हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ लघुकथा – घटना चक्र – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत है। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम लघुकथा “घटना चक्र”।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ लघुकथा – घटना चक्र – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

मनुष्य, पशु – पक्षी सब को आश्चर्य होता होगा ब्रह्मांड के किसी कोने से यहाँ भेजे गए हैं या अपने जन्म का प्रथम बीज इसी धरती से है?

सुबह सूर्य के प्रकाश से धरती अंगडाई लेते जागती थी। रातों को आकाश में चाँद अपना दमकता चेहरा लिये प्रकट होता था। तारे आकाश में टिम टिम करते थे। मानो वहाँ संगीत थिरकता हो और धरती पर लोग उसे वरण करते हों। धरती पर पानी होने से लोगों की प्यास बुझती थी। इसी धरती से लोगों के लिए अन्न था। मनुष्य के अपने गाँव थे। पशु जंगलों से अपनी पहचान रखते थे। पेड़ पौधों के लिए प्रकृति थी। चर – अचर जो जहाँ से हो उसका बंधन और मुक्ति उसके स्वयं से था। इस कोण से कोई किसी के लिए बाधा होता नहीं था। हवा मंद – मंद बहती थी जो सृष्टि कर्ता की ओर से सब की उसाँसों के लिए अनुपम वरदान था। सच में यह गति की एक शाश्वत धड़कन थी।

धरती और आकाश से इतना पाने पर जीव अथवा जड़ सब के सब स्वयं इसकी अधीनता में रहना अपना सौभाग्य मानते थे।

एक दिन एक विशाल नदी के पानी में रक्त का सम्मिश्रण देखने पर धरती दहल गई थी। अब धरती को याद आया था भगवान ने कभी किसी पावन काल में लिख कर उसे थमाया था —

“विद्रूपता के ऐसे दिन आ सकते हैं, अत: दिल थामे रहना!”

वही धरती का पहला अनुभव था, कहीं हत्या हुई थी और नदी को रक्त रंजित होना पड़ा था !

© श्री रामदेव धुरंधर

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #129 – बाल कथा – “चप्पल के दिन फिरे” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा  “चप्पल के दिन फिरे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 129 ☆

☆ बाल कथा – “चप्पल के दिन फिरे” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

पीली चप्पल ने कहा, “बहुत दिनों से भंडार कक्ष में पड़े-पड़े दम घुट रहा था। कम से कम अब तो हम कार में घूम रहे हैं।”

“हां सही कहती हो,” नीली बोली, श्रेयांश बाबा ने हमें कुछ ही दिन पहना था और बाद में भंडार कक्ष में डाल दिया था।”

“मगर हम एक कहां-कहां घूम कर आ गए हैं? कोई बता सकता है?” भूरी कब से चुपचाप थी। तभी श्रेयांश की मम्मी की आवाज आई, ” श्रेयांश जल्दी से गाड़ी में बैठो। हम वापस चलते हैं।”

यह सुनकर सभी चप्पलों का ध्यान उधर चला गया।  श्रेयांश, उसकी मम्मी और पापा कार में बैठ चुके थे। कहां चल दी। तभी उसकी मम्मी ने पूछा, “ताजमहल कैसा लगा है श्रेयांश?”

जैसे ही श्रेयांश ने कहा, “बहुत बढ़िया! शाहजहां के सपनों की तरह,” वैसे ही उसके पापा बोले, “अच्छा! यानी तुम्हें पता है ताजमहल शाहजहां ने बनाया है।”

“हां पापाजी,” श्रेयांश ने कहा, “मुझे आगरा के ताजमहल पर प्रोजेक्ट बनाना था। इसलिए ताजमहल की पूरी जानकारी प्राप्त कर ली थीं।”

तभी उनकी गाड़ी का ब्रेक लगा। कार जाम में फस गई थी। उनकी बातें रुक गई।

“वाह!” तभी नीली चप्पल ने श्रेयांश की बातें सुनकर कहा, ” हमें भी ताजमहल की जानकारी मिल जाएगी।”

“हां यह बात तो ठीक है,” तभी लाली बोली, “मगर हमें कार में क्यों लाया गया है? कोई बता सकता है।”

“यह तो हमें भी नहीं मालूम है,” कहते चुपचाप बैठी नारंगी चप्पल बोली, ” श्रेयांश की मम्मी ने भी है पूछा था तब उसने कहा था- बाद में बताऊंगा मम्मी जी।”

तभी जाम खुल चुका था। कार चल दी। तभी पापा ने पूछा, “अब बताओ, ताजमहल के बारे में क्या जानते हो?”

