(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हवा।)
☆ लघुकथा – हवा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
लड़कियाँ देहरी पर खड़ी थीं – इधर जाऊँ या उधर जाऊँ की उलझन में। इधर जाऊँ तो अपमान का डर, उधर जाऊँ तो जान का डर। लड़कियाँ न इधर गईं, न उधर गईं। उन्होंने बुज़ुर्गों से सुना था कि लड़कियाँ हवा से बनी हैं, वे हवा हो गईं। इधर वालों ने उधर वालों से पूछा, उधर वालों ने इधर वालों से पूछा कि कहाँ चली गईं लड़कियाँ? दोनों ने एक-दूसरे से कहा – पता नहीं किधर गईं। इधर वालों ने लड़कियों को भुला दिया, उधर वालों ने भी भुला दिया ; पर अब अक्सर दोनों तरफ़ रात को चीत्कार जैसी सीटियों के साथ हवा की सनसनाहट सुनाई देती थी और सुबह आँगन में हरे पत्ते बिखरे पाए जाते थे।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विवाह पर आधारित एक प्रेरक लघुकथा “ग्रहण से मोक्ष”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 142 ☆
🌺लघुकथा🌗ग्रहणसेमोक्ष 🌕
नलिनी के जीवन में उस समय ग्रहण लग गया, जब 5 वर्ष की उम्र में धूमधाम से उसका बाल विवाह हुआ।
12 साल का उसका पति अभय नलिनी से ज्यादा समझदार दूल्हे होने की अकड़ और उम्र का बड़ा फासला, परंतु नलिनी इन सब बातों से अनजान खेलकूद, मौज – मस्ती, अपने मित्रों के साथ धमा-चौकड़ी, मोबाइल में गेम खेलना और समय पर पढ़ाई करना। यही उसकी दिनचर्या थी।
पढ़ाई लिखाई में कमजोर अभय हमेशा उस पर अधिकार जमाता रहता। मोहल्ला पड़ोस आस-पास होने की वजह से हर चीज की खबर रखता था। जो नलिनी को बिल्कुल भी पसंद नहीं आता था।
आज घर परिवार में ग्रहण की बात हो रही थी। इसकी राशि में शुभ और किसकी राशि में अशुभ। शुभ फल चर्चा का विषय बना था। पापा पेपर लिए बड़े ही तल्लीनता से पढ़ रहे थे। मम्मी पास में बैठी सब्जी काट रसोई की तैयारी करने में लगी थी।
अचानक दौड़ती नलिनी आई पापा के कंधे झूलते बोली…. पापा मेरी सखियां मुझे चिढ़ाती हैं कि मुझे तो ग्रहण लग गया है। पापा ग्रहण बहुत खतरनाक और भयानक होता है क्या? अभय भी मेरे साथ यही करेगा। पापा मुझे कब छुटकारा मिलेगा।
बिटिया की बातें सुन मम्मी-पापा हतप्रभ हो देखते रहे, उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था।
बहुत गलत फैसला है और तुरंत दूसरे कपड़े पहन, चश्मा लगा कुछ कागज, हाथों में ले बाहर जाने लगे। मम्मी ने आवाज लगाई…. कहां चल दिए।
पापा ने कहा…. अपनी गलती के कारण अपनी बिटिया पर लगे ग्रहण के समय का मोक्ष निर्धारण करके आता हूँ। शायद यही समय उचित रहेगा।
नलिनी खुशी से झूम उठी…. अब मैं सभी फ्रेंड को बता दूंगी मेरा भी ग्रहण को मोक्ष मिल गया। अब कोई अशुभ प्रभाव नहीं पड़ेगा।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
श्री कमलेश भारतीय जी की यह लघुकथा आप एएनवी न्यूज चैनल पर सुश्री मिष्ठी राणा की आवाज में इस लिंक पर क्लिक कर देख-सुन सकते हैं 👉 लघुकथा – “आज के संजय…”
