हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 5 ☆ झूठी आधुनिकता ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही सत्य के धरातल पर लिखी गई लघुकथा “झूठी आधुनिकता”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 5 ☆

☆ लघुकथा – झूठी आधुनिकता ☆ 

गणपति पूजा का अंतिम दिन। गणपति विसर्जन की धूमधाम थी, शॉर्ट्स, टी शर्ट और हाई हील सेंडिल में वह ढ़ोल की ताल पर थिरक रही थी। पास ही उसकी बड़ी बहन भी थी, जो एअर होस्टेज है। दोनों बहनें गणपति उत्सव के लिए छुट्टी लेकर घर आई हैं। वेशभूषा से दोनों  आधुनिक लग रही थीं। लड़कियों के आधुनिक पहनावे को देखकर ऐसा लगता है कि महिलाओं का विकास हो रहा है? समाज में कुछ बदलाव आ रहा है?

ढ़ोल तासे की आवाज थोड़ी कम होने पर पड़ोस की एक महिला ने पूछा- “मिनी! कब आई तुम लंदन से?”

“आज ही आई हूँ आँटी।“

“अच्छा गणपति विसर्जन के लिए आई होगी? गणपति बैठाले (स्थापना) हैं ना?”

“अरे नहीं आंटी। हम दो बहनें ही हैं, भाई तो है नहीं, इसलिए हम घर पर गणपति स्थापना नहीं करते। मॉम मना करती हैं ………………।”

नकली आधुनिकता की चादर सर्र………… से सरक गई। वास्तविकता उघड़ी पड़ी थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #22 ☆ मापदंड ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “मापदंड”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #22 ☆

 

☆ मापदंड ☆

 

“मैंने पहले ही कहा था. तुम्हें नहीं मिलेगा.” रघुवीर ने कहा तो प्रेमचंद बोले, “मगर, तुम ने यह किस आधार पर कहा था ? मैं यह बात अभी तक समझा नहीं हूँ?”

“मैं उन को अच्छी तरह जानता और पहचानता हूँ.” ‘ रघुवीर ने कहा.

“वे मेरे अच्छे मित्र है. मैं उन्हें नही जानता और तुम अच्छी तरह पहचानते हो ?” प्रेमचंद ने स्पष्टीकरण दिया,  “मेरी पुस्तक की भूमिका उन्हीं ने लिखी थी. उस का प्रकाशन भी उन्हीं ने किया था. इसलिए उस पुस्तक को पुरस्कार मिलना लगभग तय था. आखिर पुरस्कार भी वे ही दे रहे हैं.”

“हूँ.”  रघुवीर ने लंबी सांस ली. फिर धीरे से कहा, ‘”तुम बहुत अच्छा लिखते हो, इसलिए वे तुम से जुड़े हैं. मगर, वे पूरे व्यावसायिक लेखक हैं. अपना अच्छाबुरा अच्छी तरह समझते हैं. इसलिए तुम्हारी पुस्तक को…..”

“इस से उन्हें क्या फायदा मिलेगा ?”  प्रेमचंद ने बात बीच में काट कर पूछा तो रघुवीर ने कहा, “मेरे भाई, यह नया जमाना है. यहां अधिकांश वही होता है जो तुम्हारी फितरत में नहीं है. यानी तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाता हूं.”

“मतलब !”  प्रेमचंद ने आंखें और हाथ ऊंचका कर पूछा तो रघुवीर ने कहा, “जिन का नाम पुरस्कार के लिए घोषित हुआ है उन्हों ने पहले इन को पुरस्कृत व सम्मानित किया था. इसलिए तुम्हारा…” कह कर रघुवीर ने भी आंखें मटका दी.

