हिन्दी साहित्य ☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – केसर ☆ सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की एक ऐसे पहलू को उजागर करती  है जिस से प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप से ठगा जाता है। हम अक्सर टूरिस्ट प्लेस पर बस या ट्रैन से जाते हैं तो वहां की प्रसिद्ध वस्तुएं लेने के मोह से नहीं बच पाते। फिर अक्सर घर आकर ठगे महसूस करते हैं क्योंकि वही वस्तु उनके शहर में आसानी से मिल जाती है। स्थानीय लोगों में कुछ बेईमान लोग ऐसे ठगी करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम रहता है कि यह यात्री वापिस शायद ही आएगा। साथ ही उनसे हमारे देश की छवि विदेशी यात्रियों के माध्यम से ख़राब होती है सो अलग। कोई इस पर संज्ञान क्यों नहीं लेता ? एक  विचारणीय लघुकथा।)

 

☆ लघुकथा – केसर ☆

 

“बाबूजी, केसर ले लो! बौनी का टाईम है, बिल्कुल जायज भाव लगाऊंगा”। वह बोले जा रहा था व प्रकाश चुपचाप सुने जा रहा था। प्रकाश अपने परिवार के साथ कुल्लू मनाली घुमने आया था। वह केसर की एक छोटी सी डिबिया 600 रूपये की बताते-बताते 200 रूपये पर आ गया। जितनी बड़ी डिबिया उसके शहर में 500 रूपये से कम की नहीं मिलती वह यहाँ सिर्फ़ 200 रूपये में मिल रही थी। लालच किसको नहीं होता, लेकिन मन में कहीं शक हुआ कि नकली तो नहीं है, केसर बेचने वाले ने झठ से एक डिबिया निकाल थोड़ी सी केसर ले अपने हाथ पर उल्टी तरफ रगड़ी और हाथ सीधा कर सूंघने को बोला हाथ महक रहा था। अब शक की कोई गुंजाइश नहीं थी। प्रकाश की पत्नी तो पीछे ही पड़ गई और 2000 रूपये का केसर ऐसे ही केसर बेचने वाले से 3-4 लोगों ने खरीद लिया।

घर पहुंच कर जब केसर को दूध में डालने के लिए डिबिया खोली तो महक तो खूब थी पर सिर्फ़ आर्टिफिशियल महक थी। यह क्या केसर घुलते ही लाल हो गई। तब उनका माथा ठनका कि केसर तो नकली थी। उनको लगा कि उनके साथ तो ठगी हो गई। हर टूरिस्ट प्लेस पर वहाँ की कोई स्पेशल वस्तु बेचकर या तो नाजायज दामों की वसूली ही करते हैं या फिर नकली चीज ही पेल देते हैं। विदेशी टूरिस्ट के साथ तो उनका रवैया और भी बुरा होता है, मुँह माँगे दाम वसूलते हैं। और यहाँ तो असंख्य की तादाद में बिल्कुल एक तरह की केसर बेचने वाले घूम रहे थे। प्रकाश सोचने पर मजबूर था कि यह लोग पकड़े क्यूँ नहीं जाते? लोग जो घूमकर आते हैं वे इसके खिलाफ बोलते क्यूँ नहीं ? शायद इसलिए कि उनकी रोजी रोटी छीनी जाएगी? पर उन लोगों को भी तो सोचना चाहिए कि महँगे दाम चाहें वसूल ले पर नकली माल तो न बेचें। खाने-पीने की वस्तुएं तो नुकसान भी कर सकती हैं। फिर उसने फैसला कर लिया कि वह आपबीती जरूर किसी न्यूजपेपर में छपवायेगा। हो सकता है, इस बात का उन पर कुछ असर दिखे आइन्दा ऐसा करने से पहले कुछ सोचने पर विवश हो जायें।

 

