(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा प्रो कम्मू खटिक जी द्वारा संपादित पुस्तक “मास्क के पीछे क्या है ?” (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १) पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 160 ☆
☆ “मास्क के पीछे क्या है ?” (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १) – संपादक – प्रो कम्मू खटिक ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक – मास्क के पीछे क्या है (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १)
संपादक – प्रो कम्मू खटिक
प्रकाशक – सदीनामा प्रकाशन
संस्कारण – पहला संस्करण २०२३,
पृष्ठ – १९६
मूल्य – ३००रु
ISBN – 978-93-91058-31-9
चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव
हाल ही मास्क के पीछे क्या है? शीर्षक से प्रो कम्मू खटिक के संपादन में सामूहिक व्यंग्य संग्रह का पहला भाग प्रकाशित हुआ है, जिसमें ५६ समकालीन व्यंग्यकारों की रचनायें संकलित हैं। किताब सदीनामा प्रकाशन से छपी है। सदीनामा जितेंद्र जीतांशु जी के द्वारा संचालित एक बहुआयामी अद्भुत संस्था है जो प्रतिदिन साहित्यिक बुलेटिन प्रकाशित कर अपनी देश व्यापी पहचान बना चुकी है। साहित्य जगत प्रतिदिन इसकी साफ्ट कापी की प्रतीक्षा करता है। सदीनामा के स्त्री विमर्श और व्यंग्य के स्तंभो से प्रो कम्मू खटिक समर्पित भाव से जुड़ी हुई हैं। तार सप्तक संपादित संयुक्त संकलन साहित्य जगत में बहु चर्चित रहा है। सहयोगी अनेक संकलन अनेक विधाओ में आये हैं। मेरे संपादन में “मिली भगत” शीर्षक से वैश्विक स्तर पर पहला सामूहिक व्यंग्य संग्रह भी छपा था। “व्यंग्य विसंगतियो पर भाषाई प्रहार से समाज को सही राह पर चलाये रखने के लिये शब्दो के जरिये वर्षो से किये जा रहे प्रयास की एक सुस्थापित विधा है “।यद्यपि व्यंग्य अभिव्यक्ति की शाश्वत विधा है, संस्कृत में भी व्यंग्य मिलता है, प्राचीन कवियो में कबीर की प्रायः रचनाओ में व्यंग्य है, यह कटाक्ष किसी का मजाक उड़ाने या उपहास करने के लिए नहीं, बल्कि विसंगतियों के परिष्कार के लिये लिखा जाता है। कबीर का व्यंग्य करुणा से उपजा है, अक्खड़ता उसकी ढाल है। हास्य और व्यंग्य में एक सूक्ष्म अंतर है, जहां हास्य लोगो को गुदगुदाकर छोड़ देता है वहीं व्यंग्य हमें सोचने पर विवश करता है। व्यंग्य के कटाक्ष पाठक को तिलमिलाकर रख देते हैं। व्यंग्य लेखक के, संवेदनशील और करुण हृदय के असंतोष की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है। शायद व्यंग्य, उन्ही तानो और कटाक्ष का साहित्यिक रचना स्वरूप है, जिसके प्रयोग से सदियो से सासें नई बहू को अपने घर परिवार के संस्कार और नियम कायदे सिखाती आई हैं और नई नवेली बहू को अपने परिवार में स्थाई रूप से घुल मिल जाने के हित चिंतन के लिये तात्कालिक रूप से बहू की नजरो में स्वयं बुरी कहलाने के लिये भी तैयार रहती हैं। कालेज में होने वाले सकारात्मक मिलन समारोह जिनमें नये छात्रो का पुराने छात्रो द्वारा परिचय लिया जाता है, भी कुछ कुछ व्यंग्य, छींटाकशी, हास्य के पुट से जन्मी मिली जुली भावना से नये छात्रो की झिझक मिटाने की परिपाटी रही है और जिसका विकृत रूप अब रेगिंग बन गया है।
प्रायः अनेक समसामयिक विषयो पर लिखे गये व्यंग्य लेख अल्प जीवी होते हैं, क्योकि किसी घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया व्यंग्य, अखबार में फटाफट छपता है, पाठक को प्रभावित करता है, गुदगुदाता है, थोड़ा हंसाता है, कुछ सोचने पर विवश करता है, जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह थोड़ा कसमसाता है पर अपने बचाव के लिये वह कोई अच्छा सा बहाना या किसी भारी भरकम शब्द का घूंघट गढ़ ही लेता है। जैसे प्रायः नेता जी आत्मा की आवाज से किया गया कार्य या व्यापक जन कल्याण में लिया गया निर्णय बताकर अपने काले को सफेद बताने के यत्न करते दिखते हैं। अखबार के साथ ही व्यंग्य भी रद्दी में बदल जाता है।उस पर पुरानेपन की छाप लग जाती है। किन्तु पुस्तक के रूप में व्यंग्य संग्रह के लिये अनिवार्यता यह होती है कि विषय ऐसे हों जिनका महत्व शाश्वत न भी हो तो अपेक्षाकृत दीर्घकालिक हो। मास्क के पीछे क्या है ? अनेक व्यंग्यकारो की करिश्माई कलम का ऐसा ही कमाल है।
संग्रह में लेख के साथ व्यंग्य चित्र भी प्रकाशित हैं।
इंदिरा किसलय (नागपुर), डॉ. मधुकर राव लारोकर (नागपुर), प्रभात गोस्वामी (जयपुर), डॉ. सुधांशु कुमार (बिहार), सुनील सक्सेना (भोपाल), गीता दीक्षित (मध्य प्रदेश), परमानंद भार्गव (उज्जैन), डॉ. अरविंद शर्मा (जयपुर). स्वाति ‘सरु’ जैसलमेरिया (जोधपुर), रीता तिवारी (नागपुर), टीकाराम साहू ‘आजाद’ (नागपुर), सतीश लाखोटिया (नागपुर). राकेश सोहम (जबलपुर), राकेश अचल (ग्वालियर), संजय बर्वे (नागपुर), डॉ. रश्मि चौधरी (ग्वालियर), निवेदिता दिनकर (आगरा), राजेंद्र नागर निरंतर, श्रीलाल शुक्ल (अलीगढ़), डॉ. रवि शर्मा ‘मधुप’ (दिल्ली), लालित्य ललित (दिल्ली). कुंदन सिंह परिहार (जबलपुर), राजशेखर चौबे (रायपुर), डॉ. महेंद्र कुमार ठाकुर (रायपुर), अखतर अली (रायपुर), मुकेश नेमा (भोपाल). वेद माथुर (अलवर), घनश्याम अग्रवाल (अकोला), कामता प्रसाद सिंह ‘काम’, डॉ. नीरज दइया (बीकानेर), मुश्ताक अहमद युसुफी, शरद जोशी, सुरेश सौरभ (लखीमपुर, खीरी), डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ (हैदराबाद), भूपेंद्र भारतीय (देवास), राजेंद्र त्यागौ (मेरठ), वीरेंद्र सरल (छत्तीसगढ़), प्रभाशंकर उपाध्याय (सवाई माधोपुर), सुनीता महेश मल्ल (महाराष्ट्र), रंजना शर्मा (कोलकाता), डॉ. हरीश कुमार सिंह (उज्जैन), परवेश जैन (लखनऊ), श्री नारायण चतुर्वेदी (इटावा, यूपी), अनुराग बाजपेयी (जयपुर), डॉ. देवेंद्र जोशी (उज्जैन), अनीता रश्मि (रांची), संसार चंद्र, प्रेम जनमेजय (दिल्ली), पप्पू कुमार रजक (नैहाटी ) की रचनाओ का चयन भाग एक में संकलित करने के लिये संपादक ने किया है। शायद अगले भागों में और ज्यादा महत्वपूर्ण समकालीन लेखन सामने आये। सामूहिक संग्रहो की पठनीयता और चर्चा अधिक तथा दीर्घजीवी होती है, क्योंकि प्रत्येक सहभागी लेखक किताब को अपनी ही पुस्तक की तरह प्रमोट करता है। सभी परस्पर एक दूसरे की रचनाएं पढ़ते ही हैं। गिरिराज शरण के संपादन में 2009 में एक राष्ट्रीय स्तर का सामूहिक संग्रह पोलिस व्यवस्था पर केंद्रित छपा था। अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक व्यंग्य संकलन “२१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार ” भी हाल ही छप चुका है।इन संग्रहों में सहभागी रचनाकारों ने अपने अपने विषयों पर रचनाएं लिखी हैं। विषय केंद्रित संग्रह भी आ चुके हैं। ऐसा ही एक सामूहिक संग्रह थाने थाने व्यंग्य शीर्षक हरीश कुमार सिंह और नीरज सुधांशु के संपादन में छपा था। बहरहाल मास्क के पीछे क्या है ? (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १) प्रो कम्मू खटिक के संपादन में सदीनामा प्रकाशन के बेनर से एक और सामूहिक अच्छा प्रयास है, जिसकी सफलता, व्यापक पठनीयता हेतु मेरी शुभकामनायें हैं। खरीदिये और पढ़िये, प्रतिक्रिया दीजीये, लेखक को प्रतिक्रियाओ से बड़ा संबल मिलता है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री कविता वर्मा जी के उपन्यास अब तो बेलि फ़ेल गई पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 159 ☆
☆ “अब तो बेलि फ़ेल गई” (उपन्यास) – लेखिका – सुश्री कविता वर्मा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक – अब तो बेलि फैल गई (उपन्यास)
अद्विक प्रकाशन
लेखिका … कविता वर्मा
पृष्ठ 190,
मूल्य 250 रु. – अमेजन पर सुलभ
चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव
कुछ किताबें ऐसी होती हैं जिन पर फुरसत से लिखने का मन बनता है, पर यह फुरसत ही तो है जो कभी मिलती ही नहीं। कविता जी ने अब तो बेलि फैल गई प्रकाशन के तुरंत बाद भेजी थी। पर फिर मैं दो तीन बार विदेश यात्राओ में निकल गया और किताब सिराहने ही रखी रह गई। एक मित्र आये वे पढ़ने ले गये फिर उनसे वापस लेकर आया और आज इस पर लिखने का समय भी निकाल ही लिया। साहित्य वही होता है जिसमें समाज का हित सन्नहित हो। समस्याओ को रेखांकित ही न किया जाये उनके हल भी प्रस्तुत किये जायें। उपन्यास के चरित्र ऐसे हों जो मर्म स्पर्शी तो हों पर जिनसे अनुकरण की प्रेरणा भी मिल सके। इन मापदण्ड पर कविता वर्मा का उपन्यास अब तो बेलि फैल गई बहुत भाता है। उनका भाषाई और दृश्य विन्यास परिपक्व तथा समर्थ है। पाठक जुड़ता है। कहानी की अपेक्षा उपन्यास की ताकत जीवन और समाज की व्यापक व्याख्या है। विश्व साहित्य के महाकाव्यों में भी कथानक ही मूल आधार रहा है। कहानियां हमेशा से रचनात्मक साहित्य का मेरुदंड कही जाती हैं। उपन्यास को आधुनिक युग की देन कहना ज्यादा समीचीन होगा। रचनाकार के अभिव्यक्ति सामर्थ्य के अनुसार उपन्यास में शब्दावली, समकालीन आलोचनात्मक सोच, परिदृश्य के शब्द चित्र, समाज की व्यवहारिक समझ, सहानुभूति और अन्य दृष्टिकोणों व्यापक संसार एक ही कथानक में पढ़ने मिलता है। पाठक का ज्ञान बढ़ता है। बौद्धिक खुराक के साथ साथ मानसिक आनंद एवं रोजमर्रा की जिंदगी से किंचित विश्रांति के लिये आम पाठक उपन्यास पढ़ता है। पाठक को उसके अनुभव संसार में उपन्यास के पात्र मिल ही जाते हैं और वह कथानक में खो जाता है। पाठक उपन्यास को कितनी जल्दी पढ़कर पूरा करता है, कितनी उत्सुकता से पढ़ता है, यह सब लेखक की रोचक वर्णन शैली और कथानक के चयन पर निर्बर करता है। कविता वर्मा हिन्दी साहित्य सम्मेलन के स्तरीय पुरस्कार सहित कई सम्मानो से पुरस्कृत, अनेक कृतियों की परिपक्व लेखिका हैं जो लम्बे समय से विविध विधाओ में लिख रही हैं। किन्तु कहानी और उपन्यास उनकी विशेषता है। हिन्दी साहित्य में समाज का मध्य वर्ग ही बड़ा पाठक रहा है। स्वयं लेखिका भी मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। अब तो बेलि फैल गई की कहानी मूलतः