यह सुन कर प्रेमचंद ने रघुवीर के सामने हाथ जोड़ कर कह दिया,  “वाह ! महाप्रभु ! आप और वे धन्य है. उन्हें और आप को अपनी पूछपरख का पता तो हैं. हम अनाड़ी ही भले.”  कह कर वे चुपचाप एक नई रचना लिखने के लिए अपने कक्ष में चले गए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 22 – रंगोली की दिवाली ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर  एवं भावुक लघुकथा “रंगोली की दिवाली”

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 22 ☆

 

☆ रंगोली की दिवाली ☆

 

रामप्रताप अपने उसूलों के पक्के शिक्षक। सारा जीवन अनुशासन जाति धर्म को मानते हुए, अपने हिसाब से जीने वाले व्यक्ति थे। कड़क मिजाज के होने के, कारण उनकी धर्मपत्नी शांति देवी भी कभी मुंह खोल कर उनका विरोध नहीं कर सकती थी, चाहे वह सही हो या गलत अपने पतिदेव का ही साथ देती आई। शांति देवी जैसा नाम वैसा ही उनका स्वभाव बन चुका था।

रामप्रताप और शांति देवी के एक बेटा था। जिसका नाम सुधीर था। बड़ा होने पर वह पढ़ाई के सिलसिले में बाहर चला गया था। दीपावली की साफ सफाई चल रही थी। रामप्रताप की पुस्तकों की अलमारी साफ करते समय शांति देवी के हाथ एक पत्र लग गया। बहुत पुरानी चिट्ठी थी, उनके बेटे के हाथ की लिखी हुई, लिखा था: पिताजी मैंने एक गरीब अपने से छोटी जाति की कन्या जिसका नाम ‘रंगोली’ है, शादी करना चाहता हूँ। हम दोनों साथ में पढ़ते हैं, और शायद नौकरी भी साथ में ही करेंगे। आपका आशीर्वाद मिले तो मैं रंगोली को साथ लेकर घर आ जाऊं। यदि आपको पसंद हो तो मैं घर आऊंगा। अन्यथा मैं और रंगोली यहाँ पर कोर्ट मैरिज कर लेंगे। शांति देवी पत्र को पढ़ते-पढ़ते रोने लगी। क्या? हुआ जो अपनी पसंद से शादी कर लिया, खुश तो है क्यों नहीं, आने देते, माफ क्यों नहीं कर देते, अनेक सवाल उसके मन पर आने लगे। पत्र को हाथ में छुपा कर अपने पास रख ली, और सारा काम करने लगी।

दिन बीता दीपावली भी आई और त्यौहार भी खत्म हो गया। परन्तु, खुशियाँ जैसे रूठ गई थी। दोनों इस चीज को समझते थे। दो-चार दिन बाद एक दिन सुबह चाय पीते-पीते शांति हिम्मत कर अपने पति से बोली “आज मुझे बेटे बहू की बहुत याद आ रही है। माफ कर दीजिए ना उन्हें, घर बुला लीजिए” परन्तु रामप्रताप कुछ नहीं बोले। अपने आप गुमसुम घर से निकल गए। उनके मन में कुछ और बातें चल रही थी। जो वह शांति देवी को बताना नहीं चाह रहे थे। जाते-जाते कह गए मैं शाम को देर से आऊंगा। तुम खाना खाकर अपना काम कर लेना, मेरा इंतजार नहीं करना। दिन में खाना खाकर शांति देवी अपने कमरे में सोने चली गई।

संध्या समय अंधेरा हो आया था। सोचा चल कर दिया बत्ती लगा ले, और यह कब तक आएंगे, जाने कहाँ गए हैं? सोचते-सोचते अपने काम पर लग गई। भगवान के मंदिर में आरती का दिया लगा रही थी तभी, बाहर से अंग्रेजी बाजे की आवाज आई। लग रहा था जैसे दरवाजे पर ही बज रहा हो। जल्दी-जल्दी चल कर उसने दरवाजा खोला। सामने गेट पर बहुत बड़ी सुंदर सी रंगोली सजी हुई थी, और शहनाई और बाजे बज रहे थे। उसे कुछ समझ नहीं आया। रंगोली के बीचो-बीच थाली में दिए की रोशनी दीपक लिए उसकी बहू’ रंगोली ‘सोलह श्रृंगार कर खड़ी थी। साथ में बेटा भी था।

