उत्तराखण्ड एंव, एसोसिएट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, डी0ए0वी0 (पी0जी0) कॉलेज, देहरादून।
सामान्यतः किताबें लेखक के मनोभावो की अभिव्यक्ति स्वरूप लिखी जाती हैं, जिन्हें वह सार्वजनिक करते हुये सहेजना चाहता है जिससे समाज उनसे लम्बे समय तक अनुप्राणित होता रह सके. पर्यावरण पर अनेक विद्वानो ने समय समय पर चिंता जताई है. मैंने भी मेरी किताब जल जंगल और जमीन भी इसी परिप्रेक्ष्य में लिखी थी. भारत में जल की समस्या एवं समाधान श्री रमेश चंद्र तिवारी की पुस्तक इस मामले में अनोखी है कि यह किताब माननीय उच्च न्यायालय के एक निर्णय के परिपालन में लिखी गई है.
पृष्ठभूमि यह है कि श्री रमेश चंद्र तिवारी वन विभाग में सेवारत थे, उनके सेवाकाल में उन्हें विभिन्न पदो पर अवसर मिले कि वे धरती के गिरते जल स्तर, पर्यावरण परिवर्तन से सुपरिचित होते रहे. सेवानिवृति के बाद उन्होने हाई कोर्ट में एड्वोकेट के रूप में कार्य शुरू किया, तथा अपनी पर्यावरण सजगता के चलते उन्होने समाज के प्रति जिम्मेदारी निभाते हुये मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका क्र डब्लू पी ५१७८ वर्ष २००८ आर सी तिवारी विरुद्ध भारत सरकार व अन्य दायर की. याचिका में गिरते भू जल स्तर पर चिंता व्यक्त करते हुये वैधानिक आधार पर न्यायालय के समक्ष रखा गया. यहां यह लिखना प्रासंगिक है कि वर्तमान में सरकारो की जो स्थितियां हैं उनसे ऐसा लगने लगा है कि देश न्यायालय ही चला रहे हैं. लगभग हर छोटी बड़ी राष्ट्रीय समस्या से संबंधित जनहित याचिकायें या प्रकरण न्यायालय में लंबित हैं. यह स्थिति जहां एक ओर जागरूखता का परिचय देती हैं वही सरकारो की कार्य प्रणाली पर प्रश्न चिन्ह भी खड़े करती है . यह स्वस्थ्य लोकतंत्र की दृष्टि से चिंतनीय कही जा सकती है. अस्तु, माननीय न्यायालय ने आर सी तिवारी जी की याचिका पर निर्णय देते हुये २८ जुलाई २०१५ को निर्देश दिये कि जल समस्या के समाधान हेतु शासन को प्रस्ताव बनाकर भेजा जावे. और इस परिपालन में इस किताब की रचना श्री आर सी तिवारी द्वारा की गई है.
ब्रम्हाण्ड के अनेकानेक ग्रहो में से केवल पृथ्वी पर जीवन है, और जीवन के लिये जल, वायु, पर्यावरण के महत्व से सभि सुपरिचित हैं. जल का प्रबंधन केवल मनुष्य कर रहा है पर धरती के समस्त प्राणी, व वनस्पतियां भी जीवन के लिये जल पर निर्भर हैं. अतः भावी पीढ़ीयो के लिये जल के समुचित संरक्षण व उपयोग की मानवीय जबाबदारी कही ज्यादा है. जल संचय मानवीय विकास हेतु जरुरी है, इसलिये बांध बनाये जा रहे हैं. बड़े बांधो से जल संग्रहण में डूब क्षेत्र की समस्या के विकल्प के रूप में मैंने जल संग्रहण हेतु ऊंचे बांधो की अपेक्षा धरती पर नदियो की तलहटी में चम्मच की तरह के जल संग्रहण का सुझाव दिया है, जिसे व्यापक सराहना मिली, किन्तु मैदानी स्तर पर कोई अमल परिलक्षित नही हुआ है. आम नागरिक सुझाव ही तो दे सकते हैं, परिपालन सरकार के हाथ में है, अतः सरकार पर इन सुझावो के क्रियांवयन का दबाव बनाने के लिये समाज में जल चेतना का वातावरण बनाना आवश्यक है. भारत में जल की समस्या एवं समाधान जैसी किताबें और रमेश चंद्र तिवारी जैसे एक्टिविस्ट इस दिसा में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं जिनकी सराहना जरूरी है. प्रस्तुत किताब में जल का महत्व, जल की उपलब्धता, वर्तमान जल समस्या, प्राचीन भारत की जल आपूर्ति व्यवस्थायें, तो वर्णित हैं ही, न्यायालय के आदेश के परिपालन में जल समस्या समाधान के उपाय व कार्यविधि, राष्ट्रीय जल नीति, तथा जल की उपलब्धता व आर्थिक विकास को जोरते आंकड़े भी प्रस्तु किये गये हैं, जिसके लिये सेंटर फार साइंस एण्ड इंवार्नमेंट की पुस्तक बूंदो की संस्कृति से सहयोग लिया गया है. श्री रमेश चंद्र तिवारी ने इस न्यायालयीन प्रकरण तथा फिर इस किताब के रूप में एक पर्यावरण प्रहरी की अपने हिस्से की सजग नागरिक की जबाबदारी निभाई है, जो सराहनीय है, पर देखना है कि जमीनी स्तर पर वास्तविलक बदलाव लाने में इस तरह के प्रयासो को कब सफलता मिलती है, जो ऐसे एक्टिविस्ट का वास्तविक उद्देश्य है.
