हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “पानी राखिए” (व्यंग्य-संग्रह) – श्री अभिमन्यु जैन ☆ समीक्षा – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री अभिमन्यु जैन जी के व्यंग्य संग्रह – “पानी राखिए” पर पुस्तक चर्चा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “पानी राखिए” (व्यंग्य-संग्रह) – श्री अभिमन्यु जैन ☆ समीक्षा – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

मजबूत खोपड़ी से उपजा ‘पानी राखिए’ व्यंग्य संग्रह– जय प्रकाश पाण्डेय 

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। रहीम के इस दोहे ने मनुष्य और समाज की बेहतरी के लिए सकारात्मक संदेश दिया है और व्यंग्यकार अभिमन्यु जैन के व्यंग्य संग्रह ‘पानी राखिए’ में भी हमारे आसपास फैली विसंगतियों, पाखंड, दोगलापन जैसी अनेक विकृतियों पर अपने व्यंग्य लेखों के मार्फत प्रहार कर समाज को जागृत करने का प्रयास किया है।

श्री अभिमन्यु जैन

सच ही तो है पानी हमारे जीवन की सबसे अहम जरूरतों में से एक है इसके बिना मनुष्य ही क्या, किसी भी जीव- जंतु यहाँ तक की प्रकृति के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती, इसीलिए ‘पानी राखिए’ शीर्षक वाले संकलन को पानी पी पीकर पढ़ने की इच्छा हुई। अभिमन्यु जी ने पानी राखिए संग्रह सप्रेम भेंट किया, पानी राखिए संग्रह का कवर पेज चेतावनी दे रहा है कि भविष्य में होने वाली लड़ाईयां पानी के कारण होगीं, इसीलिए पानी बचाना बहुत जरूरी होता जा रहा है, और समझ में ये भी आया कि पानी सबको रचता है, पृथ्वी से पानी खींचने के लिए पौधों और वृक्षों की जड़ें नीचे की तरफ गईं। पानी से पृथ्वी पर जीवन आया, पानी से भाषा बनीं, पानी से हम बने, जीवन वहां है जहां पानी है, ऐसे में व्यंग्यकार अभिमन्यु जैन जी का संग्रह “पानी राखिए” पढ़ने के लिए आकर्षित करता है, होना भी यही चाहिए कि शीर्षक ऐसा हो जो पाठक को पढ़ने के लिए बुलाए। सहज सरल व्यक्तित्व के धनी हास्य विनोद से लबालब भरे व्यंग्यकार अभिमन्यु जी हर रचना में कोशिश करते हैं कि उनकी रचना का शीर्षक पाठक को पकड़ कर रचना पूरी पढ़वा ले। व्यंग्यकार अभिमन्यु जैन जी का कहना है कि “व्यंग्य लिखना सरल नहीं, इसके लिए दिल के साथ खोपड़ी भी मजबूत होना चाहिए”। खोपड़ी तभी मजबूत बनेगी जब उसमें व्यंग्य लिखने लायक पानी हो, और दिल दरिया हो, ये सारी बातें व्यंग्यकार अभिमन्यु जी में कूट-कूट कर भरीं हैं। अभिमन्यु जी सकारात्मक सोच के व्यक्ति है विषम परिस्थितियों में भी राह निकालना उनके लिए चुटकियों का काम है। वे यायावर, मस्त मौला लेखक है और यहीं बिंदासपन उनके व्यंग्य लेखों में यदा-कदा दिखाई देता है।

अभिमन्यु जैन जी के व्यंग्य लेखों पर प्रसिद्ध आलोचक स्व.बालेन्दु शेखर तिवारी का कहना था कि ‘अभिमन्यु जैन ने व्यंग्य के इलाके में जान बूझकर पहलकदमी की है और अपने व्यंग्यों के लिए कथ्य और शिल्प की नव्यता तलाशी है, नये आलम्बनों से जूझते हुए उनके व्यंग्य अपने छोटे आकार में भी अनुभव के विस्तार का संकेत देते हैं ‘

जिन प्रवृतियों और आदतों को लेखक ने अपनी बेबाक कलम से पकड़ा है वो किसी एक शहर की बात नहीं है बल्कि शहर-शहर गांव-गांव ये नजारे आपको देखने मिलेंगे। ‘पानी राखिए’ व्यंग्य में लेखक लिखता है, गर्मी और पानी दोनों का बैर है, गर्मी में नल में पानी नहीं आधे घंटे हवा और 15 मिनिट आंसू देता है, इसीलिए शांतिलाल का रोज नल पर झगड़ा होता है और रोज अशांति होती है, गली गली पानी पर पानीपत का युद्ध देखने मिलता है। ये संकेत ऐसे हैं जो इशारा करते हैं कि अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा, इसीलिए लेखक बार बार चेतावनी दे रहा है कि पानी राखिए क्योंकि बिन पानी सब सून… हार कर फिर कहता है कि चलो जब प्यास लगे तो रेत निचोड़ना ही होगा। ‘जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई’ में टोनू भैया के बार बार जन्मदिन मनाने के ढकोसलेबाजी और राजनैतिक लोगों पर गहरे कटाक्ष किए गए हैं।

अभिमन्यु जैन जी के यहां गुदगुदाते लफ्ज़ों का ये लाव लश्कर किसी चश्मे से फूट कर बहते पानी सा छलकता है। इसमें सायास कुछ भी नहीं है बल्कि अनायास ही लच्छेदार भाषा की फुहार टपकती दिखाई देती है। लच्छेदार भाषा से सराबोर व्यंग्य ‘फूफा जी’ पाठक को जकड़कर बांध लेता है, हास्य विनोद से भरपूर कटाक्ष करते वाक्य जीवन के सच से सामना कराते हैं। फूफा गुजरा गवाह – लौटता बराती है। जीजा नई फिल्म तो फूफा पुरानी फिल्म नये प्रिंट में। मांगलिक अवसर पर फूफा मुंह न फुलाए तो काहे का फूफा। चाहे जो मजबूरी हो फूफा की मांग पूरी हो….

आज के लोग चिकित्सक, अस्पताल मालिक अपने निजी कामों में किस स्वार्थ की हद तक तल्लीन दिखाई देते हैं, ये लेखक ने बखूबी देखा है और उस पर व्यंग्य की दृष्टि से प्रहार किया है। ‘डाक्टर सरकारी, मरीज तरकारी ‘ लेख का शीर्षक पाठक को पढ़ने के लिए बुलाता है। लेख में अस्पताल और असंवेदनशील होते डाक्टरों के चरित्र पर चिंता व्यक्त करते हुए लेखक कहता है कि डाक्टर, अब डाक्टर नहीं रहे वे चाण्डाल बन लाश भी गिरवी रखने लगे हैं। व्यंग्य लेख में बड़े करुण दृश्य उकेरे गए हैं और पैसे के लालच में मरीजों के शोषण की कहानी कही गई है।

सच्चा व्यंग्य मनुष्य को सोचने के लिए बाध्य करता है। पाठक के मन में हलचल पैदा करता है, और जीवन में व्याप्त मिथ्याचार, पाखंड, आसामंजस्य और अन्याय से लड़ने के लिए उसे तैयार करता है। चुनाव में वोट खींचने एवं जनता को तरह तरह के लालच देने वाली शासकीय योजनाओं की बाढ़ का पोस्टमार्टम करती हुई रचना ‘बहना सुखी, भैया दुखी’ में भैया लोगों की पीड़ा और वोट खींचने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने आगामी चुनाव हेतु भैया लोगों को सुखी करने की योजना घोषित कर दी है, यही इस व्यंग्य की सफलता मानी जाएगी। ‘बेईमान भर्ती केन्द्र’ लघु व्यंग्य जरूर है पर ईमानदारी से बेईमानी का विश्लेषण करते हुए बेईमान लोगों पर कटाक्ष कर सुधरने का मौका दिया है। उधर ‘फुटपाथ’ लेख में बड़ी सतर्कता के साथ फुटपाथ से अपनी करुण कहानी कहलायी गई है, फुटपाथ कहता है कि वह अमीर गरीब, ऊंच नीच में भेदभाव नहीं करता, फुटपाथ सबके भले पर विश्वास करता है कभी वह गरीबों का मसीहा बन जाता है तो कभी फुटपाथ बनाने वाले अफसर ठेकेदार की हवेली बनवा देता है। उपेक्षित, तिरस्कृत, पीड़ित की पीर फुटपाथ ही सहता है।

व्यंग्य लेखन वास्तव में देश, काल और परिस्थितियों के मद्देनजर व्यक्ति और समाज के अध्ययन से जन्मता है, एक व्यंग्य लेख ‘निधन विचार’ में लेखक ने जीवन की सच्चाई और रिश्तों में आयी खटास को मृत्यु के बहाने बड़े करुण अंदाज में प्रस्तुत करता है, मौत कई घरों में अंधेरा कर जाती है और कई घरों में अंधेर। बाप मर गए अंधेरे में, बेटा का नाम प्रकाश धर गए… कुछ अच्छे प्रयोग देखकर खुशी हुई।

‘नान स्टाप’ लेख में शब्दों की गजब की बाजीगरी देखने मिलती है, नान स्टाप शब्द के बहाने तरह तरह से लूटने और फायदा उठाने वालों पर हास्य विनोद के साथ व्यंग्य बाण छोड़े गए हैं। सादा जीवन, चरित्र बल, ईमानदारी और अपने काम से काम जैसे गुणों ने ही अभिमन्यु जैन की कलम में इतनी ताकत भरी है कि वह कामचोरों, भ्रष्टाचारियों, जमाखोरों, चापलूसों और स्वार्थी, मौकापरस्त, झूठे आश्वासन देने वाले नेताओं का अनावरण करने से नहीं चूकती। वे कहते हैं कि व्यंग्यकार सदैव स्वस्थ विपक्ष की भूमिका निभाता है। व्यंग्य व्यक्ति, सत्ता और समाज को खबरदार करने का काम करता है।

