हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण- 2☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण  साझा कर रहे हैं।  आज से  प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का  देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण )

 ☆ यात्रा-संस्मरण  ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-2 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

हिमालय विस्तार

सुदूर पूर्व में भारत-नेपाल सीमा पर हिमालय कंचनजंगा मासिफ तक बढ़ता है, जो दुनिया का तीसरा सबसे ऊंचा पर्वत 26,000 फीट शिखर भारत का उच्चतम बिंदु है। कंचनजंगा का पश्चिमी भाग नेपाल में और पूर्वी भाग भारतीय राज्य सिक्किम में है। यह भारत से तिब्बत  की राजधानी ल्हासा मुख्य मार्ग पर स्थित है, जो नाथू ला दर्रे से होकर तिब्बत तक जाता है। सिक्किम के पूर्व में भूटान का प्राचीन बौद्ध साम्राज्य है। भूटान का सबसे ऊँचा पर्वत गंगखर पुएनसम है। यहां का हिमालय घने जंगलों वाली खड़ी घाटियों के साथ तेजी से ऊबड़-खाबड़ होता जा रहा है। यारलांग त्सांगपो याने ब्रह्मपुत्र नदी के महान मोड़ के अंदर तिब्बत में स्थित नामचे बरवा के शिखर पर अपने पूर्व के निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले, हिमालय भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश के साथ-साथ तिब्बत के माध्यम से थोड़ा उत्तर-पूर्व की ओर मुड़ता रहता है। त्सांगपो के दूसरी ओर पूर्व में कांगरी गारपो पर्वत हैं। ग्याला पेरी सहित त्सांगपो के उत्तर में ऊंचे पहाड़ हिमालय में शामिल होते हैं।

धौलागिरी से पश्चिम की ओर जाने पर, पश्चिमी नेपाल कुछ दूर है और प्रमुख ऊंचे पहाड़ों की कमी है, लेकिन नेपाल की सबसे बड़ी रारा झील का घर है। करनाली नदी तिब्बत से निकलती है लेकिन क्षेत्र के केंद्र से होकर गुजरती है। आगे पश्चिम में, भारत के साथ सीमा शारदा नदी का अनुसरण करती है और चीन में एक व्यापार मार्ग प्रदान करती है, जहां तिब्बती पठार पर गुरला मांधाता की ऊंची चोटी स्थित है। मानसरोवर झील के उस पार पवित्र कैलाश पर्वत है, जो हिमालय की चार मुख्य नदियों के स्रोत के करीब है। हिमालय उत्तराखंड में कुमाऊं हिमालय के रूप में नंदा देवी और कामेट की ऊंची चोटियों के साथ स्थित है।

उत्तराखंड राज्य चार धाम के महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों का भी घर है, जिसमें गंगोत्री, पवित्र नदी गंगा का स्रोत, यमुनोत्री, यमुना नदी का स्रोत और बद्रीनाथ और केदारनाथ के मंदिर हैं। अगला हिमालयी भारतीय राज्य, हिमाचल प्रदेश, अपने हिल स्टेशनों, विशेष रूप से शिमला, ब्रिटिश राज की ग्रीष्मकालीन राजधानी और भारत में तिब्बती समुदाय के केंद्र धर्मशाला के लिए प्रसिद्ध है। यह क्षेत्र पंजाब के हिमालय और सतलुज नदी की शुरुआत है, जो सिंधु की पांच सहायक नदियों- झेलम, रावी, चिनाब, सतलुज, व्यास का जनक है। आगे पश्चिम में हिमालय, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख का निर्माण करत हैं। नन कुन की जुड़वां चोटियाँ हिमालय के इस हिस्से में एकमात्र पर्वत हैं। प्रसिद्ध कश्मीर घाटी और श्रीनगर के शहर और झीलें हैं। अंत में, हिमालय अपने पश्चिमी छोर पर नंगा पर्वत की नाटकीय 26000 फुट ऊँची चोटी से होकर पश्चिमी छोर नंगा पर्वत के पास एक शानदार बिंदु पर समाप्त होता है जहां हिमालय गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में काराकोरम और हिंदू कुश पर्वतमाला के साथ पसरा है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-1☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण  साझा कर रहे हैं।  आज से  प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का  देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण )

 ☆ यात्रा-संस्मरण  ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-1 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

पर्यटन और पुस्तक पाठन बचपन से रुझान के विषय रहे हैं। किसी क्षेत्र विशेष का भौगोलिक और ऐतिहासिक अध्ययन करके वहाँ घूमना पर्यटन कहलाता है और बिना अध्ययन के कहीं जाना घूमना कहलाता है।  हिमालय और हिंद महासागर स्थित विभिन्न स्थानों का पर्यटन हमेशा से लुभाता रहा है। हिमालय पर्यटन में लद्दाख़, हिमाचल, नेपाल, सिक्किम, भूटान अब तक घूम चुके थे लेकिन उत्तराखंड के बद्रीनाथ और केदारनाथ घूम कर कुमायूँ और गढ़वाल के तराई वाले हिस्से छूटे थे। जिन्हें अब 24-31 जुलाई 2021 के बीच देखने  निकले हैं। पहले वहाँ का भूगोल और इतिहास फिर पर्यटन का अनुभव।

हिमालय

उत्तराखंड के देहरादून, मसूरी, हरिद्वार, ऋषिकेश, नैनीताल भ्रमण के पहले यह आवश्यक है कि हम हिमालय की भौगोलिक स्थिति, विस्तार और मानव बसावट को समझने का प्रयास करें। हिमालय की सीमा उत्तर पश्चिम में काराकोरम और हिंदू कुश पर्वतमाला से लगती है जबकि पूर्व  सीमा अरुणाचल प्रदेश है।  उत्तर की ओर तिब्बती पठार 50-60 किमी  चौड़ी घाटी से सटा है जिसे सिंधु-त्सांगपो सीवन कहा जाता है। दक्षिण की ओर हिमालय का चाप इंडो-गंगा के मैदान से घिरा हुआ है। हिमालय समानांतर पर्वत श्रृंखलाओं से मिलकर बना है: दक्षिण में शिवालिक पहाड़ियाँ; निचली हिमालयी रेंज; महान हिमालय, जो उच्चतम और केंद्रीय श्रेणी है; और उत्तर में तिब्बती हिमालय। इसकी चौड़ाई पश्चिम में पाकिस्तान में 350 किमी से लेकर पूर्व अरुणाचल प्रदेश में 150 किमी के बीच कम ज़्यादा होती रहती है। हिमालय महापर्वत पर भूटान, चीन, भारत, नेपाल और पाकिस्तान देशों के 5.27 करोड़ लोग रहते हैं।  अफगानिस्तान में हिंदू कुश रेंज और म्यांमार में हकाकाबो रज़ी आम तौर पर हिमालय में शामिल नहीं हैं, लेकिन वे दोनों हिमालयी नदी प्रणाली का हिस्सा हैं। काराकोरम को भी आमतौर पर हिमालय से अलग माना जाता है।

श्रेणी का नाम संस्कृत में हिमालय (हिमालय ‘बर्फ का निवास’), हिम (‘बर्फ’) और आ-लय (आलय ‘रिसेप्टकल, आवास’) से निकला है। अब “हिमालय पर्वत” के रूप में जाना जता हैं। एमिली डिकिंसन की कविता और हेनरी डेविड थोरो के निबंधों के रूप में इसे पहले भी हिमालेह के रूप में लिखा गया था। इन पहाड़ों को नेपाली और हिंदी में हिमालय के रूप में जाना जाता है। तिब्बती में ‘द लैंड ऑफ स्नो’, उर्दू में रेंज, बंगाली में हिमालय पर्वतमाला और चीनी में ज़िमालय पर्वत श्रृंखला (चीनी; पिनयिन: ज़िमिलाय शानमी)। रेंज का नाम कभी-कभी पुराने लेखन में हिमवान के रूप में भी दिया जाता है।

नेपाल में धौलागिरी और अन्नपूर्णा की 26000 फीट ऊँची चोटियाँ भौगोलिक रूप से हिमालय को पश्चिमी और पूर्वी खंडों में विभाजित करती हैं। काली गंडकी के सिर पर कोरा ला एवरेस्ट और K2 (पाकिस्तान में काराकोरम रेंज की सबसे ऊंची चोटी) के बीच की लकीर पर सबसे निचला बिंदु है। अन्नपूर्णा के पूर्व में सीमा पार मनासलू की 26000 फीट ऊँची चोटियाँ तिब्बत, शीशपंगमा में हैं। इनके दक्षिण में नेपाल की राजधानी और हिमालय का सबसे बड़ा शहर काठमांडू स्थित है। काठमांडू घाटी के पूर्व में कोसी नदी की घाटी है जो तिब्बत, नेपाल और चीन के बीच अरानिको राजमार्ग/चीन राष्ट्रीय राजमार्ग 318 को मुख्य भूमि प्रदान करती है। इसके अलावा पूर्व में महालंगुर हिमालय है जिसमें दुनिया के चार उच्चतम पर्वत: चो ओयू, एवरेस्ट, ल्होत्से और मकालू हैं। ट्रेकिंग के लिए लोकप्रिय खुम्बू क्षेत्र यहां एवरेस्ट के दक्षिण-पश्चिमी दृष्टिकोण पर पाया जाता है। अरुण नदी दक्षिण की ओर मुड़ने और मकालू के पूर्व की ओर बहने से पहले इन पहाड़ों की उत्तरी ढलानों से बहती है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #78 – 16 – जिम कार्बेट व सरला देवी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 16 – जिम कार्बेट व सरला देवी ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #78 – 16 – जिम कार्बेट व सरला देवी ☆ 

