मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ पाने आणि पानगळ… श्री वसंत वसंत लिमये ☆ परिचय – सौ. माधुरी समाधान पोरे ☆

सौ. माधुरी समाधान पोरे

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ पाने आणि पानगळ… श्री वसंत वसंत लिमये ☆ परिचय – सौ. माधुरी समाधान पोरे ☆

पुस्तक परिचय

पुस्तकाचे नाव – पाने आणि पानगळ

लेखक – श्री वसंत वसंत लिमये

पृष्ठसंख्या – 192

लेखकांना  कोकणकडा, गिर्यारोहण याची आवड आहे. ते गडकोट मोहिमांचे नेतृत्व करतात. 1989 मध्ये भारतात प्रथम निसर्ग आणि साहस अशी प्रशिक्षणाची मुहूर्तमेढ रोवली. त्यांच्या नावावर अनेक लेखसंग्रह प्रकाशीत आहेत. त्यांना 2013 सालचा ‘सहकारमहर्षी’  साहित्य पुरस्कार’ मिळाला आहे. 

माणसाचं आयुष्य समृद्ध असतं म्हणजे नक्की काय, तर त्याने आयुष्याच्या वाटेवर जमवलेली अगणित माणसे. लेखकांनी आजवरच्या भटकंतीतून 

जी माणसं जमवली, त्यांची व्यक्तिमत्व म्हणजे ‘पाने आणि पानगळ’ हे पुस्तक. वसंत लिमये यांनी या प्रत्येक व्यक्तीच वर्णन या पुस्तकात ‘एकोणतीस’ लेखांद्वारे केले आहे. त्यांना भेटलेल्या प्रत्येक व्यक्तीबद्दलची आपुलकी, प्रेम नेमकेपणाने मांडले आहे. ही पानं रूजवत ते स्वतःच एक समृद्ध झाड होऊन गेले आहेत.  

‘अस्वस्थ संध्याछाया’ या लेखात लेखकाने त्यांच्या आईबद्दल लिहिले आहे. आईचा सगळा जीवनप्रवास, त्यांची कष्टाळू वृत्ती, खंबीरपणा त्यांनी शब्दबद्ध केला आहे. त्यांची  वडीलांना भक्कम साथ होती. पण वयोमानानुसार होणारे बदल, स्वावलंबन उतारवयात सोडवत नाही. लेखकाला वाटतं आयुष्य एखाद्या वर्तुळासारखं आहे. मोठ्ठा फेरा मारून ते बालपणाच्या जवळ येतं.

‘मरीन कमांडो प्रवीण, त्रिवार वंदन’! .. खरंतर ही कहाणी अंगावर शहारा आणणारी आहे. कमांडो प्रवीण यांचा जाट कुटुंबातील जन्म.  नेव्हीमधे होते. खडतर प्रशिक्षण, एकविसाव्या वर्षी ते कमांडो झाले. 26/11 च्या काळरात्री दहशतवाद्यांचा खातमा करण्यासाठी त्यांना ताजमहाल हाॅटेलमधे जाण्याचे आदेश आले. अतिरेकी एका दालनात दबा धरून बसले होते. कमांडो प्रवीण मेन असल्यामुळे आत गेले, त्यांना गोळया लागल्या अशा अवस्थेत एका अतिरेक्याला जायबंदी केले. त्यामुळे अनेक लोकांचा जीव वाचला. नंतर कमांडो प्रवीण यांच्यावर उपचार करण्यात आले.त्यातून ते सुखरूप बाहेर पडले.  त्यांना खूप पथ्ये सांगितली. पण ते स्वस्थ बसले नाहीत,  हळूहळू लांब चालणं, सोबत योगा, पळणं, पोहणं, अशी सुरुवात केली. साउथ अफ्रिकेत  ‘Iron Man’ हा किताब मिळवला. राखेतून उठून भरारी घेणाऱ्या फिनिक्स पक्ष्यासारखी ही कहाणी आहे. 

‘अटळ, अपूर्ण तरीही परिपूर्ण’  यामधे लेखकांनी त्यांच्या बाबांच्या आठवणी सांगितल्या आहेत. साठ वर्ष त्यांना सहवास लाभला. स्वातंत्र्याच्या चळवळीत त्यांच्या वडीलांचे योगदान होते. त्यांनी आपली मते इतरांवर कधीच लादली नाहीत.  मुलांवर चांगले संस्कार देऊन समृद्ध केले. यश, अपयश, त्यांनी पचवले. परिपूर्ण आयुष्य ते जगले. 

‘किनारा मला पामराला’  यामधे लेखकांनी स्वतःच्या आयुष्यातील चढउतार मांडले आहेत.  मागे वळून पाहताना त्यांना वळणावळणाचा रस्ता दिसतो. आठवीत असताना त्यांचा नंबर घसरून एकतीसवर  आला. प्रगतिपुस्तकावर सही करताना बाबा त्यांना म्हणाले, बाळकोबा यातले तीन काढता आलेतर नक्की काढा…….हा प्रसंग मनावर त्यांनी कायम कोरला. त्यांनी आयुष्यभर सर्वोत्तम हाच धडा गिरवला. अवघड शिड्या लिलया पार केल्या. डोंगरवाटा, कोकणकडा, गिर्यारोहण,  यांनी त्यांना वेड लावले. यासाठी अथक प्रयत्न केले. पत्नीची मोलाची साथ लाभली. त्यांचा मनुष्य संग्रह अफाट आहे. ते स्वतःला भाग्यवान समजतात.  लेखन हा त्यांचा शोधप्रवास आहे. जे जमतं ते करण्यात वेगळीच मजा आहे. 

The summit is what drive us, but the climb itself is what matters……

शिखरं असंख्य आहेत आणि प्रवास सुरूच राहणार आहे.

खरंच ‘पाने आणि पानगळ’ वाचताना लेखकांच्या आयुष्यातील ही सारे पाने खूप काही शिकवून जातात.  प्रत्येक नवीन पान काय असेल याची उत्सुकता लागून राहते. वेगवेगळ्या व्यक्तीमत्वाची पैलूंची  ओळख झाली. यातील डोंगरवाटा, कोकणकडे, गिर्यारोहणाचे अनुभव वाचताना अंगावर शहारे येतात.  चित्ररूपाने हा प्रवास डोळ्यांसमोरून सरकत होता.  तुम्हीही वाचा ही पाने…….

संवादिनी – सौ. माधुरी समाधान पोरे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि –  पुरानी डायरी के फटे पन्ने – कहानीकार – ऋता सिंह ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? समीक्षा का शुक्रवार # 2 ?

? संजय दृष्टि –  पुरानी डायरी के फटे पन्ने – कहानीकार – ऋता सिंह ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक – पुरानी डायरी के फटे पन्ने

विधा – कहानी

कहानीकार – ऋता सिंह

प्रकाशक – क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? प्रभावी कहन – श्री संजय भारद्वाज?

माना जाता है कि कहानी का जन्म मनुष्य के साथ ही हुआ। सत्य तो ये है कि हर आदमी की एक कहानी है।

आदमी एक कहानी लेकर जन्मता है, अपना जीवन एक कहानी की तरह जीता है। यदि एक व्यक्ति के हिस्से केवल ये दो कहानियाँ भी रखी जाएँ तो विश्व की जनसंख्या से दोगुनी कहानियाँ तो हो गईं। आगे मनुष्य के आपसी रिश्तों, उसके भाव-विश्व, चराचर के घटकों से अंतर्संबंध के आधार पर कहानियों की गणना की जाए तो हर क्षण इनफिनिटी या असंख्येय स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

श्रीमती ॠता सिंह

श्रीमती ॠता सिंह की देखी, भोगी, समझी, अनुभूत, श्रुत, भीतर थमी और जमी कहानियों की बस्ती है ‘पुरानी डायरी के फटे पन्ने।’ संग्रह की कुल चौबीस कहानियाँ, इन कहानियों के पात्रों, उनकी स्थिति-परिस्थिति, भावना-संभावना, आशा-आशंका सब इस बस्ती में बसे हैं।

इस बस्ती की व्याप्ति विस्तृत है। बहुतायत में स्त्री वेदना है तो पुरुष संवेदना भी अछूती नहीं है, निजी रिश्तों में टूटन है तो भाइयों में  प्रेम का अटूट बंधन भी है। आयु की सीमा से परे मैत्री का आमंत्रण है तो युद्धबंदियों के परिवार द्वारा भोगी जाती पीड़ा का भी चित्रण है। वृद्धों की भावनाओं की पड़ताल है तो अतीत की स्मृतियों के साथ भी कदमताल है। सामाजिक प्रश्नों से दो-चार होने  का प्रयास है तो स्वच्छंदता के नाम पर मुक्ति का छद्म आभास भी है। आस्था का प्रकाश है तो बीमारी के प्रति भय उपजाता अंधविश्वास भी है। आदर्शों के साथ जीने की ललक है तो व्यवहारिकता की समझ भी है।  

अलग-अलग आयामों की इन कहानियों में स्त्री का मानसिक, शारीरिक व अन्य प्रकार का शोषण प्रत्यक्ष या परोक्ष कहीं न कहीं उपस्थित है। इस अर्थ में ये स्त्री वेदना को शब्द देनेवाली कही जा सकती हैं।

