हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 31 ☆ लघुकथा – स्वाभिमानी माई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक, आत्मसम्मान -स्वाभिमान से परिपूर्ण भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  “  स्वाभिमानी माई”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 31☆

☆ लघुकथा –  स्वाभिमानी माई

कर्फ्यू के कारण बाजार में आज बहुत दिन बाद दुकानें खुली थीं , थोडी चहल – पहल दिखाई दे रही थी . उसने भी  अपनी दुकान का रुख किया . मन में  सोचा  कर्फ्यू  के बाद ग्राहक तो कितने आयेंगे पर घर से निकलने का मौका  मिलेगा  और घर के झंझटों से भी छुटकारा . दुकान खुलेगी तो ग्राहक भी धीरे- धीरे आने ही लगेंगे . दो महीने से दुकान बंद थी  . दुकान पर काम करनेवाले लडकों को बुलायेगा तो पगार देनी पडेगी,  कहाँ से देगा ? छोटी सी दुकान है वह भी अपनी नहीं ,  दुकान का मालिक किराया थोडे ही छोडेगा ?  कितना कहा मालिक से कि दो महीने से दुकान बंद है कोई कमाई नहीं है , आधा किराया ले ले ,  पर कहाँ सुनी उसने , सीधे कह दिया किराया नहीं दे सकते तो  दुकान खाली कर दो . वह  मन ही मन झुंझला रहा था , खैर छोडो उसने खुद को समझाया , इस महामारी ने पूरे विश्व को संकट में डाल दिया , मैं अकेला थोडे ही हूँ . कैसा ही समय हो कट ही जाता है . वह दुकान की सफाई में लग गया .

बेटा –  उसे किसी स्त्री की बडी कमजोर सी आवाज सुनाई दी .  उसने सिर उठाकर देखा ,  कैसी हो माई , बहुत दिन बाद दिखी ? उसने पूछा .

दो महीने से बाजार बंद था बेटा , क्या करते यहाँ आकर ? उसने बडी दयनीयता से कहा .

हाँ ये बात तो है . बूढी माई घूम – घूमकर सब दुकानों से रद्दी सामान इक्ठ्ठा किया करती  थी . दुकान के बाहर आकर चुपचाप खडी हो जाती थी  ,लोग अपने आप ही उसके बोरे में रद्दी सामान डाल दिया करते थे . अपनी जर्जर काया पर  बोरे का भारी बोझ उठाए वह मंद गति से अपना काम करती रहती थी . कुछ मांगना तो दूर , वह कभी किसी से एक कप चाय भी न लेती थी . कागज की पुडिया में अपने साथ खाने पीने का  सामान रखती , कहीं बैठकर खा लेती और काम पर चल देती . दुकानदार उसे अकडू माई  कहा करते थे पर उसके लिए वह स्वाभिमानी थी .

आज भी वह वैसी ही खडी थी, ना  कुछ मांगा, ना कुछ  कहा .थोडी देर हालचाल पूछने के बाद  वह कहने ही जा रहा था कि माई !  रद्दी तो नहीं है आज, लेकिन उसका मुर्झाया चेहरा देख शब्द मुँह में ही अटक गए .  उसके चेहरे पर  गहरी उदासी  और आँखों में बेचारगी  थी . उसने सौ का नोट बूढी माई को देना चाहा . मेहनत करने का आदी हाथ मानों आगे बढ ही नहीं रहा था . धोती के पल्ले से आँसू पोंछते हुए नोट लेकर  उसने माथे से लगाया . धीरे से बोली – बेटा ! घर में कमाने वाला कोई नहीं है रद्दी बेचकर  अपना पेट पाल लेती थी. तुम लोगों की दुकाने खुली रहती थीं तो हमें भी पेट भरने को कुछ मिल  जाता था , अब तो सब खत्म . बूढी माई का स्वाभिमान  आँसू बन बह रहा था .

