हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 4 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 4 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

हम हैं ऊपर, आसमाँ नीचे                 

रवाना होते समय इंद्रप्रस्थ में थी यामिनी। यहाँ तो भास्कर भास्वर है। यहाँ भी पंख फड़फड़ाना और मशीन की गर्जन के अलावा उड़ान भरते समय और कुछ खास पता नहीं चला। खिड़की से देखा विमान के पंख तिरछे और सीधे हो रहे थे। देखते देखते हम नभचर हो गये। फिर खातिरदारी की वही श्रृंखला। अबकी लंच में मैं ने लिया चिकन चावल। धर्मपत्नी ने लिया पास्ता। मैं बंगाली, तू इतालियन।

सामने की सीट के पीछे लगी छोटी स्क्रीन में प्राण संचार करने में अब कोई दिक्कत नहीं हुई। रिमोट पर टक टक करते हुए मेनू देखता रहा। दो हिन्दी फिल्म यहाँ भी सूचीबद्ध। एक स्वदेश और दूसरी – ? नभ में बालीवुड की शान! यह है आपुन हिन्दुस्तान ! पर देखूँ तो क्या देखूँ ? आँखें खुली रखना ही मुश्किल। मगर नींद के बलमा आयौ नाहीं। सखी पलक बिछावन काँहे बिछाही ?

सामने के पार्टिशन पर लगे स्क्रीन पर देखने से पता चला – अरे हम तो अटलांटिक महासागर पार कर चुके हैं। नीचे मेघमालाएँ तरंगहीन लहरों की तरह स्थिर थीं। रवीन्द्रनाथ की एक चार पंक्ति की कविता (आकाशे सोनार मेघ/कतो छबि आँके …..) हो जाए :- मेघ सुनहले चित्र बनाये/नभ आँगन में घिर घिर आये/अपना नाम लिख नहीं जाता/ केवल सर्जन में सुख पाता। हे पाठक – पाठिका, इस अज्ञानी से जितना हो सका मैं ने रवीन्द्र कविता का अनुवाद कर दिया। अगर त्रुटि हो तो अवश्य मार्जना करें। अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं। चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं। हे दरबारे इल्म के काजी, मैं ने तुलसी बाबा को ही अपने पक्ष में खड़ा कर दिया। बालकांड में तो उन्होंने ही ऐसा लिखा है – बड़ी बड़ी प्रसिद्ध नदिओं पर राजा जब पुल बना देते हैं, तो मामूली चींटी भी उन पर चढ़ कर बिना श्रम के ही नदी को पार कर जाती है।

बादलों का जत्था न आगे बढ़ रहा था, न इधर उधर ही जाता। ग्रीक दार्शनिक जेनो ने भी क्या खूब फरमाया है :- दुनिया में कुछ भी गतिशील नहीं है। जिसे हम गति कहते हैं, उसमें हर एक बिंदु पर वह वस्तु या तो है, या नहीं है। यानी कहीं स्थानांतरण हो ही नहीं रहा है। इस निखिल ब्रह्मांड के अन्तस्थल में सारी गतिशीलता सारी स्थिरता एकाकार हो जाती है। क्या ठहरना, क्या चलना? चतुर्दिक एक उज्ज्वल दिव्य प्रकाश से सराबोर।

बंगाली तो स्वभाव से ही अड्डेबाज होते हैं। तो चलिए, इन जेनो महाशय के बारे में थोड़ी गुफ्तगू हो जाए। इनके बाद ग्रीस के साइटियम शहर में एक दूसरे जेनो (335 से 264 ईसा पूर्व) नामके दार्शनिक भी हुए थे। उनमें और इनमें मत कन्फ्युजिया जाइयेगा। तो हमारे जेनो ग्रीस के एलिया शहर में रहते थे। उनका जीवनकाल शायद 490 से 430 ईसा पूर्व तक का था। यानी सुक्रात जब बीस साल के थे, तो ये करीब चालीस के। ग्रीक दर्शन की दुनिया में इन्होंने ही शायद सर्वप्रथम डाइलेक्टिस यानी द्वन्द्वात्मकता के सिद्धांत का प्रयोग किया था। जरा सोचिए, इसी द्वन्द्वात्मकता की विधि हेगेल से होता हुआ कार्ल मार्क्स तक पहुँची। ज्ञान की धारा भी हमारी गंगा से कम नहीं है। कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है। जैसे हमारी जातक कथायें ग्रीस होते हुए पहुँची थी यूरोप में। उन्हीं का अनुसरण करते हुए ग्रीस में ही ईशप फेबल्स की रचना हुई। ईशप महोदय भी वहाँ के दास ही थे (620-560. ईसा पूर्व)। सोचिए जरा उनकी रचनाओं के कारण वहाँ के पुरोहितों ने उनकी हत्या तक कर दी। यही है कलम की ताकत।

हमारे जेनो ने गति एवं स्थिरता को लेकर कई आत्म विरोधी सूत्र दिये। यानी पहेलियाँ। एक तीर अपने लक्ष्य तक कैसे पहुँच सकता है ? वह या तो तरकश में है, या नहीं है। उसी तरह उसने या तो लक्ष्यभेद कर लिया है या नहीं किया है। बस। भले ही कूट तर्क हो, पर भाई साहब, हँसिये मत। सोचिए, उस जमाने में इस तरह सोचने में समर्थ होना, कम बड़ी बात नहीं थी। नेट में उन पर बनी एक पेंटिंग है कि वे अपनी शिष्य मंडली को लेकर दो दरवाजे के सामने खड़े हैं। एक सत्य का द्वार है, दूसरा असत्य का।

और एक बात है। उसी जमाने में ग्रीस के किसी राज्य में नियारकस नाम का एक तानाशाह शासन करता था। जेनो ने उनके खिलाफ लोगों को लामबंद किया। शायद उसे जान से मारने की कोशिश तक नौबत आ पहुँची थी। मगर जैसा कि हर ऐसे आंदोलन के साथ होता है। वे असफल हुए एवं उन्हें कारावास का दंड मिला। जेल में वह नियारकस बार बार उनसे कहता कि, ‘बाकी षडयंत्रकारियों के नाम बतला दो, तो तुम्हें मैं मुक्त कर दूँगा।’

पहले तो वे बारंबार इन्कार करते रहे। आखिर एकदिन जेनो ने कहा,‘ठीक है, तुम अपना कान मेरे मुँह के पास लाओ। मैं जोर शोर से अपने साथिओं के साथ तो दगाबाजी नहीं कर सकता। बस मैं तुम्हारे कान में उनके नाम बतला दूँगा।’

अपने खिलाफ विद्रोह करने वालों का नाम जानने को उत्सुक नियारकस जरा झुक कर जेनो के मुँह के पास अपना कान ले गया। और बस ….। जेनो ने अपने दाँतों से उसका कान काट कर अलग कर दिया। जेनो को तो अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। मगर वह तानाशाह भी कनकट्टू होकर जिन्दा रहा।

इधर उड़ते उड़ते ……….

हे स्वच्छता के भगीरथ, बाबू विंध्येश्वरी पाठक, क्षमं देहि। अब बनारसी कुबुद्धि का क्या किया जाए ? डिनर के दो तीन घंटे बाद लगा कि संध्याकालीन निवृत्ति भी हो जाए। जरा अंतरिक्ष में ‘वो’ करने का लुत्फ उठायें। मैदान में तो सारा हिन्दुस्तान मैदान करने जाता है। सारी दुनिया में ‘बाहर शौच’ करने के मामले में तो हम अव्वल हैं। 28.9.14. के हिन्दुस्तान में शशिशेखर लिखते हैं 60करोड़ लोग प्रतिदिन खुले में शौच करते हैं, जबकि 70 करोड़ के पास मोबाइल है। क्या कहने ! मुझे लगा मेघ के ऊपर मेघ मल्हार राग छेड़ने का आनन्द उठाया जाए। आप सोच रहे होंगे – तजौ रे मन हरि बिमुखन के संग। जाको संग कुबुधि उपजत है, पड़त भजन में भंग। चुप बे, लंठाधिराज बनारसी ! कहीं ‘घर घर शौचालय’ का ब्रान्ड अम्बेसडर विद्या बालन ने सुन लिया तो ….?

वापस आ गये। थोड़ी देर के उपरान्त ……..

घोषणा हो रही है – हम इतनी देर में मॉन्ट्रीयल पहुँचनेवाले हैं। बेल्ट वगैरह बाँध लीजिएगा।

इधर विदाय वेला उपस्थित। आखिरी नाश्ता कहें ? अरे बापरे! आखिरी ? नहीं भाई, किंग्सटन में जाकर बेटी के हाथ का बना नाश्ता भी तो खाना है। खैर इधर डिक्लारेशन फार्म दे गया। ‘यहाँ बैठे बैठे इसे भर लीजिए।’ वही सारे सवाल एवं और भी कुछ। क्यों भाई आप चावल दाल फूल वगैरह कोई ऑर्गेनिक वस्तु तो कनाडा में नहीं न ला रहे हैं ? किसी से कहियेगा मत। आते समय बिटिया के लिए थोड़ी काजू की बर्फी ले आये थे। उसकी बुआ दे गई थी। या खुदा, जामाता को भनक न लगे। वह कानून का अक्षरशः पालन करने वाला शख्स है।

अभी तो मॉन्ट्रीयल शहर की झलक भी खिड़की से दिखाई नहीं पड़ रही है। दांपत्य वार्तालाप ‘अरे बादलों को देखो! याद है ? ऐसा ही हमने देखा था ऊटी से झुकझुक रेल से चलकर कुन्नूर में। नीलगिरि पहाड़श्रृंखला में डोडाबेटा पहाड़ के ऊपर। चारों ओर पंछियों की कुहुक। बगल से बहते झरने का कलकल। 1858 मीटर ऊँचाई से सफेद कुहासे के घूँघट ओढ़े नील कुन्नूर का दीदार। हम थे ऊपर – मेघ माला नीचे। फिर ऐसा ही नजारा था अरुणाचल में। तावांग से बमडिला लौटते समय सेला पास के बौद्ध मोनॉस्ट्री के सामने। उतनी ठंड में बेटे को लेकर हम दोनों वहाँ चाय पीने ठहरे थे। साथ में आलू के पराठे थे। मगर उसे फाड़ कर खाये कौन माई का लाल ? हाथ में तो मानो कँपकँपी छूट रही थी। इतनी ठंड। और सामने ? अद्भुत, अनुपम! गगन की नदी में पल पल रूप बदलते बादलों की लहरें।’

और आज ? वही दृश्य। सार्थक हुई उड़ान !

             और अगर कालिदास मेघदूत लिखने के पहले इन बादलों को देखे होते, तो ?

वो – वो रहा पेड़ों की हरी हरी छाजन। ऊँची ऊँची इमारतें। बीच से जाती सर्पिल सड़क। प्लेन बाज की तरह नीचे उतर रहा है। वो एअरपोर्ट। मॉन्ट्रीयल एअरपोर्ट को यूल कहते हैं। जैसे काशी एअरपोर्ट का नाम लाल बहादुर शास्त्री एअरपोर्ट है। वहीं कहीं खड़ी होगी मेरी बिटिया – बाबू अम्मां कब पहुँचेंगे ? पास में खड़ा होगा जमाईराजा। हाँ, मेरी भवानी, हम पहुँच गये। शादी के इतने सालों बाद हम तेरे पास पहुँच रहे हैं। बस अब चंद मिनटों का सवाल है। अरे चंद मिनटों का नहीं जनाब ……

प्लेन से बहिर्गमन। साथ में प्लेन क्रू की मुस्कुराहट का तोहफा। केएलएम और उसके बिजनेस पार्टनर एअर फ्रान्स की ओर से ढेर सारी शुभकामनायें! आपकी यात्रा मंगलमय हो! हम आशा करते हैं कि आप जब भी गगनचारी बनियेगा तो इस गरूड़ को सदा याद कीजिएगा! धन्यवाद!

फिर सर्पिल रास्तों से होते हुए इमिग्रेशन काउंटर। घंटों सफर के बाद अब लाइन में खड़े रहो। डेस्क तक पहुँचा तो यह सवाल, वह सवाल। कहाँ जायेंगे ? किंग्सटन ? किसके पास जाइयेगा ? बेटी दामाद के पास? कैसे जायेंगे? वे दोनों लेने आ रहे हैं? अपने देश से तम्बाकू सिग्रेट वगैरह लाये हैं ? अरे छि छि राम कहो। अरे जनाब इस बनारसी बंगाली के मुँह में पान की लाली तक नदारद है। सालों पहले एक नाटक में विलेन का रोल अदा करने के लिए सिगरेट जरूर फूँकना पड़ा था। सिगरेट फूँका क्या था, बस सुलगा कर हाथ में थामे रहा। कई लोगों का कमेंट था, ‘क्या भाई विलेन, सिगरेट के धुआँ से तो तुम्ही भाग रहे थे!’ सामने दर्शकों के बीच पिताश्री भी मौजूद थे। हे तात, ऊपर बैठे मुझे क्षमा करना !

अरे अपना चेक इन लगेज कहाँ से लें? इधर से जाइये। सीढ़ी से उतर कर लगेज बेल्ट से अपना दोनों सूटकेस लेने पहुँचा। चक्रवत परिवन्तते सुखानि च दुखानि। बेल्ट घूमता जा रहा है ! सामने से दूसरों के सूटकेस चले जा रहे हैं, घर घर….. घर घर ……. मगर हमारे सूटकेस कहाँ गये ? उसमें तो दामाद का नाम पता भी चस्पां रहा। पहचानने के लिए जोगिया रंग का एक रिबन भी लगा था। तो -? 

‘अरे मिस्टर, ऐम्सटर्डम के सामान तो आठ नम्बर बेल्ट पर आ रहे हैं।’ यहाँ भी आठ ? यह आठ नंबर नहीं, मानो अष्टश्रवा ब्रह्मा का वरदान है। चले चलो। जिन खोजां, तिन पाइयाँ !

वो वो रहा वो काला सूटकेस! पकड़ो, पकड़ो, उठाओ! अरे तो मैरून वाला कहाँ गया ? आ रहा होगा, यार!

