हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 183 – लघुकथा – कोरी साड़ी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा कोरी साड़ी ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 183 ☆

☆ लघुकथा 🌹 कोरी साड़ी 🌹

शहर, गाँव, महानगर सभी जगह चर्चा थी, तो बस सिर्फ महिला दिवस की। छोटी बड़ी कई संस्था, कई ग्रुप और हर विभाग में कार्यशील महिलाओं के लिए जैसे सभी ने बना रखा था महिला दिवस।

हो भी क्यों न महिला नारी – –

म – से ममता

ह – से हृदय

ल – से लगती

ना – से नारी

री- से रिश्ते

ममता हृदय से लगती सभी नाते रिश्ते वह कहलाती नारी या महिला मातृशक्ति।

ठीक ही है बिना नारी के सृष्टि की कल्पना करना भी एक बेकार की चीज होगी। शहर में घर-घर बाईयों का काम करके अपना जीवन, घर परिवार चलाना आम बात है।  जीवन का सब भार संभाले रहती है, चाहे उसका पति कितना भी नशे का आदी क्यों न हो, निकम्मा क्यों न हो या कुछ भी पैसा कमा कर नहीं दे रहा हो।

परंतु महिलाएं इसी में खुश रहकर बच्चों का पालन पोषण करती है और शायद संसार में सबसे सुखी दिखाई देती है।

बंगले में काम करते – करते अचानक माया को आवाज सुनाई दिया – माया मुझे एक जरूरी फंक्शन में जाना है जल्दी-जल्दी काम निपटा लो।

वहाँ क्या होगा मेम साहब? माया ने पूछा। मेमसाहब पलट कर बोली पूरे साल में एक दिन हम महिलाओं को सम्मानित किया जाता है। गिफ्ट और शील्ड, सम्मान पत्र मिलते हैं।

अच्छा जी… कह कर माया अपने काम में लग गई। परंतु तुरंत ही पलट कर माया को देखते हुए मेमसाहब.. हंसने लगी वाह क्या बात है? आज तो तुम बिल्कुल नई कोरी साड़ी पहन कर आई हो।

माया ने हाथ की झाड़ू एक ओर सरकाकर कोरी साड़ी पर हाथ फेरते बोली.. मुझे भी मेरे मरद ने आज यह कोरी साड़ी दिया। सच कहूँ मेमसाहब मुझे तो पता ही नहीं।

यहाँ आने पर पता चला कि मेरा मरद मुझे कितना प्यार करता है। एकदम दुकान से चकाचक कोरी साड़ी लाकर दिया है। सच मेरी तो बहुत इज्जत करता है।

माया के चेहरे के रंग को देखकर उसके मेमसाहब के चेहरे का रंग उड़ गया। वह जाकर आईने के पास खड़ी हो गई। उसके बदन पर जो साड़ी थी। आज उसे वह कई जगह से दागदार दिखाई दे रही थी।

क्योंकि आज सुबह ही उसके पति ने चाय की भरी प्याली उसके शरीर पर फेंकते हुए कहा था… ले आना जाकर अपना महिला सशक्तिकरण का सम्मान। चाहे घर कैसा भी हो।

पीछे से माया की आवाज आ रही थी…सुना मेमसाहब वह मेरा मरद मेरे लिए सम्मान पत्र नहीं लाया, परंतु आज सिनेमा की दो टिकट लाया है।

हम आज सिनेमा देखने जाएंगे। अच्छा मैं जल्दी-जल्दी काम निपटा लेती हूँ। बाकी का काम  कल कर लेगी। मेरी कोरी साड़ी मेरे मोहल्ले वाले भी देखेंगे। मैं तो चुपचाप पहन कर आ गई थी। अब जाकर बताऊंगी कि आज महिला दिवस है।

मेमसाहब सोच में पड़ गई.. कैसा और कौन सा सम्मान मिलना चाहिए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – फ्लाइंग किस ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  फ्लाइंग किस)

☆ लघुकथा – फ्लाइंग किस ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

कवि खंडहर देखते-देखते थक गया तो एक पत्थर पर जा बैठा। पत्थर पर बैठते ही उसे एक कराह जैसी चीख़ सुनाई दी। उसने उठकर इधर-उधर देखा। कोई आसपास नहीं था। वह दूसरे एक पत्थर पर जा बैठा। ओह, फिर वैसी ही कराह! वह चौंक गया और उठकर एक तीसरे पत्थर पर आ गया। वहाँ बैठते ही फिर एक बार वही कराह! कवि डर गया और काँपती आवाज़ में चिल्ला उठा, “कौन है यहाँ?”

“डरो मत। तुम अवश्य ही कोई कलाकार हो। अब से पहले भी सैंकड़ों लोग इन पत्थरों पर बैठ चुके हैं, पर किसी को हमारी कराह नहीं सुनी। तुम कलाकार ही हो न!”