“पापाजी जैसा हमने देखा है आगरा का ताजमहल यमुना नदी के दक्षिणी तट पर बना हुआ है। यह संगमरमर के पत्थर से बना मुगल वास्तुकला का सर्वश्रेष्ठ नमूना है।”

“हां, यह बात तो ठीक है,” पापा ने कहा तो श्रेयांश बोला, “मुगल सम्राट शाहजहां ने सन 1628 से 1658 तक शासन किया था। इसी शासन के दौरान 1632 में ताजमहल बनाने का काम शुरू हुआ था।”

” अच्छा!” मम्मी ने कहा।

“हां मम्मीजी,” श्रेयांश ने कहना जारी रखा,”शाहजहां  ने अपनी बेगम मुमताज महल के लिए आगरे का ताजमहल बनवाया था। जिसका निर्माण 1642 में पुर्ण हुआ था।” 

“यानी ताजमहल को बनवाने में 10 वर्ष लगे थे,” पापा बोले तो श्रेयांश ने कहा, “हां पापाजी, इस विश्व प्रसिद्ध इमारत को 1983 में यूनेस्को ने विश्व विरासत की सूची में शामिल किया था।”

“सही कहा बेटा,” मम्मी ने कहा, “यह समृद्ध भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर है।”

“आप ठीक कहती है मम्मीजी,” श्रेयांश ने अपनी बात को कहना जारी रखा,” इस विरासत को 2007 में विश्व के सात अजूबों में पहला स्थान मिला था।”

“कब? यह तो हमें पता नहीं है,” पापा जी ने पूछा।

“सन 2000 से 2007 तक ताजमहल विश्व विरासत में नंबर वन पर बना रहा,” श्रेयांश ने कहा। तभी उसकी निगाह कांच के बाहर गई।

“पापाजी गाड़ी रोकना जरा!” उसने कार के बाहर इशारा करके कहा तो मम्मी ने पूछा, “क्यों भाई? यहां क्या काम है?”

“उस लड़की को देखो,” करते हुए श्रेयांश ने कार का दरवाजा खोल दिया।

सामने सड़क पर एक लड़की खड़ी थी। उसके कपड़े गंदे थे। हाथ में एक बच्चा उठा रखा था। उसके पैर में चप्पल नहीं थी। वह तपती दुपहरी में सड़क पर नंगे पैर खड़ी थी।

श्रेयांश ने सीट से हरी चप्पल उठाई। उस लड़की की और हाथ बढ़ा दिया, “यह तुम्हारे लिए!”

“मेरे लिए!” कहते हुए उसने चुपचाप हाथ बढ़ा दिया। उसकी आंखों में चमक आ गई थ श्रेयांश में ने उसे चप्पल दे दी। पापा को इशारा किया। उन्होंने कार आगे बढ़ा दी।

“ओह! इसीलिए तुम पुरानी चपले लेकर आए थे। मैंने पूछा तो कह दिया-कुछ काम करूंगा। यह तो बहुत अच्छी काम किया है।” मम्मी खुश होकर बोली।

“हां मम्मीजी, उस लड़की का तपती दुपहरी में पैर जल रहे थे। उसे चप्पल की ज्यादा जरूरत थी। मेरी चप्पल भंडार कक्ष में पड़ी-पड़ी बेकार हो रही थी। इसलिए।”

“शाबाश बेटा! यह बहुत अच्छा काम किया है,” कहते हुए पापाजी ने फिर गाड़ी रोक दी।

तभी कब से चुपचाप बैठी नीली चप्पल बोली, “इसीलिए श्रेयांश हमें भंडार का खेल निकाल कर लाया है। हमारा भी सहयोग होगा। हम भी बाहर की दुनिया की सैर कर सकेंगे।”

“हां नीली तुम सही कह रही हो,” पीली चप्पल ने कहा, “कब से हम भंडार कक्ष में पड़े-पड़े बोर हो रही थी। हमारा भी कब उपयोग होगा?”