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 16 ☆ लघुकथा – गणेश चौथ ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक  लघुकथा  “गणेश चौथ”।  समाज में व्याप्त  भेदभावपूर्ण एवं नकारात्मक संस्कारों को भी सकारात्मक स्वरुप दिया जा सकता है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 16 ☆

☆ लघुकथा – गणेश चौथ

हर साल गणेश चौथ और अहोई व्रत मुझे कचोटते हैं इसलिए नहीं कि मेरे पुत्र नहीं है।  बल्कि इसलिए कि यदि व्रत रखने और पूजा पाठ करने से पुत्र को लंबी उम्र और सुखी जीवन मिलता है तो मैं अपनी बेटियों के लिए यह व्रत क्यों न करूँ। क्या मैं नहीं चाहती कि मेरी  बेटियाँ स्वस्थ तथा दीघार्यु हों? पुत्रियों के लिए क्या कोई व्रत – पूजा नहीं ? मैं मन ही मन कलप उठती।

गणेश चौथ का दिन था।  सासू जी सुबह से ही नहा-धोकर नयी साड़ी पहनकर तैयार हो गयीं। आज उनका गणेश चौथ का व्रत था। तिल के लड्डू, तिलकूट और भी बहुत कुछ घर में बन रहा था।

सासू जी खुद तो व्रत रखती ही थीं आस-पड़ोसवालों से भी पूछती रहतीं – आज गणेश चौथ है आप भी व्रत होंगी ? नहीं या हाँ के उत्तर के बाद प्रश्न दग जाता – और आपकी बहू ? नहीं, बहू यह व्रत नहीं रखती। उसके लड़का नहीं है ना ? लड़के की माँ ही गणेश चौथ और अहोई का व्रत रखती है। ना चाहते हुए भी मेरे कानों में आवाज पड़ ही जाती थी। अब ये बातें मेरी समझदार होती बेटियों को भी सुनायी देने लगी थीं, जो मैं नहीं चाहती थीं।

तभी मैंने देखा कि मेरी छोटी बेटी आस्था अपनी दादी से उलझ रही है – दादी। लड़कों के लिए ही व्रत रखते हैं क्या ? लड़कियों के लिए कौन-सा व्रत रखा जाता है ?

अरे नहीं होता कोई व्रत, दादी झुंझलाकर बोलीं— लड़कियों के लिए भी कहीं व्रत रख जाता है क्या ?

पर क्यों नहीं रखते दादी ? – रुआँसी होती आस्था बोली |

अरे। हमें क्या पता। जाकर अपनी मम्मी से पूछो। बहुत पढ़ी-लिखीं हैं,  वही बताएंगी।

आस्था रोनी सूरत बनाए आँखों में प्रश्न लिए मेरे सामने खड़ी थी। आस्था के गाल पर स्नेह भरी हल्की चपत लगाकर मैं बोली – ये व्रत, पूजा सब संतान के लिए होती है।

संतान मतलब ?

हमारे बच्चे – बेटे, बेटी सब।

मैंने देखा आस्था के चेहरे पर भाव आँख – मिचौली खेल रहे थे। सासू जी रात में गणपति जी की पूजा करने बैठीं। उन्होंने अपने बेटे को टीका लगाया और आरती उतारी। मैंने अपनी बेटियों अदिति और आस्था को भी वहाँ बैठाया। सुंदर-सा टीका लगाकर, अक्षत के दो दाने लगा दिए, आरती उतारी और बेटियों की दीर्घायु की कामना की। दीपक की लौ में उज्ज्वल चाँदनी-सी मुस्कान ने दोनों के चेहरे पर अनोखी सुंदरता भर दी। तिलकूट की सौंधी महक घर भर में पसर गयी  थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – # 31 ☆ समय ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  मानवीय आचरण के एक पहलू पर  बेबाक लघुकथा  “समय । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #31☆

☆ लघुकथा – समय☆

 

“सुधीरजी ! सुना है कि आप का एक बेटा इंजिनियर और एक डॉक्टर है.”

“जी ! ठीक सुना है आप ने,” उन्होंने अस्पताल के बिस्तर पर करवट ली .

