हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – आकांक्षा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता ‘ऐसे पुरुष महान बनो…‘।)

☆ लघुकथा – आकांक्षा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆ 

(देश की रक्षा कर रहे, बेटे ने सीमा से, अपनी बूढ़ी मां को खत लिखा,  जो दिवाली के दिन उन्हें मिला…)

मां,

     चरण स्पर्श,

मैं ठीक हूं, आप कैसी हैं, इस बार दिवाली पर घर आने को लिखा था,  पर छुट्टियां रद्द हो गईं, इसलिए नहीं आ पाया, आप ने फसल का बताया था, आदमी न मिलने के कारण नहीं कट पाई है, आप दौड़ धूप नहीं कर पा रही हैं, इसलिए मजदूर नहीं मिल पाए, कोई बात नहीं मां, परेशान मत होना, अपनी सेहत का ख्याल रखना, अभी मेरी ड्यूटी बॉर्डर पर बनी चौकी में है, आप सब देश के दिवाली मना रहे हो,  मां,  हम तो,  दिया भी नहीं जला सकते, यहां, , क्योंकि रोशनी में दुश्मन हमारी लोकेशन का पता लगा लेगा, इसलिए हम अंधेरे में रहकर ही प्रकाश पर्व की कल्पना कर रहे हैं, मां, पता नहीं ये क्यों लड़ते हैं, सब इंसान ही तो हैं, पर एक दूसरे के लहू के प्यासे, बिना किसी दुश्मनी के कारण भी दुश्मन हैं, यहां की तो हवाओं में भी बारूद की गंध आती है, और गोला बारूद के धमाकों की आवाज दिवाली के पटाखों का भ्रम पैदा करते हैं,  

मां, दुश्मन की भी तो मां होगी न, वो भी तेरे जैसा ही सोचती होगी न, अपने बेटे की लंबी उम्र की कामना करती होगी, पर पता नहीं किसकी कामना ईश्वर मंजूर करें, तुम्हारी या दुश्मन के मां की,

अच्छा मां, गोलियां चल सकती हैं,  रखता हूं,

अगर तुम्हारी कामना मंजूर हुई तो जल्दी ही आऊंगा..

                                             तुम्हारा बेटा..

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – उसके रहने से – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– उसके रहने से –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — उसके रहने से — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

मैं एक दिन विश्व व्यापी शब्द स्रष्टा की कल्पना कर रहा था। बड़ा मन भावन लग रहा था। शब्द स्रष्टा ने अपनी एक निराशा के कारण भगवान से कहा, “मुझे ले चल भगवन।” भगवान ने कहा, “शब्द स्रष्टा के चले जाने से सृष्टि उदास हो जायेगी।” शब्द स्रष्टा यह सुनने पर संभल गया। वह गया नहीं। सचमुच उसके रहने से आज भी धरती और आकाश के आंगन हरे भरे हैं।
***
© श्री रामदेव धुरंधर
30 – 10 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 210 ☆ लघुकथा – धनतेरस ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय लघु कथा धनतेरस…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 210 ☆

☆ लघुकथा – धनतेरस ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते?त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।

‘क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।’ उसने कहा।

‘मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?’ कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।

ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: ‘ये मेरे लिए?’ मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। ‘मैं जाऊँ?’ शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। ‘जाकर अपनी झोपड़ी, कपड़े और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।

‘क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो’ पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे फेंके कचरे को बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।

‘हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस’ कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था थोड़ा सा चन्द्रमा।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१.१०.२०२४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 45 – खोकर पाया…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खोकर पाया।)