पहिये पर उभय सूटकेस को खींचते हुये हम यूल के आँगन से बाहर निकले।

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 3 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 3 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

मझधार 

ऐम्सटर्डम उतर कर पीठ पर बैग यानी केबिन लगेज लेकर चलते रहो। हमारा चेक इन लगेज हमें मॉन्ट्रीयल में ही मिलेंगे। मैं ने श्रीमती से पूछा, ‘भारत में चेक इन लगेज की कोई रसीद मिली थी?’ पता चला वह तो बोर्डिंग पास में ही लगी हुई है।

कदम कदम बढ़ाये जा, खुशी के गीत गाये जा! तो हम चलता बने। दाहिने बांये। बांये दाहिने। कहाँ से कहाँ। कहीं कहीं वृद्ध वृद्धायें उनके लिए बनी जगह में इंतजार में हैं कि कब उनके लिए एअरपोर्ट की सवारी गाड़ी आये। वहाँ हम लोगों के बैठने की मनाही है। अरे साहब, हम भी ठहरे सीनियर सिटीजन। उम्र के साठ नंबर घाट पर जीवन नैया लग चुकी है। फिर भी सफाई एवं इन्तजाम के मामले में जरूर कहेंगे – हमारी दिल्ली सवा सेर। और कहीं भी इस दूरी को तय करने के लिए एअरपोर्ट टैक्सी सुलभ नहीं है। एक जगह रुक कर एक डच ऑफिसर से पूछा,‘हमें अगली केएलएम फ्लाइट से मॉन्ट्रीयल जाना है। तो -’

‘हाँ आगे जाकर बांये लाइन में लग जाइये। वहीं सिक्यूरिटी चेक होगा।’ उन्होंने निर्देश दिया।

फिर सर्पिल लाइन आगे खिसकती गई। सामने बेल्ट पर खिसकती ट्रे की कतारें। हाथ में मेटल डिटेक्टर लिये ऑफिसर लोग खड़े हैं। इनमें कई अफ्रीकी भी हैं। याद रखिए इन्हें निग्रो कहना शिष्टाचार के विरुद्ध है। पर साहित्य में तो निग्रो कविता की एक अलग धारा है। आप कलर्ड कह सकते हैं। वाह भई, सीधे रंगभेद पर उतर आये ? हाँ तो क्या कह रहा था ? ऑफिसर ने कहा, ‘मोबाइल पर्स सब ट्रे पर रक्खें। बेल्ट भी। ‘बाई डेफिनेशन’ यही सिक्यूरिटी चेक है।’ आदेश का पालन करते रहे। इधर मैं, उधर वो। अरे भाई विदेश भ्रमण के चक्कर में मेरी ‘वो’ खो न जाए। इकलौती हैं। बुढ़ौती की दहलीज पर खड़े मैं फिर क्या करूँगा ?

 मेरी खूबी देखकर नहीं, बल्कि पिताश्री की प्रतिष्ठा के कारण ही मुझे वो मिल सकी थीं। उन दिनों मेरी जेब का वजन ही क्या हुआ करता था ? असीम शून्य को गँठिया के चलता था। ससुरजी ने सोचा होगा कि ‘चलो डक्टरोआ की कमाई जितनी भी हो। बेटी के सर पर एक छत तो मिलबे करेगी।’

हाँ, तो हमारे किसी महामहिम को अतलांतिक पार जाने पर जाने क्या क्या खोलना पड़ा था ! वाह रे साम्राज्यवाद! तुमको देना है दाद! क्या क्या  दिखलाओगे, और क्या क्या देखोगे ? एक सवाल – कदंब की डाल पर बैठे नटखट कान्हा यमुना में नहा रहीं गोपिओं का सिक्योरिटी क्लिअरेंस ले रहे थे क्या ? क्या इसी एपिसोड का नाम है वस्त्रहरण ? राधे! राधे! 

ऐम्सटर्डम के समयानुसार दो बजे की फ्लाइट है। यानी छह घंटे का पापड़ बेलन कार्यक्रम। मैं ने अपनी घड़ी को लोकल ‘टाइमानुसार’ मिला लिया था। चलो विदेशी ‘दरबारे परिन्द’ यानी एअरपोर्ट का चक्कर लगाया जाए। मैं ने श्रीमती से कहा, ‘प्लेन में उदर बैंक एकाउन्ट में क्रेडिट तो हो गया था। अब जरा उस एकाउन्ट से डेबिट भी कर लें।’ यानी ‘लू’, यानी ‘नम्बर टू’। (विद्वज्जनों, ऑक्सफोर्ड एडवान्सड् लर्नर’स डिक्शनरी ऑफ करेन्ट इंग्लिश में नंबर वन और नंबर टू उन्हीं अर्थो में दिया गया है। सो कृपया मेरे ऊपर अश्लीलता का, भदेसिया होने का दोषारोपण न करें।) मानस के अयोध्याकांड में है :- बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू।। राम को मनाने जंगल में आये लोगों से वे कहते हैं, ‘आप (वशिष्ठजी) एवं जनकजी के रहते मेरा कुछ कहना सब प्रकार से भद्दा या अनुचित है।’    

तो दिशा निर्देश पढ़ते हुए आगे बढ़ता गया एवं आखिर – वो वो रहा प्रातःकालीन आरधना का वह मंदिर। बस एनक्वैरी काउंटर के सामने यानी बांये। अर्द्धांगिनी को बाहर बिठाकर मैं अंदर हुआ दाखिल। वही सफाई। चमाचम। मगर दो तीन सज्जन पहले से खड़े थे और सामने के दरवाजे अवरूद्ध। तो यह है प्रभात वेला की पंक्ति। कभी वे दायें पैर पर बैलेंस सँभाल रहे हैं, तो कभी बायें पैर पर। यानी जोर का लगल हौ, गुरु! किंचित विलम्ब के पश्चात एक कपाट खुला। मैं ने खुद को रोका। क्योंकि अंदर किनारे में एक श्यामसुंदरी सफाई कर रही है।

अच्छा, यह तो बताइये कि श्यामा के अर्थों में सुंदरी स्त्री के साथ साथ विशेषकर षोडशी का भी उल्लेख क्यों मिलता है ? राजपाल में नहीं है। पर जरा संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर कोश तो खोल कर देखिए। श्रवण कीजिए सूर की विशेषणावली :- श्यामा कामा चतुरा नवला प्रमुदा सुमदा नारि। ‘मेघदूत’ में आये श्यामा शब्द के अर्थ में मल्लिनाथ ने युवती कहा है। भट्टिकाव्य के लिए भरतमल्लिक ने लिखा है :- तप्तकांचनवर्णाभा सास्त्री श्यामेति कथ्यतेः! याद है अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, प्रेम चोपड़ा और शशि कपूर अभिनीत वो फिल्म ‘काला सोना’? मानस के बालकांड में लिखा है कि श्रेष्ठ देवांगनाएँ सुन्दरिओं के भेस में राम विवाह देखने मिथिला पहुँची हैं। सभी स्वभाव से ही सुन्दरी और श्यामा यानी सोलह बरस की लग रही हैं। वाह! नारि बेश जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा।। जरा गौर फरमाइये – हमारे महाकाव्यों के दोनों महानायक पात्र – राम एवं श्रीकृष्ण भी श्याम वर्ण के हैं। कहा जाता है बॉलीवुड में गोरे चिट्टे नवीन निश्चल के पत्ते गोल कर दिये थे एक नये नये आये ऐंगरी इयंग मैन ने। जिनकी ऊँचाई तो काफी थी, साथ साथ वो कुछ साँवले ही थे। टॉल, डार्क एवम् हैन्डसम!

चलिए भाई, समय हो गया। मैं भी हो गया निर्भय। मगर कार्य के पश्चात यह क्या? जलक्रीड़ा करने का तो कौनो साधन नाहीं ! फिर भी काशी में गंगा पार दिशा फिरना एक बात है और यहाँ तो यूरोप के किनारे विदेश की पृष्ठभूमि में उस कार्य का सम्पादन करना – अपने आप में एक चरमोत्कर्ष है। उत्तरी सागर के समीप हॉलैंड की राजधानी में वह लुत्फ उठाना, वाह! मानो अपनी काली काली आँखों से किसी नील नैनवाली से नैना लड़ाना !

मगर होनी को कौन टाल सकता है? नियति को न बाध्यते ? सखा पार्थ को दिव्यरूप दिखानेवाले, गीता का महोपदेश सुनानेवाले घनश्याम अपनी बहन सुभद्रा के लाडले को, यानी अपने भाँजे तक को तो बचा न सके। काम तो सकुशल संपन्न हो गया। मगर सरवा दरवज्जा नहीं खुल रहा है। दाहिने, बांये। हैंडिल घुमाता रहा। परंतु सारी चेष्टा व्यर्थ। खुल जा सिमसिम! चालीस डाकुओं के गुफा में बंद अलीबाबा के भ्राताश्री कासिम की तरह मैं परेशान। आखिर जितनी एबीसीडी की अंग्रेजी आती है, उसी के बल पर मैं चिल्लाया,‘हेल्प! एनि बॉडी देअर ? प्लीज हेल्प!’

थोड़ी देर में वही वामाकंठ – अफ्रीकी सुर में,‘व्हाट हैपेन्ड? एनि बॉडी इनसाइड?’

तो और कहाँ हूँ महारानी ? अब दूर करो मेरी परेशानी !

‘वेट। आयाम यूशिंग माई की -। जस्ट बी पेशेंट।’

अरे बहनजी, यहाँ तो मैं सचमुच का पेशेंट बन गया हूँ। चलो विहंग हुआ मुक्त। बाहर निकलते ही बीवी की बहन मुस्कुराकर कहती क्या हैं,‘पैंट की जीप तो लगा लो।’ 

मन्ना दे याद आ गये। ‘कैसे समझाऊँ ? बड़ी नासमझ हो।’ पहले साबुन से हाथ तो धो लें। सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए।। (बालकांड। शौचक्रिया करके राम लक्ष्मण जाकर नहाये। फिर नित्यकर्म समाप्त करके विश्वामित्र को मस्तक नवाया।)

फिर प्रस्थान। चक्करम् यत्र तत्र। एक उपहार केन्द्र में पहुँचा। लकड़ी के बने खूबसूरत रंगबिरंगी ट्यूलिप के फूल बिक रहे हैं। विभिन्न आकार के। लाल हरे नीले काले पीले वगैरह ….। मगर मूल्य ? बंगला में एक शब्द है – अग्निमूल्य ! जैसे इस समय प्याज का भाव है। अरे हिन्दी के पाणिनी, यहाँ वह शब्द प्रचलित क्यों नहीं है ?बड़े छोटे कई साइज के। कुछ तो गुच्छों में भी बिक रहे थे। आखिर हमने डरते डरते फ्रिज के दरवाजे पर लगाने वाले तीन बनी और टेडी लिए। उपहार में देने के लिए। कीमत? दस यूरो के तीन। यानी सात सौ रुपये। सभी ने कहा था,‘रुपये में हिसाब मत लगाया करना। वरना एक बोतल पानी खरीदना भी दुश्वार हो जायेगा।’

नेदरलैंड होने के कारण इन दुकानों में और एक चीज खूब बिकती है। तरह तरह की वस्तुओं से बनी गाय। सफेद पर काले या भूरे धब्बे। वाह! अच्छा, अगर नंदबाबा अपने कान्हा और बलराम को लेकर यहाँ आते तो क्या होता? बेचारी यशोदा अपने नन्हे को सँभालने की कोशिश करती रहतीं और कन्हैया माँ का हाथ छुड़ा छुड़ा कर भागते,‘बाबू, हम्में वो वाली गाय दिला दो न।’

जो सारी दुनिया को सारा खजाना दे, वही तो ऐसे अकिंचन की भूमिका बखूबी से निभा सकता है।

उसके आगे जाते जाते एक बीयर की दुकान के सामने हम खड़े हो गये,‘अरे यहाँ तो कॉफी भी बिक रही है। चलो।’ मूल्य एवं मात्रा दोनों अच्छी तरह समझ बूझ कर मैं ने एक छोटी कप ली। उसीसे हम दोनों का काम निपट जायेगा। दुकानदार ने बताया तीन साइज की कप में कॉफी मिलती है। लार्ज, मिडियम और स्मॉल। दुकानदार एक नौजवान था। क्या हाइट! उससे बातचीत होती रही। कहाँ से आये हैं? कहाँ जा रहे हैं ? मॉन्ट्रीयल में किसके पास जा रहे हैं ? वहाँ नहीं, किंग्सटन में आपकी बेटी रहती है? वहाँ काम करती है ? अच्छा, आपका दामाद क्वीनस् यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं ? तो फिर आपको इतने दूर कैसे रिश्ता मिल गया ? अच्छा, तो आपके यहाँ अभी भी बाप माँ ही शादी ब्याह का निर्णय लेते हैं ? वाह!

कॉफी पीते हुए अगल बगल बैठे सज्जनों से भी हाय हैलो होता रहा। मैं ने तो पहले से ही पैसा दे रक्खा था। भई, बाद में कोई बखेड़ा खड़ा न हो कि मैं ने तो इतना बताया था आपही समझ न सके, वगैरह। एक लिफाफे में विदेशी मुद्रा लेकर हम चल रहे थे। उसमें कनाडियन डॉलर भी थे। उन्हें देखकर उसने पूछा, ‘अरे ये नोट कहाँ के हैं ?’

‘कनाडा के।’

बस बात शुरू हो गई कि आप कहाँ के हैं? कनाडा में कहाँ जा रहे हैं?

बैठे बैठे आते जाते लोगों को भी देख रहा था। मैं ने श्रीमती से कहा, ‘डच बालायें सुन्दरी हों न हों, मगर उनकी हाइट तो बस माशा अल्लाह! यहाँ की जसोदा तो जमीन पर खड़े खड़ेे अपने कृष्ण के लिए चंदामामा को उतार ला सकती हैं।’

दुकान से निकला। फिर घुमक्कड़ी। नहाने की प्रबल इच्छा हो रही थी। गाड़ी पर बैठे एक सफाई करनेवाले सज्जन से पूछा तो उसने इशारे से दिखा दिया – सीढ़ी से ऊपर चले जाओ।

अरे उधर तो एक दिशा निर्देश भी लगा है। सीढ़ी से उठकर बोर्ड देखा तो धड़ाम। नहाने की फीस पंद्रह यूरो। यानी ……..। अमां, छोड़ो यह हिसाब लगाना। यहाँ तो ऐसे ही पसीने छूट रहे हैं।

बेटी ने कह रक्खा था यहाँ के मैक्डोनल्ड का चिकन बर्गर का स्वाद जरूर लीजिएगा। उसी दूसरी मंजिल पर ही वे दुकानें थीं। पहली दुकान तो सिर्फ वेज की थी। चिकन बर्गर के साथ हमने आम अनन्नास का जूस भी लिया। दोनों उत्तम। ऊपर बैठे बैठे नीचे का नजारा ले रहा था। अरे वो देखो – वो हिन्दुस्तान के लग रहे हैं न? हाँ हाँ, औरत के हाथ में शांखा टाइप की चूड़ी है। सिन्दूर है कि नहीं ख्याल किया ?ऊपर से कैसे देखते भाई ?   

