हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 28 – गुदड़ी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  इस भौतिकवादी  स्वार्थी संसार में ख़त्म होती संवेदनशीलता पर एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “गुदड़ी”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 28 ☆

☆ लघुकथा – गुदड़ी ☆

अमरनाथ और भागवती दोनों पति-पत्नी सुखमय जीवन यापन कर रहे थे। उनका एक बेटा सरकारी नौकरी पर था। बड़े ही उत्साह से उन्होंने अपने बेटे का विवाह किया। बहू आने पर सब कुछ अच्छा रहा, परंतु वही घर गृहस्थी की कहानी।  बूढ़े मां बाप को घर में रखने से इनकार करने पर बेटे ने सोचा मां पिताजी को वृद्धा आश्रम में भेज देते हैं। और कभी कभी देखभाल कर लिया करेंगे।

अमरनाथ और भागवती बहुत ही सज्जन और पेशे से दर्जी का काम किया करते थे। भागवती ने बचे खुचे कपड़ों से एक गुदड़ी बनाई थी। जिसे वह बहुत ज्यादा सहेज कर रखती थी। हमेशा अपने सिरहाने रखे रहती थी। जब वृद्ध आश्रम में जाने को तैयार हो गए तो बेटे ने कहा…. तुम्हें घर से कुछ चाहिए तो नहीं। मां ने सिर्फ इतना कहा.. बेटे मुझे मेरी गुदड़ी दे दो। जो मैं हमेशा ओढती हूं।  बेटे को बहू ने टेड़ी नजर से देखकर कहा.. वैसे भी यह गुदड़ी हमारे किसी काम की नहीं है, फेंकना ही पड़ेगा दे दो। फटी सी गुदड़ी को देख अमरनाथ भी बोल पड़े.. क्यों ले रही हो जहां बेटा भेज रहा है। वहां पर कुछ ना कुछ तो इंतजाम होगा। परंतु भागवती अपनी गुदड़ी को लेकर गई।

वृद्ध आश्रम पहुंचने पर मैनेजर ने उन दोनों को रख लिया और सभी वृद्धजनों के साथ रहने को जगह दे दी। दोनों रहने लगे।

कुछ दिनों बाद इस सदमे को अमरनाथ बर्दाश्त नहीं कर सके और अचानक उसकी तबीयत खराब हो गई। बेटे ने खर्चा देने से साफ मना कर दिया। अस्पताल में खर्च को लेकर वृद्धा – आश्रम वालों भी कुछ आनाकानी करने लगे। तब भागवती ने कहा.. आप चिंता ना करें पैसे मैं स्वयं आपको दूंगी। उन्होंने सोचा शायद  बुढ़ापे की वजह से ऐसा बोल रही हैं।

भागवती ने अपनी गुदड़ी एक तरफ से सिलाई खोल नोटों को निकालने लगी। जो उन्होंने अपने गृहस्थ जीवन में बचाकर उस गुदड़ी पर जमा कर रखी थी। सभी आश्चर्य से देखने लगे अमरनाथ जल्द ही स्वस्थ हो गए। पता चला कि खर्चा पत्नी भागवती ने अपने गुदड़ी से दिए।

उन्होंने आश्चर्य से अपने पत्नी को देखा और कहा.. तभी मैं कहूं कि रोज  गुदड़ी की सिलाई कैसे खुल जाती है और रोज उसे क्यों सिया  किया जाता है। अब समझ में आया तुम वास्तव में बहुत समझदार हो। भागवती ने  हंस कर कहा.. घर के कामों में बच  जाने के बाद जो बचत होती थी मैं भविष्य में नाती पोतों के लिए जमा कर रही थी, परंतु अब बेटा ही अपना नहीं रहा। तो इन पैसों का क्या करूंगी। यह आपकी मेहनत की कमाई आपके ही काम आ गई।

स्वस्थ होकर दोनों वृद्ध आश्रम को ही अपना घर मानकर रहने लगे। बेटे को पता चला उसने सोचा मां पिताजी को घर ले आए उसके पास और भी कुछ सोने-चांदी और रुपए पैसे होंगे। परंतु अमरनाथ और भागवती ने घर जाने से मना कर दिया उन्होंने हंसकर कहा मैं और मेरी ‘गुदड़ी’ भली।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 10 ☆ लघुकथा – दुःख में सुख ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “दुःख में सुख”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 10 ☆