☆ कथा – कहानी ☆ लघुकथा – “आज के संजय…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा है । महाभारत के युद्ध की दोनों सेनायें अपने अपने शिविरों में लौट रही हैं । रथों के घोड़े हिनहिना रहे है । कौन आज युद्ध में वीरगति पा गये और कौन कल तक बचे हुए हैं । संजय यह आंखों देखा हाल धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं । महाराज व्यथित होकर दिन भर का हाल सुन रहे हैं । गांधारी भी पास ही बैठी हैं ।
वह एक युग था । तब संजय जन्मांध धृतराष्ट्र को युद्ध का हाल बताने के लिए मिली दिव्य शक्ति से सब वर्णन करते थे । कहा जा सकता है कि उस युग के पत्रकार थे संजय । अब युग बदल गया । इन दिनों चुनाव की महाभारत है । महाभारत अठारह दिन चली थी लेकिन यह चुनाव प्रचार की महाभारत पूरे इक्कीस दिन चलती है । यहां किसी एक संजय को दिव्य शक्ति नहीं दी जाती । यहां तो सैंकड़ों संजय हैं जो ‘वीडियो’ नाम की दिव्य शक्ति लेकर आये हैं और कुछ भी वायरल कर देने की शक्ति रखते हैं ! मनचाहा वीडियो बना कर सारा आंखों देखा हाल सुनाने में जुटे हैं । संजय तो एक राष्ट्रीय पत्रकार था और राष्ट्र की सेवा में जुटा था । निष्पक्ष ! निरपेक्ष ! ये आज के युग के संजय तो निष्पक्ष और निरपेक्ष नहीं । इन्हें तो रोटी रोटी कमानी है, अपनी गृहस्थी चलानी है । मनभावन शौक पूरे करने हैं । खाना पीना है और वह दिखाना है जो सामने वाला चाहता है लेकिन इसकी एक निश्चित कीमत है ! जो चुकाये वह पा मनचाहा पा ले ! नहीं चुकाये तो हश्र भुगते !
ये कैसे संजय हैं ?
ये कलियुग के महाभारत के संजय हैं ! जो अंधे लोगों को युद्ध का हाल नहीं सुनाते बल्कि ऐसा हाल सुनाते हैं कि आंखों वालों को ही अंधा बना रहे हैं ! आप इन्हें पहचानते हैं
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा ‘हमें वधू चाहिए ’। )
☆ लघुकथा – हमें वधू चाहिए ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल ☆
अखबार में वर वधू स्तम्भ के अंतर्गत विज्ञप्ति छपी थी।
लिखा था – हमें ऐसी वधू चाहिए जो कार लेकर आए। साथ में नकद भी लाए। अपना एवं अपने पति का खर्च स्वयं चलाए ।
दूसरी विज्ञप्ति – वधूपूरी तरह विश्वसनीय होनी चाहिए। सास ससुर की देखभाल करें एवं अलग रहने का सपना ना संजोए।
तीसरी विज्ञप्ति – सुंदर सुडौल । मन की साफ हो। पति से चुगली न करे और घर के काम काज में बराबरी से हाथ बटाए।
चौथी विज्ञप्ति – पड़ोसयों से बतियाने की सख्त मुमानियत रहेगी।
– ननद का सम्मान करना जानती हो तथा बार-बार मायके जाने की धमकियाँ न देती हो।
पाँचवी विज्ञप्ति – हमें विदेश में जॉब करने वाली वधू स्वीकार्य होगी।
अब कोई उनसे जाकर पुछे, क्या ऐसी वधू मिली या उनके लड़के अभी तक कुँवारे ही घूम रहे हैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख लघुकथा – “संस्कार”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 125 ☆
☆ लघुकथा – संस्कार☆
जैसे ही अनाथ आश्रम से वृद्ध को लाकर पति ने बैठक में बिठाया वैसे ही किचन में काम कर रही पत्नी ने चिल्लाकर कहा, “आखिर आप अपनी मनमानी से बाज नहीं आए,” वह ज़ोर से बोली तो पति ने कहा, “अरे भाग्यवान! धीरे बोलो। वह सुन लेंगे।”
“सुन ले तुम मेरी बला से। वे कौन से हमारे रिश्तेदार हैं?” पत्नी ने तुनक कर कहा, “मैंने पहले भी कहा था हम दोनों नौकर पेशा हैं। बेटे को उसके मामा के यहां रहने दो। वहां पढ़ लिखकर होशियार और गुणवान हो जाएगा। पर आप माने नहीं। उसे यहां ले आए।”
