हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 4 ☆ मसीहा कौन ? ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही प्रेरणास्पद एवं अनुकरणीय लघुकथा “मसीहा कौन ?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 4 ☆

 

☆ लघुकथा – मसीहा कौन ? ☆ 

 

“उतरती है कि नहीं ? नीचे उतर, तमाशा करवा रही है सबके सामने” ।

“मैं नहीं उतरूंगी’, वह सोलह – सत्रह वर्षीय नवविवाहिता रोती हुई बोली।

“घर चल तेरे को कोई कुछ नहीं बोलेगा” आवाज में नरमी लाकर बस की खिड़की के पास नीचे खड़ी औरत बोली। “बस चलनेवाली है जल्दी कर…… उतर……. उतर नीचे, सुन रही है कि नहीं?” उस औरत के आवाज में फिर से तेजी आने लगी थी।

“चलने दे बस को, मैं नहीं उतरूंगी, वह लड़की दृढ़ता से बोली। इतना कहकर उसने बस की खिड़की का शीशा तेजी से बंद कर दिया।” नीचे खड़ी औरत ने फोन मिलाया और थोड़ी देर में ही एक पुरुष वहाँ आ गया।

औरत बोली – “ये तो बस से नीचे उतर ही नहीं रही। सरेआम फजीहत करवा रही है।”

“उतरेगी कैसे नहीं हरामखोर। इसका तो बाप भी उतरेगा।” उस आदमी ने खिड़की का शीशा जोर से भड़भड़ाकर अपनी भाषा में उसे धमकाना शुरू किया।

“बाप शब्द सुनते ही लड़की ने खिड़की खोलकर काँपते स्वर में कहा – बाप को बीच में क्यों लाते हो ? कुछ भी कर लो मैं वापस नहीं चलूंगी।”

इतना सुनते ही वह आदमी भड़क गया – “साली, तेरा यार बैठा है वहाँ जो खसम को छोड़कर जा रही है। उतर जा, नहीं तो हड्डी – पसली एक कर दूँगा।” लड़की बस से उतरने को कतई तैयार नहीं थी। बस के चलने का समय हो रहा था। नीचे खड़ा आदमी तनाव में था। ऐसा लग रहा था कि वह उस लड़की को हाथ से निकलने देना ही नहीं चाहता था। साथ खड़ी औरत से चिल्लाकर बोला – “जा बस में से इसका सामान उतार ला, फिर देखें कैसे जाती है।” औरत तेजी से बस में चढ़कर सामान उतारने लगी। उसने लड़की का भी हाथ पकड़कर खींचना चाहा। लड़की की ढीठता और अन्य यात्रियों को देखकर वह जबर्दस्ती ना कर सभी और सामान लेकर तेजी से बस से उतर गई। लड़की सीट पर लगी रॉड को कसकर पकड़े थी। मानो वही उसका सहारा हो। वह रोती रही पर अपनी जगह से टस से मस न हुई।

कंडक्टर आ गया। और उसने बस चलने का संकेत देने के लिए घंटी बजाना शुरू कर दिया। उस आदमी का पारा चढ़ गया। बंदूक की गोलियों सी दनादन गलियाँ उसके मुँह से निकलने लगी – “साली, आना मत लौटकर इस घर में। वापस आई तो टुकडे – टुकडे कर दूंगा। धंधा करने जा रही हैं हरामजादी।”

बस खचाखच भरी थी। हिलने – डुलने की गुंजाईश भी नहीं थी। कंडक्टर ने अंतिम बार घंटी बजाई और बस चल पड़ी। बस चलते ही यात्रियों ने चैन की साँस ली। हर किसी को ऐसा लग रहा था कि अगर आज ये लड़की डरकर या दबाव में आकर चली गई तो इसकी खैर नहीं। शायद लड़की भी यह जानती थी। बस के चलते ही उसके पपडाए होठों पर राहत नजर आई। वह आँखें बंदकर सिर सीर से टिका कर बैठ गई। चेहरे पर चोट के निशान साफ दिख रहे थे। उसकी आँखे बंद थीं पर चेहरा सब कुछ बयां कर रहा था। भयानक तूफान को झेलकर वह निकली थी।

खे बंदकर वह आगे आनेवाले तूफान से लड़नेकी ताकत अपने भीतर जुटा रही थी। लड़ाई उसने जीत ली थी, ना मालूम कितनी लड़ाईयाँ जीवन में उसे अभी लड़नी बाकी हैं ? सच है स्त्री अपनी मसीहा स्वयं ही है।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – आदत ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – लघुकथा – आदत 

….. पापा जी, ये चार-चार बार चाय पीना सेहत के लिए ठीक नहीं है। पता नहीं मम्मी ने कैसे आपकी यह आदत चलने दी? कल से एक बार सुबह और एक बार शाम को चाय मिलेगी। ठीक है!

