हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ मानव ☆ श्री सदानंद आंबेकर 

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(महात्मा गांधी जी के  150वें  जन्म दिवस पर श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित विशेष लघुकथा ‘मानव’श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास।) 

 

लघुकथा – मानव

 

शहर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं वरिष्ठ नागरिक श्री नाना देशपाण्डे साग भाजी लेकर बाजार से लौट रहे थे कि दंगों के लिये कुख्यात क्षेत्र महात्मा गांधी मार्ग पर अचानक किसी बात पर दो धर्मों के लोग आपस में भिड़ गए। मारकाट एवं लूट आरंभ हो गई।

नाना ने तत्काल एक गली में प्रवेश किया व तेजी से घर जाने लगे। थोड़ी दूर गए थे कि सामने से हथियारबंद भीड़ आ गई। नाना को घेरा तो वे चिल्लाते हुए भागे कि अरे मैं तो हिंदू हूँ, मुझे जाने दो। लेकिन फिर भी भागते भागते दो चार लाठियाँ पड़ ही गईं ओर वे किसी तरह बचकर दूसरी गली से भाग निकले।

गली पार भी न हो पाई थी कि दूसरे दल के लोग तलवारें लेकर दीवानों की तरह उनकी ओर लपके। नाना फिर उलटे पैर भागे और चिल्लाए कि “अरे-अरे मैं मुसलमान हूँ, शेख सलीम नाम है मेरा..” पर वहां भी उनको भीड़ ने दौड़ा ही दिया। आगे आगे नाना और पीछे पीछे वहशी भीड़, और अचानक सामने से वही पहले वाला दल भी आ गया। अब तो नाना बेचारे दो पाटों के बीच आ गए। पीछे वाला दल चिल्लाया – “कत्ल कर दो इसका काफिर बचके नहीं जा पाए ”।  सामने वाले दल ने नारा लगाया- ” खत्म कर दो विधर्मी को और पुण्य कमाओ ”।

नाना अब गला फाड़ कर चिल्लाये – “अरे दानवों, मैं एक भारतीय हूँ, और मेरे ही देश में मुझे मत मारो”। लेकिन अंधी बहरी भीड़ में से किसी ने एक लठ्ठ मारा और दूसरे ने उनके पेट में तलवार भोंक दी। नाना बेचारे चकरा कर गिर पडे़ और अंतिम सांसे गिनने लगे।

उधर दोनों दलों में अपने अपने धर्म को बचाने के लिए आमने-सामने का खूनी खेल आरंभ हो गया और इधर बूढ़े नाना, मरते मरते अस्पष्ट शब्दों में कह रहे थे- “अरे दुष्टों मुझे क्यों मारा, मैं एक  मानव हूँ ”।

 

©  सदानंद आंबेकर

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2 ☆ दृष्टि ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज  महात्मा गाँधी जी की 150 वीं जयंती पर  प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “दृष्टि ”। )

लघुकथादृष्टि

 

महात्मा गाँधी जी की मूर्ति के हाथ की लाठी टूटते ही मुँह पर अँगुली रखे हुए पहले बंदर ने अँगुली हटा कर दूसरे बंदर से कहा, “अरे भाई ! सुन. अपने कान से अँगुली हटा दे.”

उस का इशारा समझ कर दूसरे बंदर ने कान से अँगुली हटा कर कहा, “भाई मैं बुरा नहीं सुनना चाहता हूं. यह बात ध्यान रखना.”

“अरे भाई! जमाने के साथ साथ नियम भी बदल रहे हैं.” पहले बंदर ने दूसरे बंदर से कहा, “अभी-अभी मैंने डॉक्टर को कहते हुए सुना है. वह एक भाई को शाबाशी देते हुए कह रहा था आप ने यह बहुत बढ़िया काम किया. अपनी जलती हुई पड़ोसन के शरीर पर कंबल न डाल कर पानी डाल दिया. इस से वह ज्यादा जलने से बच गई. शाबाश!”