इसी वर्ग के इर्द गिर्द बुनी गई है। उपन्यास के चरित्रो को पाठक अपने आस पास महसूस कर सकता है।
यह कृति लेखिका का दूसरा उपन्यास है। इससे पूर्व वे छूटी गलियां नामक उपन्यास हिन्दी साहित्य जगत को दे चुकीं हैं। इस कृति के कथानक को दीपक सहाय, गीता, सोना, राहुल, विजय, नेहा आदि चरित्रो से रचा गया है। आज ज्यादातर परिवारों में बच्चे विदेश जा बसे हैं, उस परिदृश्य की झलक भी पढ़ने मिलती है। भावनात्मक, मानसिक अंतर्द्व्ंद, उलझन, संवाद, सब कुछ प्रभावी हैं। रचनाकार स्त्री हैं, वे कुशलता से स्त्री चरित्रों की विभिन्न स्थितियों में मानसिक उहापोह, समाज की पहरेदारी, बेचारगी और दोस्ती, सहानुभूति, मदद के सहज प्रस्ताव पर प्रतिक्रया जैसे विषयों का निर्वाह सक्षम तरीके से करने में सफल रही हैं। मैं कहानी बताकर आपका पाठकीय कौतुहल समाप्त नहीं करूंगा, उपन्यास एमेजन पर उपलब्ध है। खरीदिये, पढ़िये और बताइये कि “अब तो बेलि फैल गई” की जगह और क्या बेहतर शीर्षक आप प्रस्तावित कर सकते हैं ? लेखिका को मेरी हार्दिक बधाई, निश्चित ही बड़े दिनो बाद एक ऐसा उपन्यास पढ़ा जो मर्मस्पर्शी है, हमारे इर्द गिर्द बुना हुआ है और उपन्यास के आलोच्य मानको की कसौटी पर खरा है।
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी की कृति “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें…“ की समीक्षा।)
☆ “कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें… ” (व्यंग्य संग्रह)– श्री शांतिलाल जैन ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक : कि आप शुतरमुर्ग बने रहें (व्यंग्य संग्रह)
व्यंग्यकार : श्री शांतिलाल जैन
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृष्ठ संख्या : 160 पृष्ठ
मूल्य : 200 रु
“….की आप शुतुरमुर्ग बने रहें” पुस्तक पर चर्चा के पूर्व बात करते हैं इस कृति के कृतिकार श्री शांतिलाल जैन की । शांतिलाल जैन ने अपने जीवन का अमूल्य समय भारतीय स्टेट बैंक में सेवारत रहते हुए व्यतीत किया और कर्त्तव्य निष्ठा से सहायक महाप्रबंधक के पद तक पहुंचे । सामान्यतः बैंक कर्मचारी गुणा – भाग, जोड़ – घटाने में माहिर अत्यंत्य सूक्ष्म दृष्टि के हो जाते हैं । स्वाभाविक ही है कि व्यक्ति के पेशे का प्रभाव उसके जीवन, रुचियों, चिंतन और रचनात्मकता पर भी पड़ता है । कलेक्ट्रेट के बाबुओं, अधिकारियों, न्यायाधीशों, पुलिस कर्मियों, सेल्स टैक्स – रेलवे कर्मियों, शिक्षकों, पत्रकारों, बैंक कर्मचारियों का चिंतन और रचना शैली समान नहीं हो सकती । चूंकि शांति लाल जी बैंक में सेवारत रहते हुए व्यंग्यकार बने अतः उनकी दृष्टि में पैनापन, अवलोकन करके उत्तर के रूप में वास्तविकता प्राप्त करने की क्षमता अन्य पेशारत व्यंग्यकारों से अधिक है। संभवतः यही कारण है कि इनके व्यंग्य बिना किसी लंबी भूमिका के शीघ्र ही मुद्दे पर आकर बिना लाग लपेट के गणितीय शैली में परिणाम तक पहुंच जाते हैं । आपके व्यंग्य छोटे किंतु सटीक हैं ।
पुस्तक की भूमिका में शांति लाल जी कहते हैं कि भयानक मंजरों को मत देखिए, जननेताओं की विफलताओं को मत देखिए । सांप्रदायिकता की आंधी आने वाली है, आर्थिक और सामाजिक असमानता की आंधी आने वाली है, पाखंड, अंधविश्वास और जहालियत की आंधी आने वाली है, आवारा पूंजीवाद की आंधी आने वाली है, फाल्स डेमोक्रेसी की आंधी आने वाली है लेकिन सत्ता की पूरी मशीनरी से कहलवाया जा रहा है कि सकारात्मक बने रहिए । “सकारात्मक रहने की ओट में आपसे रेत में सिर घुसाकर रखने की अपीलें की जा रही हैं । वे कहते हैं “…. कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें ।”
पुस्तक के प्रारम्भ में श्री कैलाश मंडलेकर का कथन है कि इस दौर के व्यंग्य लेखन पर प्रायः नान सीरियस और चलताऊ किस्म की टिप्पणी फैशन के तौर पर की जाती है । आज का व्यंग्य लेखन फार्मूला बद्ध और सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने का जरिया बनता जा रहा है और उसमें उस तरह की गंभीरता नहीं है जैसी कि परसाई या शरद जोशी के लेखन में हुआ करती थी । यहां पहले ही कहा जा चुका है कि प्रत्येक की दृष्टि और चिंतन उसके पारिवारक वातारण, परिस्थितियों, साथियों, शिक्षा, व्यवसाय और उसके जिये समय के अनुसार ही विकसित होते हैं, अतः किसी भी कवि – लेखक, कथाकार, व्यंग्यकार की किसी अन्य से तुलना नहीं की जाना चाहिए । जिसे हम पढ़ रहे हैं, जो हमारे सामने है तर्क पूर्वक उसकी बात करना ही उचित है । व्यंग्य वर्तमान के यथार्थ का लेखन है और शांतिलाल जी ने वर्तमान की वास्तविकता को सहजता, सरलता, सजगता व निर्भयता के साथ प्रस्तुत किया है ।
बोधि प्रकाशन द्वारा 2023 में प्रकाशित श्री शांतिलाल जैन की पुस्तक “…. कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें” में 160 पृष्ठों में विविध विषयों पर 57 व्यंग्य रचनाएं हैं । पुस्तक का मूल्य 200 रुपए है । इस पुस्तक में अनेक रचनाएं कोरोना से पीड़ित समाज की विपदाओं पर केंद्रित हैं । इनमें वैयक्तिक और सामाजिक अंतर्विरोधों के साथ व्यवस्था की लापरवाहियों पर पैने कटाक्ष किए गए हैं । निःसंदेह कोरोनाकाल की भयानकता को भुलाया नहीं जा सकता। अनेक अव्यवस्थाओं, विसंगतियों के बाद भी ऐसा नहीं है कि इससे निपटने या बचने के लिए कुछ नहीं किया गया । शासन – प्रशासन, समर्थ और आम आदमी सिर्फ हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा, किंतु यदि मात्र दोष खोजने व उनपर कटाक्ष करने को ही व्यंग्य कहा जाता है तो शांतिलाल जी ने बखूबी व्यंग्यकार का धर्म निभाया है । मैं समझता हूं कि यदि अच्छी बातों पर अच्छी टिप्पणी करते हुए, विसंगतियों पर करारे प्रहार किए जाएं तो भी लेखक अपने व्यंग्य की धार को बनाए रख सकता है ।
“नलियाबाखल से मंडी हाउस तक” शीर्षक व्यंग्य में खबर प्रस्तुतिकरण के तरीकों और पत्रकारिता पर करारा व्यंग्य है । “बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं” व्यंग्य में वोट के लिए दिए जा रहे प्रलोभन का वास्तविक चित्र है । “एवर गिवन इन स्वेज आफ इंदौर” में वे सड़क पर पसरे अतिक्रमण और अवरुद्ध यातायात की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं । “हम साथ साथ (लाए गए) हैं” में सामूहिक फोटो खिंचवाने के लिए लोगों के नखरों का हास्य – व्यंग्य भरा सहज चित्रण है । आगे के लेखों में बरसात में शहर में जल प्लावन । दवाखाने में डॉक्टर को दिखाने में लगी भीड़, सास – बहू संबंध, राजनीत में झूठ का महत्व, न्याय व्यवस्था, अदाओं की चोरी, ईमानदार होने की उलझन आदि में विसंगतियों पर सटीक प्रहार है । जैन साहब ने सहजता से सीधे शब्दों में दो टूक बात कही है ।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है डॉ. मीना श्रीवास्तव जी द्वारा श्री विश्वास विष्णु देशपांडे जी की मराठी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद – “रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 158 ☆
☆ “व्यंग्य लोक त्रैमासिकी” – संपादक – रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
समकालीन_व्यंग्य समूह एक व्हाट्सअप समूह है। समूह में ३०० से ज्यादा प्रबुद्ध रचनाकार देश विदेश से जुड़े हुये हैं। समकालीन सक्रिय साहित्यिक समूहों में इस समूह का श्रेष्ठ स्थान है। व्यंग्य, कहानी, कविता, साहित्यिक मुद्दों पर लिखित चर्चा, पुस्तकों पर बातें,लेखक से प्रश्नोत्तर, आदि विभिन्न आयोजनो की रूपरेखा निर्धारित है, जिसे अलग अलग स्थानों से विभिन्न साहित्य प्रेमी अनुशासित तरीके से सप्ताह भर, हर दिन अलग पूरी गंभीरता से चलाते हैं। समूह के एडमिन टीकमगढ़ से प्रसिद्ध व्यंग्यकार राम स्वरूप दीक्षित हैं। उन्हीं की परिकल्पना के परिणाम स्वरूप समूह की त्रैमासिक ई पत्रिका व्यंग्य लोक का प्रवेशांक मई से जुलाई २०२४ हाल ही https://online.fliphtml5.com/rfcmc/bbfe/index.html पर सुलभ हुआ है। फ्लिप फार्मेट के प्रयोग से प्रिंटेड पत्रिका पढ़ने जैसा ही आनंद आया। ई पत्रिका के लाभ अलग ही हैं, कोई कागज का अपव्यय नहीं, यदि टैब या फिर कम से कम मोबाईल इंटरनेट के साथ है, तो आप दुनियां में जहां कहीं भी हों पत्रिका आपके साथ है। मैने भी इसे लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर अपनी फ्लाइट के इंतजार में पहली बार पढ़ा।
श्री रामस्वरूप दीक्षित
आत्म_लोक में संपादक जी समकालीन परिदृश्य पर लिखते हैं कि रचना प्रकाशित होते ही व्यंग्यकार का दिमाग लिखने से ज्यादा छपने में सक्रिय हो जाता है, पाँच छै व्यंग्य छपने के बाद तो कोई स्वयं को वरिष्ठ से कम मानने ही तैयार नहीं। पुरखों के कोठार से स्तंभ में लतीफ घोंघी जी का व्यंग्य हो जाये इसी बहाने एक श्रद्धांजली पुनर्प्रकाशित किया गया है। अपठनीयता के इस समकाल में यह स्तंभ उल्लेखनीय है। पहला ही चयन लतीफ घोंघी को लेकर किया गया यह महत्वपूर्ण है। लतीफ घोंघी और ईश्वर शर्मा की व्यंग्य की जुगलबंदी लम्बे समय तक चली, जिसमें दोनो व्यंग्यकार एक ही विषय पर लिखा करते थे।
पन्ना पलटते ही व्यंग्य विधा पर विचार लोक स्तंभ में डॉ सेवाराम त्रिपाठी, प्रेम जनमेजय, यशवंत कोठारी और अजित कुमार राय के वैचारिक लेख हैं। प्रेम जनमेजय का आलेख व्यंग्य के आज की उलटबासियां पढ़ा, अच्छा लगा।