☆ लघुकथा # 45 – खोकर पाया श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

 मां तुम कैसी हो कन्या खिलाना हो गया क्या-क्या बनाया तुम्हारे हाथ की खीर पुरी और सब्जी तो लाजवाब रहती है आज भी स्वाद मुझे याद आ रहा है। भाई भाभी यदि गुस्सा ना हो तो मैं आ जाऊं क्या है तुम कुछ बोल नहीं रही हो?  कमल जी से सकते लग गई और उनकी आंखों से आंसू गिर रहा था बेटी ने सिसकी की आवाज सुनकर कहां मां क्या बात है तुम रो क्यों रही हो?  क्या भैया ने कन्या खिलाने के लिए पैसे नहीं दिए या मन कर दिया कोई दिक्कत है तो बताओ मैं आता हूं हम मंदिर चलेंगे?  बेटा मुझे सुबह 5:00 से अरुण मंदिर में छोड़कर चला गया और बोला मैं आऊंगा और पैसे दूंगा और यही तुम कन्या भोजन करना पंडित जी को तो हर नवरात्रि में हर साल बुलाती थी अब इस साल वही कन्या भोजन कारण और ऐसा कहकर वह चला गया गुस्से से और मेरा सारा सा मेरी दो अटैची भर के कपड़े भी यही रखकर चला गया बेटा।  मैं पंडित जी के पास गई पर पंडित जी ने भी मना कर दिया यहां रहने से और बोला कि मेरी बहन बहुत व्यस्त आए हैं आप अपने रहने की व्यवस्था कहीं और कर ले मुसीबत में किसी ने मेरा साथ नहीं दिया मैं जीवन से हार कर रोती हुई मंदिर की सीढ़िया में बैठी हूं। आज बेटा अपने पास बैठे भिखारी भी मुझे अमीर दिख रहे हैं सब अपने बच्चे और परिवार के साथ खुश है।  माता रानी की इतनी सालों की सेवा का मुझे यह पुण्य मिला है।  मां तुम चिंता मत करो तुम क्या उसी पुराने वाले अंबे मंदिर में हो मैं अभी आता हूं। कमल जी की बेटी माधुरी 1 घंटे बाद अपनी मां के पास पहुंचती है।  उनकी रो-रोकर सूजी आंखें देखकर वह मां को ऑटो रिक्शा में बैठने को बोलती। अचानक बा रोते हुए बोलती है बेटी रहने दो मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो हर किसी को अपने कर्म का दंड भोगना पड़ता है मैं भी अपने कर्म का दंड भोगूंगी । जब पिताजी घर और दुकान तुम्हारे भाई को दे रहे थे तब मुझे भी तुम्हें आधा हिस्सा देना चाहिए सब उसके हाथ पर सौंप दिया पिताजी के जाने के बाद तो उसके रंग-ढंग बदल गए घर कि मुझे नौकरानी बना के रखा कभी किसी से कुछ नहीं कहा लेकिन अब तो बेटा हद हो गई है अब अपने ही घर से मैं निकाल दी गई एक नौकर की तरह है आप किस मुंह से तुम्हारे और दामाद जी के पास जाऊं आज मुझे जीवन का असली जीवन का ज्ञान सब कुछ खोकर ही पाया …. और उनकी आंखों से आंसू बहने लगता है।

तब बेटी ने कहा मां कोई बात नहीं तुमने मुझे यह जाट में हिस्सा नहीं दिया तो क्या हुआ परवरिश तो तुमने ध्यान से की अब तुम सामाजिक सोच के कारण मजबूर रहोगे लेकिन मां बाप को पालने की जिम्मेदारी तो हम दोनों की है यदि भाई नहीं बोल देख रहा है तो क्या मैं भी उसकी तरह हो जाऊं और तुम्हारा आशीर्वाद से भगवान ने मुझे सब कुछ दिया है तुमने मुझे शिक्षा तो दी है ना मेरे लिए वही बहुत है अब तुम किसी बात की चिंता मत करो और मां का सामान अपने ऑटो रिक्शा में रखती है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – धनतेरस ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – लघुकथा – धनतेरस ??

इस बार भी धनतेरस पर चाँदी का सिक्का खरीदने से अधिक का बजट नहीं बचा था उसके पास। ट्रैफिक के चलते सिटी बस ने उसके घर से बाजार की 20 मिनट की दूरी 45 मिनट में पूरी की। बाजार में इतनी भीड़ कि पैर रखने को भी जगह नहीं। अलबत्ता भारतीय समाज की विशेषता है कि पैर रखने की जगह न बची होने पर भी हरेक को पैर टिकाना मयस्सर हो ही जाता है।

भीड़ की रेलमपेल ऐसी कि दुकान, सड़क और फुटपाथ में कोई अंतर नहीं बचा था। चौपहिया, दुपहिया, दोपाये, चौपाये सभी भीड़ का हिस्सा। साधक, अध्यात्म में वर्णित आरंभ और अंत का प्रत्यक्ष सम्मिलन यहाँ देख सकते थे।

