(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश जी के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी शिक्षाप्रद लघुकथा “जनरेशन गेप ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #5 ☆
☆ जनरेशन गेप ☆
पापाजी उसे समझा रहे थे ,” सीमा बेटी ! अब तुम्हारी सगाई हो गई है . अब इस तरह यार दोस्तों के साथ घूमने जाना, सिनेमा देखना, शापिंग करना ठीक नहीं है ?….” पापाजी उसे आगे कुछ समझते कि सीमा ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा , ” पापाजी ! आप भी ना , १७ वी सदी की बातें कर रहे है. हम नई पीढ़ी के लोग हैं. ऐसी पुरानी बातों में विश्वास नहीं करते हैं .”
अभी सीमा अपने पिताजी को जनरेशन गेप पर कुछ और लेक्चर सुनाती कि उस के मोबाइल के वाट्सएप्प पर एक सन्देश आ गया. जिसे पढ़- देख कर सीमा ‘धम्म’ से जमीन पर बैठ गई .
“क्या हुआ ?” सीमा के चेहर पर उड़ती हवाईया देख कर पापाजी ने पूछा तो सीमा ने अपना मोबाइल आगे कर दिया. जिस में एक फोटो डला हुआ था और नीचे लिखा था , ” सीमा ! मैं इतना भी आधुनिक नहीं हुआ हूँ कि अपनी होने वाली बीवी को किसी और के साथ सिनेमा देखते हुए बर्दाश्त कर जाऊ. इसलिए मैं तुम्हारे साथ मेरी सगाई तोड़ रह हूँ.”
यह पढ़- देख कर पापाजी के मुंह से निकल गया , “बेटी ! यह कौन सा जनरेशन गेप है ? मैं समझ नहीं पाया ?”
शायद सीमा भी इसे समझ नहीं पाई थी. इसलिए चुपचाप रोने लगी .
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है एक ऐसी ही लघुकथा “वातानुकूलित संवेदना”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #4 ☆
☆ वातानुकूलित संवेदना ☆
एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती तीखी धूप-छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये हुए एक व्यक्ति पर अचानक नज़र पड़ी।
लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर उसके पास पहुँचा।
देखा – वह खर्राटे भरते हुए गहरी नींद सो रहा था।
समस्त सुख-संसाधनों के बीच मुझ जैसे अनिद्रा रोग से ग्रस्त सर्व सुविधा भोगी व्यक्ति को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने इत्मिनान से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से कुछ ईर्ष्या सी होने लगी।
इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे की सवारी वाली सीट पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस कारुण्य दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वापस अपनी कार में सवार हो गया
अनायास रिक्शेवाले से मिले इस नये विषय पर एक कहानी बुनने की उधेड़बुन मेरे संवेदनशील मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने लगी।
घर पहुंचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में लग गया।
‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरी करते हुए मेरे तन-मन में एक अलग ही स्फूर्ति व उल्लास है।
रिक्शाचालक पर तैयार मेरी इस सशक्त दयनीय कहानी को पढ़ने के बाद मेरे अन्तस पर इतना असर हो रहा है कि, इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी खुशी से मन में हिलोरें लेने लगी है।
अब इस पर कविता लिखना इसलिए भी आवश्यक समझ रहा हूँ कि – हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से रिक्शे वाले के ज़रिए मुझे किसी प्रतिष्ठित मुकाम तक पहुंचा दे।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावुक एवं मार्मिक लघुकथा “निःशब्द ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 5 ☆
☆ निःशब्द ☆
दामोदर एक साधारण व्यक्ति। कद काठी सामान्य । थुलथला बदन और पान के शौकीन। मुंह से चारों तरफ से पान गिरना। गरीबी के कारण बुढापा जल्दी आ गया था। 50-52 साल के परन्तु लगते 70 साल के। प्लंबर का काम, घर घर जाकर काम करना जो उन्हें बुला ले। बेटे के नालायक निकल जाने के कारण दामोदर टूट चुके थे। पत्नी और बिना ब्याही बिटिया घर पर। रोजी से जो कुछ भी मिलता अपनी पत्नी को पूरा का पूरा ले जाकर दे देना।
अपने लिए कभी किसी से मांगने नहीं जाते। खुशी से दे दे तो गदगद हो जाना और यदि मेहनताना कम मिले तो कुछ कहना ही नहीं बस चलते बनना। उनके इस व्यवहार के कारण, सिविल एरिया पर नल सुधारना, पाईप बदलना छोटे-छोटे काम के लिये सिर्फ़ दामोदर का ही नाम होता था। सब काम बहुत मन लगाकर करना।
लगभग 3-4 महिने से दामोदर कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे थे। सभी एक दूसरे से पूछते पर कहीं गांव में रहने के कारण उनका पता कोई नहीं जान रहा था। सिर्फ एक मोबाइल नंबर दे रखा था उसने।
अचानक एक दिन किचन का नल खराब हो जाने से, उस नम्बर पर काल करने से उधर से आवाज आई…. “कौन साहब बोल रहे हैं?”