रामप्रताप ने कहा – “दीपावली नहीं मनाओगी!! रंगोली का स्वागत कर लक्ष्मी को अंदर ले आओ।“

आज भी शांति देवी मुँह से कुछ ना बोली।

बस मुस्कुराते हुए आँखों से आँसू बहाते पूजा की थाली लेकर अपने रंगोली का स्वागत कर उसे अंदर ले आई। दीपावली का त्यौहार फिर से आज रोशन हो गया। बहुत खुश हो अपने पति से बोली – “मैं आज तक आपको समझ ना पाई दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं और बधाई।” यह कहते हुए वह अपने पति के चरणों पर झुक गई।

शुभ दीपावली!

 

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हिन्दी साहित्य- दीपावली विशेष – लघुकथा – ☆ आगे क्या होगा ? ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सार्थक एवं सटीक  लघुकथा   “आगे क्या होगा ? ”.)

 

☆ लघुकथा – आगे क्या होगा ?

 

सुषमा ने बहू को अपने  लड़के के साथ हाथ में हाथ दिये बाहर जाते देखा तो वह बड़बड़ाई – ‘ बहु को देखो कैसे सलवार सूट में मटकती हुई जा रही है । आजकल तो सिर पर पल्ला लेने का रिवाज ही नहीं है । हमारे समय में तो सिर से जरा सा पल्ला खिसकने पर हमारी सास हमें काफी खरी खोटी सुना देती थी । ‘

सुरेश  ने अपनी पत्नी को बड़बड़ाते हुए सुना तो वह बोले – ” अरी भागवान , क्यों अपना खून जला रही हो । अब तुम्हारा जमाना नहीं रहा , जमाना बदल गया है और बदलते जमाने के साथ हमें भी बदलना होगा इसी में हमारी भलाई है । ”

रामेश्वरी नें कुछ सोचते हुए कहा – ” आज की बहुएं सलवार सूट और जींस टाप पहन रही हैं। जब ये 25 -30 वर्ष बाद सास बनेंगी , तब इनकी बहुएं क्या पहनेंगी ?

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 4 ☆ मसीहा कौन ? ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही प्रेरणास्पद एवं अनुकरणीय लघुकथा “मसीहा कौन ?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 4 ☆

 

☆ लघुकथा – मसीहा कौन ? ☆ 

 

“उतरती है कि नहीं ? नीचे उतर, तमाशा करवा रही है सबके सामने” ।

“मैं नहीं उतरूंगी’, वह सोलह – सत्रह वर्षीय नवविवाहिता रोती हुई बोली।

“घर चल तेरे को कोई कुछ नहीं बोलेगा” आवाज में नरमी लाकर बस की खिड़की के पास नीचे खड़ी औरत बोली। “बस चलनेवाली है जल्दी कर…… उतर……. उतर नीचे, सुन रही है कि नहीं?” उस औरत के आवाज में फिर से तेजी आने लगी थी।

“चलने दे बस को, मैं नहीं उतरूंगी, वह लड़की दृढ़ता से बोली। इतना कहकर उसने बस की खिड़की का शीशा तेजी से बंद कर दिया।” नीचे खड़ी औरत ने फोन मिलाया और थोड़ी देर में ही एक पुरुष वहाँ आ गया।

औरत बोली – “ये तो बस से नीचे उतर ही नहीं रही। सरेआम फजीहत करवा रही है।”

“उतरेगी कैसे नहीं हरामखोर। इसका तो बाप भी उतरेगा।” उस आदमी ने खिड़की का शीशा जोर से भड़भड़ाकर अपनी भाषा में उसे धमकाना शुरू किया।