….उसके विचार और व्यवहार का सम्मिलन कब होगा? हर वर्ष सोचता कुछ और…और खरीदता वही चाँदी का सिक्का। कब बदलेगा समय? विचारों में मग्न चला जा रहा था कि सामने फुटपाथ की रेलिंग को सटकर बैठी भिखारिन और उसके दो बच्चों की कातर आँखों ने रोक लिया। …खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।..गौर से देखा तो उसका पति भी पास ही हाथ से खींचे जानेवाली एक पटरे को साथ लिए पड़ा था। पैर नहीं थे उसके। माज़रा समझ में आ गया। भिखारिन अपने आदमी को पटरे पर बैठाकर उसे खींचते हुए दर-दर रोटी जुटाती होगी। आज भीड़ में फँसी पड़ी है। अपना चलना ही मुश्किल है तो पटरे के लिए कहाँ जगह बनेगी?

…खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।…स्वर की कातरता बढ़ गई थी।..पर उसके पास तो केवल सिक्का खरीदने भर का पैसा है। धनतेरस जैसा त्योहार सूना थोड़े ही छोड़ा जा सकता है।…वह चल पड़ा। दो-चार कदम ही उठा पाया क्योंकि भिखारिन की दुर्दशा, बच्चों की टकटकी लगी उम्मीद और स्वर में समाई याचना ने उसके पैरों में लोहे की मोटी सांकल बाँध दी थी। आदमी दुनिया से लोहा ले लेता है पर खुदका प्रतिरोध नहीं कर पाता।

पास के होटल से उसने चार लोगों के लिए भोजन पैक कराया और ले जाकर पैकेट भिखारिन के आगे धर दिया।

अब जेब खाली था। चाँदी का सिक्का लिए बिना घर लौटा। अगली सुबह पत्नी ने बताया कि बीती रात सपने में उसे चाँदी की लक्ष्मी जी दिखीं।

🙏 शुभ धन त्रयोदशी। 🙏

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 4:56 बजे, 25.10.2019 (धनतेरस)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 दीपावली निमित्त श्री लक्ष्मी-नारायण साधना,आश्विन पूर्णिमा (गुरुवार 17 अक्टूबर) को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी (मंगलवार 29 अक्टूबर) तक चलेगी 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ लक्ष्मी नारायण नम: 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – दुख का गणित – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– दुख का गणित  –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — दुख का गणित — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

निःसंतान बूढ़े पति – पत्नी अकसर रमी खेला करते थे। बीच – बीच में वे जान – बूझ कर हारते थे। एक दूसरे की खुशी के लिए वे ऐसा करते थे। पर ताश के पत्तों में जीत क्या, हार क्या ! वास्तव में दुख में होने से तो दुख ही अपने को दोहराता था। वे कभी – कभी दुख की भाषा में आपस में बोल लेते थे, “कम से कम एक संतान ने हमारा घर चुना तो होता !”
***
© श्री रामदेव धुरंधर

17 – 10 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा ☆ मौका पर चौका ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय लघुकथा – मौका पर चौका)

? लघुकथा ☆  मौका पर चौका ☆ श्री सुरेश पटवा ?

अनिरुद्ध सिंह पिछले तीन बार से पार्षद का चुनाव जीत रहे हैं, और हाई कमान के दरबार में लगातार विधायकी की अर्जी लगाते रहे हैं, लेकिन हर बार ख़ारिज हो जाती है। तीन महीने बाद चुनाव होने हैं।

उनकी पत्नी गौरांगी शिक्षा विभाग में उप-संचालक हैं। अनिरुद्ध सिंह अच्छी खासी कमाई कर लेते हैं। इस बार पार्टी फण्ड को भी सरसब्ज़ किया है। कुछ उम्मीद बंधी है। पत्नी ने दूध गर्म करके बैठक में इनके सामने तपीली रखते हुए कहा ‘आप तो पूरे समय मोबाइल पर बातों में उलझे रहते हैं, इतने व्यस्त तो प्रधानमंत्री भी नहीं रहते होंगे।’

अनिरुद्ध ने मोबाइल कान से हटा कर खीझते हुए पूछा ‘क्या करना है, ये बताओ जल्दी?’

गौराँगी तेजी से गाड़ी में बैठते हुए बोलीं – ‘सुनो, दूध अभी गरम है, ठंडा हो जाए तो फ्रिज में रख देना, नहीं तो बिल्ली चट कर जाएगी।’

गौरांगी के जाते ही, अनिरुद्ध ने मोबाइल कान से सटाकर बोलना शुरू किया – ‘हाँ भाई, अब बोलो, कौन है, कहाँ मिला है, बरामदी में क्या निकला है?’