☆ लघुकथा – दुःख में सुख ☆ 

 

माँ की पीठ पहले की अपेक्षा अधिक झुक गयी थी । डॉक्टर का कहना है कि माँ को पीठ सीधी रखनी चाहिए वरना रीढ़ की हड्डी पर असर पड़ता है साथ ही याददाश्त भी कमजोर हो जाती है।

गर्मी की छुट्टियों में मायके गयी तो देखा कि माँ थोड़ी ही देर पहले कही बात भूल जाती है। आलमारी की चाभी और रुपए पैसे रखकर भूलना तो हर समय की बात हो गयी थी। कई बार परेशान होकर वह खुद ही कह उठती- पता नहीं क्या हो गया है ? लगता है मैं पागल होती जा रही हूँ। कुछ याद ही नहीं रहता- कहाँ- क्या रख दिया ?

झुकी पीठ के साथ माँ दिन भर काम में लगी रहती। सुबह की एक चाय ही बस आराम से पीना चाहती। उसके बाद झाड़ू, बर्तन, खाना, कपड़े-धोने का जो सिलसिला शुरू होता वह रात ग्यारह बजे तक चलता रहता। रात में सोती तो बिस्तर पर लेटते ही कराह उठती। झुकी पीठ में टीस उठती। फिर वही सिलसिला दूसरे दिन का……..

बेटियों के मायके आने पर माँ की झुकी पीठ कुछ तन जाती। अपनी आयु और स्वास्थ्य भूलकर वह और तेजी से काम में जुट जाती। उसे चिंता होती कि बेटे-बहू का कोई कड़वा बोल बेटियों के कानों में न पड़ जाए। उपेक्षा का भाव बेटियों को नजर ना आ जाए। माहौल खुशनुमा बनाने के लिए और खुद को प्रसन्न दिखाने के लिए वह गुनगुनाती, नाती-नातिन के साथ हँसती, खेलती, खिलखिलाती…….. ?

वह गर्मी की रात, थकी-हारी माँ छत पर लेटी थी। इलाहबाद की गर्मी, हवा का नाम नहीं। माँ नाती-पोतों से घिरी लेटी है। हवा चले, इसके लिए वह बच्चों से जोर-जोर से बुलवा रही है-  चिडिया ,कौआ ,तोता  सब उड़ो, उड़ो, उड़ो, हवा चलो, चलो, चलो बच्चे चिल्ला- चिल्लाकर बोल रहे थे। बच्चों के लिए अच्छा खेल था। माँ मानों अपने-आप से बोलने लगी- बेटी खुश रहा करो। बातों को भूलने की कोशिश किया करो। हम औरतों के लिए बहुत जरुरी है यह। जब से हर बात भूलने लगी हूँ मन बड़ा शांत है। किसी की तीखी कड़वी बात थोड़ी देर असर करती है फिर कुछ याद ही नहीं रहता। किसने क्या कहा, क्यों कहा, क्या ताना मारा……. कुछ नहीं। यह कहकर माँ ने लंबी साँस भरी।

बोलते-बोलते माँ कब सो गयी पता नहीं चला। चाँदनी उसके चेहरे पर पसर गयी थी। माँ के विश्वास ने ठंडी हवा भी चला दी थी। मुझे डॉक्टर की कही बात याद आ रही थी लेकिन माँ ने दु:ख में भी सुख ढूंढ लिया था।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #27 ☆ गणना ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक सार्थक लघुकथा  “गणना ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #27 ☆

☆ गणना ☆

 

अनीता बहुत परेशान थी.  250 बच्चों की गणना करना, फिर उन्हें जातिवार बांटना, लड़का- लड़की में छांटना – यह वह अकेली कर नहीं पा रही थी . आखिर थक हर कर अपने एक शिक्षक साथी से कहा , “आप मेरी गणना करवा दीजिए.”

साथी मुंहफट था “मैं आप  का काम करवा देता हूँ, बदले मुझे क्या मिलेगा ?”