लन्दन के शैफर्डबुश में  5 अप्रैल 1901 को जन्मी  कैथरीन को जब भारत के स्वाधीनता आन्दोलन और महात्मा गांधी के संघर्ष के विषय में पता चला तो वे अंततः  1932 में भारत आकर गांधीजी की शिष्या बनी तथा आठ साल तक सेवाग्राम में गांधी जी के सानिध्य में रही और गांधीजी के ‘नई तालीम’ के काम में अपना सहयोग दिया । गांधीजी ने मीरा बहन के बाद अपनी इस दूसरी  विदेशी शिष्या को नया  नाम दिया  सरला देवी । बाद में  गांधीजी के निर्देश पर सरला देवी ने 1940 में कुमांऊ अंचल पहुंचकर स्वाधीनता संग्राम पर  काफी काम किया और इस दौरान वे दो बार जेल भी गई। उन्होंने  कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना ठीक उसी स्थान के निकट की जहां बैठकर गांधी जी ने गीता पर अपनी पुस्तक ‘अनासक्ति योग’ लिखी थी।  अपने आश्रम के माध्यम से उन्होंने बालिका शिक्षा और महिला सशक्तिकरण का कार्य किया । पर्वतीय अंचल के गांधी विचारों से जुड़े कार्यकर्ताओं को संगठित कर उन्होंने उत्तराखंड सर्वोदय मंडल का गठन किया, वनाधिकार व पर्यावरण केन्द्रित ‘चिपको आन्दोलन’ के प्रमुख कार्यकर्ता सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ वे जुडी रही और शराब विरोधी आन्दोलन को सशक्त करती रही । हिन्दी में उन्होंने भारत आकर प्रवीणता हासिल की और दस पुस्तके लिखी । उनके जीवन का सबसे दुखदाई क्षण तब आया जब 1967  से 1977 की अवधि में विदेशी नागरिक होने के कारण उन्हें इस सीमान्त अंचल को छोड़ना पडा । वे पुन: यहाँ वापस आई और  1982 बेरीनाग के निकट हिमदर्शन कुटीर  में उन्होंने अंतिम सांस ली । यह स्थल यद्दपि पाताल भुवनेश्वर के नज़दीक था तथापि दिन ढलने व समयाभाव के कारण में वहाँ न जा सका किन्तु उनके कौसानी आश्रम अवश्य गया और एक बार उनकी शिष्या राधा बहन से भी भोपाल में मिला ।

अपने सहयोगियों के बीच बहनजी के नाम से मशहूर  सरला देवी जब  1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में गिरफ्तार हुई और बाद को रिहा होने के बाद वे गांधी जी से मिलने पूना गई, उसी वक्त के दो संस्मरण उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘ व्यावहारिक वेदांत’ में लिखे हैं ।

‘बापू अब सेवाग्राम वापस जा रहे थे, तो तय हुआ कि मैं पहले अहमदाबाद में एक विकासगृह देखने जाऊं और फिर उनके साथ बम्बई से वर्धा ।

मैं जब विक्टोरिया टर्मिनल पहुँची तो कलकत्ता मेल पहले से प्लेटफार्म पर खडी थी । मैंने बतलाया कि मुझे बापू के साथ जाना है । लोगों ने मुझे वैसे ही प्लेटफार्म में चले जाने दिया । कुछ लोग एक छोटे से आरक्षित डिब्बे में सामान संभाल रहे थे। साधारण डिब्बे से इस डिब्बे में ज्यादा लोग थे, सफ़र में शांति नहीं मिली। हर स्टेशन पर जबरदस्त भीड़ बापू के दर्शन के लिए इक्कठी मिलती थी। हरिजन कोष के लिए बापू अपना हाथ फैलाते थे। लोग जो कुछ दे सकते थे, देते थे , एक पाई से लेकर बड़ी-बड़ी रकमें और कीमती जेवर तक। स्टेशन से गाडी छूटने पर एक-एक पाई की गिनती की जाते थी और हिसाब लिखा जाता था।

सेवाग्राम में जब मैं बापू से विदा लेने गई तो मैंने उनके सामने बा और बापू की एक फोटो रखी । इरादा उस पर उनके हस्ताक्षर लेने का था । बापू बनिया तो थे ही और वे हर एक चीज का नैतिक ही नहीं भौतिक दाम भी जानते थे। वे अपने दस्तखत की कीमत भी जानते थे और इसलिए अपना हस्ताक्षर देने के लिए हरिजन कोष के लिए कम से कम पांच रुपये मांगते थे । पांच रुपये से कम तो वे स्वीकार ही नहीं करते थे । उन्होंने आखों में शरारत भरकर मुझे देखा । मैंने कहा,” क्यों ? क्या आप मुझे भी लूटेंगे ?”

उन्होंने गंभीरता से उत्तर दिया, “ नहीं मैं तुझे नहीं लूट सकता । तेरे पैसे मेरे हैं, इसलिए मैं तुझसे पैसे नहीं ले सकता ।”

मैंने कहा “बहुत अच्छी बात है । तो आप इस पर दस्तखत करेंगे न ?”

“क्या करूँ , मैं बगैर पैसों के दस्तखत भी नहीं कर सकता ।” बापू ने कहा और फिर उन्होंने सोच-समझकर पूंछा “ तुम मेरे दस्तखत के लिए इतनी उत्सुक क्यों हो ?”

मैंने कहा “ यदि मेरी लडकिया लापरवाही करेंगी, पढ़ाई या काम की ओर ठीक से ध्यान नहीं देंगी तो मैं उन्हें आपकी फोटो दिखाकर कहूंगी कि यदि तुम बापू की तरह महान बनना चाहती हो तो तुम्हें आपकी तरह ठीक ढंग से काम करना चाहिए।”

बापू ने जबाब दिया “ मैंने लिखना-पढ़ना सीखा, परीक्षा पास करके बैरिस्टर बना, इन सबमे कोई विशेषता नहीं है। इससे तुम्हारी लडकियाँ मुझसे कुछ नहीं सीख पाएंगी ।  यदि ये मुझसे कुछ सीख सकती हैं तो यह सीख सकती हैं कि जब मैं छोटा था तब मैंने खूब गलतियां की लेकिन जब मैंने अपनी गलती समझी तो मैंने पूरे दिल से उन्हें स्वीकार किया । हम सब लोग गलतियां करते हैं, लेकिन जब हम उनको स्वीकार करते हैं तो वे धुल जाती हैं , और हम फिर दुबारा  वही गलती नहीं करते ।”

उन्होंने मुझे याद दिलाई कि बचपन में वे खराब संगत में पड़ गए थे, उन्होंने सिगरेट पीना और गोश्त खाना शुरू कर दिया था और फिर अपना कर्ज चुकाने के लिए रूपए और सोने की चोरी की थी । जब उन्होंने अपनी  गलती समझी तब उसे पूरी तरह खोल कर अपने पिताजी को लिखा । पिताजी पर इसका अच्छा असर हुआ और उन्होंने मोहन को माफ़ कर दिया । ‘

भारत प्रेमी इन दोनों महान हस्तियों, जिम कार्बेट व सरला देवी  को मेरा नमन।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक-११ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मीप्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- ११ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

‘भीषण सुंदर’ सुंदरी आणि चंद्रमुखी??

दुसऱ्या दिवशी सकाळी कॅम्पच्या शेजारी असलेलं म्युझियम पाहिलं. त्यात वाघ, इतर वन्य प्राणी, मगरी, पक्षी, फुलपाखरं, वेगवेगळ्या जातीची तिवरं, त्यांचे उपयोग असं दाखवलं होतं. तिथून खाली दिसणार्‍या मोठ्या तळ्यात मगर पार्क केलं होतं .सुंदरबनच्या बेटसमूहांचा मोठा कॉ॑क्रीटमधला नकाशा फुलापानांनी सजलेल्या बागेत होता. आज सुंदरबनातून परतीचा प्रवास होता. येताना काळोखात न दिसलेली अनेक राहती हिरवी बेटं, त्यावरील कौलारु घरं, शाळा,नारळी- केळीच्या बागा आणि भातशेतीच्या कामात गढलेली माणसं दिसत होती.  खाडीचं खारं पाणी आत येऊ नये म्हणून प्रत्येक गावाला उंच बंधारे बांधले होते. स्वातंत्र्यपूर्व काळात हॅमिल्टन नावाच्या गोऱ्या साहेबानं गोसाबा या बेटावर स्थानिकांनी तिथे रहावं म्हणून शेतीवाडी, शिक्षण, हॉस्पिटल, रस्ते या कामात मदत केली. तो स्वतःही तिथे रहात होता. या बेटावरील त्याचा जुना, पडका बंगलाही पाहायला मिळाला. रवींद्रनाथ ठाकूर यांनी दोन दिवस वास्तव्य केलेली, छान ठेवलेली एक बंगलीही होती. गोसाबा बेटावरचे हे गाव चांगलं मोठं, नांदतं होतं. तिथलं पॉवर हाउस म्हणजे जंगली लाकडाचे मोठे ठोकळे वापरून, मोठ्या भट्टीत बॉयलरवर पाणी उकळवतात व त्यापासून औष्णिक वीज तयार केली जाते. त्यातून त्या गावाची विजेची गरज भागते.