यह सुन कर तीसरे बंदर ने भी आँख खोल दी, “तब तो हमें भी बदल जाना चाहिए.” उस ने कहा तो पहला बंदर ने महात्मा गाँधी जी की लाठी देखते हुए कहा,  “भाई ठीक कहते हो. अब तो महात्मा गाँधी जी की लाठी भी टूट गई है. अन्नाजी का अनशन भी काम नहीं कर रहा है. अब तो हमें भी कुछ सोचना चाहिए.”

“तो क्या करें?” दूसरा बंदर बोला.

“चलो! आज से हम तीनों अपने नियम बदल लेते हैं.”

“क्या?” तीसरे बंदर ने चौंक कर गाँधी जी की मूर्ति की ओर देखा. वह उन की बातें ध्यान से सुन रही थी.

“आज से हम— अच्छा सुनो, अच्छा देखो और अच्छा बोलो, का सिद्धांत अपना लेते हैं.” पहले बंदर ने कहा तो गाँधी जी की मूर्ति के हाथ अपने मुँह पर चला गया और आँखें आश्चर्य से फैल गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य लघुकथा – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ महात्मा गाँधी की जय ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री घनश्याम अग्रवाल

 

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी का ी-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक पुरानी लघुकथा. उनके ही शब्दों में – आज महात्मा गाँधी का जन्मदिन है। बिना लागलपेट, सियासत से दूर, केवल दिलों में समाते हुए पता ही नहीं चला वो कब राष्टपिता बन गये। मगर आज? पढिए एक व्यंग्य लघुकथा। पुरानी है, फिर भी आज ज्यादा सार्थक है.)

 

व्यंग्य लघुकथा – महात्मा गांधी की जय ☆

 

‘जुरासिक पार्क इतनी अद्भुत फिल्म बनी कि उसका एक विशेष शो संसद में रखा गया। पहली  बार पक्ष और विपक्ष ने बिना किसी शोरशराबे के पूरी फिल्म  देखी। फिल्म समाप्त होने पर दोनों ने न केवल एक साथ  तालियाँ बजाई, एक साथ  चाय भी पी और फिर वे दोनों एक साथ सोचने भी लगे। सोचते-सोचते उन्हें खयाल आया कि जब करोड़ों साल पुराना डायनासोर फिर से पैदा हो सकता है तो सौ-दो सौ साल पुराने नेता क्यों नहीं पैदा हो सकते? हालांकि यह एक फिल्म है और  इसमें कल्पना का सहारा लिया गया है, पर विज्ञान का सारा आधार भी तो कल्पना है। सारी  पार्टियाँ अपने-अपने नेताओं को पुनः पैदा करना चाहती थी। काफी बहस के बाद महात्मा गांधी के नाम पर सहमति हुई।

महात्मा गांधी खुले बदन रहते थे सो मच्छरों के  काटने की संभावना ज्यादा थी। समझौते के अनुसार पक्ष और विपक्ष दोनों गांधी का आधा-आधा बराबर उपयोग करेंगे। वैज्ञानिकों का एक दल पोरबंदर से लेकर वर्धा तक जाएगा और गांधी को काटे मच्छरों की तलाश करेगा। फिर उससे डायनासोर की तरह पुनः गांधी को पैदा  करेंगे। गांधी आयेगा तो देश में रामराज्य आएगा ।

इस खुशी में दोनों ने दुबारा जुरासिक पार्क फिल्म  देखी, पर इस बार दोनों के पसीने छूट गए।

दोनों सोचने लगे कि सच में गांधी पैदा हो गया, तो वह कहीं  डायनासोर की तरह खतरनाक न हो जाए। गांधी का क्या भरोसा ? पैदा होने पर कहे-“सारी पार्टियाँ बंद करो। कुर्सी का मोह छोड़ो। सच बोलो। ईमानदार बनो। ” गुलाम देश के  लिए गांधी ठीक है, पर आज़ाद देश में जिन्दा गांधी हमारे लिए वही  तबाही लाएगा, जो जुरासिक पार्क के अंत में डायनासोर लाता है। रामराज्य के  चक्कर में हम सब राजनैतिक लोग  कुर्सीहरण होते ही रावण की मौत मारे जायेंगे। अतः फिर से गांधी पैदा नहीं होना चाहिए। दोनों ने हाथ मिलाकर तय किया कि समझोते के कागज फाड़े जाएँ, न केवल फाड़े जाएँ, बल्कि अभी की अभी जला दिए जाएँ ।

