मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 12 ☆ स्वप्नपरी ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है ।आज प्रस्तुत है उनकी एक  श्रृंगारिक कविता “स्वप्नपरी“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 12 ☆

☆ स्वप्नपरी

 

मंद मंद अती अलगद पाऊल

टाकित आली  न  लगे चाहूल

ये  सुहासिनी ,ये  गं  कामीनी !!

 

आभाळाचा  पडदा  सारुनी

नक्षत्रांच्या   परीधानातुनी

ये गं  यामीनी, ये गं कामीनी !!

 

कल्पवृक्षाच्या झोपाळ्यावर

रत्नांचा  तो  स्वर्गही  सुंदर

ये गं त्यातुनी, ये  गं कामीनी !!

 

रुणझुण रुणझुण संगीत सुमधुर

घडवी  विधाता  तुजला  सुंदर

ये श्रृंगारुनी ,  ये  गं  कामीनी !!

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे # 35 – फुगडी कोरोनाची ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी की रचना  “फुगडी कोरोनाची ”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे # 35 ☆

☆ फुगडी कोरोनाची ☆ 

(काव्यप्रकार :-मुक्तछंद)

 

फू बाई फू.. फुगडी फू..वाढ वाढ वाढतोयस कोरोना तूं रे कोरोना तूं.ऽऽ.!!धृ.!!

 

विमानातनं आलास !

हाहा म्हणता पसरलास!

तग धरुन बसलास !!१!! आता फुगडी फू….

 

कोरोना रे कोरोना !

तुझा लाडका चायना !

व्हायरस पाठवून केली की हो दैना !

कोरोनाची पीडा आता जाता जाईना !!२!! फुगडी फू…

 

अमेरिका फ्रान्स स्पेन अन् इटली !

चायनाची तर हौसच फिटली !

लाखोंची पतंग याने की हो काटली !!३!! आता फुगडी फू…

 

कोरोनाचा तर वाढतोय जोश!

त्यावर नाही अजून निघाला डोस !

गावेच्या गावे याने पाडली ओस !

जिकड तिकडं याचाच घोष !!४!! आता फुगडी फू..

 

आम्ही नाही हरणार !

शासनाचे ऐकणार!

घरातच रहाणार!

फळे आम्ही खाणार!

सात्त्विक आहार घेणार !

तुला पळवून लावणार !

जोमाने उभे रहाणार!!५!! आता फुगडी फू…

 

©️®️उर्मिला इंगळे

सातारा

दिनांक:२१-५-२०.

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता/गीत ☆ विडंबन – हा ‘ टॅग ‘ गाडीला लावीतसे ☆ श्री अमोल अनंत केळकर

श्री अमोल अनंत केळकर

( युवा मराठी साहित्यकार श्री अमोल अनंत केळकर जी मराठी व्यंग्य  विधा (विडंबन)  के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मैं समझता हूँ इस विधा में अभिरुचि केअतिरिक्त  एम बी ए  (मार्केटिंग)  शैक्षणिक योग्यता निःसंदेह पृष्ठभूमि में कार्य करती ही है। श्री अमोल अनंत केळकर जी के ही शब्दों में  उनका परिचय – “सध्या राहणार बेलापूर नवी मुंबई. ठाण्याजवळ  स्टील कंपनीत नोकरीला. प्रासंगिक लेखन/ विडंबन / चारोळ्या ललित लेखन. ‘माझे टुकार ई-चार ‘ ( www.poetrymazi.blogspot.in)  आणि ‘ देवा तुझ्या द्वारी आलो’ ( www.kelkaramol.blogspot.in) हे दोन ब्लाॅग. यावर नियमीत लेखन. जोतिष शास्त्राची आवड”।  आपका लेखन नितांत सहज  एवं धाराप्रवाह है। आज प्रस्तुत है उनकी विशिष्ट विडंबन रचना “हा ‘ टॅग ‘ गाडीला लावीतसे “जो कि मराठी गीत  “हा छंद जिवाला लावि पिसे !” पर आधारित है। )

 ☆ हा ‘ टॅग ‘ गाडीला लावीतसे ☆ 

(मुळ  गाणे : हा छंद जिवाला लावि पिसे !)

 

तिथे टोल सखे भरपूर दिसे

खिशात ‘ मनी ‘ सर ले भलते

दिनरात तुझा रे ध्यास जडे

हा ‘ टॅग ‘ गाडीला लावीतसे

 

ती रांग  तुझ्या नजरेमधली

गाडी आपली नेहमीच बळी

‘टॅगात ‘ असेल जादुखरी

गेलो ओलांडुनी  ‘फास्ट’ कसे

 

आरशाच्या मागे चिकटव वरी

हा स्कँन होतसे लईभारी

तो मार्ग मग घायाळ करी

वेगात पळाली कार दिसे

 

©  श्री अमोल अनंत केळकर

१३/०४/२०२०

नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in

१८/१२/१९

 ☆ मुळ गाणे : हा छंद जिवाला लावि पिसे ! ☆ 

 

तुझे रूप सखे गुलजार असे

काहूर मनी उठले भलते

दिनरात तुझा ग ध्यास जडे

हा छंद जिवाला लावि पिसें!

