हिन्दी साहित्य- लघुकथा – ☆ लुढ़कता पत्थर ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सार्थक एवं सटीक  लघुकथा   “लुढ़कता पत्थर ”.)

☆ लघुकथा – लुढ़कता पत्थर

नेताजी सत्ता प्रेमी थे । सत्ता के साथ रंग बदलना उनकी फितरत में था । राज्य में परिवर्तन की लहर के साथ उनकी आस्था सत्ता में बदलते समीकरण को बैठाने के लिये व्याकुल थी ।

आखिर उनकी मेहनत रंग लाई और वे सत्ता पक्ष में शामिल हो गये । उनके बदलते रंग को देखकर उनके पुराने मित्रों ने उन्हें गिरगिट की संज्ञा दी , तब उन्होंने तपाक से जुमला कसा –” समय के साथ जो नहीं बदलता , समय उसे बदल देता है ।मित्रवर यह हमेशा ध्यान रखिये लुढ़कते पत्थर पर कभी काई नहीं जमती । ”

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – # 30 ☆ हाथ की सफाई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी  एक  मालवो  मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  मानवीय आचरण के एक पहलू पर  बेबाक लघुकथा  “हाथ की सफाई  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #30 ☆

☆ हिन्दी लघुकथा –हाथ की सफाई☆

 

मैंने रावण जी को दो शब्द कहने के लिए उठाया. वे बोले,  “शिक्षकों को सब से पहले ईमानदार होना चाहिए. इस के पहले ईमानदार दिखना ज्यादा जरूरी है ताकि बच्चे शिक्षक का अनुसरण कर सकें.”

वे पूरा भाषण देने के मूड़ में थे.

“हमें कोई भी चीज रद्दी में नहीं फेंकना चाहिए. हर चीज का उपयोग करना चाहिए. ……………….. रद्दी में से चीजें उठा कर उस का दूसरा उपयोग किया जा सकता है….”

उन का भाषण खत्म होते ही मेरी निगाहें टेबल पर रखे कार्बन पर गई. वे टेबल पर नहीं थे. मैं समझ गया कि किसी शिक्षक ने वे रख लिए है ताकि प्रिंटर्स से एक बार उपयोग किए गए कार्बन को वे दोबारा उपयोग कर सकें.

तभी मेरी निगाहें रावणजी के थैले पर गई. कार्बन वहां से। झांक रहे थे. उन का दोबारा उपयोग होने वाला था. मगर, मुझे दो प्रति में जानकारी बनाने के लिए कार्बन चाहिए थे.

“अब आप ये जानकारी दो दो प्रति में बना कर दे दें,”  मैंने शिक्षकों को जानकारी का प्रारूप दिया तो एक शिक्षक ने कहा, “साहब ! कार्बन भी दीजिए.”

मैंने झट से कहा, “कार्बन की क्या बात है?  इन रावणजी के थैले में बहुत से पड़े है. इन का उपयोग कीजिए.” यह कहते हुए मैंने झट से हाथ की सफाई के साथ वे थैले से कार्बन निकाल कर शिक्षकों को पकड़ा दिए.

रावणजी सकुचाते हुए नजरे नीची करते हुए बोले, “लीजिए…. लीजिए…….  . मेरी तरह आप भी इन कार्बनों का दोबारा उपयोग कीजिए.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 7 ☆ लघुकथा – शर्मिंदगी ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  संस्मरणात्मक, शिक्षाप्रद एवं सार्थक लघुकथा   “शर्मिंदगी ”।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 7 ☆

☆ लघुकथा – शर्मिंदगी ☆

उसके ब्लाउज की फटी हुई आस्तीन से गोरी बाजू साफ झलक रही थी।

मेरी कमउम्र बाई कशिया को इसका भान तक न था। रसोईघर में घुसते ही मेरी नजर उस पर पड़ी तुरन्त ही मैने आँखो से इशारा किया, पर वह इशारा  नहीं समझ सकी। घर पर बडे-बड़े बच्चे और नाती पोते सभी थे।