…. हाँ बेटा ठीक है…., ढीले स्वर में कहकर मनोहर जी बेडटेबल पर फ्रेम में सजी गायत्री को निहारने लगे।  गायत्री को भी उनका यों चार-पाँच बार चाय पीना कभी अच्छा नहीं लगता था। जब कभी उन्हें चाय की तलब उठती, उनके हाव-भाव और चेहरे से गायत्री समझ जाती।  टोकती,…. इतनी चाय मत पीया करो। मैं नहीं रहूँगी तो बहुत मुश्किल होगी।  आज पी लो लेकिन कल से नहीं बनेगी दो से ज्यादा बार चाय।

पैतालीस साल के साथ में कल कभी नहीं आया पर गायत्री को गए पैंतालीस दिन भी नहीं हुये थे कि ….! …. तुम सच कहती थी गायत्री, देखो जो तुम नहीं कर सकी, तुम्हारी बहू ने कर दिखाया…., कहते-कहते मनोहर जी का गला भर आया।  जाने क्यों उन्हें हाथ में थामी फ्रेम भी भीगी-भीगी से लगी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆ मजबूरी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “मजबूरी”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆

 

☆ मजबूरी ☆

 

सिपाही के हाथ् देते ही गौरव की चिंता बढ़ गई. जेब में ज्यादा रूपए नहीं थे, “क्या हुआ साहब?” उस ने सिपाही को साहब कह दिया. ताकि वह खुश हो कर उसे छोड़ दे.

“गाड़ी के कांच पर काली पट्टी क्यों नहीं है?” सिपाही बोला,  “चलिए! साहब के पास” उस ने दूर खड़ी साहब की गाड़ी की ओर इशारा किया.

“साहब जी! अब लगवा लूंगा.”

“लाओ 3500 रूपए. चालान बनेगा.” सिपाही ने कहा.

“साहब! मेरे पास इतने रूपए नहीं है” गौरव बड़ी दीनता से बोला .

“अच्छा!” वह नरम पड़ गया, “2500 रूपए और गाड़ी के कागज तो होंगे?”

गौरव खुश हुआ, “हाँ साहब कागज तो है, मगर रूपए नहीं है” कहते हुए उस ने सभी कागज सिपाही को दे दिए.

सिपाही ने कागजात देख कर कहा “अरे ! ड्राइवरी लाइसेंस तो एक्सपायर हो गया.”

“जी साहब! नवीनीकरण के लिए दे रखा है.” कहते हुए गौरव ने अपना दूसरा लाइसेंस सिपाही को पकड़ा दिया. उसे देख सिपाही मुस्करा दिया.

“जेब में कितने रूपए है?”

गौरव ने जेब में हाथ डाला, “साहबजी ! 200 रूपए है.”

सिपाही ने रूपए ले कर चालान काट दिया. फिर बोला, “क्या करें साहब,  हमारी भी मजबूरी है. हमें एक निश्चित राशि एकत्र करने का लक्ष्य दिया जाता है, उसे एकत्र करना होता है. इसलिए” कहते हुए सिपाही मुस्करा दिया.

गौरव ने चालान देखा, “अरे ! यह तो मोटरसाइकल का चालान है” कह कर वह मुस्कराया. फिर चुपाचप चल​ दिया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ सब्जी मेकर ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर लघुकथा   “सब्जी मेकर ”.)

 

☆ लघुकथा – सब्जी मेकर ☆ 

इस दीपावली वह पहली बार अकेली खाना बना रही थी। सब्ज़ी बिगड़ जाने के डर से मध्यम आंच पर कड़ाही में रखे तेल की गर्माहट के साथ उसके हृदय की गति भी बढ रही थी। उसी समय मिक्सर-ग्राइंडर जैसी आवाज़ निकालते हुए मिनी स्कूटर पर सवार उसके छोटे भाई ने रसोई में आकर उसकी तंद्रा भंग की। वह उसे देखकर नाक-मुंह सिकोड़कर चिल्लाया, “ममा… दीदी बना रही है… मैं नहीं खाऊंगा आज खाना!”