“जो आप चाहे,” कहने को अनीता कह गई, मगर बाद में उस ने बहुत सोचा और इस निष्कर्ष पर पहुंची कि घर से दूर रह कर यह गठबंधन करने में ही उसे ज्यादा फायदा है. अन्यथा वह यहाँ अकेली नौकरी नहीं कर पाएगी. इसलिए चुपचाप साथी के साथ गणना करने चल दी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संभावनाएं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  संभावनाएं

बारिश मूसलाधार है। हो सकता है कि इलाके की बिजली गुल हो जाए। हो सकता है कि सुबह तक हर रास्ते पर पानी लबालब भर जाए। हो सकता है कि कल की परीक्षा रद्द हो जाए।

अगली सुबह आकाश निरभ्र था और वातावरण सुहाना। प्रश्नपत्र देखने के बाद आशंकाओं पर काम करने वालों की निब सूख चली थी पर संभावनाओं को जीने वालों की कलम बारफ़्तार दौड़ रही थी।

आज का दिन संभावनाओं से भरा हो।

 

संजय भारद्वाज

[email protected]

प्रात: 8:18, 7.12.2019

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ पैबंद ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक शिक्षाप्रद एवं प्रेरक लघुकथा पैबंद)

 

लघुकथा – पैबंद  ☆

 

बरात बिदा हुई। रोती रोती नई दुल्हन श्यामा कब नींद में खो  गई पता ही नहीं चला।

एकाएक नींद खुली,  पता लगा बरात ससुराल  द्वारे पहुंच चुकी है। परछन के लिए सासु माँ दरवाजे पर आ खडी हुईं। ज्यों ही हाथ उठाया बहू को परछन कर  टीका लगाने के लिए—कि ब्लाउज की  बाँह के पास पैबंद दिखाई पड़ा नई बहू को।

कठोर पुरातनपंथी दादी सास और  माँ के पुछल्ले लल्ला–अपने ससुर जी के बारे में बहुत सुन रखा था आने वाली बहू ने। उसी समय मन ही मन संकल्प लिया कि बस  अब पैबंद और नहीं, कभी नहीं । आज सासु माँ नये कपड़ों में – परछन की नई साड़ी नये बलाउज में मेरी अगवानी करेंगी और आगे से पैबंद कभी नहीं !

– – – और अगली सुबह रिश्तेदारों ने देखा कि एक नहीं दो दो नई नई बहुएं नजर आ रहीं हैं घर में— सासजी भी कितने वर्षों में आज पहली बार बहू जैसी सजी सँवरी हैं और – – दादी सासु माँ के लाडले लल्ला नई बहू के महाकंजूस  ससुरजी—एक कोने में उखड़े उखड़े से बैठे हैं और अपनी पूजनीय माताजी से  बतरस का आनंद ले रहे हैं।

पास खड़ी – – दूल्हा भाई से छोटी चार  ननदें कृतज्ञ नजरों से  ही मानों भाभी की आरती उतार रहीं हैं और भविष्य उनका भी सुधर गया है वे सभी  आश्वस्त हैं।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 27 – प्रेम ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावप्रवण लघुकथा  “ प्रेम ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 27 ☆

☆ लघुकथा – प्रेम ☆

 

रेल की पटरियों के किनारे, स्टेशन के प्लेटफार्म से थोड़ी दूर, ट्रेन को आते जाते  देखना रोज ही, मधुबनी का काम था। रूप यौवन से भरपूर, जो भी देखता  उसे मंत्रमुग्ध हो जाता था। कभी बालों को लहराते, कभी गगरी उठाए पानी ले जाते। धीरे-धीरे वह भी समझने लगी कि उसे हजारों आंखें देखती है। परंतु सोचती ट्रेन में बैठे मुसाफिर का आना जाना तो रोज है। कोई ट्रेन मेरे लिए क्यों रुकेगी।

एक मालगाड़ी अक्सर कोयला लेकर वहां से निकलती। कोयला उठाने के लिए सभी दौड़ लगाते थे। उसका ड्राइवर जानबूझकर गाड़ी वहां पर धीमी गति से करता या फिर मधुबनी को रोज देखते हुए निकलता था। मधुबनी को उसका देखना अच्छा लगता था। परंतु कभी कल्पना करना भी उसके लिए चांद सितारों वाली बात थी।

