(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अधूरी ख्वाहिश।)
मन में तो गुस्सा भरा है पर मीठी आवाज में बोल रेनू ने अब प्यार से अपने पति मयंक से कहा- देखो जी मम्मी आजकल मेरे मेकअप के समान को लेकर रोज शाम को क्या करती है, सारा सामान इधर-उधर भी बिखेर देती हैं। मुझे तो मेकअप करने की कभी-कभी जरूरत पड़ती है पर ये रोज शाम को तैयार होकर कभी घर में या कभी किसी के यहां जाकर नाचना गाना, वीडियो रील्स, बनाना जाने क्या-क्या करती हैं? आप समझा दो ऐसा नहीं चलेगा या इन्हें कुछ देर के लिए कहीं छोड़ आओ मैं थोड़ी देर शांति से रहना चाहती हूं।
मम्मी जी थोड़ी देर के लिए मंदिर में क्यों नहीं जाती है लोग कहते हैं की बहू के आने के बाद और एक उम्र के बाद पूजा पाठ करना चाहिए या इन्हें तीर्थ यात्रा पर भेज दो। अब तो पूरे मोहल्ले का डेरा यहीं आंगन में रहता है। कुछ दिनों बाद यह घर धर्मशाला न बन जाए?
पति ने उसकी ओर आंखें बड़ी करके देखा और कहा मुझे पता है इस उम्र में क्या शोभा देता है?
मां ने टीवी मोबाइल और जाने कितने बदलते दौर को देखा है।
तुम्हें भी कभी किसी काम करने को, तुम्हारे कपड़ों को। किसी भी तरह का तुम्हारे ऊपर भी अंकुश नहीं लगाया है मां ने दादा-दादी के साथ भी रही है और हम सबको दो भाई बहनों को पालकर बड़ा किया। आज अगर वह खुश रहती हैं और अपने जीवन जीने का कोई रास्ता ढूंढा है तो तुम उसमें क्यों बांधा डाल रही हो? तुम्हारी तरह उनकी भी तो एक जिंदगी है।अपना सामान उन्हें सारा मेकअप का दे दो तुम ऑनलाइन ऑर्डर कर लो या मेरे साथ चलकर खरीद लो।
अधूरी ख्वाहिश पूरी तो करके देखो क्या सुख मिलता है वह तुम स्वयं समझ जाओगी।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्यात्मकलघुकथा – नवाचारी बिजनेस आइडिया।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 285 ☆
लघुकथा – नवाचारी बिजनेस आइडिया
अपने ही सम्मान की सूचना अपनी ही रचना छपने की सूचना, अपनी पुस्तक की समीक्षा वगैरह स्वयं देनी पड़ती हैं, जिसे लोग अपना भोंपू बजाना या आत्म मुग्ध प्रवंचना कहते हैं।
इसलिए एक सशुल्क सेवा शुरू करने की सोचता हूं ।
हमे आप अपने अचीवमेंट भेज दें, हम पूरी गोपनीयता के साथ अलग अलग प्रोफाइल से, उसे मकड़जाल में फैला देंगे ।
ऐसा लगेगा कि आप बेहद लोकप्रिय हैं, और लोग आपकी रचनाएं, सम्मान आदि से प्रभावित होकर उन्हें जगह जगह चिपका रहे हैं।
तो जिन्हें भी गोपनीय मेंबरशिप लेनी हो इनबाक्स में स्वागत है। तब तक इधर हम भी कुछ और नामी गिरामी प्रोफाइल हैक कर लें, कुछ छद्म प्रोफाइल बना डालें, आपकी सेवा के लिए ।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “सत्संगी फिजियोथैरेपी”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 194 ☆
🌻सत्संगीफिजियोथैरेपी🌻
बड़ा प्यारा सा नाम लगा और यह नाम महिलाओं में चर्चा का विषय बनता जा रहा। बदलते परिवेश में आज मनुष्यों के पास सभी प्रकार के साधन सुविधा उपलब्ध है। ऊँगली चलाते ही समान की तो बात छोड़िए, गरमा गरम भोजन भी उपलब्ध हो जाता है।