सुनते ही वह खीज गयी और तीखे स्वर में बोली, “चुप कर पोल्यूशन मेकर, शाम को पूरे घर में पटाखों का धुँआ करेगा…”

उसकी बात पूरी सुनने से पहले ही भाई स्कूटर दौड़ाता रसोई से बाहर चला गया और बाहर बैठी माँ का स्वर अंदर आया, “दीदी को परेशान मत कर, पापा आने वाले हैं, आते ही उन्हें खाना खिलाना है।”

लेकिन तब तक वही हो गया था जिसका उसे डर था, ध्यान बंटने से सब्ज़ी थोड़ी जल गयी थी। घबराहट के मारे उसके हाथ में पकड़ा हुई मिर्ची का डिब्बा भी सब्ज़ी में गिर गया। वह और घबरा गयी, उसकी आँखों से आँसूं बहते हुए एक के ऊपर एक अतिक्रमण करने लगे और वह सिर पर हाथ रखकर बैठ गयी।

उसी मुद्रा में कुछ देर बैठे रहने के बाद उसने देखा कि  खिड़की के बाहर खड़ा उसका भाई उसे देखकर मुंह बना रहा था। वह उठी और खिड़की बंद करने लगी, लेकिन उसके भाई ने एक पैकेट उसके सामने कर दिया। उसने चौंक कर पूछा, “क्या है?”

भाई धीरे से बोला, “पनीर की सब्ज़ी है, सामने के होटल से लाया हूँ।”

उसने हैरानी से पूछा, “क्यूँ लाया? रूपये कहाँ से आये?”

भाई ने उत्तर दिया, “क्रैकर्स के रुपयों से… थोड़ा पोल्यूशन कम करूंगा… और क्यूँ लाया!”

अंतिम तीन शब्दों पर जोर देते हुए वह हँसने लगा।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 21 – दीपावली उपहार ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “दीपावली उपहार”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  स्वस्थ मित्र संबंधों का सन्देश दिया है।) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 21 ☆

 

☆ दीपावली उपहार ☆

 

विजय और शंकर दोनों बचपन के परम मित्र। कक्षा 1 में जब से एडमिशन लिया था तभी से दोनों की दोस्ती शुरू हो गई। साथ-साथ पढ़ना-लिखना खेलना-कूदना यहां तक कि टिफिन में क्या है दोनों मिलकर खाते थे। बच्चों की दोस्ती की घर में बात होती थी। स्कूल में पैरंट्स मीटिंग के दौरान माता-पिता से बातचीत होते-होते घर परिवार सभी एक दूसरे को अच्छी तरह जानने लगे थे। कभी अनबन भी हो जाती दोनों में परंतु, एक दिन से ज्यादा नहीं चल पाता था। क्योंकि विजय और शंकर दोनों का एक दूसरे के बिना साथ अधूरा लगता था।

धीरे-धीरे बच्चों की पढ़ाई बढ़ती गई और उनकी समझदारी भी बढ़ने लगी। साथ ही साथ मित्रता भी बहुत ही प्रगाढ़ हो गई। उनके साथ उनके और भी दोस्त जुड़ गए थे। जिनका आना जाना सभी के घर बराबर से होता रहता था। कभी किसी के यहां बैठ दिन भर मस्ती और पढ़ाई तो कभी किसी दूसरे दोस्त के घर मस्ती। परंतु विजय और शंकर एक दूसरे के घर जाना ज्यादा पसंद करते थे।

हाई स्कूल पढ़ाई सब्जेक्ट चॉइस के बाद दोनों की दिशा पढ़ाई एवं लक्ष्य अलग-अलग हो चुका था परंतु दोस्ती बेमिसाल रही। विजय ने अपने लिए विज्ञान विषय लेकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया वही शंकर ने अपने लिए इंजीनियरिंग का कोर्स पसंद किया। दूर-दूर रहने के बाद भी फोन पर हर बात और यहां तक कि दिवाली पर क्या शर्ट लेना है तक की बातें होती थी। दोनों बच्चों की सादगी और दोस्ती पर घर परिवार भी गर्व करता था।

ऐसे ही एक साल दिवाली का समय था। धनतेरस के दिन शंकर के पिता जी ने उसके लिए एक अच्छी सी गाड़ी ले कर दिया। शोरूम से गाड़ी घर आ गई। पिताजी ने कहा तुम अपनी नई गाड़ी चलाकर मंदिर ले जाओ और मिठाई प्रसाद चढ़ा देना भगवान को। यह कहकर पिताजी अपनी ड्यूटी पर निकल गए।