पानी राखिए’ व्यंग्य संग्रह में 46 व्यंग्य रचनाएं उछल-कूद करते पाठकों को पढ़ने बाध्य करतीं हैं। सभी व्यंग्य छोटे हैं पर लक्ष्य बेधन में सफल हैं। यदि व्यंग्य अखबार में छपा है तो कहते हैं कि व्यंग्य की उम्र अधिक नहीं होती किंतु व्यंग्यकार की दृष्टि और उसकी अभिव्यक्ति सशक्त हो तो व्यंग्य दीर्घ जीवी बन जाता है।

अपने आस-पास फैले विषयों, विसंगतियों एवं रोजमर्रा जिन्दगी में फैले ढकोसलेपन जैसी प्रवृत्तियों पर अभिमन्यु जी ने सभी लेखों में अपने तरकश से खूब व्यंग्य बाण छोड़े हैं बहुत अनुशासनात्मक भाषा में।

कुल मिलाकर इस संग्रह की सभी व्यंग्य रचनाएं सहज, सरल होकर भी विसंगतियों पर गहन प्रहार करती हैं।

किताब चर्चा योग्य है, खरीदकर पढ़ना घाटे का सौदा बिल्कुल नहीं। उनके व्यंग्य मात्र हँसी-मजाक नहीं हैं वे चार दशकों से अधिक समय से उद्देश्य पूर्ण, संदेशात्मक तीखी मारक क्षमता वाले व्यंग्य लिख रहे हैं। देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाएं निरंतर उनकी रचनाओं का प्रकाशन कर रही हैं। आकाशवाणी से भी जब-तब रचनाओं का प्रसारण होता रहता है।

साफ़ सुथरे मुद्रण, शुद्ध भाषा और कलात्मक प्रस्तुति का श्रेय प्रकाशक को दिया जाए या लेखक को, ये सोचे बिना पाठक अभिमन्यु जी की अगली किताब के इंतजार में रहेंगे। लेखक और संदर्भ प्रकाशन के लिए दिल से बधाई और शुभकामनाएं हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 168 ☆ “मानसी” – लेखक … श्री चंद्रभान राही ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री चंद्रभान राही जी द्वारा लिखित पुस्तक “मानसी…पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 168 ☆

☆ “मानसी” – लेखक … श्री चंद्रभान राही ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – मानसी

उपन्यासकार – चन्द्रभान राही, भोपाल

प्रकाशक – सर्वत्र, भोपाल

पृष्ठ – २७८, मूल्य – ३९९ रु

पाश्चात्य समाज में स्त्रियों की भागीदारी को उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में रेखांकित किया जाने लगा था। इसी से विदेशी साहित्य में स्त्री विमर्श की शुरुआत हुई। इसे फ़ेमिनिज़्म कहा गया। स्त्री अस्मिता, लिंग भेद, नारी-जागरण, स्त्री जीवन की सामाजिक, मानसिक, शारीरिक समस्याओं का चित्रण साहित्यिक रचनाओ में प्रमुखता से किया जाने लगा। यह विमर्श एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ है। आज भी स्त्री विमर्श के विषय, साहित्य के माध्यम से स्त्री पुरुष समानता, स्त्री दासता से मुक्ति के प्रश्नों के उत्तर खोजने की वैचारिक कविताओ, कहानियों, उपन्यास और प्रेरक लेखों के जरिये उठाए जाते हैं। स्त्री विमर्श पर शोध कार्य हो रहे हैं।

मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के विकास में स्त्रियों की अहम भूमिका को स्वीकार किया था। उन्होंने स्त्रियों को शोषित वर्ग का प्रतिनिधि माना था। महिला विमर्श को पश्चिम और भारतीय परिवेश मे अलग नजरियों से देखा गया। पश्चिम ने स्त्री पुरुष को समानता का अधिकार स्वीकार किया। दूसरी ओर भारतीय महाद्वीप में स्त्री पुरुष को सांस्कृतिक रूप से परस्पर अनुपूरक माना जाता रहा है। नार्याः यत्र पूज्यंते। । के वेद वाक्य का सहारा लेकर स्त्री को पुरुष से अधिक महत्व का सैद्धांतिक घोष किया जाता रहा, किन्तु व्यवहारिक पक्ष में आज भी विभिन्न सामाजिक कारणो से समाज के बड़े हिस्से में स्त्री भोग्या स्वरूप में ही दिखती है। कानून, नारी आंदोलन, स्त्री विमर्श यथार्थ के सम्मुख बौने रह गये हैं, और स्त्री विमर्श के साहित्य की प्रासंगिकता सुस्थापित है।

विज्ञापन तथा फिल्मों ने स्त्री देह का ऐसा व्यापार स्थापित किया है कि पुरुष के कंधे से कंधा मिलाने की होड़ में स्त्रियां स्वेच्छा से अनावृत हो रही हैं। इंटरनेट ने स्त्रियों के संग खुला वैश्विक खिलवाड़ किया है। स्त्री मन को पढ़ने की, उसे मानसिक बराबरी देने के संदर्भ में, स्त्री को भी मनुष्य समझने में जो भी किंचित आशा दिखती है वह रचनाकारों से ही है। मुझे प्रसन्नता है कि चन्द्रभान राही जैसे लेखकों में इतना नैतिक साहस है कि वे इसी समाज में रहते हुये, समाज का नंगा सच भीतर से देख समझ कर मानसी जैसा बोल्ड उपन्यास लिखते हैं। मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी सम्मान सहित, तुलसी सम्मान, शब्द शिखर सम्मान, पवैया सम्मान, देवकीनंदन महेश्वरी स्मृति सम्मान, श्रम श्री सम्मान, स्वर्गीय नर्मदा प्रसाद खरे सम्मान, पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन सम्मान, आदि आदि अनेक सम्मानो से समादृत बहुविध लेखक श्री चंद्रभान राही का साहित्यिक कृतित्व बहुत लंबा है। मैंने उनसे अनौपचारिक बातचीत में उनकी रचना प्रक्रिया को किंचित समझा है। वे टेबल कुर्सी लगाकर बंद कमरे में लिखने वाले फेंटेसी लेखक नहीं हैं। एक प्रोजेक्ट बनाकर वे सोद्देश्य रचना कर्म करते हैं। अध्ययन, अनुभव और सामाजिक वास्तविकताओ को अपनी जीवंत अभिव्यक्ति शैली में वे कुशलता से पाठकों के लिये पृष्ठ दर पृष्ठ हर सुबह संजोते हैं, पुनर्पाठ कर स्वयं संपादित करते हैं और तब कहीं उनका उपन्यास साहित्य जगत में दस्तक देता है। अपनी नौकरी के साथ साथ वे अपना रचना कर्म निरपेक्ष भाव से करते दिखते हैं। स्वाभाविक रूप से इतनी गंभीरता से किये गये लेखन को उनके पाठक हाथों हाथ लेते हैं। वे उन लेखकों में से हैं जो अपठनीयता के इस युग में भी किताबों से रायल्टी अर्जित कर रहे हैं।

“मर्द, एक स्त्री से दर्द लेकर आता है, दूसरी स्त्री के पास दर्द कम करने के लिए। ” स्त्री, स्त्री है तो एक घरवाली और एक बाहरवाली, दो भागों में कैसे बँट गई ? दोनों स्त्रियों के द्वारा मर्द को संतुष्ट किया जाता है लेकिन बदनाम कुछ ही स्त्रियाँ होती हैं। अनूठे शाब्दिक प्रयोग के साथ लिखे गये बोल्ड उपन्यास ‘मानसी’ के लेखक चन्द्रभान ‘राही’ ने स्त्री मन की पीड़ा को लिखा है। स्त्री प्रेम के लिए मर्द को स्वीकारती है और मर्द, स्त्री के लिए प्रेम को स्वीकारता है। स्त्री प्रेम के वशीभूत होकर अपने सपनों को पूरा करने के लिए पहले दूसरे के सपनों को पूरा करती है। पुरुष प्रधान समाज के बीच स्त्री स्वयं उलझती चली जाती है। इच्छित पुरुष को पाने का असफल प्रयास करती स्त्री की आत्मकथा के माध्यम से प्रेम का मनोविज्ञान ही मानसी का कथानक है।

स्त्री विमर्श आंदोलन ने स्त्री को कुछ स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनाया है। फिल्म, मॉडलिंग, मीडिया के साथ बिजनेस और नौकरी में महिलाओ की भागीदारी बढ़ रही है। किंतु, इसका दूसरा पक्ष बड़ा त्रासद है। उपभोक्तावाद ने कुछ युवतियों को कालगर्ल, स्कार्ट रैकेट का हिस्सा बना दिया है। ‘मी-टू’ अभियान की सच्चाईयां समाज को नंगा करती हैं। आये दिन रेप की वीभत्स्व घटनायें क्या कह रही हैं ? सफल-परिश्रमी युवतियों के चरित्र को संदिग्ध मान लिया जाता है। महिला को संरक्षण देने वाले और समाज की दृष्टि में स्त्री इंसान नहीं ‘रखैल’ घोषित कर दी जाती है। सफल स्त्रियों की आत्मकथाएं कटु जीवनानुभवों का सच हैं। पुरुषों का अहं साथी की योग्यता और सफलता को स्वीकार नहीं कर पाता है। पितृसत्ता स्त्री की आजादी और मुक्ति में बाधक है। आरक्षण महिलाओ की योग्यता और क्षमता को मुखरता देने के लिये वांछित है।