“मैं कवि हूँ। तुम कौन हो और दिखाई क्यों नहीं दे रहे हो?”

“हम दिखाई नहीं देते, सिर्फ़ सुनाई देते हैं। हम गीत हैं- स्वतंत्रता, समता और सद्भाव के गीत। हम कलाकारों के होठों पर रहा करते थे। एक ज़ालिम बादशाह ने कलाकारों को मार डाला। उनके होठों से बहते रक्त के साथ हम भी बहकर रेत में मिलकर लगभग निष्प्राण हो गये। हम साँस ले रहे हैं पर हममें प्राण नहीं हैं। हममें प्राण प्रतिष्ठा तब होगी जब कोई कलाकार हमें अपने होठों पर जगह देगा। क्या तुम हमें अपने होठों पर रहने दोगे कवि?”

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 136 ☆ लघुकथा – थाप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा थाप। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 136 ☆

☆ लघुकथा – थाप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

दिन भर मशीन की तरह वह एक के बाद एक घर के काम निपटाती जा रही थी। उसका चेहरा भावहीन था, सबसे बातचीत भले ही कर रही थी पर आवाज में कुछ उदासी थी। जैसे मन ही मन झुंझला रही हो। उसके छोटे भाई की शादी थी। घर में हँसी -मजाक चल रहा था लेकिन वह उसमें शामिल नहीं हो रही थी, शायद वह वहाँ रहना ही नहीं चाहती थी।‘कुमुद ऐसी तो नहीं थी, क्या हो गया इसे?’ मैंने उसकी अविवाहित बड़ी बहन से पूछा।‘अरे कोई बात नहीं है, बहुत मूडी है‘ कहकर उसने बात टाल दी। मुझे यह बात खटक रही थी कि शादी लायक दो बड़ी बहनों के रहते छोटे भाई की शादी की जा रही है। कहीं कुमुद की उदासी का यही तो कारण नहीं? लड़कियाँ खुद ही शादी करना ना चाहें तो बात अलग है पर जानबूझकर उनकी उपेक्षा करना? खैर छोड़ो,दूसरे के फटे में पैर क्यों  अड़ाना।

शादी के घर में रिश्तेदारों का जमावड़ा था। महिला संगीत चल रहा था और साथ में महिलाओं की खुसपुसाहट भी – ‘जवान बहनें बिनब्याही घर में बैठी हैं और छोटे भाई की शादी कर रहे हैं माँ–बाप। बड़ी तो अधेड़ हो गई है, पर कुमुद के लिए तो देखना चाहिए।‘  ढ़ोलक की थाप के साथ नाच –गाने तो चल ही रहे थे, निंदा रस भी खुलकर बरस रहा था। ‘अरे कुमुद! अबकी तू उठ,बहुत दिन से तेरा नाच नहीं देखा, ससुराल जाने के लिए थोड़ी प्रैक्टिस कर ले’ –बुआ ने हँसते हुए कहा। ‘भाभी अब कुमुद के लिए लड़का देखो, नहीं तो यह भी कोमल की तरह बुढ़ा जाएगी नौकरी करते- करते,फिर कोई दूल्हा ना मिलेगा इसे। ढ़ोलक की थाप थम गई और बात चटाक से लगी घरवालों को। नाचने के लिए उठते कुमुद के कदम मानों वहीं थम गए लेकिन चेहरा खिल गया। ऐसा लगा मानों किसी ने तो उसके दिल की बात कह दी हो। वह उठी और दिल खोलकर नाचने लगी।

कुमुद की माँ अपनी ननदरानी से उलझ रही थीं– ‘बहन जी! आपको रायता फैलाने की क्या जरूरत थी सबके सामने यह सब बात छेड़कर। इत्ता दान दहेज कहाँ से लाएं दो-दो लड़कियों के हाथ पीले करने को। ऐरे – गैरे घर में जाकर किसी दूसरे की जी- हजूरी करने से तो अच्छा है अपने छोटे भाई का परिवार पालें। छोटे को सहारा हो जाएगा, उसकी नौकरी भी पक्की ना है अभी। कोमल तो समझ गई है यह बात,पर इस कुमुद के दिमाग में ना बैठ रही। खैर समझ जाएगी यह भी’ —

ढ़ोलक की थाप और तालियों के बीच इन सब बातों से अनजान कुमुद मगन मन नाच रही थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ बाल कथा- रहस्यमयी संदूक ☆ इंजी. ललित शौर्य ☆