मशीनों से जूझते कंप्यूटर पर हाथ और आँखें, दिमाग में हजारों तरह की बातें, एक साथ चलती है।
कहीं ना कहीं मानव, मानव द्वारा ही निर्मित यंत्र में ऊलझता चला जा रहा है। परंतु कहते हैं नित आविष्कार ही हमें, ऊँचा उठने की प्रेरणा देता है। अनुचित दिनचर्या, बेहिसाब खान-पान और अनिद्रा के चलते सभी शिकार होते चले जा रहे हैं। घंटो मोबाइल पर समय व्यतीत हो जाता है।
परंतु स्वयं के लिए कोई समय नहीं निकल पाता। खासकर महिला वर्ग अपने लिए समय नहीं निकाल पाती है। निकाले भी कैसे यदि वर्किंग महिला है, तो घर बाहर दोनों की जिम्मेदारी और यदि ग्रहणी है तो फिर तो पूरा दिन रसोईघर पर ही लगी रहे।
बहुत ही प्यारा सा नाम डाॅ निशा फिजियोथैरेपिस्ट। क्लीनिक में उनके पास तरह-तरह की महिलाएं और पुरुषों का आना जाना। क्योंकि कहीं ना कहीं सभी को कुछ समय के बाद हाथ पैरों का दर्द ज्यादातर घुटनों, कमर का दर्द सताने लगा है।
भिन्न-भिन्न प्रकार के मशीन डॉ. निशा के हाथ अपने सभी मरीजों के लिए एक साथ कई काम करते हुए मुस्कुराते अपनी बात रखते सभी की मदद करते। किसी का व्यायाम, किसी की सिकाई, इलेक्ट्रिक मशीन, किसी को एक्यूप्रेशर तो किसी का ध्यान और सबसे बड़ी बात उनके हँसते मुस्कुराते चेहरे पर चमकती दो बड़ी-बड़ी, धैर्य के साथ देखती दो आँखें।
संतुष्टि से भरा ह्रदय, सत्संग की बातें, कहीं रिश्तो की बातें, कहीं मेहमानबाजी, कहीं घर के कामकाज, कहीं पास पड़ोसियों का मिलना- जुलना, सभी के साथ चर्चा करते-करते ईश्वर पर गहरी आस्था रखती सबका काम करते जाती।
जो भी आते सभी डाॅ निशा की तारीफ करते। सभी को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करना, उनका अपने कार्य के साथ एक जुगलबंदी हो गई थी।
डॉ निशा को आज किसी महिला ने कुदरते हुए पूछा…. आप थकती नहीं है? कितना सब कुछ करते और साथ ही साथ हम सब का मनोरंजन ज्ञानवर्धक बातें और सत्संग करते, – –
दो बड़ी बड़ी बूँदें अँखियों से उतर कर कपोलों पर आ गए। मोती जैसे आँसू को पोंछती हुई डॉ. निशा ने अपने सत्संगी फिजियोथैरेपी की बात करते हुए बताने लगी…. मैं जिस समय और वातावरण से गुजरी हूँ, सत्संग ही मेरा सहारा था। बाबा की कृपा जिन्होंने मुझे मानवता के लिए चुना।
आज के समय में दुख – दर्द देने सभी तैयार मिलते हैं। क्या अपने और क्या पराए। परंतु मैं आप सभी की सेवा कर ईश्वर के इस अनमोल उपहार को उन तक पहुंचा रही हूँ। पैसे लेकर ही सही मैं किसी के दर्द को दूर कर रही। दुख – दर्द निवारण का कारण बन गई हूं। मुझे ईश्वर ने इस नेक काम के लिए चुना। उनका मैं हृदय से वंदन करती हूँ ।
क्लीनिक में लगभग सात आठ महिलाएं एक साथ अपने-अपने कामों में लगी थी और सबसे बड़ी बात सभी की सभी शांत थीं
निशा ने हँसते हुए कहा… क्या बात है मेरे इस सत्संगी फिजियोथैरेपी को हमेशा याद रखना। प्रभु का सुमिरन सच्चे हृदय से करते रहना। संसार है दुख – सुख का आना-जाना लगा रहता है।
अपने दुखों को बुलाकर मानवता अपना कर देखो। जिंदगी बदल जाती है। किसी की सेवा करके देखिए— भगवान भी बदल जाते हैं।