तभी सामने ग्राउंड फ्लोर पर एक उपहार केन्द्र की ओर देखा तो देखते ही रह गया। अरे वाह! एक बड़ी सी गाय की स्टैचू खड़ी है दुकान के सामने। याद आ गया गोदौलिया गिर्जाघर के बीच का चिकन कार्नर की दुकान। जहाँ एक जीता जागता सांड़ हर समय दुकान के अंदर बैठा रहता था। आजकल उसकी मूर्ति है वहाँ। और एक सांड़ की काली मूर्ति है मेनका मंदिर के सन्निकट।

पता चला यहाँ भी हमारी फ्लाइट गेट नम्बर आठ से ही छूटेगी। फिर प्रतीक्षा। हम जब वहाँ पहुँचे तो वहाँ बिलकुल सुनसान था। अरे भाई, हम कहीं गलत जगह पर तो नहीं न आ गये? इधर उधर पूछा। सभी ने कहा – आगे आगे देखिए होता है क्या।

बैठे बैठे चित्रांकन आदि। देखा एक नल से फव्वारे की तरह पानी निकल रहा है। चलो उसे पीकर आयें। एक अफ्रीकी दीदी अपनी छोटी बहन को सँभाल रही थी। बच्ची कितनी निश्चिन्त थी। अँगूठा चूसते हुए मुझे घूर रही थी। ज्यों मेरी नजर उसकी आँखां से मिलती वह मुँह फेर लेती। नन्ही की नजाकत।

एक सज्जन आगे खाली पोर्टिको में बैठे योगा करने लगे। मैं भी वहाँ जाकर जरा अपनी कमर एवं घुटने की सेवा करने लगा। फिर धीरे धीरे उधर ही जमावड़ा इकठ्ठा होने लगा। हम जहाँ बैठे थे, उसकी दाहिनी ओर एक शीशे  की दीवार थी। थोड़ी देर में देखा कि वहाँ पता नहीं कौन सा जापानी मार्शल आर्ट सिखाया जा रहा है। नृत्य के छंद में सशक्तिकरण। लयबद्ध क्रम में सबके हाथ हिल रहे हैं। कभी ऊपर, कभी सामने तो फिर नीचे। चारों ओर तमाशबीन। उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता। वाह! अपने में मस्त।

इतने में नील परिओं का आगमन एवं मेरा मुग्धावलोकन। यानी दीदारे हुस्न। साथ साथ दीदारे हाइट। प्रयोग सही है न? फिर डुगडुगी बजी – चलो, लगो लाइन में। उधर पता नहीं बीच बीच में साइरेन जैसी कैसी आवाज हो रही थी, तो ऑपरेटिंग डेस्क पर बैठा खिचड़ी दाढ़ीवाले ऑफिसर बार बार उधर दौड़ा जाता। यहाँ बस के टिकट की तरह बोर्डिंग पास को फाड़ा नहीं गया। हम अंदर दाखिल हुए।

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

पहली उड़ान :

टिकट कटवाते समय दामाद ने स्थानान्तरण (सीट चेंज) शुल्क अदा करके खिड़की की बगल में सास ससुर की सीट बुक करवा दी थी। इतना तो पता था कि सीट बेल्ट बाँधना पड़ता है। मगर अभैये या बाद में ? चलो भाई, वेटिंग फॉर गोडोट (सैमुएल बेकेट का नाटक)! इतने में घर घर घर घर। बिलार के गुर्राने की तरह प्लेन की मशीन चलने लगी। पहले डच भाषा में, फिर अंग्रेजी में स्वागत अभिभाषण । फ्लाइट के बाल कांड एवं उत्तरकांड में यानी आदि एवं अंत में हिन्दी में भी। कुर्सी के सामने की सीट के पीछे सीट बेल्ट लगाने की विधि एवं अन्य सावधानियाँ लिखी हुई हैं।

उन्हें पढ़ते ही मेरी अन्तरात्मा चीख उठी – अरे कोई है? मुझे किसने हवाई जहाज पर चढ़ाया ? मुझे गगनविहारी नहीं बनना। अरे भार्या के भ्राता, मुझे उतारो। इतने में सामने लगी टीवी स्क्रीन पर इमर्जेन्सी एक्सिट समझा रहा था – कि मुड़कर देख लो तुम्हारी सीट के नजदीक कौन सा इमर्जेन्सी गेट है। प्लेन में आग लगे या विमान दुर्घटनाग्रस्त हो तो गले में ट्यूब लटकाकर उस गेट से खिसक जाना। नीचे कूद जाना। अरे बापरे! मजाक समझ रक्खा है क्या ? तोर गिरा में लगे आग। तिस पर तुर्रा यह कि विमान के अंदर ट्यूब को मत फुलाना। नीचे गिरते हुए या गिर जाने के बाद उसे फुलायें ? अईयो अम्मां ! गिर जाने के बाद उसे फुलाने की जरूरत रह जायेगी ?

इधर उधर देखा। क्या करता ? किसी ने कहा था – खूब सिनेमा देखना। सामने की सीट के पीछे लगी टीवी स्क्रीन को जीवंत करने के लिए कुर्सी की बगल से रीमोट उठा कर खटखुट करता रहा। मगर सारी प्रचेष्टा व्यर्थ। आखिर सामने की सीट पर बैठे सज्जन के पास पहुँचा,‘जनाब, जरा बतलाने की कृपा करें कि टीवी को कैसे चलायें ?’

उन्होंने अपने रीमोट पर सारे भेद बता दिये। मगर क्या देखें ? हाँ, दूसरे की स्क्रीन पर देखा कि शाहरूख का ‘चक दे इंडिया’ चल रहा है। फिर लिस्ट में पढ़ा कि ऋशि कपूर – श्रीदेवी की फिल्म ‘चाँदनी’ भी इनमें शामिल है। बालीवुड जिन्दाबाद ! हिन्दी फिल्म रहे आबाद ! मैं कार्टून ही देखता रहा। रवीन्द्रनाथ ने ‘शिशु भोलानाथ’ में कुछ ऐसा लिखा है :- छोटा बच्चा बनने की हिम्मत किसको है ? केवल चीज बटोरने की फिकर सबको है !       

निशावसान हो चला था। करीब चार बजे तक यानी ब्राह्ममुहूर्त में एक नील परी का आगमन हुआ। ट्रे से निकाल कर वह गर्मा गरम टिश्यूपेपर नैपकिन थमा गयी। गरमा गरम कचौड़ी नहीं। हाथ पोंछ लेने के पश्चात प्रतीक्षा और इंतजार। अंग्रेजी के ‘वेट’(प्रतीक्षा) शब्द की वर्तनी को जरा बदल दो तो वह ज्यादा वजनदार हो जाता है कि नहीं?

मैं ठहरा बनारसी, बंगाली, विप्र (एवं वैद्य भी)। एक बनारसी पंडित की कहानी याद आ गई।

किसी ने अपने बाप की तेरही में उस पंडित को निमंत्रण दिया था। तो उस दिन सुबह सुबह नहा धो लेने के पश्चात किसी तरह ओम नमो विवश्वते कहकर वह दौड़ा उस जजमान के घर,‘श्राद्धादि का कार्य सकुशल सम्पन्न हो गया है न ?’

‘जी पंडितजी, अभी तो हवन का कार्य चल रहा है। अभी भोग लगने में देरी है।’

‘अच्छा, जरा अपनी घड़िया चेक कर लो बाबू। कहीं उसकी बैटरीये न डाउन हो।’

‘मेरी घड़ी तो टाइमे से चल रही है। आप समय से आइयेगा।’जजमान ने अपने हाथ जोड़ लिये।

‘ठीक है। ठीक है। तथास्तु।’

खैर, दोपहर का खाना निपट गया। पंडितजी ने खाया, एवं खूब डकारा भी। सीधा बांधा। फिर मेजबान की स्तुति करने एवं उसे थैंक्यू कहने पहुँच गये,‘क्या सोंधी सोंधी कचौड़ी थी, गुरु। देशी घी की खुशबू से तबीअत प्रसन्न हो गया। बैकुंठ में बैठे तुम्हारे पिताश्री भी प्रसन्न हो रहे होंगे। और बेसन के लड्डू की तो बाते न पूछो। हाँ तो भैया, फिर कब ऐसा दिव्य भोजन करवा रहे हो ?’

‘मतलब !?’ वह जजमान जरा अचंभे में पड़ गया। पंडितजी कहना क्या चाहते हैं ?

‘यानी तुम्हारी अम्मां का स्वर्गवास कब होने वाला है ?’

क्या इसके आगे कहानी को जारी रखना जरूरी है? यह तो गनीमत थी कि स्वर्गीय पिता की त्रयोदशा होने के कारण उसदिन मेजबान नंगे पैर थे। वरना…..      

हमारे पेट में चूहे कूद नहीं रहे थे, वे ओलम्पिक की तैयारी कर रहे थे।

सामने के बिजनेस क्लास और इधर के इकोनॉमी क्लास के बीच जो वर्ग विभाजन का पर्दा लहरा रहा था, उसे हटाकर एक ट्राली का आविर्भाव हुआ। ड्रिंकस् का दौर शुरू हो गया। हमने एक ऐपेल जूस और एक ऑरेंज जूस लिया। धत्, तेरी की। सेब के जूस का स्वाद तो बिलकुल दवा जैसा है !

फिर डिनर। मुर्गे बांग देने के वक्त डिनर ? पारिभाषिक शब्दावली में यह सही है न? ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी कहती है :- मध्यदिन या शाम के वक्त का मुख्य भोजन है डिनर। चेम्बर्स का कहना है :- प्राचीन फ्रेंच शब्द डिसनर का अर्थ है ब्रेकफास्ट यानी नाश्ता। लैटीन का डिस यानी ‘नकारना’ (जैसे डिसकरेज, डिसमिस) और ‘जेजुनस’ यानी उपवास से डिसनर बना है। तो उपवास तोड़ने का मतलब तो ब्रेकफास्ट ही न हुआ? फ्रान्स और इंगलैंड के बीच भले ही कितने झगड़े हों, कनाडा पहुँचने पर तो उनके युद्ध और संघर्ष वगैरह के बारे में और भी बहुत कुछ पता चला, फिर भी यह सच है कि अंग्रेजों का भोजन या डिनर शब्द तो फ्रेंच लोगों की ही देन है। हाँ एक बात और – डिनर डान्स तो शाम को ही न होता है? डिनर जैकेट तो शाम की ही पोशाक है न ? खैर, वेज नॉनवेज किसी ने पूछा भी नहीं। एक प्लास्टिक के ट्रे में ये सामग्रियाँ आयीं – ब्रेड – एक लंबा और एक गोल। गोलवाला गरम था। कच्ची पातगोभी, गाजर – यह सब्जी है क्या? फिर दही जैसा कुछ। लंबेवाले ब्रेड में अदरक के साथ कुछ मसाले। बर्गर ? साथ में एक लम्बे लिफाफे में प्लास्टिक के डिसपोजेबल कांटा, चम्मच, टिश्यू पेपर आदि। कुल मिला के मजा नाहीं आयल, गुरु।

जामाता ने खिड़की की बगलवाली सीट तो बुक करवा दी थी। मगर इस अँधेरे में नजारा क्या लेते ? कहाँ मेघ और मेघदूत ? कहाँ उमड़ते घुमड़ते बादल? कहाँ नीलाकाश के नैन का निमंत्रण ? हम दोनों तो कुछ निराश ही हो गये। यहाँ तो – इस रात की हर ख्वाब काली। दिल की बात कहो घरवाली। खैर, बीच बीच में उठते रहे। ताकि घुटने के कब्जे या जोड़ में जंग यानी मोरचे न लग जाए। हाँ, उड़ते समय विमान का पंख फरफराना, फिर सीधी उड़ान भरना – इनमें न आया चक्कर, न बजे कान। जबकि श्रीमती ने पहले से ही रुई का गोला हाथ में थमा दिया था। मैं ने देखा एक वृद्धा बाला भी दिव्य बैठी हुई हैं। बेहिचक। दिल ने कहा,‘धत, इसकी क्या जरूरत है ?’

नींद आयी या सिर्फ भरमायी ? पता नहीं। मैं तो संयम बरतता रहा। घड़ी नहीं देखी। जब मर्जी पहुँचो, प्यारे। हम धरती से काफी ऊँचाई पर अंबर में उड़ रहे थे। साथ में बहता समय का महासागर। तो फिर उतावली किस बात की ? केबिन की बत्तियाँ बुझा दी गई थीं। पूरा माहौल एक धुँधलकी रोशनी में सराबोर। न प्रकाश, न अंधकार। एक छायाभ, बस। जाने कब फिर चारों ओर बत्तियां जल उठीं। इतने में घोषणा – ऐम्सटर्डम आनेवाला है। नेदरलैंडस यानी हॉलैंड की राजधानी। यह देश यूरोप के पश्चिमोत्तर छोर पर स्थित है। इसके बाद तो नर्थ सी। फिर अटलांटिक महासागर को पार करना है।     

इतने में नाश्ते की ट्रे हाजिर। यह कुछ ठीक है। बन, ब्रेड, आलू और स्ट्राबेरी दिया हुआ दही – यह अच्छा था। इसी तरह और कुछ।

अरे हाँ, हर बार भोजन के साथ ‘ड्रिंक्स’ की संगति भी। यह जग है बोतल जैसा, उस बिन जीना भी कैसा ? साथ साथ फलरस। अमृत कलश छलकता जाए …..

फिर से यह बाँधो, वह बाँधो। आ गया है एक किनारा। पंछी को नभ का था सहारा।

उधर देख लो परदेश का नजारा। जिन्दगी में पहली बार। ऐम्सटर्डम दिख रहा है। क्षितिज तक फैले हुए खेत। बीच से बहती नदी। एक विहंगम दृश्य। सब कुछ कितना हरा भरा है !

‘सँभाल कर अपना बैग ऊपर से उतारें। किसी के सर के ऊपर वह लैंड न कर जाए। ऐम्सटर्डम का समय यह है ……वगैरह वगैरह। ’आकाश में वाणी प्रसारित होने लगी।

फिर से एअर क्रू का मुस्कुराना,‘बाई! फिर मिलेंगे।’

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 1 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 1 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आज से आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

जफर के शहर में :

चल उड़ जा रे पंछी, कि अब यह देस हुआ बेगाना! तो लीजिए, आ गयी पहली मंजिल। जब हम दोनों मियां बीबी नई दिल्ली स्टेशन के प्लैटफार्म पर उतर आये तो मड़ुवाडीह से दिल्ली तक की सहयात्री उस गुजराती महिला ने पूछा,‘कहाँ जाइयेगा?’

‘पहाड़गंज।’

‘ओ! हमें तो दूसरी ओर जाना है। तो फिर, जय श्रीश्याम!’

अब हमें क्या मालूम कि पहाड़गंज किस पहाड़ पर स्थित है ? वैसे उन लोगों ने सुबह सुबह हमारी खातिरदारी करने की काफी कोशिश की थी,‘अरे लीजिए न। घर की बनी पूरी है। नमकीन है।’ उनके पिताजी तो बीच बीच में बंगला में भी कहने लगे थे,‘आरे खेये निन। किछू हबे ना। आमादेर काछे एतो आछे, कि होबे ?’हमारे पास इतना सारा है, क्या करूँगा इनका ?

मगर एक तो ट्रेन लेट थी, फिर न मुँह मार्जन हुआ, कइसे इ कुल गले के नीचे उतारें? चाय की बात तो अलग है। आखिर पेट के इंजन में भाप न हो तो वह चलेगा कैसे?

रात में उन्हें मड़ुवाडीह स्टेशन तक छोड़ने जाने कितने लोग आये थे। शायद समधी एवं समधी के बेटे प्लस और भी रिश्तेदार। कोई उनका पैर छू रहा था, तो कोई उनसे भरत मिलाप कर रहा था। और वे सभी को ‘जय श्री श्याम , जय श्री श्याम’ कर रहे थे। बनारस के ठठेरी बाजार (जहाँ भारतेन्दु भवन स्थित है) के गुजराती अवाम तो ‘जय श्री कृष्ण!’से ही काम चलाते हैं। और इस माछी भात खानेवाले दंपति की हालत जरा सोचिए। लाख ना ना करने के बावजूद मेरी छोटी भ्रातृजाया रूमा ने हमारे लिए मटन की एक नयी डिश बना कर दी थी – ट्रेन में खाने के लिए। उधर वैष्णव और इधर शाक्त।‘बड़े भैया और दीदीभाई को उनके फॉरेन ट्रिप में एक नयी चीज खिलाऊँगी।’

मुँह में पानी आ रहा था पर हम मना रहे थे,‘हे प्रभु ,हमारी डिश की खूशबू उन लोगों तक न पहुँचे!’

‘कहाँ जाना है साहब?’