“फिर भी आप यहाँ पर, अकेले दुःख देख रहे है.”

“वह तो देखना ही है.”

“मैं समझा नहीं. आप क्या कहना चाहते है?”

“यही कि मेरे बच्चें वही कर रहे है जी मैं ने अपने पिता के साथ किया था. यह तो नियति चक्र है. जो जैसे बौता  है वैसा ही काटता है ”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 32 – दान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक  मार्मिक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा  “दान ”।  आज के स्वार्थी संसार में भी कुछ लोग हैं जो मानव धर्म निभाते हैं। अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 32 ☆

☆ लघुकथा – दान ☆

 

सिविल लाइन का ईलाका सभी के अपने अपने आलीशान मकान, डुप्लेक्स और अपार्टमेंट। अलग-अलग फ्लैट में रहने वाले विभिन्न प्रकार के लोग और सभी लोग मिलजुलकर रहते।

वहीं पर एक फ्लैट में एक बुजुर्ग दंपत्ति भी रहते थे। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। कहने को तो बहुत रिश्ते नातेदार थे, परंतु, उनके लिए सभी बेकार रहे। सभी की निगाह उनकी संपत्ति, फ्लैट, रूपए पैसे, नगद, सोना चांदी, और गाड़ी पर लगी रहती थी। सेवा करना कोई नहीं चाहता था।

धीरे-धीरे समय बीतता गया एक सब्जी वाला कालू बचपन से उनके मोहल्ले में आता था। पूरे समय अम्मा बाबूजी उसका ध्यान लगाते थे। बचपन से सब्जी बेचता था। उसी गली में कभी अम्मा से ज्यादा पैसे ले लेता, कभी नहीं भी ले लेता। बुजुर्ग दंपत्ति भी उन्हें बहुत प्यार करते थे। दवाई से लेकर सभी जरूरत का सामान ला कर देता था।

एक दिन अचानक बाबूजी का देहांत हो गया। सब्जी वाला कालू टेर लगाते हुए आ रहा था। अचानक की भीड़ देखकर रुक गया। पता चला उनके बाबूजी नहीं रहे। आस-पड़ोस सभी अंतिम क्रिया कर्म करके अपने-अपने कामों में लग गए।

दिनचर्या फिर से शुरू हो गई। सब्जी वाला आने लगा था। अम्मा जी धीरे धीरे आकर उससे सब्जी लेती थी। घंटों खड़ी होकर बात करती, वह भी खड़ा रहता। कभी अपनी रोजी रोटी के लिए परेशान जरूर होता था। परन्तु उनके स्नेह से सब भूल जाता था। अम्मा जी को भी बड़ी शांति मिलती। ठंड बहुत पड़ रही थी।

मकर संक्रांति के पहले सभी पड़ोस वाले आकर कहने लगे… आंटी जी दान का पर्व चल रहा है।  आप भी कुछ दान दक्षिणा कर दीजिए। अम्मा चुपचाप सब की बात सुनती रही। अचानक ठंड ज्यादा बढ़ गई, उम्र भी ज्यादा थी। अम्मा जी की तबियत खराब हो गई । अस्पताल में भर्ती कराया गया। कालू सब्जी वाला अपना धन्धा छोड़ सेवा में लगा रहा।

बहुत इलाज के बाद भी अम्मा जी को बचाया नहीं जा सका।

शांत होते ही कई रिश्तेदार दावा करने आ गये। परन्तु उसी समय वकील साहब आए और वसीयत दिखाते हुए कहा… स्वर्गीय दंपति का सब कुछ कालू सब्जी वाले का है। अंत में लिखा हुआ वकील साहब ने पढा…. कालू….. मेरे बेटे आज मैं तुम्हें अपना शरीर दान कर रही हूं। इस पर सिर्फ तुम्हारा अधिकार है। तुम चाहे इसे कैसे भी गति मुक्ति दो।