इंजी. ललित शौर्य

साहित्यिक परिचय

समकालीन हिंदी बाल साहित्य में जो नाम अत्यंत प्रभावी स्तर पर दस्तक दे रहे है, उनमें इंजी. ललित शौर्य अत्यंत उल्लेखनीय है। मुवानी, पिथौरागढ़, उत्तराखंड में 16 जून 1990 को जन्में इंजी. ललित शौर्य की अभिरुचि अध्ययन काल से ही साहित्य में रही है। ललित ने बरेली से बीटेक किया है। श्री जगत सिंह राठौर एवं श्रीमती द्रोपदी राठौर के सुपुत्र इंजी. ललित शौर्य ने कालान्तर में बाल-साहित्य को अपनी रचनाशीलता का केंद्र बनाया और पिछले पांच वर्षों से लगातार लेखन के साथ इस क्षेत्र की श्रीवृद्धि करते आ रहे हैं। उनकी अनेक कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं और लोकप्रियता हासिल करती रही हैं। इसमें बाल भारती, चम्पक, नंदन, देवपुत्र, साहित्य अमृत, बाल किलकारी, बालभूमि, बाल भास्कर, बच्चों का देश, बाल प्रहरी, बच्चों की प्यारी बगिया, उजाला, हंसती दुनिया, वात्सल्य, बाल प्रभात, उदय सर्वोदय, आजकल , हरदौल वाणी, पर्वत पीयूष, प्रमुख हैं।  इसके अतिरिक्त प्रमुख समाचार पत्रों दैनिक जागरण, नई दुनिया, अमर उजाला, सहारा समय, हिंदुस्तान दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर आदि में भी नियमित रूप से उनके लेख, लघु कथाएं, व्यंग्य, बाल कहानियां प्रकाशित होती रहती हैं। उनकी बाल कहानी संग्रह ‘दादाजी की चौपाल’ एवं कोरोनाकाल में लिखा गया देश का पहला बाल कहानी संग्रह ‘कोरोना वॉरियर्स’ पर्याप्त चर्चित रहा। इसके अतिरिक्त उनके द मैजिकल ग्लब्ज, फॉरेस्ट वॉरियर्स, स्वच्छता ही सेवा, जल की पुकार, स्वच्छता के सिपाही, जादुई दस्ताने,  गंगा के प्रहरी, गुलदार दगड़िया, परियों का संदेश, बाल तरंग बाल कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। इंजी ललित शौर्य पूर्ण रूप से बाल साहित्य को समर्पित हैं। उन्होंने “ बच्चों को मोबाईल नहीं, पुस्तक दो” अभियान चलाया है। जिसके माध्यम से अब तक शौर्य विभिन्न माध्यमों से तीस हजार बच्चों तक बाल साहित्य वितरित कर चुके हैं।

बाल साहित्य के प्रति उनकी रचना सक्रियता को समय-समय पर विभिन्न साहित्यिक संगठनों ने सम्मानित किया है। इनमें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, भाऊ राव देवरस न्यास द्वारा प्रताप नारायण मिश्र युवा साहित्यकार सम्मान, माध्यम साहित्यिक संस्थान लखनऊ द्वारा ‘सारस्वत सम्मान’, बाल वाटिका पत्रिका का वैभव कालरा राष्ट्रीय बाल साहित्य सम्मान, राष्ट्रीय हिंदी परिषद मेरठ द्वारा ‘हिंदी भूषण सम्मान’, माँ सेवा संस्थान लखनऊ द्वारा ‘ ध्रूव सम्मान’, स्वदेशी जागरण मंच उत्तराखंड द्वारा ‘हिंदी सेवा रत्न सम्मान’, बाल प्रहरी द्वारा ‘साहित्य सृजन सम्मान’, राजा राममोहन सेवा आश्रम एवं पर्यावरण सोसायटी द्वारा ‘पर्यावरण मार्तण्ड’ प्रमुख हैं।

इंजी. ललित शौर्य अब तक उन्नीस किताबें लिख चुके हैं। जिनमें 12 बाल कहानी संग्रह, छ: साझा संकलनों का सम्पादन, एक व्यक्तिगत काव्य संग्रह ‘सृजन सुगन्धि’ सम्मिलित है।

1- अपने रचनाकर्म को क्यों अपनाया है?

उत्तर: लेखन में रुझान बचपन से ही रहा है। कहानियां, कविताएं पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता था, पढ़ने की आदत आज भी बनी हुई है। साथ ही लेखन कार्य भी सतत जारी है। मैं बाल कहानी लेखन में अधिक समय दे रहा हूँ। रचना कर्म अपनाने का मंतव्य यही है कि अधिक से अधिक बच्चों तक बाल साहित्य पहुंचा सकूं। आधुनिक मोबाइल वाली पीढ़ी के हाथों में बाल साहित्य की किताबें भी हूँ इसी उद्देश्य से कलम उठाई है। उसी ओर अग्रसर हूँ। अब तक मैंने मोबाइल नहीं, पुस्तक दो अभियान के तहत विभिन्न माध्यमों से 30 हजार से अधिक बच्चों तक बाल साहित्य पहुँचाने का प्रयास किया है।

2- आप भविष्य में इस क्षेत्र में क्या करना चाहते हैं और प्रबुद्ध पाठकों को क्या संदेश देना चाहते हैं?