तभी एक बिल्ली खिड़की की जाली खोलकर अंदर झांकने लगी। अनिरुद्ध ने उसे घूरकर देखा। हाथ से भगाने की कोशिश की, पर वह लगातार पतीली की तरफ़ देखे जा रही थी। उसी समय इत्तफ़ाक़ से एक मोटा चूहा उसके बाजू से निकला।

अनिरुद्ध मोबाइल पर बोले जा रहे हैं – ‘हाँ, तो यह वही है जो हमारे इलाक़े में नदी घाट से मछली मार कर ले जाता है। परंतु यह बताओ, उसकी मोटर साइकिल से प्रतिबंधित मांस निकला है, यह कैसे सिद्ध होगा।’

तभी बिल्ली दूध की पतीली से नज़र हटा चूहे की तरफ़ तेज़ी से झपटी और उसे पंजे में जकड़ लिया। अनिरुद्ध बिल्ली की तरफ़ से निश्चिंत हो गए।

अनिरुद्ध – ‘हाँ, तुम्हारा कहना सही है कि आरोप सिद्ध होने से हमें क्या लेना-देना। उसमें सालों लग जाएँगे। हमारा मतलब तो सिद्ध हो जाएगा। तुम एक काम करो, उसे रामप्रसाद चौराहे पर मय सबूतों के पहुँचो, हम पत्रकारों को लेकर आधा घंटा में वहीं मिलते हैं।

अगले दिन ख़ास-ख़ास अख़बारों में ख़बर थी ‘शहर के व्यस्त चौराहे पर प्रतिबंधित मांस सहित एक युवक गिरफ़्तार हुआ। बस्ती के सजग नागरिकों ने उसकी मरम्मत करके, पुलिस के हवाले कर दिया। सूत्रों के मुताबिक़ पुलिस तफ़तीस करके सबूत सहित कोर्ट में मुचलका पेश कर आरोपित की पुलिस कस्टडी लेगी।’

अनिरुद्ध मोबाइल को एक तरफ़ फेंक, सोफे पर पसर दार्शनिक मुद्रा में छत को निहारते हुए खुद से बोले, ‘साला, बिल्ली तक शिकार का मजा लेने को पतीली की सतह पर ज़मी दूध मलाई छोड़ देती है।’ वे छत पर एक छिपकली को कीड़े की घात लगाये देख रहे थे।

उसी समय मोबाइल की रिंग बजी। अनिरुद्ध को पार्टी मुख्यालय से खबर मिली कि ‘उन्हें दक्षिण क्षेत्र से विधायक की टिकट मिल गई है, मुकाबला चुनौतीपूर्ण होगा, तैयारी में ढील न हो।,

तभी अनिरुद्ध ने निर्निमेष दृष्टि से छत पर देखा, छिपकली ने गर्दन उठाकर एक झटके में कीड़े को निगल अपनी क्षुधा शांत कर ली।

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 44 – सोने के खेत…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – सोने के खेत।)

☆ लघुकथा # 44 – सोने के खेत श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

रामकिशोर ने अपनी पत्नी आशा से कहा-  इस बार हमारे खेत में गेहूं की फसल बहुत अच्छी हुई है।  भाग्यवान हमारे खेतों में सोना उगले है।

हम सभी की सारी इच्छाएं पूरी हो जाएगी तुम सब के लिए मैं बाजार से अच्छे-अच्छे कपड़े लेकर आऊंगा। बेटे की  कॉलेज की फीस अच्छे से भर सकेंगें। किसी से कर्ज भी नहीं लेना पड़ेगा।

जो भी तुम सामान खरीदना चाहोगी,मुझे बता दो मैं शहर से लेता आऊंगा। हरि शंकर के साथ ट्रैक्टर में अपनी सारी फसलें लादकर जा रहा हूं, शाम को तो मेरा इंतजार करना।

तुम्हारे लिए मैं शाम को चांदी की पायल लेकर आऊंगा और तुम छम छम कर कर मेरे लिए खेतों में रोटी लेकर आना।