विशेष बात ये है कि स्त्री वेदना की प्रधानता के बावजूद ये कहानियाँ शेष आधी दुनिया के प्रति विद्रोह का बिगुल नहीं फूँकती। पात्र के व्यक्तिगत विश्लेषण को समष्टिगत नहीं करतीं। सृष्टि युग्म राग है, इस युग्म का आरोह-अवरोह लेखिका की कलम के प्रवाह में ईमानदारी से देखा जा सकता है। लगभग आठ कहानियों में कहानीकार ने पुरुष को केंद्रीय पात्र बनाकर उससे बात कहलवाई है। इन सभी और अन्य कहानियों में भी वे पुरुष की भूमिका के साथ न्याय करती हैं।

अतीत को आधार बनाकर कही गई इन कहानियों में इंगित विसंगतियाँ तत्कालीन हैं। विडंबना ये है कि यही ‘तत्कालीन’ समकालीन भी है। इसे समाज का दुर्भाग्य कहिए कि विलक्षणता कि यहाँ कुछ अतीत नहीं होता। अतीत, संप्रति और भविष्य समांतर यात्रा करते हैं तो कभी गडमड भी हो जाते हैं।

बंगाल लेखिका का मायका है। सहज है कि मायके की सुगंध उनके रोम-रोम में बसी है। बंगाली स्वीट्स की तरह ये ‘स्वीट बंगाल’ उनकी विभिन्न कथाओं में अपनी उपस्थिति रेखांकित करवाता है।

कहानी के तत्वों का विवेचन करें तो कथावस्तु सशक्त हैं। देशकाल के अनुरूप भाषा का प्रयोग भी है। कथोपकथन की दृष्टि से देखें तो इन कहानियाँ में केंद्रीय पात्र अपनी कथा स्वयं कह रहा है। अतीत में घटी विभिन्न घटनाओं का कथाकार की स्मृति के आधार पर वर्णन है। इस आधार पर ये कहानियाँ, संस्मरण की ओर जाती दृष्टिगोचर होती हैं।  

लेखिका, शिक्षिका हैं। विद्यार्थियों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए शिक्षक विभिन्न शैक्षिक साधनों यथा चार्ट, मॉडेल, दृक-श्रव्य माध्यम आदि का उपयोग करता है। न्यूनाधिक वही बात लेखिका के सृजन में भी दिखती है। समाज का परिष्कार करना, परिष्कार के लिए समाज की इकाई तक अपनी बात पहुँचाने के लिए वे किसी विधागत साँचे में स्वयं को नहीं बाँधती। ये ‘बियाँड बाउंड्रीज़’ उनके लेखन की संप्रेषणीयता को विस्तार देता है।

अपनी बात कहने की प्रबल इच्छा इन कहानियों में दिखाई देती है। साठोत्तरी कहानी के अकहानी, सहज कहानी, समांतर कहानी जैसे वर्गीकरण से परे ये लेखन अपने समय में अपनी बात कहने की इच्छा रखता है, अपनी शैली विकसित करता है। मनुष्य के नाते दूसरे मनुष्य के स्पंदन को स्पर्श कर सकनेवाला लेखन ही साहित्य है। इस अर्थ में ॠता सिंह का लेखन साहित्य के उद्देश्य तथा शुचिता का सम्मान करता है।

इन अनुभूतियों को ‘कहन’ कहूँगा। ॠता सिंह अपनी कहन पाठक तक प्रभावी ढंग से पहुँचाने में सफल रही हैं। प्रसिद्ध गज़लकार दुष्यंतकुमार के शब्दों में-

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ

तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ।

आपके-हमारे भीतर बसे, अड़ोस-पड़ोस में रहते, इर्द-गिर्द विचरते परिस्थितियों के मारे मूक रहने को विवश अनेक पात्रों को लेखिका  श्रीमती ॠता सिंह ने स्वर दिया है। उनके स्वर की गूँज प्रभावी है। इसकी अनुगूँज पाठक अपने भीतर अनुभव करेंगे, इसका विश्वास भी है।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 161 ☆ “डेड एंड” (कहानी संग्रह) – लेखक – श्री पद्मेश गुप्त ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री पद्मेश गुप्त जी द्वारा लिखित  “डेड एंड” (कहानी संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 161 ☆

☆ “डेड एंड” (कहानी संग्रह) – लेखक – श्री पद्मेश गुप्त ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – डेड एंड (कहानी संग्रह)

लेखक  – श्री पद्मेश गुप्त

प्रकाशक – वाणी प्रकाशन

संस्कारण – पहला संस्करण २०२४,

पृष्ठ – १०० 

मूल्य – २९५  रु

ISBN – 978-93-5518-900-4

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

पिछली सदी में भारत से ब्रेन ड्रेन के दुष्परिणाम का सुपरिणाम विदेशों में हिन्दी का व्यापक विस्तार रहा है। जो भारतीय विदेश गये उनमें से जिन्हें हिन्दी साहित्य में किंचित भी रुचि थी, वह विदेशी धरती पर भी पुष्पित, पल्लवित, मुखरित हुई। विस्थापित प्रवासियों के परिवार जन भी उनके साथ विदेश गये। उनमें से जिनकी साहित्यिक अभिरुचियां वहां प्रफुल्लित हुईं उन्होंने मौलिक लेखन किया, किसी हिन्दी पत्र पत्रिका का प्रकाशन विदेशी धरती से शुरु किया । सोशल मीडिया के माध्यम से उन छोटे बड़े बिखरे बिखरे प्रयासों को हि्दी साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिया। भोपाल से प्रारंभ विश्वरंग, विश्व हिंदी सम्मेलन, विदेशों में भारतीय काउंसलेट आदि ने प्रवासी हिन्दी प्रयासों को न केवल एकजाई स्वरूप दिया वरन साहित्य जगत में प्रतिष्ठा भी दिलवाई। प्रवासी रचनाकारों की सक्षम आर्थिक स्थिति के चलते भारत के नामी प्रकाशनो ने साहित्य के गुणात्मक मापदण्डो को किंचित शिथिल करते हुये भी उन्हें हाथों हाथ लिया। वाणी प्रकाशन, नेशनल बुक ट्र्स्ट, इण्डिया नेट बुक्स, शिवना प्रकाशन आदि संस्थानो से प्रवासी साहित्य की पुस्तकें निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। विदेश से होने के कारण भारत में प्रवासी रचनाकारों की स्वीकार्यता अपेक्षाकृत अधिक रही है। डॉ॰ पद्मेश गुप्त ब्रिटेन मे बसे भारतीय मूल केअत्यंत सक्षम  हिंदी बहुविध रचनाकार हैं। उन पर विकिपीडिया पेज भी है। डॉ॰ पद्मेश गुप्त ने यू॰के॰ हिन्दी समिति एवं `पुरवाई’ पत्रिका के माध्यम से हिन्दी को  प्रतिष्ठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मूलत: वे कवि हैं, किन्तु उनकी कहानियाँ भी बेहद प्रभावी हैं। उनका अनुभव संसार वैश्विक है, वे नये नये बिम्ब प्रस्तुत करते हैं। हाल ही लंदन बुक फेयर में आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में पद्मेश गुप्त के कहानी संग्रह ‘डेड एंड‘ का विमोचन संपन्न हुआ था। संयोगवश मैं भी लंदन प्रवास में होने से इस आयोजन में भागीदार रहा। इस संग्रह में कुल नौ कहानियां अस्वीकृति, औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है, डेड एंड, इंतजार, कशमकश, तिरस्कार, तुम्हारी शिवानी, कब तक और यात्रा सम्मिलित हैं।