इस उपन्यास के चरित्रों मुंडी, मुंडा, मुंडी का रूपांतरित स्वरूप मानसी, चकाचौंध की दुनियां वाली नैना, गिरधारीलाल, दिवाकर, रवि को लेखक ने बहुत अच्छी तरह कथानक में पिरोया है। उन्होंने संभवतः आंचलिकता को रेखांकित करने के लिये उपन्यास की नायिका मुंडी उर्फ मानसी को आदिवासी अंचल से चुना है। यद्यपि चमत्कारिक रूप से मुंडी के व्यक्तित्व का यू टर्न पाठक को थोड़ा अस्वाभाविक लग सकता है। किन्तु ज्यों ज्यों कहानी बढ़ती है नायिका की मनोदशा में संवेदनशील पाठक खो जाता है। पाठक को अपने परिवेश में ऐसे ही दृश्य समझ आते हैं, भले ही उसने वह सब अखबारी खबरों से देखे हों, स्वअनुभूत हों या दुनियांदारी ने सिखाये हों, पर स्त्री की विवशता पाठक के हृदय में करुणा उत्पन्न करती है। यह लेखकीय सफलता है।

मुझे स्मरण है पहले जब मैं किताबें पढ़ा करता था तो शाश्वत मूल्य के पैराग्राफ लिख लिया करता था, अब तो माध्यम बदल रहे हैं, कई किताबें सुना करता हूं तो कई किंडल पर पढ़ने मिलती हैं। उपन्यास मानसी के वे पैराग्राफ जो रेखांकित किये जाने चाहिये, अपनी प्रारंभिक लेखकीय अभिव्यक्ति ” कुछ तो देखा है ” में चंद्रभान जी ने स्वयं संजो कर प्रस्तुत किये हैं। केवल इतना ही पढ़ने से सजग पाठक अपना कौतुहल रोक नहीं पायेंगे और विचारोत्तेजना उन्हें यह उपन्यास पूरा पढ़ने को प्रेरित करेगी, अतः कुछ अंश उधृत हैं। । ।

‘स्त्री’, जब बड़ी हो जाती है तो लोगों की निगाहों में आती है। लोग स्त्री को सराहते नहीं है। सहलाने लगते हैं। यहीं से मर्द की विकृत मानसिकता और औरत की समझदारी का जन्म होता है।

‘स्त्री’ जब प्रेम के वशीभूत किसी मर्द के साथ होती है तो वह उस समय उसकी पसर्नल होती है। उसके पश्चात वही मर्द उसको ‘वेश्या’ का नाम धर देता है।

‘स्त्री’ को दो घण्टे के लिए होटल का कमरा कोई भी मर्द उपलब्ध करा देता है लेकिन जीवन भर के लिए छत उपलब्ध करना मर्द के लिए आसान नहीं।

‘स्त्री’ जब अपने देह के बदले रोटी को पाने की मशक्कत करे तब मर्द का वज़न उतना नहीं लगता जितना रोटी का लगता है। पेट की भूख मिटाने के खातिर स्त्री कब देह की भूख मिटाने लगती है उसे भी पता नहीं चलता।

“स्त्री प्रतिदिन अपने ऊपर से न जाने कितने वज़नदार मर्दों को उतर जाने देती है। वो उतने वज़नदार नहीं लगते जितनी की रोटी लगती है। “

“मैं जब किसी कमरे में वस्त्र उतारती हूँ तो मेरे साथ एक मर्द भी होता है। सच कहती हूँ तब मैं उसकी पसर्नल होती हूँ। “

“मर्द घर की स्त्री से कहीं ज्यादा आनन्द, संतुष्टि और प्रेम बाहर की स्त्री से पाता है लेकिन बाहर की स्त्री को वो मान-सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं देता जो घर की स्त्री को देता है। “

“उन स्त्रियों का जीवन मर्द की प्रतीक्षा में कट जाता है, लेकिन उनकी ये प्रतीक्षा भी अलग अंदाज में होती है। घर की स्त्री भी मर्द की प्रतीक्षा करती है, उसका अपना अलग तरीका होता है। “

” दो घण्टे के साथ में उन स्त्री को सब कुछ मर्द से मिल जाता है। जिन्हें वो खुशी-खुशी स्वीकार कर लेती है। वहीं जीवन भर साथ रहने के पश्चात भी घर की स्त्री, मर्द से कहने से नहीं चूकती ‘तुमने किया ही क्या है, मेरे तो नसीब फूट गए, तम्हारे साथ रहते-रहते। ज़िन्दगी बरबाद हो गई। ‘

‘स्त्री’, ग्लेमर की दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के खातिर खड़ी होती है। समाज कब उसकी अलग पहचान बना देता है स्वयं स्त्री को भी पता नहीं चल पाता। “

‘स्त्री’ कल भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही थी, आज भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही है। स्त्री समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए उन रास्तों पर कब चली जाती है जो जीवन को अंधकार की और मोड़ देता है। ‘स्त्री’ कभी स्वेच्छा से तो कभी विवश होकर, मजबूरी के कारण मर्द का साथ चाहती है। मर्द का साथ होना ही स्त्री को आत्मबल, सम्बल देता है। स्त्री जब मर्द के पीछे होती है तो स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। स्त्री जब मर्द के आगे होती है तो वह किसी कवच से कम नहीं होती। मर्द की संकीर्ण मानसिकता के कारण मर्द आज भी स्त्री को नग्न अवस्था में देखना पसंद करता है। स्त्री देह का आकर्षण, मर्द के लिए स्वर्णीय कल्पना लोक में जाने से कम प्रसन्नता का अवसर नहीं होता। “

मानसी’ एक ऐसी स्त्री की आत्मकथा है जो आई तो थी दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के लिए लेकिन दुनियाँ ने उसकी अलग ही पहचान बना दी और नाम धर दिया ‘वेश्या’ है। ‘स्त्री’ वेश्या की पहचान लेकर समाज में स्वच्छन्द नहीं घूम सकती। आज भी स्त्री को देवी स्वरूप की दृष्टी से देखने का चलन है। देखना और दिखाना दोनों में अंतर है। वही अंतर घर की स्त्री और बाहर की स्त्री में भी है।

घर की स्त्री और बाहर की स्त्री के साथ काम एक सा ही होता है। पर अलग-अलग नाम, अलग-अलग पहचान क्यों? “स्त्री, मर्द की भावना को समझ नहीं पाती या मर्द स्त्री को समझ नहीं पाता। स्त्री और मर्द के बीच प्रेम की खाईं को मिटा पाना किसी मर्द के बस की बात नहीं दिखती। यदि कहीं, कोई मर्द है, जो स्त्री की संतुष्टि का दावा करता है, तो वह मर्द वास्तव में समाज के लिए प्रणाम के योग्य है। “

लेखक बेबाकी से उन स्त्रियों का हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिनके कारण उन्होंने स्त्री मन की भावनाओं तक पहुँच कर उन्हें समझने का प्रयास किया। और यह उपन्यास रचा। वे यह पुस्तक भी मैं उन स्त्रियों को समर्पित करते हैं जिन्होंने ऐसा जीवन जिया है। वे लिखते हैं उन स्त्रियों के साथ होते है, तो दूसरी दुनियाँ की अनुभूति होती है। उनकी दुनियाँ के आगे वास्तविक दुनिया मिथ्या लगती है। सच तो यही है कि उनको पता है कि हम ज़िन्दा क्यों हैं। मरने के लिए ज़िन्दा रहना कोई बड़ी बात नहीं है। बात तो तब है कि कुछ करने के लिए ज़िन्दा रहा जाए।

मुझे विश्वास है कि इस उपन्यास से चंद्रभान राही जी गंभीर स्त्रीविमर्श लेखक के रूप में साहित्य जगत में स्वीकार किये जायेंगे। उपन्यास अमेजन पर सुलभ है, पढ़कर मेरे साथ सहमति तय करिये।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “जागते रहो” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री मनोज धीमान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “जागते रहो” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री मनोज धीमान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : जागते रहो (लघुकथा संग्रह)

लेखक : मनोज धीमान

प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नयी दिल्ली।

पृष्ठ : 96

मूल्य : 225 रुपये

☆ मनोज धीमान का “जागते रहो” – समाज को जगाने झकझोरने वाली लघु कथायें – कमलेश भारतीय ☆

मनोज धीमान से कभी रूबरू होने का  मौका तो नहीं बना अभी तक लेकिन पाठक मंच और सिटी एयर न्यूज में हम रोज़ मिलते हैं। बस, मुलाकात होना बाकी है। वे भी मेरी तरह पत्रकार और साहित्यकार हैं। अभी अभी उन्हें गुरु नानक देव‌ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के साथ किसी महत्त्वपूर्ण तरीके से जोड़ा गया है। यह उनकी उपलब्धि कही जा सकती है। यह उनकी पहली किताब नहीं है। पर लघुकथा में महत्त्वपूर्ण संग्रह है -जागते रहो! न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने बहुत खूबसूरत ढंग से और पाॅकेट बुक साइज में प्रकाशित किया है।