उसे अपनी परेशानियां अब फीकी लग रही थीं .

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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मराठी साहित्य – कविता ☆ संवाद ☆ सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। कई पुरस्कारों/अलंकारों से पुरस्कृत/अलंकृत सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का जीवन परिचय उनके ही शब्दों में – “नियतकालिके, मासिके यामध्ये कथा, ललित, कविता, बालसाहित्य  प्रकाशित. आकाशवाणीमध्ये कथाकथन, नभोनाट्ये , बालनाट्ये सादर. मराठी प्रकाशित साहित्य – कथा संग्रह — ५, ललित — ७, कादंबरी – २. बालसाहित्य – कथा संग्रह – १६,  नाटिका – २, कादंबरी – ३, कविता संग्रह – २, अनुवाद- हिंदी चार पुस्तकांचे मराठी अनुवाद. पुरस्कार/सन्मान – राज्यपुरस्कारासह एकूण अकरा पुरस्कार.)

आज प्रस्तुत है आपकी एक पक्षी एवं झाड़ के मध्य संवेदनशील संवाद पर आधारित  भावप्रवण कविता संवाद । हम भविष्य में भी आपकी सुन्दर रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।

☆संवाद☆

पक्षी असतो  झाडाचा आवडता  दोस्त।

मनातलं  गुपित  ते  त्यालाच   सांगतं   ।

पक्षी–  चिवचिव, टिवटिव, झाडा  कसं  काय?

झाड- तूच  सांग. माझे  तर  रोवलेले   पाय.

पंख   हलवित गेलास  एकट्याला सोडून.

मित्रा, आत्ता   तू आलास तरी कुठून?

काय काय पाहिलंस–कसे होते  देश?

कशी तिथली  झाड?कसे  त्यांचे  वेश?

 

पक्षी-  थांग, निळ्या, आभाळात  मी उडतो.

तिथे  देशाबिशांचा नकाशाच  नसतो.

कुठे हिरवी झाड, रंगीत  फुलं

घोसदार, रसदार गोड गोड फळं.

कुठे गार  वारा, कुठे छान हवा.

इथे नि तिथे , फिरलो गावागावा.

कुठे मात्र वाळवंट, कुठे माळ उजाड.

कुठे गार बर्फ, मग कसं उगवेल झाड?

तिथे मला तुझी  आली फार आठवण.

पालवित  पंख  आलो  बघ चटकन .

थरारलं झाड  ,   पक्षाचं   ऐकून.

जसं   काही  तेच  आलं  होतं फिरून.

झाडाच्या   पानात  पक्षी  झोपला  गाढ.

दवाच्या   थेंबात  भिजत  होतं  झाड।।

 

© मीनाक्षी सरदेसाई

‘अनुबंध’, कृष्णा हास्पिटलजवळ, पत्रकार नगर, सांगली.४१६४१६.

मोबाईल  नंबर   9561582372

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 51 – पाणी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक  अत्यंत भावप्रवण  एवं संवेदनशील कविता  “पाणी।  मैं निःशब्द हूँ यह कविता पढ़कर। पानी या जल पर रचित यह पहली रचना नहीं है जो मैंने या आपने पढ़ी हो किन्तु, यह अन्य कविताओं से भिन्न क्यों है यह तो आप पढ़ कर ही अनुभव कर सकते हैं। जल से जीवन जितना जुड़ा है संभवतः संवेदनाएं भी उससे कम नहीं जुडी हैं, जिन्हें सुश्री प्रभा जी ने  अत्यंत ही सहज भाव से लिपिबद्ध कर दिया है। सुश्री प्रभा जी  की इस संवेदनात्मक रचना जो हृदय को जल की भांति  तरंगित करती है उस लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 51 ☆

☆ पाणी ☆ 

 मला आठवते…

त्या ओढ्यातील खळाळते पाणी,

पैंजण पायी अन अनवाणी,

भर दुपारी किती उडविले

छुमछुमते पाणी!