उत्तर: बाल साहित्य में अभी करने को बहुत कुछ है। व्यक्तिगत रूप से मुझे अभी बहुत कुछ सीखना। मैं अभी बाल कहानियां, बाल एकांकी , बाल कविताएं लिख रहा हूँ। भविष्य में बाल उपन्यास लिखने का भी मन है।

बाल साहित्यकारों के पाठक प्रायः बच्चे होते हैं।(वैसे तो बड़े भी बाल साहित्य बड़े चाव से पढ़ते हैं।) बच्चों के लिए यही संदेश है कि अधिक से अधिक बाल साहित्य पढ़ें। इससे उनके भीतर पढ़ने और सीखने की आदत विकसित होगी। जो उनके स्वर्णिम भविष्य के लिए मददगार साबित होगी।

☆ बाल कथा- रहस्यमयी संदूक ☆ इंजी. ललित शौर्य

चंपकवन में रहस्यमयी संदूक की बात जंगल की आग की तरह फैल चुकी थी। सभी जानवर उस संदूक को देखने के लिए उत्सुक थे। नदी किनारे पड़ा वह संदूक आठवां अजूबा बन चुका था।

“मुझे तो वह संदूक जादुई जान पड़ता है। ना बा ना मैं तो उसके पास बिल्कुल भी नहीं जाऊंगा। उसे पैर से छुउंगा भी नहीं। ना ही अपनी प्यारी पूंछ के बाल उस पर लगने दूँगा। क्या पता उसे छूते ही मैं खरगोश बन जाऊं। फिर चीकू की तरह कान खड़े कर ईधर उधर भागना पड़े।” संदूक के पास खड़े जिफर घोड़े ने कहा।

“छूना तो मुझे भी नहीं है। क्या पता उसमें से कोई जादुई राक्षस निकले और उसके गुस्से से मैं घोड़ा बन जाऊं। फिर जिंदगी भर जिफर की तरह मुझे भी दुलत्ती चलानी पड़ेगी।” चीकू ने भी चुटकी ली।

“अरे तुम दोनों बहस करना छोड़ो। ये सोचो कि उस संदूक में आखिर क्या हो सकता है। कहीं उसमें खाने पीने की चींजें तो नहीं हैं। या फिर वह हीरे मोतियों से तो नहीं भरा हुआ है।” सिप्पी सियार बोला।

“ये भी हो सकता है। लेकिन हमें इन सबके सामने उस संदूक को नहीं खोलना है। जब सब यहां से चले जाएंगे तभी हम उसे हाथ लगाएंगे।” बैडी लोमड़ सिप्पी के कान में फुसफुसाया।

यह सुनकर सिप्पी की आंखों में चमक आ गई। उसने जोर से चिल्लाना शुरू किया, ” कोई भी इस संदूक को हाथ नहीं लगाएगा। इसमें कोई भूतिया चीज लगती है। या फिर गोला बारूद भी हो सकता है। सब इससे दूर रहेंगे। हम महाराज शेरसिंह को इस बारे में जानकारी देकर आते हैं। वही इस बात का निर्णय लेंगे की संदूक का क्या करना है।”

सभी जानवर यह बात सुनकर वहां से चले गए। सिप्पी और बैडी वहीं बने रहे। जब चारों ओर कोई नहीं बचा तो सिप्पी ने मौका देख बैडी से कहा, “खोलो संदूक।”

“मैं…मैं… कैसे खोलूं, तुम खोलो।” बैडी ने डरते हुए कहा।

“तुम ही तो बोल रहे थे इसमें हीरे मोती हो सकते हैं।” सिप्पी ने कहा।

“अगर राक्षस या फिर बारूद हुआ तो। मेरी हड्डियों का क्या होगा। मेरी तो यहीं समाधि लग जायेगी।” बैडी ने कहा।

“डरो नहीं। चलो मिलकर खोलते हैं। अगर कीमती सामान निकला तो अपना। नहीं तो संदूक यहीं छोड़कर भाग निकलेंगे।” सिप्पी ने संदूक की ओर बड़ते हुए कहा।

“रुको। किसी लकड़ी की सहायता से संदूक का दरवाजा खोलते हैं। हाथ लगाने का जोखिम उठाना ठीक नहीं है।” बैडी ने अक्लमंदी दिखाई।

