हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 253 ☆ श्रद्धा सुमन – रवि रतलामी :एक साथ ही हिंदी के तकनीकी कंप्यूटर दां, व्यंग्यकार और संपादक ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका आलेख श्रद्धा सुमन – रवि रतलामी :एक साथ ही हिंदी के तकनीकी कंप्यूटर दां, व्यंग्यकार और संपादक )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 254 ☆

? श्रद्धा सुमन – रवि रतलामी :एक साथ ही हिंदी के तकनीकी कंप्यूटर दां, व्यंग्यकार और संपादक  ?

स्व. रवि रतलामी

(जन्म ५ अगस्त १९५८, देहावसान ७ जनवरी २०२४)

वर्ष 2006 में ‘रवि रतलामी का हिन्‍दी ब्लॉग’ को माइक्रोसॉफ्ट भाषा इंडिया ने सर्वश्रेष्‍ठ हिन्‍दी ब्‍लॉग के रूप में सम्मानित किया था। यह समाचार मैंने टी वी पर देखा था। यह समय था जब हिन्दी ब्लागिंग अपने शैशव काल में थी। मैं मण्डला जैसे छोटे स्थान से बी एस एन एल के नेटवन फोन कनेक्शन से रात रात भर हिन्दी ब्लाग लिखा करता था, रात में इसलिये क्योंकि तब इंटरनेट की स्पीड कुछ बेहतर होती थी। स्वाभाविक था कि मेरा ध्यान भोपाल के इस माइक्रो साफ्ट से सम्मानित ब्लागर की ओर गया। इंटरनेट के जरिये उनका फोन ढ़ूंढ़ना सरल था, मैंने उन्हें फोन किया और हम ऐसे मित्र बन गये मानो बरसों से परस्पर परिचित हों। मैं तब विद्युत मण्डल में कार्यपालन अभियंता था, और रवि जी विद्युत मण्डल से स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर इंटरनेट में हिन्दी के क्षेत्र में भोपाल से फ्री लांस कार्य कर रहे थे। सरस्वती के पुजारियों की यह खासियत होती है कि वे पल भर में एक दूसरे से आत्मीयता के रिश्ते बना लेते हैं। मैं रवि जी से व्यक्तिगत रूप से बहुत अधिक नहीं मिला हूं पर हिन्दी ब्लागिंग के चलते हम ई संपर्क में बने रहे हैं। रवि जी रचनाकार नामक हिन्दी ब्लाग चलाते थे, जिसमें बाल कथा, लघुकथा, व्यंग्य, हास्य, कविता, आलेख, गजलें, नाटक, संस्मरण, उपन्यास, लोककथा, समीक्षा, कहानी, चुटकुले, ई बुक्स, विज्ञान कथा आदि शामिल होते थे। मेरी कुछ किताबें, नाटक, व्यंग्य, कवितायें, लेख, संस्मरण आदि रचनाकार में प्रकाशित हैं। प्रारंभ में रचनाकार में रवि जी ने यह व्यवस्था रखी थी की एक रचना जो नेट पर कहीं एक बार छपे उसका लिंक ही अन्य जगह दिया जाये बनिस्पत इसके कि अनेक जगह वही रचना बार बार प्रकाशित की जाये। पर बाद में इस द्वंद में माथा पच्ची करना बंद कर दिया गया था। रचनाकार का ट्रेफिक बढ़ाने के लिये हमने व्यंग्य लेखन को लेकर कुछ प्रतियोगितायें भी आयोजित कीं। पुरस्कार स्वरूप मेरी, मेरे पिताजी प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी की तथा अन्य लेखको की किताबें विजेताओ को प्रदान की गईं।

रवि जी ने कहीं लिखा है “जन्म से छत्तीसगढ़िया, कर्म से रतलामी. बीस साल तक विद्युत मंडल में सरकारी टेक्नोक्रेट के रुप में विशाल ट्रांसफ़ॉर्मरों में असफल लोड बैलेंसिंग और क्षेत्र में सफल वृहत् लोड शेडिंग करते रहने के दौरान किसी पल छुद्र अनुभूति हुई कि कुछ असरकारी काम किया जाए तो अपने आप को एक दिन कम्प्यूटर टर्मिनल के सामने फ्रीलांस तकनीकी-सलाहकार-लेखक और अनुवादक के ट्रांसफ़ॉर्म्ड रूप में पाया. इस बीच कंप्यूटर मॉनीटर के सामने ऊंघते रहने के अलावा यूँ कोई खास काम मैंने किया हो यह भान तो नहीं लेकिन जब डिजिट पत्रिका में पढ़ा कि केडीई, गनोम, एक्सएफ़सीई इत्यादि समेत लिनक्स तंत्र के सैकड़ों कम्प्यूटर अनुप्रयोगों के हिन्दी अनुवाद मैंने किए हैं तो घोर आश्चर्य से सोचता हूँ कि जब मैंने ऊँधते हुए इतना कुछ कर डाला तो मैं जागता होता तो पता नहीं क्या-क्या कर सकता था?”। वे स्वयं इतने सिद्ध कम्प्यूटर टेक्नोक्रेट थे कि उनका विकी पीडिया पेज तो सहज में होना ही चाहिये था, पर आत्म प्रशंसा और स्व केंद्रित व्यक्तित्व नहीं था उनका। वे सहज, सरल, और उदार व्यक्तित्व के सुलभ इंटेलेक्चुल मनुष्य थे। वे अचानक चले गये हैं, उनके साथ ही उनके मन में चल रहे ढ़ेरों कार्यो का भ्रूण पतन हो गया है। उनके अनेकानेक तकनीकी लेख भारत की प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी पत्रिका आईटी तथा लिनक्स फॉर यू, नई दिल्ली, भारत (इंडिया) से प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी कविताएँ, ग़ज़ल, एवं व्यंग्य लेखन उनकी रुचि की विधायें थीं। उनकी रचनाएँ हिंदी पत्र-पत्रिकाओं दैनिक भास्कर, नई दुनिया, नवभारत, कादंबिनी, सरिता इत्यादि में प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी दैनिक चेतना के पूर्व तकनीकी स्तंभ लेखक रह चुके हैं। वे अभिव्यक्ति पोर्टल के लिए विशेष रूप से ‘प्रौद्योगिकी’ स्तंभ लिखते रहे हैं। हिंदी की सर्वाधिक समृद्ध आनलाइन वर्गपहेली का सृजन भी उनका महत्वपूर्ण कार्य था।

आन लाइन सोशल मीडिया पर स्व संपादसित लेखन का सफर आरकुट, हिन्दी ब्लागिंग, फेसबुक, इंस्टाग्राम वगैरह वगैरह प्लेटफार्म से शिफ्ट होते हुये व्हाट्सअप तक आ पहुंचा है। पर बोलकर लिखने की सुविधा, यूनीकोड हिन्दी के अंतर्निहित तकनीकी पक्षो को जिन कुछ लोगों ने आकार दिया है उनमें रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ रवि रतलामी का भी बड़ा योगदान रहा है। वे जितने योग्य तकनीकज्ञ थे उससे ज्यादा समर्थ संपादक भी थे, और कहीं ज्यादा बड़े व्यंग्यकार। रचनाकार में उन्होंने समकालीन अनेकानेक व्यंग्यकारो को समय समय पर प्रकाशित किया है। रचनाकार में प्रकाशित व्यंग्यकारो कि सूची में राकेश सोहम, हनुमान मुक्त, प्रदीप उपाध्याय, राम नरेश, अनीता यादव, राजीव पाण्डेय, सुरेश उरतृप्त, वीरेंद्र सरल, ओम वर्मा, विवेक रंजन श्रीवास्तव से लेकर नरेंद्र कोहली, यशवंत कोठारी, प्रेम जनमेजय तक कौन शामिल नहीं है। जहां तक रवि जी के व्यंग्य लेखन का प्रश्न है उन्होंने सक्षम व्यंग्यकार के रूप में अपनी छबि बनाई थी। उनकी किताब व्यंग्य की जुगलबंदी अमेजन किंडल पर उपलब्ध है। जिसमें शामिल कुछ व्यंग्य शीर्षक हैं ” आपका मोबाइल ही आपका परिचय है, बापू की लखटकिया लंगोटी, नोटबंदी, जीडीपी और आर्थिक विकास, बाबागिरी, तकनीक और हवापानी, असली अफवाह, गठबंधन की बाढ़, चीनी यात्री ट्रेनत्सांग की वर्ष 2000 की भारत यात्रा, जीएसटी बनाम, भारतीय खेती की असली कहानी, साहित्यिक खेती, टॉपरों से भयभीत, मानहानि के देश में, बिना शीर्षक, मेरा स्मार्टफोन कैसा हो? बिलकुल इसके जैसा हो…., कड़ी निंदा पर कुछ नोट शीट्स, लाल बत्ती में परकाया प्रवेश, ईवीएम में छेड़छाड़ के ये है पूरी आईटीयाना तरीके, लेखकीय और साहित्यकीय मूर्खता, आपने कभी गरमी खाई है ?, जम्बूद्वीप में सन् ३०५० के चुनाव के बाद, आधुनिक अभिव्यक्ति और एक व्यंग्य है “बुढ़ापे या बीमारी से नहीं मैं मरा अपनी शराफत से” सचमुच उनका दुखद देहावसान बुढ़ापे या बीमारी से नही अचानक हार्ट अरेस्ट से हो गया . रवि रतलामी जी के कार्यों का मूल्यांकन हिन्दी जगत को करना शेष ही रह गया और वे हमसे बिछड़ गये। उन्हें तकनीकी जगत, ब्लागिंग की दुनियां, व्यंग्य जगत और हिन्दी जगत के नमन।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

सेवानिवृत मुख्य अभियंता

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]; [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आठवणीतील संक्रांत… ☆ सौ. सुचित्रा पवार ☆

सौ. सुचित्रा पवार

आठवणीतील संक्रांत… ☆ सौ. सुचित्रा पवार ☆

कार्तिक महिन्यातील दिवाळीला सुरू झालेली थंडी पौष महिन्यात अजूनच वाढायची.

ठिकठिकाणी पहाटे पहाटे शेकोट्या पेटायच्या.पावट्यांच्या मोहराचा अन शेंगांचा घमघमाट सगळ्या रानातून दरवळत असायचा.करड्याची लुसलूस रोपे टच्च भरलेल्या हरभऱ्याच्या डहाळ्याना सोबत करायचे.दाट धुक्यात शेते शिवारे गुडूप व्हायची,गव्हाची शेते हिरव्यागार ओंब्या डोक्यावर घेऊन आनंदात डोलायची,शाळूची हिरवीगार ताटे एका पानावर येऊन टपोरी कणसे प्रसवायच्या तयारीत असायची,आंब्याचे मोहोर मधमाशांना न् कीटकांना धुंद करायचे आणि या निसर्गाच्या आगळ्या वेगळ्या सोहळ्यात हळूच संक्रांत सामील व्हायची.

