हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “यह घर किसका है ?” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “यह घर किसका है ?” ☆ श्री कमलेश भारतीय

(जिस लघुकथा को पढ़कर मित्र डॉ रामकुमार घोटड़ ने पूरा लघुकथा संग्रह संपादित कर डाला – विभाजन को लघुकथाएं, वही लघुकथा – यह घर किसका है ? – कमलेश भारतीय)

अपनी धरती , अपने लोग थे । यहां तक कि बरसों पहले छूटा हुआ घर भी वही था । वह औरत बड़ी हसरत से अपने पुरखों के मकान को देख रही थी । ईंट ईंट को , ज़र्रे ज़र्रे को आंखों ही आंखों में चूम रही थी । दुआएं मांग रही थी कि पुरखों का घर इसी तरह सीना ताने , सिर उठाये , शान से खड़ा रहे ।

उसके ज़हन में घर का नक्शा एक प्रकार से खुदा हुआ था । बरसों की धूल भी उस नक्शे पर जम नहीं पाई थी । कदम कदम रखते रखते जैसे वह बरसों पहले के हालात में पहुंच गयी । यहां बच्चे किलकारियां भरते थे । किलकारियों की आवाज साफ सुनाई देने लगीं । वह भी मुस्करा दी । फिर एकाएक चीख पुकार मच उठी । जन्नत जैसा घर जहन्नुम में बदल गया ।परेशान हाल औरत ने अपने कानों पर हाथ धर लिए और आसमान की ओर मुंह उठा कर बोली-या अल्लाह रहम कर । साथ खडी घर की औरत ने सहम कर पूछा-क्या हुआ ?

– कुछ नहीं।

– कुछ तो है। आप फरमाइए।

– इस घर से बंटवारे की बदबू फिर उठ रही है। कहीं फिर नफरत की आग सुलग रही है। अफवाहों का धुआं छाया हुआ है। कभी यह घर मेरा था। एक मुसलमान औरत का। आज तुम्हारा है। कल… कल यह घर किसका होगा ? इस घर में कभी हिंदू रहते हैं तो कभी मुसलमान। अंधेर साईं का, कहर खुदा का।  इस घर में इंसान कब बसेंगे???

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – रोटी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक लघुकथा ‘‘रोटी’’)

☆ लघुकथा – रोटी ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

एक पेड़ के नीचे बैठकर कुछ लोग रोटी चालीसा पढ़ रहे थे। पास ही में एक मलंग अपनी ढपली पर अपना राग सुना रहा था।

एक व्यक्ति बोला – जब से रोटी बनी है तब से वह अपने ही मूल स्वरूप में है, आकार प्रकार, लंबाई चौड़ाई, व्यास त्रिज्या, लगभग वही, थोड़ी बहुत ज्यादा थोड़ी बहुत कम।

दूसरा व्यक्ति बोला – स्पष्ट है कि उस लघु आकार रोटी में भूख है, वहशीपन, दरिंदगी है ,पागलपन गहरे बहुत गहरे तक छुपा है।

तीसरा व्यक्ति बोला-वही रोटी जब पेट में चली जाती है तब उमंग, सरलता, सौजन्यता, बुद्धि चातुर्य, साहित्य, कला, आनंद उत्सव ले आती है। रोटी जीवन है यार, इस असार संसार में रोटी वह नाव है जिससे जीवन नैया पार लगती है।

चौथा बोला – हां भाइयों, कितने रूप स्वरूप है रोटी के, जिसके भाग्य में जैसा रूप हासिल हो जाए, बड़ी कातिल होती है रोटी, इसने राजा हरिश्चंद्र को भी डोम की नौकरी करा दी थी।

सबकी बातें सुनकर मलंग बोला – बच्चों जरा मेरी और देखो, मेरे पास कुछ नहीं है। बिल्कुल फक्कड़ हूं, पर मुझे रोटी की कमी नहीं है। उस तरफ देखो एक महिला पत्तल में रोटी दाल लिए चली आ रही है।

उन लोगों को रोटी का गणित समझ के परे था।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #132 – लघुकथा – “चोर !” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “चोर !”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 132 ☆

☆ लघुकथा – “चोर !” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

नए शिक्षक ने शाला प्रांगण में मोटरसाइकिल घुसाईं, तभी साथ चल रहे पुराने शिक्षक ने बाथरूम के ऊपर बैठे लड़के की ओर इशारा किया, “सरजी! यह रोज ही शाला भवन पर चढ़ जाता है।”

“आप उसे उतारते नहीं है?”