कैलाश मानसरोवर यात्रा – “शिवांश से शिव तक” – श्री ओम प्रकाश श्रीवास्तव एवं श्रीमति भारती श्रीवास्तव
पुस्तक समीक्षा
शिवांश से शिव तक (कैलाश मानसरोवर यात्रा वर्णन) लेखक- श्री ओम प्रकाश श्रीवास्तव एवं श्रीमती भारती श्रीवास्तव प्रकाशक- मंजुल पब्लिषिंग हाउस प्रा.लि. अंसारी रोड दरियागंज नई दिल्ली। मूल्य – 225 रु. पृष्ठ संख्या-284, अध्याय-25, परिषिष्ट 8, चित्र 35
कैलाश और मानसरोवर भारत के धवल मुकुट मणि हिमालय के दो ऐसे पवित्र प्रतिष्ठित स्थल हैं जो वैदिक संस्कृति के अनुयायी भारतीय समाज के जन मानस में स्वर्गोपम मनोहर और पूज्य है। मान्यता है कि ये महादेव भगवान शंकर के आवास स्थल है। गंगाजी के उद्गम स्त्रोत स्थल है और नील क्षीर विवेक रखने वाले निर्दोष पक्षी जो राजहंस माॅ सरस्वती का प्रिय वाहन है उसका निवास स्थान है।
हर भारतीय जो वैदिक साहित्य से प्रभावित है मन में एक बार अपने जीवन काल में इनके सुखद और पुण्य दर्शन की लालसा संजोये होता है। भारत के अनेको पवित्र तीर्थस्थलों में से ये प्रमुख तीर्थ है। इसीलिये इनकी पावन यात्रा के लिये भारत शासन कुछ चुने स्वस्थ्य व्यक्तियों को यात्रा की अनुमति दे उनकी यात्रा व्यवस्था प्रतिवर्ष करता है। अनेकों व्यक्ति सारे विशाल भारत से यात्रा की अनुमति पाने आवेदन करते है। उनमें कुछ भाग्यशाली जनों को यह अवसर प्राप्त होता है।
पुस्तक लेखक श्री ओंकार श्रीवास्तव जी को सपत्नीक इस यात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उन्होनें इस अविस्मरणीय तीर्थयात्रा का वर्णन कर अपने पाठको व जन सामान्य के लिये हितकारी जानकारी उपलब्ध करने का बडा अच्छा कार्य किया है। उन्होनें यात्रा की तैयारी, यात्रा का प्रारंभ, विभिन्न पडावों, वहाँ के दृश्यों, मार्ग के रूप और विभिन्न कठिनाईयों को वर्णित कर अपने सपरिवार प्राप्त अनुभवों का उल्लेख करके अनेकों श्रद्धालुओं को जो इस यात्रा पर जाने की इच्छा रखते हैं उनके कौतूहल व मार्गदर्षन के लिये बडी सच्चाई और निर्भीकता से सरल सुबोध भाषा में अपने हृदय की बात लिखी है। 22 दिनों की यात्रा का दैनिक वर्णन है। कैलाश मानसरोवर का दर्शन अलौकिक अद्भुत व सुखद तो है ही जो जीवन में अविस्मरणीय हैं किंतु यात्रा मे अनेको कठिनाईयां भी है। हिंदी मे एक कहावत है- बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता। अभिप्राय है कि स्वर्ग का सुख पाने के लिये अनेकों मृत्यु को सहना आवश्यक होता है तभी स्वर्ग का सुख प्राप्त करना संभव है। पुस्तक के पढने से विभिन्न पड़ावों पर ऊंचा नीचा भूभाग पैदल चलकर पार करना और वहाँ अचानक उत्पन्न जलवायु परिवर्तन, स्थानीय निवासियों के व्यवहार और भारतीयों की आदतो के विपरीत नये परिवेश को बर्दाश्त कर यात्रा करना कितना कठिन होता है। इसका सजीव चित्रण मिलता है। यात्रा पर जाने वालो को पूरा उपयोगी मार्गदर्शन मिलता है। तिब्बत के मठ वहाँ के साधु सन्यासियों, बाजारों और लोक व्यवहार की झलक मिलती है। धार्मिक सामाजिक और व्यवहारिक रीति रिवाजों से पाठको को अवगत कराने वाली उपयोगी पुस्तक है। भाषा, भाव और विचारो की अभिव्यक्ति में लेखक सफल है। पाठक को पढने से स्वतः यात्रा करने की सी भावानुभूति होती है। भौगोलिक चित्र भी दिये गये है। धार्मिको की मान्यताओं के अनुरूप शिव और प्रकृति का सुरम्य दृश्य यात्री को देखने का अवसर मिलता है।