कहानी अस्वीकृति में ई मेल बिछड़े प्रेमियों राजीव और अनीशा को फिर से मिलवाने का माध्यम बनती है। इस तरह का नया प्रयोग समकालीन कहानियों में नवाचारी और अपारंपरिक ही कहा जायेगा। पूर्ण समर्पण को उद्यत अनीशा के प्रस्ताव के प्रति समीर की अस्वीकृति से पल भर में  अनीशा के प्रेम, भावनाओ, और समर्पण की इमारत खंडहर हो गयी। कहानी “औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है” में पद्मेश गुप्त का कवि उनके कहानीकार पर हावी दिखता है। एक लम्बी काव्यात्मक अभिव्यक्ति से कथा नायक राम, सुजान के संग बिताये अपने लम्हे याद करता है। … सुजान के बेटे लव में राधिका ने राम की छबि देख ली थी, वह दुआ मांगने लगी कि अब किसी मोड़ पर कोई कुश न मिल जाये। …. औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है …. सुजान का वह वाक्य एक बार फिर राम के हृदय में गूंजने लगा। कहानी प्रेम त्रिकोण को नवीन स्वरूप में रचती है, जिसमें राम, राधिका, लव के पुरातन प्रतीको को लाक्षणिक रूप से किया गया प्रयोग भी कहानीकार की प्रतिभा और भारतीय मनीषा के उनके अध्ययन को इंगित करता है। ‘डेड एंड’ कहानी के गहन भाव और सुघड़ शिल्प ने पद्मेश गुप्त के कहानी बुनने के कौशल को उजागर किया है। हिन्दी कहानी के अंग्रेजी शब्दों के शीर्षक से विदेशों में बदलते हिन्दी के स्वरूप का आभास भी होता है। पुस्तक की अनेकों कहानियों में संवाद शैली का ही प्रयोग किया गया है। ढ़ेरों संवाद अंग्रेजी में हैं। … मिनी ने हँसते हुये उत्तर दिया ….  ” आई नो वी कांट विदाउट ईच अदर “। इंतजार वर्ष २००६ में लिखी गई पुरानी कहानी है, यह स्पष्ट होता है क्योंकि अंदर वर्णन में मिलता है ” आज २१ मार्च २००६ को शादी की पाँचवी वर्षगांठ का दिन दीपक ने शालिनी से अपने दिल की बात कहने के लिये चुना। … वह महसूस कर रहा था कि अंजली उसका बीता हुआ कल है और शालिनी भविष्य। किन्तु कहानी का ट्विस्ट और चरमोत्कर्ष है कि दीपक को एक पत्र बेड के पास मिलता है जिसमें लिखा था … मैं तुम्हारे जीवन से सदा के लिये जा रही हूं, मैं राजेश से विवाह कर रही हूं … शालिनी। कहानी के मान्य आलोचनात्मक माप दण्डो पर पद्मेश जी की कहानियां खरी हैं। कहानी ‘कब तक‘ आज के परिदृश्य में प्रासंगिक है। ये कहानियां स्वतंत्र प्रेम कथायें हैं। यदि कथाकार भाषा की समझ रखता है। उसमें समाज के मनोविज्ञान की पकड़ है तो प्रेमकथायें हृदय स्पर्शी होती ही हैं। पद्मेश की कहानियां भी पाठक के दिल तक पहुंच बनाती हैं। कशमकश संग्रह की सर्वाधिक लंबी कहानी है जिसमें कथानक का निर्वाह उत्तम तरीके से हुआ है। तिरस्कार से अंश उधृत है …सिमरन का घमण्ड चूर होने लगा। जिस गोरे रंग पर सिमरन को इतना नाज था, उसी के कारण आये दिन उसका तिरस्कार होता। …. राखी को लोगों से बहुत प्रशंसा मिली पर सिमरन ने यह कहकर उसका मजाक बनाया कि साँवली होने के कारण उसे एशियन लड़की भूमिका बहुत सूट कर रही थी। …. सिमरन अखबार उठाकर बैठ गई, अचानक उसकी नजर तीसरे पेज पर पड़ी … सिमरन चौंक गई … यह तसवीर उसकी छोटी बहन राखी की थी, नीचे लिखा था इस साल विश्वसुंदरी का खिताब भारत की राखी ने जीता है। कहानी इस चरम बिंदु के साथ स्किन कलर रेसिज्म और वास्तविक सौंदर्य पर अनुत्तरित सवाल खड़े करते हुये पूरी हो जाती है। तुम्हारी शिवानी भी रोचक है। ‘कब तक’ मिली-जुली संस्कृति के टकराव की व्याख्या करती है। यात्रा में लेखक के आध्यात्मिक चिंतन से परिचय मिलता है ” आत्मा अमर है, शरीर वस्त्र। आत्मा शरीर बदलती है, नया जन्म होता है।

कहानी में रुचि रखते हैं तो डेड एंड शब्दों  में बांधते हुये प्रेम को व्यक्त करता नये वैश्विक बिम्ब बनाता रोचक कहानी संग्रह है। सरल सहज खिचड़ी भाषा में बातें करता यह कहानी संग्रह समकालीन वैश्विक परिदृश्य को अभिव्यक्त करता पठनीय और संग्रहणीय है। कुल मिलाकर मुझे हर कहानी पठनीय मिली। सब का कथा विस्तार बताकर मैं आप का वह आनंद नहीं छीनना चाहता जो कहानी पढ़ते हुये उसकी कथन शैली में डुबकी लगाते हुये आता है। वाणी प्रकाशन से सीधे बुलाइये या अमेजन पर आर्डर कीजीये, पुस्तक सुलभ है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि –  अंतरा (काव्य संग्रह) –  कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी  ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? समीक्षा का शुक्रवार # 1 ?

? संजय दृष्टि –  अंतरा (काव्य संग्रह) –  कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक – अंतरा

विधा – कविता

कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी

? पार्थिव यात्रा और शाश्वत कविता – श्री संजय भारद्वाज ?

रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएँ हैं। इसी प्रकार अभिव्यक्ति, मनुष्य की मूलभूत मानसिक आवश्यकता है। संवेदनाएँ भावात्मक विरेचन से ही प्रवहमान रहती हैं। भावात्मक विरेचन एवं व्यक्तित्व के चौमुखी विकास में काव्य कला को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भाग्यवान हैं वे लोग जो लेखनी द्वारा उद्भूत शब्दों के माध्यम से व्यक्त हो  पाते हैं। डॉ. पुष्पा गुजराथी उन्हीं सौभाग्यशाली लोगों में से एक हैं।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है,‘पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भूत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है। कवयित्री डॉ. पुष्पा गुजराथी के क्षितिज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रस्तुत कवितासंग्रह ‘अंतरा’ में यह प्रवाह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

कविता संवेदना की धरती पर उगती है। संवेदना मनुष्य की दृष्टि को उदात्त करती है। उदात्त भाव सकारात्मकता के दर्शन करता है-

पर

तुझे पता भी है?

पत्थर के बीच

झरना भी बहता है..!

कविता के उद्भव में विचार महत्वपूर्ण है। अवलोकन से उपजता है विचार। पुष्पा जी के सूक्ष्म अवलोकन का यह विराट चित्र प्रभावित करता है-

चिता पर रखी लकड़ी पर,

एक पौधे ने

खुलकर अंगड़ाई ली..!

विचार को अनुभव का साथ मिलने पर कविता युवतर पीढ़ी के लिए जीवन की राह हो जाती है-

अब मैैं

तुम्हारी आँखों के आकाश से

नीचे उतर जाती हूँ, क्योंकि-

आकाश में

घर तो बनता नहीं कभी..!

कवयित्री की भावाभिव्यक्ति के साथ पाठक समरस होता है। यह समरसता, व्यक्तिगत को समष्टिगत कर देती है। यही पुष्पा गुजराथी की कविता की सबसे सफलता है।

यूँ तो गैजेट के पटल पर एक क्लिक से सब कुछ डिलीट किया जा सकता है पर मानसपटल का क्या करें जहाँ ‘अन-डू’ का विकल्प ही नहीं होता।

अभी कुछ शेष है,

देह के कंकाल में

जो मुक्त होना नहीं चाहता,

गहरा अंतर तक खुद गया है,

यह ‘कुछ’ डिलीट नहीं होता..!

पूरे संग्रह में विशेषकर स्त्रियों द्वारा भोगी जाती उपेक्षा, टूटन की टीस प्रतिनिधि स्वर बनकर उभरती हैं।

हर बार वह

झुठला दी जाती,

अपनी क़ब्र में

दफ़न होने के लिए..

समय साक्षी है कि हर युग में स्त्री की भावनाओं, उसके अस्तित्व को दफ़्न करने के कुत्सित प्रयास हुए पर अपनी जिजीविषा से हर बार वह अमरबेल बनकर अंकुरित होती रही, विष-प्राशन कर मीरा बनती रही।

विष पीकर

वह निखरती रही,

मीरा बनती रही..

कवयित्री के अंतस में करुणा है, नेह है। विष पीनेवाली को भी एक अगस्त्य की प्रतीक्षा है जो उसके हिस्से के ज़हर को अपना सके, जिसके सान्निध्य में वह स्वयं को सुरक्षित अनुभव कर सके।

मैं आँखें खोल देखती हूँ

तुम्हारे नीले पड़े होठों को,

तुम कुछ कहते नहीं,

बस उठकर चल देते हो,

मेरा ज़हर स्वयं में समेटकर..

इस संग्रह की रचनाओं में मनुष्य जीवन के विभिन्न रंग और उसकी विविध छटाएँ अभिव्यक्त हुई हैं। प्रेम, टीस, पर्यावरण विमर्श, मनुष्य का ‘कंज्युमर’ होना, अध्यात्म, दर्शन, अनुराग, वीतराग, आत्मतत्व, परम तत्व जैसे अन्यान्य विषय हैं। विषयों की यह विविधता कवयित्री के विस्तृत भाव जगत की द्योतक हैं। हिडिम्बा जैसे उपेक्षित पात्र की व्यथा को कविता में उतारना उनकी संवेदनशीलता तो दर्शाता ही है, साथ ही उनके अध्ययन का भी परिचायक है।

इहलोक की पार्थिव यात्रा में कविता के शाश्वत होने को कुछ यूँ भी समझा जा सकता है-

शाश्वत-अशाश्वत की

सीढ़ियाँ चढता-उतरता हुआ

जब भी लम्बी यात्रा

पर निकल पड़ता है..!