“हां तो सही है ना,” पति ने कहा, “बुजुर्गवार के साथ रहेगा तो अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा। हमें घर की भी चिंता नहीं रहेगी।”
“अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा,” पत्नी ने भौंहे व मुँह मोड़ कर कहा, “ना जाने कौन है? कैसे संस्कार है इस बूढ़े के। ना जाने क्या सिखाएगा?” कहते हुए पत्नी ना चाहते हुए भी बूढ़े को चाय देने चली गई।
“लीजिए! चाय !” तल्ख स्वर में कहते हुए जब उस ने बूढ़े को चाय दी तो उसने कहा, “जीती रहो बेटी!” यह सुनते ही बूढ़े का चेहरा देखते ही उसका चेहरा फक से सफेद पड़ गया।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – लघुकथा – गीलापन
‘उनके शरीर का खून गाढ़ा होगा। मुश्किल से थोड़ा बहुत बह पाएगा। फलत: जीवन बहुत कम दिनों का होगा। स्वेद, पसीना जैसे शब्दों से अपरिचित होंगे वे। देह में बमुश्किल दस प्रतिशत पानी होगा। चमड़ी खुरदरी होगी। चेहरे चिपके और पिचके होंगे। आँखें बटन जैसी और पथरीली होंगी। आँसू आएँगे ही नहीं।
उस समाज में सूखी नदियों की घाटियाँ संरक्षित स्थल होंगे। इन घाटियों के बारे में स्कूलों में पढ़ाया जाएगा ताकि भावी पीढ़ी अपने गौरवशाली अतीत और उन्नत सभ्यता के बारे में जान सके। अशेष बरसात, अवशेष हो जाएगी और ज़िंदा बची नदियों के ऊपर एकाध दशक में कभी-कभार ही बरसेगी। पेड़ का जीवाश्म मिलना शुभ माना जाएगा। ‘हरा’ शब्द की मीमांसा के लिए अनेक टीकाकार ग्रंथ रचेंगे। पानी से स्नान करना किंवदंती होगा। एक समय पृथ्वी पर जल ही जल था, को कपोलकल्पित कहकर अमान्य कर दिया जाएगा।
धनवान दिन में तीन बार एक-एक गिलास पानी पी सकेंगे। निर्धन को तीन दिन में एक बार पानी का एक गिलास मिलेगा। यह समाज रस शब्द से अपरिचित होगा। गला तर नहीं होगा, आकंठ कोई नहीं डूबेगा। डूबकर कभी कोई मृत्यु नहीं होगी।’
…पर हम हमेशा ऐसे नहीं थे। हमारे पूर्वजों की ये तस्वीरें देखो। सुनते हैं उनके समय में हर घर में दो बाल्टी पानी होता था।
..हाँ तभी तो उनकी आँखों में गीलापन दिखता है।
…ये सबसे ज्यादा पनीली आँखोंवाला कौन है?
…यही वह लेखक है जिसने हमारा आज का सच दो हजार साल पहले ही लिख दिया था।
…ओह ! स्कूल की घंटी बजी और 42वीं सदी के बच्चों की बातें रुक गईं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक स्त्री विमर्श पर आधारित भावपूर्ण लघुकथा “अंतिम इच्छा ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 141 ☆
लघु कथा – 🌿अंतिमइच्छा🌿
अचानक फोन की घंटी बजी। विराज ने फोन उठाया, समझ नहीं आया क्या करें? जो परछाई से भी घृणा करतें हैं आज फोन पर बात।
मन ही मन वह सोच और परेशानी से भर उठा। उसकी अपनी सोनमती चाची। जो कभी भी अपने परिवार को ज्यादा महत्व नहीं देती थी। जो कुछ समझती अपने पति और उसकी अपनी अकेली बिटिया। जेठ जेठानी और उनकी संतान को तलवार की नोक पर रखा करती थी। समय पर परिवार बढ़ा ।
बिटिया विवाह होकर अपने ससुराल चली गई। घर दो टुकड़ों में बंट गया। बेटा विराज अपने चाचा चाची को बहुत प्यार करता था उसका भी अपना परिवार बढ़ा । विराज कहता… “हमारे सिवा उनका कौन है?”