संक्रांतीला पंधरा तीन आठवडे  राहिले असताना कोकणपट्ट्यातून (बहुतेक)संक्रातीच्या(नव्या मडक्याच्या)बैलगाड्या भिलवडी नाक्यातून गावात प्रवेश करायच्या.भिलवडी नाक्यातच आमची शाळा असल्याने आम्हाला त्या येताना दिसायच्या आणि संक्रांत जवळ आल्याची जाणीव व्हायची. खूप खूप आनंद व्हायचा.

तीन -चार गाड्या शिगोशिग भरून त्यावर भाताचे काड आणि जाळी लावून हळू हळू चालत चालत त्या इतक्या लांब प्रवास करत.गाडीच्या उभ्या दांडीवर गाडीवान बसायचे,त्याच दांडीखाली कापडाची किंवा पोत्याची मोठी खोळ ,त्यात चार स्वैपाकाची भांडी असायची .बाजूला एक कंदील लटकवलेला असायचा आणि कधी पुढं तर कधी बरोबर  त्यांचे पाळीव कुत्रेही इतक्या लांबून चालत चालत यायचे. बैलांच्या गळ्यातील घुंगरू संथ चालीत खूळ खूळ नाद करत वाजायची. एक गाडी नाक्यातच मोकळ्या मैदानात उतरायची,एक आमच्या घरामागच्या मोकळ्या मैदानात आणि दोन गावात कुठेतरी थांबत असत.आम्ही लहान असल्याने त्यांचे नेमके ठिकाण माहीत नाही.वर्षानुवर्षे या गाड्या त्याच ठराविक ठिकाणी थांबायच्या; किती वर्षांपासून त्या येत होत्या माहीत नाही पण कळत्या वयापासून आम्ही त्या पहात होतो.

आमची शाळा सकाळ सत्रात असायची .शाळा सुटून घरी आलो की दप्तर टाकून गाडीजवळ जायचो.भाताच्या काडात अलवार  शिगोशिग भरलेल्या गाडीवर जाळे लावून करकचून बांधलेलं असायचं जेणेकरून मडक्यांना तडा जाऊ नये.इतक्या लांबून बिचारे जपून गाडी हळुवार चालवत येत असणार कारण वर्षभराचे पोटाचे साधन होते त्यांचे.सहा-सात महिने खपून,गाळलेला घाम होता तो.गाडी सोडून, बैल बांधून कुंभार विश्रांती घेई.गाडीशेजारीच कुत्रे धापा टाकत बसून असे.कुंभारासोबत अजून एखादे नातेवाईक असे.क्वचितच एखादे ७-८वर्षाचे पोर असे पण स्त्रिया कधीच येत नसत.एका गाडीबरोबर दोन किंवा तीन पुरुष असत.हडकुळी शरीरयष्टी ,पांढरा ढगळा अंगरखा,गुडघ्यापर्यंत घातलेली खाकी ढगळ चड्डी आणि पांढरी टोपी इतकाच वेष असायचा त्यांचा.

उन्ह कलतीला लागली की गाडीवरील जाळी हळुवार काढून काड बाजूला सारत एक एक मडके बाजूला काढून गाडीजवळ मांडून ठेवत.पाच पाच छोट्या मोठ्या संक्रांतीचे(मडक्यांचे)गट,तांबड्या मातीच्या,काळ्या मातीच्या चुली,उभट -गोल करंड्या ,बिश्या(पैसे साठवण्यासाठी मातीची वस्तू) अशी कितीतरी आकाराची वेगवेगळी मातीची भांडी त्यांनी आणलेली असत.मडक्यांची काळी सोनेरी झाग सगळ्या हाताला लागायची.मला उत्सुकता असायची ती बोळकी,बिशी आणि छोट्या पाणी भरायच्या कळशीची.

मडकी मांडून झाली की मग शेजारीच ते तीन दगडांची चूल मांडत.चिपाड,चगाळ घालून चूल पेटवत.गाडीला केलेल्या खोळीतून जर्मनची पातेली, ताटल्या,बाजूला काढून घेत ;मग चुलीवर चहा ठेवत.चहा  पिऊन त्याच चुलीवर एका पातेल्यात भात शिजत घालत आणि आसपासच्या चार घरातून कालवण मागून आणत. भातात ते कालवण कालवून खात आणि शेजारच्याच गोठ्यात झोप न विश्रांती घेत.

गाडी आलेली माहिती झाली की बायका खण (५मडक्यांचा समूह)ठरवायला यायच्या.खणाव्यतिरिक्तही बरेच काही घ्यायच्या.बेटकं घालायला उभट बरणी,बी बेवळा राखेत घालायला मोठं गाडगं, चूल जुनी झाली असेल तर चूल. गरजेनुसार वस्तूंची बेरीज व्हायची मग सौदा व्हायचा.हा सौदा पैशावर नसायचा तर ज्वारीवर असायचा,अडशिरी पासून पायली,दीड पायली,दोन पायली.वस्तूच्या संख्या व आकारावर हा सौदा असे.

हे लोक कधीच पैसे घेऊन खण किंवा इतर वस्तू विकत नसत.चुकूनच ज्यांच्याकडे ज्वारी मिळणार नाही अशांकडून पैसे स्वीकारत.जसजशी संक्रात जवळ येई तसतशी बायकांची खरेदीला लगबग सुरू व्हायची.

आठ दिवसांवर संक्रांत आली म्हणजे कासारीण बांगड्या विकायला गल्लोगल्ली फिरायची.संक्रातीला नवीन बांगड्या मिळायच्याच हमखास! त्याआधी कुठल्या आवडल्यात त्या हेरून ठेवायच्या आणि मग तिला बोलावून त्या आवडीच्या बांगड्या घ्यायच्या.

ववसायला नवी काकण पायजेतच! म्हणून बायका हातभर बांगडया चढवायच्याच.अगोदरच्या नवीन असल्या तर मग दोन रेशमी का होईना पण नवीन बांगड्या संक्रातीला चढवायच्याच .

संक्रात आली की शाळेतल्या पोरी आपापल्या मैत्रिणींना संक्रात भेट द्यायच्या.गंधांची गोल बाटली,प्लास्टिक टिकल्या,रंगीत चाप ,डिस्को रबर.ही देवाणघेवाण फक्त आपल्याला कुणी भेट दिली तरच तिला द्यायची, नाही दिली तर आपली भेट मग परत मागून घ्यायची! किती मजेशीर  शाळकरी दिवस होते ते!

संक्रांत दोन दिवसांवर येऊन ठेपायची.दुकानातून चार आणे किंवा आठ अण्यांची मेंदी आणायची मग लिंबू ,काथ घालून मेंदी भिजत घालायची आणि रात्री डाव्या हाताने उजव्या आणि उजव्याने डाव्या तळहातावर गुलाच्या काडीने मेंदीचे गोल गोल ठिपके द्यायचे.सकाळी उठल्यावर त्यातली निम्मिअर्धी सुकून पडलेली असायची.उरलेल्या मेंदीवर खोबरेल तेलाचे थेंब टाकून दोन्ही तळहात एकमेकांवर चोळून उरलेली मेंदी पण काढून टाकायची मग हात लालभडक दिसायचे.

भोगीच्या आदल्या दिवशी मग कुणाच्यात पावटा ,कुणाच्यातला हरभरा ,ऊस ,शेतातले तीळ,राळे,बोरे,गाजरे, कांदा-लसणाची पात एकमेकींना देवाणघेवाणवाण करायच्या.तिघी चौघी मिळून अंगणात गप्पा मारत पावटा ,हरभरा सोलत बसायच्या.शेतातून हरभऱ्याचे भारेच्या  भारे आणायचे आणि शेजारी पाजारी वाटायचे.आंबट गोड गोल गोल बोरे म्हणजे आमचे विक पॉईंट! बांधावरच्या बोरी सर्वांगावर बोरांचे भार वागवत झुकून जात.हिरवी -पिकली बोरे पाटीने असायची त्यातली पसा पसा बोरे आसपास सगळ्यांनाच मिळायची.शेतातल्या असल्या सगळ्या वस्तुंचीच देवाण घेवाण व्हायची.प्लास्टिक वस्तू आणि इतर गोष्टींचे वाण लुटायची पद्धत नैसर्गिक वस्तूंच्या  देवाणघेवाणीत कधी घुसली काय माहीत!

भोगी दिवशी मग पहाटे लवकर उठून सवाष्णी न्हाऊन एकमेकींच्या घरात जाऊन हळदी कुंकू लावून यायच्या आणि मग भोगीच्या कालवणाला चुलीवर फोडणी बसायची.बाजरीची भाकरी,भोगी आणि राळ्याचा भात खाऊन सुस्ती यायची.

ज्या दिवसाची वाट पहात असू तो संक्रांतीचा दिवस शेवटी यायचाच. पोळ्या करून,ठेवणीतली पातळ नेसून बायकांच्या झुंडीच्या झुंडी हातात एकावर एक मडकं घेऊन ववसायला गल्लीभर फिरायच्या .प्रत्तेकीच्या अंगणात  तुळशीपाशी जाऊन एकमेकींना ववसायच्या .तिळगुळाची देवाणघेवाण व्हायची .गुलालाने भांग भरून केस गुलाबी रंगात न्हाऊन निघायचे.

दिवसभर गल्लीत हिंडून संध्याकाळी खिशात तिळगुळाची डबी घेऊन सगळ्या बाई आणि गुरुजींची घरे पालथी घालून तिळगुळ देऊन मगच घरला यायचे.शाळेत मारणारे,ओरडणारे बाई -गुरुजी तिळगुळ द्यायला गेल्यावर मात्र गोड-मवाळ व्हायचे.

दुसऱ्या दिवशी वर्गातल्या मुलींना आणि उरल्यासुरल्या शिक्षकांना तिळगुळ देऊन राहिलेले तिळगुळ स्वाहा व्हायचे.सगळ्या वरांड्यात ,वर्गात इथंतिथं सांडलेले तिळगुळ संक्रात संपल्याची जाणीव करून देत.

संक्रांत झाली की मैदानात उतरलेली ती संक्रातीची गाडी आवराआवर करू लागायची.उरली सुरली,तडा गेलेली मडकी,जमा झालेली ज्वारीची पोती गाडीत घालून गाड्या परतीच्या प्रवासाला लागायच्या.

काळ बदलला.घरे आधुनिक झाली .चुली जाऊन गॅस आले.मडक्यांची उतरंड अडगळ होऊन हद्दपार झाली.पारंपरिक शेती संपली. चूल गेली ,राख नाही आणि मग उतरंडीतला राखेत ठेवलेला बी बेवळा पण इतिहास जमा झाला.

संक्रातीच्या गाड्या कधीपासून यायच्या बंद झाल्या काही कळलेच नाही.काकणांची दुकाने ठिकठिकाणी झाली,कासारणीकडून काकण घालून घ्यायची गरज उरली नाही.हातभर काकण भरायची पद्धत जुनी झाली आणि आपसूकच संक्रातीला नवीन बांगड्या भरायची पद्धतही जुनी झाली.