कामना है कि डॉ. पुष्पा गुजराथी की साहित्यिक यात्रा प्रदीर्घ हो, अक्षरा हो।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “तालियां बजाते रहो…”(व्यंग्य संग्रह)– श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” जी की कृति “तालियां बजाते रहो… “ की समीक्षा)

श्री सुरेश मिश्र “विचित्र”

☆ “तालियां बजाते रहो… ”(व्यंग्य संग्रह)– श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ 

(आज 22 जून को विमोचन पर विशेष)

पुस्तक चर्चा 

कृतिकार सुरेश मिश्र “विचित्र” के श्रेष्ठ व्यंग्य

विषयों के चयन, निर्भीक कथन और सहज – सरल चुटीली प्रवाह पूर्ण भाषा शैली के कारण व्यंग्यकार सुरेश मिश्र “विचित्र” ने व्यंग्यकारों और पाठकों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। यों विचित्र जी एक अच्छे कवि भी हैं। उनकी कविताओं में भी सहज ही व्यंग्य उपस्थित हो जाता है। विगत कुछ समय से उनके द्वारा लिखे जा रहे “यह जबलपूर है बाबूजी” में पाठकों को काव्य और व्यंग्य का दोहरा मजा आ रहा है। आज विचित्र जी के नवीन व्यंग्य संग्रह “तालियां बजाते रहो” का विमोचन हो रहा है। मुझे विश्वास है कि विचित्र जी के इस व्यंग्य संग्रह को भी पाठकों का भरपूर स्नेह प्राप्त होगा। किसी भी लेखक की सफलता इस बात में है कि जब पाठक उसकी रचना पढ़ना प्रारंभ करे तो उसकी रोचक शुरूआत में ऐसा फंसे की पूरी रचना पढ़ने पर मजबूर हो जाए। देश के अनेक दिग्गज कहे जाने वाले व्यंग्यकारों में पाठकों को अपनी रचना से बांधने का जो कला कौशल नहीं है वह कला भाई विचित्र जी के लेखन में है। इसलिए वे पढ़े भी जाते हैं और लोकप्रिय भी हैं। यह बात अलग है कि समझ में न आने वाला लिखने वाले जोड़ तोड़ से निरंतर सरकारी व गैरसरकारी सम्मान अर्जित कर रहे हैं, स्वयं अपने श्रेष्ठ होने का डंका बजवा रहे हैं। मैं समझता हूं कि लेखक का असली सम्मान उसके लेखन को समझने वाले, उसमें रस लेने वाले, उसकी प्रशंसा करने वाले पाठकों की संख्या से होता है जो विचित्र जी के पास है।

“तालियां बजाते रहो” व्यंग्य संग्रह में विभिन्न विषयों, संदर्भों पर 35 व्यंग्य रचनाएं हैं। इनमें राजनैतिक व्यस्था – उथलपुथल, विसंगतियों, विद्रूपता, अतिवाद, भ्रष्टाचार, कुत्सित मानवीय प्रवृत्तियों आदि को आधार बना कर व्यंग्य की चुटकी लेते हुए रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के नाम “तालियां बजाते रहो” शीर्षक से रचित व्यंग्य में विचित्र जी ने तालियां बजवाने और बजाने वालों के साथ साथ तालियों के प्रकार पर व्यापक चर्चा करते हुए उसके विविध अर्थ प्रकट किए हैं। संग्रह में तबादलों का मौसम खंड वृष्टि जैसा, पैजामा खींच प्रतियोगिता, वृद्धाश्रम का बढ़ता हुआ दायरा, भविष्यवाणियों का दौर जारी है, तृतीय विश्वयुद्ध के नगाड़े बज रहे, गधों को गधा मत कहो, नैतिकता के बदलते मापदंड, मेरे सफेद बाल जैसी संवेदना से भरपूर मारक व्यंग्य रचनाएं हैं। पाठक एक रचना पढ़ने के बाद तुरन्त ही दूसरी रचना पढ़ने के लिए बाध्य हो जायेगा।

“साहित्य सहोदर” संस्था के संस्थापक सुरेश मिश्र “विचित्र” वर्षों से समारोह पूर्वक कबीर जयंती समारोह माना रहे हैं। वे कबीर को सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार मानते हैं और उनकी रचनाओं का अध्ययन मनन करके, उनसे प्रेरणा प्राप्त करके ही उन्होंने लेखन की व्यंग्य विधा को चुना है। मैं समझता हूं कि न सिर्फ विचित्र जी वरन किसी भी रचनाकार की तुलना किसी भी अन्य रचनाकार से नहीं की जा सकती क्योंकि प्रत्येक रचनाकार का समयकाल, बचपन, उसका पालन पोषण, पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा, मित्र, पेशा, परेशानियों आदि का संयुक्त प्रभाव उसकी मनोदशा का निर्माण करता है जो उसकी रचनाओं में परिलक्षित होता है। अतः परसाई जी, शरद जोशी या किसी भी अन्य वर्तमान व्यंग्यकार से सुरेश मिश्र “विचित्र” की कोई तुलना नहीं। विचित्र जी “विचित्र” हैं और सदा सबसे अलग लिखने, दिखने वाले “विचित्र” रहेंगे। कृति विमोचन के अवसर पर सभी मित्रों, प्रशंसकों की ओर से उन्हें बहुत बहुत बधाई, मंगलकामनाएं। उनकी कलम निरंतर चलती रहे।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 160 ☆ “मास्क के पीछे क्या है ?” (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १) – संपादक – प्रो कम्मू खटिक ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा प्रो कम्मू खटिक जी द्वारा संपादित पुस्तक “मास्क के पीछे क्या है ?” (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 160 ☆

☆ “मास्क के पीछे क्या है ?” (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १) – संपादक – प्रो कम्मू खटिक ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – मास्क के पीछे क्या है  (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १)

संपादक – प्रो कम्मू खटिक

प्रकाशक – सदीनामा प्रकाशन

संस्कारण – पहला संस्करण २०२३,

पृष्ठ – १९६

मूल्य – ३००रु

ISBN – 978-93-91058-31-9

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

हाल ही मास्क के पीछे क्या है? शीर्षक से प्रो कम्मू खटिक के संपादन में सामूहिक व्यंग्य संग्रह का पहला भाग प्रकाशित हुआ है, जिसमें ५६ समकालीन व्यंग्यकारों की रचनायें संकलित हैं। किताब सदीनामा प्रकाशन से छपी है। सदीनामा जितेंद्र जीतांशु जी के द्वारा संचालित एक बहुआयामी अद्भुत संस्था है जो प्रतिदिन साहित्यिक बुलेटिन प्रकाशित कर अपनी देश व्यापी पहचान बना चुकी है। साहित्य जगत प्रतिदिन इसकी साफ्ट कापी की प्रतीक्षा करता है। सदीनामा के स्त्री विमर्श और व्यंग्य के स्तंभो से प्रो कम्मू खटिक समर्पित भाव से जुड़ी हुई हैं। तार सप्तक संपादित संयुक्त संकलन साहित्य जगत में बहु चर्चित रहा है। सहयोगी अनेक संकलन अनेक विधाओ में आये हैं। मेरे संपादन में “मिली भगत” शीर्षक से वैश्विक स्तर पर पहला सामूहिक व्यंग्य संग्रह भी छपा था। “व्यंग्य विसंगतियो पर भाषाई प्रहार से समाज को सही राह पर चलाये रखने के लिये शब्दो के जरिये वर्षो से किये जा रहे प्रयास की एक सुस्थापित विधा है “।यद्यपि व्यंग्य  अभिव्यक्ति की शाश्वत विधा है, संस्कृत में भी व्यंग्य मिलता है, प्राचीन कवियो में कबीर की प्रायः रचनाओ में  व्यंग्य है, यह कटाक्ष  किसी का मजाक उड़ाने या उपहास करने के लिए नहीं, बल्कि विसंगतियों के परिष्कार के लिये लिखा जाता है। कबीर का व्यंग्य करुणा से उपजा है, अक्खड़ता उसकी ढाल है। हास्य और व्यंग्य में एक सूक्ष्म अंतर है, जहां हास्य लोगो को गुदगुदाकर छोड़ देता है वहीं व्यंग्य हमें सोचने पर विवश करता है। व्यंग्य के कटाक्ष पाठक को  तिलमिलाकर रख देते हैं। व्यंग्य लेखक के, संवेदनशील और करुण हृदय के असंतोष की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है। शायद व्यंग्य, उन्ही तानो और कटाक्ष का  साहित्यिक रचना स्वरूप है, जिसके प्रयोग से सदियो से सासें नई बहू को अपने घर परिवार के संस्कार और नियम कायदे सिखाती आई हैं और नई नवेली बहू को अपने परिवार में स्थाई रूप से घुल मिल जाने के हित चिंतन के लिये तात्कालिक रूप से बहू की नजरो में स्वयं बुरी कहलाने के लिये भी तैयार रहती हैं। कालेज में होने वाले सकारात्मक मिलन समारोह जिनमें नये छात्रो का पुराने छात्रो द्वारा परिचय लिया जाता है, भी कुछ कुछ व्यंग्य, छींटाकशी, हास्य के पुट से जन्मी मिली जुली भावना से नये छात्रो की झिझक मिटाने की परिपाटी रही है और जिसका विकृत रूप अब रेगिंग बन गया है।