उसके न समझने पर मैने उस समय कुछ न कहा और अंदर से एक ब्लाउज लाकर कशिया को देती हुई उससे बोली -“जा  गुसलखाने में जाकर बदल आ।”

वह मुझे हैरानी से देखने लगी। मगर बिना कुछ बोले  वह और गई ब्लाउज  बदल कर आ गई।

उसके हाथ में अब भी उसका वह ब्लाउज था। वह अब भी मुझे  हैरानी से ताक रही थी। ये देख मैने उसका ब्लाउज अपने हाथ में लेकर उसे फटा हुआ हिस्सा दिखाया।

वह अचकचा गई और शरम के कारण उसकी नजरें झुक गई। वह धीरे से बोली – “बाई हम समझ ही नहीं पाये जल्दी – जल्दी पहन आये। रास्ते में एक आदमी चुटकी ले रहा था। वह गा रहा था धूप में निकला न करो …….गोरा बदन काला न पड़ जाये।”

“कोई बात नहीं। पर ध्यान रखो घर से निकलते वक्त कपड़ो पर एक निगाह जरूर डालनी चाहिए ताकि बाद में कोई शर्मिंदगी न हो।”

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 31 – जीवनदान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक  भावप्रवण शिक्षाप्रद लघुकथा  “ जीवनदान ”।  यदि कोई भी स्त्री साहसपूर्ण सकारात्मक निर्णय ले तो निश्चित ही समाज की  कुरीतियों पर कुठाराघात कर किसी को भी जीवनदान  दिया जा सकता है।  फिर जीवनदान मात्र जीवन का ही नहीं होता, पश्चात्ताप के पश्चात  प्राप्त जीवन भी किसी जीवनदान से काम नहीं है। अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 31 ☆

☆ लघुकथा – जीवनदान ☆

 

गांव में ठकुराइन कहने से एक अलग ही छवि उभरती थी। कद- काठी से मजबूत अच्छे अच्छों को बातों से हरा देना और जरुरत पड़ने पर  खरी-खोटी बेवजह सुनाना उनका काम था। पूरे गांव में ठकुराइन का ही शासन चलता था। उनके तेज तर्रार रूप स्वभाव के कारण उसका पति जो गांव का सरपंच था, अपनी सब बातों में चुप ही रहता था। जो ठकुराइन कह दे वही सही होता था। किसी में हिम्मत नहीं थी उनकी बात काटने या किसी बात की अवहेलना करने की।

उसका बेटा मां के अनुरूप ही निकला था। घर की बहू और अन्य महिलाओं को सिर्फ घर के काम काज, चूल्हा चौकी तक ही सीमित देखना चाहता था। गरीब घर से बहू ब्याह कर लाने के बाद, बहु पूरा दिन घर में काम करती थी। और बाकी के समय सासू मां की सेवा।

सख्त हिदायत दी गई थी कि घर में पोता ही होना चाहिए। बहु बेचारी सोच-सोच कर परेशान थी। समय आने पर घर में खुशी का माहौल बना, परंतु पोती होने पर उस नन्हीं सी जान को बाहर फेक आने तक की सलाह देने लगी ठकुराइन। बहू ने कहा… “आप जो चाहे सजा मुझे दे, पर बिटिया को मारकर आप स्वयं पाप के भागीदार ना बने।” सासू माँ ने कहा…. “ठीक है इस लड़की का मुंह मुझे कभी ना दिखाना। चाहे तू इसे किसी तरह पाल-पोस कर बड़ा कर, मुझे कोई मतलब नहीं है। परंतु मेरे सामने तेरी लड़की नहीं आएगी।”

माँ ने सभी शर्तें मान ली। बिटिया धीरे-धीरे बड़ी हुई। घर में दूसरा बच्चा पोता भी आ गया। परंतु सासू मां के सामने नन्हीं बच्ची को कभी नहीं लाया जाता था। बड़ी होती गई बिटिया स्कूल में पढ़ने लिखने में बहुत होशियार थी। पढ़ाई करते-करते कब बड़ी हो गई, माँ को पता ही नहीं चला। धीरे-धीरे सभी प्रकार की परीक्षा पास करते गई और एक दिन IAS परीक्षा पास कर कलेक्टर बन गई।