बैडी और सिप्पी लकड़ी की सहायता से संदूक का दरवाजा खोलने लगे। बहुत प्रयासों के बाद दरवाजा खुला। दरवाजा खुलते ही उनकी आंखें फटी की फटी रह गई। उसमें  लंबी-लंबी जटाएं थी। कुछ कटे हुए सिर थे। संदूक खुलते ही बंद हो गया। एक जटा बक्से से बाहर निकल गई। बैडी यह सब देखकर थरथर कांपने लगा। सिप्पी की सिट्टी पिट्टी भी गुल हो गई। दोनों वहां से दुम दबाकर भागे। उन्होंने सारा हाल राजा शेर सिंह को बता दिया। शेर सिंह भी यह सुनकर चौंक पड़े। उन्होंने तुरंत सेनापति हेवी हाथी को बुलाया। उसे साथ लेकर संदूक को देखने चल पड़े। जब यह बात जंगल के अन्य जानवरों को पता चली तो वे भी साथ हो लिए। थोड़ी ही देर में शेर सिंह, हेवी जिफर, सिप्पी, चीकू, बैडी सभी जानवर उस संदूक के पास पहुंच गए। उन सबने भी संदूक पर लटकती जटा को देखा।

“ये जरूर किसी राक्षस की जटा है। संदूक खुलते ही वह नींद से जाग जाएगा। हमे इस सन्दूक को फौरन जंगल से बाहर कर देना चाहिए।” जिफर हिनहिनाते हुए बोला।

“पहली बार जिफर ने सही बात की है। कहीं इस सर कटे राक्षस ने हमारे सरों का भी फुटबॉल बना दिया तो बड़ी आफत आ जायेगी।” चीकू ने कहा।

सभी जानवर अपनी- अपनी राय रख रहे थे। राजा शेर सिंह और हेवी सभी को बड़ी ध्यान से सुन रहे थे।

अचानक शेर ने दहाड़ मारी। चारों ओर सन्नाटा छा गया। शेरसिंह ने कहा, “हेवी तुम कुछ सुझाव दो।इस संदूक का क्या करना है।”

हेवी ने मुस्कुराते हुए सूंड उठाते हुए कहा, “महाराज अभी इस संदूक का दरवाजा खोल देता हूँ दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा।”

“ठीक है। जल्दी करो।” शेरसिंह ने कहा।

हेवी ने जैसे ही संदूक का दरवाजा खोला तो सभी वहां से भागने लगे। लेकिन हेवी जोरजोर से हंसने लगा। उसने सूंड से एकएक कर संदूक में रखी चींजें बाहर निकाली। उसमें राक्षसों के मुखौटे, जटाएं, दाड़ी-बाल रखे हुए थे।

“महाराज लगता है। यह संदूक इंसानी बस्ती से यहां आया है। इसमें उनके द्वारा नाटक में प्रयोग किये जाने वाले मुखौटे हैं। कोई भूत या राक्षस नहीं है।”हेवी ने एक मुखौटा अपने माथे पर रखते हुए कहा।

यह देखकर शेर सिंह भी हंसने लगा। सभी जानवर वापस आ गए। सभी उन मुखौटों और जटाओं को अपने चेहरे पर लगाकर नाचने लगे। राजा शेरसिंह ने ऐलान किया इस बार  जंगल उत्सव में इन्हीं मुखौटों का प्रयोग कर के नाटक किया जाएगा। हेवी की सूझबूझ से संदूक का रहस्य खुल चुका था।

© इंजी. ललित शौर्य

साभार : श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “एक दूसरे गधे की आत्मकथा” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा –एक दूसरे गधे की आत्मकथा“.)

☆ लघुकथा – एक दूसरे गधे की आत्मकथा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

सुप्रसिद्ध कहानीकार कृष्णचंदर जी ने लिखी थी एक गधे की आत्मकथा। गधा हीरो बन गया था। कहानीकार ने गधे के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को आदमी से जोड़कर गधा विशेष बना दिया था।

गधे अमूमन गुरुजी की क्लास में पाए जाते हैं। बाप अपनी संतानों को गधे से संबोधित करते हैं। गधे आगे की सीढ़ी नहीं चढ़ पाए।

‘तुम तो गधे हो’ का तकिया कलाम सुनकर गधा मुस्कुरा कर आगे बढ़े जाता है।

एक दिन सुबह सुबह सब्जी भाजी लेने गया तो वहां गधे जी का जलवा देखने मिला। एक बड़ी सी भीड़ गधे साहब को घेरकर खड़ी थी। गधे साहब शान से भीड़ में गोल गोल घूम रहे थे।

गधे वाले ने गधे से पूछा सबसे बड़ा गधा कौन?

गधे ने दो तीन चक्कर लगाये और अपने मालिक के सामने खड़ा हो गया।

भीड़ तालियां बजा कर हंसने लगी। गधा भी मुस्कुरा रहा था।

गधे वाले ने पूछा-मोटा आदमी कौन?