तभी श्रेयांश ने भूरी, लाल और नारंगी को उठाकर एक-एक लड़के को दे दिया। पीली को उठाया साथ खेले रही लड़की को बुलाकर उसे भी दे दिया। सभी लड़के-लड़कियां चप्पल पाकर खुश हो गए।

अब कार में केवल नीली चप्पल बची थी। उसे देखकर श्रेयांश बोला, “मम्मीजी इसे किसी को नहीं दूंगा। क्यों यह अच्छी चप्पल है। इसका फैशन वापस आ गया है। इसे तो मैं ही पहनूंगा,” करते हुए श्रेयांश ने पापाजी को कहा, “आप सीधे कार घर ले चलिए।” 

“ठीक है बेटा।”

“चलो इन चप्पलों के भी दिन फिरें।” मम्मी ने मुस्कुरा कर कहा तो श्रेयांश को कुछ समझ में नहीं आया कि मम्मी क्या कह रही है? इसलिए उसने पूछा, “आप क्या कह रही है मम्मीजी? चप्पलों के दिन भी फिरें।” 

“हां, इनके भी अच्छे दिन आए है।” मम्मी जी ने कहा तो श्रेयांश मुस्कुरा दिया, “हां मम्मीजी।” 

नीली चप्पल अकेली हो गई थी इसलिए वह किसी से बोल नहीं पा रही थी। इसलिए चुपचाप हो गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

05-04-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लेखन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लेखन ??

न दिन का भान, न रात का ठिकाना। न खाने की सुध, न पहनने का शऊर।…किस चीज़ में डूबे हो ? ऐसा क्या कर रहे हो कि खुद को खुद का भी पता नहीं।

…कुछ नहीं कर रहा इन दिनों, लिखने के सिवा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 144 – प्रोफाईल फोटो ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “प्रोफाईल फोटो”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 144 ☆

🌺लघुकथा 🎞️ प्रोफाईल फोटो 🖥️📞

जीवा मोबाईल, फेसबुक, व्हाट्सएप, पर तरह-तरह की सुंदर तस्वीरें डाला करती थी। मम्मी – पापा भी बहुत अच्छी बड़ी सोसाइटी में रहा करते थे। इसलिए जीवा को भी सब कुछ खुली आजादी थी। शादी की बात चलने लगी। लड़के वाले देखने आते परंतु कभी वे जीवा को पसंद नहीं करते और कभी कोई जीवा को पसंद नहीं आता।

धीरे-धीरे उम्र बढ़ती चली जा रही थी। छोटा भाई भी कहने लगा…. कब तक इसे घर पर रखना पड़ेगा। मम्मी-पापा कहते हैं… इस घर पर उसका भी अधिकार है। बस सब मामला यहीं पर शांत हो जाता।

छोटे भाई का एक खास दोस्त आज अपने भैया हर्ष के साथ आया। बहुत ही साधारण परिवार का था। जीवा को हर्ष अच्छा लगा और उसके जाने के बाद उसकी प्रोफाइल फोटो देखकर उसके बारे में पता लगाया।

हर्ष एक प्राइवेट कंपनी पर काम करता था। काफी विचार कर जीवा ने उसे फोन पर कहा…. क्या तुम मुझसे शादी करना चाहोगे। हर्ष सुनता रहा। भाई भी परेशान हो गया। इतने बड़े-बड़े घर से रिश्ते आए और जीवा ने किसी को पसंद नहीं किया और कुछ खास नहीं है हर्ष अब इसे ये पसंद आ रहा।

भाई ने जीवा की बात संभाली और उसे कहा…. जीवा मजाक कर रही थी भैया। परंतु जीवा अपनी बात पर अड़ी रही। और एक दिन जीवा अचानक हर्ष के ऑफिस पहुंच गयी। उसका यह रूप देखकर वह दंग रह गया। साधारण कपड़ों में जीवा बहुत सुन्दर लग रही थी, न गहरी लाली, न आँखें काली कजरारी।