दिवाली का दिन शुभ होता है। शाम को गाड़ी ज्यों की त्यों खड़ी मिली। पूछने पर पता चला कि कल लेकर जाऊंगा। पिताजी ने भी हामी भरकर डांटते हुए कहा कोई काम समय पर नहीं करते हो। आज अच्छा दिन था। परंतु शंकर तो कुछ और ही सोच कर बैठा था। रात को माँ पिता जी से कहा कि सुबह जल्दी उठा देना मेरा दोस्त आ रहा है विजय। उसको लेने स्टेशन जाना है। सुबह जल्दी उठ अपनी नई गाड़ी निकाल शंकर स्टेशन अपने दोस्त को लेने पहुंच गया। पिताजी उठे नहा धोकर तैयार हो सोचा कि आज दिवाली है। मैं ही गाड़ी से मंदिर होकर आ जाता हूं। नई गाड़ी है शुभ काम होना चाहिए। परंतु देखा की गाड़ी की चाबी नहीं है। घर में पूछने पर पता चला कि शंकर लेकर गया है।

शंकर की नई गाड़ी देख विजय बहुत खुश हुआ। ट्रेन से उतरने पर और गाड़ी चलाकर सामान के साथ दोनों दोस्त घूम कर आ गए। विजय को उसके घर छोड़ते हुए शंकर अपने घर आया। माँ पिताजी ने कहा नई  गाड़ी लेकर स्टेशन क्यों चला गया था। शंकर बहुत खुश होकर बोला आप ही कहते हैं कोई भी चीज के शुभ दिन और शुभ समय होना चाहिए। मेरी गाड़ी में मेरा दोस्त पहले बैठ चला कर आया है। मेरे लिए तो ये बहुत ही शुभ है। मेरा दोस्त पहले मेरी गाड़ी में बैठा है मेरे लिए ये मंदिर जाने से भी बढ़कर है।

माँ पिताजी भी उसकी खुशी देख बहुत खुश हुए और दोनों की दोस्ती की सलामती के लिए ईश्वर से बार-बार प्राथना करने लगे। विजय और शंकर के लिए *शुभ दीपावली* हो गया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

गतवर्ष दीपावली के समय लिखे तीन संस्मरण आज से एक लघु शृंखला के रूप में साझा कर रहा हूँ। आशा है कि ये संस्मरण हम सबकी भावनाओं के  प्रतिनिधि सिद्ध होंगे।  – संजय भरद्वाज 