“दामोदर जी घर पर है क्या?…..” बात शुरू करना चाहते थे। परन्तु उनकी पत्नी इतना ही बोल सकी, “वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। एक माह पहले उनका देहांत हो गया।”
फोन पर “हैलो, हैलो….. ” की आवाज आती रही। पर उत्तर पर ‘निःशब्द ‘ कुछ बोल न सके। लगा शायद फोन आज डेड हो गया है।
(आपसे यह साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं e-abhivyakti के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं । अब हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “दो पिताओं की कथा ” जो निश्चित ही आपको यह सोचने पर मजबूर कर देगी कि बदलते सामाजिक परिवेश में दोनों पिताओं में किसका क्या कसूर है? कौन सही है और कौन गलत? इससे भी बढ़कर प्रश्न यह है कि इस परिवेश में समाज की भूमिका क्या रह जाएगी? ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 5 ☆
☆ दो पिताओं की कथा☆
कस्बे के एक समाज के प्रमुख सदस्यों की बैठक थी। समाज के एक सदस्य रामेश्वर प्रसाद की बेटी ने घर से भाग कर अन्तर्जातीय विवाह कर लिया था। अब लड़की-दामाद रामेश्वर प्रसाद के घर आना चाहते थे लेकिन रामेश्वर भारी क्रोध में थे। उनके खयाल से बेटी ने उनकी नाक कटवा दी थी और उनके परिवार की दशकों की प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी थी।
बैठक में इस प्रकरण पर विचार होना था। समाज के एक सदस्य किशोरीलाल एक माह पहले अपनी बेटी का विवाह धूमधाम से करके निवृत्त हुए थे। लड़के वालों की मांगें पूरी करने में वे करीब दस लाख से उतर गये थे। इस बैठक में वे ही सबसे ज़्यादा मुखर थे।
रामेश्वर प्रसाद को इंगित करके वे बोले, ‘असल में बात यह है कि कई लोग अपने बच्चों को ‘डिसिप्लिन’ में नहीं रखते, न उन्हें संस्कार सिखाते हैं। इसीलिए ऐसी घटनाएं होती हैं। हमारी भी तो लड़की थी। गऊ की तरह चली गयी।’
रामेश्वर प्रसाद गुस्से में बोले, ‘यहाँ फालतू लांछन न लगाये जाएं तो अच्छा। हम अपने बच्चों को कैसे रखते हैं और उन्हें क्या सिखाते हैं यह हम बेहतर जानते हैं।’
समाज के बुज़ुर्ग सदस्यों ने किशोरीलाल को चुप कराया। फिर समस्या पर विचार-विमर्श हुआ। यह निष्कर्ष निकला कि लड़कों लड़कियों के द्वारा अपनी मर्जी से दूसरी जातियों में विवाह करना अब आम हो गया है, इसलिए इस बात पर हल्ला-गुल्ला मचाना बेमानी है। रामेश्वर प्रसाद को समझाया गया कि गुस्सा थूक दें और बेटी-दामाद का प्रेमपूर्वक स्वागत करें। अपनी सन्तान है, उसे त्यागा नहीं जा सकता। रामेश्वर प्रसाद ढीले पड़ गये। मन में कहीं वे भी यही चाहते थे, लेकिन समाज के डर से टेढ़े चल रहे थे।
यह निर्णय घोषित हुआ तो किशोरीलाल आपे से बाहर हो गये। चिल्ला चिल्ला कर बोले, ‘हमारी लड़की की शादी में दस लाख चले गये, हम कंगाल हो गये, और इनको मुफ्त में दामाद मिल गया। या तो इनको समाज से बहिष्कृत किया जाए या फिर समाज मेरे दस लाख मुझे अपने पास से दे।’
वे चिल्लाते चिल्लाते माथे पर हाथ रखकर बिलखने लगे और समाज के सदस्य उनका क्रन्दन सुनकर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे रहे।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश जी के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी शिक्षाप्रद लघुकथा “उपहार ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #4 ☆
☆ उपहार ☆
नन्ही परी का जन्मदिन मनाया जा रहा था .