जब समझौते के कागज जलाए जा रहे थे तो एक दूरदर्शी पत्रकार ने ताना मारते हुए कहा-“तुम गांधी से कब तक बचोगे ? गांधी विदेशों में भी गए थे। वहाँ भी मच्छर तो होते ही हैं। कहीं विदेशों ने गांधी पैदा कर भारत भेज दिया तो….,तब तुम्हारा क्या  होगा गांधीभक्तों ? कुर्सी प्रेमियों  ? ”

एक पल को पक्ष और विपक्ष दोनों चौकें, एक पल सोचा, फिर उसे डाँटते हुए बोले- “गांधी फिर से पैदा  हो गया, तो भी हमें डर नहीं।  अरे, प्रकृति के नियम सबके लिए  समान होते हैं। निपट लेंगे हम गांधी से। यह मत भूलो कि मच्छर सिर्फ गांधी को ही नहीं, गौडसे को भी तो काटे होंगे। ”

” बोलो महात्मा गांधी की जय ”

 

घनश्याम अग्रवाल ( हास्य-व्यंग्य कवि )

094228 60199

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 17 – नाम की महिमा ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “लघु कथा -संस्मरण -नाम की महिमा”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  एक सन्देश दिया है कि कैसे धार्मिक स्थल पर तीर्थयात्रियों को श्रद्धा एवं अज्ञात भय से परेशान किया जाता है किन्तु, उनसे सुलझाने के लिए त्वरित कदम उठाना आवश्यक है।  ) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 17 ☆

 

☆ लघु कथा – संस्मरण – नाम की महिमा ☆

 

हमारे यहाँ हिंदू धर्म में आस्था का बहुत ही बड़ा महत्व है। इसका सबूत है कि यहां पेड़- पौधे, फूल-पत्तों, नदी-पर्वत, कोई गांव, कोई विशेष स्थान अपना अलग ही महत्व लिए हुए हैं। चारों धाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग और ना जाने कितने धर्म स्थल अपने विशेष कारणों से प्रसिद्ध हुए हैं। जहाँ पर ना जाने हमारे 33 करोड़ देवी देवताओं का निवास (पूजन स्थल) माना गया है। ऐसी ही एक सच्ची घटना का उल्लेख कर रही हूँ।

बात उन दिनों की है जब हम सपरिवार श्री जगन्नाथ जी का दर्शन करने पुरी उड़ीसा गए हुए थे। वहाँ पर उस समय स्पेशल दर्शन और सामान्य दर्शन का बोलबाला था। कहते हैं जहां आस्था है वहां विश्वास जुड़ा हुआ है। हम भी भक्ति से पूर्ण आस्था लिए श्री जगन्नाथ जी के  दर्शन किए। पुजारी जी ने बताया कि श्री जगन्नाथ जी के दर्शन के बाद यहाँ पर साक्षी गोपाल जाना पड़ता है। तभी यहां की यात्रा पूर्ण मानी जाती है। “मैं” यहीं तक हूं वहां पर आपको दूसरे पुजारी जी दर्शन करवाएंगे। यात्रा को पूरा करने हम भी वहां पहुंच गए। वहां पर पंडित तिलक धारियों का मजमा लगा हुआ था। सभी अपनी तरफ आने और दर्शन करा देने की बात कर रहे थे।