प्रायः अनेक समसामयिक विषयो पर लिखे गये व्यंग्य लेख अल्प जीवी होते हैं, क्योकि किसी  घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया व्यंग्य, अखबार में फटाफट छपता है, पाठक को प्रभावित करता है, गुदगुदाता है, थोड़ा हंसाता है, कुछ सोचने पर विवश करता है, जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह थोड़ा कसमसाता है पर अपने बचाव के लिये वह कोई अच्छा सा बहाना या किसी भारी भरकम शब्द का घूंघट गढ़ ही लेता है। जैसे प्रायः नेता जी आत्मा की आवाज से किया गया कार्य या व्यापक जन कल्याण में लिया गया निर्णय बताकर अपने काले को सफेद बताने के यत्न करते दिखते हैं। अखबार के साथ ही व्यंग्य  भी रद्दी में बदल जाता है।उस पर पुरानेपन की छाप लग जाती है। किन्तु पुस्तक के रूप में व्यंग्य संग्रह के लिये  अनिवार्यता यह होती है कि विषय ऐसे हों जिनका महत्व शाश्वत न भी हो तो अपेक्षाकृत दीर्घकालिक हो। मास्क के पीछे क्या है ? अनेक व्यंग्यकारो की करिश्माई कलम का ऐसा ही कमाल है।

संग्रह में लेख के साथ व्यंग्य चित्र भी प्रकाशित  हैं।

इंदिरा किसलय (नागपुर), डॉ. मधुकर राव लारोकर (नागपुर), प्रभात गोस्वामी (जयपुर), डॉ. सुधांशु कुमार (बिहार), सुनील सक्सेना (भोपाल), गीता दीक्षित (मध्य प्रदेश), परमानंद भार्गव (उज्जैन), डॉ. अरविंद शर्मा (जयपुर). स्वाति ‘सरु’ जैसलमेरिया (जोधपुर), रीता तिवारी (नागपुर), टीकाराम साहू ‘आजाद’ (नागपुर), सतीश लाखोटिया (नागपुर). राकेश सोहम (जबलपुर), राकेश अचल (ग्वालियर), संजय बर्वे (नागपुर), डॉ. रश्मि चौधरी (ग्वालियर), निवेदिता दिनकर (आगरा), राजेंद्र नागर निरंतर, श्रीलाल शुक्ल (अलीगढ़), डॉ. रवि शर्मा ‘मधुप’ (दिल्ली), लालित्य ललित (दिल्ली). कुंदन सिंह परिहार (जबलपुर), राजशेखर चौबे (रायपुर), डॉ. महेंद्र कुमार ठाकुर (रायपुर), अखतर अली (रायपुर), मुकेश नेमा (भोपाल). वेद माथुर (अलवर), घनश्याम अग्रवाल (अकोला), कामता प्रसाद सिंह ‘काम’, डॉ. नीरज दइया (बीकानेर), मुश्ताक अहमद युसुफी, शरद जोशी, सुरेश सौरभ (लखीमपुर, खीरी), डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ (हैदराबाद), भूपेंद्र भारतीय (देवास), राजेंद्र त्यागौ (मेरठ), वीरेंद्र सरल (छत्तीसगढ़), प्रभाशंकर उपाध्याय (सवाई माधोपुर), सुनीता महेश मल्ल (महाराष्ट्र), रंजना शर्मा (कोलकाता), डॉ. हरीश कुमार सिंह (उज्जैन), परवेश जैन (लखनऊ), श्री नारायण चतुर्वेदी (इटावा, यूपी), अनुराग बाजपेयी (जयपुर), डॉ. देवेंद्र जोशी (उज्जैन), अनीता रश्मि (रांची), संसार चंद्र, प्रेम जनमेजय (दिल्ली), पप्पू कुमार रजक (नैहाटी ) की रचनाओ का चयन भाग एक में संकलित करने के लिये संपादक ने किया है। शायद अगले भागों में और ज्यादा महत्वपूर्ण समकालीन लेखन सामने आये। सामूहिक संग्रहो की पठनीयता और चर्चा अधिक तथा दीर्घजीवी होती है, क्योंकि प्रत्येक सहभागी लेखक किताब को अपनी ही पुस्तक की तरह प्रमोट करता है। सभी परस्पर एक दूसरे की रचनाएं पढ़ते ही हैं। गिरिराज शरण के संपादन में 2009 में एक राष्ट्रीय स्तर का सामूहिक संग्रह पोलिस व्यवस्था पर केंद्रित छपा था। अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक व्यंग्य संकलन “२१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार ” भी हाल ही छप चुका है।इन संग्रहों में सहभागी रचनाकारों ने अपने अपने विषयों पर रचनाएं लिखी हैं। विषय केंद्रित संग्रह भी आ चुके हैं। ऐसा ही एक सामूहिक संग्रह थाने थाने व्यंग्य शीर्षक हरीश कुमार सिंह और नीरज सुधांशु के संपादन में छपा था। बहरहाल मास्क के पीछे क्या है ? (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १) प्रो कम्मू खटिक के संपादन में सदीनामा प्रकाशन के बेनर से एक और सामूहिक अच्छा प्रयास है, जिसकी सफलता, व्यापक पठनीयता हेतु मेरी शुभकामनायें हैं। खरीदिये और पढ़िये, प्रतिक्रिया दीजीये, लेखक को प्रतिक्रियाओ से बड़ा संबल मिलता है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 159 ☆ “अब तो बेलि फ़ेल गई” (उपन्यास) – लेखिका – सुश्री कविता वर्मा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा  सुश्री कविता वर्मा जी के उपन्यास अब तो बेलि फ़ेल गई पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 159 ☆

☆ “अब तो बेलि फ़ेल गई” (उपन्यास) – लेखिका – सुश्री कविता वर्मा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक – अब तो बेलि फैल गई (उपन्यास)

अद्विक प्रकाशन

लेखिका … कविता वर्मा

पृष्ठ 190,

मूल्य 250 रु. – अमेजन पर सुलभ

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

कुछ किताबें ऐसी होती हैं जिन पर फुरसत से लिखने का मन बनता है, पर यह फुरसत ही तो है जो कभी मिलती ही नहीं। कविता जी ने अब तो बेलि फैल गई प्रकाशन के तुरंत बाद भेजी थी। पर फिर मैं दो तीन बार विदेश यात्राओ में निकल गया और किताब सिराहने ही रखी रह गई। एक मित्र आये वे पढ़ने ले गये फिर उनसे वापस लेकर आया और आज इस पर लिखने का समय भी निकाल ही लिया। साहित्य वही होता है जिसमें समाज का हित सन्नहित हो। समस्याओ को रेखांकित ही न किया जाये उनके हल भी प्रस्तुत किये जायें। उपन्यास के चरित्र ऐसे हों जो मर्म स्पर्शी तो हों पर जिनसे अनुकरण की प्रेरणा भी मिल सके। इन मापदण्ड पर कविता वर्मा का उपन्यास अब तो बेलि फैल गई बहुत भाता है। उनका भाषाई और दृश्य विन्यास परिपक्व तथा समर्थ है। पाठक जुड़ता है। कहानी की अपेक्षा उपन्यास की ताकत जीवन और समाज की व्यापक व्याख्या है।  विश्व साहित्य के महाकाव्यों में भी कथानक ही मूल आधार रहा है। कहानियां हमेशा से रचनात्मक साहित्य का मेरुदंड कही जाती हैं। उपन्यास को आधुनिक युग की देन कहना ज्यादा समीचीन होगा। रचनाकार के अभिव्यक्ति सामर्थ्य के अनुसार उपन्यास में शब्दावली, समकालीन आलोचनात्मक सोच, परिदृश्य के शब्द चित्र,  समाज की व्यवहारिक समझ, सहानुभूति और अन्य दृष्टिकोणों व्यापक संसार एक ही कथानक में पढ़ने मिलता है। पाठक का ज्ञान बढ़ता है। बौद्धिक खुराक के साथ साथ मानसिक आनंद एवं रोजमर्रा की जिंदगी से किंचित विश्रांति के लिये आम पाठक उपन्यास पढ़ता है। पाठक को उसके अनुभव संसार में उपन्यास के पात्र मिल ही जाते हैं और वह कथानक में खो जाता है। पाठक उपन्यास को कितनी जल्दी पढ़कर पूरा करता है, कितनी उत्सुकता से पढ़ता है, यह सब लेखक की रोचक वर्णन शैली और कथानक के चयन पर निर्बर करता है। कविता वर्मा हिन्दी साहित्य सम्मेलन के स्तरीय पुरस्कार सहित कई सम्मानो से पुरस्कृत, अनेक कृतियों की परिपक्व लेखिका हैं जो लम्बे समय से विविध विधाओ में लिख रही हैं। किन्तु कहानी और उपन्यास उनकी विशेषता है। हिन्दी साहित्य में समाज का मध्य वर्ग ही बड़ा पाठक रहा है। स्वयं लेखिका भी मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। अब तो बेलि फैल गई की कहानी मूलतः

इसी वर्ग के इर्द गिर्द बुनी गई है। उपन्यास के चरित्रो को पाठक अपने आस पास महसूस कर सकता है।