उस की प्यारी टीचर भी आई हुई थी.
जैसे ही परी ने मोमबत्ती को फूंक मारा वैसे ही सभी ने एक स्वर में कहा , ” हैप्पी बर्थ डे टू यू …………… हैप्पी बर्थ डे टू परी, ” और सभी बारी-बारी से परी को केक खिलाने लगे .
अंत में पापा ने परी से पूछा , “ बोलो ! तुम्हें कौन सा उपहार चाहिए ?”
यह सुनते ही परी ने टीचर की तरफ देखा. टीचर ने मम्मी की पेट की तरफ इशारा कर दिया.
इसलिए परी ने तपाक से कहा, ” पापा ! मुझे यह बेबी चाहिए .”
यह सुन कर मम्मी-पापा दंग रह गए.
कहीं परी ने उन की बात तो नहीं सुन ली थी कि वे इस बच्ची को दुनिया में नहीं आने देंगे.
वे क्या बोलते. चुप हो गए .
और परी बार-बार यही दोहरा रही थी ,” पापा ! मुझे यह बेबी चाहिए.”
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है एक ऐसी ही लघुकथा “सुहाग की चूड़ी…… ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #3 ☆
☆ सुहाग की चूड़ी…… ☆
हमेशा की तरह आज भी गुलशेर अहमद चूड़ियां लेकर फेरी पर निकला था। पिछले 15-20 वर्षों से हफ्ते-दस दिनों के अंतर से आसपास के सभी गांवों में उसके चक्कर लगते रहते हैं। हर एक गाँव में उसने कुछ ठीये बना रखे हैं, जहाँ से चूड़ी बेचने की उसकी अटपटी कलात्मक आवाज सुन मुहल्ले की सभी महिलाएं जुट जाती है।
बेटी-बहू से ले कर बूढ़ी तक सभी गुलशेर मियाँ को ‘गुलशेर भाई’ के नाम से संबोधित करती हैं।
प्रायः होटल से खाना खाने के बाद मुफ्त की मुट्ठी भर सौंफ-मिश्री व 2-4 दांत खुरचनी तथा किलो-पाव किलो सब्जी की खरीदी के बाद मुफ्त की मिर्ची-धनिया लेने की परिपाटी जैसे ही यहां भी भाव-ताव की झिकझिक के साथ निर्धारित चूड़ियाँ पहनने के बाद सुहाग के नाम पर फोकट की एक चूड़ी की मांग इन महिलाओं की सदा से बनी रहती है।
आज गुलशेर मियाँ के द्वारा किसी को भी सुहाग की अतिरिक्त चूड़ी नहीं मिलने से नाराज वे सब शिकायत करने लगी-
क्या गुलशेर भाई – हमेशा तो आप एक चूड़ी अपनी ओर से देते हो फिर आज क्यों नहीं….
मेरी बहनों! बूढ़ा हो रहा हूँ, अब पहले जैसी भागदौड़ नहीं हो पाती मुझसे, यूँ ही एक-एक कर दिन भर में सौ-डेढ़ सौ चूड़ियां ऐसे ही निकल जाती है, ऊपर से कांपते हाथों से ज्यादा टूट-फुट हो जाती है सो अलग। फिर मैं आप बहन बेटियों से ज्यादा मुनाफा भी तो नहीं लेता हूँ, अब आप ही बताएं ऐसे में मेरी गृहस्थी कैसे चलेगी?
पर भैया सुहाग की एक चूड़ी तो सब जगह देते हैं!
सच बात तो ये है मेरी बेन – वो सुहाग की नहीं भीख की चूड़ी होती है।
भीख की चूड़ी! ये क्या कह रहे हो गुलशेर भाई आप?