जीवा ने हर्ष को अलग अकेले में ले जाकर कहा…. हर्ष मुझे आपके जैसा ही जीवन साथी चाहिए। आप मेरी प्रोफाइल तस्वीर पर विचार मत करना। चाहे तो आप कुछ भी शर्त रख लो मैं आपके साथ बिल्कुल आपके जैसा ही जीवन जीने के लिए तैयार हूँ। मैं आज की बडी़ सोसाइटी के बीच रहने के कारण यह सब फेसबुक और व्हाट्सएप पर अपलोड करती थी। तंग आ गई हूँ मैं इस रुप से। प्लीज मुझे अपना लो और शादी के लिए हां कह दो।

यह कह कर वह रोते हुए हर्ष की बाँहों में समा गई। हर्ष सोच नहीं पा रहा था आज की इस भागती दौड़ती जिंदगी में और इस हाई प्रोफाइल सोसायटी पर उसकी अपनी सादी ब्लैक एंड वाइट तस्वीर कैसे छा गयी।

वह जीवा को अपलक देख रहा था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #128 – लघुकथा – “भ्रष्टाचार की सजा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा  “भ्रष्टाचार की सजा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 127 ☆

☆ लघुकथा – “भ्रष्टाचार की सजा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’  

अखबार हाथ में लेते ही उसे वह पल याद याद आ गया जब वह कलेक्टर साहब के पास गया था।

“क्यों भाई दो लाख रुपए की रिश्वत मांगी और मुझे पता भी नहीं चला!”

“सरजी! वह क्या है ना, आप का भी हिस्सा था उसमें।”

“मगर दो लाख रुपए क्यों मांगे? इसीलिए उसने शिकायत की और अखबार में भी दे दिया- ‘रजिस्ट्रार ने रजिस्ट्री पर रोक लगाई! भ्रष्टाचार में मांगे दो लाख’ “

“सरजी वह पाँच करोड रुपए लेकर सरकार रेट पर जमीन की पच्चीस लाख रुपए में रजिस्ट्री करवा रहा था। कम से कम इतना तो हमारा हक बनता है।”

“मगर शिकायत हुई तो तुम्हें सजा जरूर मिलेगी,” जैसे कलेक्टर साहब ने कहा तो उसका हाथ ब्रीफकेस पर मजबूती से कस गया। मगर दूसरे ही पल उसने ना जाने क्या सोचकर भी ब्रीफकेस पर पकड़ ढीली करके उसे साहब के घर पर ही छोड़ दिया।

यह स्मृति में आते ही उसने अखबार का पन्ना खोला। पहले पृष्ठ पर खबर छपी थी। ‘भ्रष्ट रजिस्टार का इंदौर स्थानांतरण”। 

यह पढ़ते ही उसके चेहरे पर धीरे-धीरे मुस्कान फैलती गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

07-10-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रश्नपत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना सम्पन्न हो गई है। 🌻

अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रश्नपत्र ??

बारिश मूसलाधार है। ….हो सकता है कि इलाके की बिजली गुल हो जाए। ….हो सकता है कि सुबह तक हर रास्ते पर पानी लबालब भर जाए। ….हो सकता है कि कल की परीक्षा रद्द हो जाए।…आशंका और संभावना समानांतर चलती रहीं।

अगली सुबह आकाश निरभ्र था और वातावरण सुहाना। प्रश्नपत्र देखने के बाद आशंकाओं पर काम करने वालों की निब सूख चली थी पर संभावनाओं को जीने वालों की कलम पूरी रफ़्तार से दौड़ रही थी।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – हताशा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक लघुकथा ‘‘हताशा’’)

☆ लघुकथा – हताशा ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

‘अरे देखो तो, यह आदमी क्या कर रहा है?’

‘अरे पगला गया है ससुरा, भला ऐसा आचरण कोई करता है, पेड़ों के फूल नोंच-नोंच कर सड़क पर फेंक रहा है, यह पागलपन नहीं है तो क्या है यार!’