अब आते हैं इसकी लघुकथाओं पर! जैसा संग्रह का नाम है, वैसी ही समाज को जगाने व सचेत करने वाली चुटीली लघुकथायें हैं इसमें! सबसे ज्यादा शीर्षक लघुकथा ही जगाने वाली है-जागते रहो, किससे? सरकार की चाल ही नहीं, उसके दुष्प्रचार से क्योंकि धर्म, जाति में बांटने के बाद नये नये न्यूज चैनल चला कर आमजन को गुमराह करने की चाल भी सत्तापक्ष चल रहा है, इसलिए जागते रहो। यह सर्वविदित है कि आज मीडिया किस गहरे गड्ढे में गिर चुका है। मीडिया को सत्तापक्ष ने पालतू बना रखा है, इससे जागते रहो। मदर्ज़ डे को हम मोबाइल पर ही सेलिब्रेट करते हैं जबकि मां दवाई मांग रही है और उसे अनसुना किये जा रहा है बेटा! दिखावा जरूरी, संवेदना गायब! मोबाइल पर, मोबाइल से हमारे जीवन में, रिश्तों में आ रहे बदलाव पर कुछ और लघुकथायें भी हैं। सबसे बड़ी है -झुनझुना! बच्चे जो अपनी खेलों में मस्त रहते थे, झुनझुने से भी खुश हो जाते थे, वही बच्चे अब झुनझुने से नही, मोबाइल से खेलते हैं और दादा का लाया झुनझुना फेंक देते हैं। दंगों में जो आग की लपटें उठती हैं, उनसे दूसरों के घर जलाने वालों के घर भी जल जाते हैं, आग से वे भी कहां बच पाते हैं? यही संदेश देने की कोशिश है! फलों की रेहड़ी लगाने वाला खुद फल खा नहीं पाता और डाॅक्टर सलाह देता है कि फल खाया करो, यह हमारे समाज की बड़ी विडंबना है। नारी के मेकअप का एक पल जब तक खत्म होता है तब तक पति का बाहर जाने का मूड ही नहीं रहता। ऐसी ही रचना लिपस्टिक भी है। महिला रचनाकार के भ्रम में एक पाठक सरोज नाम की लेखिका को मिलने जाता है तो पता चलता है, वे दीना नाथ सरोज हैं यानी सरोज उनका उपनाम है और यह जानकारी मिलते ही प्रशंसक उल्टे पांव भाग लेता है। मेरा खुद का नाम महिलाओं से मिलता होने के चलते ये मज़ेदार स्थितिया़ं अनेक बार आई हैं। ये लेखन के नहीं, महिलाओं के प्रशंसक हैं! भ्रष्टाचार और ईमानदारी की जंग निरंतर जारी है। दलबदल अब किसी गंगा स्नान से कम नहीं, सत्ताधारी दल में शामिल होना किसी गंगास्नान से कम नहीं रहा। लेखकों पर चोट है सोने की कलम! जब सत्ता सम्मान में सोने की कलम दे देती है तो लेखक सत्ता के खिलाफ कलम ही नहीं उठा पाता! काॅफी का स्वाद तब एकदम फीका और बेस्वाद हो जाता है, जब प्रेमिका अपनी शादी की खबर सुनाती है और तुम पहले जैसे नहीं रहे में काॅफी का स्वाद बढ़ जाता है जब पति बधा करवाता है और पति पत्नी एक दूसरे के लिए समय निकालते हैं। पुलिस ही डाॅन की भूमिका में हैं लेकिन टी शर्ट वाला बाबा जैसी लघुकथा इसमें अखरती है। गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो सुनील‌ ने लघुकथा पर भूमिका के रूप में गहरी टिप्पणी की है जो लघुकथा को समझने में काम आयेगी। काफी शोध के बाद लिखी लगती है भूमिका!

मुखपृष्ठ भी खूबसूरत है। बधाई मनोज‌। 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – उसका सूरज  — कवयित्री – भारती संजीव ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 10 ?

?उसका सूरज  — कवयित्री – भारती संजीव ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

? वो अपने घर का सूरज थी  श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक- उसका सूरज

विधा- कविता

कवयित्री- भारती संजीव

प्रकाशक- आर के पब्लिकेशन मुम्बई 

मूल्य- 195/- 

देहरी का नाम आते ही/उभरती है एक स्त्री/ जिसके पास न जीभ है /न कान, न आँख /न स्वयं के विचार / ना विरोध की दरकार / है तो सिर्फ कुछ मिले हुए संस्कार / थोपे हुए विचार / जो है समिधा की तरह /स्वाहा होने को तैयार..

‘उसका सूरज’ भारती संजीव का पहला कवितासंग्रह है। उपरोक्त पंक्तियाँ उनके पहले कवितासंग्रह की पहली कविता से हैं। पहली कविता से ही कवयित्री की  विधागत दृष्टि, दृष्टिगोचर होने लगती है। समिधा की आहुति से अग्नि जन्म लेती है। अग्नि विशुद्ध महाभूत होती है। आग पीकर, आग से होकर, आग होकर जन्मती है कविता। यही कारण है कि कविता अभिव्यक्ति की विशुद्व विधा है। भारती संजीव के ‘उसका सूरज’ में यह शुद्धता अन्यान्य पृष्ठों पर प्रखरता से अवलोकित होती है।

कविता की एक विशेषता कम शब्दों में मर्म तक पहुँचना और पहुँचाना भी है। इसके चलते कविता को गागर में सागर की उपमा दी गई है। भीड़ द्वारा डायन घोषित कर किसी स्त्री के साथ किया जानेवाला अघोरीपन पिघलता लोहा है। इस लोहे का कविता में ‘टर्निंग द टेबल’ का दृश्य देखिये-

भीड़ के मनोविकारों की शिकार/डायनें/  लगाती हैं प्रश्नचिह्न व्यवस्था पर /वे छोड़ देती हैं /पिघलता गर्म लोहा /संविधान पर..

विज्ञान बताता है कि एक्स और वाई गुणसूत्र के मिलन से लड़का अथवा लड़की जन्म लेती है। इसका कारक पुरुष होता है ना कि स्त्री। तब भी स्त्री पर लड़की जनने का दोषारोपण और आधुनिक समाज में भी लड़की को कम आंकने की मनोरुग्णता देखने को मिलती है। गुणसूत्र के विज्ञान से परे व्यवहारिक ज्ञान को साधन बनाकर कवयित्री यही बात समाज को समझाने का प्रयास करती हैं।

न ही ईंट-गारे-पत्थर से /बनाई जाती हैं /वे भी पैदा होती हैं/ उसी तरह/जिस तरह पैदा होता है/घर का चिराग..

स्त्री और पुरुष के लिए लिखने की सुविधा में गहरा अंतर है। पुरुष 8 घंटे के लिए काम पर होता है। स्त्री 24×7 गृहिणी होती है। लेखन जब प्रस्फुटित होता है, उसे उसी समय काग़ज़ पर उतारना होता है। उस क्षण चूक जाना, एक रचना से हाथ धो बैठना है। सुबह के अलार्म से उठने के साथ रात को बिस्तर को जाने तक स्त्री अपनी अनेक रचनाओं के गर्भ में ही दम तोड़ने का साक्षी बनती है।

इन अनकहे शब्दों की मृत्यु का/ कोई गवाह नहीं/ जो पन्नों पर उतर आते/  वही स्त्री रचित कहलाते हैं..

स्त्री अपार संभावनाओं का पर्यायवाची है। स्त्री को आधी दुनिया कहना स्त्रीत्व के प्रति असम्मान है। सत्य तो यह है शेष आधी दुनिया को स्त्री अपनी कोख में धारण किए हुए है। विसंगति यह कि ब्रह्मांड होते हुए भी स्त्री को सृष्टि में अपने इच्छा को, अपने भाव को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है, अपना स्थान बनाने के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। उसे बार-बार, लगातार अपनी क्षमता को सिद्ध करना पड़ता है। तथापि जिजीविषा की धनी स्त्री प्रतिदिन उगनेवाले सूरज की तरह हर सुबह अपना नया सूरज बनाती है। घर, परिवार को आलोकित एवं ऊर्जस्वित कर देती है।

वह आटे की थाली पर/ उकेरती है शब्द/ रंगोली में फुटबॉल, किताबें, नदियाँ /और पहाड़..

……

वह स्त्री है/ सूरज के आने से पहले/  उठती है/ हाथ में रंग कूची लिए/ अपना सूरज/स्वयं बनाती है..

…….

वो अपने घर का सूरज थी/  वो स्त्री थी..

संग्रह में स्त्री संवेदना मुख्य रूप से अभिव्यक्त हुई है। अलबत्ता ऐसा नहीं है कि सारा संग्रह इसी पर केंद्रित हो। संग्रह में श्रमिकों की समस्याओं पर ध्यानाकर्षण है, महामारी की वेदना है, किसानों की चर्चा है, व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़ है। ढेर सारी विसंगतियों को कवयित्री बहुत कम शब्दों में पिरो देती हैं-

केंद्र से बहुत दूर/ सारी व्यवस्था के केंद्र में/ आम आदमी..

यह एक स्त्री की रचनाओं का संग्रह है। स्वाभाविक है इनमें करुणा, ममता, वात्सल्य और प्रेम है। घटनाओं, प्रबोधन, प्रवर्तन, युद्ध आदि के मुकाबले प्रेम की सर्वग्राह्यता और अमाप परिधि शब्दों में ढली है।

मैंने क्रांति नहीं की/ मैंने युद्ध भी नहीं किया/ मैंने तो बस प्रेम किया था/ क्रांति तो/ अपने आप हो गई..

स्त्रैण सृष्टि का स्थायी भाव है। वह कायम रहता है। इसी भाँति अक्षर का क्षरण नहीं होता,  अक्षर सदा कायम रहता है। कवयित्री भारती संजीव का यह कविता संग्रह उनके चिंतन और सृजन के प्रति आशा जगाता है। विश्वास किया जाना चाहिए कि आने वाले समय में कवयित्री  पाठकों की इस आशा को कायम रखेंगी।

कायम होना चाहती हूँ/ जैसे कायम होती है/ नमी, समुद्री किनारों पर/ रंग और खुशबू बहारों पर/ झिलमिलाहट सितारों पर/ स्वच्छंदता हवाओं पर..