 

ती वीज तुझ्या नजरेमधली

गालीं खुलते रंगेल खळी

ओठांत रसेली जादुगिरी

उरिं हसति गुलाबी गेंद कसे!

 

नखर्यांत तुझ्या ग मदनपरी

ही धून शराबी दर्दभरी

हा झोक तुझा घायाळ करी

कैफांत बुडाले भान असे!

 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆ 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – मंदिर ह्रदयीचे. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “मंदिर ह्रदयीचे. . . ! )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆ मंदिर ह्रदयीचे. . . ! ☆

जखमांवरती मलम लावले, आई संज्ञेचे

अलगद  आले, भरून सारे, घाव अंतरीचे

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे.

 

आयुष्याला तोलून धरले, अज्ञात ताजव्याने

त्या शक्तीचे दर्शन घडले, आई रूपाने

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे.

 

आई म्हणजे  अमृत पान्हा, संचित जीवनाचे

वात्सल्याची आभाळमाया, जीवन घडवीते

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे.

 

एकच आता दैवत माना, मनी माऊलीचे

संस्काराने जिने घडविले, मंदिर सौख्याचे

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे

 

(श्री विजय यशवंत सातपुते जी के फेसबुक से साभार)

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 31 ☆ लघुकथा – स्वाभिमानी माई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक, आत्मसम्मान -स्वाभिमान से परिपूर्ण भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  “  स्वाभिमानी माई”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 31☆

☆ लघुकथा –  स्वाभिमानी माई

कर्फ्यू के कारण बाजार में आज बहुत दिन बाद दुकानें खुली थीं , थोडी चहल – पहल दिखाई दे रही थी . उसने भी  अपनी दुकान का रुख किया . मन में  सोचा  कर्फ्यू  के बाद ग्राहक तो कितने आयेंगे पर घर से निकलने का मौका  मिलेगा  और घर के झंझटों से भी छुटकारा . दुकान खुलेगी तो ग्राहक भी धीरे- धीरे आने ही लगेंगे . दो महीने से दुकान बंद थी  . दुकान पर काम करनेवाले लडकों को बुलायेगा तो पगार देनी पडेगी,  कहाँ से देगा ? छोटी सी दुकान है वह भी अपनी नहीं ,  दुकान का मालिक किराया थोडे ही छोडेगा ?  कितना कहा मालिक से कि दो महीने से दुकान बंद है कोई कमाई नहीं है , आधा किराया ले ले ,  पर कहाँ सुनी उसने , सीधे कह दिया किराया नहीं दे सकते तो  दुकान खाली कर दो . वह  मन ही मन झुंझला रहा था , खैर छोडो उसने खुद को समझाया , इस महामारी ने पूरे विश्व को संकट में डाल दिया , मैं अकेला थोडे ही हूँ . कैसा ही समय हो कट ही जाता है . वह दुकान की सफाई में लग गया .

बेटा –  उसे किसी स्त्री की बडी कमजोर सी आवाज सुनाई दी .  उसने सिर उठाकर देखा ,  कैसी हो माई , बहुत दिन बाद दिखी ? उसने पूछा .

दो महीने से बाजार बंद था बेटा , क्या करते यहाँ आकर ? उसने बडी दयनीयता से कहा .

हाँ ये बात तो है . बूढी माई घूम – घूमकर सब दुकानों से रद्दी सामान इक्ठ्ठा किया करती  थी . दुकान के बाहर आकर चुपचाप खडी हो जाती थी  ,लोग अपने आप ही उसके बोरे में रद्दी सामान डाल दिया करते थे . अपनी जर्जर काया पर  बोरे का भारी बोझ उठाए वह मंद गति से अपना काम करती रहती थी . कुछ मांगना तो दूर , वह कभी किसी से एक कप चाय भी न लेती थी . कागज की पुडिया में अपने साथ खाने पीने का  सामान रखती , कहीं बैठकर खा लेती और काम पर चल देती . दुकानदार उसे अकडू माई  कहा करते थे पर उसके लिए वह स्वाभिमानी थी .