चलते-चलते हँसते सभी ने कहा… इस फिजियोथैरेपी का नाम सत्संगी फिजियोथैरेपी होना चाहिए।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है कहानी के पीछे की कहानी पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “– छोटी कहानी –”।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — छोटी कहानी–☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
मेरी एक कहानी का कथ्य इस तरह से था रोटी का डिब्बा खुला होने से कुत्ता एक रोटी निकाल कर खा रहा था। मालिक ने देखने पर उसे खूब मार कर घर से खदेड़ दिया। पर उसे पश्चाताप हुआ। उसे आशंका हुई शायद कुत्ता न लौटे। पर कुत्ता लौटा और वह भी एक रोटी अपने जबड़े में दबाये हुए। मालिक ने उसे गले से लगा लिया। मैंने कुत्ते पर आधारित अपनी कहानी को इतने में ही पूरा मान लिया।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘हद‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 141 ☆
☆ लघुकथा – हद ?☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
मीता ने तेजी से काम निपटाते हुए पति से कहा – ‘रवि ! तुम्हारे फोन पर यह किसके मैसेज आते हैं ? कई दिनों से देख रही हूँ तुम रोज मैसेज पढ़कर हटा देते हो।‘
‘मेरे साथ ऑफिस में काम करती है मारिया। बेचारी अकेली है, तलाक हो गया है बच्चे भी नहीं हैं। उसकी मदद करता रहता हूँ बस।‘
‘पक्का और कुछ नहीं ना?’
‘नहीं यार, बहुत शक्की औरत हो तुम।‘
‘पर उसके मैसेज हटा क्यों देते हो ?’
‘यूँ ही, अपने सुख दुख की बात करती रहती है बेचारी। तुम तो जानती हो मेरा स्वभाव, मदद करता रहता हूँ सबकी।‘
‘मेरे ऑफिस में भी हैं एक मिस्टर वर्मा, बेचारे अकेले हैं। मैं भी उनकी मदद कर दिया करूंगी।’
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – लाचारी।)
☆ लघुकथा – लाचारी ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
क्या हो गया जी आप उस काले कोट वाले को देखकर क्यों घबरा रहे हो?
कुछ नहीं भाग्यवान बस तुम चुप रहना अपना मुंह मत खोलना वह टिकट देखने के लिए इस ट्रेन का टीसी बाबू है।
तभी उसने कहा अंकल जी आप अपना टिकट दिखाइए और आप यहां गेट का पास क्यों बैठे हैं?
बेटा यह टिकट है। बेटे के अपने दोस्त से कहा उसने टिकट हमें दे दिया, ट्रेन छूट रही थी सभी डिब्बों में भीड़ थी ये डिब्बा खाली देखा इसलिए हम यहां पर चढ़ गए और यहां दरवाजे के पास चादर बिछा कर बैठ गए, हमारे पैरों में बहुत दर्द रहता है।
अंकल जी यह टिकट तो स्लीपर क्लास का है यह एसी सेकंड क्लास का डिब्बा है अगले स्टेशन में आप उतरकर उस डिब्बे में बैठ जायेगा। ट्रेन रात के 2:00 बजे पहुंचेगी तब तक आप लोगों को तकलीफ होगी। अभी आप मेरी सीट पर बैठ जाइए।
धन्यवाद बेटा पर हम वहां पर कैसे बैठे जाकर हमें कुछ समझ नहीं आ रहा है हम पहली बार रेल यात्रा कर रहे हैं।
कोई बात नहीं अंकल जी मैं आपको चलकर बैठा दूंगा।
दूसरा स्टेशन आते ही टीसी बसंत कुमार ने बुजुर्ग दंपति को उनकी सीट पर बैठा दिया और वह बोला – माताजी आपका स्टेशन किशनगढ़ रात में आएगा?