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 167 ☆ “इत्ती सी बात” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक … श्री विजी श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री विजी श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित पुस्तक “इत्ती सी बात…” (व्यंग्य संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 167 ☆

“इत्ती सी बात” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक … श्री विजी श्रीवास्तव चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

व्यंग्य संग्रह … इत्ती सी बात

लेखक .. विजी श्रीवास्तव, भोपाल

प्रकाशक .. वनिका पब्लीकेशन, बिजनौर

पृष्ठ ..२२४, मूल्य ३५० रु

चर्चाकार …विवेक रंजन श्रीवास्तव

सतीश शुक्ल का उपन्यास “इत्ती सी बात” नाम से ही प्रकाशित हुआ था, जिसमें दो दोस्तों की कहानियां थी। १९८१ में एक फिल्म आई थी “इतनी सी बात” पारिवारिक ड्रामा था। कोरोना के बाद एक फिल्म आई ‘इत्तू सी बात’ जिस की कहानी इत्ती सी है कि अपनी प्रेमिका से आई लव यू सुनने के लिए एक युवा को आईफोन का जुगाड़ करना है। कहने का आशय यह कि “इत्ती सी बात” में ऐसी बड़ी बातें समाई होती हैं जो बार बार रचनाकारों को आकर्षित करती रहती हैं। व्यंजना के धनी विजी श्रीवास्तव का व्यंग्य संग्रह इत्ती सी बात २०१९ में आया। पिछले लंबे समय से मेरे तकिये के पास था, और मैं इसे मजे लेकर चबा चबा कर पढ़ता रहा। आज आजाद ख्याल विजी भाई का जनमदिन भी है और देश की आजादी की भी वर्षगांठ है, सोचा इत्ती सी बात पर कुछ चर्चा करके विजी जी को बधाई दे दूं। अस्तु।

व्यंग्य पुरोधा डा ज्ञान सर ने लिखा है कि विजी किसी महत्वाकांक्षा के बिना एक बड़े से व्यंग्य लेखक हैं। व्यंग्य यात्रा के सारथी डा प्रेम जनमेजय जी विजी को अपनी पसंद का लेखक बताते हैं। किताब में सम्मलित स्फुट रूप से लिखे गये विभिन्न विषयों के ७२ व्यंग्य लेखों पर व्यंग्य के प्रखर आलोचक सुभाष चंदर जी किताब को सार्थक व्यंग्य की बानगी बताते हैं, व्यंग्य के अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ आलोक पुराणिक ने विजी की व्यंग्य साधना को सहज निरुपित किया है। अनूप शुक्ल इन्हें बिना लाग लपेट के लिखे गये बताते हैं। और शांति लाल जैन जी ने इन व्यंग्य लेखों की भाषा में नटखट चुलबुलापान दूंढ़ निकाला है। समकाल के व्यंग्य परिदृश्य के इस प्रमाणीकरण के बाद लिखने को शेष कम बचता है। स्वयं विजी अपने बिगड़े बोल में किताब को कैक्टस का गुलदस्ता बताते हैं।

विजी चाहते तो इतने स्तरीय कलेवर से कम से कम दो किताबें प्रकाशित कर सकते थे। लंबे समय का विविध स्फुट लेखन किताब में संग्रहित है। कुछ विषय जिन्हें मैंने पढ़ते हुये रेखांकित किया, का उल्लेख करता हूं ” गुरु द्रोण तुम कहाँ हो” “सत्य जो ढूँढन मैं चला” “मुझे अवार्ड लौटाना है” “किसान की आत्मा धरने पर” “कट-कॉपी पेस्ट” “हिन्दी के आँसुओं का विश्लेषण” “विकास की चिंता और इकत्तीस मार्च ” “हिन्दुस्तानी चैनल की बहस” “मौत का मुआवज़ा” “इत्ती सी बात”

” सब कुछ प्रायोजित है” “पेन देंगे भाईसाहब ” …. प्रत्येक व्यंग्य दूसरे से कुछ बढ़कर लगा। पूरी किताब गुदगुदाती है, ऐसा लगता है कि ये मेरी अपनी अनुभुति है, बल्कि कई विषयों पर मैंने भी लिखा ही है, किसी दूसरी तरह किसी भिन्न शीर्षक से, पर यह तय है कि जिन मुद्दों पर संवेदनशील मन कचोटता है, उन पर विजी जी ने कलम चलाई है, बेबाकी से पूरी निष्ठुरता से बिना डरे, व्यंग्य के कौशल व्यंजना और लक्षणा के बोध के साथ संप्रेषण की योग्यता के साथ चलाई है। वे अपने लक्षित पाठकों तक कथ्य पहुंचाने में सफल पाये गये। सभी व्यंग्य छोटे हैं पर लक्ष्य बेधन में सफल हैं। शीर्षक व्यंग्य “इत्ती सी बात ” से उधृत है ” आजादी के इत्ते सालों बाद हमने विकास का जित्ता सफर तय किया है उत्ता तो हमने न जाने कब पीछे छोड़ दिया होता जो उत्ता लुटे न होते ” कित्ती कित्ती कुर्बानियों से बने देश में इत्ती इत्ती सी बात पर झगड़ने से हम कित्ता कित्ता खुद का नुकसान कर लेते हैं ” ऐसी सरल शैली में इत्ती वाजिब चिंता विजी के विजन और सोच बताती है।

“बड़े बाबू की पर्सनल डायरी” में विजी एक नये तरीके से डायरी के पन्नो को व्यंग्य बनाने की क्षमता प्रदर्शित करते हुये एक सर्वथा भिन्न शैली में लिखते हैं। इसी भांति ” तोड़ी नाखो, फोड़ी नाखो, भूको करी नाखो ” नाट्य संवाद शैली का व्यंग्य है। अमिताभ बच्चन और किसान चैनल में भी उन्होंने नवीनता का बोध करवाया है, सुप्रसिद्ध टी वी कार्यक्रम के बी सी की तर्ज पर कटाक्ष से भरपूर सवाल हैं जो किसान के परिदृश्य में करुणा, संवेदना और दर्द से पाठक को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकते। वे अपनी आजीविका में कृषि जगत से जुड़े हुये हैं और उन्होंने जो कुछ बहुत पास से देखा उसे पाठको को उसी भाव से संप्रेषित करने में सफलता अर्जित की है। “रेप से बेअसर रेपो” कटु सचाई है। दुखद है कि विजी ने जो मुद्दे व्यंग्य के लिये चुने वे समाज का शाश्वत नासूर बन रहे हैं। कहा जाता है कि व्यंग्य की उम्र अधिक नहीं होती वह अखबारी होता है, किंतु व्यंग्यकार की दृष्टि, और उसकी अभिव्यक्ति सशक्त हो तो व्यंग्य दीर्घ जीवी बन जाता है, क्योंकि मूल मानवीय और सामाजिक प्रवृतियां किंबहुना स्वरूप बदल बदल कर वही बनी हुई हैं। किताब चर्चा योग्य है, खरीदकर पढ़ना घाटे का सौदा बिल्कुल नहीं है। किताब का अंतिम पैरा पढ़वाता हूं ” अजीबो गरीब कहानियों की जलेबी, फेकम फाँक पगे घेवर, गठजोड़ का खत्टा चिरपरा मिक्चर, किसी को पच नहीं रहा। …. चूरण की जरूरत किसे है ? जनता को या उन्हें जिनकी न लीलने की सीमा न उगलने का शउर है। “न लीलने की सीमा न उगलने का शउर ” से।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती” (काव्य संग्रह) – लेखक : श्री कुल राजीव पंत ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती” (काव्य संग्रह) – लेखक : श्री कुल राजीव पंत ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती

कवि : कुल राजीव पंत

प्रकाशक : प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली

मूल्य : 250 रुपये 

☆ प्रकृति, पहाड़ और नदी के प्रेम की कवितायें : पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती – कमलेश भारतीय ☆

शिमला जब कभी जाना हुआ, किसी साहित्यिक समारोह में कुल राजीव पंत से, उनकी प्यारी सी, मासुम सी मुस्कान से मुलाकात जरूर हुई । कभी आराम से बैठकर तो नहीं लेकिन जब जब कोई रचना सुनी, तब तब कुछ अच्छा सा महसूस हुआ । मैं सोचता था कि वे शिमला में रहते हैं लेकिन यह मुगालता दूर हुआ उनके काव्य संग्रह में लिखे परिचय से कि वे तो सोलन में रहते हैं पर जब बातचीत की तो यह मुगालता भी टूट गया कि उनके पिता बरसों पहले सोलन  उत्तराखण्ड के रूद्रप्रयाग के पास से आये और यहीं बस गये । यही हिमाचल में ही कुल राजीव का जन्म हुआ, इस तरह वे एक पर्वतीय प्रदेश से दूसरे पर्वतीय प्रदेश में आ बसे। यहीं पढ़े, लिखे, नौकरी की हिमाचल विश्वविद्यालय, शिमला में !

यह पृष्ठभूमि इसलिए कि बता सकूं कि  कुल राजीव पंत किस तरह जन्म से लेकर अब तक, जीवन की सांध्य बेला में भी पहाड़, प्रकृति और नदी से सीधे सीधे जुड़े हैं और ऐसे ही उनकी कवितायें ये बताती हैं कि पहाड़ का दर्द क्या है, पहाड़ पर किस तरह धीरे धीरे कब्ज़ा किया जा रहा है, बाज़ार की ओर से, कैसे चिड़िया की तरह एक एक कर उसकी संपदा, उसका सौंदर्य, उसकी मासूमियत और भोलापन छींना जा रहा है, लूटा जा रहा है पहाड़ से ही चुरा कर कैसे शुद्ध पानी और हवा का व्यापार बढ़ रहा है, कैसे पेड़ पर ही शुद्ध हवा का विज्ञापन चस्पां किया जा रहा है ! सच कहूं, ये पहाड़ के दर्द, पीड़ा और उसकी आत्मा को सामने लातीं, असली, बिल्कुल प्रकृति से जुड़ी कवितायें हैं ! एक पहाड़ के आदमी ने पहाड़ के झेले दर्द बड़ी ईमानदारी से बयान किये हैं ! वैसी ही मासूम, भोली सी भाषा में, जैसे पहाड़ी होते हैं या माने जाते हैं । इन कविताओं से गुजरते गुजरते जैसे मैं पहाड़ों के दर्द से गुजरता गया और मुंह से आह और वाह निकलता गया । आह, इसलिए कि कितना खरा व सच्चा लिखा है दर्द पहाड़ का और वाह इसलिए कि कितना खूबसूरत लिखा है ! सबसे खरी खरी बात कही है, इन पंक्तियों में :

हां, किताबों में

खूब बयां होते हैं पहाड़ के दर्द

लेकिन अफ़सोस

पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती!!