 

शांत जलाशय-तळे कमळाचे,

खडा टाकला आणि पाहिले

थरथरते पाणी,

त्या तळ्याची आठव येता,

मनःपटलावर,

झरझरते पाणी!

 

सतरा कमानी पुलाखाली,

कधी न पाहिले,घोडनदीचे,

दौडणारे वा दुडदुडते पाणी,

पुसल्या खाणाखुणा तरीही,

मनीमानसी त्याच नदीचे,

झुळझुळते पाणी!

 

अथांग सागर, गाज लाटांची,

दर्यावरी त्या जडली प्रीती,

आत उतरूनी घेऊ पाहिले,

ओंजळीत अवखळ ते पाणी,

त्यास चुंबिले आणि उमगले,

ओठांवर व्याकुळ ते पाणी!

 

ओढा, तळे, नदी नी सागर,

डोळा पाहिले आणि स्पर्शिले

वेगवेगळे कुरकुरते पाणी!

 

आयुष्याची तल्खी शांतवी

असे लाभले एकच पाणी,

या पाण्याचे ऋण जीवावर,

तृप्ती सुखाची—-

ते मुळामुठेचे सळसळते पाणी!

 

जन्म एकदा पुण्यात मिळावा,

म्हणून पुण्यवान आत्म्यांच्याही,

डोळ्यांमधले कळवळते पाणी!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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मराठी साहित्य – कविता ☆ हिरवं घर ☆ सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। कई पुरस्कारों/अलंकारों से पुरस्कृत/अलंकृत सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का जीवन परिचय उनके ही शब्दों में – “नियतकालिके, मासिके यामध्ये कथा, ललित, कविता, बालसाहित्य  प्रकाशित. आकाशवाणीमध्ये कथाकथन, नभोनाट्ये , बालनाट्ये सादर. मराठी प्रकाशित साहित्य – कथा संग्रह — ५, ललित — ७, कादंबरी – २. बालसाहित्य – कथा संग्रह – १६,  नाटिका – २, कादंबरी – ३, कविता संग्रह – २, अनुवाद- हिंदी चार पुस्तकांचे मराठी अनुवाद. पुरस्कार/सन्मान – राज्यपुरस्कारासह एकूण अकरा पुरस्कार.)

आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता हिरवं घर। हम भविष्य में भी आपकी सुन्दर रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।

☆ हिरवं घर ☆

झाडांची मुळं जमिनीखाली

खेळत असतात

पळापळी.

दमतात तेव्हा

नदीवर जाऊन

पळत येतात

पाणी पिऊन.

झाडांची पानं

आईचे हात

शिजवून घालतात

वरणभात.

बाबा कोण?

सूर्याचं ऊन्ह.

पगार पाठवतात

दूर राहून.

झाडांची खोडं

आजी आजोबा.

मुळं त्यांना आणून

देतात चहा.

झाड म्हणजे एक

घरच असतं.

सावलीत त्याच्या

किती छान वाटतं

 

© मीनाक्षी सरदेसाई

‘अनुबंध’, कृष्णा हास्पिटलजवळ, पत्रकार नगर, सांगली.४१६४१६.

 

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 49☆ पाखरे चिंतेत आता ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत भावप्रवण कविता  “पाखरे चिंतेत आता।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 49 ☆

☆ पाखरे चिंतेत आता ☆

वादळाशी झाड भिडते रडत नाही

मुळ इतके घट्ट आहे सुटत नाही

 

पाय, तळवे, लोह झाले पूर्ण आता

पावलांना फार काटे रुतत नाही

 

हिरवळीचा बेगडी आहे दिखावा

पावलांना सुखवणारे गवत नाही

 

फूल बाजारात मिळते दाम देता

गंध-वारा विकत येथे मिळत नाही

 

शांततेचा मंत्र लोका का कळेना ?