आज गांव के स्कूल का मैदान खचाखच भरा हुआ था। कार्यक्रम था गांव की एक बिटिया का पढ़ लिख कर कलेक्टर बन कर गांव में आना। बिटिया को जिस स्कूल में वह पढ़ी थी उसी स्कूल में सम्मानित करने के लिए बुलाया गया था। ठकुराइन को महिला मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था। पूरा गाँव जय जयकार कर रहा था। दादी नीचे सिर किए बैठी-बैठी सभी का भाषण सुन रही थी। सम्मानित करने के लिए, बिटिया को मंच पर खड़ा किया गया और आवाज़ लगाई गई।

तालियों की गड़गड़ाहट से स्कूल परिसर गूंज उठा। दादी रुंघे गले से और आंखों में पश्चाताप के आंसू लिए अपनी पोती को देख रही थी। लगातार आँसू बह रहे थे। बिटिया ने कहा…. “आज यह सम्मान मैं अपनी दादी के हाथों लेना चाहूंगी। क्योंकि मुझे जीवन दान देकर, दादी ने मुझ पर उपकार किया था। आज इस सफलता पर मेरी दादी ही मेरे लिए सबसे महान है।”

दादी ने नीचे सिर किए ही बिटिया को गले में माला पहनाई और धीरे से कान में पोती को कहा…. “अब मैं समझ गई बिटिया भी बेटों से कम नहीं होती। अगले जन्म में मैं तुम्हारी बिटिया बनकर आना चाहूंगी। ईश्वर से मेरी प्रार्थना है “और कसकर अपने बिटिया रानी को गले से लगा लिया। माँ भी बहुत खुश थी। आज एक महिला ने सारी कुरीतियों को त्याग कर एक लड़की का सम्मान किया और सारा गिला शिकवा भूलकर गर्व से मुस्कुरा रही थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 14 ☆ लघुकथा – निर्विकार ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी  एक  लघुकथा  “निर्विकार”।  कथानक सत्य के धरातल पर  रचित है किन्तु, देख पढ़कर सुन कर  हृदय  द्रवित  हो जाता है कि आज के भौतिक संसार में  मनुष्य इतना निर्विकार कैसे हो सकता है ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 14 ☆

☆ लघुकथा – निर्विकार ☆ 

 

ट्रेन मनमाड से चलने ही वाली थी कि अचानक प्लेट्फार्म पर भीड़ का एक रेला आया। भीड़ में औरतें और बच्चे ही ज्यादा थे,  संभवतः वे बनजारे थे। इनकी पूरी गृहस्थी, थैलों, गठरियों और बोरियों में सिमट कर चलती है। जहाँ ठिकाना मिला वहाँ इन गठरियों और बोरियों के मुँह खुल जाते हैं। पसर जाती है इनकी जिंदगी, कभी खाली पड़े मैदानों में और कभी रेल की पटरियों के किनारे।

चटक रंग के घेरदार घाघरे, हाथों में प्लास्टिक के रंग-बिरंगे कंगन, कानों में बालियाँ या बड़े-बड़े  झुमके, नाक में बड़ी-सी नथ  (लगभग झूलती हुई)। एक बच्चा पैरों से चिपटा खड़ा , दूसरा गोद में और तीसरे को गर्भ में संभाले बनजारिनें प्लेटफार्म पर ट्रेन के दरवाजे के पास झुंड बनाए खड़ी थीं।

