मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 77 – विजय साहित्य – माय मराठी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 77 – विजय साहित्य – माय मराठी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

माय मराठी मराठी, जसे बकुळीचे फूल

दूर दूर पोचवी गं ,  अंतरीचा परीमल . . . !

 

कधी  ओवी ज्ञानेशाची ,  कधी गाथा तुकोबांची

शब्द झाले पूर्णब्रम्ह,  गाऊ महती संतांची. . . . !

 

संतकवी,  पंतकवी, संस्कारांचा पारीजात .

रूजविली पाळेमुळे,  अभिजात साहित्यात. . .  !

 

कधी भक्ती, कधी शक्ती,  कधी सृजन मातीत

नृत्य, नाट्य, कला,क्रीडा,  धावे मराठी ऐटीत. .  !

 

माय मराठीची वाचा,  लोकभाषा अंतरीची .

भाषा कोणतीही बोला,  नाळ जोडू ह्रदयाशी . .  !

 

कधी मैदानी खेळात, कधी मर्दानी जोषात.

माय मराठी खेळते, पिढ्या पिढ्या या दारात. ..!

 

कोसा कोसावरी बघ,  बदलते रंग रूप.

कधी वर्‍हाडी वैदर्भी, कधी कोकणी प्रारूप. . . !

 

माय मराठीचे मळे , रसिकांच्या काळजात.

कधी गाणे, कधी मोती, सृजनाच्या आरशात. . !

 

महाराष्ट्र भाषिकांची, माय मराठी माऊली

जिजा,विठा,सावित्रीची,तिच्या शब्दात साऊली . !

 

अन्य भाषिक ग्रंथांचे, केले आहे भाषांतर

विज्ञानास केले सोपे, करूनीया स्थलांतर. . . !

 

शिकूनीया लेक गेला, परदेशी आंग्ल देशा

माय मराठीची गोडी, नाही विसरला भाषा. . . !

 

नवरस,अलंकार, वृत्त छंद,साज तिचा .

अय्या,ईश्य,उच्चाराला, प्रती शब्द नाही दुजा.. !

 

माय मराठीने दिला, कला संस्कृती वारसा

शाहीरांच्या पोवाड्यात,तिचा ठसला आरसा.  !

 

माय मराठीने दिली, नररत्ने अनमोल.

किती किती नावे घेऊ, घुमे अंतरात बोल. . .!

 

माय मराठी मराठी, कार्य तिचे अनमोल .

शब्दा शब्दात पेरला , तीने अमृताचा बोल. . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 64 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – तृतीय अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है तृतीय अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 64 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – तृतीय अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए द्वितीय अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

अध्याय 3

कर्मयोग क्या है ?  भगवान कृष्ण का  अर्जुन से कुछ इस तरह संवाद हुआ

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कर्मयोग के बारे में कहा –

केशव!कहते आप जो, बुद्धि सदा है ज्येष्ठ।

कर्म सकामी क्यों करूँ, युद्ध नहीं कुलश्रेष्ठ।।1

 

व्यामिश्रित उपदेश से, बुद्धि भ्रमित व्यामोह।।

मन का संशय दूर हो, दूर करें अवरोह।।2

 

श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा

अर्जुन तुम निष्पाप हो, दो जीवन उपहार।

एक ज्ञान का योग है, दूज भक्ति मनुहार।।3

 

कर्म जरूरी है सखा, मिटे न फल का योग।

सिद्धि नहीं संन्यास से, कर्म नहीं संयोग।।4

 

आत्म सदा सक्रिय रहे, कर्म करे हर याम।

शुभ-शुभ करते कर्म जो, मिलें सुखद परिणाम।।5

 

करे दिखावा भक्ति का,औ’ विषयों का ध्यान।

अधम भक्ति ऐसी समझ, करती मिथ्यापान।। 6

 

 

कर्मयोग कर्मेंद्रि से, अनासक्त हो भाव।

कर्म करें कर्मेंद्रियां , पावन श्रेष्ठ स्वभाव।।7

 

कर्म करे शास्त्रज्ञ विधि, कर ले शुभ-शुभ कर्म।

कर्म मनुज जो ना करें , उसको कहें अकर्म।।8

 

कर्मों का मत त्याग कर, मनासक्ति को छोड़।

प्रभु को श्रेयस मानकर,भक्ति-भाव उर मोड़।।9

 

ब्रह्मा कहते कल्प में, करना सब जन यज्ञ।

इच्छित फल तुमको मिले, जीवन हो धर्मज्ञ।।10

 

यज्ञ मनुज जो भी करें, रहते देव प्रसन्न।

इच्छित फल दें देवता, रहें सदा संपन्न।।11

 