जिम कार्बेट, कान्हा, काझीरंगा, रणथंबोर, थेकडी, सुंदरबन अशा अनेक अरण्यांना  भेटी देऊन झाल्या पण वाघाची व आमची दृष्टभेट नाही. आम्हाला फक्त हरीणे, पक्षी, हत्ती, रानम्हशी वगैरेंचं दर्शन झालं. सुंदरबन कॅ॑पमध्ये रात्री आम्हाला एका मोठ्या हॉलमध्ये वाघावरची फिल्म दाखवली. तिथे अजून २७६ वाघ आहेत. परंपरागत मासेमारीसाठी, मध व औषधी वनस्पती गोळा करण्यासाठी स्थानिक लोक जीव धोक्यात घालून या वनात खोलवर जातात. लांबट होडीतून सात-आठ जण एकत्र जातात. त्यांच्या चेहऱ्याच्या मागच्या बाजूला माणसाचा मुखवटा वाघाची फसगत करण्यासाठी बांधलेला असतो. अजूनही दरवर्षी चाळीस- पन्नास माणसं वाघाचे भक्ष होतात. कधी सरपण गोळा करायला गेलेली मुलं, म्हातारी माणसं तर कधी मासेमारीसाठी गेलेले कोळी. भक्षावर झेपावणारं ते सळसळतं, सोनेरी ‘भीषण सौंदर्य’ पडद्यावर पाहतानासुद्धा थरथरायला होत होतं! चित्रफितीच्या शेवटी एका लांबट, मजबुत होडीतून सात- आठ जण दहा- पंधरा दिवसांनी मासेमारी करून, जंगल संपत्ती घेऊन घरी परत येत आहेत असं दाखवलं होतं. होडीच्या स्वागतासाठी किनार्‍यावर त्यांचे सारे कुटुंबीय हजर होते. घरधनी सुखरूप परत आल्याचं पाहून एका सावळ्या, गोल चेहऱ्याच्या, टपोऱ्या डोळ्यांच्या, गोल मोठं कुंकू आणि भांगात सिंदूर भरलेल्या ‘चंद्रमुखी’च्या चेहराभर हसू पसरलं. इतकं आंतरिक समाधानाचं, निर्व्याज, मनापासूनचं हसू खूप खूप दिसांनी बघायला मिळालं.

सुंदरबन समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #77 – 15 – जिम उर्फ़ जेम्स एडवर्ड कार्बेट ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 15 – जिम उर्फ़ जेम्स एडवर्ड कार्बेट”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #77 – 15 – जिम उर्फ़ जेम्स एडवर्ड कार्बेट☆ 

भारत लम्बे समय तक ब्रिटिश राज के आधीन रहा और जहाँ एक ओर उसने  जनरल डायर सरीखे खूंखार मानवद्रोहियों के अत्याचार सहे तो ऐसे अनेक अंग्रेज भी इस धरा पर आये जिन्होंने यहाँ के निवासियों का दिल अपनी सेवा भावना व न्यायप्रियता से जीता । उस वक्त संयुक्त प्रांत या आज के उत्तरप्रदेश के अंग रहे उत्तराखंड को, ऐसी ही दो महान हस्तियों का सानिध्य मिला, एक बन्दूक के शौक़ीन जिम कार्बेट और दूसरी अहिंसा की पुजारिन लन्दन में जन्मी  कैथरीन उर्फ़ सरला देवी ।

जिम यानी जेम्स एडवर्ड कार्बेट 1875 में कालाढुँगी के पोस्टमास्टर की ग्यारहवीं संतान के रूप में जन्मे और जब वे केवल चार वर्ष के नन्हे बालक थे तो उनके पिता की मृत्यु हो गई । कुमाऊं के अपेक्षाकृत मैदानी इलाके में बसे कालाढुँगी के खूबसरत जंगल जानवरों और परिंदों से भरे थे और यहाँ के बृक्ष, हिंसक जानवर,कोसी के अज़गर, चारा चरते हिरण और आसमान में उड़ते परिंदे नन्हे जिम के पहले साथी बने । आठ वर्ष की उम्र में, गुलेल और तीर कमान से जंगली मुर्गियों और मोरों का शिकार करने वाला यह नन्हा शिकारी, दुनाली भरतल बंदूक का मालिक बना । ऐसी बंदूक जिसकी  दाईं नाल फटी हुई थी और पीतल के तारों से बन्दूक के कुंदे और नालों को आपस में जोड़कर बांधा गया था । पर इससे क्या ? नन्हे शिकारी के लिए यह थी तो गर्व की बात । और यह गौरव पूर्ण क्षण जिम ने सबसे पहले अपने चाचा की उम्र के  कुंवर सिंह के साथ साझा किये जिसने उसे शिकार खेलने की बारीकियां समझाई और साथ ही पेड़ों पर चढ़ना भी सिखाया । बाद के दिनों में कुंवर सिंह अफीमची हो गया और बहुत बीमार पड़ा तब जिम कार्बेट ने उसकी बड़ी सेवा की और मौत के मुंह से बाहर निकाला ।   

जिम, जिसे कुमाऊं के पहाड़ी लोग आदर से कापेट साहब कहते थे , ने अठारह वर्ष की उम्र में अपनी स्कूली शिक्षा नैनीताल से पूरी की और फिर रेलवे में नौकरी कर ली । इस सिलसिले में उन्हें अपने प्रिय जंगलों से हज़ार किलोमीटर दूर बिहार के मोकामा घाट में जाना पडा । यहाँ रहते हुए उन्होंने अपने कामगारों के बच्चों के लिए स्कूल खोला और इस काम में उनके साथी बने स्टेशन मास्टर रामसरन, जो खुद तो ज्यादा पढ़े लिखे न थे पर शिक्षा का महत्व समझते  थे । बाद में सरकार ने स्कूल को अधिकृत कर मिडिल स्कूल  बना दिया और जिम के साथी रामसरन को ‘राय साहब’ का खिताब मिला । खेलकूद के शौक़ीन जिम ने मैदान साफ़ करवाकर फुटबाल और हॉकी के खेल शुरू किए और इसी दौरान वे प्रथम विश्वयुद्ध के समय वे सेना में भर्ती हो गये । मोकामाघाट में ही उन्होंने माल लदाई का ठेका लिया ।

सेना की नौकरी से त्यागपत्र देकर जिम 1922 में कालाढुँगी आकर बस गए । यहाँ उन्होंने खेती की जमीनें खरीदी, जंगली जानवरों से खेतों की रक्षा के लिए लम्बी बाउंड्री वाल बनवाई, सत्रह कृषक  परिवारों को न केवल बसाया वरन  उनके लिए पक्के मकान बनवाये, अपने लिए एक शानदार बँगला बनवाया । जिम का यह बँगला कोई दो हेक्टेयर जमीन के एक छोटे से हिस्से में बना था । और इसमें वे अपनी बहन मैगी और शिकारी कुत्ते रोबिन के साथ सर्दियों के मौसम में रहते थे । उनकी गर्मिया व्यतीत होती थी नैनीताल के गुर्नी हाउस में । 1947 में भारत आज़ाद हुआ और जिम ने भरे मन से अपने इस प्यारे देश, जहाँ उसका जन्म हुआ और नाम व प्रसिद्धि मिली, को अलविदा कह दिया और वे अपनी बहन के साथ केन्या में जा बसे, जहाँ उनकी मृत्यु 1955 में हो गई । जब वे भारत छोड़ कर जा रहे थे तब   कालाढुँगी  का बँगला चिरंजीलाल को बेच दिया और खेती की जमीनें कृषकों के नाम कर दी । वन विभाग ने इस बंगले को 1965 में खरीदकर, जिम कार्बेट के द्वारा उपयोग में लाई गई अनेक वस्तुएं, बर्तन, मेज-कुर्सी, शिकार व अन्य गतिविधियों को दर्शाते उनके चित्रों व छायाचित्रों को संग्रहित कर संग्रहालय का स्वरुप दिया है । ऐसा कर उत्तराखंड के वन विभाग ने इस महान शिकारी, अद्भुत लेखक और एक शानदार इंसान, जिसे अपने लोगों व सहकर्मियों से और इस देश के वाशिंदों से बेपनाह प्यार  था, को सच्ची श्रद्धांजलि दी है ।

जिम कार्बेट जब केन्या में बस गए तो उन्हें भारत में बिताए अपने पचहत्तर से कुछ कम वर्षों की बहुत याद आती और अपनी इन्ही यादों को, शिकार की कहानियों को, भारत के जंगल की वनस्पतियों व जानवरों को, जंगल के प्राकृतिक सौन्दर्य और सबसे बढ़कर नैनीताल की हरी-भरी  वादियों से लेकर कालाडुंगी के मैदानों और फिर सूदूर बिहार के मोकामाघाट के भोले-भाले ग्रामीणों के साथ बिताए दिनों का शानदार वर्णन उन्होंने कोई आधा दर्जन किताबों के माध्यम से किया । उनकी चर्चित कृतियों में कुमाऊं के नरभक्षी, जीती जागती कहानी जंगल की और मेरा हिन्दुस्तान बहुत लोकप्रिय है । कुमाऊं के नरभक्षी की कहानियां तो महाविद्यालय के अंग्रेजी  पाठ्यक्रम में लम्बे समय तक शामिल रही ।