‘कामा गेस्ट हाऊस। चूनामंडी।’ नई दिल्ली स्टेशन से हम दोनां पहाड़गंज की ओर से बाहर निकले कि सामने आटोवाले आ धमके। आते समय ओवरब्रिज पर एक जगह तो इतनी भीड़ थी कि एक मक्खी को भी आगे बढ़ने के लिए हौसला बुलन्द होना चाहिए। वहाँ लोहे का बैरिकेड लगाकर शायद कोई मरम्मत का कार्य प्रगति पर था। उसीमें एक प्रज्ञाचक्षु अपने दोस्त का हाथ पकड़ कर चल रहे हैं। तो मैं अपना सूटकेस लेकर भीड़ की लहरों से लोहा लूँ या उनसे ‘पहले आप’ की शराफत निभाऊँ ?

अभी कुछ दिन पहले मेरे छोटे मामा और मामी दिल्ली आये हुए थे। वे बराबर इसी होटल में ठहरते हैं। सो उन्होंने ही हमारे लिए यहाँ कह रक्खा था। तो जब ऑटोवाले पूछ रहे थे तो मैं ने उस होटल का नाम बताया और पूछा, ‘क्या लोगे?’

‘दस रुपये।’

मैं चौंका। अरे बापरे! यह क्या किस्सा है ? सवा सेर भाजी, सवा सेर खाजा? बनारस में तो ऐसे रिक्शा पर बस चढ़ते ही आजकल बीस रुपये हो जाते हैं। क्या कामा गेस्ट हाऊस स्टेशन प्रांगन में ही खड़ा है? तबतक उसने खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे के अंदाज में फरमाया,‘अगर बुकिंग नहीं है तो चलिए दूसरे होटल में पहुँचा देते हैं। साफ बात है – वे हमें पचास देते हैं। हम आपसे दस ले रहे हैं। यही रेट है।’

तबतक मंच पर खाकी वर्दी का आविर्भाव। मक्खिओं को हाँकने के अंदाज में उनका फरमान,‘ऐ यहाँ से हटो।’

पति पत्नी हो गये रिक्शे पर विराजमान। चल निकली सवारी की शान। चलो मन गंगा जमुना तीर …..

आज रात दिल्ली में डेरा जमायेंगे। कल दिल्ली को कहेंगे – गुडबाई! कनाडा के लिए। वहाँ मॉन्ट्रीयॉल और टोरॅन्टो के बीच किंगसटन नामक नगर में निवास करते हैं हमारे बिटिया दामाद।

रमजान का पाक महीना था। तो सोचा आज की शाम दिल्ली के नाम। मेट्रो से पहुँचा चाँदनी चौक। फिर पूछते हुए मेट्रो स्टेशन से पराठा गली। वहाँ रिक्शा ले रहा था तो लगा, यह दिल्ली नहीं ढाका है क्या? इतने सारे बंगाली रिक्शेवाले? इधर के कि उधर के? खुदा जाने। पूछने पर तो उस रिक्शेवाले ने बताया कि उसका देसेर बाड़ी पश्चिम दिनाजपुर में है। यानी इस तरफ। आफताब अलविदा करे, इसके पहले ही हम पहुँचे जामा मस्जिद। उस समय असर की नमाज के बाद रोजेदार इफ्तार कर रहे थे। चारों ओर फल, बिरियानी और तरह तरह के पकवानों की खुशबू। खुदा के दरबार में इंसानों का मेला। फिर अजान की आवाज आयी। लोग धीरे धीरे अंदर दाखिल होने लगे।

वापसी में पराठा गली का जायका। विथ लस्सी। फिर बैक टू पैविलिअन – कामा गेस्ट हाऊस , चूनामंडी। अगले दिन सुबह केएलएम फ्लाइट का चेक इन कर लिया। सबकुछ जिन्दगी में पहली बार हो रहा था। पहला अहसास। एक इंटरनेट कैफे ढूँढ़कर प्रिंट आउट भी ले लिया। कोलोन में बैठा बेटा बार बार हिदायत देता रहा। उधर दामादराम ने नाको दम कर रखा था कि रूम में एसी है कि नहीं। सो हमने रूम की फोटो लेकर व्हाटस ऐप पर भेज दिया। लो भई, डकुमेंटरी एविडेंस। बेचारे को फिकर इस बात की है कि उसके सास ससुर को रास्ते में जरी सी भी तकलीफ न हो। वाह! करीब चौबीस घंटे – प्लेन में या एअरपोर्ट में – जो आसन जमा कर बैठना पड़ेगा, उसका क्या ?

जनाब, ओला कैब को मैं ने स्मार्ट फोन पर इन्सटॉल तो कर लिया था, मगर उसे बुक करना हम देहातिओं के लिए इतना आसान कहाँ? स्मार्ट फोन को हैन्डिल करने लायक स्मार्ट हम थोड़े न हैं। हाथ में स्मार्ट फोन धरे हम अनस्मार्ट बने बैठै रहे। कोई डाइरेक्ट वार्तालाप तो हो नहीं रहा था। सब रिकार्डेड मेसेज। यह नंबर दबाओ, वह नम्बर दबाओ। हाँ, बाद में पता चला कि हर शहर के लिए उनलोगों का एक ही फोन नम्बर है। खैर, सीधे फोन पर बात हुई। गाड़ी आयी। हमने ली दिल्ली से बिदाई।

सुबह ही चेक इन कर रक्खा था, तो कुछ इतमीनान था। फिर भी डरते डरते – पहली बार हवाई सफर प्लस विदेश यात्रा होने के कारण यह बनारसी मियां बीवी करीब दस बजे एअर पोर्ट में दस्तक देने पहुँच गये।

जहाँपनाह, आलीजाँ, हम हो गये हाजिर !

चलो, वहाँ खड़े हो जाओ। बेल्ट, पर्स, कीरिंग वगैरह झोले में भरो। यह लिखो, वो लिखो। वहाँ क्यों जा रहे हो? वहाँ कौन है? राहे मोहब्बत आसान नहीं है यार। कुछ पटाने में (वीसा बनाने में) लग गये, कुछ इंतजार में! …..आखिर….

शाम से कुछ खाया नहीं था। होटल में एक चाय मँगाकर उसी से ….। इस पार प्रिये तुम हो, चाय है, एक सागर (पानपात्र) से हो जायेगा! सोचा आइसक्रीम से गला तर कर लूँ। सुन रक्खा था पंछी उड़ने के एक डेढ़ घंटे बाद लोग दिव्य भोजन करवायेंगे। तो काँहे के खर्च करूँ जेब से अठन्नी भी ? मगर एक छोटे कप आइसक्रीम का ही 249 ! अबे दिल में हो दम, तो क्यों ले रहा है 250 से कम?आखिर पचास रुपये की कुल्फी पर जाकर नजरें टिकीं। मगर वहाँ भी हाथी का दाँत। दिखाने के और, खाने के और। सर्विस टैक्स लेकर 60रु। चल बेटा, निकाल 120। गला सूख कर काँटा होने दे। तब न आइसक्रीम का मजा आयेगा। 

दो एकबार वाशरूम जाना पड़ा। वाह जनाब, इसे कहते हैं क्लास। अब तक तो रेलवे वेटिंग रूम में या सुलभ शौचालय में नरक दर्शन होता रहा। आज नजारा ए जन्नत का दीदार हो गया। क्या बात है!

सिक्यूरिटी वगैरह की लक्ष्मण रेखा पार करके हम पहुँचे दिल्ली बाजार के सामने। चारों ओर सजी हुई दुकानें। रोशनी की चकाचौंध। आराम से एक सोफा पर बैठकर चारां ओर नजर घुमा रहा था। मुन्नाभाई बीएचयूवाले (डा0 आनन्दवर्धन) का लास्ट मिनट टिपस् आया – गेट नम्बर आठ में पहुँच कर लम्बे सोफे पर लम्बा हो जाइये। उड़नखटोले पर उड़ते समय जबड़ा चलाते रहियेगा। इसलिए चुइंग गम खरीद लीजिए। मन में जागा स्वाभाविक जिज्ञासा – क्या गरूड़ारोहन करते समय भगवान विश्णु भी चुइंग गम चबाते रहे? पुराण का एक प्रश्न। आनन्द के कथनानुसार चुइंगगम लेने पहुँचा। 80रु पैकेट। भलीभाँति समझ में आ गया कि ‘गम’ की भी कीमत होती है।        

कभी कोई सोच भी सकता है कि रात एक डेढ़ बजे भारतीय रेलवे का पूछताछ काउंटर खुला है? मगर यहाँ खुला भी है और कोई सूचना माँगने पर महोदय हँस कर जवाब भी दे रहे हैं। यह मेरा इंडिया और वो मेरा इंडिया – ये भी इंडियन, वो भी इंडियन। तो फिर यह फर्क काँहे का माई डिअर ? बैंक, रेलवे, कचहरी, कारपोरेशन आदि सरकारी दफ्तरों में किसी से कुछ पूछो तो वे ऐसा मुखड़ा बनाते हैं जैसे हम उनके घर का किवाड़ या दरवाजा खटखटा रहे हैं। बिजली विभाग या नगरमहापालिका की तो बात ही छोड़िए। उससे तो नरकदर्शन शायद अच्छा। कितने गम हैं जमाने में गालिब !

सूचना मिली आठ नम्बर गेट से प्लेन उड़ान भरेगी। और वह काफी दूर है। मगर उस सज्जन ने कहा,‘आप एअरपोर्ट टैक्सी से जा सकते हैं।’

इधर उधर कितनी सारी सजी हुई दुकानें। इतनी रात गये अभी भी सब जगमगा रहे हैं। उधर सामने एक ‘सरस्वती’ की दुकान भी। बहुत अच्छी लग रही है – करीने से सजी हुई किताबें। पर कब तक सिर्फ नेत्रों से खरीदारी यानी विन्डोशॉपिंग करें? आगे बढ़ता गया। उधर पहुँचा तो ट्रान्सपोर्टर बेल्ट चल रही है। चलो भइया, खड़े खड़े चले चलो। गति एवं स्थिरता की युगलबंदी। गेट नंबर आठ कोई यहाँ तो है नहीं। बहुत दूर है। ट्रान्सपोर्टर बेल्ट जहाँ खतम होती है, वहाँ से भी काफी आगे है वह द्वार। अतः एक एअरपोर्ट के चार पहिये को हाथ दिखाया। एक नहीं रुका। अगला रुक गया। एक अफ़्रीकी सहयात्री विराजमान थे। शकट से उतरते समय उन्होंने चालक की ओर एक नोट बढ़ा दिया।

‘ओह नो। थैंक्यू।’

मेरा सीना छत्तीस इंच का हो गया।

अपनी मंजिल में उतरकर हम एक सोफे पर बैठ गये। अभी करीब दो घंटे बाद फ्लाइट है। यानी तीन बजे के करीब। उसे रात कहें या भोर ? अरे सहगल साहब, आपने तो गाया था – सो जा राजकुमारी सो जा। क्यों जनाब, राजकुमारों को सोने की जरूरत नहीं है क्या ? आँखों में बैठी निंदियारानी, बढ़ा रही थी और परेशानी। सोचा जरा कलमबाजी कर लूँ। बैठे बैठे पैड पर कुछ स्केच बनाता रहा – चारों ओर दुनिया का सर्कस। फिर कुछ लिखने का प्रयास किया। मगर हाथ का दोस्त भी दगा दे गया। दिमाग लुँज। गीता में क्या लिखा है न कि जब सारी दुनिया सोती है तो जोगी लोग जागते हैं। हे विधाता, मैं जोगी थोड़े न हूँ।

अरे तुलसी बाबा ने मानस के अयोध्याकांड में लक्ष्मणजी का डायलॉग दिया है न, जब वे निशाद को समझा रहे थे? –

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी।। जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिशय बिलास बिरागा।।  तो, इस जगत्रूपी रात्रि में योगीलोग जागते रहते हैं। जो कि जगत के प्रपंचों से मुक्त परमार्थी हैं। इस जगत में जीवको तभी ‘जागा’ हुआ समझिये जब वह सम्पूर्ण भोग विलास से वैराग्य ले ले।

वहाँ बैठे बैठे हम ऊँघते रहे। खट खुट खट खुट। एअरपोर्ट के कर्मचारी घेरे के स्टैंड को ट्राली पर रख रहे हैं। बीच के दरिया (ट्रान्सपोर्टर बेल्ट) के उस पार ईथिओपिया या जाने कहाँ की फ्लाइट के यात्रिओं को हँस हँस कर सुंदरियाँ आवभगत कर रही हैं। मुझे याद आ गया विभूति एक्सप्रेस के थर्ड एसी के बंगाली टीटी का चेहरा। ‘बाथरूम में पानी नहीं है’, कहने पर उसने जो मुँह बनाया, उसकी तुलना कतवार में पड़े पावरोटी के टुकड़े के लिए लड़ते झगड़ते सोनहा के दाँतों से ही की जा सकती है।

रात के कितने बजे हैं ?इसे यामिनी का कौन सा प्रहर कहा जाता है? मुर्गी क्या मुर्गे के लिए चाय बना रही है? यह कह रही है कि,‘मियाँ, ब्रश करके चाय पी लो। अभी तुम्हे बांग देनी है!’

इतने में बगल से गुजरने लगी नील परियाँ। जनाब, क्या हाइट है। अमिताभ बच्चन भी शर्मा जाए। मैं ठहरा उनका नामराशिमात्र। मैं तो जमीं में गढ़ गया। ये ही हैं केएलएम की एअरहोस्टेस। मेड इन हालैंड।

धीरे धीरे समय खिसकता गया। लंदन प्रवासी जर्मनी के दाढ़ीबाबा दार्शनिकों ने लिखा था – दुनिया का (लिपिबद्ध) इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। तो यहाँ भी पता चल गया क्लास यानी वर्ग क्या है। बिजनेस क्लास पहले, फिर इकोनॉमी क्लास की लाइन। उनका स्वागत पहले। लगे रहो लाइन में। असल में मुझे चलने में दिक्कत नहीं होती, मगर खड़े रहने पर घुटना कराहने लगता है। चलना ही जिन्दगी है, रुकना मौत तेरी …..  

फिर बोर्डिंग पास फाड़ो, आगे बढ़ जा यारों। जैसा सिनेमा या न्यूज चैनेल में देखा है, ना कोई वैसी बस , न प्लेन में चढ़ने की सीढ़ी। हाँ वतन लौटने पर स्पाइस जेट में वही व्यवस्था देखी। खैर, सीधे पहुँच गया प्लेन के अंदर। साथ में सहास्य स्वागत। मानो – हमारे अँगने में तुम्हारा ही तो काम है !

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक २० – भाग १ – कंबोडियातील अद्वितीय शिल्पवैभव ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २० – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ कंबोडियातील अद्वितीय शिल्पवैभव ✈️

सिंगापूर आणि थायलंड हे देश आपल्या परिचयाचे आहेत. बँकॉक म्हणजे थायलंडच्या राजधानीला अनेकांनी भेट दिली असेल. थायलंडला जोडून आग्नेय दिशेला  कंबोडिया नावाचा एक छोटासा देश आहे. बँकॉकला विमान बदलून आम्ही कंबोडियाच्या सियाम रीप या आंतरराष्ट्रीय विमानतळावर उतरलो.