मृत शरीर पर कालू लिपटा हुआ फूट फूट कर रो रहा था। और कह रहा था…. जीते जी मुझे मां कहने नहीं दी और आज जब कहने दिया तो दुनिया ही छोड़ चली।

कालू ने बेटे का फर्ज निभाते हुए अपनी मां का अंतिम संस्कार किया। और कहा… मां ने मुझे महादान दिया है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 15 ☆ लघुकथा – अनुष्ठान ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक  लघुकथा  “ अनुष्ठान ”।  हम  कितने भी कर्मकांड कर लें किन्तु, यदि मानसिकता नहीं बदली तो फिर कर्मकांड तो कर्मकांड ही रहेंगे न ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 15 ☆

☆ लघुकथा – अनुष्ठान ☆ 

असल में पूरी पंडिताइन हैं वो। भई, गजब की पूजा- पाठ। कोई व्रत- त्यौहार नहीं छोड़तीं, करवाचौथ, हरितालिका सारे व्रत निर्जल रहती हैं। आज के समय में भी प्याज- लहसुन से परहेज है। अन्नपूर्णा देवी का व्रत करती है, इस बार उद्यापन करना था। धूमधाम से तैयारी चल रही थी।

इक्कीस ब्राह्मणों को भोजन कराना था। दान-दक्षिणा अपनी श्रद्धा तथा सामर्थ्य के अनुसार। पूजा की सामग्री में इक्यावन मिट्टी के दीपक लाने थे। कुम्हारवाड़ा घर से बहुत दूर था। पास के ही बाजार में एक बूढी स्त्री दीपक लिए बैठी दिख गई। पच्चीस रुपये में इक्यावन दीपक खरीद लिए। पंडिताइन ने पचास का नोट निकाल कर बूढी स्त्री को दिया और दीपक थैले में रखने लगीं। ‘पंडित जी ने बोला है कि दीपकों में खोट नहीं होना चाहिए, किसी दीपक की नोंक जरा भी झड़ी न हो।’

देखभाल कर बड़ी सावधानी से दीपक रखने के बाद पंडिताइन ने पच्चीस रुपए वापस लेने के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया। बूढी माई ने धुंधली आँखों से पचास के नोट को सौ का समझ, ७५ रुपए पंडिताइन के हाथ में वापस रख दिए। पंडिताइन की आँखें चमक उठीं। वे बडी तेजी से लगभग दौड़ती हुई सी वहाँ से चल दीं। अपनी गलती से अनजान बूढी माई शेष दीपकों को संभाल रही थी।

अन्नपूर्णा देवी के अनुष्ठान की तैयारी अभी बाकी थी। पंडिताइन पूजा की सामग्री के लिए दूसरी दुकान की ओर चल दीं।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा – ☆ लुढ़कता पत्थर ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सार्थक एवं सटीक  लघुकथा   “लुढ़कता पत्थर ”.)

☆ लघुकथा – लुढ़कता पत्थर

नेताजी सत्ता प्रेमी थे । सत्ता के साथ रंग बदलना उनकी फितरत में था । राज्य में परिवर्तन की लहर के साथ उनकी आस्था सत्ता में बदलते समीकरण को बैठाने के लिये व्याकुल थी ।

आखिर उनकी मेहनत रंग लाई और वे सत्ता पक्ष में शामिल हो गये । उनके बदलते रंग को देखकर उनके पुराने मित्रों ने उन्हें गिरगिट की संज्ञा दी , तब उन्होंने तपाक से जुमला कसा –” समय के साथ जो नहीं बदलता , समय उसे बदल देता है ।मित्रवर यह हमेशा ध्यान रखिये लुढ़कते पत्थर पर कभी काई नहीं जमती । ”

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – # 30 ☆ हाथ की सफाई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी  एक  मालवो  मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  मानवीय आचरण के एक पहलू पर  बेबाक लघुकथा  “हाथ की सफाई  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #30 ☆

☆ हिन्दी लघुकथा –हाथ की सफाई☆

 

मैंने रावण जी को दो शब्द कहने के लिए उठाया. वे बोले,  “शिक्षकों को सब से पहले ईमानदार होना चाहिए. इस के पहले ईमानदार दिखना ज्यादा जरूरी है ताकि बच्चे शिक्षक का अनुसरण कर सकें.”