बस इसी बात का फायदा सोनमती उठाती थी। घर से कहीं दूर अलग घर बनवाया था और चाचा चाची बेटी दामाद के साथ रहने लगे।
एक दिन अचानक चाची की तबीयत खराब हो गई। अस्पताल में भर्ती कराया गया। अपने दामाद को पास बुलाकर बोली…” मैं जानती हूं मेरे बचने की उम्मीद नहीं है। परंतु मेरे बुलाने पर विराज को आने नहीं देंगे। यदि मैं नहीं बच सकी तो मेरी अंतिम इच्छा समझना और मेरा क्रिया कर्म मेरे बेटे विराज को ही करने देना।”
दामाद जी उनकी बात को सुनकर दंग रह गये क्योंकि उसको भी पता था कि विराज को कभी भी चाची पसंद नहीं करती थी।
सोनमती चाची अपना शरीर छोड़ चली। दामाद को ढूंढा जा रहा था। फोन मोबाइल सब बंद बता रहा था। गांव का मामला था। मिट्टी ज्यादा देर रखने भी नहीं दिया जा रहा था।
परंतु ये क्या? विराज घर आया और अपनी बहन और चाचा से लिपट कर एक दूसरे को सांत्वना दे रहे थे।
चाचा ने बड़ी हिम्मत से कहा… “दामाद जी का फोन नहीं लग रहा है और आसपास कहीं पता भी नहीं चल रहा है। शायद कहीं बाहर चले गए हैं। उन्हें किसी ने आसपास देखा भी नहीं है। ऐसा करो अंतिम संस्कार विराज ही कर दे।”
सभी ने सहमति जताया। आखिर बेटा ही तो है समझा लेगें।
मन में दुविधा बनी हुई थी कि शायद आएंगे तो कहेंगे.. सवाल जवाब होगा और लड़ाई झगड़े वाली बात होगी। जल्दी जल्दी क्रिया क्रम संपन्न हुआ।
विराज ने देखा कि दमाद आ गए हैं। डबडबाई आंखों से प्रणाम करते हुए कहा… “मुझे बेटे का फर्ज निभाने के लिए प्रेरित करने के लिए आपका धन्यवाद।”
दामाद का शांतभाव, मोबाइल बंद और आसपास ढूंढने से भी पता नहीं लगना और विराज का आना, शायद यह बात चाचा जी समझ गए।
उन्होंने कहा सोनमती ने अपनी अंतिम इच्छा से जाते जाते परिवार को कंचन कर गई।
बहन ने अश्रुं पूरित नयनों से मधुर आवाज लगाई भैया खाना बन गया है। खाकर जाना।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय लघुकथा – “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे”।)
☆ लघुकथा # 161 ☆ “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
– लोग उनको उच्च क्वालिटी का मंत्री बताते हैं।
-उनके एक खास भक्त ने कालेज की जमीन में कब्जा करके बाउंड्री वॉल बनाना चालू किया तो कालेज के प्रिंसिपल ने आपत्ति जताई।
– भक्त ने प्राचार्य को ट्रांसफर की धमकी दे दी।
– प्रिंसिपल की उचक्के मंत्री के दरबार में पेशी हुई।
– मंत्री ने ऐंठकर कहा- तुमने हमारे अंधमूक प्रिय भक्त के काम में बाधा पहुंचाने की कोशिश की ?
– प्राचार्य ने डरते हुए जबाब दिया -सर वो तो कालेज की जमीन है।
– भक्त ने डांटते हुए कहा- कालेज तो सरकारी है, मंत्री जी की सरकार है और जमीन तुम्हारे बाप की नहीं है, तो आपत्ति करने वाले तुम कौन होते हो ?
– मंत्री ने पूछा -कहां जाना चाहते हो,या सस्पेंड होकर घर बैठना चाहते हो?