मज कळाला मी कुणावर चिडत नाही

 

शेत विकले पाखरे चिंतेत आता

माॕल झाले पोट त्याचे भरत नाही

 

लालसा ही भावनेच्या अग्र भागी

प्रीतिची ही बाग आता फुलत नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 4 – काही कणिका ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं 6 उपन्यास, 6 लघुकथा संग्रह 14 कथा संग्रह एवं 6 तत्वज्ञान पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है ‘काही कणिका’ शीर्षक से कुछ भावप्रवण कणिकाएं।आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 4 ☆ 

☆ काही कणिका 

1.

तप्त रस सोनियाचा

खाली आला फुफाटत

सारा शांतला

फुलाफुलांच्या देहात

 

2.

किती कशा भाजतात

उन्हाळ्याच्या ऊष्ण झळा

तरी झुलतात संथ

बहाव्याच्या फुलमाळा

 

3.

मिठी मातीला मारून

पाने ढाळितात आसू

वर हासतात फुले

शाश्वताचं दिव्य हसू

 

4.

किती आवेग फुलांचे

वेल हरखून जाते

काया कोमल तरीही

उभ्या उन्हात जाळते.

 

5.

किती किती उलघाल

होते काहिली काहिली

एक लकेर गंधाची

सारे निववून गेली.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 47 – गुरूने दिला ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है  आपका  एक अत्यंत भावप्रवण कविता  ” गुरूने दिला”।  आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 46 ☆

☆ गुरूने दिला ☆

 

गुरुने दिला हा। ज्ञानरूपी वसा। वाटू घसघसा । सकलांना।।१।।

गुरूने दिधली।ज्ञानाची शिदोरी ।अज्ञान उधारी।संपविण्या।।२।।

करिता प्राशन ।ज्ञानामृत  गोड । संस्काराची जोड। लाभे तया।।३।।

गुरू उपदेश।  उजळीतो दिशा। पालटेल दशा जीवनाची।।४।।

गुरूविना भासे ।तमोमय सृष्टी । देई दिव्य दृष्टी । गुरू माय।।५।।

गुरू जीवनाचा।असे शिल्पकार । जीवना आकार ।लाभलासे।।६।।

गुरू माऊलीला।करू या वंदन । जीवन चंदन। सुगंधीत।।७।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 11 ☆ ती पुर्णाकृती ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक  श्रृंगारिक कविता “ती पुर्णाकृती“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 11 ☆

☆ ती पुर्णाकृती

 

एऽऽ बघ इकडे, एऽऽऽ बघ न गडे

पुर्णाकृती सुंदरशी, बैसली पुढे,बैसली पुढे!!

 

ओष्ठ जसे संत्र्यांच्या फाकी, डाळिंबाच्या दाण्यावरती

मुग्ध हास्य तव वदनी फुलता, कोमल कलिकांची फुले होती

त्या फुलांची बाग इथे, बैसली पुढे,बैसली पुढे!!

 

चक्षू तुझे चंचल मज गमती, शिंपल्यात ठेवियले मोती

पापण्यांची उघडझाप भासे, दोन फुलपाखरे फडफडती

फुलपाखरांची राणी,बैसली पुढे, बैसली पुढे!!

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – धर्मवीर संभाजी महाराज जयंती विशेष – धर्मवीर शंभू ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  धर्मवीर संभाजी महाराज जयंती के  अवसर पर आपकी विशेष कविता  “धर्मवीर शंभू  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆ धर्मवीर संभाजी महाराज जयंती विशेष – धर्मवीर शंभू ☆

संस्कृत पंडित  । स्वराज्याचे वीर ॥

ज्ञानी शाक्तवीर   । शंभू राजे ॥ 1 ॥

 

नखशिख आणि   | सात सतकाचे ॥

बुधभुषणाचे । ग्रंथकार ॥ 2 ॥

 

भाषा व्याकरण  | धर्मशास्त्र निती ॥

तत्वज्ञान रिती । अभ्यासिली ॥ 3 ॥

 