बिन माँगे, दें देवता, वस्तु, अन्न सब भोग।

हवन सदा करते रहो, नहीं सताएं रोग।।12

 

जो खाते यज्ञ कर, अन्न मनुज वे श्रेष्ठ।

पाप-शाप सब छूटते, है जीवन गति कुलश्रेष्ठ ।।13

 

जनोत्पत्ति है यज्ञ से,यज्ञ वृष्टि का हेत

कर्मों से ही यज्ञ हों,मिलता सुख अभिप्रेत ।।14

 

जन्म-कर्म ही वेद है, ईश्वर वेद विधान।

सर्वव्याप परमात्मा,रहते यज्ञ प्रधान।।15

 

सृष्टि चक्र इस लोक में, कर्म वेद अनुसार।

कर्म करें सुख भोग को, है वह पापाचार।।16

 

करें आत्मा प्रेम जो, रहें आत्म संतुष्ट।

यही उचित कर्तव्य है, कभी न हों वे रुष्ट ।।17

 

आत्म ज्ञान में लीन जो, रहे सदा निष्पाप।

ऐसे मानव लोक में, कभी न पाएँ ताप।। 18

 

अनासक्त हो, कर्म कर, रख लें शील स्वभाव।

ईश्वर को अति प्रिय लगे , अंतर्मन- सद्भाव।।19

 

जनकादिक ज्ञानी पुरुष, अनासक्ति कृत कर्म।

परम् सिद्धि पाए सभी, किए लोक हित धर्म।।20

 

श्रेष्ठ मनुज जैसा करें, करते वैसा लोग।

देते सभी प्रमाण हैं, लोक और परलोक।।21

 

अर्जुन सुन लो बात तुम, मैं ही सबका ईश।

फिर भी करता कर्म मैं, होकर के जगदीश।।22

 

मैं जैसा हूँ कर रहा, देख करें बर्ताव।

जन्मा हूँ कल्याण हित, बाँटूँ सुंदर भाव।। 23

 

नहीं करूँ यदि कर्म मैं, लोग भ्रष्ट हो जाँय।

कर्म करूँ कल्याण के, भक्त सदा सुख पाँय।। 24

 

हे अर्जुन तू कर्म कर, अनासक्त ले भाव।

ज्ञानी जन ज्यों लोक में, बाँट रहे सद्भाव।।25

 

ज्ञानी जन करते रहे, सदा लोक कल्याण।

वैसे ही तू कर्म कर, कर्म बिना  निष्प्राण।। 26

 

सभी काम हैं प्रकृति के, अहम करे प्रतिकार।

कर्ता मानव बन रहा, मन में ले कुविचार।। 27

 

त्रिगुणी माया ज्ञान की, ज्ञानी को दे सीख।

ऐसा ज्ञानी जगत में, बाहर-भीतर दीख।। 28

 

त्रयी प्रकृति के गुणों से, होते जो आसक्त।

मर्म न प्रभु का जानते, जानें ज्ञानी भक्त।। 29

 

अर्जुन तू सुन ध्यान से, मुझमें चित लवलीन।

कर्म समर्पण भाव से,करो ईश्वराधीन।।30

 

दोष बुद्धि से जो रहित, वे ही मेरे भक्त।

मुझको पाते हैं वही, जो श्रद्धा संपृक्त।।31

 

दोष दृष्टि जो जन रखें, उसे मूर्ख तू जान।

ऐसे मनुजों का कभी, नहीं हुआ कल्यान।। 32

 

हर प्राणी ही प्रकृति के, रहता सदा अधीन।

करता कर्म स्वभाव वश, हठ हो जाता क्षीण।। 33

 

रखो इंद्रियों को प्रिये, अपने सदा अधीन।

ये ही अपनी शत्रु हैं, पथ से करें विहीन।। 34

 

करो आचरण धर्मयुत, चिंतन धर्माचार।

धर्म स्वयं का श्रेष्ठ है, खुले मुक्ति का द्वार।। 35

 

अर्जुन उवाच

अर्जुन कहते कृष्ण से, मनुज करे क्यों पाप।

बिन चाहे फिर भी विवश , झेल रहा संताप।। 36

 

श्री भगवान उवाच

हे अर्जुन प्रिय वचन सुन, रजोगुणी है काम।

भोग, क्रोध ही दे रहे, इसको बैरी नाम।। 37

 

धुआँ अग्नि को ढाँकता, रज दर्पण ढँक जाय।

गर्भ ढँका ज्यों जेर से, काम, ज्ञान भरमाय।। 38

 

काम, अग्नि सादृश्य है, जिसमें सब जल जाँय।

विषय वासना शत्रु है, ज्ञान ध्यान बिलगाँय।।39

 