बात होने के बाद दर्शन के लिए जाने लगे तब पंडित जी ने अलग से दक्षिणा की बात की। लड़ाई करने लगा, बात बहुत बढ़ गई। गुस्से से हम भी परेशान और व्याकुल हो गए। दर्शन के बाद पंडित जी कहने लगे आपकी यात्रा अधूरी मानी गई, क्योंकि आपने अभी गोपाल को चढ़ावा नहीं किया, क्या सबूत होगा की आप यहां आए थे। और बहुत सारी बातों को लेकर कोसने लगा।

बात बहुत बढ़ जाने के बाद आगे आकर मैं कुछ शांत होने को कहकर समझाने की कोशिश करने लगी। पंडित जी से बोली की बताएं आपके साक्षी गोपाल भगवान कैसे सिद्ध करेंगे कि हम यहां आए थे। इस पर वह और क्रोधित हो गए। कहने लगे भगवान पर उंगली उठाते हो यह आपके कर्म के साथ ही जाएंगे और लेखा-जोखा होगा। उस समय मेरी बिटिया भी मेरे साथ थी, जिसका नाम ‘साक्षी’ है।

मैंने कहा पंडित जी से यह मेरी साक्षी है, मेरे जीते जी और मेरे मरने के बाद भी जब कभी भी बात होगी, जगन्नाथ जी और साक्षी गोपाल की, तब-तब ये कहेगी कि मम्मी-पापा के साथ मैं यहां आई थी। और यह ही मेरी साक्षी है। मुझे आपके साक्ष्य की जरूरत नहीं कि हम यहां आए हैं। पुजारी जी का गुस्सा जो आसमान पर था, लाल चेहरा एकदम शांत हो गया। हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। कहने लगा मैंने पैसों के लालच में एक सच्चे भक्तों को दर्शन के लिए परेशान किया। मुझे क्षमा करें। आज भी उस घटना कोई याद करके कहना पड़ता है कि नाम की महत्ता भी बहुत होती है। इसीलिए घर में नए शिशु के जन्म के बाद नामकरण के समय परिवार के सभी बड़े बुजुर्गों का मान रखते हुए नाम को भी सोच समझ कर रखना चाहिए, अच्छा होगा।

अपने संस्कारों को ध्यान में रखकर नामकरण होना चाहिए।

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 17 – लघुकथा – दयालु लोग ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं जो कथानकों को सजीव बना देता है. अक्सर  समय एवं परिवेश बच्चों की विचारधारा को भी परिपक्व बना देता है. आज प्रस्तुत है  उनकी एक ऐसी ही लघुकथा  “दयालु लोग” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 17 ☆

 

☆ लघुकथा – दयालु लोग ☆

मिसेज़ लाल के घर महीना भर पहले नयी बाई लगी है, झाड़ू-पोंछा, बर्तन के लिए। बाई अच्छी है लेकिन दुबली-पतली, बीमार सी है। इसलिए कभी खुद आती है, कभी अपनी बारह-चौदह साल की बेटी गिन्नी को भेज देती है।

मिसेज़ लाल काम के मामले में काफी सख्त हैं, हर काम को बारीकी से देखती हैं। बड़ी सफाई-पसन्द हैं। लेकिन काम खत्म होने के बाद बाइयों के प्रति उदार हो जाती हैं। चाय पिला देती हैं और घर-परिवार के बारे में फुरसत से गप भी लगा लेती हैं।

बाई के काम पर लगने के कुछ दिन बाद ही मिसेज़ लाल की आठ साल की बेटी का जन्मदिन आया। जन्मदिन का आयोजन हुआ। मिसेज़ लाल बाई से बोलीं, ‘शाम को गिन्नी को भेज देना। वो भी डॉली के बर्थडे में शामिल हो लेगी।’

शाम को जन्मदिन मनाया गया, सब बच्चे आये, लेकिन गिन्नी नहीं आयी। दूसरे दिन मिसेज़ लाल ने बाई से शिकायत की, ‘कल गिन्नी नहीं आयी?’

बाई संकोच में हँसकर बोली, ‘हाँ, नहीं आ पायी।’

लेकिन मिसेज़ लाल के मन में नाराज़ी थी कि उनकी उदारता के बावजूद गिन्नी नहीं आयी थी। बोलीं, ‘वजह क्या थी? क्यों नहीं आयी?’