अच्छा ये बताओ मुझे क्या, आपके सुहाग की कोई कीमत नहीं है जो उनके नाम से मुफ्त की एक चूड़ी की मांग करते रहते हैं आप सब। फिर ये जो चूड़ियां पहनी है आपने, क्या ये आपके सुहाग की चूड़ियां नहीं है? मुफ्त की एक चूड़ी के बिना क्या आप सुहागिन नहीं समझी जाएंगी? और मांग कर फोकट में बेमन से मिली चूड़ी।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावुक एवं मार्मिक लघुकथा “गटागट गोली ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 4 ☆
☆ गटागट गोली’☆
बड़े-बड़े मकानों के बीच एक झोपडी नुमा घर। घर में सभी चीजों का अभाव। विधवा माँ अपने दो बच्चों के साथ रहती थीं। गरीबी की लाचारी के कारण पहले ही बुढ़ापे ने घर कर लिया था। पर बच्चों के कारण जी रहीं थीं। दोनों बच्चियों को लेकर जाये कहाँ? कैसे भी काम करके किसी का सामान उठा, किसी की मालिश और किसी के बर्तन माँज कर गुजारा कर रही थीं।
सभी की नजर उसके झोपड़ी घर पर ही थी कि कब इसे लेकर आलीशान मकान बना ले। पर वो बेचारी बच्चों का मुँह देखकर अपना जीवन यापन कर रहीं थीं। बारिश आते ही गली, सड़क और घर एक जैसा हो जाता था। सारी नालियों का गंदा पानी उसके घर समा जाता था।
माँ के काम पर जाने के बाद बच्चे आसपास ही खेलते रहते थे। गिर जाते, चोट लग जाती, पेट दुखता या फिर बुखार। सब की एक ही दवाई पास वाले परचून के दुकान वाले अंकल जी की मीठी दवाई। उससे उनका विश्वास था या यूँ कहें कि दवाई का भ्रम बना गया था। और सहन शक्ति ज्यादा हो गई थी कुछ भी दर्द सहने की।
एक दिन बहुत जोरों की आधी तुफान आया उन्हें पता नहीं था मां कितने बजे वापस आयेगी। शाम ढले मां वापस आई। बदन बुखार से तप रहा था और सारा शरीर भीगा हुआ। जैसे तैसे कर सब आधे सुखे आधे गीले पर सो लिए।
सुबह बच्चे तो उठे पर मां सोती ही रही। बहुत देर उठाने के बाद भी जब मां नहीं उठी। तो बच्चे जाकर अंकल जी से बोले—अंकल जी मां कुछ बोल नहीं रही है। आप मीठी वाली दवाई दे दो खाकर उठ जायेगी। परचून वाले अंकल जी समझ गये। मामला कुछ गड़बड़ है। घर जाकर देखने पर पता चला मां तो सदा के लिए इस दुनिया से जा चुकी हैं। सभी पड़ोस के एकत्रित हुए अंतिम संस्कार के लिए ले जाया गया। अनाथ आश्रम वाले आकर दोनों बच्चियों को साथ ले गए। वहां पर सभी बच्चों ने सवाल किया? उत्तर में वे इतना ही बताती। मां ने न मीठी गोली नहीं खाई इसलिये भगवान के घर चली गई। खा लेती तो इस दूनिया से नहीं जाती।
दूकान वाले अंकल जी की मीठी दवाई और कुछ नहीं एक *गटागट की मीठी गोली * होती थीं। ???????
(डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी की यह लघुकथा वैसे तो पितृ दिवस पर ही प्रकाशित होनी थी किन्तु, मुझे लगा कि इस कथा का विशेष दिन तो कोई भी हो सकता है। जीवन के कटु सत्य को प्रस्तुत करने के लिए डॉ उमेश जी की लेखनी को नमन।)
☆ लाठी ☆
(एक अविस्मरणीय लघुकथा)
मैं पढ़-लिखकर नौकरी करने लगा । माँ-पिताजी ने अपना लंबा अमावस्यायी उपवास तोड़ा । उनके चेहरे पर झुर्रियों की इबारत एकाएक धूमिल पड़ गई ।
मेरी शादी कर दी गई । उन्हें प्यारी-सी बहू मिल गई । मुझे पत्नी मिल गयी । साल भर के बाद ही वे दादा-दादी बन गये । उन्हें बचपन मिल गया, लेकिन तभी दूर शहर में मेरा स्थानांतरण हो गया । मैं कछुआ हो गया।
कभी-कदा पत्रों की जुबान सुनता था कि धुंध पड़ी इबारत पर मौसम, आयु प्रभाव डाल रही है और लिखावट गहराती जा रही है । अब उन्हें राह चलते गड्ढे नज़र आने लगे हैं । उन्हें अब जीने का चाव भी नहीं रहा, यह बात नहीं थी, पर अक्सर वे कहते – ” बहुत जी लिए ।”
मेरे अपने परिवार के प्रति ज़िम्मेदारी बढ़ती गई । फिर भी मैंने उन्हें एक दिन पत्र लिखा- “बच्चों की फ़ीस, ड्रेस, टैक्सी, बस घर का किराया, महँगी किताबें-कापी के बाद रोज़ के ख़र्चे ही वेतन खा जाते हैं, कुछ बचता ही नहीं । अब बताइये, आपको क्या दूँ ?”