व्यंग्य की पत्रिका में व्यंग्य तो होने ही थे, अरविंद तिवारी, सुभाष चंदर, सूरज प्रकाश, जवाहर चौधरी, सुधीर ओखदे, अख्तर अली राजेंद्र सहगल, शशिकांत सिंह शशि और कमलेश पांडेय की व्यंग्य रचनाएं व्यंग्यलोक के अंतर्गत छपी हैं। जवाहर चौधरी की रचना खानदानी गरीब घुइयांराम वार्तालाप शैली में लिखा गया अच्छा व्यंग्य है, घुइयांराम कहते हैं कि एक बार वोट को बटन दबा देने बाद हम रुप५या किलो के सड़ा गेहूं हो जात हैं…. तुम ठहरे खानदानी गरीब तुम लोकतंत्र की आत्मा हो । ऑफ द रिकॉर्ड स्तंभ में अनूप श्रीवास्तव का शैलेश मटियानी पर संस्मरण है।कविता लोक में राकेश अचल की पंक्तियां हैं ” सबके सब हैं जहर बुझे तीरों जैसे, किसके दल में शामिल हो जाउं बेटा “। डॉ विजय बहादुर सिंह, हेमंत देवलेकर, कमलेश भारतीय, विमलेश त्रिपाठी, और पद्मा शर्मा की कविताएं भी है।लंदन के तेजेंद्र शर्मा की कहानी दर ब दर कथा लोक में ली गई है। फेसबुक लोक एक हटकर स्तंभ लगा, त्वरित, असंपादित और पल में दुनियां भर में पहुंच रखने वाले फेसबुक को इग्नोर नही किया जा सकता, ये और बात है कि इंस्टाग्राम और थ्रेड युवाओ को फेसबुक से खींच कर अलग करते दिख रहे हैं। राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी की फेसबुक वाल से माखनलाल चतुर्वेदी के कर्मवीर के पहले अंक से १७ जनवरी १९१९ के संपादकीय की ऐतिहासिक सामग्री है, तब भी राजनीति का यही हाल समझ आया। पुस्तक लोक में प्रमोद ताम्बट, शांतिलाल जैन, धर्मपाल महेंद्र जैन, टीकाराम साहू आजाद और प्रियम्वदा पांडेय की किताबों पर क्रमशः राजेंद्र वर्मा, शशिकांत सिंह शशि, मधुर कुलश्रेष्ठ, किशोर अग्रवाल और हितेश व्यास की पुस्तकों की समीक्षाएं हैं। सूचना लोक में पिछले दिनों सम्पन्न हुए साहित्यिक कार्यक्रमों की जानकारी दी गई है।
लेखक जी कहिन स्तंभ में घुमक्कड़ कहानी लेखिका संतोष श्रीवास्तव का आत्मकथ्य है। बिना पूरी पत्रिका पढ़े आपको मजा नहीं आयेगा। पेज नंबर दिये जाने थे जो चूक हुई है। यह तो हिट्स ही बतायेंगे कि पत्रिका कितनी पढ़ी गई और कहां कहां पढ़ी गई। बहरहाल इस संकल्पना की पूर्ति पर रामस्वरूप दीक्षित जी के मनोयोग तथा समर्पण की उन्हें बधाई। वे निश्चित ही अगले अंक की तैयारियों में जुटे होंगे। ईश्वर करे कि इस अच्छी पत्रिका को कुछ विज्ञापन मिल जायें क्योंकि पत्रिकायें केवल हौसलों से नहीं चलती।
☆ ‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद – कवयित्री : डॉ. मुक्ता ☆ समीक्षक – डॉ. अशोक कुमार ‘मंगलेश’ ☆
पुस्तक : लम्हों से संवाद
कवयित्री : डॉ• मुक्ता
प्रकाशक : वर्डज़ विग्गल पब्लिकेशन, सगुना मोर, दानापुर, पटना
पृष्ठ. सं• : 114
मूल्य. : 200 रुपए
‘स्व’ का ‘पर’ में विसर्जन का यथार्थ भावलोक: लम्हों से संवाद
मानव जीवन अनुभवों को लेकर चलता है। डॉ. मुक्ता के निजी अनुभव धीरे-धीरे विस्तृत होते-होते दर्शन में प्रविष्ट होने का आनंद और लुफ़्त उठाते हैं तथा बंजर जमीन पर पीर के फूल खिलाने का उद्यम रचते हैं। संवेदनशील मनुष्य हर क्षण, हर लम्हा मनुष्यत्व की रक्षा करता है, क्योंकि मनुष्य ही देव, दर्शन और इतिहास है, तभी तो कवयित्री डॉ. मुक्ता को भी ‘शब्द-शब्द समिधा’ में कहना पड़ा ‘सोहम्’। दरअसल यह आत्मीयता है, जो किसी-किसी को महसूस होती है, जो बेचैनी भी पैदा करती है। विपत्तियों में यादास्त किस तरह पतवार थामती है, खुद को समर्पित कर कैसे कविता या नज़्म आगे बढ़ती है, यह कहने को कवयित्री डॉ. मुक्ता प्रस्तुत होती हैं काव्य संग्रह ‘लम्हों से संवाद’ को लेकर, एक कादम्बरी वाक्य में देखिए वह क्या कहती हैं- उम्र गुजर जाती है जिंदगी ख्वाबों में ख़ुद से कभी-कभी बेवजह मुस्कुराहट की कोशिश करते, जीने की वजह से गुनहगार, मरु-सी जिंदगी, बड़ी बेवफा, खफ़ा-सी, दरकते रिश्ते, मोह के धागे कहाँ खो जाते हैं पता ही नहीं चलता, पल-पल भरमाता सुकून कहाँ मिलता है, तमाशा बन शाश्वत सत्य भी बेवजह साहिल को पाने की गुफ़्तगू, इंसान की कशमकश, आतंक के साये में न्याय की गुहार में इम्तिहान, इत्मीनान, अदब, धीर बंधाए, अनुभव करता है- जिंदगी क्या है? उठ रहे सवाल, आंधियों का रेला, कैसा चलन हो गया आज, तन्हा-सी झंझावतों में फंसी जिंदगी को कैसे कह दे मलाल है, नसीब है, फितरत है- नहीं आसान है, काश! अक्सर, स्वाँग, फांसले उजास के, दस्तूर-ए-दुनिया, मन को समझाए कैसे, कहीं दूर चल और खुद से जीतने की ज़िद में, नहीं वाज़िब, क्योंकि बच्चे बड़े सयाने हो गए हैं, सोचो! क्या वे दिन आएंगे, पछताना पड़ेगा नहीं, शब्द अनमोल हैं बात ऊंची रख हाले-दिल, ख़लिश, जीना है मुझको ये सिख लीजिए, नहीं वाज़िब जनाजा, दिल नादान, ‘सोहम्’ पाक रिश्ता है, बस! उसे उन्मुक्त हो जाने दो, अन्तर्निनाद, मुकाम के लिए एकला चलो रे, जीने की राह पर, साहिल को पा जाएगा। कवयित्री डॉ. मुक्ता की ‘उम्र गुज़र जाती है’ नज़्म देखिए-
तूफ़ान तो गाहे-बेगाहे आते रहते हैं जिंदगी में
कश्ती को सागर तक पहुँचाने में उम्र गुजर जाती है
मन से क्षुब्ध होने पर सुख या दु:ख अनुभव होता है और शान्त मन का असुख-अदुःख की अवस्था अनुभूति है। तभी तो भावों के उद्दीप्त होने पर सुखानुभूति तो उद्बुद्ध होने पर दुःखानुभूति होती है। अतः हर प्रकार की मनोदशा में प्रिय-अप्रिय होने का तत्त्व विद्यमान रहता है। मगर, मृग-तृष्णा के पीछे भागना मूर्खता का विषय है। कवयित्री कहती है कि जिंदगी दर्द भी है और दवा भी, इसमें लहरें उठती रहेंगी। जब शांत जल में मात्र कंकर डालने से क्षोभ उत्पन्न हो जाता है तो फिर उद्दीपक के प्रभाव से शांत मन में विक्षोप या आंदोलन उत्पन्न होना संभाव्य है। कवयित्री कहती है मानव को समय की धार, जिंदगी के फ़लसफ़े, संवेग (क्षुब्द मनोवृत्ति) को समझना होगा। डॉ. मुक्ता ‘मरुस्थल में मरूद्यान’ की संकल्पना का पाठ लिखती हैं-
मृग-तृष्णा उलझाती है, मत दौड़ उसके पीछे मन बावरे !
ख़ुदा तेरे अंतर्मन में बसता, उस में झाँकना भी ज़रूरी है
जब मनुष्य मन की वीथियों से बाहर आ जाएगा, तो निश्चय ही अँधेरा छंट जाएगा, धरा सिंदूरी हो जाएगी। जिंदगी की डगर पर खुद पर भरोसा कर मनुष्य को मिथ्या जग में एकला ही चलना होगा-
अपनी ख़ुदी पर रखो भरोसा
और बना लो इसे ज़िंदगी का मूलमंत्र रे
यह ज़िंदगी है दो दिन का मेला
यहाँ कोई नहीं किसी का संगी-साथी रे
कवयित्री की नज़्में जीवन के विविध रंगों, विविध स्थितियों, मानव-मन की विविध दशाओं, हृदय की विभिन्न संवेदनाओं को परिभाषित करती हैं, विविध चित्र उपस्थित करती हैं, समाधान सम्मुख रखती हैं, व्यक्तित्व की सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप-रेखाओं को प्रस्तुत करती हैं। जीवन के सत्यों का उद्घाटन करती हैं, साथ ही सामयिक परिस्थितिओं और विद्रूपताओं की ओर संकेत करती हुई कवयित्री जिंदगी का फ़लसफ़ा लिखती हैं; यथा-
ऐ मन! सीख ले तू जीने का हुनर
हम तो तेरे तलबगार हो गये
कवयित्री आत्म-प्रवचन्ना से मुक्त होकर आत्म-विश्लेषण के लिए प्रेरित करती है। उसके निज़ाम में सब अच्छा ही होता है जो जीवन में समूचा सार-तत्त्व ‘जीने की राह पर’ सब गिला-शिकवा को भुलाकर आगे बढ़ता है। अर्थात ‘स्व’ में ‘पर’ का विसर्जन ही जीवन का सार-तत्त्व है-
यह दुनिया है मुसाफ़िरखाना
सबने अपना किरदार है निभाना
इस जहान से सबने है लौट जाना
तू हर पल प्रभु का सिमरन कर
90 नज्मों के इस संग्रह में कवयित्री किसी विशिष्ट भाव-बोध की गिरफ्त में नजर नहीं आती, बल्कि उनकी काव्यात्मक सोच विभिन्न गवाक्षों और गलियारों से गुजरती है और जहां कहीं भी कोई लम्हा उन्हें स्पंदित करता है, वह बड़ी चतुराई से उसे चुराकर अपने काव्य-कौशल द्वारा सुघड़ ढंग से अपनी कविता में पिरो देती हैं। एकांतलक्षिता के गुलमुहरी भाव-कुंजों से संपृक्त, संवेगात्मक कटु यथार्थ को अपनी कविता में सलिखे से समोने में कवयित्री के संग्रह ‘लम्हों से संवाद’ की नज़्में काव्य-रचना की रहस्यमयी प्रक्रिया, सूक्ष्म निरीक्षण और संभाव्य कल्पना और यथार्थ-बोध से परांतग्राह्य बनकर, नितांत निजी काव्यगत अनुभव ‘स्वान्तःसुखाय’ और ‘अहिंसा परमोधर्मः’ की बानगी प्रस्तुत कर स्वर्णिम सूर्य सृष्टि को आलोकित करती हैं-
समय कभी थमता नहीं, निरंतर बदलता रहता
सृष्टि का क्रम पल-पल, नव-रूप में प्रकट होता रहता
स्वर्णिम सूर्य सृष्टि को आलोकित करता, अनुभव कीजिए
कवि दार्शनिक होता है, पर दर्शन को सहज रूप में प्रस्तुत करना एक चुनौती रहती है, जिसमें डॉ. मुक्ता उत्तीर्ण नज़र आती हैं। ‘शाश्वत सत्य’ से पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
ज़िंदगी में मनचाहा होता नहीं, तनिक विचार करें
जो होता है, वह कभी भाता नहीं, तनिक विचार करें,
स्व-पर से ऊपर उठना है लाज़िम
जो होना है, अवश्य होकर रहता, तनिक विचार करें।
निष्कर्षतः कवयित्री अपनी व्यथा, वेदना, पीड़ा को अपनी रचनाओं में समाविष्ट करती हैं और उनका दर्द, दुःख, बेचैनी, जिज्ञासा ही उनकी रचनाओं का आधार बने हैं। किंतु किसी भी कवि/कवयित्री की खासियत यह होती है वह व्यक्तिगत संदर्भ का सामान्यीकरण करके ही प्रस्तुत करता है। चूंकि कवि रस-स्रष्टा से पहले रस-भोक्ता है, परंतु वह स्वार्थी की तरह रस का अकेला उपभोग नहीं करता, बल्कि ‘स्व’ को विस्तृत और व्यापक बनाकर ‘पर’ का तादात्म्य बैठा देता है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि ऐसा करने के कारण रचनाएँ पढ़ने में अधिक रुचिकर और आकर्षित करने वाली भी बन जाती हैं। डॉ. श्यामसुंदर का मत है कि कवि और पाठक की चित्तवृत्तियों का एकतान, एकलय हो जाना साधारणीकरण है। डॉ. मुक्ता ने समसामयिक युग के यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए बदलते संदर्भो की गहनता से पड़ताल कर, ईमानदारी और सद्भावना के साथ साधारणीकरण के मंत्र को जपते ‘सर्तक-सावधान-समाधान’ रूपी विभिन्न रूपों की सुंदर प्रस्तुति दी है। यही कवयित्री चित्त (मन) का साधारणीकरण है। ऐसा ही एक प्रयास डॉ. मुक्ता ने ‘कोशिश’ नज़्म में किया है-