बाई सिर झुकाकर बोली, ‘कुछ नहीं, पगली है।’

मिसेज़ लाल अड़ गयीं, बोलीं, ‘आखिर कुछ वजह तो होगी। क्या कहती थी?’

बाई ज़मीन पर नज़रें टिकाकर बोली, ‘अरे क्या बतायें! कहती थी कि वहाँ जाएंगे तो कुछ न कुछ काम करना पड़ेगा। इसीलिए नहीं आयी।’

मिसेज़ लाल, कमर पर हाथ धरे, बाई का मुँह देखती रह गयीं।

परिहार

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हिन्दी साहित्य- पितृ पक्ष विशेष – कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ पितर चले गये ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा 16 वर्ष पूर्व लिखी गई लघुकथा “पितर चले गये ” आज भी सामयिक लगती  है.)

 

☆ लघुकथा – पितर चले गये  

 

कौआ सुबह सुबह एक छत से दूसरी छत पर कांव कांव करता हुआ उड़ उड़ कर बैठ रहा था किंतु उसे आज कुछ भी खाने को नहीं मिल रहा था ।

कल ही पितृ मोक्ष अमावस्या के साथ पितृ पक्ष समाप्त हो गए । इन पन्द्रह दिनों में कौओं को भरपेट हलुआ पूड़ी एवम तरह तरह के पकवान खाने को मिले थे । इसी आस में आज भी कौआ इस छत से उस छत पर भटक रहा था ।

थक हार कर वह एक छत की मुंडेर पर बैठ गया । उसे महसूस हो गया था कि पितर चले गए हैं ।अतः वह पुनः कचरे के ढेर में अपना भोजन तलाशने उड़ गया ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी / लघुकथा ☆ इच्छामृत्यु – मोक्ष ☆ – श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी”

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी” 

 

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है. आज प्रस्तुत है  श्रीमती हेमलता मिश्रा ‘मानवी’ जी की एक मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “इच्छामृत्यु -मोक्ष”.)

 

☆  लघुकथा – इच्छामृत्यु – मोक्ष ☆

 

नहीं नहीं। अब और नहीं। यह असहनीय दर्द—डॉ मुझे मुक्ति दे दो। वैसे भी हर पल मर रहा हूँ, इस दर्द के साथ।

भीष्म पितामह ने भी तो इच्छामृत्यु का वरण किया था। नहीं चाहिए मुझे मोक्ष – – मौत चाहिए मौत।

वरदान के प्रलाप ने डॉ को भी हिला दिया। कैंसर के असहनीय दर्द से जूझता वरदान अकाल मृत्यु या आत्महत्या आदि के बारे में सदियों के संस्कारों की– मोक्ष की परिकल्पनाओं  की बलि देने के लिए सहज ही तैयार था— और उसके करुण क्रंदन ने डॉ को मजबूर कर दिया उसे मोक्ष देने के लिए– आज की पीड़ाओं से मोक्ष देने के लिए। इससे पहले कि वरदान के पुजारी पिता कोई आक्षेप उठाते वरदान को मोक्ष मिल गया। असहनीय दर्द  से मुक्ति पाने की इच्छा इतनी तीव्र थी कि कार्डियक अरेस्ट ने उसे अपने आगोश में ले लिया और भीष्म की तरह इच्छामृत्यु ‘मोक्ष’ मिल गया।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी – लघुकथा ☆ मंगलसूत्र ☆ – डॉ संगीता त्यागी

डॉ संगीता त्यागी 

 

(डॉ संगीता त्यागी जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है.  आपकी  रचनाएँ अनेक पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. इसके अतिरिक्त आपकी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं. हम भविष्य में डॉ संगीता जी के और चुनिंदा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं.)                   