भोगीच्या वस्तूंचे बाजार भरू लागले,शेते आधुनिक झाली ,मने संकुचित झाली.शेजार पाजार आकसला. पावटा, हरभरा, ऊस ,बोरे,तीळ देवाण घेवाण बंद झाली. तीळ तर शेतात लावणेच बंद झाले !

प्लास्टिक वस्तू आणि तशीच छोटी स्टील भांडी वाण म्हणून दिली घेतली जाऊ लागली आणि संक्रातीच्या सणातला नैसर्गिक गुळाचा गोडवा जाऊन कृत्रिम साखरेच्या गोडीने प्रवेश केला.

” तिळगूळ घ्या ….गो ss ड बोला !”

© सौ.सुचित्रा पवार 

तासगाव, सांगली

8055690240

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ आयुष्य जगायला नेमकं काय लागतं ? – भाग-१ ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

डॉ अभिजीत सोनवणे

© doctorforbeggars 

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☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ आयुष्य जगायला नेमकं काय लागतं ? – भाग-१ ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

आज 31 डिसेंबर 2023, उद्या एक जानेवारी 2024… दोन दिवसातलं अंतर फक्त 24 तासंच…. या दिवसापासून त्या दिवसाकडे पोहोचायला मात्र वर्षभर वाट पहावी लागली… ! 

शिखरावर जाऊन झेंडा रोवायचं काम फक्त एक मिनिटाचं… पण त्यासाठी जीव धोक्यात घालून अख्खा डोंगर चढायला लागतो, तसंच काहीसं हे…! 

झेंडा रोवण्यापेक्षा जीव धोक्यात घालून तुम्ही कसे चाललात हे जास्त महत्त्वाचं….! 

किनाऱ्याशी आल्यावर, किनारा आणि नाव यामध्ये अंतर फक्त एका पावलाचं असतं… पण त्या अगोदर अख्खी नदी पालथी घालताना; वल्ही मारून धाप लागलेली असताना, तुम्ही कसे तरलात हे जास्त महत्त्वाचं…!!

एखाद्या ठिकाणी पोचण्यापेक्षा, पोचण्यासाठी केलेला प्रवास, वाटेत आलेल्या अडचणींचा सामना म्हणजे आयुष्य…! 

आयुष्य जगायला नेमकं काय लागतं ? तर ज्ञान आणि भान… 

कोणत्या वेळी काय करावं, याचं “भान”म्हणजे “ज्ञान”…

आणि कोणत्या वेळी काय करू नये, याचं “ज्ञान” म्हणजे “भान”…! 

गाडी जोरात पळवायची असेल तर काय महत्त्वाचं ?एक्सीलेटर ??…मुळीच नाही…! 

गाडी जोरात पळवायची असेल, तर सर्वात महत्त्वाचा असतो तो ब्रेक…! 

निष्णात ड्रायव्हर, गाडी सुरू केल्यानंतर पहिल्यांदा चेक करतो तो ब्रेक…

थांबण्याची खात्री असेल, तरच त्या जोरात पळण्याला अर्थ आहे…  ब्रेकच नसेल तर पुढे जाऊन आदळणार हे नक्की…

गाडी चालवणं हे झालं “ज्ञान” आणि योग्य वेळी ब्रेक दाबून थांबणं हे झालं “भान”…! 

ज्ञान आणि भानाचं समीकरण एकदा कळलं की आयुष्यातलं गणित सोपं होवुन जातं….

ज्ञान असूनही भान हरवलेली किंवा भान असूनही ज्ञान नसलेली अनेक मंडळी या वर्षभरात मला भेटली… अनेक भले बुरे अनुभव आले आणि मी त्यातून समृद्ध होत गेलो. 

अनेक भल्या भुऱ्या गोष्टी या वर्षाने माझ्या झोळीत घेत गेलो….

डिसेंबर महिन्यात आपल्या साथीने घडलेल्या घटनांचा हा लेखाजोखा आपणास सविनय सादर…

भिक्षेकरी ते कष्टकरी

  1. थंडीसाठी स्वेटर विणायला घ्यावं आणि थंडी निघून गेली तरीही काही कारणानं ते अपूर्णच राहावं… अशी अनेक अपूर्ण आयुष्यं आजूबाजूला दिसतात…

अशीच एक प्रौढ महिला….

बालपण आणि तरुणपण काबाडकष्ट करून आई-वडिलांना जगवण्यात गेलं…. कालांतराने आई वडील गेले; पुढे हिला अपंगत्व आलं. 

कुणी नोकरी देईना आणि स्वतःचा व्यवसाय टाकण्यासाठी भांडवल नाही…. शेवटी नाईलाजाने जगण्यासाठी शनिवार वाडा परिसरात भीक मागायला सुरुवात केली. 

28 डिसेंबर रोजी छप्पर असलेली एक हातगाडी आणि विक्री योग्य सामान तिला घेऊन दिले आहे, ती आता त्या गाडीत बसून व्यवसाय करुन सन्मानानं जगते आहे. 

चला, बऱ्याच वर्षांपासून अपूर्ण राहिलेलं स्वेटर आज तुम्हा सर्वांच्या साथीने या थंडीत विणून पूर्ण झालं….! 

  1. चार अंध ताईं आणि एक दादा यांना या महिन्यात नवीन वर्षाचे कॅलेंडर विकायला दिले. यांचं”न्यू इयर”…” हॅप्पी” करण्याचा आमचा हा एक छोटासा प्रयत्न…!
  2. सध्या जातीवरून”राजकारण” सुरू आहे, आम्ही जातींचा उपयोग करुन”समाजकारण” करत आहोत…

चर्मकार समाजाचे एक आजोबा रस्त्यात भीक मागत आयुष्य जगत होते, त्यांना चप्पल विक्रीचा व्यवसाय टाकून दिला आहे…. 

नाभिक समाजाचे दुसरे आजोबा रस्त्यावर भीक मागत होते, त्यांना केश कर्तन आणि दाढी कटिंगचा व्यवसाय टाकून दिला आहे…. 

ज्या ठिकाणी हे लोक भीक मागतात…. शक्यतो त्याच ठिकाणी मी त्यांना व्यवसाय टाकून देतो…. 

ज्या मातीत हजारदा आयुष्याची कुस्ती हरलो…. त्याच मातीत, त्याच जागेवर जिंकण्याची नशा काही और असते…! 

जमिनीला पाठ लागली म्हणुन कुणी हरत नसतं… पडूनही न उठणं म्हणजे हरणं….! 

वरील आठही व्यक्तींच्या चेहऱ्यावरचं समाधान घेवून आम्ही 31 डिसेंबर साजरा करत आहोत. 

आयुष्यातलं आणखी एक वर्ष संपलं…. ???  संपू दे…. . पर्वा कुणाला….? 

आठ नवीन आयुष्यं उभी राहिली या नशेत आम्ही अजून झुलतो आहोत…! 

– क्रमशः भाग पहिला  

© डॉ अभिजित सोनवणे

डाॕक्टर फाॕर बेगर्स, सोहम ट्रस्ट, पुणे

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ व्यक्ती…  वल्ली…  आणि स्टेटस् – भाग-२ – लेखक : अभय कुलकर्णी ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? इंद्रधनुष्य ? 

☆ व्यक्ती…  वल्ली…  आणि स्टेटस् – भाग-२  – लेखक : अभय कुलकर्णी ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

(पण माझा मुलगा मांचुरियन शिवाय काही खात नाही असे अभिमानाने सांगणारे महाभाग आपल्याला बरेच दिसतात.) इथून पुढे —–

हाच प्रकार डोमिनोज किंवा मॅकडॉनल्ड्स च्या बाबतीत.   एक तर यांच्याकडे  सगळं मटेरियल असतं ते फ्रोजन मध्ये.  फ्रेश काहीही  नसतं.  फक्त हिट अँड इट या तत्वावर यांचे काम चालते.  पिझ्झा म्हणजे अक्षरशः एका ब्रेडच्या लादीवर काही भाज्यांचे तुकडे आणि केवळ घातलय म्हणायला घातलेले चीज …..  आणि यासाठी आपण चारशे – पाचशे रुपये देतो आणि हा पिझ्झा तिथे सेंटरवर जाऊन खायचा नाही ….. तो होम डिलिव्हरी ने घरी मागवायचा……  म्हणजे आसपासच्या लोकांना कळतं यांच्याकडे पिझ्झा मागवतात , स्टेटस दाखवायचा हा ही एक प्रकार.

मॅकडॉनल्ड्स सुद्धा  मुलांच्या मानसिकतेचा बरोबर विचार करून मार्केटिंग करत असते.  उदाहरणार्थ हॅप्पी मिल ……एका हॅपी मिल बरोबर एक छोटे खेळणे मोफत आणि पालक सुद्धा माझ्या मुलाला ही वेगवेगळी खेळणी जमवायला आवडतात म्हणून हॅप्पी मिल खरेदी करत असतात.  आता या मिल मध्ये एक बर्गर,  फ्रेंच फ्राईज आणि कोक असतो.  कुठल्या अँगलने हे मिल होऊ शकते ? पण माझा मुलगा हट्टच करतो…..  त्याला हेच आवडतं म्हणून  सांगणारे  खूप लोक  आहेत आणि माझ्याकडे इतकी खेळणी जमा झाली आहेत असे फुशारकीने सांगणारी मुले …..

अजून लोकांचा एक प्रकार असतो तो  म्हणजे ट्रीप ला जाणारी  लोकं . ही लोकं उत्तर भारताच्या ट्रीपला गेली की इडली सांबार मिळत नाही म्हणून अस्वस्थ होतात आणि दक्षिण भारताच्या ट्रीपला गेली की यांना छोले,परोठे पाहिजे असतात .

आमचे एक शेजारी आहेत.  ते एका नामांकित ट्रॅव्हल एजन्सी मार्फत काश्मिर ट्रीप ला गेले होते.  आल्यावर ते अभिमानाने सर्वांना सांगत होते की …..  आम्हाला गुलमर्गमध्ये नाश्त्याला कांदे पोहे दिले आणि श्रीनगर मध्ये तर चक्क पुरणपोळीचे जेवण दिले . आता या माणसापुढे हसावे की रडावे हे कळेना.  अरे बाबा आयुष्यभर कांदेपोहे आणि पुरणपोळी खातच जगला आहेस की …….. आता गेलाच आहेस काश्मीरला तर तेथील स्थानिक खाणे खा की ……… तिथला प्रसिद्ध कहावा पी ….  शाकाहारी असशील तर कमल काकडी ची भाजी खा ……पराठे खा ….. छोले  खा… राजमा खा …  नॉनव्हेज खात असशील तर वाझवान  पद्धतीचे नॉनव्हेज खा …. पण नाही ….. हे सगळीकडे वरण-भात  आणि कांदे पोहे मागतच फिरणार.