बढ़ न जायें दिलों के फ़ासले इस क़दर
ज़रा क़रीब आने की कोशिश तो कीजिए
कहीं छा न जाये मरघट सी उदासी
अंतर्मन में झांकने की कोशिश तो कीजिए
काव्य शिल्प-सौष्ठव की दृष्टि से मौलिक और प्रखर काव्य सृष्टि हुई है। नज़्में चित्रमयी, लाक्षणिक भाषा और रूपकों से सम्पन्न हैं तथा प्रस्तुत-अप्रस्तुत प्रतीकों का आश्रय लिए हुए हैं। विशेषतः हिंदी तत्सम, उर्दू और फ़ारसी शब्दों का मणिकंचन प्रयोग नज़्मों की नब्ज़ बने हैं।
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय जी के व्यक्तित्व, दर्शन एवं उनकी कृति “सींगवाले गधे“ की समीक्षा।)
☆ व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय और उनकी कृति “सींगवाले गधे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
डॉ प्रेम जनमेजय – व्यक्तित्व दर्शन एवं कृति समीक्षा
“सींगवाले गधे” पुस्तक पर चर्चा से पहले बात करते हैं इस कृति का सृजन करने वाले श्री प्रेम जनमेजय जी की। एक धारदार व्यंग्यकार के रूप में और “व्यंग्य यात्रा” पत्रिका के माध्यम से व्यंग्य को प्रतिष्ठित व लोकप्रिय बनाने के लिए निरन्तर प्रयासरत प्रेम जनमेजय जी का नाम भी साहित्य जगत का घेरा तोड़कर सम्पूर्ण देश में कुछ उसी तरह चर्चित हो गया है जैसे मुंशी प्रेमचन्द और हरिशंकर परसाई का। जिन्होंने कभी इन्हें नहीं पढ़ा, जिन्हें साहित्य और व्यंग्य से कोई लेना देना नहीं वे आमजन भी इन्हें जानते हैं। साहित्य जगत में उनके उत्कृष्ट योगदान से, उनकी सफलता से परिचित हैं। एक नजर में लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेने वाले, सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी जनमेजय जी अपनी “सींग वाले गधे” पुस्तक के अपने कथ्य में पूरे होशोहवास में शपथ पूर्वक घोषित करते हैं कि “न तो मैं जन्मजात साहित्यकार हूं न मेरा जन्म किसी साहित्यिक परिवार में हुआ है और न ही मेरे आस – पड़ोस में कोई छोटा बड़ा साहित्यकार रहता है….मेरे खानदान में लेखक नाम का कोई जीव भी नहीं था।” उनका यह कथन साबित करता है कि उनका लेखन अनुभव, साधना, आत्मावलोकन और सिंहावलोकन से गुजरता हुआ कागज पर उतरता है। यही उनकी व्यापक सफलता और यश कीर्ति का कारण है। वे कहते हैं कि उनके जीवन में परसाई साकार और निराकार दोनों रूपों में उपस्थित हैं। प्रेम जनमेजय लिखते हैं कि जो परसाई हिंदी व्यंग्य के रक्षक दिखाई देते थे एक समय वही परसाई व्यंग्य के स्वतंत्र स्वरूप को सिरे से नकारने लगे। हरिशंकर परसाई ने घोषणा कर दी कि व्यंग्य कोई विधा नहीं है, उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। परसाई ने यहां तक लिखा कि उन्होंने कहानी, संस्मरण, निबंध आदि ही लिखे हैं। सारा प्रगतिशील खेमा व्यंग्य विरोधी हो गया। परसाई ऐसी ऊंचाई पर थे कि उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था।ऐसे समय प्रेम जनमेजय ने द्रुतविलंबित स्वर में अपना “विधा राग, मध्यम स्वर में ही सही चालू रखा। अगस्त 2012 में साहित्य अकादमी उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान एवं “व्यंग्य यात्रा” के संयुक्त तत्वावधान में व्यंग्य केंद्रित दो दिवसीय आयोजन में “व्यंग्य विधा आंदोलन” को संजीवनी मिली। प्रेम जी ने लिखा है कि हिंदी साहित्य के जिन भारी भरकम हित चिंतकों ने व्यंग्य को अन्य विधाओं की पंगत में बैठाने का महापाप किया है जिसका प्रायश्चित नहीं हो सकता… व्यंग्य लेखन एक गंभीर कर्म है।
निःसंदेह प्रेम जनमेजय के संपादकत्व में “व्यंग्य यात्रा” में व्यंग्य पर गंभीर लेख आते रहते हैं – व्यंग्य क्या है, कहां से पैदा होता है, व्यंग्य का कौन सा तत्व है जिसके बिना रचना सब कुछ हो सकती है लेकिन व्यंग्य रचना नहीं बन सकती। व्यंग्य की दशा और दिशा क्या है – वह किस ओर जा रहा है आदि आदि। मेरे (लेखक के) अनुसार तो व्यंग्य भेदभाव, विसंगतियों, असफलता, अपमान, ईर्ष्या, निराशा आदि की पृष्ठभूमि में जन्मता और पनपता है। यहां यह भी बताना आवश्यक है कि सामान्य शब्द अथवा वाक्य जिसमें कहीं कोई व्यंग्य नहीं है केवल उच्चारण के प्रस्तुतिकरण के तरीके से अलग अलग अर्थ प्रकट करता है। नारद मुनि मात्र नारायण – नारायण भी भिन्न – भिन्न अवसरों पर भिन्न – भिन्न तरह से बोलते दिखाए जाते हैं। कभी उनके नारायण – नारायण कहने में अपने इष्ट के प्रति भक्ति भाव प्रकट होता है, कभी श्रद्धा, कभी प्रश्न, कभी शंका तो कभी व्यंग्य। अतः व्यंग्य लिखा जाता है, पढ़ा जाता है, किंतु व्यंग्य केवल शब्दों की नाव पर ही सवारी नहीं करता, शब्दों के प्रकटीकरण का तरीका भी व्यंग्य को जन्म देता है। जिस तरह परिस्थितियों वश मनुष्य में प्रेम, दया, करुणा, भय, क्रोध, ईर्ष्या पैदा होते हैं उसी तरह व्यंग्य भी जन्म लेता और प्रकट होता है। कभी शब्दों के माध्यम से, कभी वाणी के माध्यम से, कभी हाव – भाव से तो कभी सिर्फ नजरों से अतः व्यंग्य एक भाव भी है और इस दृष्टि से मुझे हर व्यक्ति में जब – तब व्यंग्यकार नजर आ जाता है।
अस्तु, आज के व्यंग्यकारों को प्रेम जी आधा कबीर मानते हैं, क्योंकि कबीर निर्भीक होकर सीधा प्रहार करते थे, आज के व्यंग्यकार बचकर प्रहार करते हैं। हरिशंकर परसाई जन्मशती 2023 में प्रकाशित प्रेम जनमेजय जी की कृति “सींग वाले गधे” में प्रकाशित उनका कथ्य साबित करता है कि परसाई की रचनाओं, विषयों, लेखन और शैली के प्रशंसक जनमेजय बचकर आधा प्रहार करने वाले व्यंग्यकार नहीं हैं, वे कबीर की तरह निर्भीकता से पूरा प्रहार करने वाले सशक्त व्यंग्यकार हैं।
अब पुस्तक पर आते हैं। जिस रचना “सींगवाले गधे” पर पुस्तक का नाम कारण हुआ उसे पुस्तक में प्रथम क्रम में रखा गया है। इसमें करोनाकाल की विषम परिस्थितियों, परेशानियों में फंसे हुए लोगों और लाभार्थियों पर करारा व्यंग्य है। किन शक्ति संपन्न लोगों को भारी – भरकम कहा जाता है सब जानते हैं। प्रेम जी लिखते हैं – “भारी – भरकम जी भी किसी करोना से कम नहीं हैं। भारी भरकम जी किसी के पीछे पड़ जाएं तो उसका लॉकडाउन करवा देते हैं।” वे आगे लिखते हैं – “वह तालियों के बाजार के थोक व्यापारी हैं। कब किसके लिए तालियां बजवानी हैं और किससे बजवानी हैं – ताली शास्त्र के वे ज्ञाता हैं। ….”वह बेचारे इसलिए हैं कि मास्टर हैं। वह डबल बेचारा इसलिए है कि हिंदी का मास्टर है।” ….”भक्त तो पद पर बैठे सींगधारी के भक्त होते हैं। इसलिए समझदार गधे निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं कि उनके सिर से सींग गायब न हों और वे दुधारु पद पर बने रहें।” दूसरे क्रम के आलेख का शीर्षक है – “हा! हा! श्री की दुर्दशा देखी न जाई “। इसमें प्रश्न किया गया है कि “क्या अवतार लेने का अधिकार प्रभु को है, देवियों को नहीं ?” ….देश का कानून कहता है कि हर किसी को भागने का अधिकार है। “दो वैष्णवन की वार्ता” शीर्षक लेख में उनके सीधे तीखे व्यंग्य हैं – “जुगाड़ जम जाए तो आदमी जनसेवक से राजा बन जाता है” ….”पुरस्कार अच्छे – अच्छों को ज्ञानी बना देवे है।” ….”जब से भगवान के कारण सत्ता मिलनी प्रारंभ हुई है हर पार्टी के अपने अपने भगवान हो गए हैं।” जुगाड़ू की शक्ति बताते हुए प्रेम जी लिखते हैं कि – “जुगाड़ू के लिए का लंदन का अमेरिका।” “जैसे जिनके दिन फिरे”, करारी व्यंग्य रचना है जिसमें राधेलाल के माध्यम से चुनाव और लोकतंत्र पर प्रहार है। …. “फिरते होंगे घूरे के दिन बारह बरस में, आजकल तो पांच बरस में फिरते हैं “। “अथ पुरुष स्त्री संवाद” में पुरुष पर स्त्री के सटीक तीखे प्रहार हैं। पुरुष निरुत्तर है। “बसंत चुनाव लड़ रहा है” में प्रेम जी कहते हैं – “उसे अब पास वास होकर क्या करना है। अब तो वह जल्द शिक्षा मंत्री बनेगा और औरों को पास करेगा। उसे टिकट मिल गया है। जल्द वह देश का कर्णधार बनने वाला है।” ” बुरा न मानो साहित्यिक छापे हैं” – रचना की शुरूआत ही तीखी टिप्पणी से होती है – “वह छोटा व्यापारी था अतः बड़े आयकर अधिकारी के सामने त्राहिमाम की मुद्रा में बैठा था। बड़ा व्यापारी होता तो आयकर अधिकारी उसके सामने भिक्षामदेहि की मुद्रा में बैठा होता।” पुस्तक के 15 वें क्रम पर रचना है – “ओबे मास्टर जी !” व्यंग्य का पैनापन देखिए – आकाशवाणी हुई – ओबे मास्टर जी ! कैसा है ? मैं चौंका, बेशर्ममेव जयते के युग में, मुझ रिटायर्ड स्कूल मास्टर को “जी” लगाकर पुकारने वाला कौन है ? कौन है जो देश का हाल न पूछकर मुझ अनुत्पादी मास्टर का हाल पूछ रहा है।
“चुनाव लीला समाप्त आहे” चुनाव के साथ प्रभु चर्चा व्यंग्य के साथ हास्य भी पैदा करती है। भक्तों को दर्शन के लिए ऑनलाईन पंजीकरण और व्ही.आई.पी. तथा आम भक्त की चर्चा देश के धर्म क्षेत्र का सच प्रकट कर रही है। “चौराहे पर इतिहास” नामक रचना में प्रेम जनमेजय लिखते हैं – प्रजातंत्र की मांग पर देश कभी तिराहे, कभी दोराहे, कभी इक राहे पर खड़ा होता है, जैसे बाजार की मांग पर उपभोक्ता खड़ा होता है। “इश्क नहीं आसां” में लिखते हैं कि अब मजनूं सावधान हो गए हैं। सब्जी मंडी में छेड़ते, छिड़ते नहीं हैं। किसी मॉल में सुरक्षित छिड़न – छिड़ाई करते हैं। देश के सेवक भी तो देश के साथ सांसद में सुरक्षित छिड़न – छिड़ाई करते हैं। “वाह री बाढ़” में राहत वितरण का वास्तविक चित्र दिखाया गया है – “हम बाढ़ नियंत्रण कक्ष के अफसर हैं सरकार से बाढ़ नियंत्रण के लिए जो राहत मिलेगी उसे हम ही तो बांटेंगे। पिछली बाढ़ आई थी तो हमने ये टॉप फ्लोर लिया था। आगे एक प्रसंग पर वे लिखते हैं – “मुर्दे की भी हैसियत होती है, देश सेवक मरता है तो उसके लिए कम से कम चार एकड़ में समाधि बनती है।