उनका ही एक आदमी झोले और बोरियों  में भरे सामान को दनादन ट्रेन के दरवाजे से अंदर फेंक रहा था , सामान पहले चढ़ जाना चाहिए ? औरतें, बच्चे बाद में चढ़ लेगें, शायद छूट भी जाएं तो कोई फर्क नहीं ?  पुरुषों का क्या वे तो चलती ट्रेन में चढ़-उतर सकते हैं। थैले, गठरी, बोरे चढ़ाए जा रहे थे कि इसी बीच उनका एक बच्चा भी सामान के साथ झटके में ट्रेन में चढ़ गया। कुछ वैसे ही जैसे सारा सामान चढ़ाया जा रहा था। बच्चा छोटा था ट्रेन की सीढ़ी चढ़कर वह ठीक से खड़ा हो पाता कि इससे पहले उसके ऊपर कुछ और गठरियाँ, बोरे लद गए, उसके नीचे दबा बच्चा बिलबिलाने लगा। माई रे, माई रे….. की क्षीण आवाज सुनायी दे रही थी। लेकिन ना तो समान फेंकनेवाले के हाथ थम रहे थे और ना दरवाजे के पास खड़ी औरतों के चेहरे पर कोई शिकन नजर आयी। सभी यथावत, निर्विकार, संवेदनहीन। बोरियों में भरा सामान ज्यादा जरूरी था, बच्चा तो………?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – ☆ दमदार ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सार्थक एवं सटीक  लघुकथा   “दमदार ”.)

☆ लघुकथा – दमदार 

 

पूस की ठंड से कंपकपाती रात , आफिसर्स कालोनी सन्नाटे में डूबी थी । रात्रि के ग्यारह बज रहे थे , लोग अपने – अपने घरों में रजाइयों में दुबके मानो ठंड से निजात पाने की कोशिश कर रहे थे ।

तभी रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई एक कार आकर रुकी । उसमें से चार पांच युवक उतरे और कार में लगे टेप को , जो पहले से ही बज रहा था और तेज आवाज में बजाना शुरू कर दिया। गाने के बोल ‘ बोलो तारा — रा–रा– तारा –रा– की धुन पर नाचने एवं शोर मचाने लगे ।

कालोनी में जिस घर के सामने ये लोग नाच रहे थे , उस घर के सदस्य भी नाच गाने में शामिल हो गये । कुछ देर के लिये कालोनी का सन्नाटा अचानक उठे शोर से घबराकर न जाने कहां दुबक गया था । आसपास के घरों में नींद में व्यवधान उत्पन्न हुआ । लोगों ने कमरे की खिड़की थोड़ी सी खोलकर बाहर झांका , लेकिन किसी की भी हिम्मत इस शोर-गुल को बंद करवाने की नहीं हुई । सब बाहर का नजारा देखकर , चुपचाप अपने घरों में दुबके रहे ।

सुबह सामान्य ढंग से हुई । रात में जो कुछ हुआ था उसका विरोध करने की किसी में भी  हिम्मत नहीं थी , क्योंकि कल थानेदार साहब के साले की सालगिरह थी और वे अपने दोस्तों के साथ सालगिरह मनाकर लौटे थे और रात में कुछ घंटे यहां पर भी खुशियां मनाई गई थीं ।

थानेदार के साले की जगह किसी और की  सालगिरह का शोर होता तो रात में ही एक  फोन करके शोर मचाने वालों को थाने पहुंचा दिया गया होता ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

दमदार

 

पूस की ठंड से कंपकपाती रात , आफिसर्स कालोनी सन्नाटे में डूबी थी । रात्रि के ग्यारह बज रहे थे , लोग अपने – अपने घरों में रजाइयों में दुबके मानो ठंड से निजात पाने की कोशिश कर रहे थे ।

तभी रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई एक कार आकर रुकी । उसमें से चार पांच युवक उतरे और कार में लगे टेप को , जो पहले से ही बज रहा था और तेज आवाज में बजाना शुरू कर दिया। गाने के बोल ‘ बोलो तारा — रा–रा– तारा –रा– की धुन पर नाचने एवं शोर मचाने लगे ।

कालोनी में जिस घर के सामने ये लोग नाच रहे थे , उस घर के सदस्य भी नाच गाने में शामिल हो गये । कुछ देर के लिये कालोनी का सन्नाटा अचानक उठे शोर से घबराकर न जाने कहां दुबक गया था । आसपास के घरों में नींद में व्यवधान उत्पन्न हुआ । लोगों ने कमरे की खिड़की थोड़ी सी खोलकर बाहर झांका , लेकिन किसी की भी हिम्मत इस शोर-गुल को बंद करवाने की नहीं हुई । सब बाहर का नजारा देखकर , चुपचाप अपने घरों में दुबके रहे ।