जर तुम्ही दिल्लीत गेलात तर पहाडगंज,  करोल बाग,  जुनी दिल्ली आणि लाल किल्ला या परिसरात गेलात तर रोज एक नवीन पदार्थ ट्राय करायचा तर एक वर्ष पुरणार नाही एवढी व्हरायटी मिळते . एकंदरीतच दिल्लीच्या बाजूचे लोक खाण्यापिण्याचे  शौकीन . साधे चाट खायचे म्हणले तरी कमीत कमी पन्नास प्रकारच्या व्हरायटी तुम्हाला मिळणार . …..

उदाहरण सांगायचे झाले तर राम लड्डू….. आता लड्डू म्हणल्यावर आपल्याला गोड पदार्थ आठवतो ….  परंतु हा राम लड्डू म्हणजे मुगाची डाळ आणि हरभऱ्याची डाळ भिजवून व बारीक करून त्याच्यात बऱ्याच प्रकारचे मसाले घालून तळलेली मोठीच्या मोठी भजी …..त्याच्यावर बारीक कापलेला मुळा आणि कोबी … त्यावर  मिरची – पुदिना चटणी आणि गोड चटणी घालून  देतात …..  अत्यंत वेगळा असा हा पदार्थ ….

त्याच प्रमाणे राजकचोरी हा सुद्धा तिकडचा एक अत्यंत वेगळा प्रकार …. मोठ्या पुढच्या आकाराची ही कचोरी ….. त्यामध्ये दही भल्ला , उकडलेला बटाटा, उकडलेले छोले,  आलू टिक्की, बारीक शेव, गोड तिखट चटणी आणि इतर अनेक मसाले घालून वरून भरपूर दही घालतात  ….  ही राजकचोरी एकट्या माणसाला संपवणे जवळपास अशक्य …..

तसेच अजून एक मिळणारा वेगळा पदार्थ म्हणजे दहीभल्ला ….  आपल्याकडच्या दहीवड्याचा चुलत भाऊ म्हणलं तरी हरकत नाही ….. फक्त हा उडदाच्या डाळीची ऐवजी  मुगाच्या डाळीपासून तयार केला जातो …..  असा हा दहीभल्ला ….. त्यावर तिखट आणि गोड चटण्या …. चाट मसाला आणि शेव ….. तसेच बेडमी पुरी , आलू पुरी,  कांजी बडा,  कचोरी , छोले भटूरे, कुलचे छोले, भीगा कुलचा, ईमरती … किती पदार्थ सांगू….

चांदणी चौकातल्या पराठेवाली गल्ली मध्ये तर जवळपास दीडशे प्रकारचे पराठे मिळतात ….. अगदी कारल्याचा पराठा ,पापड पराठा, रबडी पराठा, ड्रायफ्रुट पराठा, फ्रुट पराठा ,…..असे कितीतरी आपल्याकडं न मिळणारे प्रकार  येथे मिळतात ……….पण नाही आम्हाला इथे वरण भातच  पाहिजे…..

नागपूर म्हणजे ज्यांना झणझणीत खाणे आवडतं त्यांच्यासाठी तर स्वर्गच  …… सकाळचा नाष्टा म्हणजे  तर्री पोहे …..  कांदेपोह्या मध्ये हरभर्‍याची उसळ व  वरून मस्तपैकी झणझणीत रस्सा ….. वरुन थोडासा मक्याचा चिवडा आणि चिरलेला कांदा ….. आणि नंतर गरमागरम चहा …… दिवसाची सुरुवात अशी झाली तर दिवस कसा जाईल हे वेगळे सांगायची गरज नाही…..  नागपुरी वडा भात ही पण एक नागपूरची स्पेशल डिश ….  गरमा गरम वाफाळता भात त्यावर डाळीचे वडे कुस्करून घातलेले आणि वरून घातलेली मिरचीची फोडणी …..  सोबत कढी… क्या बात है ……  तसेच नागपूर साईड चे वांग्याचे भरीत सुद्धा आपल्यापेक्षा वेगळे असते ……. नागपूरची वांगीच वेगळी ….  छान पैकी तुराट्या वर ठेवून ही वांगी भाजायची नंतर फोडणी करून त्याच्यामध्ये कांदा, भरपूर मिरची,  भाजून बारीक केलेले वांगे घालायचे आणि छान पैकी परतायचे ….. परतून झाल्यावर त्यावर कांद्याची पात आणि तळलेले शेंगदाणे घालायचे ….  हे  भरीत तुम्हाला कळण्याच्या भाकरीबरोबर  किंवा पुरी बरोबर मस्त लागते…….  तसंच पाटवडी रस्सा,  शेव भाजी आणि सगळ्यात महत्वाचे म्हणजे सांबारवडी …… आता या सांबारवडी चा आणि साऊथ इंडियन सांबार याचा काही संबंध नाही बर का ……  नागपूर साईडला सांबार म्हणजे कोथिंबीर …… तर ही कोथिंबीरीची वडी ही सुद्धा पश्चिम महाराष्ट्रात वेगळ्या पद्धतीने करतात आणि नागपूर साईडला वेगळ्या पद्धतीने करतात ….. कोथिंबीर बारीक चिरून त्यामध्ये मिरची ,आलं, लसूण यांची पेस्ट, धने पूड, जिरे पूड, मीठ  घालतात आणि नंतर हरभरा डाळीचे पीठ व गव्हाचे पीठ  यांचे मिश्रण करून त्याची पोळी लाटतात व त्या पोळी मध्ये हे  कोथिंबिरीचे मिश्रण भरतात आणि तळतात आणि ते तर्री  किंवा कढी बरोबर खायला देतात .. हल्दीराम ची दुधी भोपळा आणि संत्र्याचा रस या पासून बनवलेली संत्रा बर्फी नागपुरात जाऊन खाल्ली नाही तर तुम्हाला शंभर टक्के पाप लागणार….. कारण का ही बर्फी जास्त काळ टिकत नसल्याने नागपूरच्या बाहेर फारशी कोठेही मिळत नाही.  ….पण नाही …..  आम्हाला इथेही वरण-भातच  पाहिजे ………

जसे उत्तरेकडील जेवण चमचमीत आणि झणझणीत तसेच दक्षिणेकडील जेवण एकदम सौम्य आणि सात्विक.  आपल्याला वाटते दक्षिणेत काय फक्त इडली, डोसा आणि भात  मिळणार……. पण नुसती इडली म्हणाल तर साधी इडली,  रवा इडली ,बटन इडली, गुंटूर इडली,  तट्टे इडली,  कांचीपुरम इडली , पोडी इडली,  रागी इडली , दही इडली , घी इडली ……. किती प्रकार सांगू…..  याशिवाय उडीद वडा,  डाळ वडा,  मैसूर बोंडा , आलुबोंडा, साधा डोसा, मसाला डोसा, बेन्ने डोसा, नीर डोसा, रवा डोसा,  कट डोसा, उत्तपा आणि भातात म्हणाल तर पुलियोगरे , बिशीबाळी,  चित्रांन्ना,  स्वीट पोंगल,  पोंगल , लेमन राईस , टोमॅटो राईस, कर्ड राईस….. किती नाव सांगू. नुसत्या  रस्सम आणि सांबारचेच दहा बारा प्रकार असतात .

हिरव्यागार केळीच्या पानावर वाढलेला उकड्या तांदळाचा वाफाळलेला भात ….. आणि त्यावर गरमागरम सांबार …… हे संपल्यावर पुन्हा भात आणि त्यावर गरमागरम रस्सम ……. आणि शेवटी दहिभात ……. सोबतीला पापड , केळाचे वेफर्स आणि लोणचे. ……  वा…  याशिवाय जगात दुसरे कोणते सुख असूच शकत नाही. …..  पण इथेही काही लोक छोले भटोरे, आलू पराठा आणि टोमॅटो सूप हुडकत फिरत असतात.

जाऊ दे …. गाढवाला गुळाची चव काय हे म्हणतात तेच खरं.

क्रमश : भाग दुसरा 

लेखक : अभय कुलकर्णी, कराड

प्रस्तुती : सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆’जिप्सी’ला सलाम – संग्राहक : अज्ञात ☆ प्रस्तुति – सौ. शामला पालेकर ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ ‘जिप्सी’ला सलाम – संग्राहक : अज्ञात ☆ प्रस्तुति – सौ. शामला पालेकर ☆

अरुण दातेंनी सांगितलेली एक हृद्य आठवण-

“मला एकदा अचानक मंगेश पाडगावकरांचा फोन आला. ते म्हणाले, “मी एक नवीन कोरं गाणं लिहिलं आहे. अजून कागदावरची शाईसुद्धा वाळलेली नाही. मी तुला फोन करण्याच्या पाच मिनिटं आधी देवसाहेबांशी बोललो आणि त्यांना गाणं ऐकवलं. आम्ही दोघांनीही हे ठरवलं आहे की, या गाण्याला फक्त तूच न्याय देऊ शकतोस.”ते गाणं म्हणजे, ‘या जन्मावर, या जगण्यावर, शतदा प्रेम करावे’! हे गाणं गाऊन माझी प्रसिद्धी तर वाढलीच, पण माझ्या चाहत्यांप्रमाणे मलाही हे गाणं बरंच काही शिकवून गेलं.

या गाण्याची एक आठवण फारच हृद्य आहे. तो विलक्षण अनुभव आपल्याला सांगावासा वाटतो.

माझ्या नाशिकच्या एका कार्यक्रमामध्ये मध्यंतरात माझा बालपणीचा मित्र आणि साहित्यिक वसंत पोतदार मला भेटायला आला. त्याच्याबरोबर एक तरुण मुलगाही होता. त्याला पुढे करून वसंता मला म्हणाला, ‘‘या मुलाला दोन मिनिटे स्टेजवर काही बोलायचे आहे.’’ त्यावर मी त्याला म्हणालो की, ‘‘मी याला ओळखत नाही आणि तो काय बोलणार आहे, हे मला माहीत नाही. त्यामुळे मी परवानगी कशी देऊ?’’ यावर वसंता मला पुन्हा म्हणाला, ‘‘माझ्यावर विश्वास ठेव, त्याला जे बोलायचे आहे, ते फार विलक्षण आहे आणि ते लोकांपर्यंत पोहोचावे अशी माझी इच्छा आहे.’’ मी म्हटले, ‘‘ठीक आहे, मी त्याला पाच मिनिटे देतो. कारण रसिक गाणी ऐकायला थांबले आहेत.’’