– पीए को बुलाया गया और प्राचार्य का नाम नोट कर राजधानी मंत्रालय के सबसे बड़े अधिकारी को फोन लगाकर तुरंत कार्यवाही करने के आदेश मंत्री ने दे दिए।
– प्रिंसिपल हाथ जोड़े बड़बड़ाता रहा, फिर गार्ड ने घसीटते हुए बंगले के बाहर कर दिया।
(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी की एक भावप्रवण एवं प्रेरक लघुकथा “ भविष्य निधि – दीप दीपावली के”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।)
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – भविष्य निधि – दीप दीपावली के ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆
दिवाली के दिन पूर्वान्ह में गांव के प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में खड़ा एक अधेड़ चुपचाप शाला के भवन को देख रहा था। यह व्यक्ति जिले के हायर सेकेंडरी विद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्य महेश पाठकजी थे।
शाला के भवन को देखते- देखते वे पुरानी स्मृतियों में खो गये। बचपन में छोटे से गांव की इसी शाला से उन्होंने पढ़ाई का श्रीगणेश किया था। उस समय से देखते देखते इसका भवन पुराना होकर गिरता ही चला गया था। जिले में रहते हुये उन्हें गांव आने पर इसे देखने का अवसर चलते फिरते मिलता रहता था। भवन जर्जर होने के कारण उसमें नियमित कक्षायें लगना भी धीरे धीरे कम होने लगी, स्थानीय शिक्षकों की इसी कारण रुचि भी घटने लगी पर सबसे अधिक हानि हुई उन छोटे-छोटे बच्चों की, जिनके विद्यारंभ का एकमात्र आधार यही शाला थी। बच्चे चाह कर भी पढ़ने नहीं आ सकते थे।
पाठक जी को यह बात बहुत कचोटती थी। इसके जीर्णाेद्धार के लिये पंचायत विभाग से बहुत जुगत भिड़ाई पर सरपंच के रुचि नहीं लेने के कारण काम हो नहीं पाया।
एक वर्ष पूर्व वे सेवानिवृत्त हो गये और अपने मूल निवास वाले गांव में पत्नी सहित लौट आये। एक दिन अचानक उन्हें अपनी समस्या का समाधान मिल गया। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी अतः अब घर में केवल वे दो ही जीव थे सो एक दिन अपने मन की बात पत्नी से कह ही दी। वह भी सीधी-सादी सी थी तो तत्काल स्वीकृति दे दी और अपने भविष्य निधि के संचित धन को उन्होंने इसमें लगा कर शाला में पांच पक्के कमरे बनवा कर ऊपर टिन की छत डलवा दी। एक कोने में शौचालय बनवा दिया। अपने सेवाकाल में परिचित व्यवसायी से उचित दामों में मेज कुर्सी भी बनवा कर लगवा दी। बच्चों के कक्षा की समस्या एकाएक सुलझ गई थी और अब शाला भी नियमित चल सकती थी।
आज उसी नये भवन की पहली दीपावली के लिये बच्चे सजावट कर रहे थे और खुशी से शोर मचाते हुये दौड़ते फिर रहे थे। सुबह की धूप में उन बच्चों की चमकती हुई आंखों को देख कर पाठक जी को ऐसा लगा मानो दीपावली की सांझ के दीपक उनके विद्यालय के आंगन अभी से जगमगा उठे हों।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – नए ज़माने की दुआ।)
☆ लघुकथा – नए ज़माने की दुआ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
“इस घर में कुलदीपक पैदा हुआ है, इस साधु को भी कुछ बधाई दो बच्चा!” गेरुए वस्त्र धारण किए एक बाबा ने घर के भीतर प्रवेश करते हुए कहा। नवजात शिशु के पिता ने पूछा, “आपको कैसे पता चला बाबा कि लड़का हुआ है?”
“तुम्हारे घर के दरवाज़े पर नीम के पत्ते और खिलौने टँगे हैं। बाबा का भी मुँह मीठा कराओ।”
नवजात का पिता भीतर से मिठाई ले आया, साथ ही दो सौ का एक नोट भी बाबा की हथेली पर रख दिया। बाबा ने ख़ुश होकर दुआ दी, “ईश्वर बच्चे और उसके माँ-बाप की उम्र लम्बी करे। मेरी दुआ और आशीर्वाद है कि बच्चा बड़ा होकर बाहर के देश में जाए।”
“यह कैसी दुआ है बाबा, वह बाहर क्यों जाए भला?” बच्चे के बाप ने जैसे नाराज़ होते हुए कहा।
“तुम्हें बुरा लगा हो तो क्षमा करना बच्चा, पर आजकल तो हर युवा बाहर मुल्क में जाने की जीतोड़ कोशिश कर रहा है। कितने युवा हैं जो बाहर जाने में सक्षम होने के बावजूद इस देश में रहना चाहते हैं?”
बाबा चला गया था पर बच्चे का पिता समय के साथ आकार लेने वाली भविष्य की कई दुआओं के बारे में एक साथ सोच गया- बच्चा नशे और माफ़ियाओं से बचा रहे, बच्चा धर्मांध भीड़ का हिस्सा होने से बचा रहे, उसके बड़े होने तक रोज़गार बचे रहें, पीने के लिए पानी बचा रहे… और… और… सर्दी का मौसम था और बच्चे का पिता पसीने से भीग गया था।