बगल में बैठे यात्री से कहा किशनगढ़ आने पर इन्हें बता देना।
उसने एक कागज पर अपना फोन नंबर लिख कर दिया और बोला यदि आपको अंकल कोई तकलीफ होगी तो मुझे इस नंबर पर फोन कर देना अब मैं चलता हूं।
तभी उस बुजुर्ग महिला कमला ने कहा कि बेटा तुमने हमारी इतनी मदद की है तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद मैं घर से पूरी सब्जी बनाकर लाई हूं थोड़ा सा खाना खा लो और उसे अपने साथ खाना खिलाया ।
बसंत को भी रात भर यह चिंता लगी रहती थी कि बेचारे कैसे अपने बेटे के पास पहुंचेंगे कैसे बच्चे हैं मां-बाप को अकेले आने को बोल देते हैं कैसे बच्चे हैं?
स्टेशन पर जब गाड़ी रूकी तो वह बुजुर्ग दंपति को रात के 2:00 बजे ढूंढने लगा ।
फिर विचार करने लगा मुझे क्या करना है ?
जब उसके बेटे को चिंता नहीं है लेकिन फिर सोच इंसानियत नाम की तो कोई चीज होती है उसने देखा वह बेचारे अकेले दूर बैठे थे।
अंकल जी कैसे हैं आप उतर गए आपको कोई लेने नहीं आया।
नहीं बेटा कोई नहीं आया थोड़ा सबेरा हो तब कोई गाड़ी पकड़ कर हम जाएं।
आप पता मुझे दिखाइए और वह पता लेकर एक ऑटो वाले के पास जाता है और उन्हें कहता लिए इसमें बैठ जाइए मैं आपको छोड़ देता हूं।
बेटा तुम हमारी इतनी मदद क्यों कर रहे हो हमारे कारण तुम परेशान होंगे कोई बात नहीं अंकल मैं उसी तरफ रहता हूं मेरा घर है। रास्ते में एक जगह उतरना है और बोलना अंकल जी मेरा घर है यदि कोई दिक्कत होगी तो आप आ जाना और ऑटो वाले को कहकर आगे के चौराहे के पास छोड़ देना वही घर है।
वह घर में आराम से सो रहा था तभी अचानक दरवाजा जोर-जोर से खटखट की आवाज हुई।
क्या बात हुई? कौन खटखटा रहा है?
वह उसे बुजुर्ग दंपति को सामान के साथ देखकर दंग रह जाता है क्या वह अंकल जी बेटे का घर नहीं मिला क्या?
लेकिन उसकी शादी हो रही है इसीलिए उसने बुलाया था ?
बहुत सारे अच्छे लोग सूट बूट पहने थे हमें इस हालत में देखकर उसने पहचानने से इंकार किया और चौकीदार से कहकर हमें घर से बाहर निकाल दिया।
बिचारी बुजुर्ग महिला बहुत रोने लगी और वह बोली बेटा हमारे पास तो पैसे भी नहीं है अब हम अपने गांव कैसे पहुंचे अपने बेटा के लिए यह घी और थोड़ा सा चावल लेकर आए थे अब तुम यह ले लो बस हमारी टिकट कर दो जिससे हम गांव तक पहुंच सके। तुम्हें रात से तकलीफ दे रहे हैं पर क्या करें कुछ दिमाग हमारा काम ही नहीं कर रहा है दोनों कांप रहे थे और रोए जा रहे थे। तभी उसकी पत्नी ने आवाज दिया क्या हो गया कुछ नहीं गांव से चाचा जी आए काम से आए, बस रात में सोएंगे सुबह चले जाएंगे।
उसने उन्हें एक कमरे में ले जाकर कहा आप यहां आराम से रहिए सुबह हम चलेंगे। और उन्हें चाय बना कर दिया साथ में ब्रेड भी दिया अब उनकी आंखों में एक उत्साह दिख रहा था। बुजुर्ग महिला कामना ने कहा बेटा तुम तो देवदूत हो इस जन्म में नहीं लेकिन अगले जन्म में भगवान तुम जैसा ही बेटा हमें दे लोग तो दूसरों से धोखा खाकर सावधान रहते हैं जब अपने ही धोखा दे तो कैसा लगता है आज तो हमारे शरीर में काटो तो खून नहीं। तुमने कृष्ण भगवान की तरह हमें इस संकट से उबारा है।