167 पृष्ठीय, चार सौ रुपए मूल्य की इस सजिल्द पुस्तक “सींगवाले गधे” को विद्या विहार, नईदिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसमें 40 रचनाएं हैं। अनेक रचनाएं कोरोना और लॉक डाउन की परिस्थितियों पर भी व्यंग्य करती हैं। सहज, सरल, प्रवाहपूर्ण भाषा शैली में रचित गंभीर व्यंग्य, विसंगतियों पर ध्यान आकर्षित करते हुए न सिर्फ पाठकों को सोचने पर विवश करते हैं बल्कि उनमें आक्रोश भी पैदा करते हैं। इनमें हास्य नहीं किंतु विभिन्न प्रसंगों में कहीं – कहीं पाठकों के होंठों पर मुस्कान अवश्य उभरती है।
जनमेजय के रचना संसार में अब तक शामिल व्यंग्य संकलन हैं – राजधानी में गंवार, बेशर्ममेव जयते, कौन कुटिल खलकामी, कोई में झूठ बोल्या, हंसो – हंसो यार हंसो आदि। तीन व्यंग्य नाटक हैं – क्यूं चुप तेरी महफिल में, इर्दम – गिर्दम अहं स्मरामि (संस्मरण) एवं स्मृतियन के घाट पर जनमेजय चंदन घिसें (संपादन) के अतिरिक्त व्यक्ति और व्यक्तित्व चर्चा पर भी उनकी अनेक कृतियां हैं। प्रेम जी को श्रेष्ठ सृजन पर अनेक सम्मान प्राप्त हुए हैं। प्रेम जनमेजय की शैली भले ही व्यंग्य बाणों से भरी हो किंतु उनका सृजन उन्हें चिंतक – विचारक साबित करता है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है डॉ. मीना श्रीवास्तव जी द्वारा श्री विश्वास विष्णु देशपांडे जी की मराठी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद – “रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 157 ☆
☆ “रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष” – अनुवादक – डॉ. मीना श्रीवास्तव☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष
विश्वास देशपान्डे की किताब का हिन्दी अनुवाद
अनुवादक डा मीना श्रीवास्तव
सोहम क्रियेशन अन्ड पब्लिकेशन
पहला संस्करण २०२३, पृष्ठ १३६, मूल्य २००रु
ISBN 978-81-958488-5-0
डॉ मीना श्रीवास्तव
दैनिक संघर्षो का ही दूसरा नाम जीवन है। अपनी योग्यता और शक्ति के अनुरूप प्रत्येक मनुष्य जीवन रथ हांकते हुये संकटों का सामना करता है पर अनेकानेक विपत्तियां ऐसी होती हैं जो अचानक आती हैं, जो हमारी क्षमताओ से बड़ी हमारे बस में नही होतीं। उन कठिन परिस्थितियों में हमें एक मार्गदर्शक और सहारे की जरूरत पड़ती है। ईश्वर उसी संबल के लिये रचा गया है। भक्ति मार्ग पूजा, पाठ, जप, प्रार्थना और विश्वास का सरल रास्ता प्रशस्त करता है। ज्ञान मार्ग ईश्वर को, जीवन को, कठिनाई को समझने और हल खोजने का चुनौती भरा मार्ग बताता है। कर्म मार्ग स्वयं की योग्यता विकसित करने और मुश्किलों से जूझने का रास्ता दिखाता है। ईश्वर की परिकल्पना हर स्थिति में मनो वैज्ञानिक सहारा बनती है। राम, कृष्ण या अन्य अवतारों के माध्यम से ईश्वर के मानवीकरण द्वारा आदर्श आचरण के उदाहरणो की व्याख्या की गई है।
आजकल कापीकैट चेन मार्केटिंग में मैनेजमेंट गुरू बताते हैं कि बिना किसी घालमेल के उनके व्यापारिक माडेल का अनुकरण करें तो लक्ष्य पूर्ति अवश्यसंभावी होती है। जीवन की विषम स्थितियों में हम भी राम चरित्र का आचरण अपना कर अपना जीवन सफल बना सकें इसलिये वाल्मिकी ने रामायण में ईश्वरीय शक्तियों से विलग कर श्रीराम को मनुष्य की तरह विपत्तियों से जूझकर जीतने के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। रामायण नितांत पारिवारिक प्रसंगो से भरपूर है। राम चरित्र में आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, जिम्मेदार शिष्य, कर्तव्य परायण राजा, विषम परिस्थितियों में धैर्य के संग चुनौतियों का सामना करने वाला राजकुमार, नेतृत्व क्षमताओ से भरपूर योद्धा, इत्यादि इत्यादि गुण परिलक्षित होते हैं। राम चरित्र भारत की सांस्कृतिक धरोहर है। धार्मिक मनोवृत्ति वाले सभी भारतीय, जन्मना आस्था और आत्मा से श्रीराम से जुडे हुये हैं। श्री राम का जीवन चरित्र प्रत्येक दृष्टिकोण से हमारे लिये मधुर, मनोरम और अनुकरणीय है। मानस के विभिन्न प्रसंगों में हमारे दैनंदिक जीवन के संभावित संकटों के श्रीराम द्वारा मानवीय स्वरूप में भोगे हुये आत्मीय भाव से आचरण के मनोरम प्रसंग हैं। किन्तु कुछ विशेष प्रसंग भाषा, वर्णन, भाव, प्रभावोत्पादकता, की दृष्टि से बिरले हैं। इन्हें पढ, सुन, हृदयंगम कर मन भावुक हो जाता है। श्रद्वा, भक्ति, प्रेम, से हृदय आप्लावित हो जाता है। हम भाव विभोर हो जाते हैं। भक्तों को अलौलिक आत्मिक सुख का अहसास होता है। इतिहास साक्षी है कि आक्रांताओ की दुर्दांत यातनाओ के संकट भी भारतीय जन मानस राम भक्ति में भूलकर अपनी संस्कृति बचा सकने में सफल रहा है। ज्ञान मार्गी रामायण की जाने कितनी व्यापक व्याख्यायें करते रहे हैं, अनेको ग्रंथ रचे गये हैं। कितनी ही डाक्टरेट की उपाधियां रामायण के किसी एक चरित्र की व्याख्या पर ली जा चुकी हैं। किन्तु सच है कि हरि अनंत हरि कथा अनंता।
श्री विश्वास विष्णु देशपांडे
मूल मराठी लेखक विश्वास देशपांडे जी ने भी “रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष” के अंतर्गत रामायण के पात्रों और प्रसंगो पर छोटे छोटे लेखों में उनके सारगर्भित विचार रखे हैं। ईश्वरीय प्रेरणा से डा मीना श्रीवास्तव उन्हें पढ़कर इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने इन लेखों का हिन्दी, अंग्रेजी अनुवाद कर डाला। यही अनुवाद इस छोटी सी किताब का कलेवर है। व्यक्तित्व खण्ड में श्री राम, सीता, लक्षमण, भरत, शत्रुघन, उर्मिला, हनुमान, विभीषण, कैकेयी, रावण पर संक्षिप्त, पठनीय लेख हैं। इन समस्त चरित्रों पर हिन्दी साहित्य में अलग अलग रचनाकारों ने कितने ही खण्ड काव्य रचे हैं और विशद व्याख्यायें, टीकायें की गई हैं। उसी अनवरत राम कथा के यज्ञ में ये लेख भी सारगर्भित आहुतियां बन पड़े हैं।
राम कथा का महत्व, रामायण पारिवारिक संस्था, रामायण कालीन समाज, रामायण कालीन शासन व्यवस्था, रामायण की ज्ञात अज्ञात बातें जैसे आलेख भी जानकारियो से भरपूर हैं। अस्तु पुस्तक पठनीय, और संग्रहणीय है।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है डॉ. जवाहर कर्नावट जी द्वारा लिखित पुस्तक – “विदेश में हिंदी पत्रकारिता” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 156 ☆
☆ “विदेश में हिंदी पत्रकारिता” – डॉ. जवाहर कर्नावट☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
विदेश में हिंदी पत्रकारिता
जवाहर कर्नावट
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
पहला संस्करण २०२४,
पृष्ठ ३००, मूल्य ४००रु
ISBN 978-93-5743-322-8
चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव
डॉ. जवाहर कर्नावट
मान्यता है कि हिंदी भाषा की उत्पत्ति लगभग 1200 ईसा पूर्व संस्कृत के विकास के साथ हुई थी। समय के साथ इसकी विभिन्न बोलियां विकसित हुईं, जिनमें आधुनिक हिंदी भी एक है। देवनागरी लिपि के उद्भव के साथ 1000 ई.पू. के आसपास हिंदी का लिखित रूप सामने आया। लगभग 260 मिलियन लोगों द्वारा हिंदी वैश्विक स्तर पर बोली जाती है। ऐसी भाषा की पत्रकारिता का इतिहास स्वाभाविक रूप से प्रचुर है। आंकड़ो के अनुसार हिन्दी दुनिया में चौथी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। भारत में एक लोकप्रिय भाषा होने के साथ-साथ भारतीयों के वैश्विक विस्थापन के चलते यह अंतर्राष्ट्रीय रूप में भी महत्वपूर्ण भाषा बन गई है। समय के साथ हिंदी ने अंग्रेजी, फ़ारसी और अरबी सहित कई अन्य भाषाओं से कई शब्द समाहित कर लिए हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि राष्ट्रभाषा के बिना कोई भी राष्ट्र गूँगा हो जाता है। उन्होंने हिन्दी के विषय में कहा है कि “मैं हिंदी भाषा उसे कहता हूं जिसे उत्तर में हिंदू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या उर्दू में लिखते हैं। गांधीजी चाहते थे कि देश में बुनियादी शिक्षा से उच्च शिक्षा तक सब कुछ हिन्दी के माध्यम से हो। नागपुर में आयोजित पहले विश्व हिंदी सम्मेलन जनवरी, 1975 में यह प्रस्ताव पारित किया गया था कि संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए तथा एक अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना की जाय जिसका मुख्यालय वर्धा में हो। अगस्त, 1976 में मॉरीशस में आयोजित द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन में यह तय किया गया कि मॉरीशस में एक विश्व हिंदी केंद्र की स्थापना की जाए जो सारे विश्व में हिंदी की गतिविधियों का समन्वय कर सके। इसी प्रस्ताव के अनुरूप चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन के बाद विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना मॉरीशस में हुई।
जवाहर कर्नावट की सद्यः प्रकाशित पुस्तक विदेश में हिंदी पत्रकारिता में कुल चार अध्यायों में क्षेत्र के अनुसार विभिन्न देशों में हिंदी पत्रकारिता का इतिहास समेटा गया है।
किताब के पहले ही अध्याय मारीशस में हिन्दी पत्रकारिता में कर्नावट जी लिखते हैं कि मारीशस में हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास ११२ वर्ष पुराना है। दरअसल गिरमिटिया देशों में हिन्दी पत्रकारिता का वैश्विक हिन्दी स्वरूप भक्ति मार्ग से प्रशस्त होता है, क्यों कि जब एक एग्रीमेंट के तहत हजारों की संख्या में भारतीय मजदूरों को विभिन्न औपनिवेशिक देशों में ले जाया गया तो उनके साथ गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरित मानस भी वहां पहुंची और इस तरह हिन्दी के वैश्वीकरण की यात्रा चल निकली। कर्नावट जी ने बड़े श्रम से व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास कर मारीशस, आफ्रीका, फिजी, सूरीनाम, गयाना, त्रिनिदाद टुबैगो आदि गिरमिटिया देशों में हिंदी पत्रकारिता की ऐतिहासिक यात्रा को संजोया है। उनका यह विशद कार्य भले ही क्रियेटिव राइटिंग की परिभाषा से परे है पर निश्चित ही यह मेरी जानकारी में पुस्तक रूप में संग्रहित विलक्षण प्रयास है।