“बाप शब्द सुनते ही लड़की ने खिड़की खोलकर काँपते स्वर में कहा – बाप को बीच में क्यों लाते हो ? कुछ भी कर लो मैं वापस नहीं चलूंगी।”

इतना सुनते ही वह आदमी भड़क गया – “साली, तेरा यार बैठा है वहाँ जो खसम को छोड़कर जा रही है। उतर जा, नहीं तो हड्डी – पसली एक कर दूँगा।” लड़की बस से उतरने को कतई तैयार नहीं थी। बस के चलने का समय हो रहा था। नीचे खड़ा आदमी तनाव में था। ऐसा लग रहा था कि वह उस लड़की को हाथ से निकलने देना ही नहीं चाहता था। साथ खड़ी औरत से चिल्लाकर बोला – “जा बस में से इसका सामान उतार ला, फिर देखें कैसे जाती है।” औरत तेजी से बस में चढ़कर सामान उतारने लगी। उसने लड़की का भी हाथ पकड़कर खींचना चाहा। लड़की की ढीठता और अन्य यात्रियों को देखकर वह जबर्दस्ती ना कर सभी और सामान लेकर तेजी से बस से उतर गई। लड़की सीट पर लगी रॉड को कसकर पकड़े थी। मानो वही उसका सहारा हो। वह रोती रही पर अपनी जगह से टस से मस न हुई।

कंडक्टर आ गया। और उसने बस चलने का संकेत देने के लिए घंटी बजाना शुरू कर दिया। उस आदमी का पारा चढ़ गया। बंदूक की गोलियों सी दनादन गलियाँ उसके मुँह से निकलने लगी – “साली, आना मत लौटकर इस घर में। वापस आई तो टुकडे – टुकडे कर दूंगा। धंधा करने जा रही हैं हरामजादी।”

बस खचाखच भरी थी। हिलने – डुलने की गुंजाईश भी नहीं थी। कंडक्टर ने अंतिम बार घंटी बजाई और बस चल पड़ी। बस चलते ही यात्रियों ने चैन की साँस ली। हर किसी को ऐसा लग रहा था कि अगर आज ये लड़की डरकर या दबाव में आकर चली गई तो इसकी खैर नहीं। शायद लड़की भी यह जानती थी। बस के चलते ही उसके पपडाए होठों पर राहत नजर आई। वह आँखें बंदकर सिर सीर से टिका कर बैठ गई। चेहरे पर चोट के निशान साफ दिख रहे थे। उसकी आँखे बंद थीं पर चेहरा सब कुछ बयां कर रहा था। भयानक तूफान को झेलकर वह निकली थी।

खे बंदकर वह आगे आनेवाले तूफान से लड़नेकी ताकत अपने भीतर जुटा रही थी। लड़ाई उसने जीत ली थी, ना मालूम कितनी लड़ाईयाँ जीवन में उसे अभी लड़नी बाकी हैं ? सच है स्त्री अपनी मसीहा स्वयं ही है।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – आदत ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – लघुकथा – आदत 

….. पापा जी, ये चार-चार बार चाय पीना सेहत के लिए ठीक नहीं है। पता नहीं मम्मी ने कैसे आपकी यह आदत चलने दी? कल से एक बार सुबह और एक बार शाम को चाय मिलेगी। ठीक है!