जिम कार्बेट का जंगल ज्ञान अद्भुत था । उन्हें पत्ता खडकने, वृक्षों को देखकर, जानवरों के पदचिन्ह देखकर जंगल में क्या घटने वाला है इसका अंदाजा हो जाता था । वे शेर की आवाज निकालने में माहिर थे और अक्सर नरभक्षी शेर को मादा शेर की आवाज निकालकर अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे । कुमाऊं के प्रशासन ने जंगलों में पनाह लिए दुर्दांत दस्यु सुल्ताना को पकड़ने के लिए जिम कार्बेट की मदद ली थी और उन्होंने अनेक बार पुलिस टीम को जंगल में भटकने से बचाया था ।  उनका निशाना इतना गजब का था कि शायद ही कोई गोली बेकार गई हो । अपनी बहादुरी और जंगल ज्ञान के कारण उन्होंने कोई दस नरभक्षी शेरों का शिकार हिमालय की तराई में बसे जंगलों में किया । वे 1931में गिर्जिया गांव के पास मोहन नरभक्षी शेर का शिकार करने नैनीताल जिला प्रशासन द्वारा भेजे गए। शेर के संबंध में जानकारियां एकत्रित करते वक्त ग्रामीणों ने  बताया कि जब कभी रात में शेर गांव में आता है तो रूक-रूककर हल्के कराहने की आवाज सुनाई देती है । जिम ने उनके द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर अंदाज लगाया कि शेर घायल हैं और बंदूक की गोली या साही के नुकीले कांटे ने उसके पैर में जख्म बना दिए हैं । ग्रामीण जिम की बात से असहमत थे क्योंकि उन्होंने दिन में इसी शेर को पूर्णतः स्वस्थ देखा है। लेकिन जब जिम ने इस नरभक्षी का शिकार किया तो ग्रामीणों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा क्योंकि उसके अगले बाएं पैर से साही के चार से पांच इंच तक लंबे तीस कांटे निकले । इन्हीं घावों ने इस शेर को नरभक्षी बना दिया और चलते वक्त उसके कराहने की आवाज ग्रामीणों को सुनाई देती थी।

हम सब, कभी न कभी जंगल , वन अभ्यारण्य या वाघ संरक्षण केन्द्रों का , आनन्द लेने  जिप्सी सफारी से गए होंगे और अगर  हमने जंगल में बाघ, तेंदुए  या अन्य किसी बड़ी बिल्ली को नहीं देखा होगा तो चिड़ियाघरों में तो वनराज के दर्शन अवश्य करे होंगे । इस दौरान आपने कभी गौर किया कि जंगल में जब बाघ विचरता होगा तो कैसा दृश्य निर्मित होता होगा ? इसका शानदार चित्रण जिम कॉर्बेट ने अपनी पुस्तक ‘Man Eaters of Kumaon’ के एक अध्याय ‘The Bachelor of Powalgarh’ में किया है । कुमायूं के जंगलों में विचरण करने वाला यह 10 फीट 7 इंच लंबा मानवभक्षी बाघ अंतत: जिम की बन्दूक  से निकली गोली का शिकार बना पर शिकार होने से पहले 1920 से 1930 तक इसकी उपस्थिति मात्र से पहाड़ के बहादुर निवासी भी अपने-अपने घरों में दुबक जाते थे । आप भी जिम की इस कहानी के छोटे से हिस्से का मजा लीजिये ।   

Sitting on a tree stump and smoking, I had been looking at this scene for sometimes when the hind nearest to me raised her head, turned in my direction and called ; and a movement later the Bachelor stepped Into the open, from the thick bushes below me.  For a long minute he stood with head held high surveying the scene, and then with slow unhurled steps started to cross the glade. In his rich winter coat, which the newly risen sun was lighting up, he was a magnificent sight as, with head turning now to the right and now to the left, he walked down the wide lane the deer had made for him. At the stream he lay down and quenched his thirst, then sprang across and, as he entered the dense tree jungle beyond, called three times ।n acknowledgement of the homage the jungle folk had paid him, for from the time he had entered  the glade every chital had called, every jungle fowl had cackled, and every one of a troupe of monkeys on the trees had chattered.

जिम कार्बेट को जंगल के जानवरों की न्यायप्रियता पर इंसानों से ज्यादा भरोसा था । एक बार जंगल में उन्होंने इसका अद्भुत नज़ारा देखा । जंगल के खुले मैदान में एक शेरनी महीने भर के बकरी के बच्चे का पीछा करते हुए जिम को दिखी । मेमना शेरनी को आते हुए देखकर मिमियाने लगा और शेरनी ने भी दबे पाँव उसका पीछा करना बंद किया और सीधे उसकी तरफ बढी । जब शेरनी मेमने से कुछ ही गज दूर थी तो बच्चा शेरनी से मिलने उसकी तरफ बढ़ा । शेरनी के बिलकुल नज़दीक पहुंचकर उसने अपना मुख आगे बढ़ाकर शेरनी को सूंघा । दिल में होने वाली  दो-चार  धडकनों तक जंगल की रानी और मेमना नाक से नाक मिलाये खड़े रहे । फिर अचानक शेरनी पलटी और जिस रास्ते आई थी उसी रास्ते वापस चली गई । जिम ने इस घटना को द्वितीय विश्वयुद्ध मे ख़त्म होने पर ब्रिटिश राज के बड़े नेताओं द्वारा हिटलर और दुश्मन देशों के नेताओं को ‘जंगल का क़ानून ‘ लागू करने संबंधी बयान पर आपत्ति दर्ज करते हुए अपने संस्मरणों में लिखा है कि ‘यदि ईश्वर ने वही क़ानून इंसानों के लिए बनाया होता जो उसने जंगली जानवरों के लिए बनाया है तो कोई जंग होती ही नहीं क्योंकि तब इंसानों में जो ताकतवर होते उनके दिल में अपने से कमजोर लोगों के लिए वही जज्बा होता जोकि जंगल के क़ानून में हम अभी देख चुके हैं ।’

जिम की कहानियों में उन ग्रामीणों का भी वर्णन है जो बड़ी मुफलिसी और गरीबी में अपने दिन गुजार रहे थे । उनकी इन कहानियों के पुनवा, मोती, कुंती, पुनवा की माँ जैसे अनेक नायक हैं जो ईमान की खातिर रुपये पैसे की परवाह नहीं करते थे । उनकी ऐसी ही कहानी का नायक उच्च जाति का ग्रामीण पहाड़ी है जो  जंगल में दलित परिवार के दो  बिछुड़े बच्चों को खोजकर लाता है और जब उसे घोषित ईनाम के पचास रुपये गाँव के लोग देने की बात करते हैं तो वह यह रकम लेने से ही इनकार कर देता है, क्योंकि उसकी निगाह में पुण्य का कोई मोल नहीं है । जिम की इन काहनियों से हमें तत्कालीन भारत की गरीबी, बाल विवाह, जात-पात, ऊँच नीच के भेदभाव का वर्णन मिलता है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक-९ – जगदलपूर ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मीप्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- ९ – जगदलपूर ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

बोरा केव्हज् पाहून आम्ही बसने आरकू व्हॅली इथे मुक्कामासाठी निघालो. खरं म्हणजे विशाखापट्टणम ते छत्तीसगडमधील जगदलपूर हा आमचा प्रवास किरंडूल एक्स्प्रेसने  होणार होता. ही किरंडूल एक्सप्रेस पूर्व घाटाच्या श्रीमंत पर्वतराजीतून, घनदाट जंगलातून, ५४ बोगद्यांमधून  प्रवास करीत जाते म्हणून त्या प्रवासाचे अप्रूप वाटत होते. पण नुकत्याच पडलेल्या धुवांधार पावसामुळे एका बोगद्याच्या तोंडावर डोंगरातली मोठी शिळा गडगडत येऊन मार्ग अडवून बसली होती. म्हणून हा प्रवास आम्हाला या डोंगर-दर्‍या शेजारून काढलेल्या रस्त्याने करावा लागला. हा प्रवासही आनंददायी होता. रूळांवरील अडथळे दूर सारून नुकत्याच सुरू झालेल्या मालगाडीचे दर्शन अधूनमधून या बस प्रवासात होत होते. प्रवासी गाडी मात्र अजून सुरू झाली नव्हती. अनंतगिरी पर्वतरांगातील लावण्याच्या रेशमी छटा डोळ्यांना सुखवीत होत्या.भाताची पोपटी, सोनसळी शेते, तिळाच्या पिवळ्याधमक नाजूक फुलांची शेती आणि मोहरीच्या शेतातील हळदी रंगाचा झुलणारा गालिचा, कॉफीच्या काळपट हिरव्या पानांचे मळे आणि डोंगर कपारीतून उड्या घेत धावणारे शुभ्र तुषारांचे जलप्रपात रंगाची उधळण करीत होते.