इसी तरह पहाड़ को बचाने के लिए की जाने वाली गोष्ठियों की पोल खोलती है कविता – पहाड़ पर पहाड़ के लिए!

दुनिया भर के देवता प्रतिष्ठित हैं

बड़े बड़े हैं उनके मंदिर

इसलिए तुम तो सबसे ज्यादा सुखी होंगे

पर तुम तो सदियों से

इतने दुख सह रहे हो

और हमें कोई खबर ही नहीं !

कितने दर्द सहता आ रहा है पहाड़, कितनी सताई जा रही है प्रकृति और हम शुद्ध हवा,, पानी को तरसते जा रहे हैं ! कितनी प्यारी प्यारी कल्पनाओं से भी और सच्चाई से भी जुड़ी हैं कवितायें! छाते में बारिश मे भीगते, किसी को साथ लेकर चलते कितनी यादे चली आती हैं और पुराने बाज़ार और‌ शहरों का चित्रण भी!

लिखना चाहूँ तो लिखता चला जाऊ़ लेकिन बस, इतना लिखना चाहता हू कि पहाड़, प्रकृति और समाज पर इस संग्रह की कवितायें बहुत सच्ची और खरी हैं। इन्हें‌ निश्चय ही पढ़ा जाना चाहिए और खूबसूरत मुखपृष्ठ भी आमंत्रित करता जान पड़ता है कि प्रकृति के निकट आओ, दोस्तो! नदी के जूड़े में जंगल ने फूल टांके हैं और नदी शर्मा, सकुचाई सी है! पहाड़ और छाते का साथ और बहुत सी प्रेम कथायें लेकिन चिंता कि ऑक्सीजन बार खुलने लगे हैं और पतझर का मायका पहाड़ मूक दर्द सह रहा है !

फ्लैप पर प्रो कुमार कृष्ण ने भी कहा है कि ये कवितायें सृजनात्मक अनुभव और जीवनानुभव से निकली हैं। ये नदी के पांव से लेकर पृथ्वी पर चलने के लिए आतुर है तो आपकी आतुरता इन कविताओं को पढ़ने की बढ़ती जायेगी, निश्चित है। बहुत बहुत बधाई, कुल राजीव! अबकि शिमला मिलेंगे तो आपकी कविताओं पर खुलकर बात करेंगे।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – बात इतनी सी सै! — लेखक- डॉ. रमेश मिलन ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 9 ?

?बात इतनी सी सै!लेखक- डॉ. रमेश मिलन  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक- बात इतनी सी सै!

विधा- लघु नाट्य संग्रह

लेखक- डॉ. रमेश मिलन

प्रकाशन- आकाशगंगा पब्लिकेशन, दिल्ली

? धाराप्रवाह धारावाहिक  श्री संजय भारद्वाज ?

देखना, बोलना, सुनना मनुष्य जीवन में अनुभूति और अभिव्यक्ति के अभिन्न अंग हैं। यही कारण है कि मनुष्य देखा, बोला, सुना, प्राय: अपने संगी-साथियों के साथ साझा करता है। देखने, बोलने, सुनने का साझा रूप है नाटक। वस्तुत: जीवन के प्रसंगों और घटनाओं का रेपलिका है नाटक। मनुष्य की भावनाओं से व्यापक अंतरंगता ने भरतमुनि से हज़ारों वर्ष पूर्व नाट्यशास्त्र की रचना करवाई। पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव के साथ ही सृष्टि के रंगमंच पर पात्रों की आवाजाही त्रिकाल सत्य है। इस सत्य को व्यक्त करते हुए शेक्सपियर ने लिखा, ‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।

रंगकर्म अथवा नाटक अपने आरंभिक समय में लोकनाट्य के रूप में उभरा। कालांतर में सभागारों तक पहुँचा। समय ने करवट ली और और दूरदर्शन के धारावाहिकों के रूप में विकसित हुआ नाटक।

डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ द्वारा लिखित  ‘बात इतनी सी सै’, विभिन्न विषयों पर दूरदर्शन के लिए लिखे अलग-अलग लघु नाट्यों का संग्रह है।

इन धारावाहिकों या एपिसोड का लेखन काल लगभग साढ़े तीन दशक पुराना है। स्वाभाविक है कि तत्कालीन समाज की भाषा, सोच, मूल्य, ऊहापोह जैसे अनेक बिंदु इनमें दृष्टिगोचर होते हैं। यही लेखन की कसौटी भी है जिस पर  लेखक खरा उतरता है।

सच्चा साहित्य वह है जो त्रिकाल तक अपने दृष्टि का विस्तार कर सके। उसकी आँखों में समकालीनता का प्रकाश हो, साथ ही अंतस में सार्वकालिकता का अखंड दीप भी प्रज्ज्वलित हो रहा हो। भूत, भविष्य और वर्तमान में प्रासंगिक बने रहना, लेखन की बड़ी उपादेयता है।

नाट्यलेखन के कुछ तत्व एवं सूत्र हैं। कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, संवाद, देशकाल, शैली आदि का विस्तृत विवेचन लघु भूमिका में वांछित नहीं है। सारांश में कहना चाहूँगा कि नाटक की  प्रवहनीयता, उसकी सहजता और विश्वसनीयता भी होती है। नाटक नाटक तो हो पर नाटकीय न हो तो लेखन सफल है। इस आधार पर संग्रह के धारावाहिक सफल हैं।

इस सफलता की एक बानगी है, शादी, ब्याह से लौटने के बाद मिठाई और पकवान की विविधता और स्वाद पर बातें करना। इसी तरह बहू का सास के  पैर दबाना तत्कालीन जीवन मूल्यों की ओर संकेत करता है। “लड़की जैसे हीरा और तू हीरे की जौहरी..” जैसे संवाद अपने इर्द-गिर्द एवं परिवेश के लगते हैं। धारावाहिक के पात्र स्नेह, सम्मान, खीज, मतभेद सभी  जीते हैं। रिश्ते, सम्मानजनक सीमा का पालन करते हैं। इसके चलते संबंध आयातित नहीं लगते। वर्तमान में अनेक धारावाहिकों में सास-बहू एक दूसरे के विरुद्ध जानलेवा षड्यंत्र करते दीखती हैं। ऐसे में  एक साथ बैठकर धारावाहिक देखती सास और बहू दोनों के मन में यह प्रश्न उठता है कि ये कौनसी दुनिया के रिश्ते हैं? संबंध की नींव षड्यंत्र नहीं विश्वास होती है। ‘इतनी सी बात’ के पात्र इस विश्वास का निर्वाह करते हैं।

अलबत्ता नये रिश्ते जोड़ते समय आदमी के भीतर का लोभ, अपना लाभ तलाशता है। “एक हज़ार गज़ में दोमंजिला मकान,… पाँच सौ बीघा जमीन, एक लाख नगद दिलवा दूँगा,… घर भर देगा”,  जैसे संवाद इस लोभ को मुखर करते हैं। आदमी ऊपरी तौर पर आदर्शों की कितनी ही बात कर ले लेकिन निजी लाभ की स्थिति बनते ही सुविधा के गणित पर आ जाता है।  “क्या मैं दुनिया से न्यारी हूँ..” इस सुविधा का  प्रतिनिधि प्रस्तुतिकरण है। “..ब्याह शादी के कमीशन लेकर नहीं खाया करते../ अपना लोक-परलोक मत बिगाड़ना…” जैसे संवाद भारतीय दर्शन विशेषकर ग्रामीण और छोटे शहरों में भीतर तक पैठे सांस्कृतिक मूल्यों की सहज अभिव्यक्ति हैं।

ये धारावाहिक दूरदर्शन के लिए लिखे गए थे। अतः  इनके माध्यम से सरकारी नीतियों और योजनाओं का प्रचार-प्रसार होना स्वाभाविक है। “…पढ़ाई गाँव में इस्तेमाल करूँगा../ नए तौर-तरीके इस्तेमाल करूँगा..” जैसे संवाद इसके उदाहरण हैं।  “लड़का 21 बरस का, लड़की 18 बरस की न हो तो कानून में जुर्म है” यह वाक्य भी दहेज की मानसिकता के विरुद्ध जनजागरण के सरकार के प्रयासों और  कानून की जानकारी कथासूत्र में पिरोकर देता है।

इन धारावाहिकों का लेखन साँचाबद्ध एवं धाराप्रवाह है। यूँ भी धाराप्रवाह न हो तो धारावाहिक कैसा? कथासूत्र में ‘वॉट नेक्स्ट’ अर्थात ‘आगे क्या घटित होगा’ का भाव होना अनिवार्य तत्व है। इस संग्रह में यह भाव