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप

☆ पहला दीप ☆
दीपावली की शाम.., बाज़ार से लक्ष्मीपूजन के भोग के लिए मिठाई लेकर लौट रहा हूँ। अत्यधिक भीड़ होने के कारण सड़क पर जगह-जगह बैरिकेड लगे हैं। मन में प्रश्न उठता है कि बैरिकेड भीड़ रोकते हैं या भीड़ बढ़ाते हैं?
प्रश्न को निरुत्तर छोड़ भीड़ से बचने के लिए गलियों का रास्ता लेता हूँ। गलियों को पहचान देने वाले मोहल्ले अब अट्टालिकाओं में बदल चुके। तीन-चार गलियाँ अब एक चौड़ी-सी गली में खुल रही हैं। इस चौड़ी गली के तीन ओर शॉपिंग कॉम्पलेक्स के पिछवाड़े हैं। एक बेकरी है, गणेश मंदिर है, अंदर की ओर खुली कुछ दुकानें हैं और दो बिल्डिंगों के बीच टीन की छप्पर वाले छोटे-छोटे 18-20 मकान। इन पुराने मकानों को लोग-बाग ‘बैठा घर’ भी कहते हैं।
इन बैठे घरों के दरवाज़े एक-दूसरे की कुशल क्षेम पूछते आमने-सामने खड़े हैं। बीच की दूरी केवल इतनी कि आगे के मकानों में रहने वाले इनके बीच से जा सकें। गली के इन मकानों के बीच की गली स्वच्छता से जगमगा रही है। तंग होने के बावजूद हर दरवाज़े के आगे रंगोली, रंग बिखेर रही है।
रंगों की छटा देखने में मग्न हूँ कि सात-आठ साल का एक लड़का दिखा। एक थाली में कुछ सामान लिए, उसे लाल कपड़े से ढके। थाली में संभवतः दीपावली पर घर में बने गुझिया या करंजी, चकली, बेसन-सूजी के लड्डू हों….! मन संसार का सबसे तेज़ भागने वाला यान है। उल्टा दौड़ा और क्षणांश में 45-48 साल पीछे पहुँच गया।
सेना की कॉलोनी में हवादार बड़े मकान। आगे-पीछे  खुली जगह। हर घर सामान्यतः आगे बगीचा लगाता, पीछे सब्जियाँ उगाता। स्वतंत्र अस्तित्व के साथ हर घर का साझा अस्तित्व भी। हिंदीभाषी परिवार का दाहिना पड़ोसी उड़िया, बायाँ मलयाली, सामने पहाड़ी, पीछे हरियाणवी और नैऋत्य में मराठी।  हर चार घर बाद बहुतायत से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते पंजाबी। सबसे ख़ूबसूरत पहलू यह कि राज्य या भाषा कोई भी हो, सबको एकसाथ जोड़ती, पिरोती, एक सूत्र में बांधती हिंदी।
कॉलोनी की स्त्रियाँ शाम को एक साथ बैठतीं। खूब बातें होतीं। अपने-अपने  के प्रांत के व्यंजन बताती और आपस में सीखतीं। सारे काम समूह में होते। दीपावली पर तो बहुत पहले से करंजी बनाने की समय सारणी बन जाती। सारणी के अनुसार निश्चित दिन उस महिला के घर उसकी सब परिचित पहुँचती। सैकड़ों की संख्या में करंजी बनतीं। माँ तो 700 से अधिक करंजी बनाती। हम भाई भी मदद करते। बाद में बड़ा होने पर बहनों ने मोर्चा संभाल लिया।
दीपावली के दिन तरह-तरह के पकवानों से भर कर थाल सजाये जाते। फिर लाल या गहरे कपड़े से ढककर मोहल्ले के घरों में पहुँचाने का काम हम बच्चे करते। अन्य घरों से ऐसे ही थाल हमारे यहाँ भी आते।
पैसे के मामले में सबका हाथ तंग था पर मन का आकार, मापने की सीमा के परे था। डाकिया, ग्वाला, महरी, जमादारिन, अखबार डालने वाला, भाजी वाली, यहाँ तक कि जिससे कभी-कभार खरीदारी होती उस पाव-ब्रेडवाला, झाड़ू बेचने वाली, पुराने कपड़ों के बदले बरतन देनेवाली और बरतनों पर कलई करने वाला, हरेक को दीपावली की मिठाई दी जाती।
अब कलई उतरने का दौर है। लाल रंग परम्परा में सुहाग का माना जाता है। हमारी सुहागिन परम्पराएँ तार-तार हो गई हैं। विसंगति यह कि अब पैसा अपार है पर मन की लघुता के आगे आदमी लाचार है।
पीछे से किसी गाड़ी का हॉर्न तंद्रा तोड़ता है, वर्तमान में लौटता हूँ। बच्चा आँखों से ओझल हो चुका। जो ओझल हो जाये, वही तो अतीत कहलाता है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

11.49 बजे,  9.11.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – दीपावली विशेष – धनतेरस ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

प्रबुद्ध पाठकों के लिए आज दीपावली पर्व पर संजय दृष्टि के दूसरा सामयिक अंक भी आपके आत्मसात करने हेतु प्रस्तुत हैं।

 

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – धनतेरस

 

इस बार भी धनतेरस पर चाँदी का सिक्का खरीदने से अधिक का बजट नहीं बचा था उसके पास। ट्रैफिक के चलते सिटी बस ने उसके घर से बाजार की 20 मिनट की दूरी 45 मिनट में पूरी की। बाजार में भीड़ ऐसी कि पैर रखने को जगह नहीं। भारतीय समाज की विशेषता यही है कि पैर रखने की जगह न बची होने पर भी हरेक को पैर टिकाना मयस्सर हो जाता है।

भीड़ की रेलमपेल ऐसी कि दुकान, सड़क और फुटपाथ में कोई अंतर नहीं बचा था। चौपहिया, दुपहिया, दोपाये, चौपाये सभी भीड़ का हिस्सा। साधक, अध्यात्म में वर्णित आरंभ और अंत का प्रत्यक्ष सम्मिलन यहाँ देख सकते थे।

….उसके विचार और व्यवहार का सम्मिलन कब होगा? हर वर्ष सोचता कुछ और…और खरीदता वही चाँदी का सिक्का। कब बदलेगा समय? विचारों में मग्न चला जा रहा था कि सामने फुटपाथ की रेलिंग को सटकर बैठी भिखारिन और उसके दो बच्चों की कातर आँखों ने रोक लिया। …खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।….गौर से देखा तो उसका पति भी पास ही हाथ से खींचे जानेवाली एक पटरे को साथ लिए पड़ा था। पैर नहीं थे उसके। माज़रा समझ में आ गया। भिखारिन अपने आदमी को पटरे पर बैठाकर उसे खींचते हुए दर-दर रोटी जुटाती होगी। आज भीड़ में फँसी पड़ी है। अपना चलना ही मुश्किल है तो पटरे के लिए जगह कैसे बनती?

…खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।…स्वर की कातरता बढ़ गई थी।..पर उसके पास तो केवल सिक्का खरीदने भर का पैसा है। धनतेरस जैसा त्योहार सूना थोड़े ही छोड़ा जा सकता है।…वह चल पड़ा। दो-चार कदम ही उठा पाया क्योंकि भिखारिन की दुर्दशा, बच्चों की टकटकी लगी उम्मीद और स्वर में समाई याचना ने उसके पैरों में लोहे की मोटी सांकल बाँध दी थी। आदमी दुनिया से लोहा ले लेता है पर खुदका प्रतिरोध नहीं कर पाता।

पास के होटल से उसने चार लोगों के लिए  भोजन पैक कराया और ले जाकर पैकेट भिखारिन के आगे धर दिया।

अब जेब खाली था। चाँदी का सिक्का लिए बिना घर लौटा। अगली सुबह पत्नी ने बताया कि बीती रात सपने में उसे चाँदी की लक्ष्मी जी दिखीं।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 4:56 बजे, 25.10.2019 (धनतेरस)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 3 ☆ कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ………. ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(हम  डॉ. ऋचा शर्मा जी  के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे  सम्माननीय पाठकों  के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक  भावुक एवं अनुकरणीय लघुकथा “कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ………. ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 3 ☆

 

☆ लघुकथा – कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ……….  ☆ 

 

उल्टी गंगा मत बहाया कर गुड्डो ! मायके से लड़कियों को गहना – कपड़ा मिलना चाहिए।  लड़कियों को देते रहने से मायके का मान बना रहता है और ससुराल में लड़की की इज्जत भी बनी रहती है।  हम तो तुझे कुछ दे नहीं पाते और तेरे घर में पड़े मुफत की रोटी तोड़ रहे हैं। दामाद जी क्या सोचेंगे भला।

कुछ नहीं सोचेंगे दामाद जी। तुम इस बात की चिंता मत किया करो। और फिर तुम मेरे पास आई हो, मेरा मन भी करता है ना अपनी अम्मा के लिए कुछ करने का। तुमने मुझे अपने पैरों पर खड़ा किया, समर्थ बनाया और ये क्या लड़की–लड़का लगा रखा है ? आज के ज़माने में ये सब कोई नहीं सोचता।  लड़की है तो क्या माता–पिता के लिए कुछ करे ही नहीं ?

ये तेरी सोच है बेटी ! जमाने की नहीं। समाज में लड़की–लड़के में अंतर कभी मिट ही नहीं सकता।  दो महीने से लड़की–दामाद के घर का खाना खा रही हूँ। लेने–देने के नाम पर ठन–ठन गोपाल। तू मेरे सिर पर बोझ लाद रही है ये कपड़े, मिठाई देकर।

गुड्डो कितना चाहती थी कि अम्मा भी सास–ससुर की तरह ठसके से रहे उसके पास, जो चाहिए वो मंगाए, जो कुछ ठीक ना लगे वह मुझे बताए। लेकिन कहाँ, वह तो मानों झिझक और संकोच से अपने में ही सिकुड़ती चली जा रही है।  इलाज के लिए वह गुड्डो के पास चली तो आई लेकिन ‘ये लड़की का घर है। लड़की के माँ–बाप लड़की के ससुराल जाकर नहीं रहते’ – यह बात उसके मन से हटती ही नहीं थी।  खाने–पीने से लेकर उसकी हर बात में हिचकिचाहट दिखाई देती।  हाथ में रुपए–पैसे का ना होना भी उसे दयनीय बना देता था।

गुड्डो समझ रही थी कि अम्मा किसी उलझन में है। तभी झुकी हुई पीठ को सीधी करने की कोशिश करते हुए कमर पर हाथ रखकर अम्मा बोली – “ऐसा कर गुड्डो तू ये रुपए रख बच्चों के लिए मिठाई मंगवा ले,  यह कहकर वह ब्लाउज में बड़ी हिफाजत से रखा बटुआ निकालने लगीं।“

बटुआ निकालकर अम्मा उसे खोलकर देखे इससे पहले ही गुड्डो ने उसका हाथ पकड़ लिया – “रहने दो अम्मा ! मैं तुम्हारे पास आऊंगी तब दे देना।”

“तब ले लेगी तू ?”