 

☆ लघुकथा – मंगलसूत्र ☆

 

न जाने आज मानसी ने कैसे एक पल में मन में बसे उस संस्कार को कैसे भुला दिया जिसमें किसी भी औरत के लिए मंगलसूत्र ही सुहाग की अनमोल निशानी होती है, कल तक मानसी की भी यही सोच थी।

प्रथम मिलन पर उसके पति ने जो मंगलसूत्र उसे बड़े प्यार से पहनाया था, उसके लिए वो उसकी जान से भी ज्यादा कीमती था ।दोनों हँसी-खुशी जीवन जी रहे थे पर समय की मार के सामने किसकी चलती है। उसके पति को व्यापार में लाखों का नुकसान हो गया, उसकी भरपाई करते-करते लगभग सारी जमा-पूंजी और गहने खत्म हो गए। बड़ी मुश्किल से दोनों ने मिलकर दोबारा से नया काम शुरू किया। घर के दूसरे सदस्य जिनकी छोटी-बड़ी जरूरतें मानसी का पति ही पूरा करता था उन्होंने धीरे-धीरे बोलचाल तक बंद कर दी उनके ऐसे व्यवहार में मदद की उम्मीद तो करना बेकार था। मानसी ने देखा कि कुछ दिन से उसका पति चुप-चुप व खामोश सा रहता है। पति को परेशान देख मानसी भी चिन्तित हो गई और एक दिन पति से खामोशी का कारण पूछ ही लिया कि – क्या बात है आजकल बड़े चुप-चाप रहते हो? कोई परेशानी तो नही है? पति जैसे ही चुप-चाप बाहर जाने को हुआ मानसी ने हाथ पकड़कर अपने पास बैठा लिया और फिर अपना सवाल दोहराया। पति ने अभी तक भी कुछ नहीं बताया तो मानसी ने अपनी कसम दिलाकर फिर पूछा तो उसके पति ने अपनी सारी परेशानी बताई कि पिछले दिनों जो नुकसान हुआ है उससे अन्दर तक टूट चुका हूँ पर परेशानी हैं कि खत्म होने का नाम ही नही ले रहीं है। मानसी ने कहा- सही से बताओ क्या हुआ है? पति ने कहा -मानसी अभी जो हमने नया काम शुरू किया है उसे बढ़ाने के लिए कम से कम साठ-सत्तर हजार की जरूरत है पर इतने  सारे रूपयों का इन्तजाम कहाँ से करूँ। घर के खर्चों के बाद इतना बचता ही नहीं, फिर कहाँ से इन्तजाम करूँ, सुनते ही मानसी की चिंता भी बढ़ गई क्योंकि नुकसान की वजह से घर की सारी जमा-पूँजी और जेवर भी लगभग खत्म हो चुके थे। बड़ी मुश्किल से नया काम शुरू किया था और अभी कुछ इन्तजाम नहीं हुआ तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। पति की आँखों की बेबसी और परेशानी देखकर मानसी के मुँह से अचानक निकल पड़ा-क्यों चिंता करते हो आप? कुछ ना कुछ इन्तजाम हो जाएगा। मेरे मंगलसूत्र पर इतना लोन तो मिल ही जाएगा जिससे हमें इस मुसीबत से छुटकारा मिलेगा और हमारा काम फिर पहले जैसा हो जाएगा। अपने दर्द को छुपाती हुई मानसी पति की हिम्मत बढ़ाने के लिए  मुस्कराते  हुए कहती है कि- तुम भी छोटी-छोटी बात पर परेशान हो जाते हो। मानसी के पति ने कहा- नहीं मैं ऐसा नहीं करूँगा, पहले ही तुम्हारे सारे गहने खत्म हो चुके हैं और अब मंगलसूत्र भी !