आज भी वह वैसी ही खडी थी, ना  कुछ मांगा, ना कुछ  कहा .थोडी देर हालचाल पूछने के बाद  वह कहने ही जा रहा था कि माई !  रद्दी तो नहीं है आज, लेकिन उसका मुर्झाया चेहरा देख शब्द मुँह में ही अटक गए .  उसके चेहरे पर  गहरी उदासी  और आँखों में बेचारगी  थी . उसने सौ का नोट बूढी माई को देना चाहा . मेहनत करने का आदी हाथ मानों आगे बढ ही नहीं रहा था . धोती के पल्ले से आँसू पोंछते हुए नोट लेकर  उसने माथे से लगाया . धीरे से बोली – बेटा ! घर में कमाने वाला कोई नहीं है रद्दी बेचकर  अपना पेट पाल लेती थी. तुम लोगों की दुकाने खुली रहती थीं तो हमें भी पेट भरने को कुछ मिल  जाता था , अब तो सब खत्म . बूढी माई का स्वाभिमान  आँसू बन बह रहा था .

उसे अपनी परेशानियां अब फीकी लग रही थीं .

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ संवाद ☆ सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। कई पुरस्कारों/अलंकारों से पुरस्कृत/अलंकृत सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का जीवन परिचय उनके ही शब्दों में – “नियतकालिके, मासिके यामध्ये कथा, ललित, कविता, बालसाहित्य  प्रकाशित. आकाशवाणीमध्ये कथाकथन, नभोनाट्ये , बालनाट्ये सादर. मराठी प्रकाशित साहित्य – कथा संग्रह — ५, ललित — ७, कादंबरी – २. बालसाहित्य – कथा संग्रह – १६,  नाटिका – २, कादंबरी – ३, कविता संग्रह – २, अनुवाद- हिंदी चार पुस्तकांचे मराठी अनुवाद. पुरस्कार/सन्मान – राज्यपुरस्कारासह एकूण अकरा पुरस्कार.)

आज प्रस्तुत है आपकी एक पक्षी एवं झाड़ के मध्य संवेदनशील संवाद पर आधारित  भावप्रवण कविता संवाद । हम भविष्य में भी आपकी सुन्दर रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।

☆संवाद☆

पक्षी असतो  झाडाचा आवडता  दोस्त।

मनातलं  गुपित  ते  त्यालाच   सांगतं   ।

पक्षी–  चिवचिव, टिवटिव, झाडा  कसं  काय?

झाड- तूच  सांग. माझे  तर  रोवलेले   पाय.

पंख   हलवित गेलास  एकट्याला सोडून.

मित्रा, आत्ता   तू आलास तरी कुठून?

काय काय पाहिलंस–कसे होते  देश?

कशी तिथली  झाड?कसे  त्यांचे  वेश?

 

पक्षी-  थांग, निळ्या, आभाळात  मी उडतो.

तिथे  देशाबिशांचा नकाशाच  नसतो.

कुठे हिरवी झाड, रंगीत  फुलं

घोसदार, रसदार गोड गोड फळं.

कुठे गार  वारा, कुठे छान हवा.

इथे नि तिथे , फिरलो गावागावा.

कुठे मात्र वाळवंट, कुठे माळ उजाड.

कुठे गार बर्फ, मग कसं उगवेल झाड?

तिथे मला तुझी  आली फार आठवण.

पालवित  पंख  आलो  बघ चटकन .

थरारलं झाड  ,   पक्षाचं   ऐकून.

जसं   काही  तेच  आलं  होतं फिरून.

झाडाच्या   पानात  पक्षी  झोपला  गाढ.

दवाच्या   थेंबात  भिजत  होतं  झाड।।

 

© मीनाक्षी सरदेसाई

‘अनुबंध’, कृष्णा हास्पिटलजवळ, पत्रकार नगर, सांगली.४१६४१६.

मोबाईल  नंबर   9561582372

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 51 – पाणी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक  अत्यंत भावप्रवण  एवं संवेदनशील कविता  “पाणी।  मैं निःशब्द हूँ यह कविता पढ़कर। पानी या जल पर रचित यह पहली रचना नहीं है जो मैंने या आपने पढ़ी हो किन्तु, यह अन्य कविताओं से भिन्न क्यों है यह तो आप पढ़ कर ही अनुभव कर सकते हैं। जल से जीवन जितना जुड़ा है संभवतः संवेदनाएं भी उससे कम नहीं जुडी हैं, जिन्हें सुश्री प्रभा जी ने  अत्यंत ही सहज भाव से लिपिबद्ध कर दिया है। सुश्री प्रभा जी  की इस संवेदनात्मक रचना जो हृदय को जल की भांति  तरंगित करती है उस लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 51 ☆

☆ पाणी ☆ 

 मला आठवते…

त्या ओढ्यातील खळाळते पाणी,

पैंजण पायी अन अनवाणी,

भर दुपारी किती उडविले

छुमछुमते पाणी!

 

शांत जलाशय-तळे कमळाचे,

खडा टाकला आणि पाहिले

थरथरते पाणी,

त्या तळ्याची आठव येता,

मनःपटलावर,

झरझरते पाणी!