पत्नी ने कहा मजाक मत करो।

तुम बस शहर से मेरे लिए एक सुंदर सी साड़ी ले आना।

रामकिशोर और हरिशंकर दोनों फसल बेचने के लिए मंडी में पहुंचते हैं।

फसल खरीदने के लिए कोई भी व्यापारी नहीं दिख रहे हैं।

फसल बेचने के लिए मंडी में कम से कम 100 लोगों की कतार लगी है।

उसने एक आदमी से पूछा की भैया इतनी भीड़ क्यों है और फसल खरीदने के लिए कोई व्यापारी नहीं दिख रहा है।

उस अनजान व्यक्ति ने कहा कि भैया मैं भी किसान हूं और अपनी फसल को अब लेकर घर की ओर जा रहा हूं और तुम भी चले जाओ यहां पर यह लोग कह रहे हैं ,कि अभी सरकार हमारा गेहूं नहीं खरीदेगी। अनाज की कीमतें तय होने के बाद ही व्यापारी और सरकारी आदमी अनाज खरीदेंगे।

इतना सुनते ही रामकिशोर हाथ पैर सुन्न पड़ गए और उसने  हरिशंकर से कहा-अब क्या होगा तुम्हारी ट्रैक्टर का में किराया कैसे दूंगा ?

ये 50 बोरे गेहूं लेकर कहां जाऊं।  इसी से मेरे घर का खर्च चलता…।

सारी उम्मीदें थी …।

उसकी आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया और वह सोचने लगा कि मैं अपने खेत को सोना बोलता हूं पर क्या करूं जाने कब हरि की कृपा दृष्टि होगी लेकिन अब लगता है कि सरकार की कृपा दृष्टि का इंतजार मेरे खेतों को भी करना पड़ेगा और मुझे भी…।

यह सोचते सोचते उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है और वह मूर्छित गिर पड़ता है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – जीने की राह… ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा जीने की राह

? लघुकथा – जीने की राह ? सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ?

9:25 की लोकल में आशा के विपरीत अमन को सीट मिल गई. वह बैठा ही था कि ताली पीटते हुए किन्नर रेशमा उसके सम्मुख आन खड़ी हुई- “क्या बात है अमन बाबू..  तीन-चार दिनों से दिखाई नहीं दिए… ”

“ हां, सर्दी बुखार हो गया था. वर्क फ्रॉम होम ही करता रहा. आप कैसे हो ?” अमन ने हमेशा की तरह अपनत्व जताते हुए कहा.

“ अच्छे हैं. आपको अच्छी खबर देनी थी इसलिए रोजाना आपका इंतजार करती रही….  ” रेशमा के चेहरे पर मुस्कुराहट भरी चमक उभर आई.

“हां बोलो ना… ” अमन के कहते ही वह उत्साहित हो बताने लगी- “आप हमेशा कहते थे ना कोई काम करो तो हमें काम मिल गया है. मैंने और कुसुम ने मिलकर चाय का ठेला लगा लिया है हम दोनों मिलकर चाय बनाते हैं मसाले वाली. शुरू में कुछ दिक्कतें आईं. लोग कन्नी काट निकल जाते थे. फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो गया. अब तो हमारी चाय को लोग बहुत पसंद कर रहे हैं. अच्छी बिक्री हो रही है. अब फुटपाथ, लोकल, रिक्शे की सवारियों को रोक कर पैसे मांगने का धंधा छोड़ दिया. बहुत जी ली लोगों की फटकार. ताने, मजाक, अश्लील इशारों से भरी जिल्लत भरी जिंदगी. अब किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे….. ” कहते रहते उसके चेहरे पर स्वाभिमान के भाव आ गए थे.

“ यह तो सचमुच बहुत खुशी की बात है… ” अमन ने 50 का नोट पर्स से निकाला तो रेशमा फ़ौरन बोली – “ बस अमन बाबू, आपने मेरी जो मदद की, मुझे जीने की राह दिखाई, सहयोग दिया वह कभी नहीं भूल सकती. इसी लोकल में हर व्यक्ति हमारी तरफ हिकारत से देखता था मानो हम इंसान ही नहीं. प्रकृति ने हमारे साथ अन्याय किया यह हमारा दोष तो नहीं ना ! पर आप सबसे अलग हो. हमारे दर्द को जाना, हमारी भावनाओं को समझा, हमें हमेशा कुछ मिनट का ही सही वक्त दिया, बातचीत की. एक दोस्त की तरह हमें समझाया, आर्थिक सहयोग दिया. मैंने तो यहां तक सुना मुझसे जब आप बातें करते थे लोग कहते थे – “ किसको मुंह लगा रहे हो ? तुम्हें नहीं पता ये लोग तुम्हारे पीछे ही पड़ जाएंगे..  ” कितनी हिकारत से हमें देखते थे. आप केवल मुस्कुरा देते थे.