…. हाँ बेटा ठीक है…., ढीले स्वर में कहकर मनोहर जी बेडटेबल पर फ्रेम में सजी गायत्री को निहारने लगे।  गायत्री को भी उनका यों चार-पाँच बार चाय पीना कभी अच्छा नहीं लगता था। जब कभी उन्हें चाय की तलब उठती, उनके हाव-भाव और चेहरे से गायत्री समझ जाती।  टोकती,…. इतनी चाय मत पीया करो। मैं नहीं रहूँगी तो बहुत मुश्किल होगी।  आज पी लो लेकिन कल से नहीं बनेगी दो से ज्यादा बार चाय।

पैतालीस साल के साथ में कल कभी नहीं आया पर गायत्री को गए पैंतालीस दिन भी नहीं हुये थे कि ….! …. तुम सच कहती थी गायत्री, देखो जो तुम नहीं कर सकी, तुम्हारी बहू ने कर दिखाया…., कहते-कहते मनोहर जी का गला भर आया।  जाने क्यों उन्हें हाथ में थामी फ्रेम भी भीगी-भीगी से लगी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆ मजबूरी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “मजबूरी”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆

 

☆ मजबूरी ☆

 

सिपाही के हाथ् देते ही गौरव की चिंता बढ़ गई. जेब में ज्यादा रूपए नहीं थे, “क्या हुआ साहब?” उस ने सिपाही को साहब कह दिया. ताकि वह खुश हो कर उसे छोड़ दे.

“गाड़ी के कांच पर काली पट्टी क्यों नहीं है?” सिपाही बोला,  “चलिए! साहब के पास” उस ने दूर खड़ी साहब की गाड़ी की ओर इशारा किया.

“साहब जी! अब लगवा लूंगा.”

“लाओ 3500 रूपए. चालान बनेगा.” सिपाही ने कहा.

“साहब! मेरे पास इतने रूपए नहीं है” गौरव बड़ी दीनता से बोला .

“अच्छा!” वह नरम पड़ गया, “2500 रूपए और गाड़ी के कागज तो होंगे?”

गौरव खुश हुआ, “हाँ साहब कागज तो है, मगर रूपए नहीं है” कहते हुए उस ने सभी कागज सिपाही को दे दिए.

सिपाही ने कागजात देख कर कहा “अरे ! ड्राइवरी लाइसेंस तो एक्सपायर हो गया.”

“जी साहब! नवीनीकरण के लिए दे रखा है.” कहते हुए गौरव ने अपना दूसरा लाइसेंस सिपाही को पकड़ा दिया. उसे देख सिपाही मुस्करा दिया.

“जेब में कितने रूपए है?”

गौरव ने जेब में हाथ डाला, “साहबजी ! 200 रूपए है.”

सिपाही ने रूपए ले कर चालान काट दिया. फिर बोला, “क्या करें साहब,  हमारी भी मजबूरी है. हमें एक निश्चित राशि एकत्र करने का लक्ष्य दिया जाता है, उसे एकत्र करना होता है. इसलिए” कहते हुए सिपाही मुस्करा दिया.

गौरव ने चालान देखा, “अरे ! यह तो मोटरसाइकल का चालान है” कह कर वह मुस्कराया. फिर चुपाचप चल​ दिया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ सब्जी मेकर ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर लघुकथा   “सब्जी मेकर ”.)

 

☆ लघुकथा – सब्जी मेकर ☆ 

इस दीपावली वह पहली बार अकेली खाना बना रही थी। सब्ज़ी बिगड़ जाने के डर से मध्यम आंच पर कड़ाही में रखे तेल की गर्माहट के साथ उसके हृदय की गति भी बढ रही थी। उसी समय मिक्सर-ग्राइंडर जैसी आवाज़ निकालते हुए मिनी स्कूटर पर सवार उसके छोटे भाई ने रसोई में आकर उसकी तंद्रा भंग की। वह उसे देखकर नाक-मुंह सिकोड़कर चिल्लाया, “ममा… दीदी बना रही है… मैं नहीं खाऊंगा आज खाना!”