एक दिन उस मालगाड़ी से कुछ सज्जन पुरुष- महिला उतरे और मधुबनी के घर की ओर आने लगे। साथ में ड्राइवर साहब भी थे। सभी लोग पगडंडी से चलते मधुबनी के घर पहुंचे और एक सज्जन जो ड्राइवर के पिताजी थे। उन्होंने मधुबनी के माता पिता से कहा – हमारा बेटा सतीश मधुबनी को बहुत प्यार करता है। उससे शादी करना चाहता है क्या आप अपनी बिटिया देना चाहेंगे। सभी आश्चर्य में थे, परंतु मधुबनी बहुत खुश थी और उसका प्रेम, इंतजार सभी जीत गया। सोचने लगी आज आंखों के प्रेम ने ज़िन्दगी की चलती ट्रेन को भी कुछ क्षण रोक लिया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 9 ☆ लघुकथा – छठवीं उंगली ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “छठी उंगली ”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 9 ☆

☆ लघुकथा – छठी उंगली ☆ 

 

एक डिग्री कॉलेज में संगोष्ठी के लिए निमंत्रण आया था। कुछ एक घंटे की दूरी पर था वह शहर। बस से जाना था। बस का सफर मैं टालती हूँ पर आयोजकों का आग्रह अधिक था सो चल पड़ी। साथ में मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘झूला नट’ ले लिया। बस में मैं खिड़की के पासवाली सीट ही लेती हूँ। वहाँ बैठकर मैं बाहर की हवा को अधिक से अधिक अपनी साँस में भरने की कोशिश कर रही थी जिससे पेट्रोल की गंध मुझ पर बेअसर रहे।

अगले बस स्टॉप से एक सज्जन (पुरुष कहना ज्यादा उचित है) बस में चढ़े और मेरी सीट पर आकर बैठ गए। सफर के दौरान साथ में सीट पर कोई महिला हो तो चैन से आँखें बंदकर के भी बैठा जा सकता है। पर सोचा ये सीट तीन लोगों के लिए है तो कोई असुविधा नहीं होगी।

मैंने एक चोर नजर उस व्यक्ति पर डाली चेहरे से तो भला लग रहा था लेकिन चेहरे से भलमनसाहत का पता चलता तो बात ही क्या थी ? सफेदपोश भेड़ियों से हमारी ना जाने कितनी बच्चियाँ बच जातीं ? दुराचार की शिकार लडकियों को हम निर्भया नाम दे देते हैं पर उस समय उन पर जो गुजरती है उस भय तथा पीडा की कल्पना भी रोंगटे खडे कर देती है ।

मैं उपन्यास पढ़ने लगी। उपन्यास की नायिका शीलो का अपनी छठी उँगली काटना मुझे सन्न कर गया। उसके साथ जो हुआ उसकी दोषी वह अपनी अपशकुनी छठी उँगली को मान रही थी। उपन्यास की इस घटना ने मुझे झकझोर दिया। मैं अपनी उँगलियाँ धीरे से सहलाने लगी कि आवाज सुनाई दी –

“आप टीचर हैं ?”

मैने सिर उठाकर देखा। बगल में बैठा व्यक्ति प्रश्न कर रहा था।

“जी।“

“हिंदी विषय है ?” उसने मेरी पुस्तक की ओर देखते हुए पूछा

“जी।“

“महाराष्ट्र की हैं आप ?”

“मूल रूप से उत्तर – प्रदेश की रहने वाली हूँ”, मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया।

उपन्यास रोचक लग रहा था। शीलो का आगे क्या होगा, इसकी उत्सुकता थी कि एक और प्रश्न – “तो महाराष्ट्र में कैसे ?”

“मैं पढाती हूँ।”

प्रश्नों के सिलसिले को टालने के लिए मैंने फिर से आँखें पुस्तक में गढ़ा ली। वैसे भी मैं बस के सफर में किसी से अधिक बात करना पसंद नहीं करती। परंतु उधर से बातचीत का सिलसिला जारी रखने की पूरी कोशिश –

“ओह ! तो उत्तर प्रदेश की रहने वाली हैं और महाराष्ट्र में नौकरी करती हैं।“

“मेरी पोस्टिंग भी आजकल लखनऊ में है। लखनऊ अच्छा शहर है।”

“जी।”

“पर उत्तर प्रदेश में महिलाओं के लिए वातावरण सुरक्षित नहीं है। मैं अपनी पत्नी और बेटी को अपने साथ लखनऊ ले गया था लेकिन वापस ले आया। आपको कुछ अंतर महसूस हुआ महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के माहौल में स्त्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से ?”