वसंता त्याला घेऊन स्टेजवर गेला आणि त्या मुलाने बोलणे सुरू केले. ‘‘जवळपास एक ते दीड महिन्यांपूर्वीपर्यंत मी पूर्णपणे ड्रग्जच्या आहारी गेलेला मुलगा होतो. ड्रग्जशिवाय मला कुठलेही आकर्षण उरले नव्हते. अगदी आयुष्याचेसुद्धा! असाच एकदा कासावीस होऊन एके सकाळी मी ड्रग्जच्या शोधात एका पानाच्या दुकानाशी आलो. तेव्हा माझ्या कानावर एका गाण्याचे शब्द पडले. ते संपूर्ण गाणे मी तसेच तेथेच उभे राहून ऐकले आणि ड्रग्ज न घेता किंवा त्याची विचारपूसही न करता तिथून निघालो. एका कॅसेटच्या दुकानाशी येऊन दुकान उघडण्याची वाट बघत राहिलो. दुकान उघडताक्षणी मी पाच मिनिटांपूर्वी ऐकलेल्या गाण्याची कॅसेट विकत घेतली. दिवसभरात तेच गाणे किमान ५० वेळा ऐकले आणि पुढचे १०-१२ दिवस हेच करत राहिलो. त्यानंतर वसंत काकांकडे गेलो आणि त्यांना म्हटले की, ‘कुठल्याही परिस्थितीत या गाण्याचे गायक अरुण दाते साहेबांना मला भेटायचे आहे.’ काका म्हणाले, ‘अजिबात चिंता करू नकोस. पुढल्या महिन्यात अरुणचा कार्यक्रम नाशिकमध्ये आहे. आपण त्याला भेटायला जाऊ.’ ज्या गाण्याने माझे संपूर्ण आयुष्य पालटले आणि मी स्वत:चे माणूसपण शोधायला लागलो, ते गाणे आहे,  ‘या जन्मावर, या जगण्यावर शतदा प्रेम करावे’ आणि त्याकरिताच मी सर्वांसमोर दाते साहेबांचे मुद्दाम आभार मानायला आलो आहे.’’

त्या मुलाचे बोलणे झाल्यावर टाळ्यांचा कडकडाट झाला. त्या दिवशीची सगळ्यात मोठी दाद त्या मुलाच्या बोलण्याला मिळाली होती.

मला वसंताने स्टेजवर बोलावले आणि त्या मुलाने अक्षरश: माझ्या पायावर लोटांगण घातले. मी त्याला उठवून प्रेमाने जवळ घेतले आणि माईक हातात घेऊन रसिकांना आणि त्याला म्हणालो, ‘‘जे श्रेय तू मला देतो आहेस त्याचे खरे हकदार कविवर्य मंगेश पाडगावकर आणि संगीतकार यशवंत देव आहेत. मी तर या गाण्याचा फक्त गायक आहे. म्हणून मी मुंबईला गेल्यावर तुझे हे धन्यवाद त्या दोघांपर्यंत नक्की पोहोचवीन.’’

लेखक  :अज्ञात

प्रस्तुती : सौ. शामला पालेकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विरोध विरहित दिवस… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

विरोध विरहित दिवस… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

निसर्ग नियम १

विरोध विरहित दिवस

आपल्याला राग का येतो?

▪️ आपल्या मनाविरुद्ध काही घडले.

▪️ समोरची व्यक्ती आपल्या मनाप्रमाणे वागली नाही.

▪️ आपल्या हातात नसलेल्या गोष्टी घडल्या.

▪️ गैरसमज झाले.

▪️ चुकीच्या गोष्टी घडल्या.

या सारखी बरीच कारणे असतात.

अशा वेळी आपल्याला राग येतो. मग त्या वरची प्रतिक्रिया व्यक्त केली जाते.ती कशी असते?

राग, चिड, संताप, विरोध, नैराश्य याचे परिणाम काय होतात हे आपण अनुभवतो.काही वेळेस बदला घेण्याची भावना तीव्र होते.त्यात आपलीच मानसिकता बिघडते.

आपले हास्य मावळते.

विचार शक्ती कमी होते.कधी कधी नात्यात दुरावा निर्माण होतो.

आपली प्रचंड ऊर्जा खर्च होते.आपले अंतस्त्राव बदलतात.कधी कधी खरे कारण समोर आल्यावर आपला राग व्यर्थ होता हे लक्षात येते.पण त्यावेळी वेळ निघून गेलेली असते.

हे सगळे थांबवणे आपल्याच हातात असते.आपण या गोष्टी निसर्गातून शिकू शकतो.राग,चिड,नैराश्य यावर दीर्घ श्वसन,पाणी पिणे,अंक मोजणे हे उपाय आहेतच.पण असे उपाय करण्याची वेळ येऊच नये म्हणून काही गोष्टी करु शकतो.काही निसर्ग नियम आचरणात आणू शकतो.

निसर्ग कधीही बदला घेत नाही. म्हणून तो नुकसान झाले तरी सर्व शक्तिनीशी पुन्हा बहरतो,फुलतो व आनंद देतो.

आपण पण आठवड्यातून एक दिवस  असा ठरवून घेऊ.तो म्हणजे विरोध विरहित दिवस या दिवशी काही छोट्या छोट्या कृती करु या.

या दिवशी पुढील वाक्ये मनाशी ठरवून घ्यायची व त्या प्रमाणे वागायचे.

१) मी विश्वाला व आजूबाजूच्या लोकांना स्वातंत्र्य प्रदान करते/करतो.

प्रत्येकाला आपल्या मनाप्रमाणे वागण्याचे स्वातंत्र्य असते.त्यांची मते पण त्यांच्या दृष्टीने योग्य असतात.थोडक्यात म्हणजे त्या दिवशी इतरांना न रागावता त्यांची बाजू समजून घ्यायची.

२) माझे मत मी व्यक्त करेन पण सिद्ध करणार नाही.

माझे मत व्यक्त करायचे पण तेच कसे बरोबर आहे हे इतरांना समजावत बसायचे नाही.किंवा त्यांनी त्या मताशी सहमत व्हावे असा आग्रह धरायचा नाही.

३) दुसऱ्याचे मत ऐकेन पण विरोध करणार नाही.

दुसऱ्याचे मत जरी चुकीचे असेल तरी ऐकून घ्यायचे.पण ते कसे चुकीचे आहे हे पटवून देण्याचा किंवा सिद्ध करण्याचा हट्ट करायचा नाही. एखादी व्यक्ती २+२=८ म्हणाली तरी फक्त ऐकायचे.

थोडक्यात घडणाऱ्या सगळ्या गोष्टींचा स्वीकार करायचा.

४) आजचा दिवस सर्वोत्तम होता.

५) आजच्या दिवसा साठी खूप खूप आभार.

यातील वरील पाच वाक्ये घोकायची.व मनापासून अमलात आणायची.आणि तो दिवस कसा गेला, त्या दिवसात काय काय घडले,मनस्थिती कशी झाली.हे सगळे अनुभव लिहून ठेवायचे.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

हिलिंग, मेडिटेशन मास्टर, समुपदेशक.

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ औक्षवंत हो… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? काव्यानंद ?

☆ निशाशृंगार… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण.. सौ राधिका भांडारकर ☆

☆ – औक्षवंत हो – डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆

काजळ घेउनिया नयनीचे तीट लावते तुला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला।।ध्रु।।

 

पहिली बेटी ही धनपेटी म्हणती दांभिक सारे

आदिशक्ती तू माझ्या पोटी कौतुक मजला न्यारे

जीवन माझे सार्थ जाहले उधाण आनंदाला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला।।१।।

 

सीता तू अन् तूच द्रौपदी तूच जिजाऊ माता

गार्गी बनुनी विदुषी होई तारी या भारता

सुनीता राणी अवकाशाची धन्य मानवी बाला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला।।२।।

 

कृतघ्न किती हा मानव झाला तुझ्या जीवावर घाला

वाढविते तू वंशा, निर्घृण तुझाच वैरी झाला

तेजस्विनी हो, सौदामिनी हो,लखलखती  तू ज्वाला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला।।३।।

 

पत्नी जरी तू एका क्षणाची माता तू कालाची

संस्काराचे सिंचन करिते सरस्वती ज्ञानाची

गर्भपात ना कधी घडावा अभय मिळू दे तुला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला ।।४।।

 

 – डॉ. निशिकांत श्रोत्री.(निशिगंध)

काव्यनन्द

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते

   रमन्ते  तत्र देवता:।।

पिढ्यानुपिढ्या जपलेलं हे सुंदर विचारांचं, सुसंस्काराचं सुभाषित.  पण प्रत्यक्ष जगताना, अवतीभवतीची पीडित स्त्री जीवनं  पाहताना मनात नक्कीच येतं की सुभाषितं ही फक्त कागदावर. समाज मनावर ती कोरली आहेत का? खरोखरच नारी जन्माचा सोहळा होतो का? स्त्री आणि पुरुष यांचा  दोन व्यक्ती म्हणून विचार करताना सन्मानाच्या वागणुकींचं  पारडं नक्की कुणाकडे झुकतं? आजही एकतरी मुलगा हवाच ही मानसिकता कमी झालेलली नाही. पण जिच्या उदरातून हा वंशाचा दिवा जन्म घेतो तिचा मात्र सन्मान होतो का?

“ तुम्हाला दोन मुलीच?”

 या प्रश्नांमध्ये दडलेला,” मुलगा नाही?” हा प्रश्न बोचरा नाही का?

 अनेक शंका उत्पन्न करणारे असे प्रश्नही असंख्य आहेत. सुधारलेल्या समाजाची व्याख्या करतानाही हे प्रश्न सतत भेडसावत असतातच आणि याच पार्श्वभूमीवर औक्षवंत हो ही डॉक्टर निशिकांत श्रोत्री यांची गीतरचना माझ्या वाचनात आली आणि मी खरोखरच हे काव्य वाचून प्रभावित झाले. त्याचे मुख्य कारण म्हणजे या काव्याचा उगम एका पुरुष मनातून व्हावा याचे मला खूप समाधान आणि तितकेच अप्रूपही वाटले.

हे गीत  वाचल्यावर प्रथमतःच मनासमोर उभी राहते ती प्रेमस्वरूप, वात्सल्य सिंधू आईच. ज्या मातेने नऊ महिने स्वतःच्या उदरात एक गर्भ मोठ्या मायेने  वाढविलेला असतो त्याला जन्म देताना मातृत्वाच्या भावनेने ती ओथंबलेली असते, मग ते मातृत्व मुलाचं की मुलीचं हा प्रश्नच उरत नाही.  कुशीत जन्मलेल्या बाळाची ती आणि तीच फक्त माताच असते.

 काजळ घेऊनिया नयनीचे तीट लाविते तुला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला ।ध्रु।।

नुकत्याच सोसलेल्या प्रसूती वेदना ती क्षणात विसरलेली आहे आणि जन्मलेल्या आपल्या कन्येला हातात घेताना प्रथम तिच्या मुखातून उद्गार निघतात,” माझ्या डोळ्यातल्या काजळांचं तीट तुला लावते बाळे,  औक्षवंत हो! दीर्घायुषी हो! हाच आशीर्वाद मी तुला देते.”