कोई बात नहीं माताजी आप परेशान न होइए मेरे मां-बाप भी बुजुर्ग हैं और गांव में ही रहते हैं मैं समझ सकता हूं आपकी मनोस्थिति…।
मुझे पता है मैंने बहुत अभाव में पढ़ाई की है और आज इस पद पर पहुंचा हूं। परीक्षा के लिए मैं भी इधर-उधर भटकता था लाचारी क्या चीज है मुझे पता है…।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है जीवन के कटु सत्य को उकेरती एक संवेदनात्मक एवं विचारणीय लघुकथा “मृग मरीचिका”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 193 ☆
🌻मृगमरीचिका🌻
भीषण गर्मी में तपती दोपहरी को लंबी दूरी तय करते समय दूर देखने पर ऐसा लगता है मानो पानी भरा हुआ है।
इसे मृग मरीचिका कहते हैं या यूँ कह लीजिए आँखों का धोखा।
गर्मी में जहाँ चारों तरफ सिर्फ गर्म हवा लू चल रही हो वहाँ पर अचानक जल प्रवाह दिखना आँखों का धोखा होता है। क्षणिक मात्र के लिए ही सही परंतु यह बड़ा सुखद होता है।
अखबार को सीने से लगाए बैठा दीनदयाल मन ही मन आनंदित हो रहा था। जिसमें पूरे परिवार की तस्वीर छपी है।
बुजुर्ग घर परिवार की धरोहर होते हैं। बदलती परिभाषा को अपने लिए बनते मृग मरीचिका को, परंतु उसे आज अच्छा लग रहा था। आँखों का धोखा ही सही। आत्मा को बहुत सुकून पहुंचा रही थी।
दीनदयाल वृद्धावस्था के चलते सभी बातों से लाचार हो चुके थे। धर्मपत्नी भी समय होते-होते साथ छोड़ चली गई थी। आज वह चुपचाप देख रहा था कि उसे बेटे-बहु ने बहुत ही सुंदर-सुंदर बातें करके कुछ अच्छा सा कपड़ा पहनाया। साथ ही बोल रहे थे… कुछ पेपर वाले आएंगे हमारे घर परिवार का फोटो छपेगा।
जैसा बोल रहे हैं ठीक वैसा ही आपको कहना है। कुछ भी ज्यादा नहीं कहना है। अन्यथा वृद्धा आश्रम में पहुंचा दिए जाओगे। बेटे के कहे शब्द कानों में चुभ रहे थे।
बस उसी समय बेटे ने लगभग पेपर खींचते हुए बोला… अच्छा हुआ पिताजी आपने सब बहुत सुंदर बोला और जैसा ही कहा था, वैसा ही किया।
देखिए पेपर में बहुत सुंदर छपा है। सारे दोस्त और परिचित बधाई दे रहे हैं। दीनदयाल ने धीरे से कहा.. भीषण गर्मी में बेटा मृग मरीचिका आँखों को बहुत राहत देती है।
पीछे से बहू ने आवाज लगाई… अब बोलने दीजिए जो बोलना है कौन सुनता है। बस सोसाइटी में अपना नाम हो गया। दीनदयाल चुपचाप अपनी कमीज की बाजू से आँसू पोंछते पानी पीने लगे।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– स्त्री – विमर्श –”।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — स्त्री – विमर्श —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
संभावी की शादी के दो महीने हुए। ससुराल के वातावरण की उसे आदत पड़ने लगी थी। उसके घर से थोड़ी दूर मनवा नदी बहती थी। वह कपड़े धोने नदी चली जाती थी। एक – दो स्त्रियाँ कपड़े धोते उसे मिल जाती थीं। यह ठौर कोई खास भयावह नहीं था। वह अकेली भी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