कंबोडियाचे आधीचे नाव कांपुचिया तर प्राचीन नाव कंबुज असे होते. इसवी सन ९७४ मधील तिथल्या एका संस्कृत शिलालेखाप्रमाणे दक्षिण भारतातील एका राजाने कंबोडियाच्या नागा राजकन्येशी विवाह केला होता. सियाम रीपपासून जवळच अंगकोर नावाचे ठिकाण आहे. अंगकोर ही त्यावेळी कंबोडियाची राजधानी होती. अंगकोर येथे १८०० वर्षांपूर्वी बांधलेला हिंदू देवालयांचा एक शिल्पसमूह  ७७ चौरस किलोमीटर एवढ्या प्रचंड परिसरात आहे. इथल्या अद्वितीय शिल्पकलेवर तामिळनाडूतील चोला शैलीचा तसेच ओरिसा शैलीचा प्रभाव जाणवतो.सॅ॑डस्टोन, विटा व लाल- पिवळा कोबा वापरून उभारलेले हे शिल्पांचे महाकाव्य जगातील सर्वात मोठे धार्मिक शिल्पकाम समजले जाते.

प्राचीन काळापासून इथे खमेर संस्कृती नांदत आहे व आजही इथले ९०% लोक खमेर वंशाचे आहेत. त्यांची लिपी व भाषा खमेर आहे. कंबोडियावर अनेक शतके व्हिएतनाम, थायलंड, चीन, जपान, फ्रान्स अशा अनेक देशांनी राज्य केले. सोळाव्या शतकात धाडसी युरोपीयन प्रवाशांना इथल्या जंगलात फिरत असताना अंगकोर इथल्या शिल्पसमूहाचा अकस्मात शोध लागला.

अंगकोर वाट ( मंदिर )हे बरेचसे सुस्थितीत असलेले प्रमुख देवालय आहे. राजा सूर्यवर्मन (द्वितीय ) याच्या कारकिर्दीमध्ये हे देवालय १२ व्या शतकाच्या पूर्वार्धात बांधण्यात आले. या अतिशय भव्य, देखण्या मंदिराला पाच गोपुरे आहेत. यातील मधले उंच गोपूर हे मेरू पर्वताचे प्रतीक मानले जाते. ही मेरू पर्वताची पाच शिखरे मध्यवर्ती मानून साऱ्या विश्वाची प्रतीकात्मक स्वरूपात उभारणी होईल अशा पद्धतीने पुढील प्रत्येक राजाने इथले बांधकाम केले आहे.  मंदिराभोवतालचे तळे सागराचे प्रतीक मानले जाते. गुलाबी कमळांनी भरलेल्या तळ्यात मंदिराचे देखणे प्रतिबिंब पाहून मंदिर प्रांगणातील उंच, दगडी पायऱ्या चढायला सुरुवात केली.

जगातील सर्वात मोठी श्रीविष्णूची आठ हात असलेली भव्य मूर्ती इथे आहे. शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण केलेल्या, खांद्यावरून सिल्कचे सोवळे पांघरलेल्या या मूर्तीची आजही पूजा केली जाते. परंतु या मूर्तीचे मस्तक आता भगवान बुद्धाचे आहे.खमेर संस्कृतीमध्ये हिंदू व बौद्ध या दोन्ही धर्मांचा प्रभाव होता. श्री विष्णूचे मूळ मस्तक आता म्युझियम मध्ये आहे.

या मंदिराच्या दोन्ही बाजूच्या लांबलचक ओवऱ्या त्यावरील सलग, उठावदार, प्रमाणबद्ध कोरीव कामामुळे जगप्रसिद्ध आहेत.  ६०० मीटर लांब व दोन मीटर उंच असलेल्या या दगडी पॅनलवर रामायण व महाभारत यातील अनेक प्रसंग अत्यंत बारकाईने कोरलेले आहेत. कुरुक्षेत्रावर लढणारे कौरव-पांडव, त्यांचे प्रचंड सैन्य, हत्ती, घोडे, रथ व त्यावरील योद्धे, बाणाच्या शय्येवर झोपलेले भीष्म,बाणाने वेध घेणारे द्रोणाचार्य , भूमीत रुतलेले रथाचे चाक वर काढणारा कर्ण, अर्जुनाच्या रथाचे सारथ्य करणारा श्रीकृष्ण, हत्तीवरून लढणारा भीम व त्याच्या ढालीवरील राहूचे तोंड असे अनेकानेक प्रसंग कोरलेले आहेत.

पायाला बांधलेल्या उखळीसकट रांगणारा कृष्ण, कृष्णाने करंगळीवर उचललेल्या गोवर्धन पर्वताखाली आश्रय घेणारे गुराखी व गाई, आपल्या वीस हातांनी कैलास पर्वत हलविणारा रावण,  शंकराला बाण मारणारा कामदेव, कामदेवाच्या मृत्यूनंतर रडणारी रती, वाली व सुग्रीव युद्ध, वासुकी नागाची दोरी करून समुद्रमंथन करणारे  देव-दानव, त्या समुद्रातून वर आलेले मासे, मगरी, कासवे ,आकाशातील सूर्य- चंद्र, कूर्मावतारातील विष्णूने तोलून धरलेला मंदार पर्वत अशा अनेक शिल्पाकृती पाहून आपण विस्मयचकित होतो.

दुसऱ्या बाजूच्या पॅनेलवर सूर्यवर्मन राजाची शाही मिरवणूक आहे. यात प्रधान, सेनापती, हत्ती, घोडे, रथ,  बासरी , ढोलकी व गॉ॑ग वाजविणारे वादक दाखविले आहेत. त्या पुढील पॅनलवर हिंदू पुराणातील स्वर्ग-नरक, देव-देवता, रेड्यावरील यमराज दाखविले आहेत. या सबंध मंदिरात मिळून जवळजवळ  १८०० अप्सरांचे पूर्णाकृती शिल्प आहे. त्यांच्या केशरचना, नृत्यमुद्रा, भावमुद्रा, दागिने, वस्त्रे पाहण्यासाठी जगभरचे कलाकार आवर्जून कंबोडियाला येतात.  विविध ठिकाणी शंकर, मारुती, गणपती यांच्या छोट्या मूर्ती आहेत. हे गणपती दोन हातांचे, सडपातळ व सोंड पुढे वाकलेली असे आहेत. जिथे गणपतीला चार हात आहेत तिथे मागील दोन हातात कमळ, चक्र आहे.

वास्तुशास्त्राचा अजोड नमुना म्हणून वाखाणलेल्या या देवालयाचे एकावर एक तीन मजले आहेत. लांबलचक कॅरिडॉर्स व उंच जिने यांनी ते एकमेकांना जोडलेले आहेत. दुसऱ्या मजल्यावर जाताना भगवान बुद्धाचे उभे व बसलेले वेगवेगळ्या मुद्रांमधील अनेक पुतळे आहेत. गॅलरीच्या दोन्ही बाजूच्या खांबांवर नागाची शिल्पे आहेत. तिसऱ्या मजल्यावर जाण्यासाठी पाच मजले उंच शिडी चढून जावे लागते. तेथील गच्चीवरून या मंदिराची रचना व आजूबाजूचा भव्य परिसर न्याहाळता येतो. मंदिराच्या गॅलऱ्यांचे दगडी खांब एखाद्या लेथवर केल्यासारखे गुळगुळीत, सुरेख वळणावळणांचे आहेत. वास्तुशास्त्राचा उत्तम नमुना असलेले, भव्य पण प्रमाणबद्ध रचना असलेले, असंख्य रेखीव शिल्पाकृती असलेले हे महाकाव्य भारावून टाकणारे असेच आहे.

अंगकोर थोम ( शहर ) येथील गुलाबी कमळांच्या तळ्यावरील छोटा पूल ओलांडला की रस्त्याच्या एका बाजूला देव तर दुसऱ्या बाजूला दानव सात फण्यांच्या नागाचे लांबलचक जाड अंग धरुन समुद्रमंथन करताना दिसतात. या नगरीचे प्रवेशद्वार २३ मीटर्स म्हणजे जवळजवळ सात मजले उंच आहे. त्यावर चारी दिशांना तोंडे असलेली एक भव्य मूर्ती आहे. प्रवेशद्वाराशी दोन्ही बाजूंना तीन मस्तके असलेला इंद्राचा ऐरावत आहे. हत्ती सोंडेने कमळे तोडीत आहेत. त्यांच्या सोंडा प्रवेशद्वाराचे खांब झाले आहेत. अशी पाच प्रवेशद्वारे असलेल्या या शहराचा बराचसा भाग आता जंगलांनी व्यापला आहे. आठ मीटर उंच व प्रत्येक बाजू तीन किलोमीटर लांब अशी भक्कम , लाल कोब्याची संरक्षक भिंत या शहराभोवती उभारण्यात आली होती. यातील फक्त दक्षिणेकडील भाग सुस्थितीत आहे.

प्रत्येक कोपऱ्यात उंच देवालय तसेच लोकेश्वर बुद्धाची देवळे आहेत. मुख्य देवालय तीन पातळ्यांवर असून त्यावर ५४ उंच मनोरे आहेत. प्रत्येक मनोर्‍यावर राजाच्या चेहऱ्याशी साम्य असलेले चार हसरे चेहरे आहेत. फणा उभारलेले नाग, गर्जना करणारे सिंह आहेत. सहा दरवाजे असलेल्या लायब्ररीसारख्या बिल्डिंग बऱ्याच ठिकाणी आहेत. त्यावरील पट्टिकांवर कमळे, देवता असे कोरले आहे. एक आरोग्य शाळा ( हॉस्पिटल ) आहे. एके ठिकाणी नागाच्या वेटोळ्यावर बसलेली, चेहर्‍याभोवती नागाचा फणा असलेली, बारा फूट उंचीची भगवान बुद्धाची पद्मासनात बसलेली मूर्ती आहे.उंच चौथऱ्यांच्या खालील बाजूला अप्सरा, चायनीज व खमेर सैनिक, वादक, प्राण्यांची शिकार, शिवलिंग, आई व मूल, बाळाचा जन्म, मार्केटमध्ये भाजी-फळे विकणाऱ्या स्त्रिया, माकडे, कोंबड्यांची झुंज, मोठा मासा, गरुडावरील विष्णू, नौकाविहार करणाऱ्या स्त्रिया अशी अनेक शिल्पे आहेत. एका चौथऱ्यावर खाली हत्तींची रांग तर एके ठिकाणी मानवी धडाला सिंहाचे तोंड, गरुडाचे तोंड कोरलेली अनेक शिल्पे आहेत. अगदी खालच्या पातळीवर पाताळातील नागदेवता,जलचर आहेत. एके ठिकाणी हाताचा अंगठा नसलेला व लिंग नसलेला एक राजा कोरला आहे. त्याला ‘लेपर किंग’ असे म्हणतात. राजा जयवर्मन सातवा व राजा जयवर्मन आठवा यांच्या कारकिर्दीमध्ये हे शहर उभारले गेले.

कंबोडिया_ भाग १ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक १९ – भाग ३ – विद्या आणि कला यांचं माहेरघर – ग्रीस ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १९ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ विद्या आणि कला यांचं माहेरघर– ग्रीस ✈️

दुसऱ्या दिवशी सॅऺटोरिनी बेट ते अथेन्स हा प्रवास एका अवाढव्य क्रूझमधून केला. अडीच ते तीन हजार माणसं आणि कितीतरी मोटारी , ट्रक पोटात घेऊन ती क्रूझ, पोपटी पाण्यावर पांढऱ्या समुद्र फेसाची नक्षी काढत डौलात चालली होती. प्राचीन काळापासून ग्रीकांची समुद्रावर सत्ता होती. इथूनच धाडशी खलाशांनी आपली गलबतं रशिया आणि पार इंग्लंड फ्रान्स इटलीपर्यंत नेऊन व्यापार केला होता.  ग्रीसच्या वैभवात भर टाकली होती.

आज अथेन्सहून डेल्फी इथे जायचं होतं. ग्रीक पौराणिक कथांप्रमाणे झ्यूस हा देवांचा देव आहे.  डेल्फी हे झ्यूसच्या मुलाचं म्हणजे अपोलोचं ठिकाण आहे.  अथेन्सपासून डेल्फीपर्यंतचा रस्ता अतिशय सुंदर होता. पारोसनेस पर्वतांच्या निळ्या-हिरव्या सलग रांगा पसरल्या होत्या. सुपीक जमिनीत द्राक्षं, सफरचंद, पीच, चेरी यांच्या बागा व गहू मका अशी शेती होती. ऑलिव्ह वृक्षांच्या बागा होत्या. मेपल आणि बर्चची झाडं होती.ग्रीक पुराणकथेप्रमाणे झ्यूस देवाने  पृथ्वीचे मध्यवर्ती स्थान शोधण्यासाठी पूर्व आणि पश्चिमेला दोन गरुड पाठविले. त्यांची गाठ डेल्फी इथे पडली. म्हणून डेल्फी ही पृथ्वीची बेंबी आहे असं ग्रीक मानत.

पाच हजार वर्षांपूर्वी पर्वतांच्या कुशीमध्ये अपोलोचं व अथिनाचं अशी दोन महाप्रचंड देवालये होती. या धर्मकेंद्रात भाविकांचा ओघ असे. लोकप्रिय व श्रीमंत अशा या देवालयांनी  एक हजार वर्षांचा सुवर्णकाळ अनुभवला. नंतर रोमन सम्राट थिओडोसिअस याने डेल्फीचा नाश केला. नंतरच्या भूकंपामध्ये दोन्ही मंदिरे व डेल्फी जमिनीत गाडली गेली.  साधारण दोनशे वर्षांपूर्वी उत्खननातून हे अवशेष मिळाले.

उंचावरील अपोलोच्या देवळाच्या मूळ ४० खांबांपैकी आता सहाच खांब शिल्लक आहेत.पुढे ॲ॑फी  थिएटरचे अवशेष आहेत. आता या ठिकाणी प्राचीन नाट्यशास्त्र,पुरातत्व,नाटकं, संगीत या विषयांवरील परिषदा आणि कार्यशाळा आयोजित केल्या जातात.

म्युझियमची इमारत प्रशस्त, देखणी आहे. आतल्या तेरा मोठ्या दालनात प्राचीन इतिहास, संस्कृती, कला यांची झलक दाखविणारी शिल्प व इतर वस्तू आहेत.म्युझियमच्या प्रवेशद्वाराजवळ ओम्फालस म्हणजे नाभी- स्तंभ आहे.  उत्तम कोरीव काम असलेल्या या शिल्पाला कळीसारखा शेंडा आहे.

अपोलोची चार घोड्यांच्या रथावरील मूर्ती अतिशय देखणी आहे. स्त्री-पुरुषांच्या इतर अनेक शिल्पातून स्नायूंची प्रमाणबद्धता, मानवी शरीराची रचना, चेहऱ्यावरील भावभावना, पोशाख, केशरचना, दागिने यांचं मार्बलमधून कोरलेलं, जिवंत वाटणारं दर्शन होतं. मोझॅइक भित्तीचित्र आहेत. भाजलेल्या मातीचे रंगविलेले कलश,  उंच उभे रांजण, भूमितीमधील त्रिकोण, षट्कोन, वर्तुळ यांच्यातील सुंदर आकृती, दागिने ठेवण्याची नक्षीदार पात्रे, गर्भवती स्त्रिया, स्तनपान करणाऱ्या स्त्रिया अशा प्रकारच्या अनेक कलाकृतीतून एका समृद्ध, संपन्न संस्कृतीचं दर्शन होतं.