लोग देख रहे थे. एक बौखलाया  सा आदमी फूलों की डालियों से फूल नोंच-नोंचकर सड़क पर फेंक रहा है. साथ में अपने सिर के बाल भी नोंचता जा रहा है. लोगों ने फिर कानाफूसी की- यह पागलपन का दौर-दौरा है या कुछ और, कितनी मेहनत से इसने फूल उगाए थे और अब…’

अब वह आदमी अपनी बड़ी-बड़ी आंखें निकालकर चिल्लाने लगा- “आप लोग ही मेरी इस दुर्दशा के जिम्मेवार हैं. आपलोग यदि रोज़-रोज़ इन फूलों को तोड़कर नहीं ले जाते तो मैं कदापि इस अंजाम तक नहीं पहुंचता, मेरी बगिया ही उजाड़ दी आप लोगों ने, अरे फूलों के हत्यारे हो तुम. फूल दरख्तों पर ही अच्छे लगते हैं. तुम्हारी जेबों में ठुसे हुए नहीं…समझे कुछ’

लोग उसकी इस दलील पर भौंचक्के थे.

अब मैं कुल्हाड़ी लेकर इसकी समूची डालियां भी काटूंगा. न रहे बांस न रहे बांसुरी’ आप लोग फूलों के दुश्मन हो तो मेरे भी दुश्मन हो. अरे दुश्मनों इन पेड़ों ने क्या बिगाड़ा था तुम्हारा जो इनको पुष्पहीन करके हंस रहे हो. लोग उसकी हताशा को पहचान पाते, इसके पहले वह कुल्हाड़ी लेकर पेड़ों पर पिल पड़ा. ठक-ठक करती कुल्हाड़ी चल रही थी. उनकी जेबों में ठुंसे फूल कुम्हला रहे थे.

पूरा वातावरण श्री हीन हो गया था.

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 143 – गुब्बारे की कीमत ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी लघुकथा “🎈गुब्बारे की कीमत 🎈”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 143 ☆

🌺लघु कथा 🎈गुब्बारे की कीमत 🎈

एक गुब्बारे वाला बरसों से बगीचे में गुब्बारे बेचकर अपनी जिंदगी की गाड़ी चला रहा था। एक साइकिल पर रंग-बिरंगे गुब्बारे सजाए वह बगीचे में इधर से उधर घूमता रहता था। सभी बच्चे उसका इंतजार करते थे। जिसके पास पैसे होते थे,  वे गुब्बारा ले लेते।

अभी कुछ दिनों से एक मासूम सी पांच वर्ष की बच्ची वहां खेलने आया करती थी। अपने टूटे-फूटे खिलौने लिए एक जगह बैठकर खेलती रहती थी। गुब्बारे देख उसका भी मन होता था। बार-बार वहां आती और देख कर चली जाती थी।

आज बड़ी हिम्मत करके आई और बोली… बाबा मुझे भी एक गुब्बारा दे दो पैसे मैं कल लाकर दूंगी। उसकी मासूमियत देखकर गुब्बारे वाले ने उसको एक गुब्बारा दे दिया और बड़े कड़े शब्दों में कहा… कल पैसे जरुर ले आना।

आज शाम को गुब्बारे वाला फिर बगीचे में आया। सभी बच्चों ने खेलकूद के बाद कुछ खाया। गुब्बारा खरीदा और अपने – अपने घर की ओर चले गए। पर वह बच्ची दिखाई नहीं दी।

गुब्बारे वाले ने एक बच्ची को धीरे से बुलाकर पूछा… तुम्हारे साथ जो कल एक बच्ची आई थी वह नहीं आई।

बच्ची ने कहा… अब कभी नहीं आएगी उसकी मां ने उसे गुब्बारा के लिए सजा दिया है।

सामने से देखा दोनों हाथ जले आंसुओं की धार, बाल बिखरे, वह एक महिला के साथ चली आ रही थी। आते ही वह महिला बोली… यह तुम्हारे पैसे अब कभी इसे गुब्बारा नहीं देना।

यह कह कर वह पीछे पलट कर चली गई।

बच्ची से पूछने पर पता चला उसकी अपनी मां मर गई है। यह सौतेली मां है। पिताजी तो हर समय बाहर रहते हैं और मां हमेशा कहती हैं इसकी मां तो मर गई, इसे छोड़ गई मेरे सिर पर, देखना किसी दिन नाक कटवायेगी।

थोड़ी देर बाद गुब्बारे वाला अपने सारे गुब्बारे स्वयं फोड़ चुका था और भारी मन से घर की ओर चल पड़ा।