“इसे कुछ बोलो तो हमारे माथे आता है, यह शासकीय बिल्डिंग है आपकी नहीं।” कहते हुए वे बाथरूम के पास पहुंच गए।

“क्यों भाई, ऊपर चढ़ने का अभ्यास कर रहे हो?” नए शिक्षक ने मोटरसाइकिल रोकते हुए लड़के से कहा। जिसे सुनकर वह अचकचा गया,”क्या!” वह धीरे से इतना ही बोल पाया।

“यही कि दूसरों के भवन पर चढ़ने-उतरने का अभ्यास कर रहे हो। अच्छा है यह भविष्य में बहुत काम आएगा।”

यह सुन कर एकटक देखता रहा।

“बढ़िया है। अभ्यास करते रहो। कमाना-खाने नहीं जाना पड़ेगा।”

“क्या कहा सरजी?” वह सीधा बैठते हुए बोला।

“यही कि रात-बिरात दूसरों के घर में घुसने के लिए यह अभ्यास काम आएगा।”

यह सुनते ही लड़का नीचे उतर गया। सीधा मैदान के बाहर जाते हुए बोला, “सॉरी सर!”

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-10-2021 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अविराम ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।

💥 माँ सरस्वती साधना 💥

 बीज मंत्र है,

।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।

यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – अविराम ??

सुनो, बहुत हो गया यह लिखना-लिखाना। मन उचट-सा गया है। यों भी पढ़ता कौन है आजकल?….अब कुछ दिनों के लिए विराम। इस दौरान कलम को छूऊँगा भी नहीं।

फिर…?

कुछ अलग करते हैं। कहीं लाँग ड्राइव पर निकलते हैं। जी भरके प्रकृति को निहारेंगे। शाम को पंडित जी का सुगम संगीत का कार्यक्रम है। लौटते हुए उसे भी सुनने चलेंगे।

उस रात उसने प्रकृति के वर्णन और सुगम संगीत के श्रवण पर दो संस्मरण लिखे।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 149 – विशाल भंडारा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है  जीवन में आनंद एवं सुमधुर आयोजन के महत्व को दर्शाती एक भावप्रवण लघुकथा विशाल भंडारा ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 149 ☆

🌺 लघुकथा 🌺 विशाल भंडारा 🌺

भंडारा कहते ही सभी का मन भोजन की ओर सोचने लगता है।

सभी प्रकार से सुरक्षित, साधन संपन्न, शहर के एक बहुत बड़े हाई स्कूल जहाँ पर छात्र-छात्राएं एक साथ (कोएड) पढ़ते थे।

हाई स्कूल का माहौल और  बच्चों का प्ले स्कूल सभी के मन को भाता था। गणतंत्र दिवस की तैयारियां चल रही थी। सभी स्कूल के टीचर स्टाफ अपने अपने कामों में व्यस्त थे।

गीत – संगीत का अलग सेक्शन था वहाँ भी बैंड और राष्ट्रीय गान को अंतिम रूप से दिया जा रहा था।

स्कूल में एक कैंटीन थी, जहाँ पर बच्चे और टीचर /स्टाफ सभी को पर्याप्त रूप से नाश्ते में खरीद कर खाने का सामान मिल जाता था।

स्कूल का वातावरण बड़ा ही रोचक और मनोरम था। किसी टीचर का जन्मदिन या शादी की सालगिरह या कोई अन्य कार्यक्रम होता।उस दिन  कैंटीन पर वह जाकर कह देते और पेमेंट कर सभी 150 से 200  टीचर / स्टाफ आकर अपना नाश्ता ले लेते और बदले में बधाईयों का ढेर लग जाता। शुभकामनाओं की बरसात होती। मौज मस्ती का माहौल बन जाता।

स्कूल में भंडारा कहने से बात हवा की तरह फैल गई। सभी खुश थे आज भंडारा खाने को मिलेगा। यही हुआ आज स्कूल स्टाफ के संगीत टीचर विशाल का जन्मदिन था।

विशाल शांत, सौम्य और संकोची स्वभाव का था। अपने काम के प्रति निष्ठा स्कूल के आयोजन को पूर्णता प्रदान करने में अग्रणी योगदान देता था।

विशाल का युवा मन कहीं कोई कुछ कह न  दे या किसी को मेरे कारण किसी बात से ठेस न पहुँचे, इस भावना से वह चुपचाप जाकर कैंटीन पर धीरे से वहां की आंटी को बोला…. “ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है, आज मेरा जन्मदिन है। सभी स्टाफ को मेरी तरफ से नाश्ता देना है।”