धर्मवीर शंभू  । ओलीस राहिले ॥

संघर्ष साहिले ।  मोगलांचे ॥ 4 ॥

 

मल्लखांब कुस्ती   । मर्दानी खेळात॥

आखाडे  मेळ्यात  । तरबेज ॥ 5 ॥

 

सप्त हजाराचे  | मनसबदार ॥

कर्तृत्वास धार  | दशवर्षी ॥ 6॥

 

संभाषण कला | मुत्सद्दी पणाचे ॥

धर्म रक्षणाचे  |  बाळकडू ॥7 ॥

 

यवनी गोटात | शिरूनी जाणले॥

जेरीस  आणले ।  औरंग्यास ॥ 8॥

 

शिवाजी नंतर । स्वराज्य रक्षण  ॥

केले संरक्षण    ।  रयतेचे  ॥ 9 ॥

 

संभाजी राजांची  । येसूबाई राणी॥

कर्तृत्वाच्या खाणी  ।  स्वराज्यात   ॥ 10 ॥

 

कुलमुखत्यार  । राणी येसूबाई ॥

स्वराज्याची माई  ।  शंभू भार्या ॥ 11 ॥

 

भेदरला काळ ।  विरश्री मरण॥

संभाजी स्मरण । स्फूर्तीदायी   ॥ 12 ॥

 

(श्री विजय यशवंत सातपुते जी के फेसबुक से साभार)

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 50 – मदर्स डे ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक समसामयिक संस्मरणीय आलेख एवं एक संवेदनशील कविता “मदर्स डे।  यह सही है कि हमारी समवयस्क पीढ़ी ने वर्ष में कोई एक दिन किसी को समर्पित नहीं किया था। हमारे प्रत्येक दिन प्रत्येक को समर्पित हुआ करते थे। जब सुश्री प्रभा जी की दोनों रचनाएँ प्राप्त हुई तो निर्णय करना अत्यंत कठिन था कि किसे प्रकाशित किया जाये। फिर लगा किसी एक रचना को भी पाठकों तक न पहुँचाना दूसरी रचना के साथ भावनात्मक रूप से अन्याय होगा। अतः आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप दोनों ही रचनाएँ आत्मसात करें। सुश्री प्रभा जी  के “माँ /आई  “शब्द के शब्दचित्र को साकार करती  हुई लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 50 ☆

☆ मदर्स डे -1 ☆ 

 पुष्कर नावाच्या मुलाचा मेसेज आला, ताई “मदर्स डे” साठी आई विषयावरची  कविता विडीओ रेकॉर्ड करून पाठवा. तशा आई विषयावर चार पाच कविता आहेत माझ्या. आई वर पहिली कविता १९९१ साली लिहिली….एका “आई” संमेलनाचे  निमंत्रण आले तेव्हा कुंडीतला जाईचा वेल पाहून शब्द सुचले….बहरली अंगणी जाई अन आठवली माझी आई,

मन आईचे निर्मळ,शुभ्र फुलांची ओंजळ……. पण ही कविता कालौघात हरवली..

पुष्कर च्या या कवितेच्या मागणीनं आईचं  आयुष्य नजरेसमोरून तरळून गेलं….

माझी आई….पूर्वाश्रमीची  सरोजिनी देशमुख सुशिक्षित सुसंस्कृत घरात जन्मलेली तिचे वडील कोऑपरेटिव्ह बँकेचे मॅनेजर,या पदावरून निवृत्त झाल्या  नंतर कोकणात शेती करत होते,तिची आई सामाजिक कार्यकर्ती…….