यह कृति लेखिका का दूसरा उपन्यास है। इससे पूर्व वे छूटी गलियां नामक उपन्यास हिन्दी साहित्य जगत को दे चुकीं हैं। इस कृति के कथानक को  दीपक सहाय, गीता,  सोना, राहुल, विजय, नेहा आदि चरित्रो से रचा गया है। आज ज्यादातर परिवारों में बच्चे विदेश जा बसे हैं, उस परिदृश्य की झलक भी पढ़ने मिलती है। भावनात्मक, मानसिक अंतर्द्व्ंद, उलझन, संवाद, सब कुछ प्रभावी हैं। रचनाकार स्त्री हैं, वे कुशलता से स्त्री चरित्रों की विभिन्न स्थितियों में मानसिक उहापोह, समाज की पहरेदारी, बेचारगी और  दोस्ती, सहानुभूति, मदद के सहज प्रस्ताव पर प्रतिक्रया जैसे विषयों का निर्वाह सक्षम तरीके  से करने में सफल रही हैं। मैं कहानी बताकर आपका पाठकीय कौतुहल समाप्त नहीं करूंगा, उपन्यास एमेजन पर उपलब्ध है। खरीदिये, पढ़िये और बताइये कि “अब तो बेलि फैल गई” की जगह और क्या बेहतर शीर्षक आप प्रस्तावित कर सकते हैं ? लेखिका को मेरी हार्दिक बधाई, निश्चित ही बड़े दिनो बाद एक ऐसा उपन्यास पढ़ा जो मर्मस्पर्शी है, हमारे इर्द गिर्द बुना हुआ है और उपन्यास के आलोच्य मानको की कसौटी पर खरा है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें…” (व्यंग्य संग्रह)– श्री शांतिलाल जैन ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी की कृति कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें… की समीक्षा)

☆ “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें… ” (व्यंग्य संग्रह)– श्री शांतिलाल जैन ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ 

पुस्तक चर्चा 

पुस्तक ‏: कि आप शुतरमुर्ग बने रहें (व्यंग्य संग्रह)

व्यंग्यकार : श्री शांतिलाल जैन 

प्रकाशक‏ : बोधि प्रकाशन, जयपुर 

पृष्ठ संख्या‏ : ‎ 160 पृष्ठ 

मूल्य : 200 रु 

“….की आप शुतुरमुर्ग बने रहें” पुस्तक पर चर्चा के पूर्व बात करते हैं इस कृति के कृतिकार श्री शांतिलाल जैन की । शांतिलाल जैन ने अपने जीवन का अमूल्य समय भारतीय स्टेट बैंक में सेवारत रहते हुए व्यतीत किया और कर्त्तव्य निष्ठा से सहायक महाप्रबंधक के पद तक पहुंचे ।  सामान्यतः बैंक कर्मचारी गुणा – भाग, जोड़ – घटाने में माहिर अत्यंत्य सूक्ष्म दृष्टि के हो जाते हैं  । स्वाभाविक ही है कि व्यक्ति के पेशे का प्रभाव उसके जीवन, रुचियों, चिंतन और रचनात्मकता पर भी पड़ता है । कलेक्ट्रेट के बाबुओं, अधिकारियों, न्यायाधीशों, पुलिस कर्मियों, सेल्स टैक्स – रेलवे कर्मियों, शिक्षकों, पत्रकारों, बैंक कर्मचारियों का चिंतन और रचना शैली समान नहीं हो सकती । चूंकि शांति लाल जी बैंक में सेवारत रहते हुए व्यंग्यकार बने अतः उनकी दृष्टि में पैनापन, अवलोकन करके उत्तर के रूप में वास्तविकता प्राप्त करने की क्षमता अन्य पेशारत व्यंग्यकारों से अधिक है। संभवतः यही कारण है कि इनके व्यंग्य बिना किसी लंबी भूमिका के शीघ्र ही मुद्दे पर आकर बिना लाग लपेट के गणितीय शैली में परिणाम तक पहुंच जाते हैं । आपके व्यंग्य छोटे किंतु सटीक हैं ।

पुस्तक की भूमिका में शांति लाल जी कहते हैं कि भयानक मंजरों को मत देखिए, जननेताओं की विफलताओं को मत देखिए । सांप्रदायिकता की आंधी आने वाली है, आर्थिक और सामाजिक असमानता की आंधी आने वाली है, पाखंड, अंधविश्वास और जहालियत की आंधी आने वाली है, आवारा पूंजीवाद की आंधी आने वाली है, फाल्स डेमोक्रेसी की आंधी आने वाली है लेकिन सत्ता की पूरी मशीनरी से कहलवाया जा रहा है कि सकारात्मक बने रहिए । “सकारात्मक रहने की ओट में आपसे रेत में सिर घुसाकर रखने की अपीलें की जा रही हैं । वे कहते हैं “…. कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें ।”

पुस्तक के प्रारम्भ में श्री कैलाश मंडलेकर का कथन है कि इस दौर के व्यंग्य लेखन पर प्रायः नान सीरियस और चलताऊ किस्म की टिप्पणी फैशन के तौर पर की जाती है । आज का व्यंग्य लेखन फार्मूला बद्ध और सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने का जरिया बनता जा रहा है और उसमें उस तरह की गंभीरता नहीं है जैसी कि परसाई या शरद जोशी के लेखन में हुआ करती थी । यहां पहले ही कहा जा चुका है कि प्रत्येक की दृष्टि और चिंतन उसके पारिवारक वातारण, परिस्थितियों, साथियों, शिक्षा, व्यवसाय और उसके जिये समय के अनुसार ही विकसित होते हैं, अतः किसी भी कवि – लेखक, कथाकार, व्यंग्यकार की किसी अन्य से तुलना नहीं की जाना चाहिए । जिसे हम पढ़ रहे हैं, जो हमारे सामने है तर्क पूर्वक उसकी बात करना ही उचित है । व्यंग्य वर्तमान के यथार्थ का लेखन है और शांतिलाल जी ने वर्तमान की वास्तविकता को सहजता, सरलता, सजगता व निर्भयता के साथ प्रस्तुत किया है ।

बोधि प्रकाशन द्वारा 2023 में प्रकाशित श्री शांतिलाल जैन की पुस्तक “…. कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें” में 160 पृष्ठों में विविध विषयों पर 57 व्यंग्य रचनाएं हैं । पुस्तक का मूल्य 200 रुपए है । इस पुस्तक में अनेक रचनाएं कोरोना से पीड़ित समाज की विपदाओं पर केंद्रित हैं । इनमें वैयक्तिक और सामाजिक अंतर्विरोधों के साथ व्यवस्था की लापरवाहियों पर पैने कटाक्ष किए गए हैं । निःसंदेह कोरोनाकाल की  भयानकता को भुलाया नहीं जा सकता। अनेक अव्यवस्थाओं, विसंगतियों के बाद भी ऐसा नहीं है कि इससे निपटने या बचने के लिए कुछ नहीं किया गया । शासन – प्रशासन, समर्थ और आम आदमी सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा, किंतु यदि मात्र दोष खोजने  व उनपर कटाक्ष करने को ही व्यंग्य कहा जाता है तो शांतिलाल जी ने बखूबी व्यंग्यकार का धर्म निभाया है । मैं समझता हूं कि यदि अच्छी बातों पर अच्छी टिप्पणी करते हुए, विसंगतियों पर करारे प्रहार किए जाएं तो भी लेखक अपने व्यंग्य की धार को बनाए रख सकता है ।

“नलियाबाखल से मंडी हाउस तक” शीर्षक व्यंग्य में खबर प्रस्तुतिकरण के तरीकों और पत्रकारिता पर करारा व्यंग्य है । “बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं” व्यंग्य में वोट के लिए दिए जा रहे प्रलोभन का वास्तविक चित्र है । “एवर गिवन इन स्वेज आफ इंदौर” में वे सड़क पर पसरे अतिक्रमण और अवरुद्ध यातायात की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं । “हम साथ साथ (लाए गए) हैं” में सामूहिक फोटो खिंचवाने के लिए लोगों के नखरों का हास्य – व्यंग्य भरा सहज चित्रण है । आगे के लेखों में बरसात में शहर में जल प्लावन । दवाखाने में डॉक्टर को दिखाने में लगी भीड़, सास – बहू संबंध, राजनीत में झूठ का महत्व, न्याय व्यवस्था, अदाओं की चोरी, ईमानदार होने की उलझन आदि में विसंगतियों पर सटीक प्रहार है । जैन साहब ने सहजता से सीधे शब्दों में दो टूक बात कही है ।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 158 ☆ “व्यंग्य लोक त्रैमासिकी” – संपादक – रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ. मीना श्रीवास्तव जी द्वारा श्री विश्वास विष्णु देशपांडे जी की मराठी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद – रामायण महत्व और व्यक्ति विशेषपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 158 ☆

☆ “व्यंग्य लोक त्रैमासिकी” – संपादक – रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