सुनते ही वह खीज गयी और तीखे स्वर में बोली, “चुप कर पोल्यूशन मेकर, शाम को पूरे घर में पटाखों का धुँआ करेगा…”

उसकी बात पूरी सुनने से पहले ही भाई स्कूटर दौड़ाता रसोई से बाहर चला गया और बाहर बैठी माँ का स्वर अंदर आया, “दीदी को परेशान मत कर, पापा आने वाले हैं, आते ही उन्हें खाना खिलाना है।”

लेकिन तब तक वही हो गया था जिसका उसे डर था, ध्यान बंटने से सब्ज़ी थोड़ी जल गयी थी। घबराहट के मारे उसके हाथ में पकड़ा हुई मिर्ची का डिब्बा भी सब्ज़ी में गिर गया। वह और घबरा गयी, उसकी आँखों से आँसूं बहते हुए एक के ऊपर एक अतिक्रमण करने लगे और वह सिर पर हाथ रखकर बैठ गयी।

उसी मुद्रा में कुछ देर बैठे रहने के बाद उसने देखा कि  खिड़की के बाहर खड़ा उसका भाई उसे देखकर मुंह बना रहा था। वह उठी और खिड़की बंद करने लगी, लेकिन उसके भाई ने एक पैकेट उसके सामने कर दिया। उसने चौंक कर पूछा, “क्या है?”

भाई धीरे से बोला, “पनीर की सब्ज़ी है, सामने के होटल से लाया हूँ।”

उसने हैरानी से पूछा, “क्यूँ लाया? रूपये कहाँ से आये?”

भाई ने उत्तर दिया, “क्रैकर्स के रुपयों से… थोड़ा पोल्यूशन कम करूंगा… और क्यूँ लाया!”

अंतिम तीन शब्दों पर जोर देते हुए वह हँसने लगा।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 21 – दीपावली उपहार ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “दीपावली उपहार”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  स्वस्थ मित्र संबंधों का सन्देश दिया है।) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 21 ☆

 

☆ दीपावली उपहार ☆

 

विजय और शंकर दोनों बचपन के परम मित्र। कक्षा 1 में जब से एडमिशन लिया था तभी से दोनों की दोस्ती शुरू हो गई। साथ-साथ पढ़ना-लिखना खेलना-कूदना यहां तक कि टिफिन में क्या है दोनों मिलकर खाते थे। बच्चों की दोस्ती की घर में बात होती थी। स्कूल में पैरंट्स मीटिंग के दौरान माता-पिता से बातचीत होते-होते घर परिवार सभी एक दूसरे को अच्छी तरह जानने लगे थे। कभी अनबन भी हो जाती दोनों में परंतु, एक दिन से ज्यादा नहीं चल पाता था। क्योंकि विजय और शंकर दोनों का एक दूसरे के बिना साथ अधूरा लगता था।

धीरे-धीरे बच्चों की पढ़ाई बढ़ती गई और उनकी समझदारी भी बढ़ने लगी। साथ ही साथ मित्रता भी बहुत ही प्रगाढ़ हो गई। उनके साथ उनके और भी दोस्त जुड़ गए थे। जिनका आना जाना सभी के घर बराबर से होता रहता था। कभी किसी के यहां बैठ दिन भर मस्ती और पढ़ाई तो कभी किसी दूसरे दोस्त के घर मस्ती। परंतु विजय और शंकर एक दूसरे के घर जाना ज्यादा पसंद करते थे।

हाई स्कूल पढ़ाई सब्जेक्ट चॉइस के बाद दोनों की दिशा पढ़ाई एवं लक्ष्य अलग-अलग हो चुका था परंतु दोस्ती बेमिसाल रही। विजय ने अपने लिए विज्ञान विषय लेकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया वही शंकर ने अपने लिए इंजीनियरिंग का कोर्स पसंद किया। दूर-दूर रहने के बाद भी फोन पर हर बात और यहां तक कि दिवाली पर क्या शर्ट लेना है तक की बातें होती थी। दोनों बच्चों की सादगी और दोस्ती पर घर परिवार भी गर्व करता था।