या ध्रुपदाच्या  दोन ओळींमध्ये अनेक अर्थ दडलेले आहेत. हा एका नुकतंच मातृत्व लाभलेल्या आईने जन्मलेल्या अथवा तिच्या गर्भात वाढत असणाऱ्या स्त्रीअंकुराला दिलेला आशीर्वाद तर आहेच.  पण औक्षवंत हो म्हणताना कुठेतरी तिच्या मनात भय आहे की माझ्या या  मुलीच्या जन्माचा सन्मान होईल का? तिच्यावर कधी अशी वेळ येऊ नये की तिला अर्धवटच हे जगणं सोडून द्यावं लागेल कारण सद्य समाजाविषयी ती कुठेतरी मनोमन साशंक आहे.

आणि म्हणूनच कदाचित तिला आपल्या बाळीला कुणाचीही नजर लागू नये,सर्व दुष्ट शक्तीपासून तिचे रक्षण व्हावे याकरिता डोळ्यातले काजळरुपी तीट लावावेसे वाटत आहे.

 पहिली बेटी ही धन पेटी म्हणती दांभिक सारे

आदिशक्ती तू माझ्या पोटी कौतुक मजला न्यारे

जीवन माझे सार्थ जाहले उधाण आनंदला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला ।१।

“म्हणताना म्हणतात हो सारे, पहिली बेटी धनाची पेटी असते. पण ओठावर एक आणि मनात एक असणारे हे सारेच ढोंगी आहेत. पण मी मात्र तुझी आई आहे. माझ्या उदरी जणू काही तुझ्या रूपानने आदीमायेनेच जन्म घेतला आहे याचा मला सार्थ अभिमान आहे. तुझ्या जन्माने माझी कूस पावन झाली, माझ्या जीवनाची सार्थकता झाली आणि या माझ्या आनंदाला पारावरच नाही. सुखी दीर्घायुष्याचे सगळे मार्ग तुझ्यासाठी मुक्त असावेत हेच माझे आशीर्वचन आहे.”

आशीर्वादाऐवजी कवीने योजलेला आशीर्वचन हा शब्द मला खूपच भावला.  जन्मापासूनच तिने आपल्या कन्येचा योग्य प्रतिपाळ करण्याचा जणू काही वसा घेतला आहे. तिने तसे स्वतःला वचनबद्ध केले आहे असे या शब्दातून व्यक्त होते.

 सीता तू आणि तूच द्रौपदी तूच जिजाऊ माता

 गार्गी बनुनी विदुषी होईल तरी या भारता

 सुनीता राणी अवकाशाची धन्य मानवी बाला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला।२।

मुलगी झाली म्हणून त्या मातेला कणभरही कमीपणा वाटत नाही. उलट ती त्या जन्मलेल्या निरागस स्त्री अंशात सीता, द्रौपदी, जिजाऊ माता, विदुषी गार्गी, अगदी अलीकडच्या युगातली अंतराळ वीरांगना सुनीता विल्यमलाच पहात आहे. अशा अनेक गौरवशाली स्त्री व्यक्तिमत्त्वांची तिला आठवण होते आणि आपली ही बालिका ही एक दिवस अशीच दैदिप्यमान कर्तुत्वशाली व्यक्ती असेल असे सुंदर स्वप्न ती पाहते आणि त्या क्षणी पुन्हा पुन्हा ती तिला औक्षवंत हो, कीर्तीवंत हो ,यशवंत हो असे आशिष देत राहते.

कृतघ्न किती हा मानव झाला तुझ्या जीवावर घाला

वाढविते तू वंशा निर्घुण तुझाच वैरी झाला

तेजस्विनी हो सौदामिनी हो लखलखती हो ज्वाला

 औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला।३।

मनातल्या ममतेच्या,वात्सल्येच्या वेगाबरोबरच त्या नुकत्याच, या जगात जन्म घेतलेल्या स्त्री जीवाला दुष्ट, संहारी समाजापासून सावध करण्याचेही भान बाळगते. खरं म्हणजे स्त्री ही सृजनकर्ती, जगाची निर्मिती प्रमुख. तिच्याच उदरातून कुळाचा वंश जन्म घेतो. तिच्याशिवाय ज्याचा जन्मच अशक्य आहे तिचाच मात्र तो वैरी बनतो आणि तिची निर्घृण हत्या करण्यास पुढे सरसावतो. ही केवढी विसंगती आहे!  पण तरीही ही धीरोदत्त माता आपल्या हातातल्या त्या निष्पाप, अजाण, कोवळ्या कळीला समर्थ, सक्षम करण्यासाठी म्हणते,”तू नको कसले भय बाळगूस. तू  मूर्तिमंत तेज हो, थरकाप उडवणारी चपला (वीज) हो, गगनाला भिडणारी लखलखती ज्वाला हो.

तेजस्विनी सौदामिनी ज्वाला हे तीनही शब्द तळपणाऱ्या व्यक्तिमत्त्वासाठीच आहेत. कवीने या तीन शब्दांची औचित्यपूर्ण गुंफण केली आहे. आईच्या मनातले समर्थ, बलवान, धारदार विचार ते सुंदरपणे व्यक्त करतात.

 पत्नी जरी तू एक क्षणाची माता तू कालाची

संस्काराचे सिंचन करते सरस्वती ज्ञानाची

 गर्भपात ना कधी घडावा अभय मिळू दे तुला

औक्षवंत हो माझ्या बाळे आशीर्वच हे तुला ।४।

स्त्री जन्माविषयी असेच म्हणतात ना? क्षणाची पत्नी आणि अनंत कालची माता.  किती सार्थ आहे हे भाष्य! मातृत्व ही अशी भावना आहे किंवा अशी भाववाचक संज्ञा आहे की जिचा काल अनंत आहे. ज्या क्षणापासून तिच्या उदरात गर्भ रुजतो त्या क्षणापासून ते तिच्या जीवनाच्या अंतापर्यंत ती केवळ आणि केवळ माताच असते. स्वतःच्या उदरातून जन्माला आलेल्या तिच्याच अंशाच्या सुखासाठी, स्वास्थ्यासाठी ती अविरत झटत असते. या काव्यामधली ही माता म्हणूनच त्या अंशाला तिच्या जन्माचं महत्त्व पटवून देते. तिला संस्काराचे सिंचन करणारी सरस्वती, ज्ञानदा म्हणून संबोधते आणि निस्सिमपणे एक आशा मनी बाळगते की कळी उमलण्यापूर्वीच  खुडली न जावो. केवळ “मुलीचा गर्भ” हे निदान होताच तिची गर्भातच हत्या कधीही न होवो. आणि म्हणूनच या ठिकाणी औक्षवंत हो या आशीर्वाचनाला खूप व्यापक असा अर्थ लाभतो.

*अनंत कालची माता*हा स्त्रीविषयीचा उल्लेखही खूप विस्तारित अर्थाचा आहे. आयुष्याच्या एकेका टप्यावर पती पत्नीचं नातंही नकळत बदलतं. शृंगारमय यौवनाचा भर ओसरतो आणि त्याच पतीची ती उत्तरार्धातच नव्हे तर वेळोवेळी कशी मातेच्या रुपात भासते हेही सत्य नाकारता येत नाही.मातृत्व हा स्त्रीचा स्थायी भाव आहे. ती पुत्राचीच नव्हे तर पतीचीही माता होते. असंहे मातृत्व खरोखरच अनंतकाली आहे.

 डॉक्टर श्रोत्रींना मी मनापासून वंदन करते, की या गीत रचनेतून त्यांनी स्त्रीचे महात्म्य अधोरेखित करणारा केवढा मौल्यवान संदेश समाजाला दिला आहे! भृणहत्ये विरुद्ध उभारलेलं हे एक काव्यरूपी शस्त्रच आहे.हे गीत वाचल्यावर निश्चितपणे जाणवते ते हे की हे एका कन्येची माता होणाऱ्या अथवा झालेल्या स्त्रीचे मनोगत आहे. कदाचित जन्मलेल्या कन्येशी किंवा गर्भांकुराशी होत असलेला हा एक प्रेमळ,ममतापूर्ण तरीही काहीसा भयभीत, चिंतामिश्रित संवादही आहे.. आपल्या उदरात वाढणारा गर्भ हा मुलीचा आहे असे समजल्यावर तिने सर्व समाजमान्य कल्पनांना डावलून केलेला एक अत्यंत बलशाली निर्धार आहे. तितक्याच समर्थपणे ती  तिच्या गर्भासाठी एक संरक्षक कवच बनलेली आहे.

सर्वच दृष्टीने हे गीत अर्थपूर्ण आणि संदेशात्मक आहे. मातेची महती सांगणारे आहे.

वात्सल्य रसातले तरीही वीरश्रीयुक्त असे रसाळ, भावनिक गीत आहे,

धनाची पेटी तेजस्विनी सौदामिनी ज्वाला आणि ती लखलखती या स्त्रीला दिलेल्या उपमा खूपच सुंदर वाटतात, आणि यथायोग्य वाटतात.

सारे —न्यारे” माता —भारता’ घाला— झाला— जीवाला ही यमके यातला अनुप्रास हा अतिशय डौलदार आहे.

साधी, सहज भाषा, नेमके शब्द अलंकार, वजनदार तरीही अवघड न वाटणारे सुरेख नादमय शब्द यामुळे औक्षवंत हो हे गीत मनावर एक वेगळीच जादू करते. एका वेगळ्याच भावना प्रवाहात अलगद घेऊन जाते.

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ व्यक्ती…  वल्ली…  आणि स्टेटस् – भाग-१ – लेखक : अभय कुलकर्णी ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? इंद्रधनुष्य ? 

☆ व्यक्ती…  वल्ली…  आणि स्टेटस् – भाग-१ – लेखक : अभय कुलकर्णी ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

माझ्यासारखे काही लोक जसं खाण्यासाठी जगणारे असतात… तसे काही लोक हे  दाखवण्यासाठी खाणारे असतात ………

आता हीच गंमत बघाना  ….. कराड मधून खूप लोक गाडी घेऊन कायम पुण्याला जात असतात.  कधीतरी गंमत म्हणून यांना विचारून बघा…..  की पुण्याला जाताना किंवा पुण्याहून येताना तुम्ही चहा – नाश्ता घेण्यासाठी कुठे थांबता?  90 टक्के लोकांचे उत्तर येणार की…..  हॉटेल विरंगुळा किंवा हॉटेल आराम…… कारण इथे थांबणे म्हणजे स्टेटस चे लक्षण …….  आमच्या चिंटूला ना विरंगुळा मधले थालपीठ खूप आवडते आणि आमच्या बायकोला ना आराम मधली भजी……..  खरंतर महाराष्ट्रातल्या कुठल्याही हॉटेलमध्ये जशी पदार्थांची चव असते त्याच सर्वसामान्य चवीचे इथले पदार्थ असतात……  इतर हॉटेलमध्ये मिळणारा दहा रुपयाचा चहा येथे वीस रुपये देऊन घ्यायचा आणि चाळीस रुपये चा डोसा शंभर रुपयाला घ्यायचा …….  कशासाठी ? तर स्टेटस दाखवण्यासाठी…..