सुबह सामान्य ढंग से हुई । रात में जो कुछ हुआ था उसका विरोध करने की किसी में भी  हिम्मत नहीं थी , क्योंकि कल थानेदार साहब के साले की सालगिरह थी और वे अपने दोस्तों के साथ सालगिरह मनाकर लौटे थे और रात में कुछ घंटे यहां पर भी खुशियां मनाई गई थीं ।

थानेदार के साले की जगह किसी और की  सालगिरह का शोर होता तो रात में ही एक  फोन करके शोर मचाने वालों को थाने पहुंचा दिया गया होता ।

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हिन्दी साहित्य – कथा – कहानी ☆ माँ– एक तस्वीर सी ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी की  एक  भावप्रवण लघुकथा  माँ– एक तस्वीर सी)

 

माँ– एक तस्वीर सी ☆

 

नानी कहती थी माँ बड़ी  खूबसूरत थी, तस्वीर सी। कहाँ जानती थी बेचारी कि उसकी सुगढ़ सलोनी बिटिया धीरे धीरे मूक तस्वीर में ढल रही है ।

बताया था चाची ने रमा को, कि पढ़ी लिखी गोल्ड मेडलिस्ट माँ की आँखे उसी दिन पथरा गईं थीं– जिस दिन किरानी के सामान जिसमें बंध कर आए थे, अखबार के उन  टुकड़ों को माँ को पढ़ता देखकर, सासु माँ के ताने पर देवरजी, बडे़ जेठजी और अन्यों की व्यंगात्मक हंसी पर झुकीं– माँ की आँखों ने उठना बंद कर दिया था।   नानाजी के घर मे निरे बचपन से पढीं चंदामामा, नंदन, पराग और बाद में प्रसाद, प्रेमचंद, महादेवी के रचना-अक्षर नृत्य करने लगे माँ की पथराई आँखों और जड़ होते तन-मन के सामने । सयानी होती रमा ने भी माँ को तस्वीर में ढलते देखा। जिंदगी भर बडे़ बाबूजी, चाचाजी की बेजा गर्जना पर पिताजी की एक उठी आवाज के लिए माँ के मन-प्राण-कान तरसते रहे। माँ की गूंगी बहरी संवेदनाओं और भीरू पिता के पंगु सायों में पलते भैया का कुचला बचपन माँ के भीतर नासूर बनता रहा। अन्य बच्चों की गलतियों को भैया पर थोपे झूठे इल्ज़ामों को समझ कर भी भैय्या को ही पीट पीट कर खुद अधमरी ठूंठ सी मेरी स्नेह वंचिता भावुक जननी—-उस अभिमानी परिवेश में दो बेटों के माता-पिता होने के गर्वोन्नत सिरों के सामने बेटी की माँ होने का अभिशाप झेलती भीतर से नितांत अकेली मेरी असहाय माँ– अचल तस्वीर बन चली।

माँ का दिमाग पूरी तरह चुक गया था। जड़ हो चुकी थीं वे। मनः चिकित्सा अबूझ रही।माँ की विदेही पीड़ा की साक्षी और न्यायाधीश दोनों मैं रमा ही थी, परंतु कठघरे में किसे खड़ा करूं? बेमेल विवाह के दोषी नाना मामा को, भीरु सीधे साधे दब्बू बाबूजी को या उस जमाने की पाखंडी संस्कृति को— जहाँ स्त्रियां इंसान नहीं मात्र देह होतीं थीं। जीते जी ही दीवारों पर टंगी तस्वीरें होती थीं बस !!