गधे ने चक्कर लगाए और एक आदमी के सामने आकर खडा हो गया। आदमी जरूर सबसे मोटा था।

भीड ने तालियां बजा दी।

गधे वाले ने सबसे दुबला पतला कौन, सबसे कंजूस कौन पूछा जो गधे ने उन्हें भी  ढूंढ निकाला।

जमकर तालियां बजती रहीं।

अब गधे वाले ने पूछा – अपनी बीबी से पिटता कौन?

अजीब दृश्य था। भीड़ तितर बितर हो गई। लोग भाग खड़े हुए। पता नहीं किसके सामने आकर गधा खड़ा हो जाए और बड़े बेआबरु होकर तेरे कूचे से निकले हम वाली स्थिति बन जाए। मैं भी पतली गली से निकल गया।

कृष्णचंद्रर जी को क्या पता था कि इतने वर्षो बाद गधे के वंश में कोई ऐसा गधा पैदा होगा जो आदमी के कान काट लेगा।

मैंने बकाया गधे साहब के हाथ जोड़े और सब्जी भाजी लेने चला गया।

उस दिन की सुबह गधे के नाम थी। सुप्रभातम।

❤️

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 13 – खोट ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खोट।)

☆ लघुकथा – खोट ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अमित की मां शारदा को ऐसी नजरों से देखा रही थी जाने वह क्या करेगी ?

परंतु शारदा मां बेटे दोनों को इग्नोर करती हुई, गेट खोल कर ऑफिस चली गई। ‌

अमित की मां कमला सोफे के कवर ठीक करती हुई जोर से चिल्ला उठी “कैसी चंड़ी है? पता नहीं स्कूल में लड़कियों को क्या पढ़ाती होगी ? गालियां तो ऐसा देती है, इससे ठीक तो मोहल्ले के अनपढ़ हैं।

यह उच्च शिक्षा प्राप्त है और स्वयं को शिक्षिका कहती है।”

“अमित तुझको  सारे जमाने में बस यही लड़की मिली थी? इसी से शादी करने के लिए तू  मरा जा रहा था।” क्रोध में कमला ने अपनी बेटे को एक असहाय नजरों से देखती हुई फूट -फूट कर बच्चों की तरह रोने लगी। चश्मा उतार अपने बेटे को गले से लगा लिया ।

उसने कहा “बेटा तुझ में कोई खोट नहीं है, कोसने का प्रश्न ही कहां उठाता है पर तूने यह किस मिट्टी को चुन लिया?”

“कोई बात नहीं अपने मन को स्थिर रखो मां स्वयं में ही खोट निकालकर ही रंग रोगन करना पड़ेगा।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “धर्म की सासू माँ” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय लघुकथा –धर्म की सासू माँ“.)

☆ लघुकथा – धर्म की सासू माँ ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

‘आए थे हरि भजन को ओंटन लगे कपास।’ जैसी कहानी हमारे साथ घट गयी।

सुबह-सुबह  अच्छे मूड में घूमने निकले थे हम पति-पत्नी। रास्ते में एक मुसीबत गले पड़ गई।

एक अम्मा जी बीच राह रोते हुए मिल गई।

‘क्यों रो रही हैं माताजी’ – पत्नी ने संवेदना जताई।

अम्मा जी  बुक्का फाड़कर रोने लगी – मेरा घर गुम गया है बेटी। मेरा घर ढुंढ़वा दे। मैं तेरा एहसान कभी नहीं भूलूंगी। मैं अपना घर भूल गई हूं।

‘घर का पता बताइए अम्माजी।’ पत्नी ने पूछ लिया।

‘अपने बेटे के घर गांव से आई थी। सुबह-सुबह बिना बताए घूमने निकल पड़ी। शहर की गलियों में फंस कर रह गई हूं।’

‘बेटे का नाम बताइए और यह बताइए कि वह कहां काम करते हैं?’

‘बैंक में काम करता है मेरा बेटा और रामलाल नाम है उसका।’

पत्नी ने बैंक का नाम पूछा और वह तथाकथित अम्मा जी बैंक का नाम नहीं बता पाईं। वह अपने घर से कितनी दूर चली आई थी इसका भी उन्हें कोई अनुमान नहीं था। अम्मा जी पत्नी को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी। मैं उन दोनों को वहीं छोड़कर अपने ऑफिस चला गया।

——–

शाम को घर लौटा तो बैठक में चाय भजिया का नाश्ता चल रहा था। वही अम्माजी विराजमान थी। खुश खुश दिखाई दे रही थीं।

बच्चे नानी मां नानी मां कहकर अम्मा जी से लिपटे चले जा रहे थ। यह चमत्कार से कम नहीं था।