गाई, म्हशी, शेळ्या, मेंढ्या यांचे कळप चरायला नेणारे आदिवासी पुरुष, लाकूड-फाटा आणि मध, डिंक, चिंचा, आवळे, सीताफळे असा रानमेवा गोळा करून पसरट चौकोनी टोपल्यातून डोक्यावरून घेऊन जाणाऱ्या आदिवासी स्त्रिया मधून मधून दिसत होत्या. या स्त्रिया कानावर एका बाजूला उंच अंबाडा बांधतात. त्यावर रंगीबेरंगी फुलांच्या, मण्यांच्या माळा घालतात. घट्ट साडी नेसलेल्या, पायात वाळे आणि नाकात नथणी घातलेल्या तुकतुकीत काळ्या रंगाच्या या स्त्रिया भोवतालच्या निसर्गचित्राचा  भव्य कॅनव्हास जिवंत करीत होत्या. आरकू म्हणजे लाल माती.आरकू व्हॅली व परिसरातील आदिवासींना, वनसंपत्तीला संरक्षण देणारे विशेष कायदे आंध्र प्रदेश सरकारने केले आहेत. व्हॅलीतील सुखद,शीतल वास्तव्य अनुभवून आम्ही छत्तीसगडमधील जगदलपूर इथे जाण्यासाठी निघालो.

जगदलपूर हे बस्तर जिल्ह्याचे मुख्यालय आहे. बस्तरच्या खाणाखुणा पाषाण युगापर्यंत जातात. प्राचीन दंडकारण्याचा हा महत्वपूर्ण भूखंड आहे. हा सर्व भाग घनदाट जंगलसंपत्तीने, खनिजांनी समृद्ध आहे.साग आणि साल वृक्ष, बांबूची दाट बने, पळस यांचे वृक्ष तसेच चिरोंजी, तेंदूपत्ता,सियारी म्हणजे पळस, आंबा, तिखूर सालबीज, फुलझाडूचे गवत,  रातांबा आणि कित्येक औषधी वनस्पतींनी श्रीमंत असं हे जंगल आहे. या पूर्व घाटातील बैलाडीला या पर्वतरांगांमध्ये अतिशय उच्च प्रतीच्या लोहखनिजाचे प्रचंड साठे आहेत. ब्रिटिशांनी दुर्गम प्रदेशातील या खनिजसंपत्तीचा शोध लावला. बस्तर संस्थानच्या भंजदेव राजाला फितवून त्यांना हैदराबाद प्रमाणेच हे संस्थान स्वतंत्र ठेवायचे होते. भारताची आणखी मनसोक्त लूट करायची होती. पण पोलादी पुरुष सरदार वल्लभाई यांनी १९४८साली बस्तर संस्थान खालसा केले. विशाखापट्टणम ते जगदलपुर ही पूर्व घाटातून ५४ बोगदे खणून बांधलेली रेल्वे जपानने बांधून दिली. १९६० साली जपानबरोबर ४० वर्षांहूनही अधिक वर्षांचा करार करण्यात आला. बैलाडीलातील समृद्ध लोहखनिज खाणीतून काढून कित्येक किलोमीटर लांबीच्या सरकत्या पट्ट्यांवरून मालगाड्यात भरले जाते. तिथून ते विशाखापट्टणमला येते आणि थेट जपानला रवाना होते. कारणे काहीही असोत पण जपानबरोबरचा हा करार अजूनही चालूच आहे. ब्रिटिशांच्या, जपान्यांच्या बुद्धिमत्तेचे, चिकाटीचे, संशोधक वृत्तीचे कौतुक करावे की वर्षानुवर्षे त्यांनी आपल्या देशाची केलेली लूट पाहून विषाद मानावा अशी संभ्रमित मनस्थिती होते.

भाग-१ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75 – 14 – उत्तराखंड के व्यंजन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 14 – उत्तराखंड के व्यंजन ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #76 – 14 – उत्तराखंड के व्यंजन ☆ 

भारत की विविधता में भोजन की विविधताओं का अपना अलग योगदान है । पहाड़ों पर कृषि कार्य मुश्किल है और चोटियों को काट-काटकर सीढ़ीनूमा खेतों पर किसानी करना मेहनत भरा काम है । इन छोटे छोटे खेतों में पहाड़ी पुरुष और महिलाएं गेहूँ, धान,मक्का, तरह-तरह की दालें, आलू आदि की पैदावार करते हैं और इन्ही उपजों से तैयार होता है कुमायूं का  सीधा सरल व जायकेदार शाकाहारी भोजन । पहाड़ों पर मांसाहारी भोजन का भी खूब चलन है  । पहले जब शिकार की अनुमति थी तब पहाड़ के निवासी जंगली मुर्गी, तीतर, बतखों के अलावा पहाड़ी बकरी , चीतल आदि का शिकार करते और अपनी जिव्हा को तृप्त करते थे । चोरी छिपे शिकार तो अंग्रेजों के जमाने में भी होता था और अगर अभी भी होता है तो पता नहीं पर माँसाहार के शौकीनों के लिए बिनसर  अपने लजीज पहाड़ी मुर्ग के लिए प्रसिद्ध है और होटलों में पहले से आर्डर देकर इसके लजीज व्यंजनों का स्वाद लिया जा सकता है । हम तीन दिन बिनसर में रुके और इन तीन दिनों में हमने कुमांउनी थाली में निम्न व्यंजनों का भरपूर स्वाद लिया ।  

भांग और तिल की चटनी काफी खट्टी बनाई जाती है । भांग की चटनी हो या तिल की चटनी, इसके लिए दानों को पहले गर्म तवे या कड़ाही में भूनकर और फिर इसमें इसमें जीरा, धनिया, नमक और मिर्च स्वादानुसार डालकर पीसा जाता है । नींबू का रस डालकर इसे आलू के गुटके व  रोटी आदि के खाने का मजा अलग ही है । स्वाद आलौकिक इस चटनी में घबराइये नहीं , नशा  बिलकुल भी नहीं होता है ।

‘आलू के गुटके’ विशुद्ध रूप से कुमाऊंनी स्नैक्स हैं । उबले हुए आलू के बड़े बड़े टुकड़ों को , पानी का इस्तेमाल किये बिना  सब्जी के रूप में पकाया जाता है। लाल भुनी हुई मिर्च, धनिया, जीरा आदि मसाले से युक्त इस सब्जी में तडका भी लगाया जाता है और इसे मडुए की रोटी के साथ खाने का मजा कुछ और ही है ।

कुमाऊं का रायता देश के अन्य हिस्सों के रायते से काफी अलग होता है । इसमें बड़ी मात्रा में ककड़ी (खीरा), सरसों के दाने, हरी मिर्च, हल्दी पाउडर और धनिए का इस्तेमाल होता है।  यह रायता बनाने के लिए छाछ  की क्रीम का उपयोग होता और इसे निकालने के लिए  दही को हल्का मथकर एक कपड़े के थैले में भरकर किसी ऊंची जगह पर टांग दिया जाता है ।  कपड़े में से सारा पानी धीरे-धीरे बाहर निकल जाता है, जबकि छाछ की क्रीम थैले में ही रह जाती है ।  इस क्रीम का इस्तेमाल करने से  कुमाऊंगी रायता काफी गाढ़ा होता है।

कुमाऊं की शान है मडुए के आटे से  बनी मडुए की रोटी । मडुआ, रागी जैसा यह एक स्थानीय अनाज है और इसमें बहुत ज्यादा फाइबर होता है,  स्वादिष्ट होने के साथ ही यह स्वास्थ्यवर्धक भी  है । भूरे  रंग की मडुए की रोटी को  घी, दूध या भांग व तिल की चटनी के साथ परोसा जाता है और आलू के गुटके इसके स्वाद को द्विगुणित कर देते हैं।

सिसौंण के साग में बहुत ज्यादा पौष्टिकता होती है ।  सिसौंण एक किस्म की भाजी है जिसे  आम बोलचाल की  भाषा में ‘बिच्छू घास’ के नाम से पुकारा जाता है क्योंकि इसके पत्तों या डंडी को सीधे छूने पर यह दर्द होने लगता और शरीर के उस भाग में  सूजन आ जाती है और बहुत ज्यादा जलन होती है । सिसौंण के हरे पत्तों को सावधानी पूर्वक काटकर जो स्वादिष्ट  सब्जी बनाई जाती है उसमे  और आश्चर्य की बात यह है कि इसे खाने में कोई नुकसान नहीं होता ।

मास के चैंस कुमाऊं क्षेत्र के खायी जाने वाली प्रमुख दाल है।  मास यानी काली उड़द को दड़दड़ा पीस कर बनाई जाने वाली इस दाल में प्रोटीन काफी मात्रा में होता है और इसलिए इसे हजम करना कुछ कठिन होता है और इसे खाना  कब्जियत का कारण भी हो सकता है , ऐसा हम लोगों ने महसूस किया । जीरा, काली मिर्च, अदरक, लाल मिर्च, हींग आदि के साथ यह दाल न सिर्फ स्वाद के मामले में अदभुत होती है बल्कि स्वास्थ्य के लिजाज से भी काफी अच्छी मानी जाती है।.