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 30 – जूठन ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक अत्यंत मर्मस्पर्शी जीवंत संस्मरण पर आधारित लघुकथा  “जूठन”। यह जीवन का कटु सत्य। आज भी ऐसी  मानसिकता के लोग समाज में हैं। वे नहीं जानते कि – सबको  आखिर जाना तो एक ही जगह है।

(श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी को मधुशाला साहित्यिक परिवार, उदयपुर की ओर से “काव्य  गौरव सम्मान 2019”  के लिए हार्दिक बधाई । )

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 30 ☆

☆ लघुकथा – जूठन ☆

 

कहते हैं आदमी कितना भी धनवान और रूपवान  क्यों न हो जाए, यदि उसके पास मानवता नहीं है तो वह पशु  समान है।

शहर के बीचों बीच काफी हाउस जहां पर दक्षिण भारतीय व्यंजन जैसे डोसा, इडली सांभर, बड़ा सांभर खाने के लिए काफी भीड़ लगती है। अपनी अपनी पसंद से सभी खाते हैं। काफी हाउस में लगभग सभी कुर्सियों पर व्यक्ति बैठे थे। हम भी वहां बैठे थे।

पास की पंक्ति पर एक सरकारी नौकरी और अच्छे पद पर काम करने वाली सभ्रांत लगाने वाली महिला एक बुजुर्ग महिला के साथ बैठी थी। उस महिला के पहनावे और बातचीत करने के तरीके से पता चल रहा था कि वह घर में काम करने वाली बाई है। पास में ही दो-तीन थैलों में सामान रखा हुआ था साथ ही मिनरल वाटर की चमचमाती बोतल टेबल पर रखी थी।

ऑर्डर पास करने वाला आकर खड़ा हो गया। भीड़ के कारण जल्दी-जल्दी ऑर्डर ले रहा था। उस सभ्य महिला ने कहा… “एक मसाला डोसा लेकर आओ”।  उसने हां में सिर हि दिया।  फिर खड़ा रहा और पूछा “क्या, सिर्फ एक ही लाना है?” उसे लगा उम्र में उससे दुगनी महिला साथ में बैठी है, तो शायद उसके लिए कुछ अलग मांग रही है।  परंतु उसने कहा.. “सिर्फ एक मसाला डोसा।“

थोड़ी देर में प्लेट में मसाला डोसा लेकर वेटर आ गया और  टेबिल पर रखकर चला गया। उस महिला ने मुंह बना-बना कर मसाला डोसा खाना शुरू किया। वह बात करते जा रही थी।  लिपस्टिक खराब ना हो जाए इसलिए बड़े ही स्टाइल से खा रही थी। परंतु, प्लेट में बहुत ही गंदे तरीके से सांभर टपका रही थी और वह महिला सामने बैठ उसके प्लेट को देख रही थी। शायद, भूख उसे भी लगी थी, परंतु चुपचाप देख रही थी।

अंत में उस  सभ्य महिला ने सामने बैठी अधेड़ उम्र की महिला से कहा… “यह बचा हुआ डोसा तुम खा लो तुम्हारा पेट भर जाएगा। घर जाकर खाना नहीं पड़ेगा। हम तो अभी जूस पीकर आए हैं। अब ज्यादा नहीं खा सकेंगे।“

उस प्लेट को हम  सभी देख रहे थे मुश्किल से एक तिहाई डोसा बचा था। यह कह कर वह हाथ धोने वॉशरूम की ओर चली गई। जब किसी से नहीं रहा गया तो वहां बैठे और लोगों ने पूछा… “तुम यह जूठन क्यों खा रही हो अम्मा?

उसने मुंह में निवाला डाले डाले कहा… “घर में हम रोज ही मेम साहब का जूठन खाते हैं। वह खाने के बाद उसी प्लेट पर बचा हुआ खाना हमें देती है। हमारी तो आदत है, जूठन खाने की। क्या करें? जिंदगी जो काटनी है उनके साथ!” उत्तर सुनकर सभी उसकी ओर देखने लगे।

किसी ने कुछ नहीं कहा और सब उस ऊंची सोच वाली महिला को देख रहे थे। जो वाशरूम से हाथ धो कर निकली और पर्स उठा कर बाहर की ओर चलती बनी।

कुछ तो फर्क होता है ‘बचा हुआ’ और ‘जूठन’ देने में? कैसी मानसिकता हैं यह? हम सोचते रहे, किन्तु, कुछ कर न सके।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – यात्रा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  यात्रा 

अंततः मिल गई उसे मन के उद्गार पढ़ने वाली मशीन। जीवन में लोगों से आहत होते-होते थक गया था वह। लोग बाहर से कहते कुछ, भीतर से सोचते कुछ। वह विचार करता कि ऐसा क्यों घटता है? इस तरह तो जीवन में कोई अपना  होगा ही नहीं! कैसे चलेगी जीवनयात्रा?