पाठक की उत्कंठा को बनाए रखता है।

‘बात इतनी सी सै’ की बात दूर तक जाने में सक्षम है। आशा है जिज्ञासु पाठकों और इस क्षेत्र विशेषकर संहिता लेखन में काम कर रहे  नवोदितों के लिए यह संग्रह उपयोगी सिद्ध होगा।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “मैं एकलव्य नहीं” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री जगदीश कुलरिया ☆ श्री कमलेश भारतीय☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “मैं एकलव्य नहीं” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री जगदीश कुलरिया ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : मैं एकलव्य नहीं (लघुकथा संग्रह)

लेखक : श्री जगदीश कुलरिया

प्रकाशक : के पब्लिकेशन, बरेटा (पंजाब)

मूल्य : 199 रुपये

☆ एक सोच और समर्पण के साथ लिखीं लघुकथायें – कमलेश भारतीय ☆

हिंदी व पंजाबी में एकसाथ सक्रिय जगदीश कुलरिया पंजाब से आते हैं और अनुवाद में तो अकादमी पुरस्कार भी पा चुके हैं । पंजाब के मिन्नी आंदोलन से जुड़े हैं और उनका ‘मैं एकलव्य नहीं’ लघुकथा संग्रह मिला तो लगभग दो ही दिनों में इसके पन्नों से गुजर गया और महसूस किया कि कुलरिया एक सोच और समर्पण के साथ लघुकथा आंदोलन से जुड़े हैं, कोई शौकिया या रविवारीय लेखन नहीं   करते है । अनेक पत्रिकाओं में इनकी रचनायें पढ़ने को मिलती हैं । शुरुआत के पन्नों में जगदीश कुलरिया ने अपने लघुकथा से जुड़ने और अब तक कि लघुकथा लेखन-यात्रा के अनुभवों का विस्तार से जिक्र करते लघुकथा के प्रति अपने समर्पण व दिशा और सोच के बारे में खूब लिखा है और अपनी कुछ लघुकथाओं का उल्लेख भी किया है उदाहरण भी दिये हैं । लघुकथायें समाज व आसपास से ही हुए अनुभवों पर आधारित हैं, जिनमें थर्ड जेंडर, रिश्वत, नेता का रोज़नामचा, ज़मीन के बटवारे के बीच अवैध संबंधों की पीड़ा और महिलाओं के सशक्तिकरण व एकलव्य की तरह अब अंगूठा न कटवाने जैसी घटनायें या कहिये अनुभव इनकी लघुकथाओं के आधार बने हैं और समाज को आइना दिखाते हैं । असल में आजकल मैं एक एक लघुकथा या रचना पर बात न कर, इनकी आधारभूमि को टटोलता हूँ और फिर लघुकथा के सृजन की पीड़ा को समझने का प्रयास करता हूँ। सौ पृष्ठों में फैली पुस्तक को अंतिम पन्ने तक पढ़ा है, जिसमें जगदीश कुलरिया का लघुकथा के प्रति समर्पण और लघुकथा के क्षेत्र में योगदान सब उभर कर सामने आया है । बधाई। लगे रहो कुलरिया भाई । हिंदी व पंजाबी लेखन के बीच एक शानदार पुल की भूमिका भी निभा रहे हो ।

लघुकथा संग्रह पेपरबैक में है और मुखपृष्ठ भी खूबसूरत है। बहुत बहुत बधाई । ऐसा लगता है यह लघुकथा संग्रह स्वयं कुलरिया ने ही प्रकाशित किया है, जो बहुत खूबसूरत आया है।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 166 ☆ “नौकरी धूप सेंकने की” – लेखक … श्री सुदर्शन सोनी ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री सुदर्शन सोनी द्वारा लिखित पुस्तक “नौकरी धूप सेंकने की…” (जीवनी) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 165 ☆

☆ “नौकरी धूप सेंकने की” – लेखक … श्री सुदर्शन सोनी ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

व्यंग्य संग्रह  – नौकरी धूप सेंकने की

लेखक – श्री सुदर्शन सोनी, भोपाल

प्रकाशक …आईसेक्ट पब्लीकेशन, भोपाल

पृष्ठ ..२२४, मूल्य २५० रु

चर्चा …. विवेक रंजन श्रीवास्तव

मो ७०००३७५७९८

धूप से शरीर में विटामिन-D बनता है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की मानें, तो विटामिन डी प्राप्त करने के लिए सुबह 11 से 2 बजे के बीच धूप सबसे अधिक लाभकारी होती है। यह दिमाग को हेल्दी बनाती है और इम्यून सिस्टम को मजबूत करती है। आयुर्वेद के अनुसार, शरीर में पाचन का कार्य जठराग्नि द्वारा किया जाता है, जिसका मुख्य स्रोत सूर्य है। दोपहर में सूर्य अपने चरम पर होता है और उस समय तुलनात्मक रूप से जठराग्नि भी सक्रिय होती है। इस समय का भोजन अच्छी तरह से पचता है। सरकारी कर्मचारी जीवन में जो कुछ करते हैं, वह सरकार के लिये ही करते हैं। इस तरह से यदि तन मन स्वस्थ रखने के लिये वे नौकरी के समय में धूप सेंकतें हैं तो वह भी सरकारी काम ही हुआ, और इसमें किसी को कोई एतराज  नहीं होना चाहिये। सुदर्शन सोनी सरकारी अमले के आला अधिकारी रहे हैं, और उन्होंने धूप सेंकने की नौकरी को बहुत पास से, सरकारी तंत्र के भीतर से समझा है। व्यंग्य उनके खून में प्रवाहमान है, वे पांच व्यंग्य संग्रह साहित्य जगत को दे चुके हैं, व्यंग्य केंद्रित संस्था व्यंग्य भोजपाल चलाते हैं। वह सब जो उन्होने जीवन भर अनुभव किया समय समय पर व्यंग्य लेखों के रूप में स्वभावतः निसृत होता रहा। लेखकीय में उन्होंने स्वयं लिखा है ” इस संग्रह की मेरी ५१ प्रतिनिधि रचनायें हैं जो मुझे काफी प्रिय हैं “। किसी भी रचना का सर्वोत्तम समीक्षक लेखक स्वयं ही होता है, इसलिये सुदर्शन सोनी की इस लेखकीय अभिव्यक्ति को “नौकरी धूप सेंकने की” व्यंग्य संग्रह का यू एस पी कहा जाना चाहिये। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने किताब की भूमिका में लिखा है ” सरकारी कर्मचारी धूप सेंक रहे हैं, दफ्तर ठप हैं, पर सरकार चल रही है, पब्लिक परेशान है। सरकार चलाने वाले चालू हैं वे काम के वक्त धूप सेंकते हैं। ”

मैंने “नौकरी धूप सेंकने की” को पहले ई बुक के स्वरूप में पढ़ा, फिर लगा कि इसे तो फुरसत से आड़े टेढ़े लेटकर पढ़ने में मजा आयेगा तो किताब के रूप में लाकर पढ़ा। पढ़ता गया, रुचि बढ़ती गई और देर रात तक सारे व्यंग्य पढ़ ही डाले। लुप्त राष्ट्रीय आयटम बनाम नये राष्ट्रीय प्रतीक, व्यवस्था का मैक्रोस्कोप, भ्रष्टाचार का नख-शिख वर्णन, साधने की कला, गरीबी तेरा उपकार हम नहीं भूल पाएंगे, मेवा निवृत्ति, बाढ़ के फायदे, मीटिंग अधिकारी, नौकरी धूप सेकने की, सरकार के मार्ग, डिजिटाईजेशन और बड़े बाबू,  एक अदद नाले के अधिकार क्षेत्र का विमर्श आदि अनुभूत सारकारी तंत्र की मारक रचनायें हैं। टीकाकरण से पहले कोचिंगकरण  से लेखक की व्यंग्य कल्पना की बानगी उधृत है ” कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो अजन्मे बच्चे की कोचिंग की व्यवस्था कर लेंगे “। लिखते रहने के लिये पढ़ते रहना जरूरी होता है, सुदर्शन जी पढ़ाकू हैं, और मौके पर अपने पढ़े का प्रयोग व्यंग्य की धार बनाने में करते हैं, आओ नरेगा-नरेगा खेलें  में वे लिखते हैं ” ये ऐसा ही प्रश्न है जेसे फ्रांस की राजकुमारी ने फ्रासीसी क्रांति के समय कहा कि रोटी नहीं है तो ये केक क्यों नहीं खाते ?  “सर्वोच्च प्राथमिकता” सरकारी फाइलों की अनिवार्य तैग लाइन होती है, उस पर वे तीक्षण प्रहार करते हुये लिखते हैं कि सर्वोच्च प्राथमिकता रहना तो चाहती है सुशासन, रोजगार, समृद्धि, विकास के साथ पर व्यवस्था पूछे तो। व्यंग्य लेखों की भाषा को अलंकारिक या क्लिष्ट बनाकर सुदर्शन आम पाठक से दूर नहीं जाना चाहते, यही उनका अभिव्यक्ति कौशल है।

अगले जनम हमें मिडिल क्लास न कीजो, अनेक पतियों को एक नेक सलाह, हर नुक्कड़ पर एक पान व एक दांतों की दुकान, महँगाई का शुक्ल पक्ष, अखबार का भविष्यफल, आक्रोश जोन, पतियों का एक्सचेंज ऑफर, पत्नी के सात मूलभूत अधिकार, शर्म का शर्मसार होना वगैरह वे व्यंग्य हैं जो आफिस आते जाते उनकी पैनी दृष्टि से गुजरी सामाजिक विसंगतियों को लक्ष्य कर रचे गये हैं। वे पहले अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो व्यंग्य संग्रह लिख चुके हैं। डोडो का पॉटी संस्कार, जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन इससंग्रह में उनकी पसंद के व्यंग्य हैं। अपनी साहित्यिक जमात पर भी उनके कटाक्ष कई लेखों में मिलते हैं उदाहरण स्वरूप एक पुरस्कार समारोह की झलकियां, ये भी गौरवान्वित हुए, साहित्य की नगदी फसलें, श्रोता प्रोत्साहन योजना, वर्गीकरण साहित्यकारों का : एक तुच्छ प्रयास, सम्मानों की धुंध, आदि व्यंग्य अपने शीर्षक से ही अपनी कथा वस्तु का किंचित प्रागट्य कर रहे हैं।

एक वोटर के हसीन सपने में वे फ्री बीज पर गहरा कटाक्ष करते हुये लिखते हैं ” अब हमें कोई कार्य करने की जरूरत नहीं है वोट देना ही सबसे बड़ा कर्म है हमारे पास “। संग्रह की प्रत्येक रचना लक्ष्यभेदी है। किताब पैसा वसूल है। पढ़ें और आनंद लें। किताब का अंतिम व्यंग्य है मीटिंग अधिकारी और अंतिम वाक्य है कि जब सत्कार अधिकारी हो सकता है तो मीटिंग अधिकारी क्यों नहीं हो सकता ? ऐसा हो तो बाकी लोग मीटिंग की चिंता से मुक्त होकर काम कर सकेंगे। काश इसे व्यंग्य नहीं अमिधा में ही समझा जाये, औेर वास्तव में काम हों केवल मीटिंग नहीं।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मैं सिमट रही हूँ — कवयित्री – रेखा सिंह ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 8 ?