“हाँ।”

“मना मत करना यह कहकर कि बस ग्यारह रुपए से टीका कर दो।”

“नहीं करूंगी बाबा ! अभी रखो अपना बटुआ संभालकर।”

अम्मा अपना बटुआ जतन से संभालकर रख लेती इस बात से अनजान कि बटुए में रुपए हैं भी या नहीं। बढ़ती उम्र के कारण वह अक्सर बहुत – सी बातें भूल जाती थी।  गुड्डो को मालूम था कि बटुए में सिर्फ दो सौ रुपए पडे हैं। बटुआ खोलने के बाद दो सौ रुपए देखकर उसके चहरे पर जो बेचारगी का भाव आएगा गुड्डो उसे देखना नहीं चाहती थी इसलिए वह हर बार कुछ बहाना बनाकर ऐसी स्थिति टाल देती। माँ का मन बहलाने के लिए वह बोली – “अम्मा ! तुम्हें कलकत्ता की ताँतवाली साड़ी बहुत पसंद है, ना चलो दिलवा दूँ।”

“हाँ चल, पर साड़ी के पैसे मैं ही दूंगी।”

“हाँ – हाँ, तुम्हीं देना, चलो तो।”

ताँत की रंग – बिरंगी साड़ियों को देखकर अम्मा खिल उठी।  अपने लिए उसने हल्के हरे रंग की साड़ी पसंद की।  मुझसे बोली – “गुड्डो ये पीली साड़ी तू ले ले।  बहुत जंचेगी तुझ पर।  सूती साड़ी की बात ही कुछ और है।  मैं तेरे लिए कुछ नहीं लाई, यह साडी तू मेरी तरफ से ले लेना।  आज मना मत करना। लड़की को कुछ दो ना, उससे लेते रहो, ऐसा पाप ना चढाओ बेटी मेरे सिर।”  ये कहते – कहते अम्मा ने बटुआ निकाल लिया।  बटुए में सौ – सौ के सिर्फ दो नोट देखकर उसका चेहरे का रंग उतर गया।  दबी आवाज में बोली – “गुड्डो बिल कितना हुआ ? ” गुड्डो झिझकते हुए बोली – इक्कीस सौ रुपए अम्मा।”

“अच्छा” – उसने एक बार हाथ के दो नोटों की ओर देखा,  उसके चेहरे पर दयनीयता झलकने लगी।  घबराए से स्वर में बोली – “तू – तू — ये दो सौ तो रख ले बाकी मैं तुझे बाद में दे दूंगी।”

“ठीक है अम्मा, मैंने दिया, तुमने दिया, एक ही बात है।” गुड्डो अपने घर में माँ को जिस स्थिति से बचाना चाह रही थी अब वह मुँह पसारे खडी थी। अम्मा हँस रही थी पर उदासी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी।  अपनी उदासी को छुपाने का उसका यह बहुत पुराना तरीका था।

घर पहुँचते ही अम्मा ने साड़ी के बैग एक तरफ डाले और जल्दी से रसोई में जाकर सिंक में पड़े कप – प्लेट धोने लगी।  वह अपने – आप से बोले जा रही थी – “गुड्डो दो महीने से तेरे घर में पड़ी खटिया तोड़ रही हूँ।  तेरे किसी काम की नहीं।  तुझे जो – जो काम करवाने हों मुझे बता।  गरम मसाला, हल्दी, लाल मिर्च सब मंगवा ले।  मैं कूट, छानकर रख दूंगी।  साल भर काम देंगे।  बाजार की हल्दी तो कभी ना लेना।  पता नहीं दुकानदार कैसा रंग मिलाते हैं उसमें।  घर की हल्दी हो तो बच्चों को रात में दूध में डालकर दो, सर्दी में बहुत आराम देती है।  तू भी पियाकर हड़डियों के लिए अच्छी होती है।  खूब आराम कर लिया मैंने।  तबियत भी ठीक हो गई है।  सब काम कर सकती हूँ मैं अब।”

झुकी पीठ लिए अम्मा जल्दी‌ – जल्दी काम निपटाना चाह रही थी।  गुड्डो दूर खड़ी  अम्मा के मन में उपजे अपराध – बोध को महसूस कर रही थी।  वह उसे समझाना चाहती थी कि अम्मा ! तुम अपनी बेटी के घर में हो, तुमने यहाँ आकर कुछ गलत नहीं किया।  तुम मुझे साड़ी नहीं दिला सकी तो कोई बात नहीं।  बचपन में कितनी बार तुमने मुझे अच्छे कपड़े दिलवाए और अपने लिए कुछ नहीं लिया।  कितनी बार मेरी जरूरतें पूरी करके ही तुम खुश हो जाती थीं।  मैं बेटा नहीं हूँ, कुलदीपक नहीं हूँ तुम्हारे परिवार का ? पर बेटी तो हूँ तुम्हारी।  मेरे पास उतने ही अधिकार से रहो, जितना तुम्हारे अगर बेटा होता तो तुम उसके पास रहतीं।  किस अपराध बोध से इतना झुक रही हो अम्मा ?