काप या कापा एक प्रकार की हरी करी है । सरसों, पालक आदि के हरे पत्तों को काटकर उबाल लिया जाता और फिर  पीस कर ‘काप’ बनाया जाता है जोकि कुमाऊंनी खाने का एक अहम अंग है। इसे रोटी और चावल के साथ खाया जाता है ।

गहत की दाल कुमाऊं क्षेत्र में बहुत प्रसिद्द है और  चावल और रोटी के साथ भी इसके लजीज स्वाद का लुत्फ हम लोगों ने लिया । होटल के संचालक ने हमें बताया कि यह दाल खाने से पेट की पथरी (स्टोन) कट जाती है । इसके अलावा इसकी तासीर गर्म होती है, इसलिए सर्दियों में इस दाल का सेवन ज्यादा होता है । धनिए के पत्तों, घी और टमाटर के साथपरोसी गई  इस दाल का स्वाद भुलाए नहीं भूलता है ।

बिनसर में हमने झिंगोरा या झुंअर की खीर खाई । झिंगोरा या झुंअर एक अनाज है और यह उत्तराखंड के पहाड़ों में उगता है। दूध, चीनी और ड्राइ-फ्रूट्स के साथ बनाई गई झिंगोरा की खीर एक आलौकिक स्वाद देती है.

अल्मोड़ा में हमने खोया के अलावा सुगर बॉल का भी इस्तेमाल से तैयार  बाल मिठाई का लुत्फ़ लिया  और साथ ही दही जलेबी भी खाई । दही जलेबी खाने हम अल्मोड़ा के भीड़ भरे बाज़ार में से होकर गुजरे जोकि नंदा देवी मंदिर के नज़दीक ही है । जब हम इस रास्ते से गुजरे तो पत्थरों व लकड़ी से बनी एक पुरानी दोमंजिला  इमारत ने हमें आकर्षित किया जिसकी छत को भी पत्थरों के बड़े बड़े स्लैब से बनाया गया था ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक-८ – सिंहगिरीचे शिल्प काव्य ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मीप्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- ८ – सिंहगिरीचे शिल्प काव्य ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

विशाखापट्टणम हे भारताच्या पूर्व किनाऱ्यावरील महत्त्वाचे बंदर आहे. या नैसर्गिक बंदरातून दररोज लक्षावधी टन मालाची आयात- निर्यात होते. जहाज बांधणीचा अवाढव्य कारखाना इथे आहे. विशाखापट्टणम हे ईस्टर्न नेव्हल कमांडचे मुख्यालय  आहे.

आम्ही इथल्या ऋषिकोंडा बीचवरील आंध्रप्रदेश टुरिझमच्या ‘पुन्नामी बीच रिसॉर्ट’ मध्ये राहिलो होतो. ऋषिकोंडा बीच ते भिमुलीपटनम असा  हा सलग बत्तीस किलोमीटर लांबीचा अर्धचंद्राकृती स्वच्छ समुद्र किनारा आहे. निळ्या हिरव्या उसळणाऱ्या लाटा गळ्यात पांढर्‍याशुभ्र फेसाचा मफलर घालून किनाऱ्यावरील सोनेरी वाळूकडे झेपावत होत्या. किनाऱ्यावरील हिरवळीने नटलेल्या, फुलांनी बहरलेल्या बागेत नेव्हल कमांडच्या बॅण्डचे सूर तरंगत होते. समुद्र किनार्‍यावरच पाणबुडीतले आगळे संग्रहालय बघायला मिळाले.’ आय एन एस कुरसुरा’ ही रशियन बनावटीची पाणबुडी १९७२ च्या पाकिस्तानी युद्धात कामगिरीवर होती. ९० मीटर लांब आणि ४ मीटर रुंद असलेल्या या पाणबुडीचे आता संग्रहालय केले आहे. आतल्या एवढ्याश्या जागेत पाणबुडीच्या सगळ्या भिंती निरनिराळे पाईप्स, केबल्स यांनी व्यापून गेल्या होत्या. छोट्या-छोट्या केबिन्समध्ये दोघांची झोपायची सोय होती. कॅप्टनची केबीन, स्वयंपाकघर, स्वच्छतागृह सारे सुसज्ज होते. क्षेपणास्त्रे होती. बघायला मनोरंजक वाटत होतं पण महिनोन् महिने खोल पाण्याखाली राहून शत्रुपक्षाचा वेध घेत सतर्क राहायचं हे काम धाडसाचं आहे. अशा या शूरविरांच्या  जीवावरच आपण निर्धास्तपणे आपलं सामान्य जीवन जगू शकतो या सत्याची जाणीव आदराने मनात बाळगायला हवी. विशाखापट्टणममधील सिंहगिरी पर्वतावरील सिंहाचलम मंदिर म्हणजे प्राचीन शिल्पकलेचा उत्कृष्ट नमुना आहे. हे ‘श्री लक्ष्मी वराह नृसिंह मंदिर’ चालुक्य ते विजयनगर या राजवटीत म्हणजे जवळजवळ ६०० वर्षांच्या कालावधीत बांधले गेले. दगडी रथाच्या आकाराच्या या मंदिरात कल्याणमंडप, नर्तक, वादक, रक्षक, पशुपक्षी, देवता यांच्या असंख्य सुबक मूर्ती कोरल्या आहेत. वराह नृसिंहाची मूर्ती चंदनाच्या लेपाने झाकलेली असते.

एका डोंगरावरील कैलासगिरी  बागेमध्ये शंकरपार्वतीचे शुभ्र, भव्य शिल्प आहे. तिथल्या व्ह्यू पॉइंटवरून अर्धचंद्राकृती समुद्रकिनारा व त्यात दूरवर दिसणाऱ्या बोटी न्याहळता आल्या. इथल्या  बागांमध्ये स्टीलचे मोठे- मोठे डबे, सतरंज्या घेऊन लोकं सहकुटुंब सहपरिवार  सहलीसाठी आले होते.

विशाखापट्टणमहून आम्ही बसने  बोरा केव्हज बघायला निघालो. वाटेत त्याडा इथले जंगल रिझॉर्ट पाहिले. थंडगार, घनदाट जंगलात नैसर्गिक वातावरणाला साजेशी बांबूची, लाकडाची छोटी झोपडीसारखी घरे राहण्यासाठी, पक्षी व वन्यप्राणी निरीक्षणासाठी बांधली आहेत. तिथे मोठ्या चिंचेच्या पारावर चहापाणी घेऊन बोरा केव्हजकडे निघालो. डांबरी रस्त्यावरून आमची बस वेगात चालली होती. रस्त्याच्या दुतर्फा साग, चिंच, पळस, आवळा असे मोठमोठे वृक्ष होते. त्यांच्या पलीकडे अनंतगिरी पर्वतरांगांच्या पायथ्यापर्यंत भाताची,तिळाची,मोहरीची शेती डुलत होती. कॉफीचे मळे होते. पर्वतरांगा हिरव्या पोपटी वनराईने प्रसन्न हसत होत्या. जिथे पर्वतांवर वनराई न्हवती तिथली लालचुटूक माती खुणावत होती.बोरा केव्हज् पाहण्यासाठी एका नैसर्गिक गुहेच्या तोंडाशी आलो. लांब-रुंद ८०-८५ पायऱ्या बाजूच्या कठड्याला धरून उतरलो. जवळजवळ सव्वाशे फूट खाली पोहोचलो होतो. गाईडच्या मोठ्या बॅटरीच्या मार्गदर्शनात गुहेच्या भिंती, छत न्याहाळू लागलो. निसर्गवैभवाचा अद्भुत खजिनाच समोर उलगडत गेला. कित्येक फूट घेराचे, शेकडो फूट उंचीचे, लवण(क्षार)  स्तंभ लोंबकळत होते. या विशाल जलशिलांना निसर्गतःच विविध आकार प्राप्त झाले आहेत. कुठे गुहेच्या छतावर सुंदर झुंबरे लटकली आहेत तर कुठे देवळांच्या छतावर कमळे कोरलेली असतात तसा कमळांचा आकार आहे. खाली खडकांवर मानवी मेंदूची प्रतिकृती आहे. भिंतीवर मक्याचे मोठे कणीस व मशरूम आहे. तर एकीकडे आई मुलाला घेऊन उभी आहे. दुसरीकडे म्हैस, माकडे, गेंडा,साप अशी शिल्पे तयार झाली आहेत. जरा पुढे गेल्यावर गुहेच्या भिंतीवर वडाच्या पारंब्यांचा विस्तार  आहे. कुठे दाढीधारी ऋषी दिसतात तर कुठे शिवपार्वती गणेश! गुहेच्या सुरुवातीला शिवलिंग तयार झाले आहे. या गुहेत पन्नास- साठ पायर्‍या चढून गेलं की मोठ्ठं शिवलिंग दिसतं.प्रकृतीचा हा अद्भुत आविष्कार आपण निरखून पाहू तेवढा थोडा.हा भूखंड प्राचीन दंडकारण्याचा भाग समजला जातो.