प्रतिवर्ष एक हजार से अधिक यात्री मानसरोवर की यात्रा करते है पर उन हजारों में से श्रीवास्तव दंपत्ति बिरले यात्री है, जिन्होेंने अपनी यात्रा के अनुभवों को लोक व्यापी बनाकर इस पुस्तक के माध्यम से अद्भुत साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक विवेचना कर जनहितकारी कार्य किया है। कृति बांरबार पठनीय है।
आत्मकथ्य: सफर रिश्तों का – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर
(‘सफर रिश्तों का’ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी का एक अत्यंत भावनात्मक एवं मार्मिक कविताओं का संग्रह है। ये कवितायें न केवल मार्मिक हैं अपितु हमें आज की भाग दौड़ भरी जिंदगी में जीवन की सच्चाई से रूबरू भी कराती हैं। हमें सच्चाई के धरातल पर उतार कर स्वयं की भावनाओं के मूल्यांकन के लिए भी प्रोत्साहित करती हैं। इतनी अच्छी कविताओं के लिए श्री माथुर जी की कलम को नमन।)
आत्मकथ्य: आज के आधुनिक काल में भारतीय संस्कृति में तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में धुंधले पड़ते रिश्तों के मूल्य उनकी महत्वता और घटते मान सम्मान का विभिन्न कविताओं के माध्यम से बहुत भावुक एवं ममस्पर्शी वर्णन किया गया हैं. रिश्तों पर जो सटीक लेखन कविताओं के माध्यम से किया गया हैं वो दिल को छू लेने वाला हैं. “इंसानियत शर्मसार हो गयी “ में बूढ़े माँ बाप की व्यथा का भावुक वर्णन किया हैं. “मृत्यु बोध “ एक बहुत ही भावुक कविता हैं जिसमें मृत्यु होने के बाद सारे रिश्तेदारों का आपके प्रति कितना लगाव हैं बहुत ही दिल छू लेने वाला वर्णन किया हैं. माता पिता के साथ सिकुड़ते रिश्तों की व्यथा का ममस्पर्शी वर्णन करने का प्रयास किया हैं, सभी कविताऐं बहुत ही भावुक एवं मार्मिक हैं. आज रिश्तो की अहमियत कम होती जा रही हैं रिश्ते पीछे छूट रहे हैं.अन्य कविताए भी बहुत भावपूर्ण एवं शिक्षाप्रद हैं. पुस्तक हर उम्र के व्यक्तियों के पढ़ने एवं आत्म मनन करने योग्य हैं. यह पुस्तक सामाजिक मूल्यों, माँ बाप और बच्चों के बीच पुनःआत्मीय रिश्ते स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा सकती हैं.
Excerpts from Author’s Amazon Page : In “Safar Rishto ka,” the author through various poems has made a very touching and heart-rendering description of the decline in the relationship between parents and children in today’s Indian society. In “insaniyat sharmsaar ho gayi” has given an emotional description of the sadness of old parents. “Mrityu bodh” is a very emotional poem in which it is described that after the death how relatives are attached to your heart. Apart from these there are various precise poems on today’s social environment. The book covers for all ages people and must read by them. It is eye opener to the youth.This book can play a vital role in increase of social values and the rebuilt of intimate relationship between parents and children.