“हाँ, महाराष्ट्र काफी सुरक्षित है महिलाओं के लिए। खैर आजकल तो पूरे देश में हालात बहुत खराब हैं, किसी एक राज्य की बात नहीं है। मासूम बच्चियों और स्त्रियों पर हर जगह अत्याचार हो रहे हैं। शेल्टर होम जैसी जगह भी सुरक्षित नहीं रह गई। रक्षक ही भक्षक हो गए हैं अब तो, क्या कहा जाए ?”

“आप चाहे जो कहिए पर हमारा राज्य बहुत सुरक्षित है।”

वैसे इस बात से मैं भी सहमत थी इसलिए मैंने इस विषय पर ज्यादा बात करना उचित नहीं समझा। मैंने किताब बंद कर पर्स में डाली और ऑंखें मूंदकर बैठ गई। आँखें बंद थीं पर दिमाग नहीं। महिलाओं की छठी इंद्रिय सक्रिय हो जाती है जब कोई अनजान पुरुष सफर में साथ बैठा हो| अभी तमुझे कुछ ऐसा महसूस होने लगा कि उस व्यक्ति का हाथ मेरे शरीर के बहुत नजदीक आ गया है। तीन यात्रियों की सीट पर दो यात्री बहुत आराम से दूर – दूर बैठ सकते हैं। मैने सोचा शायद गल्ती से हाथ लग गया होगा। हर वक्त किसी पुरुष के बारे में गलत सोचना भी ठीक नहीं है। लेकिन मेरा सोचना सही था,  उसका हाथ मुझे सिर्फ छू ही नहीं रहा बल्कि मैं अपने शरीर पर उसके शरीर का दबाव महसूस कर रही थी जैसे कि कोई मुझे खिड़की की ओर धकेल रहा हो।

मुझे मन ही मन क्रोध आने लगा। थोड़ी देर पहले ही यह आदमी महिलाओं की सुरक्षा की बात कर एक राज्य के वातावरण को उनके लिए असुरक्षित बता रहा था। अब ये खुद क्या कर रहा है ? आँखें बंद किए मैं सोच रही थी कि क्या करूं ? बचपन से ही एक लड़की ऐसी स्थिति में अपने को सुरक्षित करने के लिए जो हथकंडे अपनाती है वही करूं ? सिमट जाऊँ ? दोनों के बीच में पर्स रखूं या उठकर एक जोरदार थप्पड़ रसीद कर दूं? कंडक्टर को बुलाऊँ क्या ?

दिमाग में उथल पुथल थी। झूला नट उपन्यास की नायिका शीलो की कटी हुई छठी उंगली मेरे सामने दर्द से छटपटा रही थी। गलती ना तो छठी उंगली की थी ना शीलो की, दोषी शीलो का पति था जिसने एक पत्नी के रहते हुए शीलो से दूसरा विवाह कर लिया था। दंड का भागी वह था, ना शीलो, ना अपशकुनी मानी जाने वाली उसकी छठी उंगली, उसे दंड क्यों मिले ?

मैं सीट से उठ खड़ी हुई। लोगों को सुनाते हुए मेरी सीट पर बैठे उस व्यक्ति से जोर से बोली – “यहाँ से उठ जाइए या तमीज से दूर बैठिए। ये तीन व्यक्तियों की सीट है। बस के धक्कों के नाम पर गलती से भी आपका हाथ मेरे शरीर को छूना नहीं चाहिए। एक सलाह और देती हूँ अपनी बेटी को लखनऊ से तो वापस ले आए हैं, ऐसा तो नहीं कि वह अपने घर में ही असुरक्षित हो ? ?”

आसपास बैठे यात्री मेरा तमतमाया चेहरा देख रहे थे। उनमें खुसपुसाहट शुरू हो गई थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #26 ☆ प्रेरणा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक अतिसुन्दर लघुकथा  “प्रेरणा”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #26 ☆

☆ प्रेरणा ☆

खुद कमा कर पढ़ाई करने वाले एक छात्र की सिफारिश करते हुए कमलेश ने कहा, “यार योगेश! तू उस छात्र की मदद कर दें. वह पढ़ने में बहुत होशियार है. डॉक्टर बन कर लोगों की सेवा करना चाहता है.”