?मैं सिमट रही हूँ — कवयित्री – रेखा सिंह  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- मैं सिमट रही हूँ

विधा- कविता

कवयित्री – रेखा सिंह

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? फल्गु की तरह अंतर्स्रावी कविताएँ  श्री संजय भारद्वाज ?

भूमिति के सिद्धांतों के अनुसार रेखा अनगिनत बिंदुओं से बनी है। इसमें अंतर्निहित हर बिंदु में एक केंद्र होने की संभावना छिपी होती है। ऐसे अनेक संभावित केंद्रों का समुच्चय हैं कवयित्री रेखा सिंह। परिचयात्मक कविता में वे अपनी क्षमताओं, संभावनाओं और आत्मविश्वास का स्पष्ट उद्घोष भी करती हैं-

मैं तो रेखा हूँ

मुझमें क्या कमी…!

प्रस्तुत कवितासंग्रह में कवयित्री ने अपने समय के अधिकांश विषयों को बारीकी से छूने का प्रयास किया है। नारी विमर्श, परिवार, आक्रोश, विवशता, गर्भ में पलता स्वप्न, लोकतांत्रिक चेतना, प्रकृति, विसंगतियाँ, धार्मिकता, अध्यात्म जैसे अनेक बिंदु इस रेखा में समाहित है। अपने परिप्रेक्ष्य से शिकायत का स्वर गूँजता है-

मैं गाती / यदि गाने का मौका दिया होता

मैं हँसाती / यदि हँसने का मौका दिया होता

ये शिकायत नारी की विशाल दृष्टि और परिवर्तन की अदम्य जिजीविषा में रुपांतरित होती है। कवयित्री इला के अंतराल में समानेवाली सीता नहीं बनना चाहती। दीपिका तो अवश्य जलेगी भले उजाले में ही क्यों न जलानी पड़े। मीमांसा तार्किक है, उद्देश्य स्पष्ट है-

अंधेरे में जलाऊँगी दीपिका,

क्योंकि उजाले में

दीपिका का अस्तित्व

तुम नहीं समझ सके !

अपराजेय नारीत्व चरम पर पहुँचता है, अभिव्यक्त होता है-

ओ सिकंदर,

तुम, विश्वविजेता बन सकते,

मुझे नहीं जीत सकते..!

पर सिकंदर का प्रेम पाते ही सारी कुंठाएँ विसर्जित हो जाती हैं। प्रेम के आगे सारे वाद बौने लगने लगते हैं। कवयित्री का स्त्रीत्व कलकल प्रवाहित होने लगता है-

आज कोई सिकंदर,

मेरे आगे झुका है,

आज फिर किसी नल ने

दमयंती से स्वयंवर रचाया है,

आ, अब लौट चलें अपनी दुनिया में,

बाकी पल गुज़ार लेंगे हँसते-हँसते..!

मानव के भीतर की आशंका से कवयित्री रू-ब-रू होती हैं, प्रश्न करती हैं-

क्या होती हैं विभ्रम की प्रवृत्तियाँ?

रस्सी को सर्प समझने की रीतियाँ?

रेखा सिंह ने समाज को समग्रता से देखने का प्रयास किया है। ‘सास-बहू’ के उलझे समीकरणों के तार सुलझाने की ईमानदार कोशिश है ‘काश’ नामक कविता। ‘धरातल’ राजनीतिक-सामाजिक विषमता के धरातल पर खड़े देश की सांप्रतिक पीड़ा का स्वर बनती है। ‘जोगी’ ‘स्नातक-भिक्षुक’ बनाती हमारी शिक्षानीति पर व्यंग्य करती है तो ‘जंगल की ओर’ सभ्यता की यात्रा की दिशा पर गंभीर प्रश्न खड़े करती है। ‘आखिर क्यों’ और इस भाव की अन्य कविताएँ आतंकवाद की मीमांसा करने का प्रयास करती हैं।

शासनबद्धता का चोला ओढ़कर अन्याय को रोक पाने में असमर्थता व्यक्त करनेवाले भीष्म पितामह को आदर्श मानने से इंकार करना कवयित्री का सत्याग्रह है। ‘गंगापुत्र’ नामक इस कविता में दायित्व से बचने के बहाने तलाशनेवाली मानसिकता पर कठोर प्रहार है। संवेदना से लबरेज़ संग्रह की इन कविताओं में मनुष्य के सूक्ष्म मन को स्पर्श करने का सामर्थ्य है। ‘पुश्तैनी घर’ में ये संवेदना भारतीय प्रतीकों के संकेत से प्रखरता उभरी है। यथा-

तुलसी का चबूतरा

बन गया दीवार बंटवारे की..!

शहर द्वारा अपहृत होते गाँव ‘अनमोल’ कविता में सजीव हो उठते हैं-

सींचता बही जो बोता है,

उसके अंदर एक बच्चा रोता है..

झारखंड की हरित पृष्ठभूमि में रची गई इन कविताओं में प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है। अधिकांश कविताओं में ऋतुओं का वर्णन शृंगार रस में हुआ है। संग्रह में कई गीत भी शामिल किए गए हैं। इनमें गेयता और मिठास दोनों हैं। पूरे संग्रह में आँचलिकता मिश्री-सी घुली हुई है और उसकी माटी की सुगंध हर रचना में समाहित है। ‘चंबर’, ‘मोजराई गंध’, ‘तुदन’ जैसे शब्द पाठक को कविता की कोख तक ले जाते हैं। ‘शिवजी की बरात’, ‘कल्पगा की धार’ जैसे प्रतिमान लोकसंस्कृति के स्वर को शक्ति प्रदान करते हैं। पपीहा तो कवयित्री के मन से निकलकर कई बार कविता के अनेक पन्नों की सैर कर आता है। ‘मल्हार’ कविता में पंद्रह अगस्त को तीज-त्यौहार से जोड़ना बेहद प्रभावी और सार्थक बन पड़ा है।

कवयित्री ने नारी विमर्श को एकांगी न रखते हुए एक ही कविता से क्यों न हो, पुरुष के मन की भीतरी परतों को टटोलने का प्रयास भी किया है। रेखा सिंह की कुछ हास्य कविताएँ भी इस संग्रह में सम्मिलित हैं। हास्य रस पर कवयित्री की पकड़ साबित करती है कि वे बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं।

शीर्षक कविता ‘मैं सिमट रही हूँ में प्रयुक्त सिमटना को मैं सकारात्मक भाव से सृजन के लिए आवश्यक प्रक्रिया के तौर पर देखता हूँ। बाहर विस्तार के लिए भीतर सिमटना होता है। यह संग्रह इस बात का दस्तावेज़ है कि कवयित्री का रचना सामर्थ्य लोहे के दरवाज़ों की नींव हिलाने में समर्थ है। कितने ही दरवाज़े लग जाएँ, वह ताज़ा हवा का झोंका तलाश लेंगी।

मैं सिमट रही हूँ,

अपने आप में,

धुआँकश कारागार में,

मेरे इर्द-गिर्द लग गए

लोहे के दरवाज़े..!

कवयित्री ने एक रचना में धरती के भीतर प्रवाहित होती फल्गु नदी का संदर्भ दिया है। रेखा सिंह की ये कविताएँ भी फल्गु की तरह अंतर्स्रावी हैं। भीतर ही भीतर प्रवाहित होने के कारण ये अब तक वांछित प्रकाश से वंचित रही हैं। ये अच्छी बात है कि अंतर्स्राव धरती से बाहर निकल आया है। अब इसे सूरज की उष्मा मिलेगी, चंद्र की ज्योत्स्ना मिलेगी। सृष्टि के सारे घात-प्रतिघात, मोह-व्यामोह, प्रशंसा-उपेक्षा सभी मिलेंगे। इनके चलते परिष्कृत होने की प्रक्रिया भी निरंतर चलती रहेगी।

फल्गु अब संभावनाओं की विशाल जलराशि समेटे गंगोत्री-सी कलकल बहने को तैयार है। अपने भूत को झटक कर उसे भविष्य की यात्रा करनी है।

अतीत के पन्ने,

उलटो न बार-बार,

चलते चलो,

कश्ती कर जाएगी

मझधार पार।

शुभाशंसा।

(श्रीमती रेखा सिंह का पिछले दिनों देहांत हो गया। वर्ष 2009 में प्रकाशित उनके कवितासंग्रह ‘मैं सिमट रही हूँ’ की यह समीक्षा दिवंगत को श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं।)

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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