ब्रांझच्या रथाचा सारथी उजव्या हाताने घोड्याचा लगाम खेचतोय. त्याचा डावा हात अर्धवट तुटलेला आहे. पण त्याच्या पायघोळ वस्त्राच्या चुण्या, डोळ्यातील जिवंत भाव पहाण्यासारखे आहेत. सुवर्ण विभागात स्त्रियांच्या गळ्यातील नाजूक डिझाईनचे हार, नाना प्रकारचे रत्नजडित अलंकार, रत्नजडित भांडी, डिश, पेले आहेत. देवालयाच्या स्तंभांवरील कोरीव पट्टिका, सिंहाचं अंग आणि  मानवी चेहरा व पंख असलेला स्फिंक्स, डोक्यावर ब्रांझच्या मोठ्या  घमेल्यात यज्ञकुंड घेतलेली स्त्री ,मार्बलच्या कोरीव स्टॅन्डवरील तीन देवतांच्या मूर्ती अशा सार्‍या कलाकृती बघण्यासारख्या आहेत.

गाईडने एका उंचावरील हॉटेलमध्ये स्थानिक पद्धतीचं जेवण घेण्यासाठी नेलं. हॉटेलच्या काचेच्या खिडक्यांमधून दूरवरील डोंगर रांगा आणि खालची दरीतली घरं, हिरवी शेती, झाडं, दिसत होती. प्रथम लिंबाचं सरबत व उकडलेल्या, सॉस घातलेल्या  भाज्यांची डिश दिली.  त्या नंतर मोठ्या टोमॅटोमध्ये भरलेला भात आला.या भाताला  याहिस्ता असं म्हणतात. आम्ही एके ठिकाणी द्राक्षाच्या पानात गुंडाळलेला डोल्मा राईस खाल्ला होता. त्यापेक्षा याहिस्ता चविष्ट होता. सुवलाकी म्हणजे चिकन किंवा मेंढीचे मांस भाजून केलेला पदार्थ लोकप्रिय आहे. टोमॅटो राईसनंतर चॉकलेट पुडिंग्जचा आस्वाद घेऊन स्थानिक जेवणाला मनापासून सलाम केला. बाहेर बाजारात घेतलेली बकलावा म्हणजे ड्रायफ्रूट भरलेली छोटी गुंडाळी चविष्ट होती.

आम्ही ग्रीसला गेलो त्यावेळी ग्रीसची आर्थिक परिस्थिती डबघाईला आलेली होती. एक कोटीहून अधिक लोकसंख्या असलेला  ग्रीस, ‘आहे मनोहर तरी……..’ अशा परिस्थितीत होता. वरवर उत्तम, सुंदर दिसंत असलं तरी प्रत्यक्षात ग्रीसचा एक पोकळ डोलारा झाला होता. अर्थव्यवस्था घसरणीला लागली होती.१९७३ साली  ग्रीसमध्ये प्रजासत्ताक राज्याची स्थापना झाली. नंतर तो देश नाटोचा मेंबर झाला. १९८१ मध्ये ग्रीस युरोपियन युनियनचा सदस्य झाला. पश्चिम युरोपच्या मदतीने आर्थिक सुधारणांचा कार्यक्रम राबविण्यात येत आहे पण त्याची गती खूपच कमी आहे. क्षमतेपेक्षा जास्त कर्जाची उचल, वाढती वित्तीय तूट, आणि ती तूट भरून काढायला अधिक कर्ज असं दुष्टचक्र सुरू आहे. राजकीय अस्थैर्य वाढलं. बेरोजगारी आणि असंतोष वाढला .अथेन्समधील भिंती निषेधाच्या काळ्या रंगातील ग्राफिटीने भरून गेल्या होत्या. युरोपियन युनियनच्या आधीन झालेल्या या देशाला कडक आर्थिक निर्बंधाना तोंड द्यावं लागत  आहे.

सध्याच्या अतिवेगवान जगामध्ये इतिहासकालीन समृद्धीवर, स्मरणरंजनावर फार काळ जगता येणार नाही हा धडा ग्रीस कडून मिळाला आहे.

सॅ॑टोरीनी  बेटावर जाताना अथांग, पोपटी पारदर्शक समुद्राच्या दोन्ही कडांचे पर्वत पाहून ,’ समुद्र वसने देवी, पर्वत:स्तन मंडले….’ या श्लोकाची आठवण येत होती. सध्या या ‘विष्णुपत्नी लक्ष्मी’ चा ग्रीसवरील रुसवा घालविण्यासाठी प्रयत्न चालू आहेत.

भाग 3 व ग्रीस समाप्त

 © सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक १९ – भाग २ – विद्या आणि कला यांचं माहेरघर – ग्रीस ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १९ – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ विद्या आणि कला यांचं माहेरघर– ग्रीस ✈️

प्राईम मिनिस्टर रेसिडन्स म्हणजे पूर्वीच्या रॉयल पॅलेस इथे उतरलो. इथे दर तासाला ‘चेंजिंग द गार्डस्’  सेरीमनी होतो. दोन सैनिक पांढरी तंग तुमान व त्यावर पांढरा, तीस मीटर्स कापडाचा, ४०० सारख्या चुण्या असलेला घेरदार ड्रेस घालून,  डोळ्यांची पापणीसुद्धा न हलवता दोन बाजूंना उभे होते. त्यांच्या डोक्यावर लाल पगडीसारखी टोपी आणि हातात तलवारी होत्या. त्यांच्या पायातील लाकडी तळव्यांचे बूट प्रत्येकी साडेतीन किलो वजनाचे होते. थोड्यावेळाने सैनिकांची दुसरी जोडी आल्यावर या सैनिकांनी गुडघ्यापर्यंत पाय उचलून बुटांचा खाडखाड आवाज करीत शिस्तशीर लष्करी सलामी दिली. ते निघून  गेल्यावर त्यांची जागा दुसऱ्या जोडीने घेतली.

प्लाका या भागात शहराचं जुनं खानदानी सौंदर्य दिसतं. जुन्या पद्धतीची घरं, उघडमीट होणारी शटर्स असलेल्या काळ्या लाकडी पट्टयांच्या खिडक्या, घरापुढील कट्टयावर सुंदर फुलझाडं, षटकोणी लांबट लोलकासारखे  काळ्या रंगाचे डिझाईनचे दिव्याचे खांब, चर्चेस, जुन्या वास्तू, घरांच्या कलापूर्ण गॅलेऱ्या  ब्राँझचे रेलिंग असलेल्या होत्या.अशा या भागात जुन्या काळी श्रीमंत व्यापारी, राजकारणी,विद्वान यांची घरं असायची .आजही तिथे घर असणं अभिमानास्पद समजलं जातं.

ॲक्रोपोलीसवरील तोडमोड केलेली अनेक शिल्पं आणि शहरभर उत्खननात सापडलेले अनेक भग्न अवशेष आता ॲक्रोपोलिस म्युझियममध्ये अत्यंत काळजीपूर्वक जतन करण्यात आले आहेत. प्राचीन इतिहास, मानवी जीवन, स्थापत्यशास्त्र, शिल्पकला यांचा जागतिक महत्त्वाचा हा खजिना बघण्यासाठी तसंच ॲक्रोपोलिसचे उद्ध्वस्त अवशेष पाहण्यासाठी जगभरातून दरवर्षी लाखो प्रवासी ग्रीसला भेट देतात. उत्खननात सातव्या ते नवव्या शतकातील बेझेन्टाईन काळातील एका छोट्या वसाहतीचे अवशेष मिळाले . हे सापडलेले अवशेष साफसफाई करून त्यावर जाड काचेचे आवरण घालून ॲक्रोपॉलिस म्युझियमच्या प्रांगणात ठेवण्यात आले आहेत .इथून म्युझियममध्ये प्रवेश करताना या लोकवस्तीची वर्तुळाकार रचना, सार्वजनिक हॉल, मध्यवर्ती असलेली विहीर अशी रचना पाहता येते. ॲक्रोपोलीसमध्ये सापडलेल्या मार्बलच्या पट्टिका म्युझियमच्या तिसऱ्या मजल्यावर आहेत.  पॅसिडॉन, अथेना, अपोलो आणि इतर अनेकांचे अतिशय रेखीव  कोरलेले पुतळे तिथे आहेत. त्यांची बसण्याची आसने, अंगावरील वस्त्रे, बसण्याची ऐटदार पद्धत, कुरळे केस, दाढी, चेहऱ्यावरील भावभावना ,शरीराच्या स्नायूंचा डौलदारपणा, तेजस्वी डोळे असं पाहिलं की त्या प्राचीन शिल्पकारांच्या कलेला मनापासून दाद द्यावीशी वाटते.पर्शियाने ग्रीसवर आक्रमण केलं व तोडफोड सुरू केली त्यावेळी ॲक्रोपोलीसवरील सौंदर्य देवतेचा पुतळा शत्रूपासून वाचविण्यासाठी जमिनीत पुरला होता. तो १८८६ मध्ये उत्खननातून वर काढला. तिचा हसरा चेहरा, डोक्यावरील रुंद महिरप आणि दोन्ही खांद्यांवरून पुढे आलेल्या पीळ घातल्यासारख्या तीन-तीन वेण्या बघत रहाव्या अशा आहेत. त्रिकोणी आसनावर नृत्याच्या मुद्रा करणारी, डोक्यावरून पदरासारखं मार्बलच वस्त्र घेतलेली स्त्री वर्षभरातील वेगवेगळ्या ऋतूंचं अस्तित्व दाखवते. तिने उजव्या खांद्यावरून मार्बलचे चुणीदार वस्त्र घेतले आहे. त्याचे काठ  व वस्त्रावरील डिझाईन रंगीत काळसर मार्बलचं आहे. काही पाठमोरे स्त्री पुतळे कुरळ्या केसांच्या पाचपेडी वेण्या घालून खाली केसांचे झुपके सोडलेल्या अशा आहेत.

महान योद्धा अलेक्झांडर खुष्कीच्या मार्गाने भारतापर्यंत आला होता. त्याचा फक्त मानेपर्यंत चेहरा असलेला एक पुतळा इथे आहे. त्याच्या कुरळ्या केसांची महिरप, तरतरीत नाक आणि हिरवे घारे डोळे बघण्यासारखे आहेत. लहान मोठ्या अनेक उंच खांबांवर स्त्री-पुरुषांचे उभे पुतळे ठेवले आहेत. त्यातील कोणाचे हात तुटलेले आहेत तर कुणाचं नुसतं धडच आहे. तरीही त्यांचं शरीरसौष्ठव, उभे राहण्याची पद्धत, अंगावरील वस्त्रांच्या चुण्या यावरून त्यांच्या शरीराच्या प्रमाणबद्ध रचनेची कल्पना येऊ शकते.

भाजलेल्या मातीच्या, भोवर्‍याच्या आकाराच्या, सुंदर रंगकाम केलेल्या अनेक स्पिंडल्स १९५० साली उत्खननात सापडल्या. प्राचीन काळातील स्त्रिया हे *स्पिंडल देवीच्या पायाशी वाहत असत असे गाईडने सांगितले. काही पट्टीकांवर ग्रीक आणि पर्शियन योद्धे एकमेकांशी लढताना दाखविले आहेत. तीन सशक्त, हसऱ्या मुद्रेच्या पुरुष प्रतिमा एकाला एक चिकटून आहेत. पाणी, अग्नी आणि वायू यांचे ते प्रतीक आहे. एका घोडेस्वाराची तंग तुमान आणि चुडीदार अंगरखा रंगीत आहे तर घोड्याच्या आयाळीवरील लाल हिरवा मार्बलचा पट्टा रेशमी वस्त्रासारखा दिसतो. घोड्याच्या शेपटीलाही हिरवट रंगाचा मार्बल वापरला आहे. समाजातील उच्चभ्रू स्त्रियांची स्कर्टसारखी फॅशनेबल व रंगीत डिझाईनच्या मार्बलची वस्त्र लक्षवेधी आहेत. एक दाढीवाला तरूण मानेभोवती गाईच्या छोट्या वासराला घेऊन निघाला आहे तर हात तुटलेल्या एका नग्न उभ्या युवकाचं प्रमाणबद्ध शरीर, तेजस्वी डोळे, छाती- पोटाचे, पायाचे स्नायू अतिशय रेखीव आहेत.एका पेल्मेटवरील रंगीत उमलत्या फुलांचं शिल्प वाऱ्यावर डोलत असल्यासारखं वाटतं. गतकाळातील हा अमूल्य सांस्कृतिक वारसा पाहता-पाहता  खरोखरच हरवल्यासारखं झालं.

सॅ॑टोरिनी हे ग्रीसचं छोटसं बेट एजिअन समुद्रात आहे. अथेन्सहून विमानाने सॅ॑टोरिनीला पोचलो. एका चढणीवरच्या रस्त्यावरील सुंदर प्रशस्त बंगला हे आमचं हॉटेल होतं. हॉटेलच्या आवारात टोमॅटो, अंजीर, रंगीत बोगनवेल ,सुवासिक मॅग्नेलिया बहरली होती. लंबवर्तुळाकार निळ्या पोहण्याच्या तलावाभोवती आमच्या रूम्स होत्या. रूमला छोटी गॅलरी होती. वाटलं होतं त्यापेक्षा हॉटेल खूपच मोठं होतं. दुसऱ्या दिवशी सकाळी  दाराचा पडदा सरकवला तर काय आश्चर्य स्विमिंगपुलावरील आरामखुर्च्या बाजूला सरकवून त्या जागेवर योगवर्ग चालू होता. एक कमनीय योग शिक्षिका समोरच्या पंचवीस-तीस स्त्री पुरुषांकडून योगासनं, प्राणायाम करून घेत होती. खरं म्हणजे हा योगवर्ग हॉटेलमधील सर्व प्रवाशांसाठी होता. आदल्या दिवशी संध्याकाळी तिथे आल्यावर बाजारात फेरफटका मारताना अतिशय रसाळ, लालसर काळी, मोठाली चेरी मिळाली होती. मोठे पीच आणि तजेलदार सफरचंद आपल्यापेक्षा खूप स्वस्त व छान वाटली म्हणून घेतली होती. जेवून हॉटेलवर आल्यावर सर्वांनी तिथल्या हॉलमध्ये बसून गप्पा मारताना त्या फळांवर ताव मारला होता आणि त्या गडबडीत हॉलमध्ये लावलेली योगवर्गाची नोटीस वाचायची राहिली. नाही तर आम्हालाही योगवर्गाचा लाभ घेता आला असता. पण आमचा ‘योग’ नव्हता. भारतीय योगशास्त्राचे महत्त्व आता जगन्मान्य झालं आहे हे मात्र खरं!

माझी मैत्रीण शोभा भरतकाम आणि विणकाम करण्यात कुशल आहे. नाश्त्याच्या वेळी तिथल्या एका खिडकीचा विणकाम केलेला पांढरा स्वच्छ पडदा तिला आवडला म्हणून ती जवळ जाऊन बघायला लागली तर टेबलावरच्या आमच्या डिश उचलून, टेबल साफ करणारा इसम लगबगीने तिच्याजवळ गेला. आणि कौतुकाने सांगू लागला की हे सर्व भरतकाम, क्रोशाकाम माझ्या आईने केले आहे. तीन चार वर्षांपूर्वी आमची आई आणि नंतर वडीलही गेले. आम्ही सर्व बहिण भावंडं मिळून हा फॅमिली बिझनेस चालवतो. मग त्याने आम्हाला आपल्या आई-वडिलांचे फोटो, आईने केलेल्या अनेक वस्तू, विणलेले रुमाल दाखवले. खरोखरच सर्व हॉटेलमधील निरनिराळ्या पुष्परचना, सोफ्यावरील उशांचे अभ्रे, पडदे, दिवे, कलात्मक वस्तू उच्च अभिरुचीच्या, स्वच्छ, नीटनेटक्या होत्या. आई-वडिलांबद्दलंच प्रेम आणि अभिमान त्या देखणेपणात भर घालीत होतं.