बोरा केव्हज् मधील निसर्गाचे हे अद्भूत शिल्पकाव्य दहा लाख वर्षांपूर्वीचे आहे. १८०७ साली सर विल्यम किंग यांना तिचा शोध योगायोगाने लागला. गोस्तानी नदी वाहताना अनंतगिरी पर्वतातील सिलिका, मायका, मार्बल, ग्रॅनाईट यासारखा न विरघळणारा भाग शिल्लक राहून प्रचंड मोठी गुहा तयार झाली. एका वेळी एक हजार माणसे मावू शकतात एवढी मोठी ही गुहा आहे.गुहेमध्ये वरून ठिबकणारे पाणी क्षार ( कॅल्साइट) मिश्रित होते. थेंब थेंब पाणी खाली पडल्यावर त्यातील थोडे सुकून गेले आणि राहिलेल्या क्षाराचे स्तंभ बनले. याच वेळी छतावरून ठिबकणारे थोडे थोडे पाणी सुकून छतावरून लोंबकळणारे क्षारस्तंभ तयार झाले. स्तंभाची एक सेंटीमीटर लांबी तयार व्हायला एक हजार वर्षे लागतात. यावरून या गुहेची प्राचीनता लक्षात येते.

अजूनही गुहेत ठिकठिकाणी पाणी ठिबकणे  व ते सुकणे ही प्रक्रिया चालूच आहे. चाळीस हजार वर्षांपूर्वी या गुहेत आदिमानव राहात होता असे पुरावे सापडले आहेत. आंध्र प्रदेश पर्यटन महामंडळाने या गुहेची उत्तम व्यवस्था ठेवली आहे. आवश्यक त्या ठिकाणी प्रखर झोतांचे दिवे सोडले आहेत. गुहेत स्वच्छता आहे. प्रशिक्षित मार्गदर्शक आहेत. हा प्राचीन अनमोल ठेवा चांगल्या तऱ्हेने जतन केला आहे.

अनंतगिरी वरील मानवनिर्मित शिल्प काव्य आणि निसर्गाने उभे केलेले शिल्पकाव्य मनावर कायमचे कोरले गेले.

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75 – 13 – जिम कार्बेट से भोपाल ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 13 – जिम कार्बेट से भोपाल ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #76 – 13 – जिम कार्बेट से भोपाल ☆ 

जिस दिन हमें जिम कार्बेट , रामनगर से भोपाल के लिए वापस निकलना था, उस रोज मैं अकेला ही सडक के किनारे  घने जंगलों को निहारता हुआ,शुद्ध हवा को अपने फेफड़ों में भरते हुए कोसी नदी के किनारे- किनारे  जंगल के रास्ते गिर्जिया देवी के मंदिर तक का भ्रमण को निकल पडा । यह मेरा नेचर वाक था बिना किसी गाइड के । इस सड़क मार्ग में  जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान के सागौन के  जंगल एक ओर हैं तो सड़क के उस पार अल्मोडे से उद्गमित कोसी नदी कल-कल करती बहती है। रास्ते में झूला पुल है जो शायद सौ वर्ष से भी अधिक पुराना होगा। गिर्जिया देवी के विषय में जो जानकारी मैंने ग्रामीणों से जानी वह भी  कम रोमांचक नहीं है । यह स्थल इतना अच्छा था कि मैं सपिरवार वापसी के पूर्व इस स्थान पर पुन: आया ।

रामनगर से 10 कि०मी० की दूरी पर ढिकाला मार्ग पर गर्जिया  गाँव के पास कोसी  नदी के बीचों-बीच ही कहना चाहिए देवी का मंदिर है। गिर्जिया तो लगता है अपभ्रंश है हिम पुत्री गिरिजा का। देवी गिरिजा जो गिरिराज हिमालय की पुत्री तथा संसार के पालनहार भगवान शंकर की अर्द्धागिनी हैं, कोसी (कौशिकी) नदी के मध्य एक  ऊँचे टीले पर यह मंदिर स्थित है। अनेक दन्तकथाएं इस  स्थान  से जुडी हुई हैं । पूर्व में  इस मन्दिर विराजित  देवी को उपटा देवी (उपरद्यौं) के नाम से जाना जाता था । जनमानस की मान्यता हैं कि वर्तमान गर्जिया मंदिर जिस टीले में स्थित है, वह कोसी नदी की बाढ़ में कहीं ऊपरी क्षेत्र से बहकर आ रहा था। मंदिर को टीले के साथ बहते हुये आता देख भैरव देव द्वारा उसे रोकने के प्रयास से कहा गया- ठहरो, बहन ठहरो, यहां पर मेरे साथ निवास करो, तभी से गर्जिया में देवी उपटा में निवास कर रही है। इस मन्दिर में मां गिरिजा देवी की शांति स्वरूपा मूर्ति है और श्रद्धालु उन्हें नारियल, लाल वस्त्र, सिन्दूर, धूप, दीप आदि चढ़ा कर मनोकामना पूर्ण होने का आशीर्वाद मांगते है ।  नव विवाहित स्त्रियां यहां पर आकर अटल सुहाग की कामना करती हैं। निःसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति के लिये माता में चरणों में झोली फैलाते हैं। मनोकामना पूर्ण होने पर   श्रद्धालु घण्टी या छत्र चढ़ाते हैं ।

अगले दिन कार्तिक पूर्णिमा थी और इस पावन अवसर  पर माता गिरिजा देवी के दर्शनों एवं पतित पावनी कौशिकी (कोसी) नदी में स्नानार्थ भक्तों की भारी संख्या में भीड़ उमड़ने वाली थी । हमें तो वापस आना था सो नीचे बाबा भैरव की पूजा कर हम अपने गंतव्य की ओर चल दिए ।

जब जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान से लौट रहे थे उसी दिन ख़बरें आ रही थी की उत्तराखंड के किसान भी आन्दोलन में शामिल होने दिल्ली की ओर कूच कर रहे हैं । हम दिल्ली पहुँचने को लेकर कुछ चिंतित हुए और हमारे वाहन चालक भी रास्ते भर अपने स्त्रोतों से स्थिति की जानकारी ले रहे थे और हमें चिंतामुक्त कर रहे थे । मोगा में एक ढाबे पर किसानों का हूजूम दिखा। वे सब उधमसिंह नगर उत्तराखंड से ट्रेक्टर पर दिल्ली जाने रवाना हुए हैं। रास्ते भर हमें कोई बीस ऐसे ट्रैक्टर दिखाई दिए जिनकी ट्राली काली त्रिपाल से ढकी थी और आगे काला झंडा लहरा रहा था। ट्रालियों में अंदर दस से पंद्रह हष्ट पुष्ट किसान बहुत अच्छे कपड़े पहने, हाथ में मंहगा मोबाइल लिए बैठे थे। मोगा के ढाबे में भी वे बढ़िया खाना खा रहे थे। मैंने उनसे चर्चा की तो बोले मोदीजी से मिलने जा रहे हैं। उन्हें मालूम है कि इस बिल से उन्हें क्या नुकसान होने वाला है। वे जानते हैं कि अगर देश के सेठों ने उनकी फसल का मूल्य नहीं चुकाया तो बिल पास होने के कारण उन्हें एसडीएम कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ेंगे और प्रशासन कितनी ईमानदारी से गरीबों की बात सुनता है यह  हम सब जानते हैं। उन्हें भय है कि सरकार का अगला कदम एमएसपी हटाने का होगा और इसके लिए वे आंदोलन कर रहे हैं। सरदारजी कहते हैं कि क्या छोटा क्या बड़ा सभी किसानों की बरबादी इस बिल में छिपी हुई है।उधर दिल्ली बार्डर पर जब हम पहुंचे तो पुलिस बल तैनात था। पुलिस वैन और रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों को हमने कतार में देखा। खैर हम निर्विघिन्न हज़रत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुँच गए, पुत्री ने जोमेटो से खाना मंगाया, ट्रैन में बैठकर हम सबने रात्रि का भोजन व शयन  किया और जब नींद खुली तो स्वयं को भोपाल रेलवे स्टेशन  पर पाया ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक-७ – क्रोएशियाचे समुद्र संगीत ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मीप्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- ७ – क्रोएशियाचे समुद्र संगीत ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

क्रोएशियाला  एड्रियाटिक सागराचा ११०० मैल समुद्र किनारा लाभला आहे. दुब्रावनिक या दक्षिणेकडील समुद्रकिनाऱ्यावरील शहरात पोहोचताना उजवीकडे सतत निळाशार समुद्र दिसत होता. त्यात अनेक हिरवीगार बेटे होती. क्रोएशियाच्या हद्दीत लहान-मोठी हजारांपेक्षा जास्त बेटे आहेत. त्यातील फार थोड्या बेटांवर मनुष्यवस्ती आहे. काही बेटांवरील फिकट पिवळ्या रंगाची, गडद लाल रंगाच्या कौलांची टुमदार घरे चित्रातल्यासारखी दिसत होती. समुद्रात छोट्या कयाकपासून प्रचंड मोठ्या मालवाहू बोटी होत्या. डाव्या बाजूच्या डोंगरउतारावर दगडी तटबंदीच्या आत लालचुटुक कौलांची घरे डोकावत होती.

गाइडबरोबर केबलकारने एका उंच मनोऱ्यावर गेलो. तिथून निळ्याभोर एड्रियाटिक सागराचे मनसोक्त दर्शन घेतले. गार, भन्नाट वारा अंगावर घ्यायला मजा वाटली. तिथून जुने शहर बघायला गेलो. जुन्या शहराभोवती भक्कम दगडी भिंत आहे. दोन किलोमीटर लांब व सहा मीटर रुंद असलेल्या या खूप उंच भिंतीवरून चालत अनेक प्रवासी शहर दर्शन करीत होते.