व्यंग्य संकलन – एक रोमांटिक की त्रासदी – डॉ.कुन्दन सिंह परिहार
पुस्तक समीक्षा
डॉ कुन्दन सिंह परिहार
(वरिष्ठ एवं प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का यह 50 व्यंग्यों रचनाओं का दूसरा व्यंग्य संकलन है। कल हम आपके लिए इस व्यंग्य संकलन की एक विशिष्ट रचना प्रकाशित करेंगे)
डॉ. कुन्दन सिंह परिहार जी को e-abhivyakti की ओर से इस नवीनतम व्यंग्य संकलन के लिए हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई।
पुस्तक समीक्षा
एक रोमांटिक की त्रासदी (व्यंग्य संकलन) लेखक- कुन्दन सिंह परिहार प्रकाशक- उदय पब्लिशिंग हाउस, विशाखापटनम। मूल्य – 650 रु.
‘एक रोमांटिक की त्रासदी’ श्री कुन्दन सिंह परिहार की 50 व्यंग्य रचनाओं का संकलन है।लेखक का यह दूसरा व्यंग्य-संकलन है, यद्यपि इस बीच उनके पाँच कथा-संकलन प्रकाशित हो चुके हैं।संकलन हिन्दी के मूर्धन्य व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई को इन शब्दों के साथ समर्पित है—-‘परसाई जी की स्मृति को, जिन्होंने पढ़ाया तो बहुतों को, लेकिन अँगूठा किसी से नहीं माँगा। ‘ये मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ बार बार आकर्षित करती हैं।
पुस्तक का शीर्षक पहले व्यंग्य ‘एक रोमांटिक की त्रासदी’से अभिप्रेरित है।दिन में जो प्रकृति लुभाती है, आकर्षक लगती है, रात्रि में, यदि हम अभ्यस्त नहीं हैं तो, डरावनी लगती है।एक रात भी शहरी व्यक्ति को गाँव के खेत-खलिहान में काटना पड़े तो उसे नींद नहीं आती।मन भयग्रस्त हो जाता है, जबकि एक ग्रामीण उसी वातावरण में गहरी नींद सोता है।रचना में ग्रामीण और शहरी परिवेश का फर्क दर्शाया गया है।
दूसरी रचना ‘सुदामा के तंदुल’ उन नेताओं पर कटाक्ष है जिनके लिए चुनाव आते ही गरीब की झोपड़ी मंदिर बन जाती है।आज दलित, आदिवासी के घर भोजन राजनीति का ज़रूरी हिस्सा बन गया है।
इसी तरह के 50 पठनीय और प्रासंगिक व्यंग्य संग्रह में हैं।रचनाओं का फलक व्यापक है और इनमें समाज और मानव-मन के दबे-छिपे कोनों तक पहुँचने का प्रयास स्पष्ट है।
संग्रह की रचनाओं में बड़ी विविधता है।विचारों, भावों और कथन में कहीं भी पुनरावृत्ति नहीं है।हर विषय को विस्तार से सिलसिलेवार प्रस्तुत किया गया है।सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर पर्याप्त फोकस है।रचनाओं में किसी विचारधारा या दल की ओर झुकाव दृष्टिगोचर नहीं होता।भाषा की समृद्धता प्रभावित करती है।स्थानीय भाषा और बोली का भी सटीक उपयोग है।
संग्रह में छोटे छोटे प्रसंगों को लेकर व्यंग्य का ताना-बाना बुना गया है।सामान्य जन-जीवन में व्याप्त वैषम्य, विरूपताओं और विसंगतियों को उजागर करने के लिए व्यंग्य सशक्त माध्यम है और इस माध्यम का उपयोग लेखक ने बखूबी किया है।परसाई जी के शब्दों में कहें तो व्यंग्य अन्याय के विरुद्ध लेखक का हथियार बन जाता है।व्यंग्य के विषय में मदन कात्स्यायन का कथन है कि जिस देश में दारिद्र्य की दवा पंचवर्षीय योजना हो वहां के साहित्य का व्यंग्यात्मक होना अनिवार्य विवशता है।
इस संग्रह से पूर्व प्रकाशित परिहार जी के कथा-संग्रहों और व्यंग्य-संग्रह सुधी पाठकों के बीच चर्चित हुए हैं। विश्वास है कि प्रस्तुत संग्रह भी पाठकों के बीच समादृत होगा।