वह मशीन लेकर लौट रहा था कि रास्ते में एक शवयात्रा मिली। गलती से मशीन का बटन दब गया। मशीन पर उभरने लगा हरेक का मन। दिवंगत को कोई पुण्यात्मा मान रहा था तो कोई स्वार्थसाधु। कुछ के मन में उसकी प्रसिद्धि को लेकर द्वेष था तो कुछ को उसकी संपत्ति से मोह विशेष था। एक वर्ग के मन में उसके प्रति आदर अपार था तो एक वर्ग निर्विकार था। हरेक का अपना विचार था, हरेक का अपना उद्गार था। अलबत्ता दिवंगत पर इन सारे उद्गारों या टीका-टिप्पणी  का कोई प्रभाव नहीं था।

आज लंबे समय आहत मन को राहत अनुभव हुई। लोग क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, किस तरह की टिप्पणी करते हैं, उनके भीतर किस तरह के उद्गार उठते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है अपनी यात्रा को उसी तरह बनाए रखना जिस तरह सारी टीकाओं, सारी टिप्पणियों, सारी आलोचनाओं, सारी प्रशंसाओं के बीच चल रही होती है अंतिमयात्रा।

अंतिमयात्रा से उसने पढ़ा जीवनयात्रा का पाठ।

चरैवेति, चरैवेति।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 4.11बजे,  21 दिसम्बर 20 19)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सपना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  सपना  

बहुत छोटा था जब एक शाम माँ ने उसे फुटपाथ के एक साफ कोने पर बिठाकर उसके सामने एक कटोरा रख दिया था। फिर वह भीख माँगने चली गई। रात हो चली थी। माँ अब तक लौटी नहीं थी। भूख से बिलबिलाता भगवान से रोटी की गुहार लगाता वह सो गया। उसने सपना देखा। सपने में एक सुंदर चेहरा उसे रोटी खिला रहा था। नींद खुली तो पास में एक थैली रखी थी। थैली में रोटी, पाव, सब्जी और खाने की कुछ और चीज़ें थीं। सपना सच हो गया था।

उस रोज फिर ऐसा ही कुछ हुआ था। उस रोज पेट तो भरा हुआ था पर ठंड बहुत लग रही थी। ऊँघता हुआ वह घुटनों के बीच हाथ डालकर सो गया। ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे ओढ़ने के लिए कुछ मिल जाए। सपने में देखा कि वही  चेहरा उसे कंबल ओढ़ा रहा था। सुबह उठा तो सचमुच कंबल में लिपटा हुआ था वह। सपना सच हो गया था।

अब जवान हो चुका वह। नशा, आलस्य, दारू सबकी लत है। उसकी जवान देह के चलते अब उसे भीख नहीं के बराबर मिलती है। उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं बची है। एकाएक उसे बचपन का फॉर्मूला याद आया। उसने भगवान से रुपयों की याचना की। याचना करते-करते सो गया वह। सपने में देखा कि एक जाना-पहचाना चेहरे उसके साथ में कुछ रुपये रख रहा है। आधे सपने में ही उठकर बैठ गया वह। कहीं कुछ नहीं था। निराश हुआ वह।

अगली रात फिर वही प्रार्थना, फिर परिचित चेहरे का रुपये हाथ में देने का सपना, फिर हड़बड़ाहट में उठ बैठना, फिर निराशा।

तीसरी रात असफल सपने को झेलने के बाद भोर अँधेरे उठकर चल पड़ा वह शहर के उस चौराहे की तरफ जहाँ दिहाड़ी के लिए मज़दूर खड़े रहते हैं।

आज जीवन की पहली दिहाड़ी मिली थी उसे। रात को सपने में उसने पहली बार उस परिचित चेहरे में अपना चेहरा पहचान लिया था।

सुनते हैं, इसके बाद उसका हर सपना सच हुआ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 9.50, 24.12.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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