शांत, मधुर मुस्कान लिए विशाल ने जब यह बात कही। कैंटीन वाली आंटी ने पहले सोचा इसे सरप्राइज देना चाहिए। विशाल के वहाँ से निकलने के बाद वह सभी से कहने लगी भंडारा भंडारा भंडारा विशाल भंडारा सभी बड़े खुश हो गए।

किसी का ध्यान विशाल के जन्मदिन की ओर नहीं गया। बस यह था कि स्कूल से भरपूर भंडारा खाने का मजा आएगा। जो सुन रहा था वह खुशी से एक दूसरे को बता रहे थे।

पर कारण किसी को पता नहीं था। अपने कामों में व्यस्त विशाल के पास उसका अपना दोस्त दौड़ते आया और कहने लगा… “सुना तुमने आज विशाल भंडारा होने वाला है।” जैसे ही विशाल ने सुना पियानो पर हाथ रखे उंगलियां एक साथ बज उठी और तुरंत वहाँ से उठकर चल पड़ा। ‘चल चल चल’ दूसरी मंजिल से जल्दी-जल्दी सीढ़ियां उतरते विशाल ने देखा आंटी सभी को खुश होकर नाश्ता बांट रही थी, और कह रही थी विशाल का भंडारा है जन्मदिन की बधाइयाँ। सभी के हाथों पर नाश्ते की प्लेट और चेहरे पर मुस्कान थी।

अपने जन्मदिन का इतना सुंदर तोहफा, आयोजन पर विशाल गदगद हो गया। तभी बैंड धुन बजाने लगे हैप्पी बर्थडे टू यू। सारे स्टाफ के बीच विशाल अपना जन्मदिन मनाते सचमुच विशाल प्रतीत हो रहे थे। विशाल भंडारा सोच कर वह मुस्कुरा उठा। जन्मदिन की खुशियां दुगुनी हो उठी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – की-बोर्ड ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक प्रेरक एवं विचारणीय लघुकथा  “की-बोर्ड)

☆ लघुकथा – की-बोर्ड ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

“सर, आपके पास कोई पुराना की-बोर्ड पड़ा होगा तो दे देंगे मुझे?” ग्रुप ‘डी’ में नए आए दृष्टिबाधित कर्मचारी ने स्टोर-इंचार्ज संजय से कहा।

“क्या करोगे अरुण जी?” संजय ने पूछा।

“सर, टाइपिंग के अभ्यास के लिए चाहिए था। वो क्या है न सर, मुझे कंप्यूटर पर काम करना आता है, परन्तु यहाँ पर अभी ग्रुप ‘डी’ में मैं कंप्यूटर पर काम नहीं कर सकता। कहीं यह न हो कि कल को मेरी पदोन्नति के लिए परीक्षा हो और मैं बिलकुल ही भूल जाऊं, तो उसके अभ्यास करने के लिए एक की-बोर्ड लेना चाहता था आपसे। भले ही पुराना और ख़राब ही दे दीजिये सर, मेरा काम चल जाएगा…,” अरुण ने स्पष्ट किया।

“अरुण जी, अभी तो है नहीं। दरअसल ख़राब की-बोर्ड वगैरह किसी काम नहीं आते तो हम रखते भी नहीं हैं अपने पास”, संजय ने कहा, “आगे कोई आएगा तो मैं दे दूंगा…।”

तभी पास बैठा नीरज बोल उठा, “अरुण जी, मुझसे ले लेना। मेरे पास पड़ा हुआ है एक पीस। कल ला दूंगा…।”

“धन्यवाद सर…,” कह कर अरुण चला गया।

नीरज संजय से कह रहा था, “अभी चार महीने पहले अपना की-बोर्ड बदलवाया था। तेरी भाभी फैंकने लगी थी कूड़े में तो मैंने यूं ही रोक दिया था कि पड़ा रहने दो, शायद काम आ जाए। हालांकि वह नाराज़ भी हो रही थी कि यूं ही कबाड़ इकट्ठा हो जाएगा और मैं भी सोच रहा था कि भला क्या काम आएगा? पर अब मुझे ख़ुशी हो रही है कि यह किसी के काम आ जाएगा, और एक सबक भी मिला है कि हर बेकार चीज़ को हम काम में ला सकते हैं, सिर्फ पता होना चाहिए कि उसका उपयोग कहाँ और कैसे होना है?”

“और यह भी कि कोई चीज़ जो हमारे लिए अनुपयोगी या खराब है, हो सकता है किसी दूसरे के लिए बहुत उपयोगी या काम की हो”, संजय ने भी मुस्कुरा कर सहमति जता दी।

***

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 110 ☆ लघुकथा – कँगुरिया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक लघुकथा ‘कँगुरिया’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 110 ☆

☆ लघुकथा – कँगुरिया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

ए बहिनी!  का करत हो? 