चर्चा पत्रिका की

व्यंग्य लोक त्रैमासिकी

वर्ष १ अंक १ प्रवेशांक मई जुलाई २०२४

संपादक – रामस्वरूप दीक्षित

समकालीन व्यंग्य समूह की त्रैमासिक

ई पत्रिका

सम्पर्क [email protected]

समकालीन_व्यंग्य समूह एक व्हाट्सअप समूह है। समूह में ३०० से ज्यादा प्रबुद्ध रचनाकार देश विदेश से जुड़े हुये हैं। समकालीन सक्रिय साहित्यिक समूहों में इस समूह का श्रेष्ठ स्थान है। व्यंग्य, कहानी, कविता, साहित्यिक मुद्दों पर लिखित चर्चा, पुस्तकों पर बातें,लेखक से प्रश्नोत्तर, आदि विभिन्न आयोजनो की रूपरेखा निर्धारित है, जिसे अलग अलग स्थानों से विभिन्न साहित्य प्रेमी अनुशासित तरीके से सप्ताह भर, हर दिन अलग पूरी गंभीरता से चलाते हैं। समूह के एडमिन टीकमगढ़ से प्रसिद्ध व्यंग्यकार राम स्वरूप दीक्षित हैं। उन्हीं की परिकल्पना के परिणाम स्वरूप समूह की त्रैमासिक ई पत्रिका व्यंग्य लोक का प्रवेशांक मई से जुलाई २०२४ हाल ही https://online.fliphtml5.com/rfcmc/bbfe/index.html पर सुलभ हुआ है। फ्लिप फार्मेट के प्रयोग से प्रिंटेड पत्रिका पढ़ने जैसा ही आनंद आया। ई पत्रिका के लाभ अलग ही हैं, कोई कागज का अपव्यय नहीं, यदि टैब या फिर कम से कम मोबाईल इंटरनेट के साथ है, तो आप दुनियां में जहां कहीं भी हों पत्रिका आपके साथ है। मैने भी इसे लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर अपनी फ्लाइट के इंतजार में पहली बार पढ़ा।

श्री रामस्वरूप दीक्षित

आत्म_लोक में संपादक जी समकालीन परिदृश्य पर लिखते हैं कि रचना प्रकाशित होते ही व्यंग्यकार का दिमाग लिखने से ज्यादा छपने में सक्रिय हो जाता है, पाँच छै व्यंग्य छपने के बाद तो कोई स्वयं को वरिष्ठ से कम मानने ही तैयार नहीं। पुरखों के कोठार से स्तंभ में लतीफ घोंघी जी का व्यंग्य हो जाये इसी बहाने एक श्रद्धांजली पुनर्प्रकाशित किया गया है। अपठनीयता के इस समकाल में यह स्तंभ उल्लेखनीय है। पहला ही चयन लतीफ घोंघी को लेकर किया गया यह महत्वपूर्ण है। लतीफ घोंघी और ईश्वर शर्मा की व्यंग्य की जुगलबंदी लम्बे समय तक चली, जिसमें दोनो व्यंग्यकार एक ही विषय पर लिखा करते थे।

पन्ना पलटते ही व्यंग्य विधा पर विचार लोक स्तंभ में डॉ सेवाराम त्रिपाठी, प्रेम जनमेजय, यशवंत कोठारी और अजित कुमार राय के वैचारिक लेख हैं। प्रेम जनमेजय का आलेख व्यंग्य के आज की उलटबासियां पढ़ा, अच्छा लगा।

व्यंग्य की पत्रिका में व्यंग्य तो होने ही थे, अरविंद तिवारी, सुभाष चंदर, सूरज प्रकाश, जवाहर चौधरी, सुधीर ओखदे, अख्तर अली राजेंद्र सहगल, शशिकांत सिंह शशि और कमलेश पांडेय की व्यंग्य रचनाएं व्यंग्यलोक के अंतर्गत छपी हैं। जवाहर चौधरी की रचना खानदानी गरीब घुइयांराम वार्तालाप शैली में लिखा गया अच्छा व्यंग्य है, घुइयांराम कहते हैं कि एक बार वोट को बटन दबा देने बाद हम रुप५या किलो के सड़ा गेहूं हो जात हैं…. तुम ठहरे खानदानी गरीब तुम लोकतंत्र की आत्मा हो । ऑफ द रिकॉर्ड स्तंभ में अनूप श्रीवास्तव का शैलेश मटियानी पर संस्मरण है।कविता लोक में राकेश अचल की पंक्तियां हैं ” सबके सब हैं जहर बुझे तीरों जैसे, किसके दल में शामिल हो जाउं बेटा “। डॉ विजय बहादुर सिंह, हेमंत देवलेकर, कमलेश भारतीय, विमलेश त्रिपाठी, और पद्मा शर्मा की कविताएं भी है।लंदन के तेजेंद्र शर्मा की कहानी दर ब दर कथा लोक में ली गई है। फेसबुक लोक एक हटकर स्तंभ लगा, त्वरित, असंपादित और पल में दुनियां भर में पहुंच रखने वाले फेसबुक को इग्नोर नही किया जा सकता, ये और बात है कि इंस्टाग्राम और थ्रेड युवाओ को फेसबुक से खींच कर अलग करते दिख रहे हैं। राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी की फेसबुक वाल से माखनलाल चतुर्वेदी के कर्मवीर के पहले अंक से १७ जनवरी १९१९ के संपादकीय की ऐतिहासिक सामग्री है, तब भी राजनीति का यही हाल समझ आया। पुस्तक लोक में प्रमोद ताम्बट, शांतिलाल जैन, धर्मपाल महेंद्र जैन, टीकाराम साहू आजाद और प्रियम्वदा पांडेय की किताबों पर क्रमशः राजेंद्र वर्मा, शशिकांत सिंह शशि, मधुर कुलश्रेष्ठ, किशोर अग्रवाल और हितेश व्यास की पुस्तकों की समीक्षाएं हैं। सूचना लोक में पिछले दिनों सम्पन्न हुए साहित्यिक कार्यक्रमों की जानकारी दी गई है।

लेखक जी कहिन स्तंभ में घुमक्कड़ कहानी लेखिका संतोष श्रीवास्तव का आत्मकथ्य है। बिना पूरी पत्रिका पढ़े आपको मजा नहीं आयेगा। पेज नंबर दिये जाने थे जो चूक हुई है। यह तो हिट्स ही बतायेंगे कि पत्रिका कितनी पढ़ी गई और कहां कहां पढ़ी गई। बहरहाल इस संकल्पना की पूर्ति पर रामस्वरूप दीक्षित जी के मनोयोग तथा समर्पण की उन्हें बधाई। वे निश्चित ही अगले अंक की तैयारियों में जुटे होंगे। ईश्वर करे कि इस अच्छी पत्रिका को कुछ विज्ञापन मिल जायें क्योंकि पत्रिकायें केवल हौसलों से नहीं चलती।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद – कवयित्री : डॉ. मुक्ता ☆ समीक्षक – डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’ ☆

डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’

☆ ‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद – कवयित्री : डॉ. मुक्ता ☆ समीक्षक – डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’

पुस्तक    : लम्हों से संवाद

कवयित्री : डॉ• मुक्ता

प्रकाशक : वर्डज़ विग्गल पब्लिकेशन, सगुना मोर, दानापुर, पटना

पृष्ठ. सं•   : 114

मूल्य.      : 200 रुपए

‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद

मानव जीवन अनुभवों को लेकर चलता है। डॉ. मुक्ता के निजी अनुभव धीरे-धीरे विस्तृत होते-होते दर्शन में प्रविष्ट होने का आनंद और लुफ़्त उठाते हैं तथा बंजर जमीन पर पीर के फूल खिलाने का उद्यम रचते हैं। संवेदनशील मनुष्य हर क्षण, हर लम्हा मनुष्यत्व की रक्षा करता है, क्योंकि मनुष्य ही देव, दर्शन और इतिहास है, तभी तो कवयित्री डॉ. मुक्ता को भी ‘शब्द-शब्द समिधा’ में कहना पड़ा ‘सोहम्’। दरअसल यह आत्मीयता है, जो किसी-किसी को महसूस होती है, जो बेचैनी भी पैदा करती है। विपत्तियों में यादास्त किस तरह पतवार थामती है, खुद को समर्पित कर कैसे कविता या नज़्म आगे बढ़ती है, यह कहने को कवयित्री डॉ. मुक्ता प्रस्तुत होती हैं काव्य संग्रह ‘लम्हों से संवाद’ को लेकर, एक कादम्बरी वाक्य में देखिए वह क्या कहती हैं- उम्र गुजर जाती है जिंदगी ख्वाबों में ख़ुद से कभी-कभी बेवजह मुस्कुराहट की कोशिश करते, जीने की वजह से गुनहगार, मरु-सी जिंदगी, बड़ी बेवफा, खफ़ा-सी, दरकते रिश्ते, मोह के धागे कहाँ खो जाते हैं पता ही नहीं चलता, पल-पल भरमाता सुकून कहाँ मिलता है, तमाशा बन शाश्वत सत्य भी बेवजह साहिल को पाने की गुफ़्तगू, इंसान की कशमकश, आतंक के साये में न्याय की गुहार में इम्तिहान, इत्मीनान, अदब, धीर बंधाए, अनुभव करता है- जिंदगी क्या है? उठ रहे सवाल, आंधियों का रेला, कैसा चलन हो गया आज, तन्हा-सी झंझावतों में फंसी जिंदगी को कैसे कह दे मलाल है, नसीब है, फितरत है- नहीं आसान है, काश! अक्सर, स्वाँग, फांसले उजास के, दस्तूर-ए-दुनिया, मन को समझाए कैसे, कहीं दूर चल और खुद से जीतने की ज़िद में, नहीं वाज़िब, क्योंकि बच्चे बड़े सयाने हो गए हैं, सोचो! क्या वे दिन आएंगे, पछताना पड़ेगा नहीं, शब्द अनमोल हैं बात ऊंची रख हाले-दिल, ख़लिश, जीना है मुझको ये सिख लीजिए, नहीं वाज़िब जनाजा, दिल नादान, ‘सोहम्’ पाक रिश्ता है, बस! उसे उन्मुक्त हो जाने दो, अन्तर्निनाद, मुकाम के लिए एकला चलो रे, जीने की राह पर, साहिल को पा जाएगा। कवयित्री डॉ. मुक्ता की ‘उम्र गुज़र जाती है’ नज़्म देखिए-