मनोबुद्धि सब इन्द्रियाँ, यही काम स्थान।

ज्ञान ढकें ये स्वयं का , देते दुख औ’ त्राण।। 40

 

रखो इन्द्रियों को सदा , हे प्रिय निज आधीन।

ज्ञान, बुद्धि, बल फिर बढ़े, जीवन हो स्वाधीन।। 41

 

तन से इन्द्री श्रेष्ठ हैं, इन्द्री से मन श्रेष्ठ।

मन से बुधिबल श्रेष्ठ है, आत्म बुद्धि से श्रेष्ठ।। 42

 

सदा आत्म की बात सुन, विषय वासना मार।

मन को रख वश में सदा, है जीवन का सार।। 43

 

इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के तृतीय अध्याय ” कर्मयोग” का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ (समाप्त)।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कोंडमारा ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

☆ कवितेचा उत्सव ☆ कोंडमारा ☆ सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆ 

यशाचं शिखर

परदेशात प्राप्त केलस

तिथं आपलं अस्तित्व दाखवलस

 

फोनवरून बोलतोस

नेटवरून भेटतोस

याने तुझ्या आईचे

समाधान होत नाही

 

मनातली अस्वस्थता

कोणाला ही दाखवत नाही

 

उगीचच घरातून

सैरावैरा धावते

तुझ्या आठवणीने

डोळ्यात पाणी येते

 

येणाऱ्या जाणाऱ्या ना

तुझ्या खोड्या सांगते

मोडक्या तोडक्या

खेळण्यात तुझे

बालपण शोधते

 

माझ्यांने तिचे हाल

पाहावत नाहीत

तिला धीर देण्याची

माझ्यात हिंमत नाही

 

एकदा तू येवून जा

तिच्या मायेला

पूर येवू दे

मनाचा कोंडमारा

रिता होवू दे

 

मनाचा कोंडमारा

रिता होवू दे

 

© सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

मो.९६५७४९०८९२

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 68 – ग़ज़ल…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #68 ☆ 

☆ ग़ज़ल…! ☆ 

(मात्रावृत्त .)

एकटाच रे नदीकाठी या वावरतो मी

प्रवाहात त्या माझे मी पण घालवतो मी

 

सोबत नाही तू तरीही जगतो जीवनी

तुझी कमी त्या नदीकिनारी आठवतो मी

 

हात घेऊनी हातात तुझा येईन म्हणतो

रित्याच हाती पुन्हा जीवना जागवतो मी

 

घेऊन येते नदी कोठूनी निर्मळ पाणी

गाळ मनीचा साफ करोनी लकाकतो मी.

 

एकांताची करतो सोबत पुन्हा नव्याने

कसे जगावे शांत प्रवाही सावरतो मी .

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 88 – ☆ [1] स्वप्नकळ्या / [2] रानफुले ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 88 ☆

 [1] स्वप्नकळ्या / [2] रानफुले ☆ 

(दोन जुन्या कविता १९८५/८६ साली लिहिलेल्या….१९८९ ला प्रकाशित झाल्या होत्या! लोकप्रभा मध्ये प्रकाशित झालेली “स्वप्नकळ्या” आवडल्याची सुमारे चाळीस पत्रे आली महाराष्ट्राच्या कानाकोप-यातून!“लोकप्रभा” उदंड खपाचं साप्ताहिक होतं आणि त्या काळात मोबाईल/इंटरनेट नव्हतं!)

[1] स्वप्नकळ्या

माझ्या  स्वप्नांच्या मुग्धकळ्या

उमलल्याच नाहीत,

तुझ्या आयुष्यातले

सुगंधी क्षण-

माझ्या नव्हते तरीही,

गंधवेडे मन धावत राहिले,

तुझ्यामागे उगीचच !

वळचणीला बसलेली

माझी मूक स्वप्ने

आज निसटत आहेत,

पागोळ्यांसारखी !!

(१९८९-लोकप्रभा)

[२] रानफुले

तुझ्या वाटेवर

मी सांडले माझे अश्रू ,

त्यातील वेदनेच्या,

बीजांकुराची-

आज रानफुले झाली आहेत!

तू माघारी आलास तर-

तुला दिसतील त्या फुलांत

माझ्या व्यथित मनाची

हळूवार स्पंदने!

पण तू बदलली आहेस,

तुझी वाट,

आणि माझ्यापर्यंत येणारे रस्ते,

बंद केलेस कायमचेच!