माँ-पिताजी ने जवाब में आशीर्वाद लिखा । फिर लिखा – बुढ़ापे का सहारा एक लाठी चाहिए । ख़रीद सकोगे ? दे सकोगे ?”
(आपसे यह साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं e-abhivyakti के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं । अब हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “मज़ाक ” जो निश्चित ही आपको अपने आस पास के किसी मानव चरित्र से रूबरू कराएगी। डॉ परिहार जी के साहित्य के पात्र अक्सर हमारे आस पास से ही होते हैं। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 4 ☆
☆ मज़ाक ☆
दीपक जी मकान बनवा रहे थे। बीस साल किराये के मकान में रहे। उस मकान की छत टपकती थी। दीवारें बदरंग थीं और फर्श टूटा-फूटा। उसी मकान में दीपक जी ने बीस साल काट दिये। अब बड़ी हसरत से अपना मकान बनवा रहे थे—–सागौन के खिड़की दरवाज़े, फर्श में काले-सफेद पत्थर, बाथरूम और रसोईघर में रंगबिरंगी टाइल्स और दीवारों पर मंहगा चमकदार पेन्ट। दीपक जी एक एक चीज़ को बारीकी से देखते रहते थे। मकान को बनाने में वे अपने मन की सारी भड़ास निकाल देना चाहते थे।
मकान से उन्हें बड़ा मोह हो गया था। अकेले होते तो मुग्ध भाव से दरो-दीवार को निहारते रहते थे। ऐसे ही घंटों गुज़र जाते थे और उन्हें पता नहीं चलता था। अपने इस कृतित्व के बीच खड़े होकर उन्हें बड़ा सुख मिलता था। लगता था जीवन सार्थक हो गया।
मकान को खुद देखकर उनका मन नहीं भरता था। उन्हें लगता था हर परिचित-मित्र को अपना मकान दिखा दें। मुहल्ले में कोई ऐसा नहीं बचा था जिससे उन्होंने मकान का मुआयना न कराया हो। दूसरे मुहल्लों से रिश्तेदारों-मित्रों के आने पर भी वे पहला काम मकान दिखाने का करते थे। चाय-पानी बाद में होता था, पहले मकान के दर्शन कराये जाते थे। मकान दिखाते वक्त दीपक जी मेहमान के मुँह पर टकटकी लगाये, प्रशंसा के शब्दों की प्रतीक्षा करते रहते। प्रशंसा सुनकर उन्हें बड़ा संतोष मिलता था।
उनकी दीवानगी का आलम यह था कि किसी के थोड़ा भी परिचित होने पर वे नमस्कार के बाद अपना मकान देखने का आमंत्रण पेश कर देते। कोई ज़रूरी काम का बहाना करके खिसकने की कोशिश करता तो दीपक जी कहते—-‘ऐसा भी क्या ज़रूरी काम है? दो मिनट की तो बात है।’और वे उसे किसी तरह गिरफ्तार करके ले ही जाते।
यह उनका नित्यकर्म बन गया था। दिन में दो चार लोगों को मकान न दिखायें तो उन्हें कुछ कमी महसूस होती रहती थी। सड़क से किसी न किसी को पकड़ कर वे अपना अनुष्ठान पूरा कर ही लिया करते थे।
एक दिन दुर्भाग्य से मकान दिखाने के लिए दीपक जी को कोई नहीं मिला। सड़क के किनारे भी बड़ी देर तक खड़े रहे, लेकिन कोई परिचित नहीं टकराया। उदास मन से दीपक जी लौट आये। बड़ा खालीपन महसूस हो रहा था।
शाम हो गयी थी। अब किसी के आने की उम्मीद नहीं थी। निराशा में दीपक जी ने इधर उधर देखा। सामने एक मकान अभी बनना शुरू ही हुआ था। उसका चौकीदार रोटी सेंकने के लिए लकड़ियों के टुकड़े इकट्ठे कर रहा था।
दीपक जी ने इशारे से उसे बुलाया। पूछा, ‘हमारा मकान देखा है?’