आज दिवसभर छोट्या बोटीतून एजिअन समुद्रात फेरफटका होता. आम्हा दहाजणांसाठीच असलेली ती छोटीशी बोट सर्व सुविधायुक्त होती. चालक व त्याचा मदतनीस उत्साहाने सारी माहिती सांगत होते आणि अधून मधून वेगवेगळे खाद्यपदार्थ देऊन आमची जिव्हा तृप्त करीत होते. त्या छोट्याशा बोटीच्या नाकाडावर बसून समुद्राचा ताजा वारा प्यायला मजा वाटत होती. दोन्ही बाजूला उंच कड्यांच्या डोंगररांगा होत्या. काहींचा रंग दगडी कोळशासारखा होता. काही डोंगर गाद्यांच्या गुंडाळीसारखे वळकट्यांचे होते.  काही पांढरट पिवळट लालसर मार्बलचे होते. काही डोंगर ग्रॅनाइटचे होते. एका छोट्या डोंगराजवळ बोट थांबली. हा जागृत ज्वालामुखी आहे. त्याच्या माथ्यावरच्या छिद्रातून सल्फ्युरिक गॅसेस बाहेर पडताना दिसतात. दगडी कोळशासारखा दिसणार तो डोंगर अतिशय तप्त होता.

तिथून जवळच थर्मल वॉटरचे झरे समुद्रात आहेत. आमच्या आजूबाजूला असंख्य लहान- मोठ्या बोटी प्रवाशांनी भरलेल्या होत्या. सर्फिंग करणारे, छोट्या वेगवान यांत्रिक बोटीतून पळणारे अनेक जण होते.उष्ण  पाण्याच्या झऱ्यांजवळ आल्यावर आजूबाजूच्या बोटीतून अनेकांनी समुद्रात धाड् धाड् उड्या मारल्या. जल्लोष,मौज मस्ती यांना ऊत आला होता. समुद्रस्नान, परत डेकवर सूर्यस्नान असा मनसोक्त कार्यक्रम चालू होता. इथे बाकी कशाची नाही पण अंगावरच्या कपड्यांची टंचाई नजरेत भरत होती. आणि सिगारेटसचा महापूर लोटला होता. बोट थिरसिया बेटाजवळ आल्यावर चालकाने बोट थांबवून बोटीतच सुंदर जेवण दिलं. तिथून परतताना एका उंच डोंगरकड्यावर पांढरीशुभ्र असंख्य घरं एका ओळीत बसलेली दिसली. पांढरे शुभ्र पंख पसरून बसलेला राजहंसांचा थवाच जणू!’ इथे कुठे यांनी घरं बांधली? वर जायची- यायची काय सोय?’ असं मनात आलं तर चालकाने डोंगरातून वर जाणाऱ्या केबल कार्स आणि डोंगराच्या पोटातून जाणारी फनिक्युलर रेल्वे दाखविली. उच्चभ्रू श्रीमंत लोकांची ती उच्च वसाहत होती.

ग्रीस भाग २ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक १९ – भाग १ – विद्या आणि कला यांचं माहेरघर – ग्रीस ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १९ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ विद्या आणि कला यांचं माहेरघर– ग्रीस ✈️

मुंबईहून इस्तंबुल इथे विमान बदलून ग्रीसची राजधानी अथेन्स इथे उतरलो. मनात ग्रीसबद्दल प्रचंड कुतूहल होतं .प्राचीन काळातील ग्रीस म्हणजे आजच्या युरोपीयन संस्कृतीचं मूलस्थान आहे. अनेक विद्या आणि कला यांचे हे माहेरघर! विख्यात गणिती आर्किमिडीज, भूमितीवरील पहिलं पुस्तक लिहिणारा युक्लिड, आधुनिक वैद्यक शास्त्राची देणगी जगाला देणारा हिप्पॉक्रेटिस,  सुप्रसिद्ध तत्त्वज्ञ सॉक्रेटिस, प्लेटो, अरिस्टॉटल अशा एकाहून एक नररत्नांची ही जन्मभूमी.इलियट आणि ओडिसी ही महाकाव्यं लिहिणारा होमर हा श्रेष्ठ कवीही इथलाच! लोकशाहीचा पहिला हुंकार जिथे उमटला ते ग्रीस! जगातील पहिलं ऑलिम्पिक जिथे खेळलं गेलं ते हे अथेन्स!

ऐतिहासिक आणि सांस्कृतिक वारशाप्रमाणे ग्रीसला निसर्गाचं वरदानही लाभलं आहे. पूर्वेकडे एजिअन समुद्र, पश्चिमेकडे आयोनियन समुद्र आणि दक्षिणेकडे भूमध्यसागर अशी १४ हजार किलोमीटर्सहून अधिक लांबीची किनारपट्टी लाभली आहे. या सागरात ग्रीसची दोन हजार लहान-मोठी बेटे आहेत.

हॉटेलपासून पॉसेडॉनच्या देवालयापर्यंत जाताना संपूर्ण बासष्ट किलोमीटरचा देखणा समुद्रकिनारा पाहून मन आणि डोळे तृप्त झाले. पारदर्शक पोपटी रंगाचा भल्यामोठ्या एमरेल्ड (Emerald )रत्नासारखा तो समुद्र वाटत होता. ग्लीफाडा,वौला,वार्किझा अशी श्रीमंत उच्चभ्रू उपनगरं या समुद्रासमोर उभी आहेत. समुद्रकिनाऱ्यावर गाड्या पार्क करून लोक तासनतास पोहण्याचा आनंद घेतात. ताजी, मोकळी ,स्वच्छ हवा, लहान मुलांना खेळायला, सायकल फिरवायला मोकळी जागा, हॉटेल्स,  बार्स , ओपन एअर सिनेमा थिएटर्स, वाळू आणि पाण्यातले खेळ यात ग्रीक अभिजन वर्ग रमून गेला होता. आरामात पाय पसरून बसायला खुर्च्या होत्या आणि त्या खुर्च्यांच्या डोक्यावर पांढऱ्या स्वच्छ चौकोनी छत्र्या होत्या. गोरे, उंच, सशक्त, नाकेले, निळ्या- घाऱ्या डोळ्यांचे ग्रीक स्त्री-पुरुष त्यांना लाभलेल्या समुद्र किनार्‍याचा मनसोक्त उपभोग घेतात. पांढऱ्या शिडांच्या होड्या,याटस्  यांचीही गर्दी होती.

या सुंदर रस्त्याच्या शेवटी एका उंच खडकावर पॉसिडोनच्या देवालयाचे भग्नावशेष आहेत. इतिहासाप्रमाणे ग्रीसला पौराणिक कथांचा मोठा वारसा लाभला आहे. आपल्या महाभारतासारखे मनुष्य स्वभावाचे कंगोरे यात रेखाटलेले असतात. आमची गाईड डोरा सांगत होती की अडीचहजार वर्षांपूर्वी पॉसीडॉन आणि अथेना यांच्यातली  स्पर्धेमध्ये अथेनाने ग्रीसमधील पहिली ऑलीव्ह वृक्षाची फांदी लावली. तिचा विजय झाला. तिच्यावरून या शहराचं नाव अथेन्स असं पडलं. या खडकाळ टेकडीवरील रोमन पद्धतीच्या पॉसिडॉनच्या देवालयाचे आयताकृती पायावरील मार्बलचे खांब गतकालाची साक्ष आहेत. गाईडने सांगितलं की लॉर्ड बायरन या इंग्लिश कवीने आपली नाममुद्रा यातील एका खांबावर कोरलेली आहे. टेकडीच्या टोकावरुन एजिअन समुद्रातला सोनेरी सूर्यास्त भारून टाकीत होता.

अथेना देवीचं देऊळ ॲक्रोपॉलिसवर आहे आहे.आहे म्हणजे कोणे एके काळी होतं. ॲक्रोपोलीस म्हणजे ग्रीसचा मानबिंदू! साधारण पाचशे फूट उंच टेकडीवर अडीचशे फूट उंचीचे  एक  भव्य स्वप्नशिल्प पेरिक्लस राजाच्या काळात म्हणजे सुमारे अडीच हजार वर्षांपूर्वी साकारण्यास सुरुवात झाली. एक हजार फूट लांब व पाचशे फूट रुंद असं हे शिल्पकाव्य राजाच्या मित्राने म्हणजे फिदिआस  याने उभारले. फिदिआस हा उत्कृष्ट  शिल्पकार होता. त्याच्यासह अनेक शिल्पकार, स्थापत्यकार, कलाकार या निर्मितीसाठी आपला जीव ओतत होते. त्यांनी अंतर्बाह्य अप्रतिम देखण्या ,भव्य वास्तू उभारल्या. अथेना देवीचे भव्य मंदिर उभारलं.तिचं मुखकमल आणि हात हस्तिदंताचे होते. आणि बाकी सर्व अंग ११४० किलो सोन्याच्या पत्र्याने बनविलेले होते. ही प्रचंड मोठी वास्तू उभारण्यासाठी वापरलेले १४ हजार मार्बल ब्लॉक १६ किलोमीटर दूर असलेल्या माऊंट पेटली इथल्या खाणीतून आणण्यात आले होते.ग्रीक सूर्यपूजक होते. विशिष्ट वेळी देवळात सूर्यप्रकाश येई आणि अथिनाचं पायघोळ सुवर्ण वस्त्र व रत्नजडित डोळे सूर्यप्रकाशात तेजाने चमकत असत. (गाइडच्या तोंडून हे ऐकताना आपल्या कोल्हापूरच्या श्री महालक्ष्मीची आठवण आली).  तिथे अनेक डौलदार इमारती होत्या. त्यातल्या विशाल नाट्यगृहाचे अवशेष, आरोग्यधामाचे अवशेष आणि सुंदर कोरीव काम केलेले मार्बलचे विखुरलेले तुकडे बघण्यासाठी जगभरातील कलावंत तिथे येतात . ते शिल्पकाम पाहून त्यांच्या प्रतिभेला नवे पंख फुटतात.एकसारख्या चुण्या घातल्यासारखे दिसणारे, मार्बलचे   पस्तीस फूट उंच खांब, एकाच अखंड दगडातून कोरल्यासारखे आपल्याला वाटतात पण ते खांब  एकावर एक दगड रचून उभारलेले आहेत. त्यांच्या सांध्यात चुना वगैरे काही भरलेलं नाही. इतके ते मोजून-मापून काटेकोर बनविलेले आहेत. देवळाचं छत तोलण्यासाठीचे खांब म्हणून मार्बलच्या सहा सुंदर युवती उभ्या आहेत.  त्यांची चुणीदार वस्त्रे, केशभूषा ,दागिने ,चेहऱ्यावरील भाव पहाण्यासारखे आहेत, मात्र या युवतींची ही मूळ शिल्पं नसून त्यांच्या प्रतिकृती बनवून तिथे उभारल्या आहेत. मूळ शिल्पांपैकी काही तिथल्या ॲक्रोपॉलिस म्युझियममध्ये आहेत तर यातील एक युवती ब्रिटिश म्युझियमची शोभा वाढवीत आहे. गाइड म्हणाला की  दोन हजार वर्षांपूर्वी प्राचीन ग्रीक संस्कृती लयाला गेली. त्यानंतर ग्रीकांवर रोमन्स, बेझेन्टाईन,अरब, ख्रिश्चन,क्रुसेडर्स,ऑटोमन्स (तुर्की मुस्लिम ) अशा अनेक राजवटी आल्या. ऑटोमन्सच्या काळात त्यांनी ॲक्रोपोलीसचा मार्बलच्या खाणीसारखा उपयोग केला. या भव्य वास्तूंच्या खांबांवरील सहा फूट रुंद सलग पट्टिकांवर  ग्रीक पुराणातील देवदेवता,ट्रोजन वॉर व इतर शत्रूंबरोबरच्या लढाया असे कोरलेले होते. लॉर्ड एल्गिन या ब्रिटिश सरदाराने अशा अनेक पट्टिका तोडून- फोडून काढल्या व इंग्लंडमध्ये नेल्या.

मध्यंतरी ग्रीसमधील एका इतिहासतज्ञ स्त्रीने ब्रिटिश म्युझियममध्ये असलेला हा ग्रीसचा ठेवा ग्रीसला परत मिळावा यासाठी राजकीय पातळीवरूनही पाठपुरावा केला पण त्याचा काही उपयोग झाला नाही. गाइडच पुढे म्हणाली, ‘कसा मिळणार तो ठेवा परत? एकदा  ग्रीसला त्यांच्या अमूल्य वस्तू परत केल्या तर साम्राज्यावर कधीही सूर्य न मावळणाऱ्या ब्रिटिश सरकारने जगभरातून ब्रिटनमध्ये जे जे नेले ते ते इतर सर्व देश परत मागतील. मग ‘ब्रिटिश म्युझियम’मध्ये काय उरेल? काही नाही!’ आपणही आपला अमूल्य कोहिनूर हिरा व इतर असंख्य मौल्यवान वस्तू आठवून आवंढा गिळण्यापलीकडे काय करू शकतो?

ॲक्रोपोलीस  टेकडीवरून खालच्या दरीतली पांढरीशुभ्र छोटी- छोटी घरं दिसत होती. जुन्या आणि नव्या शहराच्या सीमारेषेवरील ‘आर्च ऑफ हेड्रियन’ ही कमान रोमन सम्राट हेड्रियन याने इ.स. १३२ मध्ये उभारली. कॉन्स्टिट्यूशन स्क्वेअर, हाऊस ऑफ पार्लमेंट बिल्डींग, नॅशनल लायब्ररी या बिल्डिंग बसमधून पाहून पॅन्थेनाक  स्टेडियम इथे उतरलो. इथेच १८९६ मध्ये ऑलम्पिक गेम्स खेळले गेले. अर्धवर्तुळाकार उतरत्या दगडी पायऱ्यांच्या अंडाकृती स्टेडियमचं पुनरुज्जीवन करून ते नेटकं सांभाळलं आहे.

ग्रीकांना मानवी देहाच्या आरोग्याचं महत्त्व माहीत होतं तसंच मनाच्या आरोग्याचं महत्त्वही ते जाणून होते. एकमेकांशी खिलाडू स्पर्धा करण्याच्या विचारातून ऑलिंपिकचा जन्म झाला. व्यायाम शाळा, स्टेडियम यांची उभारणी झाली. नाट्यकलेतून लोकांना देव, धर्म, राजकारण, समाजकारण यांची ओळख झाली. प्रत्येक धार्मिक व ऐतिहासिक ठिकाणी ॲ॑फी थिएटर असावे असा नियम होता. तत्वज्ञान विद्यापीठ या उंच खांबांच्या इमारतीच्या प्रवेशद्वारी सॉक्रेटिस  व त्याचा शिष्य प्लेटो यांचे संगमरवरी मोठे पुतळे आहेत. जवळच अथेन्स विद्यापीठाची भव्य सुंदर इमारत व लायब्ररी आहे. एकोणिसाव्या शतकातील अथेंस सिटी हॉल व नॅशनल थिएटर हे उत्तम स्थापत्यशास्त्राचे नमुने आहेत.