फिर एक दिन आपने कह दिया था – “ वे भी तो इंसान हैं. क्या उन्हें इतना भी अधिकार नहीं कि हम लोगों से बातचीत कर सकें… अपने कुछ दर्द, परेशानियां हमें सुना कर अगर वे हल्कापन महसूस करते हैं तो उसमें क्या आपत्ति है… ? दस, बीस, पच्चीस, पचास रुपए उन्हें देने से हम गरीब तो नहीं हो जाएंगे. उनके पास आय का जरिया ही कहां है..  ? समाज को उनके बारे में भी तो सोचना चाहिए… ”  आपकी बातों का असर यह हुआ कि अब लोगों ने हिकारत से देखना छोड़ दिया था और हमारी आय भी बढ़ गई. फिर कुसुम के साथ सलाह की और चाय का ठेला लगाने की योजना बना ली. वह भी इस जिल्लत भरी जिंदगी से बहुत दुखी थी. हम दोनों बहुत खुश हैं… ”

अमन ने 50 का नोट उसके हाथ में थमाया – “ इसे रखो, तुम्हारी दुकान के लिए शगुन है. और हां, जब भी समय मिला मैं चाय पीने जरूर आऊंगा….  ” रेशमा ने अमन के सिर पर हाथ रख आशीर्वादों की झड़ी लगा दी. वह नखशिख तक उन दुआओं में भीगता रहा तृप्त होता रहा.

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 145 ☆ लघुकथा – दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘पर्दा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 145 ☆

☆ लघुकथा – दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कामवाली बाई अंजू ने फ्लैट में अंदर आते ही देखा कि कमरे में एक बड़ी – सी मशीन रखी है। ‘ दीदी के घर में रोज नई- नई चीजें ऑनलाईन आवत रहत हैं। अब ई कइसी मशीन है? ‘ उसने मन में सोचा। तभी उसने देखा कि साहब आए और उस मशीन पर दौड़ने लगे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सड़क पर तो सुबह – सुबह दौड़ते देखा है लोगों को लेकिन बंद कमरे में मशीन पर? साहब से तो कुछ पूछ नहीं सकती। वह चुपचाप झाड़ू –पोंछा करती रही पर कभी – कभी उत्सुकतावश नजर बचाकर उस ओर देख भी लेती थी। साहब तो मशीन पर दौड़े ही जा रहे हैं? खैर छोड़ो, वह रसोई में जाकर बर्तन माँजने लगी। दीदी जी जल्दी – जल्दी साहब के लिए नाश्ता बना रही थीं। साहब उस मशीन पर दौड़ने के बाद नहाने चले गए। दीदी जी ने खाने की मेज पर साहब का खाना रख दिया। साहब ने खाना खाया और ऑफिस चले गए।

अरे! ई का? अब दीदी जी उस मशीन पर दौड़ने लगीं। अब तो उससे रहा ही नहीं गया। जल्दी से अपनी मालकिन दीदी के पास जाकर बोली – ‘ए दीदी! ई मशीन पर काहे दौड़त हो? ‘

‘काहे मतलब? यह दौड़ने के लिए ही है, ट्रेडमिल कहते हैं इसको। देख ना मेरा पेट कितना निकल आया है। कितनी डायटिंग करती हूँ पर ना तो वजन कम होता है और ना यह पेट। इस मशीन पर चलने से पेट कम हो जाएगा तो फिगर अच्छा लगेगा ना मेरा’ – दीदी हँसते हुए बोली।

‘पेट कम करे खातिर मशीन पर दौड़त हो? ’ — वह आश्चर्य से बोली। ना जाने क्या सोच अचानक खिलखिला पड़ी। फिर अपने को थोड़ा संभालकर बोली – ‘दीदी ! कइसा है ना! आप लोगन पेट घटाए के लिए मशीन पर दौड़त हो और हम गरीब पेट पाले के खातिर आप जइसन के घर रात- दिन दौड़त रह जात हैं। एक घर से दूसरे घर, एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग —- ‘

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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