वह विनीत भाव से बोला, ‘नहीं देखा, साहब।’
दीपक जी ने पूछा, ‘कहाँ के हो?’
वह बोला, ‘इलाहाबाद के हैं साहब।’
दीपक जी ने कहा, ‘वहाँ तुम्हारा मकान होगा।’
चौकीदार बोला, ‘एक झोपड़ी थी साहब। नगर निगम ने गिरा दी। चार बार बनी, चार बार गिरी। अब बाल-बच्चों को लेकर भटक रहे हैं।’
दीपक जी ने उसकी बात अनसुनी कर दी। बोले, ‘आओ तुम्हें मकान दिखायें।’
वे उसे भीतर ले गये। फर्श के खूबसूरत पत्थर, किचिन की टाइलें, पेन्ट की चमक, दरवाज़ों का पॉलिश, रोशनी की चौकस व्यवस्था—-सब उसे दिखाया। वह मुँह बाये ‘वाह साहब’, ‘बहुत अच्छा साहब’ कहता रहा।
संतुष्ट होकर दीपक जी बाहर निकले। चौकीदार से बोले, ‘तुम अच्छे आदमी हो। बीच बीच में आकर हमारा मकान देख जाया करो। ये दो रुपये रख लो। सब्जी-भाजी के काम आ जाएंगे।’
चौकीदार उन्हें धन्यवाद देकर अपनी उस अस्थायी कोठरी की तरफ बढ़ गया जहाँ बैठा उसका परिवार इस सारे नाटक को कौतूहल से देख रहा था।
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है एक ऐसी ही लघुकथा “सुख-दुख के आँसू”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #2 ☆
☆ सुख-दुख के आँसू…… ☆
अपने सर्वसुविधायुक्त कमरे में सुख के समस्त संसाधनों पर नजर डालते हुए वृध्द रामदीन को पूर्व के अपने अभावग्रस्त दिनों की स्मृतियों ने घेर लिया। अपने माता-पिता के संघर्षपूर्ण जीवन के कष्टों के स्मरण के साथ ही बरबस आंखों ने अश्रुजल बहाना शुरू कर दिया।
उसी समय, “चलिए पिताजी- खाना खा लीजिए” कहते हुए बहू ने कमरे में प्रवेश किया।
अरे–आप तो रो रहे हैं! क्या हुआ पिताजी, तबीयत तो ठीक है न?
हाँ बेटी, कुछ नहीं हुआ तबीयत को। ये तो आँखों मे दवाई डालने से आंसू निकल रहे हैं, रो थोड़े ही रहा हूँ मैं ।
तो ठीक है पिताजी, चलिए मैं थाली लगा रही हूँ ।
दूसरे दिन सुबह चाय पीते हुए बेटे ने पूछा–
कल आप रो क्यों रहे थे, क्या हुआ पिताजी, बताइये हमें?
कुछ नहीं बेटे, बहु से कहा तो था मैंने कि, दवाई के कारण आंखों से आंसू निकल रहे हैं।
पर आंख की दवाई तो आप के कमरे में थी ही नहीं, वह तो परसों से मेरे पास है,
बताइए न पिताजी क्या परेशानी है आपको, कोई गलती या चूक तो नहीं हो रही है हमसे?
ऐसी कोई बात नहीं है बेटे, सच बात यह है कि, तुम सब बच्चों के द्वारा आत्मीय भाव से की जा रही मेरी सेवा-सुश्रुषा व देखभाल से द्रवित मन से ईश्वर से तुम्हारी सुख समृध्दि की मंगल कामना करते हुए अनायास ही खूशी के आंसू बहने लगे थे, बस यही बात है।
किन्तु, एक और सच बात यह भी थी कि इस खुशी के साथ जुड़ी हुई थी पुरानी स्मृतियाँ। रामदीन अपने माता-पिता के लिए उस समय की परिस्थितियों के चलते ये सब नहीं कर पाया था, जो आज उसके बच्चे पूरी निष्ठा से उसके लिए कर रहे हैं।
सुख-दुख के यही आँसू यदा-कदा प्रकट हो रामदीन के एकाकी मन को ठंडक प्रदान करते रहते हैं।