(रविवार सकाळ १९८९ )

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रेमात पडता ☆ मेहबूब जमादार

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ प्रेमात पडता ☆ मेहबूब जमादार ☆ 

बनांत हिरव्या भान हरपले मज कळले नाही

मी सामावले तुझ्यात केंव्हा मज कळले नाही

 

ब-याच दिवसांत होते कांहीसे नुसते पहाणे

जवळ येवूनी कधी बोलले मज कळले नाही

 

रात दिस तू माझ्या नयनी ऊठता बसता

भाव सारे नयनांत  दाटले मज कळले नाही

 

प्रेमाच्या वाटा असती खडतर जाणूनी होते

त्या वाटेवर कधी प्रेम लाभले मज कळले नाही

 

प्रेमात पडता खरे फुलून जाते अवघे जीवन

ह्रदयात तूझ्या मी रूजून गेले मज कळले नाही

© मेहबूब जमादार

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 87 ☆ मी मराठी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 87 ☆

☆ मी मराठी ☆

मी मराठी तू मराठी

मातृभाषा ही मराठी

घेउया रे शपथ आपण

जागवूया ही मराठी

 

हो मुकुंदानेच केला

श्रीगणेशा हा मराठी

ग्रंथ पहिला साक्ष ठेवी

आपल्यासाठी मराठी

 

चक्रधर स्वामी कवीश्वर

आद्य दैवत हे मराठी

पद्य ग्रंथांचा गणेशा

आणि पाया ते मराठी

 

ज्ञानियांची ज्ञानभाषा

आपुली आहे मराठी

घेउनी सौंदर्य फिरते

आज जगती ही मराठी

 

व्याकरण हे सोबतीला

गाठते उंची मराठी

चिन्ह देती अर्थ त्याला

शोभते त्याने मराठी

 

घालते खेटेच आहे

राज दरबारी मराठी

खंत ही अभिजात नाही

होत का अजुनी मराठी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मैत्र ☆ श्री शरद कुलकर्णी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ मैत्र ☆ श्री शरद कुलकर्णी☆ 

व्यक्त हो,

मुक्त कर,

मनात भरून आल्या मेघांना,

कोंडलेल्या वादळांना,

थिजलेल्या वीजांना,

बंदिस्त पावसाला.

माझ्या भरभरून मजकूराच्या पत्रावर

ओघळू दे,बंद पापणीतला-

एक तरी थेंब.

वाहून जाऊ दे शब्दशब्द.

असंबद्ध सैरभैर कविता.

नाहीतरी मन म्हणजे काय..

न लिहीलेल पत्र,

किंवा अव्यक्त मैत्रच ना ?

 

©  श्री शरद कुलकर्णी

मिरज

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 37 ☆ दिस सर्वे सारखे नसतात… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 37 ☆ 

☆ दिस सर्वे सारखे नसतात… ☆

रडणे लहानपणी शोभते

पडणे लहानपणी शोभते…

रडता लहानपणी अश्रू पुसल्या जातात

पडता लहानपणी उचलण्या हात पुढे येतात…

डोळ्यांत अश्रू, बालपणीच शोभतात

मोठेपणी त्यास, षंढ सर्वे समजतात…

बालपणी पडता, प्रत्येक जण हळहळतो

मोठेपणी पडता, अव्हेर तो सतत होतो…

बालपणी रडता, चॉकलेट मिठाई मिळते

मोठेपणी रडता, आहे ते पण सरते…

लहानपणी पडता, मायेची फुंकर सुखावते

मोठेपणी पडता, अडगळ वाटायला लागते…

सांगायचे इतकेच, दिस सर्वे सारखे नसतात

सुकोमल हाताला सुद्धा, रट्टे-घट्टे पडतात…

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जन्म…. ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ जन्म…. ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई ☆ 

(निसर्ग विज्ञान कविता)

वाऱ्याने  जेव्हां

टरफल  उघडलं

‘बी’ला  दिसलं

आभाळ  निळं

 

बाहेरचं जग

सुंदर इतकं.-

‘बी’ने कधी

पाहिलंच  नव्हतं.

 

मातीने   प्रेमाने

कुशीत  घेतलं

उन्हाने  उबदार

पांघरुण घातलं

 

चिमुकल्या ओठानी

पाणी  पिऊन

‘बी’बाळ चटकन

झोपी गेलं

 

दुसरे दिवशी

जाग  आली

तेव्हां  शेपटी

फुटलेली

 

तिसरे  दिवशी

जादूने

शेपटीचीच

मान  झाली

 

उगवलं झाड,

झालं उंच

कोणी म्हणालं

‘ही तर चिंच ‘

फांदीच्या टोकाला

उगवला चिंचेचा आकडा

वाटोळा

 

चिमुकल्या ‘बी’ची

झाली होती आई

ती नव्या बाळाला

जन्म देई

 

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

मो. – 8806955070

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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