कुछ नाहीं, आपन  कँगुरिया से बतियावत  रहे।

का!  कउन कंगुरिया? इ कउन है? 

‘नाहीं समझीं का ‘? सुनीता हँसते हुए बोली।

अरे! हमार कानी उंगरिया, छोटी उंगरिया — 

अईसे बोल ना, हमका लगा तुम्हार कऊनों पड़ोसिन बा (दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं)।

कानी उंगरिया से कऊनों बतियावत है का?

अब का बताई  छुटकी! कंगुरिया जो कमाल किहेस  है, बड़े-बड़े नाहीं  कर सकत। उसकी हँसी रुक ही नहीं रही थी।

अईसा का भवा? बतउबो कि नाहीं?  हँसत रहबो खाली पीली, हम रखत हैं फोन – छुटकी नाराज होकर बोली।

अरे! तुम्हरे जीजा संगे हम बाजार गए रहे मोटरसाईकिलवा से। आंधर रहा, गाड़ी गड़्ढवा  में चली गइस अऊर हम गिर गए। बाकी तो कुछ नाहीं भवा, हमरे सीधे हाथ की कानी उंगरिया की हड्डी टूट गइस। अब घर का सब काम रुक गवा( हँसते हुए बताती जाती है)। घर मा सब लोग रहे तुम्हार जीजा, दोनों बेटेवा, सासु–ससुरा।  हमार उंगरिया मा प्लास्तर, अब घर का काम कइसे होई?  घरे में रहे तो सब, कमवा कऊन करे?  एही बरे रोटी बनावे खातिर  एक कामवाली,  कपड़ा तो मसीन से धोय लेत हैं पर  झाड़ू – पोंछा और बासन  सबके लिए नौकरानी लगाई गई।

देख ना! हमार ननकी  कंगुरिया का कमाल किहेस!

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दुर्लभ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।

💥 माँ सरस्वती साधना 💥

सोमवार 16 जनवरी से माँ सरस्वती साधना आरंभ होगी। इसका बीज मंत्र है,

।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।

यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – दुर्लभ ??

स्कूल में पढ़े साथी वर्षों बाद मिले।

….आजकल क्या चल रहा है.., हरेक को दूसरे का वर्तमान जानने की जिज्ञासा थी।

….मैंने प्राइम लोकेशन पर तीन प्लॉट कटवाए हैं.., एक ने कहा।

…मैंने शहर के सबसे महंगे सिटी स्क्वेयर में एक दुकान और एक ऑफिस खरीदा है.., दूसरे ने बताया।

…माँ-बाप के समय का वह पुश्तैनी कमरा और बस्ती बरसों पहले छोड़ दी मैंने। अब अपना आलीशन बंगला है.., अहंकार मिश्रित स्वर में तीसरे ने जानकारी दी।

…लक्जरी कारें खरीदना मुझे हमेशा से पसंद था। अब मेरी गैराज में हर प्रसिद्ध कार मौजूद है.., सीना फुलाकर चौथे ने घोषणा की।

….और तू सुना। तू तो बड़ा पढ़ाकू था। ख़ूब कमाया होगा। तेरी प्रॉपर्टी हम सबसे ज़्यादा होगी।

…कम-ज्यादा मुझे नहीं पता पर मैंने अपनी कमाई से दुर्लभ पुस्तकें खरीदी हैं.., उसने कहा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 148 – मोहन-विहार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक शिक्षाप्रद लघुकथा “मोहन-विहार ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 148 ☆

🌺 लघुकथा 🏠 मोहन-विहार 🏠

पूरन सिंह खेत में काम कर रहे थे। मटर तोड़ा जा रहा था। काफी एरिया में फैला हुआ खेत, बारहों महीने कुछ ना कुछ फसल लगी होती थी। आज मकर सक्रांति पर सुबह – सुबह तैयार होकर वह खेत पर आ चुके थे।

उनके अपने दोनों बेटे बहू के आपसी मतभेद के कारण उनका अपना घर ‘मोहन-बिहार’ दो भागों में बंट चुका था। कान्हा जी के अनन्य भक्त थे। वह नहीं चाहते थे कि घर में किसी प्रकार का कोई कलह बने।

किसी बात को लेकर कहा सुनी हो गई थी। दोनों भाइयों में मनमुटाव हो गया था। खेत में बैठकर वह अपने भगवान कान्हा जी का भजन सुन रहे थे और धीरे-धीरे मटर तोड़ रहे थे।