वर्ष २०११ में पवन कुमार जैन की पुस्तक “विदेशों में हिन्दी पत्रकारिता” शीर्षक से राधा पब्लिकेशन्स दिल्ली से प्रकाशित हुई थी, उसके उपरान्त इस विषय पर यह पहला इतना बड़ा समग्र प्रयास देखने में आया है, जिसके लिये जवाहर कर्नावट जी को हिन्दी जगत की अशेष बधाई जरूरी है।
मुझे अपने विदेश प्रवासों तथा सेवानिवृति के बाद बच्चों के साथ अमेरिका, यूके, दुबई में कई बार लंबे समय तक रहने के अवसर मिले, तब मैने अनुभव किया कि हिन्दी वैश्विक स्वरूप धारण कर चुकी है। कई बार प्रयोग के रूप में जान बूझकर मैने केवल हिन्दी के सहारे ही इन देशों में पब्लिक प्लेसेज पर अपने काम करने की सफल कोशिशें की हैं। यूं तो मुस्कान और इशारों की भाषा ही छोटे मोटे भाव संप्रेषण के लिये पर्याप्त होती है किन्तु मेरा अनुभव है कि हिन्दी की बालीवुड रोड सचमुच बहुत भव्य है। नयनाभिराम लोकेशन्स पर संगीत बद्ध हिन्दी फिल्मी गाने, मनोरंजक बाडी मूवमेंट्स के साथ डांस शायद सबसे लोकप्रिय मुफ्त ग्लोबल हिन्दी टीचर हैं। टेक्नालाजी के बढ़ते योगदान के संग जमीन से दस बारह किलोमीटर ऊपर हवाई जहाज में सीट के सामने लगे मानीटर पर सब टाईटिल के साथ ढ़ेर सारी लोकप्रिय हिन्दी फिल्में, और हिन्दी में खबरें भी मैंने देखी हैं। प्रस्तुत पुस्तक में जवाहर जी ने उत्तरी अमेरिका और आस्ट्रेलिया महाद्वीप के देशों में हिन्दी पत्रकारिता खण्ड में अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, और न्यूजीलैंड देशों के हिन्दी के प्रकाशनो को जुटाया है। उन पर कर्नावट जी की विशद टिप्पणियां और परिचयात्मक अन्वेषी व्याख्यायें महत्वपूर्ण दस्तावेजी करण हैं।
मेरे अभिमत में पिछली सदी में भारत से ब्रेन ड्रेन के दुष्परिणाम का सुपरिणाम विदेशों में हिन्दी का व्यापक विस्तार रहा है। जो भारतीय इंजीनियर्स, डाक्टर्स विदेश गये उनके परिवार जन भी कालांतर में विस्थापित हुये, उनमें से जिनकी साहित्यिक अभिरुचियां वहां प्रस्फुटित हुईं उन्होंने किसी हिन्दी पत्र पत्रिका का प्रकाशन विदेशी धरती से शुरु किया। उन छोटे बड़े बिखरे बिखरे प्रयासों को किताब की शक्ल में एकजाई रूप से प्रस्तुत करने का बड़ा काम जवाहर जी ने इस कृति में कर दिखाया है। यद्यपि यह भी कटु सत्य है कि विदेशों के प्रति एक अतिरिक्त लगाव वाले दृष्टिकोण की भारतीय मानसिकता के चलते विदेश से हुये किंचित छोटे तथा पत्रकारिता और साहित्य के गुणात्मक मापदण्डो पर बहुत खरे न होते हुये भी केवल विदेश से होने के कारण भारत में ऐसे लोगों की स्वीकार्यता अधिक रही है। विदेशों में अलग अलग स्थान से बाल साहित्य, विज्ञान साहित्य, कथा साहित्य, कविता, हिन्दी शिक्षण आदि आदि विधाओ पर अनेकों लोगों ने अनियतकालीन कई पत्र पत्रिकायें शुरू कीं जो, छपती और जल्दी ही बंद भी होती रहीं है। इस सबका लेखा जोखा करना इतना सरल नही था कि एक व्यक्ति केवल अपने स्तर पर यह सब कर सके। लेखक ने अपने संबंधो के माध्यम से यह काम कर दिखाया है। लेखक ने किताब के अंत में विविध देशों की पत्र पत्रिकायें उपलब्ध करवाने वाले महानुभावों तथा संस्थाओ की सूची भी दे कर अनुगृह व्यक्त किया है।
किताब के प्रत्येक चैप्टर्स के शीर्षक देश के नाम के साथ ” …. में हिंदी पत्रकारिता” हैं। इससे शीर्षको में एक रसता लगती है। यह भी ध्वनित होता है कि समय समय पर स्वतंत्र रूप से पत्रिकाओ के लिये लिखे गये लेखों को संग्रहित कर पुस्तक बनाई गई है। संपादित कर हर चैप्टर के कंटेंट के अनुरूप बेहतर शीर्षक दिये जाने चाहिये। आशा है कि किताब के अगले संस्करण में यह सरल वांछित सुधार किया जा सकेगा। उदाहरण के लिये अमेरिका में हिन्दी पत्रकारिता शीर्षक की जगह वहां के एक साप्ताहिक समाचार पत्र के आधार पर शीर्षक ” नमस्ते यू एस ए ” हो सकता है, जिसे अंदर लेख में स्पष्ट किया जा सकता है। इसी तरह न्यूजीलैंड में हिंदी पत्रकारिता शीर्षक की जगह ” हस्तलिखित रिपोर्टिंग से शुरुवात ” शीर्षक बेहतर हो सकता था। क्योंकि वहां द इंडियन टाईम्स में हस्तलिखित रिपोर्टो से हिन्दी पत्रकारिता का प्रारंभ हुआ था। मोटी शीट पर अलग से विभिन्न विदेशी पत्र पत्रिकाओ के चित्र छापे गये हैं, जिन्हें सहज ही संबंधित चैप्टर्स के साथ लगाया जाना चाहिये। पुस्तक में लेखक का परिचय भी दिया जाना चाहिये जिसका अभाव है। उल्लेखनीय है की कर्णावट जी को उनकी सतत हिंदी सेवाओ के लिए अनेकानेक सम्मान तथा विश्व हिंदी सम्मेलन में सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। यूरोप के महाद्वीप देशों में हिंदी पत्रकारिता के अंतर्गत ब्रिटेन, नीदरलैंड, जर्मनी, नार्वे, हंगरी और बुल्गारिया तथा रूस में हिंदी पत्रकारिता का वर्णन है। एशिया महाद्वीप के देशों में जापान, यू ए ई, कुवैत, कतर, चीन, तिब्बत, सिंगापुर, म्यांमार, श्रीलंका, थाईलैंड, और नेपाल को लिया गया है। इस तरह हिन्दी पत्र पत्रिकाओ के परिचय पाते हुये पाठक विश्व भ्रमण पूरा कर डालता है।
मेरी दृष्टि में जवाहर जी का यह प्रयास प्रशंसनीय है, जिसके लिए हिन्दी जगत उनका आभारी है, विभिन्न छोटे बड़े देशों मे सौ से ज्यादा वर्षो में किए गए प्रिंट मीडिया के तथा अब ई पत्रिका सामग्री के तथ्य जुटाकर उन्हें किताब के रूप में ढालना कठिन काम था। निश्चित ही पत्रकारिता के युवा शोधार्थियों को यह किताब विदेशों में हिन्दी पत्रकारिता की लम्बी यात्रा पर एकजाई प्रचुर सामग्री देती है।
☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘नारी नयी–व्यथा वही’ – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री आभा कुलश्रेष्ठ ☆
पुस्तक : नारी नयी–व्यथा वही
कवयित्री : डॉ• मुक्ता
प्रकाशन : वर्डज़ विग्गल पब्लिकेशन, सगुना मोर, दानापुर, पटना
पृष्ठ संख्या : 150
मूल्य : 299 रुपए
समीक्षक – सुश्री आभा कुलश्रेष्ठ
☆ समीक्षा – मानवीय संवेदनाओं व जीवन मूल्यों की कसौटी पर नारी – “नारी नयी–व्यथा वही” ☆
विभिन्न विरोधाभासों, विषमताओं व विसंगतियों से भरे संसार में सामाजिक, नैतिक और मानवीय मूल्यों का पतन निरंतर होता रहा है और जहाँ कभी भी, कहीं भी अन्याय हुआ है, उसका प्रभाव नारी मन पर गहराई से पड़ता है–चाहे लोगों की ग़लत सोच व मानसिकता हो या युद्ध का मैदान हो; नारी हमेशा कठोर दंश झेलती रही है, जो नासूर बन आजीवन रिसते रहे हैं। नारी नयी हो या प्राचीन– पुरुष मानसिकता उसे निरंतर झकझोर कर रखती रही है–चाहे वह द्वापर की पंच भागों में विभाजित द्रौपदी हो या आधुनिक युग की निर्भया, नारी सदैव तिरस्कृत व प्रताड़ित रही है।
डॉ. मुक्ता – माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक,हरियाणा साहित्य अकादमी
डॉ• मुक्ता ने अपने सोलहवें काव्य-संग्रह ‘नारी नयी–व्यथा वही‘ में उपरोक्त विषय पर चिंतन-मनन किया है। वैसे तो नारी के प्रति संवेदनाशीलता से उनका रचना संसार अत्यंत समृद्ध है, क्योंकि यह उनका प्रिय विषय है। उन्होंने समाज में व्याप्त असत्य, अन्याय व प्रचलित कुरीतियों के साथ-साथ, विशेष रूप से नारी पर बेख़ौफ़ लेखनी चलाई है। स्पष्ट है, कमज़ोर समझे जाने के कारण नारी पर अत्याचार करना सुगम प्रतीत होता है। नारी व्यथा पर उन्होंने अत्यंत सरल और सहज शब्दों में स्त्री की बेबसी, विवशता व निरीहता को ढाला है। ‘अंतहीन मौन’,’ज़िन्दगी का सच’ जैसी कविताएं इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं। वे औरत के अन्तर्मन की तुलना जलती व धुंधुआती लकड़ी से करती हैं और कठपुतली के समान आदेशों का पालन करते हुए वेबस, विवश, पराश्रिता व लाचार मानतीं हैं। परन्तु क्या आज की नारी वास्तव में अबला है ? ये विचार भी उसके मनोमस्तिष्क को उद्वेलित व आहत ही नहीं करते; सोचने पर विवश भी करते हैं।
जद्दोज़ेहद से भरी दुनिया में अपवाद हर जगह होते हैं। नारी भले ही अबला है, परंतु सबला बनने की अंधी दौड़ में कुछ नारियों के लड़खड़ाते कदम हृदय को झकझोरते हैं। आज के वातावरण में कवयित्री नारी के बदलते रूप को देख कर चिंतित है कि उसके कदम किस दिशा की ओर अग्रसर हैं। वह उसके ग़लत दिशा में अग्रसर कदमों को रोकना चाहती है। उसके अबला रूप से जहाँ उन्हें हमदर्दी है, वहीं दूसरी ओर उसके मर्यादाहीन और संस्कारविहीन रूप पर चिंतित होने के साथ नारी के आदर्श रूप की परिकल्पना भी कवयित्री ने बखूबी की है। ’मूल्यहीनता’ जैसी कविताओं में आज के वस्तुवाद, भौतिकवाद, दम तोड़ती संस्कृति, नैतिक व सामाजिक मूल्यों के पतन से दूषित होते विकृत समाज के प्रति चिंता व्यक्त की है। समस्याएं अत्यंत गम्भीर हैं और उनका निदान होना असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। क्या प्रेम में कभी विश्वासघात समाप्त हो पायेगा? क्या नारी के प्रति अत्याचार, दुष्कर्म व हत्या के हादसों पर अंकुश लग पायेगा? स्वयं को सबला प्रदर्शित करने की धुन और आधुनिकता की दौड़ में उछृंखल, अमर्यादित व संस्कारहीन होती नारी को रोक पाना क्या सम्भव हो पाएगा? समाज में विभिन्न शाश्वत् समस्याएं सदा से रही हैं और भविष्य में भी रहेंगी। ये सामाजिक विसंगतियाँ व विद्रूपताएं संवेदनशील मन पर गहरा प्रभाव डालती हैं और उद्वेलित व व्यथित करतीं हैं।