वे पूरा भाषण देने के मूड़ में थे.

“हमें कोई भी चीज रद्दी में नहीं फेंकना चाहिए. हर चीज का उपयोग करना चाहिए. ……………….. रद्दी में से चीजें उठा कर उस का दूसरा उपयोग किया जा सकता है….”

उन का भाषण खत्म होते ही मेरी निगाहें टेबल पर रखे कार्बन पर गई. वे टेबल पर नहीं थे. मैं समझ गया कि किसी शिक्षक ने वे रख लिए है ताकि प्रिंटर्स से एक बार उपयोग किए गए कार्बन को वे दोबारा उपयोग कर सकें.

तभी मेरी निगाहें रावणजी के थैले पर गई. कार्बन वहां से। झांक रहे थे. उन का दोबारा उपयोग होने वाला था. मगर, मुझे दो प्रति में जानकारी बनाने के लिए कार्बन चाहिए थे.

“अब आप ये जानकारी दो दो प्रति में बना कर दे दें,”  मैंने शिक्षकों को जानकारी का प्रारूप दिया तो एक शिक्षक ने कहा, “साहब ! कार्बन भी दीजिए.”

मैंने झट से कहा, “कार्बन की क्या बात है?  इन रावणजी के थैले में बहुत से पड़े है. इन का उपयोग कीजिए.” यह कहते हुए मैंने झट से हाथ की सफाई के साथ वे थैले से कार्बन निकाल कर शिक्षकों को पकड़ा दिए.

रावणजी सकुचाते हुए नजरे नीची करते हुए बोले, “लीजिए…. लीजिए…….  . मेरी तरह आप भी इन कार्बनों का दोबारा उपयोग कीजिए.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 7 ☆ लघुकथा – शर्मिंदगी ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  संस्मरणात्मक, शिक्षाप्रद एवं सार्थक लघुकथा   “शर्मिंदगी ”।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 7 ☆

☆ लघुकथा – शर्मिंदगी ☆

उसके ब्लाउज की फटी हुई आस्तीन से गोरी बाजू साफ झलक रही थी।

मेरी कमउम्र बाई कशिया को इसका भान तक न था। रसोईघर में घुसते ही मेरी नजर उस पर पड़ी तुरन्त ही मैने आँखो से इशारा किया, पर वह इशारा  नहीं समझ सकी। घर पर बडे-बड़े बच्चे और नाती पोते सभी थे।

उसके न समझने पर मैने उस समय कुछ न कहा और अंदर से एक ब्लाउज लाकर कशिया को देती हुई उससे बोली -“जा  गुसलखाने में जाकर बदल आ।”

वह मुझे हैरानी से देखने लगी। मगर बिना कुछ बोले  वह और गई ब्लाउज  बदल कर आ गई।

उसके हाथ में अब भी उसका वह ब्लाउज था। वह अब भी मुझे  हैरानी से ताक रही थी। ये देख मैने उसका ब्लाउज अपने हाथ में लेकर उसे फटा हुआ हिस्सा दिखाया।

वह अचकचा गई और शरम के कारण उसकी नजरें झुक गई। वह धीरे से बोली – “बाई हम समझ ही नहीं पाये जल्दी – जल्दी पहन आये। रास्ते में एक आदमी चुटकी ले रहा था। वह गा रहा था धूप में निकला न करो …….गोरा बदन काला न पड़ जाये।”

“कोई बात नहीं। पर ध्यान रखो घर से निकलते वक्त कपड़ो पर एक निगाह जरूर डालनी चाहिए ताकि बाद में कोई शर्मिंदगी न हो।”