लग्नात तिचं नाव उर्मिला ठेवलं होतं पण पुढे

सरोजिनीेच  नाव प्रचलित राहिलं, सरोजिनी जगताप- माझी आई,  गावचे पोलिस पाटील, संत्रा मोसंबीचे बागाईतदार असलेल्या बाजीराव जगताप यांची पत्नी! त्या काळात घर, घराण्याचा रूबाब काही वेगळाच होता,पंचक्रोशीत प्रतिष्ठा होती, आईवडील -आगळी वेगळी व्यक्तिमत्व, दोघांचा घरात, जनमानसात दरारा होता, माझी आई नाकी डोळी नीटस, चारचौघीत उठून दिसणारी,सातवी शिकलेली, वाचनाची आवड, भरतकाम, विणकाम, स्वयंपाक करण्यात कुशल, सुंदर रांगोळ्या काढायची,देवपूजा न चुकता रोज, अनेक व्रतवैकल्ये करायची, चंदेरी साड्या, दागदागिन्यांची आवड, सिंह राशीची असल्याने  स्वभावाने कडक त्यामुळे तिच्या माझ्यात फार भावूक ,तरल असं नातं कधीच निर्माण झालं नाही, माझ्या लग्नात वडील खुप रडले पण ती रडली नाही याचा अर्थ तिला दुःख झालं नाही असं नाही. लहानपणी, शाळेत असताना तिने कधीच कुठली कामं करायला लावली नाहीत.तिच्या हाताखाली दोन तीन बाया असल्यामुळे असेल पण स्वयंपाक ती एकटीच करायची आम्ही सख्खी चुलत सहा भावंडे होतो,आमच्या शिक्षणासाठी ती तालुक्याच्या गावी बि-हाड करून राहिलेली.

ती सुगरण होती,तिच्या हाताला चव होती, स्वयंपाकाचा तिने कधीच कंटाळा केला नाही. ती खरोखर असामान्य स्त्री होती, सतत आजारपण येत असायचं, अनेक आपत्ती आल्या, मानसिकरित्या खचलीही..पण एकटीच आयुष्याचा लढा देत राहिली, ७८ वर्षाचं आयुष्य लाभलं तिला, मला आठवतं तसं ती …तिची बदलत गेलेली रूपं… मानिनी…सुगरण…अलिप्त….संन्यस्त…

तिच्या आयुष्याची कहाणी विलक्षणच! माझी मैत्रीण म्हणायची तुझी आई जयश्री गडकर सारखी दिसते  ……तिची कहाणी ही चित्रपटासारखीच!

तिच्या समस्त आठवणीं समोर नतमस्तक व्हायला होतंय आज कारण ती असामान्य होती…..अनाकलनीय ही ..विनम्र अभिवादन

 

☆ मदर्स डे -2

तेव्हा मदर्स डे वगैरे

नव्हते साजरे होत…

आई खुप जवळची

वाटली नाही कधी….

कदाचित तिला मम्मी म्हणत  असल्यामुळे!

 

ती उठून दिसायची शंभरजणीत !

इतर आयांपेक्षा वेगळी होती निश्चितच !

 

हाताखाली तीन बायका असल्यातरी कष्टत रहायची स्वतःही….

 

पाहिले आहे तिला,

चुलीशी..जात्यावर….उखळापाशी

 

रांधताना…

वाढताना..

उष्टी काढताना…

वाळवणं करताना..लोणची पापड मुरंबे करताना…बुंदी पाडताना…

जिलेब्या तळताना…

विणताना…

निवडताना…पाखडताना…. .

भरडताना….झाडं लावताना..फुलं गुंफताना…रांगोळ्या काढताना..

 

आणि अखेर जळताना ही…

तिचं जगणं…जगत राहिली…

सा-या भूमिका मुकाट्याने निभावत राहिली..

 

एक घरंदाज…ठसठशीत व्यक्तीमत्व   …

एक सर्व कलासंपन्न…. अन्नपूर्णा….माता..भगिनी…

आणि

एक शापित स्त्री….

बहुत दिन हुए सारख्या फॅन्टसी सिनेमातल्या नायिके सारखी…

खरीखुरी……अनाकलनीय..गुढ..

एक शोकांतिका!!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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