‘नया दृष्टिकोण ‘में वे अपने मन से वादा करना चाहती हैं कि वे अब औरत के बारे में नहीं लिखेंगी, उसकी व्यथा-कथा का बयान नहीं करेंगी, लेकिन वे उसकी दशा पर लेखनी चलाए बग़ैर रह नहीं पातीं। सतयुग की अहिल्या हो या त्रेतायुग की सीता या द्वापर की द्रौपदी व गांधारी–कवयित्री ने ऐसी प्राचीन नारियों की बेबसी का जहाँ स्मरण किया है, वहीं अपने लिए नवीन राह खोजती ‘खाओ,पीओ और मौज उड़ाओ’ को आधुनिकता और स्वतंत्रता का रूप स्वीकारने वाली निरंकुश नारी का चित्रण भी किया है। परन्तु नारी का अमुक रूप डॉ• मुक्ता को हेय, त्याज्य व निंदनीय भासता है। कवयित्री उन्हें संस्कारित व मर्यादित रूप में देखना चाहती है। अबला नारी के प्रति जहाँ उन्होंने अस्तित्व की रक्षा हित उठ खड़े होने और अबला का लबादा उतार फेंकने का आह्वान किया है, वहीं मर्यादा की सीमाएँ लाँघती स्त्रियों के प्रति रोष भी प्रकट किया है। ‘टूटते संबंध‘ व ’दोषी कौन’ कविता में वे इस प्रश्न का उत्तर तलाशती हैं। ‘निर्भया‘ के प्रसंग पर इस पुस्तक में दो रचनाएँ उपलब्ध हैं, जिनमें अपराधियों को उचित व शीघ्र सज़ा दिलाने के कानून को प्रभावी बनाने और उसकी उचित अनुपालना पर ज़ोर दिया है।
नारी ईश्वर की सुंदर व प्रेम करने वाली सर्वश्रेष्ठ व अप्रतिम रचना है। उसका शरीर खिलौना या उपभोग की वस्तु नहीं, बल्कि ईश्वर के रचना संसार में सहयोग देने वाला ममतामयी सर्वोत्तम रूप है । नारी में माँ व बहिन का अक्स क्यों नहीं देखा जाता– विचारणीय है। ‘एसिड अटैक‘ जैसी कविताएँ घृणित ज़ुल्मों की शिकार नारी जाति के प्रति संवेदनाएं उकेरती हैं तथा अपने देश में इस तरह की घटनाओं की सज़ा ‘जैसे को तैसा’ पर अमल करने की पैरवी करती हैं। दूसरी ओर ‘तुम शक्ति हो’,’ऐ नारी!’ जैसी कविताएं उसे साहसी बन विषम परिस्थितियों का सामना करने को प्रेरित करती हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से वे नारी को अंतर्मन में झाँकने व आत्मावलोकन करने का सुझाव भी प्रदान करती हैं।
‘पहचाना मैम’ और ‘मर्मान्तक व्यथा’ में उन सभी उपेक्षित, तिरस्कृत व प्रताड़ित पात्रों के विषय में अवगत कराया गया है, जिन्हें देख व पढ़-सुनकर लोग क्षण भर में भूल जाते हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से वे समाज के हर वर्ग की पीड़ा को उजागर करना चाहती हैं। यही नहीं ‘दर्द का दस्तावेज़’ में कश्मीर के बारे में लिखा है, जो कश्मीरी पंडितों व वहाँ की महिलाओं के दु:ख-दर्द का दस्तावेज़ है क्योंकि उन पर होने वाले ज़ुल्म व अत्याचारों की दास्तान के बारे में जानकर रूह़ काँप जाती है। अपने ही देश में बेघर होना और वर्षों तक शरणार्थियों का जीवन बसर करना मानव की सबसे बड़ी त्रासदी है और उन विकराल समस्याओं का एक लम्बे अंतराल तक समाधान न निकल पाना अत्यंत गम्भीर व विचारणीय है? परंतु धारा 370 के हटने पर कवयित्री का आशावादी दृष्टिकोण विशेष रूप से द्रष्टव्य है। उनका चिंतन संसार इतना विशद है कि उनकी पैनी दृष्टि चहुँओर पहुँचती है।
अंत में मैं यही कहूंगी कि डॉ• मुक्ता ने जिस तरह से अधिकांश रचनाओं में नारी व्यथा को संवेदना की पराकाष्ठा तक उकेरा है, शायद ही किसी अन्य कवि ने केवल नारी से जुड़े मार्मिक प्रसंगों पर लेखनी चलाई हो। अपने इस भगीरथ प्रयास के लिए वे वंदनीय हैं और विशेष सम्मान की अधिकारिणी हैं।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी व्यंग्य पत्रिका की समीक्षा “# समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023”#”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 170 ☆
☆ # समीक्षा – “अट्टहास” परसाई विशेषांक अगस्त 2023”# ☆
आज के युग में हर व्यक्ति भागम-भाग की जिंदगी जी रहा है, किसी के भी पास समय नहीं है की , थककर, बैठकर शांति से कुछ पल बिता सकें. इन्हीं अमूल्य पलों में मन के दरवाजे पर दस्तक देकर, अंतर्मन को आल्हादित कर हृदय को झंकृत करने का प्रयास हास्य-व्यंग्य की पत्रिका द्वारा किया जाता है. इसी कड़ी में “अट्टहास” पत्रिका का योगदान महत्वपूर्ण है.
” अट्टहास” पत्रिका का परसाई विशेषांक अगस्त, 2023 एक अनूठा प्रयास है .
स्वर्गीय हरिशंकर परसाई जी का नाम व्यंग की दुनिया में प्रथम पायदान पर है, उनके जैसा दूसरा व्यंग्यकार होना असम्भव है, जिन्होंने अपने जीवन काल में अनेक व्यंग अनेक विषयों पर लिखें, उन्हें खूब प्रशंसा भी मीली.
उन्होंने सामान्य व्यक्ति के जिव्हा को अपने शब्द दीये, पिड़ा को अपनी समझकर व्यक्त किया, सरल सहज व्यक्ति के मन की बात जन-जन तक पहुंचाई. अपने तिक्ष्ण बाणों से घांव किये,और उस चुभन को सदा के लिए जागृत छोड़ दिया, जो आज भी हम अपने आसपास महसूस करते है.
इस विशेषांक का विश्लेषण दो भागों में करना मुझे उचित लगा.
1) परसाई जी के लिखे हुए व्यंग्य
2) परसाई जी पर दूसरे व्यंग्यकारों की टिप्पणियाँ
1) परसाई जी ने अपने ” व्यंग्य क्यों? कैसे ? किसलिए ? मे लिखा है कि – आदमी कब हंसता है ?
एक विचार यह है कि जब आदमी हंसता है, तब उसके मन में मैल नहीं होता. हंसने के क्षणभर पहले उसके मन में मैल हो सकता है और हंसी के क्षणभर बाद भी. पर जिस क्षण वह हंसता है, उसके मन में किसी के प्रति मैल नहीं होता.
आदमी हंसता क्यों है ?
वह कहते है, लोग किसी भी बात पर हंसते हैं, हलकी, मामूली विसंगति पर भी हंस देते है. दीवाली पर कुत्ते की दूम में पटाखे की लड़ी बांधकर उसमें कुछ लोग आग लगा देते हैं, बेचारा कुत्ता तो मृत्यु के भय से भागता और चीखता है, पर लोग हंसते हैं.
व्यंग्य किसलिए ?
वह कहते है, मेरा खयाल है, कोई भी सच्चा व्यंग्य लेखक मनुष्य को नीचा नहीं दिखाना चाहता है. व्यंग मानव सहानुभूति से पैदा होता है. वह मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना चाहता है. वह उससे कहता है – तू अधिक सच्चा, न्यायी मानवीय बन .
अच्छे व्यंग्य में करूणा की अंतर्धारा होती है, चेखव में शायद यह बात साफ है, चेखव की एक कहानी है – बाबू की मौत. इस कहानी को पढ़ते -पढ़ते हंसी आती है पर अन्त में मन करूणा से भर उठता है।
व्यंग के सम्बंध में यह बातें, व्यंग का मर्म समझने में इनसे कुछ सहायता मिलेगी.
2) उखड़े खंभे
इस व्यंग्य में बहुत ही सुन्दर कथा के द्वारा यह बताया गया है की, मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए कैसे प्रपंच रचे जाते हैं।
एक दिन राजा ने खीझकर घोषणा कर दी कि मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से लटका दिया जाएगा , लोग शाम तक इंतजार करते रहे कि अब मुनाफाखोर टांगें जाएंगे – और अब, पर कोई टांगा नहीं गया।
सोलहवें दिन सुबह उठकर लोगों ने देखा कि बिजली के सारे खम्भे उखड़े पड़े हैं, राजा ने सभी जिम्मेदार दरबारी यों से जब पूछा, यह जानते हुए भी कि आज मैं इन खम्भों का उपयोग मुनाफाखोरों को लटकाने लिए करने वाला हूं, तुमने ऐसा दुस्साहस क्यों किया?
सेक्रेटरी ने कहा,’ साहब, पूरे शहर की सुरक्षा का सवाल था, अगर रात को खम्भे ना हटा लिये जाते, तो आज पूरा शहर नष्ट हो जाता. यह सलाह मुझे विशेषज्ञ ने दी थी.यह सुनकर सारे लोग सकते में खड़े रहे, वे मुनाफाखोरों को बिल्कुल भूल गये. वे सब उस संकट से अविभूत थे,जिसकी कल्पना उन्हें दी गई थी, जान बच जाने की अनुभूति से दबे हुये थे, चुपचाप लौट गये.
उसी सप्ताह बैंक में सेक्रेटरी एवं संबंधित अधिकारियों के खाते में मोटी रकम जमा की गई, उनको उपकृत किया गया।
उसी सप्ताह ” मुनाफाखोर संघ ” के हिसाब में सारी रकमें ‘ धर्मादा ‘ खाते में डाली गयी.
यह व्यंग आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं।
3) विकलांग श्रध्दा का दौर
इस व्यंग्य में दिखावे की श्रद्धा पर चुभता हुआ कटाक्ष है.
” अभी अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है, मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चालू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है.
मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांग खींची है, लंगोटी धोने के बहाने लंगोटी चुराई है.
अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूं -‘ यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है. मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ.
4) एक अशुद्ध बेवकूफ
बिना जाने बेवकूफ बनाना एक अलग और आसान चीज है। कोई भी इसे निभा देता है। मगर यह जानते हुए कि मैं बेवकूफ बनाया जा रहा हूं और जो मुझे कहा जा रहा है वह सब झूठ है – बेवकूफ बनते जाने का एक अपना मज़ा है।
“एक प्रोफेसर साहब थे क्लास वन के। वे इधर आए। विभाग क डीन मेरे घनिष्ठ मित्र हैं, यह वे नहीं जानते थे। यों वे मुझे पच्चीसों बार मिल चुके थे। पर जब वे डीन के साथ मिले तो उन्होंने मुझे पहचाना ही नहीं। डीन ने मेरा परिचय उनसे करवाया। मैंने भी ऐसा बर्ताव किया, जैसे यह मेरा उनसे पहला परिचय है।
डीन मेरे यार है। कहने लगे- यार चलो केंटीन में, अच्छी चाय पी जाएं। अच्छा नमकीन भी मिल जाए तो मजा आ जाए।
अब क्लास वन के प्रोफेसर साहब थोड़ा चौंके।
हम लोगों ने चाय और नाश्ता किया। अब वे समझ गए कि मैं ” अशुद्ध” बेवकूफ हूं।
5) खेती
सरकारी घोषणाओं में और वास्तविक जमीन पर क्या होता है इस समस्या पर यह व्यंग बहुत ही मार्मिक है।
“एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा – हुजूर हम किसानों को आप जमीन, पानी और बीज दिला दीजिए और अपने अफसरों से हमारी रक्षा कीजिए, तो हम देश के लिए पूरा अनाज पैदा कर देंगे।
सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया –‘ अन्न की पैदावार के लिए किसान की अब जरूरत नहीं है। हम दस लाख एकड़ कागज़ पर अन्न पैदा कर रहे हैं।
6) अरस्तू की चिट्ठी
इस व्यंग्य में जनता जनार्दन पर कटाक्ष है कि वे कैसे ईव्हेंट मॅनेजमेंट में शिकार होते हैं
“तुम्हारे मुखिया में यह अदा है। इसी अदा पर तुम्हारे यहां की सरकार टिकी है, जिस दिन यह अदा नहीं है, या अदाकार नहीं है उस दिन वर्तमान सरकार एकदम गिर जायेगी।जब तक यह अदा है तब तक तुम शोषण सहोगे, अत्याचार सहोगे, भ्रष्टाचार सहोगे क्योंकि तुम जब क्रोध से उबलोगे, तुम्हारा मुखिया एक अदा से तुम्हें ठंडा कर देगा।। तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे मुल्क की सारी व्यवस्था एक ‘ अदा ‘ पर टिकी हुई है।
आज भी यह कितना प्रासंगिक है?