‘लो दामाद जी आ गए’ – कहकर अम्मा जी ने घूंघट कर लिया।

पत्नी बोली – बमुशिकल अम्मा जी का घर ढूंढ पाई मैं और अम्मा जी ने मुझे धर्म की बेटी मान लिया है। इस तरह आप जमाई बाबू बन गए हैं।’

‘अब कुछ दिन वह अपनी बेटी के घर रहने चली आई हैं। मुझे एक कीमती साड़ी भी भेंट कर दी है उन्होंने। क्या पता था कि अम्मा जी अपने पीछे वाली लाइन में ही रहती है।’

मुझे पत्नी जी के पेशेन्स की प्रशंसा करनी पड़ी। उनकी मां नहीं थी और मुझे धर्म की सासू मां मिल गई थी। जैसे मुझे धर्म की सासू मां मिली, सभी को मिले।

❤️

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 135 ☆ लघुकथा – जिज्जी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘जिज्जी’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 135 ☆

☆ लघुकथा – जिज्जी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

किसी ने बड़ी जोर से दरवाजा भड़भड़ाया, ऐसा लगा जैसे कोई दरवाजा तोड़ ही देगा, ‘अरे! जिज्जी होंगी, सामने घर में रहती हैं, बुजुर्ग हैं। हमारे सुख-दुख की साथी हैं, जब से शादी होकर आई हूँ इस मोहल्ले में, माँ की तरह मेरी देखभाल करती रही हैं। सीढ़ी नहीं चढ़ पातीं इसलिए नीचे खड़े होकर अपनी छड़ी से ही दरवाजा खटखटाती हैं’–सरोज बोली। यह सुनकर मैं मुस्कराई कि तभी आवाज आई – ‘तुम्हारी दोस्त आई है तो हम नहीं मिल सकते क्या? हमसे मिले बिना ही चली जाएगी?’

‘नहीं जिज्जी, हम उसे लेकर आपके पास आते हैं।‘

‘लाना जरूर’, यह कहकर जिज्जी छड़ी टेकती हुई अपने घर की ओर चल दीं। पतली गली के एक ओर सरोज और दूसरी ओर उनका घर। दरवाजे पर खड़े होकर भी आवाज दो तो सुनाई पड़ जाए। गली इतनी सँकरी कि दोपहिया वाहन ही उसमें चल सकते थे। गलती से अगर गली में गाय-भैंस आ जाए फिर तो उसके पीछे-पीछे गली के अंत तक जाएं या खतरा मोल लेकर उसके बगल से भी आप जा सकते हैं।

सरोज बोली– ‘जिज्जी से मिलने तो जाना ही पड़ेगा, नहीं तो बहुत बुरा मानेंगी।‘ हमें देखते ही वह खुश हो गईं, बोली – ‘आओ बैठो बिटिया’। सरोज भी बैठने ही वाली थी कि वह बोलीं – ‘अरे तुम बैठ जाओगी तो चाय-नाश्ता कौन लाएगा? जाओ रसोई में।’ ‘हाँ जिज्जी’ कहकर वह चाय बनाने चली गई। जिज्जी बड़े स्नेह से बातें करे जा रही थीं और मैं उन्हें देख रही थी। उम्र सत्तर से अधिक ही होगी, सफेद साड़ी और सूनी मांग उनके वैधव्य के सूचक थे। सूती साड़ी के पल्ले से आधा सिर ढ़ँका था जिसमें से सफेद घुंघराले बाल दिख रहे थे। गाँधीनुमा चश्मे में से बड़ी-बड़ी आँखें झाँक रही थीं। झुर्रियों ने चेहरे को और भी ममतामय बना दिया था। बातों ही बातों में जिज्जी ने बता दिया कि बेटियां अपने घर की हो गईं और बेटे अपनी बहुओं के। सरोज तब तक चाय, नाश्ता ले आई, उसकी ओर देखकर बोलीं- ‘हमें अब किसी की जरूरत भी नहीं है, डिप्टी साहब (उनके पति) की पेंशन मिलती है और ये है ना हमारी सरोज, एक आवाज पर  दौड़कर आती है। बिटिया हमारे लिए तो आस-पड़ोस ही सब कुछ है।‘

‘जिज्जी, बस भी करिए अब, बीमारी -हारी में आप ही तो रहीं हैं हमारे साथ, मेरे बच्चे इनकी गोद में बड़े हुए हैं, जगत अम्माँ हैं ये —-‘ सरोज और जिज्जी एक दूसरे की कुछ भी ना होकर, बहुत कुछ थीं। कहने को ये दोनों पड़ोसी ही थीं, जिज्जी का स्नेहपूर्ण अधिकार और सरोज का सेवा भाव मेरे लिए अनूठा था। महानगर की फ्लैट संस्कृति में रहनेवाली मैं हतप्रभ थी, जहाँ डोर बेल बजाने पर ही दरवाजा खुलता है नहीं तो दरवाजे पर लगी नेमप्लेट मुँह चिढ़ाती रहती है। दरवाजा खुलने और बंद होने में घर के जो लोग दिख जाएं, बस वही परिचय। फ्लैट से निकले अपनी गाड़ियों में बैठे और चल दिए, लौटने पर दरवाजा खुलता और फिर अगली सुबह तक के लिए बंद।