दगडी पेव्हर ब्लॉक्सच्या रस्त्यावर एका बाजूला चर्च व त्यासमोर ओनोफ्रिओ फाउंटन आहे. रोमन काळात दूरवरून पाणी आणण्यासाठी खांबांवर उभारलेल्या पन्हळीमधून उंचावरून येणारे पाणी गावात नळाने पुरवत असत. तसेच ते ओनोफ्रिओ फाउंटनमधूनही पुरवण्याची व्यवस्था होती. आजही आधुनिक पद्धतीने या फाऊंटनमधून प्रवाशांसाठी पाण्याची व्यवस्था केली आहे.

रस्त्याच्या एका बाजूला सोळाव्या शतकातील एक फार्मसी आहे. वेगवेगळ्या रंगांच्या बाटल्या, औषधी कुटण्यासाठीचे खलबत्ते, औषधी पावडरी मोजण्याचे छोटे तराजू, औषधांचे फाॅर्म्युले, रुग्णांच्या याद्या असे सारे काचेच्या कपाटात प्रवाशांना बघण्यासाठी ठेवले आहे. मुख्य म्हणजे आजही या ठिकाणी आधुनिक फार्मसीचे दुकान चालू आहे. मुख्य रस्त्याच्या शेवटी १६ व्या शतकातले कस्टम हाऊस आहे. तिथे राजकीय मौल्यवान कागदपत्रे, वस्तू ठेवल्या जात.

‘गेम ऑफ थ्रोन (Game of Throne)’ ही वेब आणि टीव्ही सिरीयल जगभर लोकप्रिय झाली. त्यातील एका राजघराण्याचे शूटिंग दुब्रावनिक  येथे झाले आहे. हे शूटिंग ज्या ज्या ठिकाणी झाले त्याची ‘गेम ऑफ थ्रोन वॉकिंग टूर’ तरुणाईचे आकर्षण आहे. ‘गेम ऑफ थ्रोन’ असे लिहिलेले टी-शर्ट, बॅग, मग्स, सोव्हिनियर्स दुप्पट किमतीला जोरात खपत होते. दुब्रावनिकच्या नितळ निळ्याभोर समुद्रातून लहान-मोठ्या बोटीने काॅर्चुला,स्प्लिट, बुडवा, व्हार अशा निसर्गरम्य, ऐतिहासिक बेटांची सफर करता येते. ताज्या सी-फूडचा आस्वाद घ्यायला मिळतो.व्हार खाडीतून फार पूर्वीपासून क्रोएशिया व इटली यांचे व्यापारी संबंध होते. त्यामुळे इथे थोडी इटालियन संस्कृतीची झलक दिसते. पास्ता, पिझ्झा, वाइन, आईस्क्रीम यासाठी दुब्रावनिक प्रसिद्ध आहे. इथल्या समुद्रकिनाऱ्यांवर वाळू नाही तर चपटे, गोल गुळगुळीत छोटे छोटे दगड (पेबल्स) आहेत. अनेक ठिकाणी रस्त्यावर लव्हेंडर, रोजमेरीसारख्या साधारण मोगऱ्याच्या जातीच्या फुलांचा सुवासिक दरवळ पसरलेला असतो. नितळ, निळ्याशार, स्वच्छ समुद्रकिनाऱ्यांवर अनेक जण पोहोण्याचा पोटभर आनंद घेतात. स्वच्छ समुद्रकिनारा आणि सुंदर हवामान यामुळे क्रोएशियाकडे प्रवाशांचा वाढता ओघ आहे. इंग्लंड, फ्रान्स, इटली येथील लोकांना दोन तासांच्या विमान प्रवासावर हे ठिकाण असल्याने त्यांची इथे गर्दी असते. स्थानिक लोक स्लाव्हिक भाषेप्रमाणे इंग्लिश, फ्रेंच भाषा उत्तम बोलू शकतात.

राजधानी झाग्रेब आणि दुब्रावनिक यांच्या साधारण मध्यावर झाडर नावाचे शहर एड्रियाटिक सागराकाठी आहे. हॉटेलमधून चालत चालत समुद्रकाठी पोहोचलो. समोर अथांग निळा सागर उसळत होता. झळझळीत निळ्या आकाशाची कड  क्षितिजावर टेकली होती. लांब कुठे डोंगररांगा आणि हिरव्या बेटांचे ठिपके दिसत होते. दूरवर एखादी बोट दिसत होती. आणि या भव्य रंगमंचावर अलौकिक स्वरांची बरसात होत होती. प्रत्यक्ष समुद्रदेवाने वाजविलेल्या पियानोच्या स्वरांनी आसमंत भारून गेले होते.

या समुद्र काठाला दहा मीटर लांबीच्या सात रुंद पायर्‍या आहेत. विशिष्ट प्रकारे बांधलेल्या या पायर्‍यांना पियानोच्या कीज्  सारखी आयताकृती  छिद्रे आहेत. सर्वात वरच्या पायरीवर, ठरावीक अंतरावर छोटी छोटी गोलाकार वर्तुळे आहेत. या वेगवेगळ्या उंचीवरच्या समुद्रात उतरणाऱ्या पायर्‍यांच्या आतून ३५ वेगवेगळ्या लांबी-रुंदीचे पाईप्स बसविले आहेत. संगीत वाद्याप्रमाणे वैशिष्ट्यपूर्ण रचना असलेले हे पाईप म्हणजे समुद्र देवांचा पियानो आहे. किनाऱ्यावर आपटणाऱ्या समुद्राच्या लाटांमुळे या पाईप्समधील हवा ढकलली जाते. लाटांच्या आवेगानुसार, भरती- ओहोटीनुसार या पाईप्समधून सुरेल सुरावटी निनादत असतात. उतरत्या पायऱ्या, त्याच्या आतील रचना आणि वाऱ्याचा, लाटांचा आवेग यामुळे हे स्वरसंगित ऐकता येते. आम्ही सर्वात वरच्या पायरीवरील गोल भोकांना कान लावून या संगीत मैफलीचा आनंद घेतला. पायर्‍या उतरून गार गार निळ्या पाण्यात पाय बुडवले. ज्ञानदेवांची ओवी आठवली..

निळीये रजनी वाहे मोतिया सारणी

निळेपणी खाणी सापडली..

आकाश आणि समुद्राच्या या निळ्या खाणीमध्ये स्वर्गीय सुरांचा खजिना सापडला होता.

झाडर या प्राचीन शहराने मंगोल आक्रमणापासून दुसऱ्या महायुद्धापर्यंत अनेक लढाया पाहिल्या. दुसऱ्या महायुद्धामध्ये तर झाडर हे नाझी सैन्याचे मुख्यालय होते. अमेरिका आणि ब्रिटनच्या बॉम्बवर्षावाने झाडर भाजून निघाले, उध्वस्त झाले. युद्धानंतर विद्रूप झालेल्या शहराची, समुद्रकिनार्‍याची पुनर्रचना करण्यात आली. सरकारने जगप्रसिद्ध स्थापत्यविशारद निकोल बेसिक यांच्याकडे या समुद्रकिनाऱ्याच्या सुशोभीकरणाचे काम सोपविले. त्यांच्या कल्पकतेतून हे अलौकिक सागर संगीत निर्माण झाले आहे. त्यांना ‘सर्वोत्कृष्ट युरोपियन पब्लिक स्पेस’  सन्मान या कलाकृतीसाठी 2006 साली मिळाला.

निकोल बेसिक यांनी इथे ‘दी ग्रीटिंग टू दी सन’ हे आणखी एक आगळे स्मारक सूर्यदेवांना समर्पित केले आहे. त्यांनी या समुद्रकिनार्‍यावर  आहे त्यांनी या समुद्रकिनाऱ्यावर २२ मीटर परिघाचे आणि ३०० पदरी काचांचे वर्तुळ बांधले. या वर्तुळात सौरऊर्जा शोषणाऱ्या पट्ट्या बसविल्या. या पट्ट्या दिवसभर सूर्याची ऊर्जा साठवितात आणि काळोख पडला की त्या वर्तुळातून रंगांची उधळण होते. त्यावर बसविलेली ग्रहमालासुद्धा उजळून निघते. किनारपट्टीवर लावलेल्या सौरऊर्जेच्या दिव्यांनी किनारा रत्नासारखा चमकू लागतो.

सूर्यास्ताचा अप्रतिम नजारा समोर दिसत होता. आकाशातल्या केशरी रंगांची उधळण समुद्राच्या लाटांवर हिंदकळत होती. आकाश आणि सागराच्या निळ्या शिंपल्यामध्ये सूर्य बिंबाचा गुलाबी मोती विसावला होता. दूरवरून एखादी चांदणी चमचमत  होती. पु.शी. रेगे यांची कविता आठवली,

आकाश निळे तो हरि

अन् एक चांदणी राधा

श्रीकृष्णासारखी ती असीम, सर्वव्यापी निळाई आणि त्यातून उमटणारे ते पियानोचे- बासरीचे अखंड अपूर्व संगीत! निसर्ग आणि मानव यांच्या विलोभनीय मैत्रीचा साक्षात्कार अनुभवून मन तृप्त झाले.सौंदर्य आणि संगीत यांचा मधुघट काठोकाठ भरला.

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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