फिर कभी बगीचे में उसने गुब्बारे नहीं बेचे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 107 ☆ लघुकथा – क्या था यह ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘क्या था यह ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 106 ☆

☆ लघुकथा – क्या था यह ? — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

अरे !  क्या हो गया है तुझे ? कितने दिनों से अनमयस्क – सा  है ?  चुप्पी क्यों साध ली है तूने। जग में एक तू ही तो है जो पराई पीर समझता है। जाने – अनजाने सबके दुख टटोलता रहता है। क्या मजाल की तेरी नजरों से कोई बच निकले। तू अक्सर बिन आवाज रो पड़ता है और दूसरों को भी रुला देता है। कभी दिल आए तो  बच्चों सा खिलखिला भी उठता है। तू तो कितनों की प्रेरणा  बना और ना जाने  कितनों के हाथों की धधकती मशाल। अरे! चारण कवियों की आवाज बन तूने ही तो राजाओं को युद्ध में विजय दिलवाई। कभी मीरा  के प्रेमी मन की मर्मस्पर्शी आवाज बना, तो कभी वीर सेनानियों के चरणों की धूल। तूने ही सूरदास  के वात्सल्य को मनभावन पदों में पिरो दिया  और  विरहिणी नागमती की पीड़ा को कभी काग, तो कभी भौंरा बन हर स्त्री तक पहुँचाया। समाज में बड़े- बड़े बदलाव,  क्रांति कौन कराता है? तू ही ना!

देख ना, आज  भी कितना कुछ घट रहा है आसपास तेरे। ऐसे में सब अनदेखा कर मुँह सिल लिया है या गांधारी बन बैठा। मैं जानता हूँ तू ना निराश हो सकता है न संवेदनहीन। तूने ही कहा था ना – ‘नर हो ना निराश करो मन को’। तुझे चलना ही होगा, चल उठ, जल्दी कर। मानों किसी ने कस के झिझोंड़ दिया हो उसे। कवि मन हकबकाया  – सा इधर – उधर  देख रहा था। क्या था यह ? अंतर्मन की आवाज या सपना?

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “तू किस मिट्टी की बनी है माँ?” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक लघुकथा ‘‘तू किस मिट्टी की बनी है माँ?’’)

☆ लघुकथा – “तू किस मिट्टी की बनी है माँ?” ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

“मेरी जुराबें कहां हैं माँ?”

“मेरी गणित की किताब नहीं मिल रही है माँ.”

“मेरा टिफिन लगा दिया न माँ!”

“दूध वाला गेट पर खड़ा है माँ?”

“पापा, कच्छा-बनियान ढूंढ़ रहे हैं माँ.”

“चाय-बिस्कुट कब दोगी माँ?”

“ऑटो आ गया है. हम स्कूल जा रहे हैं. गेट बंद कर देना माँ.”

“आज महरी नहीं आयेगी. इतने सारे बर्तन कैसे मांजोगी माँ?”

“गैस आयी, दरवाज़ा खोलिए न माँ.”

“शाम को मेरे दोस्त आयेंगे, कुछ अच्छा-सा बना दोगी न माँ.”

“दादा-दादी के लिए गरम-गरम चपातियां बना दो न माँ.”

“मां आज स्कूल की फीस चाहिए, फीस के अलावा कुछ अतिरिक्त पैसे भी दे दिया करो न माँ.”

“मां बनिया सामान नहीं देता, पिछली उधारी मांगता है माँ.”

“मां सबकी तीमारदारी करती हो, तुम कभी बीमार नहीं पड़ती क्या माँ?”

“पापा भी तुम्हें कभी-कभी डांटते हैं. फिर मुस्कुरा कैसे लेती हो माँ?”

“मां, तू सोती कब है, उठती कब है, तू किस मिट्टी की बनी है माँ?”

“सारी विपत्तियां झेलने के लिए एक अकेली ही क्‍यों जिंम्मेवारी निभाती हो मां… सिर्फ मेरी ही नहीं, कभी-कभी तो तुम पूरे परिवार की ही बन जाती हो माँ.”

(कथा बिंब, हरिगंधा से साभार)

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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