ग्रीस भाग १ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक १८ भाग २ – झांबेझीवर झुलणारी झुंबरं ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १८ भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ झांबेझीवर झुलणारी झुंबरं  ✈️

झांबिया म्हणजे पूर्वीचा उत्तर ऱ्होडेशिया. या छोट्या देशाभोवती अंगोला, कांगो, टांझानिया, मालावी, मोझांबिक, झिम्बाब्वे ( पूर्वीचा दक्षिण ऱ्होडेशिया ) आणि नामिबिया अशी छोटी छोटी राष्ट्रे आहेत. मे महिन्यापासून ऑगस्टपर्यंत इथले हवामान अतिशय प्रसन्न असते. सुपीक जमीन, घनदाट जंगले, सरोवरे, नद्या, जंगली जनावरांचे कळप, सुंदर पक्षी यांची देणगी या देशाला लाभली आहे. नद्यांवर धरणे बांधून इथे वीज निर्मिती केली जाते. तांब्याच्या खाणी,  झिंक, कोबाल्ट, दगडी कोळसा, युरेनियम, मौल्यवान रत्ने, हिरे तसेच उत्तम प्रतीचा ग्रॅनाइट व संगमरवरी दगड सापडतो.  गाई व मेंढ्यांचे मोठमोठे कळप आढळतात. तंबाखू, चहा-कॉफी ,कापूस उत्पादन होते.  १९६४ साली ब्रिटिशांकडून स्वातंत्र्य मिळाल्यापासून २७ वर्षें राष्ट्राध्यक्ष असलेल्या केनेथ कोंडा यांनी या राष्ट्राला प्रगतीपथावर नेले.

झांबिया आणि झिंबाब्वे यांच्या सरहद्दीवर असलेल्या महाकाय  व्हिक्टोरिया धबधब्याचा शोध, स्कॉटिश मिशनरी संशोधक डॉक्टर डेव्हिड लिव्हिंगस्टन यांना १८५५ मध्ये  लागला. त्यांनी धबधब्याला आपल्या देशाच्या राणी व्हिक्टोरियाचे नाव दिले.५६०० फूट रुंद आणि ३५४ फूट खोल असलेला हा धबधबा जगातील सात नैसर्गिक आश्चर्यांपैकी एक मानला जातो. युनेस्कोने त्याला वर्ल्ड हेरिटेजचा दर्जा दिला आहे.

आम्हाला व्हिक्टोरिया धबधब्याचे खूप जवळून दर्शन घ्यायचे होते. धबधब्याच्या पुढ्यातील डोंगरातून रस्ता तयार केला आहे. रस्ता उंच-सखल, सतत पडणाऱ्या पाण्यामुळे बुळबुळीत झालेला होता. आधारासाठी बांधलेले लाकडी कठड्याचे खांबही शेवाळाने भरलेले होते. मध्येच दोन डोंगर जोडणारा, लोखंडी खांबांवर उभारलेला छोटा पूल होता. गाईड बरोबर या रस्त्यावरून चालताना धबधब्याचे रौद्रभीषण दर्शन होत होते. अंगावर रेनकोट असूनही धबधब्याच्या तुषारांमुळे सचैल  स्नान घडले. शेकडो वर्षे अविरत कोसळणाऱ्या या धबधब्यामुळे त्या भागात अनेक खोल घळी ( गॉरजेस )  तयार झाल्या आहेत. धबधब्याचा नजरेत न मावणारा विस्तार, उंचावरून खोल दरीत कोसळतानाचा तो आदिम मंत्रघोष, सर्वत्र धुक्यासारखे पांढरे ढग….. सारेच स्तिमित करणारे. एकाच वेळी त्यावर चार-चार इंद्रधनुष्यांची झुंबरं झुलत होती. ती झुंबरं वाऱ्याबरोबर सरकत डोंगरकडांच्या झुडपांवर चढत होती. हा नयनमनोहर खेळ कितीही वेळ पाहिला तरी अपुराच वाटत होता. ते अनाघ्रात, रौद्रभीषण सौंदर्य कान, मन, डोळे व्यापून उरत होतं .स्थानिक भाषेत या धबधब्याला  ‘गडगडणारा धूर’ असं म्हणतात ते अगदी सार्थ वाटलं.

मार्गदर्शकाने नंतर झांबेझी नदीचा प्रवाह जिथून खाली कोसळतो त्या ठिकाणी नेले. तिथल्या खडकांवर निवांत बसून पाण्याचा खळखळाट ऐकला. जगातील सगळ्या नद्या या लोकमाता आहेत. इथे या लोकमातांना त्यांचे सौंदर्य आणि स्वच्छता जोपासून सन्मानाने वागविले जात होते.( जागोजागी कचरा पेट्या ठेवलेल्या होत्या ) आपण आपल्या लोकमातांना इतक्या निष्ठूरपणे का वागवितो हा प्रश्न मनात डाचत राहिला.

संध्याकाळी झांबेझी नदीतून दोन तासांची सफर होती. तिथे जाताना आवारामध्ये एकजण लाकडी वाद्य वाजवीत होता. मरिंबा(Marimba ) हे त्या वाद्याचे नाव.पेटीसारख्या  आकारातल्या लाकडी  पट्टयांवर दोन छोट्या काठ्यांनी तो हे सुरेल वाद्य वाजवीत होता. पट्टयांच्या  खालच्या बाजूला सुकलेल्या भोपळ्यांचे लहान-मोठे तुंबे लावले होते.

क्रूझमधून  झांबेझीच्या  संथ आणि विशाल पात्रात फेरफटका सुरू झाला. नदीत लहान-मोठी बेटं होती. नदीतले बुळबुळीत, चिकट अंगाचे पाणघोडे ( हिप्पो ) खडकांसारखे वाटत होते. श्वास घेण्यासाठी त्यांनी पाण्याबाहेर तोंड काढून जबडा वासला की त्यांचे  अक्राळविक्राळ दर्शन घडे.   एका बेटावर थोराड हत्ती, भलेमोठे झाड उपटण्याच्या प्रयत्नात होते. त्यांचे कान राक्षसिणीच्या सुपाएवढे होते .दुसऱ्या एका बेटावर अंगभर चॉकलेटी चौकोन असलेल्या लांब लांब मानेच्या जिराफांचे दर्शन घडले. काळे, लांब मानेचे बगळे, लांब चोचीचे करकोचे, विविधरंगी मोठे पक्षी, पांढरे शुभ्र बगळे, घारी, गरुड या साऱ्यांनी आम्हाला दर्शन दिले. निसर्गाने किती विविध प्रकारची अद्भुत निर्मिती केली आहे नाही?

सूर्य हळूहळू केशरी होऊ लागला होता. सूर्यास्त टिपण्यासाठी सार्‍यांचे कॅमेरे सज्ज झाले. दाट शांतता सर्वत्र पसरली आणि एका क्षणी झांबेझीच्या विशाल पात्रात सूर्य विरघळून गेला. केशरी झुंबरं लाटांवर तरंगत राहिली.

साधारण नव्वदच्या दशकापर्यंत आफ्रिकेला काळे खंड म्हटले जाई. आजही या खंडाचा काही भाग गूढ, अज्ञात आहे. सोनेरी- हिरवे गवत, फुलांचा केशरी, लाल, पांढरा, जांभळा, गुलाबी रंग, प्राणी आणि पक्ष्यांचे अनंत रंग, धबधब्याच्या धवलशुभ्र रंगावर झुलणारी इंद्रधनुष्ये, अगदी मनापासून हसून आपले स्वागत करताना तिथल्या देशबांधवांचे मोत्यासारखे चमकणारे दात….. सगळी रंगमयी दुनिया! हे अनुभवताना नाट्यछटाकार ‘दिवाकर’ यांची एक नाट्यछटा आठवली. ती भूमी जणू म्हणत होती,’ काळी आहे का म्हणावं मी? कशी छान, ताजी, रसरशीत, अगणित रंगांची उधळण करणारी सौंदर्यवती आहे मी!

भाग २ व झांबेझी समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक १८ भाग १ – झांबेझीवर झुलणारी झुंबरं ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १८ भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ झांबेझीवर झुलणारी झुंबरं  ✈️

नैरोबीहून लुसाका इथे जाणाऱ्या विमानात बसलो होतो. लुसाका येण्यापूर्वी अर्धा तास वैमानिकाच्या केबिनमधून सर्वांना डावीकडे बघण्याची सूचना करण्यात आली. आफ्रिकेतल्या सर्वात उंच  किलिमांजारो पर्वताचे विहंगम दर्शन विमानातून घडत होते. गडद निळसर- हिरव्या पर्वतमाथ्यावरचे शुभ्र पांढऱ्या बर्फाचे झुंबर सूर्यकिरणांमुळे चमचमत होते.

लुसाका ही झांबियाची राजधानी आहे. लुसाका येथून लिव्हिंग्स्टन इथे जगप्रसिद्ध ‘व्हिक्टोरिया फॉल्स’ बघायला जायचे होते. बसच्या खिडकीतून बाहेरचे रमणीय दृश्य दिसत होते. स्वच्छ सुंदर सरळसोट रस्त्यापलीकडे हिरव्या गवताची कुरणे होती. गहू, ऊस, मका, टोमॅटो, बटाटे यांची शेती दिसत होती. त्यात अधून-मधून अकेशिया ( एक प्रकारचा बाभूळ वृक्ष ) वृक्षांनी  हिरवी छत्री धरली होती. हिरव्यागार, उंच, चिंचेसारखी पाने असलेल्या फ्लेमबॉयंट वृक्षांवर गडद केशरी रंगाच्या फुलांचे घोस लटकत होते. आम्रवृक्षांवर लालसर मोहोर फुलला होता.

थोड्याच वेळात अमावस्येचा गडद काळोख दाटला. काळ्याभोर आकाशाच्या घुमटावर तेजस्वी चांदण्यांची झुंबरं लखलखू लागली. आमच्या सोबतच्या बाबा गोडबोले यांनी दक्षिण गोलार्धातील त्या ताऱ्यांची ओळख करून दिली. नैऋत्य दिशेला शुक्रासारखा चमकत होता तो अगस्तीचा तेजस्वी तारा होता.सदर्न क्रॉस म्हणून पतंगाच्या आकाराचा तारकासमूह होता. आपल्याकडे उत्तर गोलार्धात हा तारका समूह फार कमी दिसतो.हूकसारख्या एस्् आकाराच्या मूळ नक्षत्रामधून आकाशगंगेचा पट्टा पसरला होता. मध्येच एक लालसर तारा चमचमत होता. साऱ्या जगावर असलेलं हे आभाळाचं छप्पर, त्या अज्ञात शक्तीच्या शाश्वत आशीर्वादासारखं वाटतं .

आम्ही जूनच्या मध्यावर प्रवासाला निघालो होतो. पण तिथल्या व आपल्या ऋतुमानात सहा महिन्यांचे अंतर आहे. तिथे खूप थंडी होती. लिव्हिंगस्टन इथल्या गोलिडे लॉजवर जेवताना टेबलाच्या दोन्ही बाजूंना उंच जाळीच्या शेगड्या ठेवल्या होत्या. दगडी कोळशातून लालसर अग्निफुले फुलंत होती त्यामुळे थंडी थोडी सुसह्य होत होती.

दुसऱ्या दिवशी आवरून रेल्वे म्युझियमपर्यंत पायी फिरून आलो. ब्रिटिशकालीन इंजिने त्यांच्या माहितीसह तिथे ठेवली आहेत. नंतर बसने व्हिक्टोरिया धबधब्याजवळच्या रेल्वे पुलावर गेलो.झांबेझी नदीवरील या पुलाला शंभराहून अधिक वर्षे झाली आहेत. हा रेल्वे पूल ब्रिटनमध्ये बनवून नंतर बोटीने इथे आणून जोडण्यात आला आहे. या रेल्वेपुलाला दोन्ही बाजूंनी जोडलेले रस्ते आहेत. पुलाच्या एका बाजूला झांबिया व दुसऱ्या बाजूला झिंबाब्वे हे देश आहेत. या देशांच्या सीमेवरून वाहणाऱ्या झांबेझी नदीवर हा विशालकाय धबधबा आहे. पुलाच्या मध्यावर उभे राहून पाहिलं तर उंचावरून कोसळणारा धबधबा आणि खोल दरीतून वर येणारे पांढरे धुक्याचे ढग यांनी समोरची दरी भरून गेली होती. त्या ढगांचा पांढरा पडदा थोडा विरळ झाला की अनंत धारांनी आवेगाने कोसळणारे पांढरेशुभ्र पाणी दिसे. इतक्या दूरही धबधब्याचे तुषार अंगावर येत होते.

दोन डोंगरकड्यांच्या मधून पुलाखालून वाहणारी झांबेझी नदी उसळत, फेसाळत मध्येच भोवऱ्यासारखी गरगरत होती.पुलाच्या दुसऱ्या बाजूला बंगी जम्पिंगचा चित्तथरारक खेळ सुरू होता. कमरेला दोरी बांधून तरूण-तरूणी तीनशे फूट खोल उड्या मारत होत्या.झांबेझीने आपल्या प्रवाहात इंद्रधनुष्याचा झोपाळा टांगला होता. इंद्रधनुच्या झोक्यावर साहसी तरुणाई मजेत झोके घेत होती. साखरेच्या कंटेनर्सनी भरलेली एक लांबलचक मालगाडी रेल्वे पुलावरून टांझानियाच्या दारेसलाम बंदराकडे चालली होती.झांबियाची ही साखर जपान,अरब देश वगैरे ठिकाणी निर्यात होते.

दुपारी म्युझियम पाहायला गेलो. जगातील सर्वात प्राचीन मनुष्यवस्तीच्या खुणा आफ्रिकेत सापडतात. एक लक्ष वर्षांपूर्वीपासून मनुष्य वस्ती असल्याचे पुरावे या म्युझिअममध्ये ठेवले आहेत. अश्मयुगातील दगडी गुहांची घरे, त्याकाळच्या मनुष्याच्या कवट्या,दात हाडे आहेत. आदिमानवाने दगडावर कोरलेली चित्रे, मण्यांचे दागिने, शिकारीची हत्यारे, लाकडी भांडी, गवताने शाकारलेल्या झोपड्या, गवती टोपल्या, अनेक प्रकारचे प्राणी, पक्षी, झाडांचे नमुने व माहिती दिलेली आहे.बाओबाओ नावाचा एक वैशिष्ट्यपूर्ण वृक्ष आहे. त्याला भाकरीचे झाड असेही म्हणतात. या झाडाची फळे खाऊन आदिमानवाचा उदरनिर्वाह होत असे. पिवळसर बुंधे असलेले हे बाओबाओ वृक्ष म्हणजे हत्ती व जिराफ यांचे आवडते खाणे आहे.

नंतर हेलिकॉप्टर राईडसाठी जायचे होते. एका वेळी तीन जणांना घेऊन हेलिकॉप्टर झेप घेते. झांबेझीच्या प्रवाहाभोवतीचा दलदलीचा प्रदेश, तसेच त्यातील पाणघोडे, हत्ती,गेंडे यांचे जवळून दर्शन झाले. आफ्रिकेतील गेंड्यांच्या नाकावर दोन शिंगे असतात. आपल्याकडे आसाममधील गेंडे एकशिंगी असतात. दरीतून वाहणाऱ्या झांबेझीच्या दोन्ही कडांवर इंद्रधनुष्याचे पंख पसरले होते. हेलिकॉप्टरबरोबर ते इंद्रधनुष्य पुढे पुढे धावत होते. हेलिकॉप्टरच्या पट्टीवर उतरलो तर समोर पन्नास फुटांवरून दहा-बारा थोराड हत्ती- हत्तीणी व त्यांच्या पिल्लांचा डौलदार कळप गजगतीने एका सरळ रेषेत निघून गेला.

भाग-१ समाप्त

 © सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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