ऐसे ही एक साल दिवाली का समय था। धनतेरस के दिन शंकर के पिता जी ने उसके लिए एक अच्छी सी गाड़ी ले कर दिया। शोरूम से गाड़ी घर आ गई। पिताजी ने कहा तुम अपनी नई गाड़ी चलाकर मंदिर ले जाओ और मिठाई प्रसाद चढ़ा देना भगवान को। यह कहकर पिताजी अपनी ड्यूटी पर निकल गए।

दिवाली का दिन शुभ होता है। शाम को गाड़ी ज्यों की त्यों खड़ी मिली। पूछने पर पता चला कि कल लेकर जाऊंगा। पिताजी ने भी हामी भरकर डांटते हुए कहा कोई काम समय पर नहीं करते हो। आज अच्छा दिन था। परंतु शंकर तो कुछ और ही सोच कर बैठा था। रात को माँ पिता जी से कहा कि सुबह जल्दी उठा देना मेरा दोस्त आ रहा है विजय। उसको लेने स्टेशन जाना है। सुबह जल्दी उठ अपनी नई गाड़ी निकाल शंकर स्टेशन अपने दोस्त को लेने पहुंच गया। पिताजी उठे नहा धोकर तैयार हो सोचा कि आज दिवाली है। मैं ही गाड़ी से मंदिर होकर आ जाता हूं। नई गाड़ी है शुभ काम होना चाहिए। परंतु देखा की गाड़ी की चाबी नहीं है। घर में पूछने पर पता चला कि शंकर लेकर गया है।

शंकर की नई गाड़ी देख विजय बहुत खुश हुआ। ट्रेन से उतरने पर और गाड़ी चलाकर सामान के साथ दोनों दोस्त घूम कर आ गए। विजय को उसके घर छोड़ते हुए शंकर अपने घर आया। माँ पिताजी ने कहा नई  गाड़ी लेकर स्टेशन क्यों चला गया था। शंकर बहुत खुश होकर बोला आप ही कहते हैं कोई भी चीज के शुभ दिन और शुभ समय होना चाहिए। मेरी गाड़ी में मेरा दोस्त पहले बैठ चला कर आया है। मेरे लिए तो ये बहुत ही शुभ है। मेरा दोस्त पहले मेरी गाड़ी में बैठा है मेरे लिए ये मंदिर जाने से भी बढ़कर है।

माँ पिताजी भी उसकी खुशी देख बहुत खुश हुए और दोनों की दोस्ती की सलामती के लिए ईश्वर से बार-बार प्राथना करने लगे। विजय और शंकर के लिए *शुभ दीपावली* हो गया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

गतवर्ष दीपावली के समय लिखे तीन संस्मरण आज से एक लघु शृंखला के रूप में साझा कर रहा हूँ। आशा है कि ये संस्मरण हम सबकी भावनाओं के  प्रतिनिधि सिद्ध होंगे।  – संजय भरद्वाज 

☆ संजय दृष्टि  – दीपावली विशेष – दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप