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 31 – जीवनदान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक  भावप्रवण शिक्षाप्रद लघुकथा  “ जीवनदान ”।  यदि कोई भी स्त्री साहसपूर्ण सकारात्मक निर्णय ले तो निश्चित ही समाज की  कुरीतियों पर कुठाराघात कर किसी को भी जीवनदान  दिया जा सकता है।  फिर जीवनदान मात्र जीवन का ही नहीं होता, पश्चात्ताप के पश्चात  प्राप्त जीवन भी किसी जीवनदान से काम नहीं है। अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 31 ☆

☆ लघुकथा – जीवनदान ☆

 

गांव में ठकुराइन कहने से एक अलग ही छवि उभरती थी। कद- काठी से मजबूत अच्छे अच्छों को बातों से हरा देना और जरुरत पड़ने पर  खरी-खोटी बेवजह सुनाना उनका काम था। पूरे गांव में ठकुराइन का ही शासन चलता था। उनके तेज तर्रार रूप स्वभाव के कारण उसका पति जो गांव का सरपंच था, अपनी सब बातों में चुप ही रहता था। जो ठकुराइन कह दे वही सही होता था। किसी में हिम्मत नहीं थी उनकी बात काटने या किसी बात की अवहेलना करने की।

उसका बेटा मां के अनुरूप ही निकला था। घर की बहू और अन्य महिलाओं को सिर्फ घर के काम काज, चूल्हा चौकी तक ही सीमित देखना चाहता था। गरीब घर से बहू ब्याह कर लाने के बाद, बहु पूरा दिन घर में काम करती थी। और बाकी के समय सासू मां की सेवा।

सख्त हिदायत दी गई थी कि घर में पोता ही होना चाहिए। बहु बेचारी सोच-सोच कर परेशान थी। समय आने पर घर में खुशी का माहौल बना, परंतु पोती होने पर उस नन्हीं सी जान को बाहर फेक आने तक की सलाह देने लगी ठकुराइन। बहू ने कहा… “आप जो चाहे सजा मुझे दे, पर बिटिया को मारकर आप स्वयं पाप के भागीदार ना बने।” सासू माँ ने कहा…. “ठीक है इस लड़की का मुंह मुझे कभी ना दिखाना। चाहे तू इसे किसी तरह पाल-पोस कर बड़ा कर, मुझे कोई मतलब नहीं है। परंतु मेरे सामने तेरी लड़की नहीं आएगी।”

माँ ने सभी शर्तें मान ली। बिटिया धीरे-धीरे बड़ी हुई। घर में दूसरा बच्चा पोता भी आ गया। परंतु सासू मां के सामने नन्हीं बच्ची को कभी नहीं लाया जाता था। बड़ी होती गई बिटिया स्कूल में पढ़ने लिखने में बहुत होशियार थी। पढ़ाई करते-करते कब बड़ी हो गई, माँ को पता ही नहीं चला। धीरे-धीरे सभी प्रकार की परीक्षा पास करते गई और एक दिन IAS परीक्षा पास कर कलेक्टर बन गई।

आज गांव के स्कूल का मैदान खचाखच भरा हुआ था। कार्यक्रम था गांव की एक बिटिया का पढ़ लिख कर कलेक्टर बन कर गांव में आना। बिटिया को जिस स्कूल में वह पढ़ी थी उसी स्कूल में सम्मानित करने के लिए बुलाया गया था। ठकुराइन को महिला मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था। पूरा गाँव जय जयकार कर रहा था। दादी नीचे सिर किए बैठी-बैठी सभी का भाषण सुन रही थी। सम्मानित करने के लिए, बिटिया को मंच पर खड़ा किया गया और आवाज़ लगाई गई।