गुड्डो की आँखों से झर – झर आँसू बह रहे थे। वह कुछ कह ना सकी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य- दीपावली विशेष – बुंदेली लघुकथा – ☆ आस का दीपक ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक भावुक बुंदेली लघुकथा  “आस का दीपक”.)

 

☆ लघुकथा – आस का दीपक  

 

“आए गए कलुआ के बापू, आज तो अपन का काम होइ गओ हुईए –” कहत भई कमली  बाहर आई  तो आदमी के मुँहपर छाई मुर्दनी देखी तो किसी अज्ञात खुशी से खिला उसका चेहरा पीलो पड़ गओ।

रघुवा ने उदास नजरों से अपनी बीवी को देखा और बोला – “इत्ते दिना से जबरनई तहसीलदार साहब के दफ्तर के चक्करवा लगाए रहे, आज तो ऊ ससुरवा ने हमका दुत्कार दियो और कहि कि तुमको मुआवजा की राशि मिल गई है, ये देखो तुम्हारा अंगूठा लगा है इस कागज़ पर और लिखो है कि  रघुवा ने 2500 रुपया प्राप्त किये।”

जिस दिन से बाबू ने आकर रघुवा से कागद में अंगूठा लगवाओ हतो  और कहि हती कि सरकार की तरफ से फसल को भये नुकसान को मुआवजा मिल हे, तभई से ओकी बीवी और बच्चे  के मन में दिवाली मनावे हते एक आस का दीपक टिमटिमाने लगा था, लेकिन बाबुओं के खेल के कारण उन आंखों में जो आस का दीपक टिमटिमा रहा था  वह जैसे दिए में तेल सूख जाने के कारण एकाएक ही बुझ गया।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #20 ☆ पुनरावृत्ति ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “पुनरावृत्ति”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #20 ☆

 

☆ पुनरावृत्ति ☆

 

मंगलेश ने कमल की ओर देख कर मन ही मन कहा, “एक बार, रिश्तेदार की शादी में इस ने मुझे अपनी कार में नहीं बैठाया था, आज मैं इसे अपनी कार में नहीं बैठाऊंगा. ताकि इसे अनले किए का मजा चखा सकूँ.”

जैसा वह चाहता था वैसा ही हुआ. शादी में आए रिश्तेदार उस की कार में झटझट बैठ गए.  जैसे एक दिन मंगलेश बाहर खड़ा था वैसे ही आज कमल कार के बाहर खड़ा था. तभी मंगलेश की निगाहें अपने जीजाजी पर गई. वे भी कार के बाहर खड़े थे.

आज फिर वहीं स्थिति थी. जैसी मंगलेश जीजाजी और कमल साले जी के साथ हुई थी. फर्क इतना था कि आज मंगलेश ड्राइवर सीट पर बैठा था जब कि उस दिन कमल ड्राइवर सीट पर बैठा था. उस के सालेजी की जगह वह खड़ा था.

आज उसे भी वही खतरा सता रहा था जो किसी दिन कमल को सताया होगा. उस के जीजाजी बाहर खड़े थे. कार में जगह नहीं थी. यदि मंगलेश उन्हें कार में नहीं बैठाता तो वे नाराज हो सकते थे. कार से किसी रिश्तेदार को उतारा नहीं जा सकता था. असमंजस की स्थिति थी. क्या करें ? उसे कुछ समझ में नहीं आया.

तभी उस ने कार से उतर कर कमल की ओर चाबी बढ़ा दी.

“सालेसाहब ! आप इन्हें ले कर विवाह समारोह तक जाइए. मैं और मेरे जीजाजी किसी ओर साधन से वहाँ तक आते हैं.”

यह सुन कर कमल चकित और किकर्तव्यविमूढ़ खड़ा था.  उस के मुँह से हूँ हाँ के सिवाय कुछ नहीं निकला.

मंगलेश का मन दुखी होने की जगह प्रसन्न था कि उस का बदला पूरा नहीं हुआ मगर मन बदल गया था. उस ने एक और पुनरावृति को होने से रोक लिया था.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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