वह कपड़े लिये नदी पहुँची तो बहुत से लड़के झरने के पास तैर रहे थे। महिलाएँ कपड़े धो रही थीं। संभावी महिलाओं के पास पत्थर पर धोने के लिए कपड़े फैला रही थी कि देखा तैरने वाले लड़कों में से एक लड़का बहता चला आ रहा है। उसके मित्रों को यह पता नहीं था। पता होता तो वे उसे बचाते। लड़का शायद बहुत थक गया था। तैराक के रूप में हाथ – पाँव चला कर अपना बचाव करना उसके लिए शायद असंभव हो गया हो। वह बीच धारा में था। यह मनवा नदी थी जो गहरी थी। बहाव तेज़ था।
दूसरी महिलाओं ने भी लड़के को देखा। वे चीखने लगीं। बस संभावी चुप थी। उसे तैरना आता था। यही उसमें एक मंथन को जन्म दे रहा था। उसने अंदाजा लगा लिया था वह लड़के को बचा सकती है। पर वह औरत थी। लड़का उसकी पकड़ में होता। दोनों शरीर एक दूसरे के स्पर्श में होते। और फिर, वह साड़ी में थी। उसने साड़ी पहने नदी में कभी तैराकी नहीं की।
संभावी जिस गाँव की हुई उसके घर की कुछ ही दूरी में ‘हरैया’ नाम की एक विशाल नदी बहती थी। वह अपनी सहेलियों के साथ उस नदी में तैरती थी। ससुराल में मनवा नदी इतने पास हो कर भी उसने अब तक धारा से अपने हाथ – पाँव नहीं भिड़ाये। स्त्री की मर्यादा उसे बांधती थी। कपड़े उतारने पड़ते। मर्दों का संकोच उस पर हावी रहता।
पर अभी के लिए बात दूसरी हुई। एक लड़के की जान संकट में थी। संभावी ने साड़ी झट से उतारी और धारा में कूद गयी। उसने तैराकी की अपनी कुशलता से लड़के को बचा लिया। अब तक लड़के के मित्र दौड़े आ गए थे। संभावी के लिए मानो अग्नि परीक्षा की घड़ी आई। ऐसा नहीं कि वह नंगी थी। उसने लड़के को उसके मित्रों के हवाले किया और यथाशीघ्र पास में पड़ी हुई अपनी साड़ी में अपने को कैद करने लगी।
लड़के को होश में लाया गया। संभावी का जयकार होने लगा। कितना भाव प्रवण जयकार था। लड़के को जीवन दान देने का श्रेय बटोरते संभावी थक जाती तो भी उसे श्रेय देने वालों का भंडार खाली नहीं होता। पूरे गाँव में इस बात की धूम मच गयी एक औरत ने आज कितना बड़ा काम किया है। मनवा नदी की धारा और उसकी गहराई जानने वालों के लिए संभावी एक विशिष्ट औरत हो गयी।
उसका पति बसीस रास्ते की ओर गया तो लोगों ने उसे कंधों पर उठा लिया। लड़कों ने उसका जयकार किया। पुराना युग होता तो देवता आकाश से फूलों की वर्षा कर रहे होते। यह तो बाहरी माहात्म्य हुआ। रही बात घर की, यहाँ बसीस के लिए जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। उसकी माँ अपनी बहू की वाह वाही कर रही थी और वह था कि एक क्रोध सा अपने मन में थोपे ऐसा जता रहा था इस तरह के सिनेमा के लिए उसके घर में स्थान हो नहीं सकता। उसने न कभी सुना न देखा घर की औरत कपड़ा खोल कर नदी में हड़ाक से कूदती है और मरने वाले को अपनी बाहों में फँसाये तट से आ लगती है।
संभावी के नाम गाँव में उत्सव रखे जाने की बात हो रही थी। डूबते हुए लड़के के माँ – बाप संभावी के पास पूजा भाव से आने वाले थे। लोगों के कंधों पर जयकारा का आनन्द लूटने वाला पति बसीस सोच रहा था जिसके नाम से इतना सम्मान पा रहा हूँ क्या अपनी ओर से उसे इतना सम्मान देने के लिए मेरे भीतर आत्मीय स्फुरण पैदा होना नहीं चाहिए था?
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रेम
– कितने साल बाद मिले उससे?