☆ पहला दीप ☆
दीपावली की शाम.., बाज़ार से लक्ष्मीपूजन के भोग के लिए मिठाई लेकर लौट रहा हूँ। अत्यधिक भीड़ होने के कारण सड़क पर जगह-जगह बैरिकेड लगे हैं। मन में प्रश्न उठता है कि बैरिकेड भीड़ रोकते हैं या भीड़ बढ़ाते हैं?
प्रश्न को निरुत्तर छोड़ भीड़ से बचने के लिए गलियों का रास्ता लेता हूँ। गलियों को पहचान देने वाले मोहल्ले अब अट्टालिकाओं में बदल चुके। तीन-चार गलियाँ अब एक चौड़ी-सी गली में खुल रही हैं। इस चौड़ी गली के तीन ओर शॉपिंग कॉम्पलेक्स के पिछवाड़े हैं। एक बेकरी है, गणेश मंदिर है, अंदर की ओर खुली कुछ दुकानें हैं और दो बिल्डिंगों के बीच टीन की छप्पर वाले छोटे-छोटे 18-20 मकान। इन पुराने मकानों को लोग-बाग ‘बैठा घर’ भी कहते हैं।
इन बैठे घरों के दरवाज़े एक-दूसरे की कुशल क्षेम पूछते आमने-सामने खड़े हैं। बीच की दूरी केवल इतनी कि आगे के मकानों में रहने वाले इनके बीच से जा सकें। गली के इन मकानों के बीच की गली स्वच्छता से जगमगा रही है। तंग होने के बावजूद हर दरवाज़े के आगे रंगोली, रंग बिखेर रही है।
रंगों की छटा देखने में मग्न हूँ कि सात-आठ साल का एक लड़का दिखा। एक थाली में कुछ सामान लिए, उसे लाल कपड़े से ढके। थाली में संभवतः दीपावली पर घर में बने गुझिया या करंजी, चकली, बेसन-सूजी के लड्डू हों….! मन संसार का सबसे तेज़ भागने वाला यान है। उल्टा दौड़ा और क्षणांश में 45-48 साल पीछे पहुँच गया।
सेना की कॉलोनी में हवादार बड़े मकान। आगे-पीछे  खुली जगह। हर घर सामान्यतः आगे बगीचा लगाता, पीछे सब्जियाँ उगाता। स्वतंत्र अस्तित्व के साथ हर घर का साझा अस्तित्व भी। हिंदीभाषी परिवार का दाहिना पड़ोसी उड़िया, बायाँ मलयाली, सामने पहाड़ी, पीछे हरियाणवी और नैऋत्य में मराठी।  हर चार घर बाद बहुतायत से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते पंजाबी। सबसे ख़ूबसूरत पहलू यह कि राज्य या भाषा कोई भी हो, सबको एकसाथ जोड़ती, पिरोती, एक सूत्र में बांधती हिंदी।
कॉलोनी की स्त्रियाँ शाम को एक साथ बैठतीं। खूब बातें होतीं। अपने-अपने  के प्रांत के व्यंजन बताती और आपस में सीखतीं। सारे काम समूह में होते। दीपावली पर तो बहुत पहले से करंजी बनाने की समय सारणी बन जाती। सारणी के अनुसार निश्चित दिन उस महिला के घर उसकी सब परिचित पहुँचती। सैकड़ों की संख्या में करंजी बनतीं। माँ तो 700 से अधिक करंजी बनाती। हम भाई भी मदद करते। बाद में बड़ा होने पर बहनों ने मोर्चा संभाल लिया।
दीपावली के दिन तरह-तरह के पकवानों से भर कर थाल सजाये जाते। फिर लाल या गहरे कपड़े से ढककर मोहल्ले के घरों में पहुँचाने का काम हम बच्चे करते। अन्य घरों से ऐसे ही थाल हमारे यहाँ भी आते।
पैसे के मामले में सबका हाथ तंग था पर मन का आकार, मापने की सीमा के परे था। डाकिया, ग्वाला, महरी, जमादारिन, अखबार डालने वाला, भाजी वाली, यहाँ तक कि जिससे कभी-कभार खरीदारी होती उस पाव-ब्रेडवाला, झाड़ू बेचने वाली, पुराने कपड़ों के बदले बरतन देनेवाली और बरतनों पर कलई करने वाला, हरेक को दीपावली की मिठाई दी जाती।
अब कलई उतरने का दौर है। लाल रंग परम्परा में सुहाग का माना जाता है। हमारी सुहागिन परम्पराएँ तार-तार हो गई हैं। विसंगति यह कि अब पैसा अपार है पर मन की लघुता के आगे आदमी लाचार है।
पीछे से किसी गाड़ी का हॉर्न तंद्रा तोड़ता है, वर्तमान में लौटता हूँ। बच्चा आँखों से ओझल हो चुका। जो ओझल हो जाये, वही तो अतीत कहलाता है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

11.49 बजे,  9.11.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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