मुस्कराते हुए मानसी ने कहा- तुम क्यों इतना सोचते हो? अरे  बाबा! तुम  ही मेरे मंगलसूत्र हो, तुम ही मेरे असली गहने हो, फिर मुझे दिखावे की क्या जरूरत. उठो अब बातें छोड़ो और जितनी जल्दी हो सके समस्या को खत्म करो। फिर मानसी अन्दर जाकर जल्दी से मंगलसूत्र लाकर पति के हाथों में रख देती है । पति भारी मन से बाहर जाता है और पैसों का इन्तजाम कर घर आता है। मानसी ने पति के आने से पहले ही घर का सारा काम खत्म करके पति के लिए खाने की  तैयारी कर ली थी और खुशी-खुशी पति को काम पर भेज देती है।

जैसे ही मानसी का पति घर से बाहर कदम रखता है मानसी अन्दर से दरवाजा बंद कर लेती है। अब तक जो पति की ताकत बनकर मुस्कुरा रही थी अचानक  पति के बाहर जाते ही फूट-फूटकर रोने लगी क्योंकि ना चाहते हुए भी मंगलसूत्र से जुडी यादें उसकी  आँसुओं से भरी आँखों में  अब तैरने लगी थीं……………

 

– डॉ संगीता त्यागी

सहायक प्राध्यापक, नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #17 ☆ कुंठा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “कुंठा ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #17 ☆

 

☆ कुंठा ☆

 

रात की एक बजे सांस्कृतिक कार्यक्रम का सफल का संचालन करा कर वापस लौट कर घर आए पति ने दरवाज़ा खटखटाना चाहा. तभी पत्नी की चेतावनी याद आ गई. “आप भरी ठण्ड में कार्यक्रम का संचालन करने जा रहे है. मगर १० बजे तक घर आ जाना. अन्यथा दरवाज़ा नहीं खोलूँगी तब ठण्ड में बाहर ठुठुरते रहना.”

“भाग्यवान नाराज़ क्यों होती हो?” पति ने कुछ कहना चाहा.

“२६ जनवरी के दिन भी सुबह के गए शाम ४ बजे आए थे. हर जगह आप का ही ठेका है. और दूसरा कोई संचालन नहीं कर सकता है?”

“तुम्हे तो खुश होना चाहिए”, पति की बात पूरी नहीं हुई थी कि पत्नी बोली, “सभी कामचोरों का ठेका आप ने ही ले रखा है.”

पति भी तुनक पडा, “तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हारा पति …”

“खाक खुश होना चाहिए. आप को पता नहीं है. मुझे बचपन में अवसर नहीं मिला, अन्यथा मैं आज सब सा प्रसिद्ध गायिका होती.”

यह पंक्ति याद आते ही पति ने अपने हाथ वापस खींच लिए. दरवाज़ा खटखटाऊं या नहीं. कहीं प्रसिध्द गायिका फिर गाना सुनाने न लग जाए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ कथा कहानी – लघुकथा ☆ पौध संवेदनहीनता की ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है. यह एक गौरव का विषय हैं कि उन्होंने परदादा – दादा से विरासत में मिली साहित्यिक अभिव्यक्ति को न सिर्फ संजोकर रखा है बल्कि वे निरंतर प्रयास कर उस दिव्य ज्योति को प्रज्वलित कर चहुँ ओर उसका प्रकाश बिखेर रही हैं.  उनके ही शब्दों में –

“अपने मन की बात  कहने के लिए कविता और लघुकथा मेरे माध्यम हैं. ‘मन के हारे हार है , मन के जीते जीत’ पर मेरा पूरा विश्वास है. इसी मन को साहित्य – सृजन द्वारा चैतन्य और सकारात्मक बनाए रखती हूं.”

उनकी लघुकथाएं  हमारे आस पास की घटनाओं और सामाजिक पात्रों को लेकर लिखी गईं हैं. साथ ही वे सहज ही हमें कोई  न  कोई सकारात्मक समाजिक एवं शिक्षाप्रद सन्देश दे जाती हैं.  आज प्रस्तुत हैं उनकी लघुकथा “पौध संवेदनहीनता की”.  हम भविष्य में उनके साहित्य को आपसे साझा कर सकेंगे ऐसे अपेक्षा के साथ.)