– यही कोई 35-36 साल बाद।
– क्या बात हुई?
– कुछ ख़ास नहीं।
– कुछ तो कहा होगा उसने।
– वही उलाहने, वही शिकायतें। मुझसे शिकवा, गिला। जिस वज़ह से हमारी राहें ज़ुदा हुई थीं, वे सारी वज़हें अब भी ज्यों की त्यों हैं। रत्ती भर भी फ़र्क नहीं आया उसकी सोच में।
– वह उलाहने देती है, शिकायतें करती है,…मतलब अब भी तुमसे आस है उसे। अब भी वह प्रेम करती है तुम्हें, मरती है तुम पर।…और हाँ, मेरी बात याद रखना, मरते दम तक वह मरती रहेगी तुम पर.!
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक
श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दिखावे की दुनिया।)
☆ लघुकथा – दिखावे की दुनिया ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
बहुत दिन हो गया बंधु तुम्हारी मीठी आवाज नहीं सुनी।
जल्दी बताओ! यार फोन क्यों किया? तुम्हें पता है कि अभी कोचिंग क्लास में जाना है। तुम्हें तो पढ़ाई की चिंता नहीं है?
भाई मेरा जन्मदिन है। मॉल में आज शाम को पार्टी रखी है, सभी दोस्त आ रहे हैं। तुम भी जरूर आना एक दिन नहीं पढ़ोगे मेरे बुद्धि देव तो कुछ नहीं हो जाएगा।
ठीक है भाई आ जाऊंगा पर पार्टी के खर्च के लिए पैसे कहां से आए? क्योंकि हमारे और तुम्हारे घर की स्थिति तो ऐसी है कि हमारे मां-बाप किसी तरह हमको यहां पढ़ने भेजे हैं तुमने कैसे मैनेज किया ?
बंधु सुनो चुपचाप शाम को चले आना इसीलिए तुम्हें फोन नहीं करता और जोर से फोन पटक देता है।
राकेश सोचने लगता है कि इसे जरा भी चिंता नहीं है और मैं इसके घर में फोन करके यह बात कह भी नहीं सकता जाने दो मैं शाम को देखता हूं।
अरे !यार यह यहां पर तो बड़े लोग भी खाना खाने से डरते हैं तुमने यहां कैसे पार्टी अरेंज की?
दोस्त इसके लिए बहुत जुगाड़ करना पड़ता है।
हम गरीब घर के है तो मेरी इज्जत यहां कोई नहीं करेगा धनवान का ही समान सदा होता है। ये सब मैं मैनेज कर लिया अच्छा अब तुम अपना फोन मुझे दे दो बाकी के दोस्त कहां रह गए पूछना है?
क्यों तेरा फोन कहां गया?
और तेरी घड़ी भी तो नहीं दिख रही है मुझे?
ओ मेरे बुद्धि देव तू सवाल बहुत पूछता है?
कुछ दिनों के लिए और मैं इसे गिरवी रख दिया है अब यह बात किसी को नहीं बताना पार्टी इंजॉय करों। आम खा भाई गुठली गिन कर क्या करेगा?
राजेश गहरी सोच में डूब गया ऐसे दिखावे से क्या मतलब है और उसके मस्तिष्क पर गहरी रेखा आ गई और उसे बहुत घबराहट होने लगी। वहां पर लड़के लड़कियां बड़े आराम से सिगरेट पी रही थी और नशे का आनंद लेकर नाच रहे थे।
केक और लगे बढ़िया काउंटर पिज़्ज़ा, बर्गर और तरह-तरह के फास्ट फूड से भरे थे। वह चकित सब देखता रहा।
उसकी आंखों में आंसू आ गए। कुछ नहीं खाया गया वह चुपचाप वहां से अपने हॉस्टल रूम में आ गया।
वह अपनी पढ़ाई में लग गया लेकिन बार-बार उसके ध्यान में एक सवाल आ रहा था कि जब मैं आशुतोष के घर जाता था तो उसकी दादी हम दोनों को समझती थी कि जितनी चादर है उतना ही पैर पसारना चाहिए। यहां आकर अपने सारे संस्कार कैसे भूल गया?