7) गर्दिश के दिन
परसाई जी ने अपने जीवन में विपत्तियों को अलग अंदाज में लिया, कभी टूटें नहीं, बेफिक्र होकर सब कुछ सहा और अपनी पिड़ा को अपने लेखन में लायें, उन्होंने गर्दिश के दिन में लिखा है कि ” मैं डरा नहीं। बेईमानी करने में भी नहीं डरा। लोगों से नहीं डरा तो नौकरियां गयी।लाभ गये, पद गये, इनाम गये। गैरजिम्मेदार इतना कि बहन की शादी करने जा रहा हूं।रेल में जेब कट गयी, मगर अगले स्टेशन पर पूड़ी – साग खाकर मजे में बैठा हूं कि चिंता नहीं। कुछ हो ही जायेगा। “
वो आगे लिखते है, ” गर्दिश कभी थी, अब नहीं है,आगे नहीं होगी – यह गलत है। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूं। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता इस लिए गर्दिश नियति है। “
वो आगे लिखते हैं, ” मेरा अनुमान है कि मैंने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिये एक हथियार के रूप में अपनाया होगा। दूसरे, इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। तीसरे, अपने को अवशिष्ट होने से बचाने के लिये मैंने लिखना शुरू कर दिया। यह तब की बात है, मेरा खयाल है, तब ऐसी ही बात होगी।”
वो अंत में लिखते हैं कि,” मेरे जैसे लेखक की एक गर्दिश और है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं, उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो दिन-रात बेचैन है। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है, जिसे सर्जक ही समझ सकता है। “
उन्होंने सही कहा है,” पर सही बात यह है कि कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है। और न कभी गर्दिश का अन्त होना है।”
8) प्रेमचंद के फटे जूते
इस लेख में उन्होंने लेखक की आर्थिक स्थिति के ऊपर व्यंग किया है कि प्रसिद्ध लेखक भी ऐसे जीते हैं।
वो लिखते हैं, ” प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है,
गालों की हड्डियां उभर आई है, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा भरा बतलाती है।
पांवों में केनवास के जूते है, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। दाहिने पांव का जूता ठीक है, मगर बाएं जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है।
मैं समझता हूं। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझता हूं और यह व्यंग – मुस्कान भी समझता हूं।
तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उनपर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहें हैं। तुम कह रहे हो – मैंने तो ठोकर मार मारकर जूता फाड़ लिया है, अंगुली बाहर निकल आई, पर पांव बचा रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली ढांकने की चिन्ता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे ? “
यहां पर उन्होंने सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग किया है , जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है.
9) सरकारी भ्रष्टाचार का विरोध
इस व्यंग्य में भ्रष्टाचार करने वाले महानुभावों की सच्चाई व्यक्त की है।
वो लिखते है,” सबसे निरर्थक आंदोलन भ्रष्टाचार के विरोध का आंदोलन होता है। भ्रष्टाचार विरोधी कोई नहीं डरता। एक प्रकार का यह मनोरंजन है जो राजनीतिक पार्टी कभी कभी खेल लेती है, जैसे कब्बड्डी का मैच। इससे ना सरकार घबड़ाती, न मुनाफाखोर, ना कालाबाजारी, सब इसे शंकर की बारात समझकर मजा लेते हैं। “
यह हमारी व्यवस्था पर किया हुआ व्यंग्य , एक कटु सत्य है।
परसाई जी पर दूसरे व्यंग्यकारों की टिप्पणियाँ
आइये हम इस कड़ी में सर्व प्रथम ” अट्टहास ” पत्रिका के अतिथि संपादक श्री जयप्रकाश पांडे जी की बात करते हैं,उनका परिश्रम प्रशंसनीय है, उन्होंने सभी व्यंग कारों को आमंत्रित कर, उनकी रचनाओं को सलिके से माला में पीरो कर, एक हास्य -व्यंग का सुगंधित हार बनाया है, जिसकी सुगंध सदैव पाठकों को लुभाती रहेगी, यह प्रयास अविस्मरणीय संस्मरण बनकर पाठकों के हृदय को हमेशा गुदगुदाता रहेगा.
उनके शब्दों में,” समाज से, सरकार से,मान्य परंपराओं के विरोध करने में जो चुनौती का सामना करना होता है उससे सभी कतराते है, पर यह पीड़ा परसाई जी ने उठाई थी। व्यंग्य को लोकोपकारी स्वरूप प्रदान करने में उनके भागीरथी प्रयत्न की लंबी गाथा है।
उनके चाहने वालों की बढ़ती संख्या से अहसास होता है कि – “कबीर इस धरती पर दूसरा जन्म लेकर हरिशंकर परसाई बनकर आए थे”।
उनके द्वारा परसाई जी का साक्षात्कार मील का पत्थर है, उन्होंने परसाई जी के सानिध्य में
काफी समय व्यतीत किया है, यह उनके लिए सौभाग्य की बात है.
अब हम दूसरे व्यंग्यकारों की सम्मिलित रचनाएं, और परसाई पर उनकी टिप्पणी या देखते हैं
डाॅ. आभा सिंह के लेख ” परसाई व्यंग्य के चप्पू ” में लिखती हैं, ” टूटती तो चाल भी है, चलन भी टूटता है। चाल और चलन के टूटने पर चिंतन करो तो टांग भी टूटती है। यह दर असल व्यंग्य का चक्र है”.
डाॅ. नामवर सिंह अपने लेख मे ” एक अविस्मरणीय चरित नायक” में लिखते हैं,” परसाई जी की समस्त रचनाओं में वह तेज पैनी नजर वाला एक व्यक्तित्व है, जो इस दुनिया को तार तार करके देखता है, चिकोटी काटता है, झकझोरता है, चुनौती देता है, वह उनके लेखन का सबसे महत्वपूर्ण चरित्र है “
प्रेम जनमेजय: व्यंग को भी दिल बहलाव के साधन के रूप में अधिक प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐसे में आवश्यक है कि परसाई जैसे साहित्यिक व्यक्तित्व को बार-बार इस समय में साथ रखा जाए। उनके चिंतन को आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए ।”
एम. एम. चंद्रा: इसलिए मेरा स्पष्ट मत है कि परसाई पर बात करने का मतलब उनके समय का इतिहास और विचारधारा पर भी बात करना है। विचारधारात्मक और इतिहास सम्बंधी दृष्टि पर बात करना है और इससे बढ़कर आलोचना और आत्म आलोचना की राह से गुजरना है ।
राजीव कुमार शुक्ल : बुद्धिजीवी वर्ग पर बेहद निर्मम विश्लेषण के साथ परसाई जी ने लिखा है, मसलन ‘ इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर है, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते है”।
अलका अग्रवाल सिग्तिया : परसाई की कलम से आजादी के बाद के मोहभंग, शासक वर्ग के नैतिक पतन, दोगलेपन, भ्रष्टाचार, पाखण्ड, झूठे आचरण, छल, कपट, स्वास्थ्य परता, सिद्धांतविहीन विचारधारा और गठबंधन सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाना, सत्ता का उन्माद और इन सब में आम आदमी का पग-पग पर ठगा जाना सबको अपना विषय बनाया। इसलिए उनका लेखन आज भी उतना ही मारक है क्योंकि सरेआम यही तो हो रहा है।
गिरीश पंकज : व्यंग्य विधा है या शैली ? इस प्रश्न पर परसाई जी बोले, ‘ मैं व्यंग्य को एक शैली मानता हूं, जो हर विधा में हो सकती है।”
सुसंस्कृति परिहार : वास्तव में परसाई ने सामाजिक व्यवस्था खासकर शिक्षा संस्थानों की चीर-फाड़ कर यह जताने की पुरजोर कोशिश की कि यदि इस बदरंग व्यवस्था में परिवर्तन नहीं लाया गया तो स्थितियां भयावह होगी। शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय, राजनीति सब पूंजीपतियों के पास पहुंच जायेगी। अफसोसजनक यह कि हम तेजी से इसी दिशा में बढ़ रहे हैं।”
डाॅ. महेश दत्त मिश्र :
इलाही कुछ न दे लेकिन ये सौ देने का देना है,
अगर इंसान के पहलू में तू इंसान का दिल दे,
वो कुव्वत दे कि टक्कर लूं हरेक गरदावे से,
जो उलझाना है मौजों में, न कश्ती दे न साहिल दे ।
परसाई जी पर यह शेर बखूबी लागू होता है.
डॉ कुन्दन सिंह परिहार : “परसाई जी का साहित्य सोद्देश्य, समाज के हित में, समाज में परिवर्तन की आकांक्षा से रचा गया। उनके मित्र स्व. मायाराम सुरजन ने उनके विषय में लिखा है,” परसाई जैसे व्यक्ति के बारे में जिसकी निजी जिंदगी केवल दूसरों की समस्यायों की कहानी हो, अपनी कहने को कुछ नहीं।”
परसाई जी ने अपने जन्मदिन पर रचना लिखी, “इस तरह गुजरा जन्मदिन” में कुछ घटनाओं का वर्णन किया है कि जन्मदिन मनाना नहीं चाहते हुए भी उन्हें मनाना पड़ा।
इस संदर्भ में वे लिखते हैं, ” रात तक मित्र शुभचिंतक, अशुभचिंतक आते रहे। कुछ लोग घर में बैठकर गाली बकते रहे कि साला, अभी भी जिंदा है। क्या कर लिया एक साल और जी लिए, कौन सा पराक्रम कर दिया। नहीं वक्त ऐसा हो गया है कि एक दिन भी जी लेना पराक्रम है।”
डाॅ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’: “परसाई ने आज से पांच साल पहले जो लिखा वह आज भी केवल प्रासंगिक नहीं बल्कि एक तरह से भविष्यवाणी की तरह सिद्ध हो रहा है। उनका लिखा अक्षरशः सही साबित हो रहा है, नई दुनिया में जब वे “सुनो भाई साधो” स्तंभ लिख रहे थे तो उन्होंने व्यवस्था पर प्रहार किए थे। यह लेख उसी दौर का है जो आज आपको सच जान पड़ेगा क्योंकि आज भी हालत ऐसे हैं। ‘ न खाऊंगा न खाने दूंगा ‘ की असलियत सामने आ गयी है।
श्री अनूप शुक्ल : इन्होंने “परसाई के व्यंग्य बाण” मे उनके व्यंग्य बाणों का संकलन दिया है, जो बहुत ही सुन्दर प्रयास है।
लीजिये एक व्यंग्य बाण – “कुछ आदमी कुत्ते से अधिक जहरीले होते हैं। “
“हरिशंकर परसाई की कलम से” में वे लिखते हैं कि मुझे प्रशंसा के साथ साथ गालियां बहुत मिली है,
“बिहार के किसी कस्बे से एक आदमी ने लिखा कि ‘ तुमने मेरे मामा का, जो फारेस्ट अफसर है, मज़ाक उड़ाया है। उनकी बदनामी की है। मै तुम्हारे खानदान का नाश कर दूंगा। मुझे शनि सिद्ध है।”
वे आगे लिखते हैं कि, “हम सब हास्य और व्यंग्य के लेखक लिखते-लिखते मर जायेंगे, तब भी लेखकों के बेटों से इन आलोचकों के बेटे कहेंगे कि हिंदी में हास्य – व्यंग्य का अभाव है।”
अनूप श्रीवास्तव : आखिरी पन्ना में लिखते हैं, ” परिस्थितियों के चलते चाहे अनचाहे क ई मोड़ पर उन्हें मन के खिलाफ जाना पड़ा। लेकिन परसाई जी तमाम दबावों के बावजूद न खुद झुके ना ही उनकी विचारधारा बदली। इसलिए उनका व्यंग्य लेखन आज भी शास्वत है। आज भी वे व्यंग्य शिखर पर शक्ति पुंज की तरह स्थापित है। “
यही उनकी जीवन भर की पूंजी है।
पदमश्री (डॉ.) ज्ञान चतुर्वेदी जी ने परसाई जी के बारे में लिखा है कि, “उनका तथाकथित तात्कालिक व्यंग्य लेखन दर असल शोषक शक्तियों और शोषित जनों के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अंतर्संबंधों से बावस्ता शास्वत प्रश्नों के हल तलाशता शाश्वत लेखन है। तभी वे आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि ये सारे प्रश्न भेष बदलकर आज भी हमारे सामने है।,”
इस “अटृहास” के परसाई विशेषांक में परसाई जी के व्यंग्यों का एक उत्कृष्ट संकलन है, व्यंग्यकारों की टीप्पणी यां है,जो आपको हंसने के साथ साथ सोचने पर भी मजबूर करेगी.
अगर आप तनाव में हैं तो आपको एक सुकून देगी, आप के जीवन में कुछ पल के लिए ही सही शांति प्रदान करेगी. यह विशेषांक संग्रहण करने योग्य है, अदभुत एवं बेमिसाल है.
सभी “अट्टहास” के संपादक मंडल का प्रयास अतुलनीय है, और सोने पे सुहागा अतिथि संपादक श्री जयप्रकाश पांडे जी का संपादन प्रशंसनीय है.