 

☆  पौध संवेदनहीनता की ☆ 

 

हर तरफ वृक्षारोपण किया जा रहा था | भारत सरकार के आदेश का पालन जो करना था | बड़ी तादाद में गड्ढ़े खोदे गए,  पौधे लगाए गए और बड़े अधिकारियों ने मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाई | अखबारों में ज़ोर- शोर से इसका खूब प्रचार हुआ,  इसके बाद उन पौधों का क्या होगा भगवान जाने ? सरकारी आदेश का पालन हो चुका था .

लेकिन उसे इन बातों से कोई मतलब ही नहीं था | उसके आदर्श तो उसके पिता थे | उसने देखा था कि वे जब भी कोई फल खाते उसका बीज सुखाकर रख लेते थे | तरह – तरह के फलों के ढेरों बीज उनके पास इक्ठ्ठे हो जाते | जब वे बस से एक जगह से दूसरी जगह जाते तब सड़क के किनारे की खाली जमीन और घाटों में बीज फेंकते जाते | उनका विश्वास था कि ये बीज जमीन पाकर फूलें – फलेंगे और पर्यावरण सुरक्षित रहेगा | बचपन में पिता के साथ बस में सफर करते समय उसने भी कई बार खिड़की से बीज उछालकर फेंके थे |

आज वह भी यही करता है | उसके बच्चे भी देखते हैं कि सफर में जाते समय पिता के पास तरह – तरह के बीजों की एक थैली जरूर होती है | यात्रा में रास्ते भर वह खिड़की से बीज फेंकता जाता है, अपने पिता की तरह मन में इस भाव को लिए कि ये बीज बेकार नहीं जाएंगे सब नहीं पर कुछ बीज तो वृक्षों में बदल ही जाएंगे |

आज का उसका सफर पूरा हुआ और वह पहुँचता है महानगर के एक फलैट में जहाँ उसकी माँ बरसों से अकेले रह रही है | पैसों की कमी नहीं है इसलिए सर्टिफाईड कंपनी की कामवाली बाई माँ की देखभाल के लिए रख दी है | जरूरत पड़ने पर नर्स को भी बुलवा लिया जाता है | बिस्तर पर पड़े – पड़े माँ को बेड सोर  हो गए  हैं |अकेलेपन ने उसकी आवाज छीन ली है | बीमारी और अकेलेपन के कारण वह ज़िद्दी और चिडचिडी भी होती जा रही है | बूढ़ी माँ की आंखें अपने आस पास कोई पहचाना चेहरा ढूंढती है | लेकिन कोई नहीं है | वैसे तो सब दूर हैं पर मोबाईल युग में सब कुछ मुठ्ठी में है | दूर से ही सब मैनेज हो जाता है | कामवाली बाई भी आज के जमाने की है स्काइप से माँ को बेटे–बहू के दर्शन भी करा देती है | माँ समझ ही नहीं पाती कि क्या हुआ ? अचानक कैसे बेटा दिखने लगा और फिर फोन में कहाँ गायब हो गया,  उसकी समझ से परे है ये मायाजाल.  वह बात खत्म होने के बाद भी बड़ी देर फोन हाथ में लिए उलट पुलटकर देखती रहती है, बेटा कैसा आया इसमें और कहाँ गया ? माँ चाहती है दो बेटे – बहुओं में से कोई तो रहे उसके पास, कोई तो आए, लेकिन कोई नहीं आता . कामवाली बाई और नर्स की व्यवस्था कर उन्होंने माँ के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली |

पिता को देख – देखकर नए पौधों को लगाने की बात तो वह सीख गया था लेकिन लगे लगाए पुराने पेड़ों को भी खाद पानी की जरूरत होती है इसे सिखाने में वे चूक गए थे | पर्यावरण संरक्षण की भावना तो पिता उसमें पैदा कर गए थे लेकिन परिवार में स्नेह और लगाव की बेल वे नहीं रोप सके थे |

अनजाने में ही सही पर वह भी अपने  बच्चों को संवेदनहीनता की यही पौध थमाता जा रहा था |

 

डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर, महाराष्ट्र – 414001

मोबाईल – 9370288414

e-mail – [email protected]

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