उन्होंने देखा कि थोड़ी दूर से छोटी बहू घूंघट निकाल हाथों में झोला लिए खेतों की ओर चली आ रही है। आकर बोली… “बाबूजी खिचड़ी लाई हूं प्रसाद के रूप में खा लीजिए।” थाली पर निकाल ही रही थी कि बड़ी बहू जल्दी-जल्दी हांफते हुए आई और आते ही कहने लगी…. “मैंने अब आप की पसंद से खिचड़ी बनाई है, बाबूजी इस डिब्बे से खाइए।”

पूरन सिंह ने कहा…. “हाँ – हाँ थाली ले आओ।” थाली में एक कोने पर थोड़ी सी खिचड़ी बड़ी बहू की ले लिया और एक कोने पर छोटी बहू की थोड़ी सी खिचड़ी ले लिया, और दोनों को एक- एक बार खाने लगे।

परंतु यह क्या? बाबू जी ने कहा… “खिचड़ी में बिल्कुल भी स्वाद नहीं है समझ नहीं आ रहा है किस चीज की कमी हुई है।”

बहुएं कहने लगी… “मैंने  तो बहुत ध्यान से नमक दाल का ख्याल रखा है मेरी खिचड़ी अच्छी होगी।”

दूसरी ने कहा “मैंने तो बहुत मेहनत से खिचड़ी बनाई है। खाकर भी देखी है, स्वाद बहुत अच्छा है कोई कमी नहीं है। सब कुछ सही डाला है। पिताजी.. मेरी लाई खिचड़ी खा लीजिए, खराब नहीं है।”

पिताजी ने कहा -” ठीक है”। तब तक बेटे भी आ चुके थे। खड़े-खड़े सब देख रहे थे। पिताजी ने थाली में एक चम्मच से दोनों खिचड़ी को इधर-उधर मिलाकर एक कर लिया और अपने जेब से घी की डिबिया निकालकर उस पर डालकर खाने लगे।

नीचे सिर करके ही बोले…. “अब खिचड़ी में स्वाद आ गया। चाहो तो तुम दोनों भी खा सकते हो।” दोनों बेटों ने देखा, आँखों से बातें हुई और पिता का आशय जानते ही दोनों ने तुरंत पिताजी की थाली के साथ बैठ खिचड़ी खाने लगे।

दोनों बहुओं का डिब्बा खिचड़ी मिला – मिला कर खाया गया और खत्म हो गया।

बहुएं जो अब तक एक दूसरे की तरफ पीठ किए खड़ी थी। एक दूसरे को गले लग कर मकर सक्रांति की बधाइयाँ दे रही थी और तिल के लड्डू को एक दूसरे को खिला रही थी। जो बात घर में समझाने पर भी बेटा बहू नहीं समझ रहे थे। आज पूरन सिंह ने खेतों में कर दिखाया और किसी की सहायता भी नहीं ली और काम बन गया। उनकी आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे और हंसते हुए बोले….. “मुझे भी कोई पूछेगा लड्डू खाने को।”

दोनों बहुओं ने एक थाली में अपने-अपने लड्डू डाल मिलाकर परोस दिये… कहा… “पिताजी कोई भी खा लीजिए मिठास एक जैसी ही आएगी।” यही तो चाहते थे पूरन सिंह ‘मोहन-विहार’ के लिए।  

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 170 ☆ “यश का नशा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं  विचारणीय कविता  – “यश का नशा”)

☆ लघुकथा # 170 ☆ “यश का नशा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

फेसबुक में उन्होंने धड़ाधड़ 5000 मित्र बना डाले, फिर उन्हें हर किसी की तस्वीर पर जल्दबाजी में टिप्पणी लिखकर यश कमाने का भूत सवार हो गया। मोबाइल में जल्दबाजी में हिंदी में टायपिंग करना और चैक नहीं करना कभी कभी लठ्ठ पड़वा देता है। किसी ने अपनी पत्नी के साथ बैठकर अंंगूर खाती हुई अपनी फोटो फैसबुक में डाली थी। लिखा था–‘ आज मेरी खूबसूरत पत्नी का जन्मदिन है।’ टिप्पणी देने में  वे तेज तो थे ही तुरंत लिख मारा–‘ वाह क्या लंगूर है,जुग जुग जियो’।

दूसरे दिन उनको लठ्ठ पड़ गये और सिर में पट्टी बांधे वे पछता रहे थे कि टाइप करने के बाद दुबारा चैक करके ही पोस्ट डालना चाहिए।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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