“ठीक है मैं उस की मदद कर दूंगा.  उस से कहना कि मेरी नई नियुक्त संस्था से शिक्षाऋण का फार्म भर कर ऋण प्राप्त कर लें.” योगेश ने कहा तो कमलेश बोला, “मगर, मैं चाहता हूं कि तू उस की निस्वार्थ सेवा करें. उसे सीधे अपने नाम से पैसा दान दें.”

“नहीं यार! मैं ऐसा नहीं करना चाहता हूं ?”  योगेश ने कहा तो कमलेश बोला, “इस से तेरा नाम होगा ! लोग तूझे जिंदगी भर याद रखेंगे.”

“हाँ यार. तू बात तो ठीक कहता है. मगर,  मैं नहीं चाहता हूं कि उस छात्र की मेहनत कर के पढ़ने की जो प्रेरणा है वह खत्म हो जाए.”

“मैं उसे जानता हूं, वह बहुत मेहनती है. वह ऐसा नहीं करेगा”, कमलेश ने कुछ ओर कहना चाहा मगर, योगेश ने हाथ ऊंचा कर के उसे रोक दिया.

“भाई कमलेश ! यह उस के हित में है कि वह मेहनत कर के पढाई करें”, कह कर यौगेश ने अपनी आंख में आए आंसू को पौंछ लिए, “तुम्हें तो पता है कि दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंक कर पीता है.”

यह सच्चाई सुन कर कमलेश चुप हो गया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 26 – गुलाबी  गुड़िया ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अत्यंत भावुक लघुकथा    “गुलाबी  गुड़िया ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 26 ☆

☆ लघुकथा – गुलाबी  गुड़िया ☆

 

‘आरुषि’ अपने मम्मी-पापा की इकलौती संतान। उसे बहुत ही प्यार से रखा था। सब कुछ आरुषि के मन का होता था। कहीं आना-जाना  क्या पहनना, क्या खाना। छोटी सी आरुषि की उम्र 6 साल थी। खिलौने से दिनभर खेलना और मम्मी पापा से दिन भर बातें करना। सभी को अच्छा लगता था। खिलौने में सबसे प्यारी उसकी एक गुड़िया थी। प्यार से उसका नाम उसने गुलाबी रखा था। दिन भर गुड़िया से बातें करना, उसको कपड़े पहनाना, कभी छोटी सी साइकिल पर बिठा कर चलाना। गुलाबी से मोह इतना कि रात में भी उसे अपने साथ सुलाती थी।

एक दिन मम्मी-पापा के साथ घूमने निकली। आरुषि अपनी गुड़िया को भी ले गई थी। रास्ते में अत्यधिक भीड़ होने की वजह से मम्मी ने कहा “आरू, गुड़िया हम रख लेते हैं। आप संभल कर गाड़ी (दुपहिया वाहन) पर बैठो”। आरुषि गुड़िया को मम्मी को पकड़ा कर पापा के सामने जा बैठी। सब खुश होकर गाना गाते हुए चले जा रहे थे। अचानक सामने से आती ट्रक की चपेट में तीनों बुरी तरह घायल हो गए। अस्पताल में आरुषि और पापा तो बच गए परंतु मम्मी का देहांत हो गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आरुषि को कैसे समझाया  जाए। अंतिम विदाई के समय सभी की आंखें नम थी। परंतु आरुषि चुपचाप सब कुछ देख रही थी। सभी ने कहा मम्मी भगवान के घर चली गई। जब अर्थी ले जाने लगे, तभी आरुषि दौड़कर अपने कमरे में गई और अपनी प्यारी गुड़िया को लेकर आई और मम्मी के पास रखते हुए बोली “भगवान घर मम्मी अकेले जाएगी, मैं नहीं रहूंगी तो कम से कम गुलाबी के साथ बात करेंगी। सभी शांत और भाव विभोर थे आखिर इस नन्ही बच्ची को कैसे समझाएं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – चयन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  चयन

 

‘न रूप न रंग, न स्टाइल न स्मार्टनेस, न हाई पैकेज न गवर्नमेंट जॉब, न खानदानी रईस, न जागीरदार..,’ खीजकर उसकी सहेली बोले जा रही थी।..’कैसे हाँ कह दी? आख़िर क्या देखा तुमने इस लड़के में?’

 

‘…साथ चलने और साथ जीने की संभावना..,’  मुस्कराते हुए उसने उत्तर दिया।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

सुबह 10.45 बजे,27.11.19

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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