एकदा मी व माझा मित्र किशोर पुण्याला निघालो असताना पाचवड पुलाखाली एका टपरीवजा हॉटेलमध्ये थांबलो होतो . तिथली मिसळ आणि मिसळ बरोबर ब्रेड च्या ऐवजी दिलेली गरमा गरम पुरी दिल खुश करून गेली.  त्याचबरोबर एक प्लेट कांदा भजी….  आणि दोन कमी साखर स्पेशल चहा …… आणि एवढं सगळं फक्त शंभर रुपयात . आणि चवीच्या बाबतीत म्हणाल तर ही दोन्ही हॉटेल याच्या पासंगालाही पुरणार नाहीत…..  इथे स्टेटस नाही…..  भपका नाही …..पण चव मात्र नक्की आहे.  माझ्या सारखी माणसे मात्र अशी ठिकाणे शोधत असतात .

पुण्यात गेल्यावर सुद्धा  गंमत बघा ….. जे उच्च मध्यमवर्गीय आहेत किंवा नवश्रीमंत आहेत त्यांचे खाण्याबद्दल चे बोलणे कधीतरी ऐका …… मसाला डोसा ना मला वैशाली शिवाय कुठला आवडतच नाही …… आणि इडली खायची तर फक्त व्याडेश्वर मध्येच ……. चायनीज ना Menland China शिवाय कुठेच चांगले मिळत नाही …….. म्हणजेच याचा अर्थ आपण समजून घ्यायचा की……  मी दोनशे रुपये देऊन वैशाली मध्ये जाऊन मसाला डोसा खातो  हे त्यांना सांगायचे आहे ………. काय खातो  या पेक्षा  कुठे खातो ते दाखवण्याची जास्त हौस.

पंजाबी जेवण जेवायचे असेल …..दोन-दोन तास नंबरला थांबून  चांगले जेवण मिळते अशी भ्रामक समजूत करून घेतलेल्या लोकां बद्दल काय सांगायचे? ……  खरंतर पंजाबी जेवण म्हणजे एक शुद्ध फसवणूक आहे …… आठवड्यातून एकदाच करून ठेवलेल्या तीन प्रकारच्या ग्रेव्हीज ……. लाल ग्रेव्ही, पिवळी ग्रेव्ही व पांढरी ग्रेवी याच्या जोरावर हे जेवण चालते.  यामध्ये कौतुकाची फक्त एकच गोष्ट आहे ती म्हणजे …… या तीन प्रकारच्या ग्रेव्ही पासून जवळपास 200 भाज्यांची नावे ज्यांने तयार केली असतील त्याला नोबेल पारितोषिक द्यायला हरकत नाही. 

आता हेच बघा ना  …. पिवळ्या ग्रेव्हीमध्ये हिरवे वाटाणे आणि पनीरचे तुकडे घातले की झालं मटर पनीर …… नुसतेच मटर घातले की झाला ग्रीनपीस मसाला……  नुसतं पनीर आणि वरून थोडे क्रीम घातलं की झाला पनीर माखनवाला …….. या ग्रेव्हीत काजू तळून घातले ती झाला काजू मसाला …….. लाल ग्रेव्हीत उकडलेला फ्लॉवर , वाटाणा,  गाजर घातले की झाले मिक्स व्हेज……  याच मिक्स व्हेजला तिखट पूड घालून तडका मारला की झाले व्हेज कोल्हापुरी …… याच व्हेज कोल्हापुरी वर दोन हिरव्या मिरच्या तळून ठेवल्या की झाला व्हेज अंगारा…….  मेन्यू कार्ड पाहिल्यावर आपल्याला वाटतं अरे वा ….. काय व्हरायटी आहे इथं?  खरंतर भाज्या दहा-बारा प्रकारच्याच असतात ….. पण नावं वेगवेगळी देऊन त्याच पुढे येतात.  आता मला सांगा व्हेज दिलबहार किंवा व्हेज शबनम म्हणून तुमच्या पुढे काय येणार आहे हे तुम्हाला ती डिश समोर आल्याशिवाय काही कळणार आहे का?  नाही . पण मी पैज लावून सांगतो की वर सांगितलेल्या भाज्या पैकीच कोणतीतरी भाजी तुमच्यासमोर नक्की येणार. 

हॉटेलात जाऊन सुद्धा आपण कसे Health Cautious  आहोत असे दाखवणार्यांची  सुद्धा संख्या बरीच असते . गाजर ,काकडी, कांदा, मुळा आणि टोमॅटो यांच्या चार – चार चकत्या ….. की ज्याची किंमत पंधरा रुपये सुद्धा होणार नाही ते ग्रीन सॅलेड म्हणून प्लेटमध्ये सजवून दीडशे रुपयाला समोर येते…..  तीच गोष्ट रोटीची…..  बरेच जण आता रोटी मैद्याची आहे का आट्याची आहे हे विचारत असतात …… आता एवढ्या तेलकट आणि मसालेदार भाज्या , स्टार्टर्स आपण खात असतो पण आपण तब्येतीची काळजी घेतो हे दाखवायला रोटी मात्र आट्याची पाहिजे असते.

हीच गोष्ट पिण्याच्यापाण्याची. तुम्ही हॉटेलमध्ये जाऊन टेबलवर बसला की वेटर तुम्हाला विचारतो पाणी कसले आणू ?  साधे की बिसलेरी ?  आता साधे पाणी आण म्हणून सांगण्याची लाज वाटते . मग आपोआप सांगितले जाते की बिसलेरीचे आण . बऱ्याच मोठ्या हॉटेलमध्ये बाहेर वीस रुपयाला मिळणारी पाण्याची बाटली पन्नास रुपयाला मिळते आणि आपण तेही निमूटपणे देतो.  कारण काय तर स्टेटस …… हाच प्रकार वेटरला टीप देण्याच्या बाबतीत. खरे तर चांगली सर्विस देणं हे वेटरचे कामच आहे, आणि त्या साठीच त्याला पगार मिळतो. पण बऱ्याचदा कमी टीप ठेवली तर कसे दिसेल , म्हणून आपले स्टेटस दाखवायला मनात असो वा नसो भरघोस टीप ठेवली जाते. 

अजून एक प्रकार म्हणजे अनलिमिटेड बार्बेक्यु किंवा बुफे. प्रत्येकी साधारण आठशे ते हजार रुपये यासाठी आकारले जातात. तुम्ही हॉटेलमध्ये गेल्या गेल्या तुमच्यासमोर शेफ चा वेश केलेला एक माणूस येतो.  तुम्हाला आदराने नमस्कार करतो. हॉटेलच्या मेनू मध्ये मध्ये आज काय काय स्पेशल आहे त्याची माहिती सांगतो आणि तुम्हाला स्टार्टरच्या काउंटरवर नेऊन सोडतो . या काउंटरवर पाणीपुरी, शेवपुरी ,आलू टिक्की, डोसा, पावभाजी, पकोडे ,दहिवडा अशा प्रकारचे पदार्थ ठेवले असतात. तेथे उभे असणारे कर्मचारी तुम्हाला आग्रहाने एक एक पदार्थ घ्या म्हणून खायला घालतात.  हे स्टार्टर खाऊन होईपर्यंत  तुमचे  पोट बऱ्यापैकी भरलेले असते,  त्यामुळे मेन कोर्स मध्ये एखाद दुसरी भाजी, एखादा फुलका आणि थोडासा राईस घेऊन तुमचे जेवण संपते.  स्वीट्स मध्ये सुद्धा बरेच प्रकार ठेवलेले असतात.  त्यातला एखादा तुकडा किंवा आईस्क्रीमचा एखादा स्कुप कसा तरी खाल्ला जातो आणि आपले जेवण संपते. आपण खाल्लेल्या पदार्थांचे जर वेगवेगळे असे बिल कॅल्क्युलेट केले तर अडीचशे तीनशे रुपये पेक्षा जास्त होणार नाही , पण त्यासाठी आपण जवळपास प्रत्येकी हजार रुपये मोजलेले असतात कशासाठी मी पोर्टिगोला किंवा बार्बेक्यू नेशन ला गेलो आहे हे सांगण्यासाठी. 

हीच गोष्ट चायनीज खाण्याची.  कोबी ,सिमला मिरची, गाजर, आलं, लसूण व हिरवी मिरची या मंडईत नेहमी मिळणाऱ्या भाज्या …… टोमॅटो, चिली आणि सोया हे तीन प्रकारचे सॉस,  व्हीनेगर ची बाटली , शिजवलेला भात आणि शिजवलेल्या नूडल्स आणि सर्वात महत्वाचे म्हणजे …… तोंडाने चिनी माणसासारखा दिसणारा आचारी…….  एवढं सामान जमवलं की झाला चायनीज चा सेट अप तयार.  

लोखंडी चपटी कढई कि ज्याला वॉक म्हणायचे …..ती मोठ्या आचेवर ठेवून , त्यात भरपूर तेल घालून आलं ,लसूण, मिरची, कोबी ,गाजर, सिमला मिरची , इत्यादी सर्व घालायचे आणि परतायचे….  त्यात वर सांगितलेले सर्व सॉस घालायचे आणि त्यात शिजवलेला नूडल्स घातल्या की झाल्या हक्का नूडल्स तयार……..  नूडल्स च्या ऐवजी  भात घातला की झाला फ्राईड राईस…….  यातच जरा सिमला मिरची जास्त घातली कि झाला सिंगापुरी राईस ……. भाताचे ऐवजी कोबीची कॉर्नफ्लॉवर घालून तळलेली वातड भजी घातली की झालं व्हेज मंचुरियन.  सगळ्यात वाईट म्हणजे या पदार्थात अजिनोमोटो नावाची एक पावडर वापरतात ….. याने तुमच्या जिभेवरील टेस्ट बडस उत्तेजित होतात आणि तुम्हाला या खाण्याची चटक लागते.  हा अजिनोमोटो कॅन्सर Causing Agent  आहे आणि त्यामुळे कॅन्सर होऊ शकतो.  यावर  जगात सगळीकडे बंदी आहे पण तो सर्रास चायनीज पदार्थात वापरला जातो …..  चायनीज पदार्थांमध्ये वापरले जाणारे सॉस म्हणजे फक्त केमिकल असतात. एकदा माझ्याकडून घरात व्हिनेगरच्या बाटलीतले व्हिनेगर  फरशीवर सांडले. त्यावेळी फरशीवर पडलेला डाग दहा वर्षे झाली तरी तसाच आहे. म्हणजे या गोष्टी खाल्ल्यावर आपल्या पोटाची काय अवस्था होत असेल याचा विचार सुद्धा करवत नाही.  पण माझा मुलगा मांचुरियन शिवाय काही खात नाही असे अभिमानाने सांगणारे महाभाग आपल्याला बरेच दिसतात. 

क्रमश : भाग पहिला

लेखक : अभय कुलकर्णी, कराड

प्रस्तुती : सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ दोन डोळे आणि तीस म्हणी… ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ दोन डोळे आणि तीस म्हणी… ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

दोन डोळे आणि तीस म्हणी … 

पहा माय मराठीची समृद्धी …. 