तूफ़ान तो गाहे-बेगाहे आते रहते हैं जिंदगी में

कश्ती को सागर तक पहुँचाने में उम्र गुजर जाती है

मन से क्षुब्ध होने पर सुख या दु:ख अनुभव होता है और शान्त मन का असुख-अदुःख की अवस्था अनुभूति है। तभी तो भावों के उद्दीप्त होने पर सुखानुभूति तो उद्बुद्ध होने पर दुःखानुभूति होती है। अतः हर प्रकार की मनोदशा में प्रिय-अप्रिय होने का तत्त्व विद्यमान रहता है। मगर, मृग-तृष्णा के पीछे भागना मूर्खता का विषय है। कवयित्री कहती है कि जिंदगी दर्द भी है और दवा भी, इसमें लहरें उठती रहेंगी। जब शांत जल में मात्र कंकर डालने से क्षोभ उत्पन्न हो जाता है तो फिर उद्दीपक के प्रभाव से शांत मन में विक्षोप या आंदोलन उत्पन्न होना संभाव्य है। कवयित्री कहती है मानव को समय की धार, जिंदगी के फ़लसफ़े, संवेग (क्षुब्द मनोवृत्ति) को समझना होगा। डॉ. मुक्ता ‘मरुस्थल में मरूद्यान’ की संकल्पना का पाठ लिखती हैं-

मृग-तृष्णा उलझाती है, मत दौड़ उसके पीछे मन बावरे !

ख़ुदा तेरे अंतर्मन में बसता, उस में झाँकना भी ज़रूरी है

जब मनुष्य मन की वीथियों से बाहर आ जाएगा, तो निश्चय ही अँधेरा छंट जाएगा, धरा सिंदूरी हो जाएगी। जिंदगी की डगर पर खुद पर भरोसा कर मनुष्य को मिथ्या जग में एकला ही चलना होगा-

अपनी ख़ुदी पर रखो भरोसा

और बना लो इसे ज़िंदगी का मूलमंत्र रे

यह ज़िंदगी है दो दिन का मेला

यहाँ कोई नहीं किसी का संगी-साथी रे

कवयित्री की नज़्में जीवन के विविध रंगों, विविध स्थितियों, मानव-मन की विविध दशाओं, हृदय की विभिन्न संवेदनाओं को परिभाषित करती हैं, विविध चित्र उपस्थित करती हैं, समाधान सम्मुख रखती हैं, व्यक्तित्व की सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप-रेखाओं को प्रस्तुत करती हैं। जीवन के सत्यों का उद्घाटन करती हैं, साथ ही सामयिक परिस्थितिओं और विद्रूपताओं की ओर संकेत करती हुई कवयित्री जिंदगी का फ़लसफ़ा लिखती हैं; यथा-

ऐ मन! सीख ले तू जीने का हुनर

हम तो तेरे तलबगार हो गये

कवयित्री आत्म-प्रवचन्ना से मुक्त होकर आत्म-विश्लेषण के लिए प्रेरित करती है। उसके निज़ाम में सब अच्छा ही होता है जो जीवन में समूचा सार-तत्त्व ‘जीने की राह पर’ सब गिला-शिकवा को भुलाकर आगे बढ़ता है। अर्थात ‘स्व’ में ‘पर’ का विसर्जन ही जीवन का सार-तत्त्व है-

यह दुनिया है मुसाफ़िरखाना

सबने अपना किरदार है निभाना

इस जहान से सबने है लौट जाना

तू हर पल प्रभु का सिमरन कर

90 नज्मों के इस संग्रह में कवयित्री किसी विशिष्ट भाव-बोध की गिरफ्त में नजर नहीं आती, बल्कि उनकी काव्यात्मक सोच विभिन्न गवाक्षों और गलियारों से गुजरती है और जहां कहीं भी कोई लम्हा उन्हें स्पंदित करता है, वह बड़ी चतुराई से उसे चुराकर अपने काव्य-कौशल द्वारा सुघड़ ढंग से अपनी कविता में पिरो देती हैं। एकांतलक्षिता के गुलमुहरी भाव-कुंजों से संपृक्त, संवेगात्मक कटु यथार्थ को अपनी कविता में सलिखे से समोने में कवयित्री के संग्रह ‘लम्हों से संवाद’ की नज़्में काव्य-रचना की रहस्यमयी प्रक्रिया, सूक्ष्म निरीक्षण और संभाव्य कल्पना और यथार्थ-बोध से परांतग्राह्य बनकर, नितांत निजी काव्यगत अनुभव ‘स्वान्तःसुखाय’ और ‘अहिंसा परमोधर्मः’ की बानगी प्रस्तुत कर स्वर्णिम सूर्य सृष्टि को आलोकित करती हैं-

समय कभी थमता नहीं, निरंतर बदलता रहता

सृष्टि का क्रम पल-पल, नव-रूप में प्रकट होता रहता

स्वर्णिम सूर्य सृष्टि को आलोकित करता, अनुभव कीजिए

कवि दार्शनिक होता है, पर दर्शन को सहज रूप में प्रस्तुत करना एक चुनौती रहती है, जिसमें डॉ. मुक्ता उत्तीर्ण नज़र आती हैं। ‘शाश्वत सत्य’ से पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

ज़िंदगी में मनचाहा होता नहीं, तनिक विचार करें

जो होता है, वह कभी भाता नहीं, तनिक विचार करें,

स्व-पर से ऊपर उठना है लाज़िम

जो होना है, अवश्य होकर रहता, तनिक विचार करें।

निष्कर्षतः कवयित्री अपनी व्यथा, वेदना, पीड़ा को अपनी रचनाओं में समाविष्ट करती हैं और उनका दर्द, दुःख, बेचैनी, जिज्ञासा ही उनकी रचनाओं का आधार बने हैं। किंतु किसी भी कवि/कवयित्री की खासियत यह होती है वह व्यक्तिगत संदर्भ का सामान्यीकरण करके ही प्रस्तुत करता है। चूंकि कवि रस-स्रष्टा से पहले रस-भोक्ता है, परंतु वह स्वार्थी की तरह रस का अकेला उपभोग नहीं करता, बल्कि ‘स्व’ को विस्तृत और व्यापक बनाकर ‘पर’ का तादात्म्य बैठा देता है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि ऐसा करने के कारण रचनाएँ पढ़ने में अधिक रुचिकर और आकर्षित करने वाली भी बन जाती हैं। डॉ. श्यामसुंदर का मत है कि कवि और पाठक की चित्तवृत्तियों का एकतान, एकलय हो जाना साधारणीकरण है। डॉ. मुक्ता ने समसामयिक युग के यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए बदलते संदर्भो की गहनता से पड़ताल कर, ईमानदारी और सद्भावना के साथ साधारणीकरण के मंत्र को जपते ‘सर्तक-सावधान-समाधान’ रूपी विभिन्न रूपों की सुंदर प्रस्तुति दी है। यही कवयित्री चित्त (मन) का साधारणीकरण है। ऐसा ही एक प्रयास डॉ. मुक्ता ने ‘कोशिश’ नज़्म में किया है-

बढ़ न जायें दिलों के फ़ासले इस क़दर

ज़रा क़रीब आने की कोशिश तो कीजिए

कहीं छा न जाये मरघट सी उदासी

अंतर्मन में झांकने की कोशिश तो कीजिए

काव्य शिल्प-सौष्ठव की दृष्टि से मौलिक और प्रखर काव्य सृष्टि हुई है। नज़्में चित्रमयी, लाक्षणिक भाषा और रूपकों से सम्पन्न हैं तथा प्रस्तुत-अप्रस्तुत प्रतीकों का आश्रय लिए हुए हैं। विशेषतः हिंदी तत्सम, उर्दू और फ़ारसी शब्दों का मणिकंचन प्रयोग नज़्मों की नब्ज़ बने हैं।

शुभाकांक्षी

© डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’

साहित्यालोचक एवं अनुवादविद

चरखी दादरी, हरियाणा, मो. 81999-29206

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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