मन ही मन बहुत कुछ समेटकर जब मैं चलने को हुई, जिज्जी छड़ी टेकती हुई उठीं – ‘हमारा बटुआ लाओ सरोज, बिटिया पहली बार हमारे घर आई है’, जिज्जी टीका करने के लिए बटुए में नोट ढ़ूंढ़ रही थीं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #161 – लघुकथा- प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “प्रायश्चित)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 161 ☆

☆ लघुकथा- प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

ए को जैसे ही पता चला बी बहुत बीमार है वह तुरंत उससे मिलने के लिए आई, “तू अपनी बहू को अमेरिका से यहां क्यों नहीं बुला लेती। वह तेरी इतनी सेवा तो कर ही सकती है।”

“वह गर्भ से है,” बड़ी मुश्किल से बी बिस्तर पर सीधे बैठते हुए बोली, ” उसने मुझे ही अमेरिका बुलाया था। ताकि मैं जच्चे-बच्चे की देखभाल कर सकूं।”

“ओह! मतलब वह नहीं आ पाएगी।”

“हां, उसकी मजबूरी है,” बी ने इशारा किया तो काम वाली लड़की चाय रख कर चली गई। तब तक ए अपने घर परिवार के दुख-सुख की बातें करती रही। तभी अचानक बी की दुखती रग पर हाथ चला गया, “काश! तूने मेरी बात मानी होती तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता,” ए ने कहा।

“हां यार, वह मेरी जीवन की सबसे बड़ी गलती थी,” बी ने कहा, “काश! मैंने उस समय भ्रूण हत्या न की होती तो आज मेरी बेटी भी तेरी तरह मेरी सेवा कर रही होती,” कहते हुए उसने अपने बड़े से घर को निहारा तथा काम वाली लड़की की ओर देखकर बोली, “क्या तुम मेरी बेटी बनेगी?”

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-06-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 12 – दलदल ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दलदल।)

☆ लघुकथा – दलदल ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

वह युवा शिक्षिका सभी लोगों को तिरंगे परिधान में देखकर एक गहन चिंता में खो गई और अचानक उसके मुंह से निकल गया-

” अरे आज 2 अक्टूबर है?”

गांधी जी के सादा जीवन और उच्च विचार से अवगत कराएंगे,इसी उधेड़बुन में वह जल्दबाजी में चल पड़ी।

चारों तरफ देश के प्रति सम्मान बिखरा पड़ा है,लेकिन अच्छा है  बापू आज नहीं है….. उनके नाम पर जाने क्या-क्या होता है?

स्कूल के सभागार में पहुंच गई।

वहाँ बापू की प्रतिमा पर फूलों के हार चढ़ाने के बाद  सभागृह में सभी उपस्थित लोगों ने भाषण दिया।

शाकाहारी को भोजन हर सार्वजनिक स्थल पर मिलना चाहिए। मांसाहार की दुकानों को बंद करवाने की सफलता का गुणगान में रत।

चारों तरफ जश्न…लाउडस्पीकर पर देशभक्ति, बापू-भक्ति के गाने।

बापू के सिद्धांतों को प्रतिपादित करते हुए 3 बच्चे नजर आए,

बुरा मत देखो बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो की मुद्रा में बैठे थे।

क्या इन बच्चों को इसका मतलब समझ आ रहा है, उसे देखकर  अच्छा भी लगा और हंसी भी आ गई।

क्या यह आज के युग में संभव है?

सभा समाप्त हुई।

रास्ते में उसे सभागृह में उपस्थित जो व्यक्ति उपदेश दे रहे थे वही व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर एक-दूसरे पर लाठी ताने, गाली दे रहे थे ।

कानों में लाउडस्पीकर शोर उड़ेल रहा था –

दे दी हमें आजादी

बिना खड्ग, बिना ढाल…!

गांधीजी के स्वच्छ भारत और नशा मुक्ति अभियान को क्या जनमानस समझ पाएगा!

अरे! यह क्या?

मैं यह कहां फंस गई…

गाड़ी को क्या हो गया?

देश भी तो धार्मिक, जातिवाद, गरीबी, अशिक्षा, सामाजिक कुरीतियों के बंधन में जकड़ा हैं।

मैंने तो अपनी गाड़ी को इस दलदल से निकाल लिया …

भारतवर्ष इस दलदल से कैसे निकलेगा….?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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