१.डोळा लागणे (झोप लागणे)

२.डोळा मारणे (इशारा करणे)

३.डोळा चुकवणे (गुपचूप जाणे)

४.डोळे येणे (नेत्रविकार होणे)

५.डोळे जाणे (दृष्टी गमावणे)

६.डोळे उघडणे (सत्य उलगडणे)

७.डोळे मिटणे (मृत्यू पावणे)

८.डोळे खिळणे (एकटक पाहणे)

९.डोळे फिरणे (बुद्धी भ्रष्ट होणे)

१० डोळे दिपणे (थक्क होणे)

११.डोळे वटारणे (नजरेने धाक दाखवणे)

१२.डोळे विस्फारणे (आश्चर्याने पाहणे)

१३.डोळे पांढरे होणे (भयभीत होणे)

१४.डोळे भरून येणे (रडू येणे)

१५.डोळे भरून पाहणे (समाधान होईपर्यंत पाहणे)

१६.डोळे फाडून पाहणे (आश्चर्याने निरखून पाहणे)

१७.डोळे लावून बसणे (वाट पाहात राहणे)

१८.डोळेझाक करणे (दुर्लक्ष करणे)

१९.डोळ्यांचे पारणे फिटणे (पूर्ण समाधान होणे)

२०.डोळ्यात प्राण आणणे (आतुरतेने वाट पाहणे)

२१.डोळ्यात धूळ फेकणे (फसवणूक करणे)

२२.डोळ्यात तेल घालून बघणे (लक्षपूर्वक पाहणे)

२३.डोळ्यात डोळे घालून पाहणे (एकमेकांकडे प्रेमाने बघणे)

२४.डोळ्यात सलणे/खुपणे (दुसऱ्याचं चांगलं न बघवणे)

२५.डोळ्यात अंजन घालणे (दुसऱ्याला परखडपणे त्याची चूक दाखवून देणे)

२६.डोळ्यांवर कातडे ओढणे (जाणूनबुजून दुर्लक्ष करणे)

२७.डोळ्याला डोळा नसणे (काळजीमुळे झोप न लागणे)

२८.डोळ्याला डोळा भिडवणे (नजरेतून राग व्यक्त करणे)

२९.डोळ्याला डोळा न देणे (अपराधी भावनेपोटी एखाद्याच्या नजरेस नजर न मिळवणे)

३०.दुसऱ्याच्या डोळ्यातलं कुसळ दिसणे ; पण स्वतःच्या डोळ्यातलं मुसळ न दिसणे (दुसऱ्याची छोटीशी चूक दिसणे ; पण स्वतःची मोठी चूक न दिसणे)

प्रस्तुती : स्मिता पंडित 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ गदिमा आणि काही गंमतीशीर गोष्टी – भाग-2 – लेखक : श्री सुमित्र माडगूळकर ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? मनमंजुषेतून ?

☆ गदिमा आणि काही गंमतीशीर गोष्टी – भाग-2 – लेखक : श्री सुमित्र माडगूळकर ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

(गदिमांच्या आंघोळीच्या ‘मिशा’ ते ‘ग. दि. माडगूळकर पोल्ट्री फार्म’.) 

राजा नीलकंठ बढे उर्फ कवि-गीतकार राजा बढे यांची एक कविता गदिमांच्या वाचनात आली. सुंदर कविता होती. पण खाली लेखकाचे नाव होते –  ‘रा. नि. बढे’. आधी गदिमांना लक्षात येईना की, हे कोण लेखक? मग आठवले की, अरे हे तर आपले ‘राजा बढे’. पुढे त्याच सुमारास राजा बढे पंचवटीत आले. त्या वेळी गजाननराव वाटव्यांचे ‘राधे तुझा सैल अंबाडा’ हे गाणे गाजत होते. त्या चालीवर त्यांना बघताच गदिमा गमतीदारपणे मान डोलावत म्हणू लागले…

“कुणी ग बाई केला? कसा गं बाई केला?

आज कसा राजा बढे, रानी बढे झाला?”

गंगाधर महांबरे म्हणून कवी, गीतकार होते. त्यांचे कौतुक करताना गदिमा एकदा खणखणीत आवाजात गर्जून गेले, ”जय’नाद निनादती अंबरे, जय जय गंगाधर महांबरे”!

एकदा गदिमांच्या एका कोल्हापुरी मित्राने त्यांना चक्क व्यवसाय करायची गळ घातली. साधासुधा नाही तर चक्क पोल्ट्री फार्म काढायचा म्हणून! मराठी चित्रपटसृष्टीत तसा पैश्याचा खळखळाटच असायचा. त्यांनी असे काही चित्र रंगविले की, गदिमा त्याला तयार झाले. घरात बऱ्याच चर्चेच्या फेऱ्या झाल्यानंतर मराठी माणसाने एक मोठा उद्योजक होण्याची स्वप्ने पहायला सुरवात केली. नशिबाने ‘ग. दि. माडगूळकर पोल्ट्री फार्म’ असे नाव नाही दिले. पण त्या काळात गदिमांनी चक्क १०, ००० रुपये तरी त्या गृहस्थांना दिले असतील. ५-६ महिने असेच गेले असतील. गदिमा आपल्या कामात व्यस्त होते. श्रावण महिन्यातील मुहूर्त काढून हे गृहस्थ एकदा ३-४ डझन अंडी घेऊन घरी आले, ‘अण्णा, ही आपल्या फार्ममधली अंडी!’ श्रावण असल्यामुळे सर्वच्या सर्व अंडी नोकरचाकरांना देऊन टाकावी लागली! असेच पुढे काही महिने गेले व गृहस्थ रडत आले की, ‘अण्णा अमुक तमुक रोग झाला व सर्व कोंबड्या मरून गेल्या!’ झालं. गदिमांची व्यावसायिक होण्याची स्वप्ने धुळीस मिळाली व महाराष्ट्र एका मोठ्या पोल्ट्री उद्योजकाला मुकला!.

गदिमांनी १९७७ साली ललित मासिकाच्या दिवाळी अंकात ‘ए. क. कवडा’ या टोपण नावाने मराठीतील २० सुप्रसिद्ध लेखकांवर विनोदी बिंगचित्रे लिहिली होती. त्या वेळच्या प्रसंगानुसार किंवा एकूण त्या लेखकाच्या व्यक्तिमत्वानुसार दोन-चार विनोदी ओळी व त्या लेखकाचे व्यंगचित्र असे त्याचे स्वरुप होते. ती खूप गाजली व हा “‘ए. क. कवडा’ नक्की कोण?” अशा चर्चा रंगायला लागल्या होत्या. संपादकांना विचारणा झाल्या. पण नाव काही कोणाला कळाले नाही. डिसेंबर १९७७ मध्ये गदिमांचे निधन झाल्यावर संपादकांनी शोकसभेत जाहीर केले की, ‘ए. क. कवडा’ म्हणजे ग. दि. माडगूळकरांचे हे लेखन होते. ‘

यातली काही स्मरणात असलेली निवडक बिंगचित्रे तुमच्यासाठी खास!

पु. ल. देशपांडे मराठीतील एक दिग्गज लेखक! त्यांचे बंगाली भाषेवर पण तितकेच प्रेम होते. त्यावर गदिमा भाष्य करतात,

“पाया पडती राजकारणी, करणी ऐसी थोर 

मराठीतला तू बिनदाढीचा रवींद्र टैगोर”

गो. नी. दांडेकर तर दुर्गप्रेमी!  चालायची पण त्यांना विलक्षण आवड होती. त्यांच्याबद्दल –

“चाले त्याचे दैव चालते, चढतो, त्याचे चढते.

गळ्यात माळ तुळशीची आणि दाढी कोठे कोठे नडते!”

कविवर्य मंगेश पाडगावकर, काव्यवाचनाची त्यांची एक वेगळीच शैली आहे. त्या काळात त्यांच्या काही कविता लिज्जत पापडाच्या जाहिरातीत झळकत असत. त्यावर गदिमा चिमटा काढतात,

“तुझ्या वाचने काव्यच अवघे वीररसात्मक झाले,

घेऊ धजती इज्जत कैसी, ‘लिज्जत पापडवाले”

दुर्गाबाई भागवतांबद्दल… (त्या वेळी त्यांनी साहित्य विश्वात काहीतरी कारणावरून वादळ निर्माण केले होते!)

“जागविले तू शांत झोपल्या वाड़मयीन जगतां

दुर्गे, दुर्गे, सरले दुर्घट, आता हो शान्ता” 

(शांत स्वभावाच्या शांता शेळके यांचा उल्लेख तर नसेल!)

गोमंतक निवासी कविवर्य बा. भ. बोरकर यांच्या ज्येष्ठ कन्येने एका मद्रासी युवकासी प्रेमविवाह केला होता. त्यावेळी शिवसेना प्रमुख मा. बाळासाहेब ठाकरे यांनी शिवसेनेमार्फत मुंबईमध्ये वाढलेल्या मद्रासी लोकांविरुद्ध ”लुंगी हटाओ, पुंगी बजाओ” अशी मोहीम चालू केली होती. त्याचा कदाचित संदर्भ घेऊन त्यावर….

“बोरीच्या रे बोरकरा, लेक तुझी चांगली

गोव्याहून मद्रदेशी सांग कशी पांगली?”

रविकिरणी कवितेची थट्टा करीत गदिमा म्हणत,

“गिरीशांची ही गर्द ‘आमराई’

त्यात उघडी यशवंत पाणपोई”

स्वतःलाही त्यांनी सोडले नाही! गदिमांना गीतरामायणामुळे ‘आधुनिक वाल्मिकी’ म्हणत असत. शेवटच्या काळात ते कर्करोगाने आजारी होते. त्यांच्या हातून फारसे लिखाण होत नव्हते. म्हणून स्वतःबद्दलच त्यांनी बिंगचित्र लिहिलं. गदिमांच्या हातात कुर्‍हाड घेतलेल्या व्यंगचित्राखाली लिहिले होते..

“कथा नाही की कविता नाही, नाही लेखही साधा

काय वाल्मिके, स्विकारिसी तू पुन:श्च पहिला धंदा?”

अश्या कितीतरी गंमतशीर गोष्टी, प्रसंग त्यांच्या आयुष्यात घडले होते. गदिमा हे एक बहुआयामी व्यक्तिमत्व होते. अगदी हिमनगासारखे…. त्यांच्यात एक बिलंदर खेडूत दडलेला होता. एक सुसंस्कृत प्रकांड पंडित दडलेला होता. एक सच्चा राजकारणी दडलेला होता….. काय नव्हते… ? पण सगळ्यात महत्वाचा म्हणजे एक खरा माणूस दडलेला होता. कधी कधी वाटते आपल्यासमोर त्यांची जी बाजू आली, त्याच्या हजारो पट ते आजही पडद्याआड आहेत.

– समाप्त–  

लेखक : श्री सुमित्र माडगूळकर

प्रस्तुती : सुहास सोहोनी

मो ९४०३०९८११०

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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