तालियों की गड़गड़ाहट से स्कूल परिसर गूंज उठा। दादी रुंघे गले से और आंखों में पश्चाताप के आंसू लिए अपनी पोती को देख रही थी। लगातार आँसू बह रहे थे। बिटिया ने कहा…. “आज यह सम्मान मैं अपनी दादी के हाथों लेना चाहूंगी। क्योंकि मुझे जीवन दान देकर, दादी ने मुझ पर उपकार किया था। आज इस सफलता पर मेरी दादी ही मेरे लिए सबसे महान है।”

दादी ने नीचे सिर किए ही बिटिया को गले में माला पहनाई और धीरे से कान में पोती को कहा…. “अब मैं समझ गई बिटिया भी बेटों से कम नहीं होती। अगले जन्म में मैं तुम्हारी बिटिया बनकर आना चाहूंगी। ईश्वर से मेरी प्रार्थना है “और कसकर अपने बिटिया रानी को गले से लगा लिया। माँ भी बहुत खुश थी। आज एक महिला ने सारी कुरीतियों को त्याग कर एक लड़की का सम्मान किया और सारा गिला शिकवा भूलकर गर्व से मुस्कुरा रही थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 14 ☆ लघुकथा – निर्विकार ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी  एक  लघुकथा  “निर्विकार”।  कथानक सत्य के धरातल पर  रचित है किन्तु, देख पढ़कर सुन कर  हृदय  द्रवित  हो जाता है कि आज के भौतिक संसार में  मनुष्य इतना निर्विकार कैसे हो सकता है ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 14 ☆

☆ लघुकथा – निर्विकार ☆ 

 

ट्रेन मनमाड से चलने ही वाली थी कि अचानक प्लेट्फार्म पर भीड़ का एक रेला आया। भीड़ में औरतें और बच्चे ही ज्यादा थे,  संभवतः वे बनजारे थे। इनकी पूरी गृहस्थी, थैलों, गठरियों और बोरियों में सिमट कर चलती है। जहाँ ठिकाना मिला वहाँ इन गठरियों और बोरियों के मुँह खुल जाते हैं। पसर जाती है इनकी जिंदगी, कभी खाली पड़े मैदानों में और कभी रेल की पटरियों के किनारे।

चटक रंग के घेरदार घाघरे, हाथों में प्लास्टिक के रंग-बिरंगे कंगन, कानों में बालियाँ या बड़े-बड़े  झुमके, नाक में बड़ी-सी नथ  (लगभग झूलती हुई)। एक बच्चा पैरों से चिपटा खड़ा , दूसरा गोद में और तीसरे को गर्भ में संभाले बनजारिनें प्लेटफार्म पर ट्रेन के दरवाजे के पास झुंड बनाए खड़ी थीं।

उनका ही एक आदमी झोले और बोरियों  में भरे सामान को दनादन ट्रेन के दरवाजे से अंदर फेंक रहा था , सामान पहले चढ़ जाना चाहिए ? औरतें, बच्चे बाद में चढ़ लेगें, शायद छूट भी जाएं तो कोई फर्क नहीं ?  पुरुषों का क्या वे तो चलती ट्रेन में चढ़-उतर सकते हैं। थैले, गठरी, बोरे चढ़ाए जा रहे थे कि इसी बीच उनका एक बच्चा भी सामान के साथ झटके में ट्रेन में चढ़ गया। कुछ वैसे ही जैसे सारा सामान चढ़ाया जा रहा था। बच्चा छोटा था ट्रेन की सीढ़ी चढ़कर वह ठीक से खड़ा हो पाता कि इससे पहले उसके ऊपर कुछ और गठरियाँ, बोरे लद गए, उसके नीचे दबा बच्चा बिलबिलाने लगा। माई रे, माई रे….. की क्षीण आवाज सुनायी दे रही थी। लेकिन ना तो समान फेंकनेवाले के हाथ थम रहे थे और ना दरवाजे के पास खड़ी औरतों के चेहरे पर कोई शिकन नजर आयी। सभी यथावत, निर्विकार, संवेदनहीन। बोरियों में भरा सामान ज्यादा जरूरी था, बच्चा तो………?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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