 

सतरा कमानी पुलाखाली,

कधी न पाहिले,घोडनदीचे,

दौडणारे वा दुडदुडते पाणी,

पुसल्या खाणाखुणा तरीही,

मनीमानसी त्याच नदीचे,

झुळझुळते पाणी!

 

अथांग सागर, गाज लाटांची,

दर्यावरी त्या जडली प्रीती,

आत उतरूनी घेऊ पाहिले,

ओंजळीत अवखळ ते पाणी,

त्यास चुंबिले आणि उमगले,

ओठांवर व्याकुळ ते पाणी!

 

ओढा, तळे, नदी नी सागर,

डोळा पाहिले आणि स्पर्शिले

वेगवेगळे कुरकुरते पाणी!

 

आयुष्याची तल्खी शांतवी

असे लाभले एकच पाणी,

या पाण्याचे ऋण जीवावर,

तृप्ती सुखाची—-

ते मुळामुठेचे सळसळते पाणी!

 

जन्म एकदा पुण्यात मिळावा,

म्हणून पुण्यवान आत्म्यांच्याही,

डोळ्यांमधले कळवळते पाणी!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ हिरवं घर ☆ सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। कई पुरस्कारों/अलंकारों से पुरस्कृत/अलंकृत सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का जीवन परिचय उनके ही शब्दों में – “नियतकालिके, मासिके यामध्ये कथा, ललित, कविता, बालसाहित्य  प्रकाशित. आकाशवाणीमध्ये कथाकथन, नभोनाट्ये , बालनाट्ये सादर. मराठी प्रकाशित साहित्य – कथा संग्रह — ५, ललित — ७, कादंबरी – २. बालसाहित्य – कथा संग्रह – १६,  नाटिका – २, कादंबरी – ३, कविता संग्रह – २, अनुवाद- हिंदी चार पुस्तकांचे मराठी अनुवाद. पुरस्कार/सन्मान – राज्यपुरस्कारासह एकूण अकरा पुरस्कार.)

आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता हिरवं घर। हम भविष्य में भी आपकी सुन्दर रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।

☆ हिरवं घर ☆

झाडांची मुळं जमिनीखाली

खेळत असतात

पळापळी.

दमतात तेव्हा

नदीवर जाऊन

पळत येतात

पाणी पिऊन.

झाडांची पानं

आईचे हात

शिजवून घालतात

वरणभात.

बाबा कोण?

सूर्याचं ऊन्ह.

पगार पाठवतात

दूर राहून.

झाडांची खोडं

आजी आजोबा.

मुळं त्यांना आणून

देतात चहा.

झाड म्हणजे एक

घरच असतं.

सावलीत त्याच्या

किती छान वाटतं

 

© मीनाक्षी सरदेसाई

‘अनुबंध’, कृष्णा हास्पिटलजवळ, पत्रकार नगर, सांगली.४१६४१६.

 

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 49☆ पाखरे चिंतेत आता ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत भावप्रवण कविता  “पाखरे चिंतेत आता।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 49 ☆

☆ पाखरे चिंतेत आता ☆

वादळाशी झाड भिडते रडत नाही

मुळ इतके घट्ट आहे सुटत नाही

 

पाय, तळवे, लोह झाले पूर्ण आता

पावलांना फार काटे रुतत नाही

 

हिरवळीचा बेगडी आहे दिखावा

पावलांना सुखवणारे गवत नाही

 

फूल बाजारात मिळते दाम देता

गंध-वारा विकत येथे मिळत नाही

 

शांततेचा मंत्र लोका का कळेना ?

मज कळाला मी कुणावर चिडत नाही

 

शेत विकले पाखरे चिंतेत आता

माॕल झाले पोट त्याचे भरत नाही

 

लालसा ही भावनेच्या अग्र भागी

प्रीतिची ही बाग आता फुलत नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 4 – काही कणिका ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं 6 उपन्यास, 6 लघुकथा संग्रह 14 कथा संग्रह एवं 6 तत्वज्ञान पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है ‘काही कणिका’ शीर्षक से कुछ भावप्रवण कणिकाएं।आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 4 ☆ 

☆ काही कणिका 

1.

तप्त रस सोनियाचा

खाली आला फुफाटत

सारा शांतला

फुलाफुलांच्या देहात

 

2.

किती कशा भाजतात

उन्हाळ्याच्या ऊष्ण झळा

तरी झुलतात संथ

बहाव्याच्या फुलमाळा

 

3.

मिठी मातीला मारून

पाने ढाळितात आसू

वर हासतात फुले

शाश्वताचं दिव्य हसू

 

4.

किती आवेग फुलांचे

वेल हरखून जाते

काया कोमल तरीही

उभ्या उन्हात जाळते.

 

5.

किती किती उलघाल

होते काहिली काहिली

एक लकेर गंधाची

सारे निववून गेली.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

Please share your Post !

Shares
image_print