(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – सीख ।)
☆ लघुकथा – सीख ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
मुन्ना जब बहुत छोटा था, माँ को हमेशा लगता कि कहीं वह भूखा न रह जाए। वह उसकी अनिच्छा के बावजूद उसे बार-बार दूध पिलाती रहती। मुन्ना बड़ा हो गया, उसकी भूख भी बड़ी हो गई, पर घर ग़रीब बना रहा। पति ने पत्नी से कहा,”हमें मुन्ना को भूखा रहना सिखाना होगा। तुमने बचपन में उसे ज़रूरत से ज़्यादा दूध पिलाया जिससे उसकी भूख बढ़ गई।”
“उसकी भूख की चिन्ता तुम्हें मुझसे ज़्यादा थी, मुझे इल्ज़ाम मत दो।”
“चलो छोड़ो पिछली बातें। आज की परिस्थिति में उसकी भूख हमारी ही नहीं, उसकी भी चिंता का कारण होनी चाहिए। रोज़गार कहीं है नहीं। कहीं दिहाड़ी करेगा तो दिहाड़ी के पैसे से उसका पेट नहीं भरेगा। और हम हमेशा उसके साथ तो नहीं रहेंगे। उसको भूखा रहना सीखना होगा।”
“पर यह होगा कैसे? उसका पेट ज़रा सा कम भरा हो तो उसके भीतर भूख की चिंगारी सुलगती रहती है, इस चिंगारी को बुझाने के लिए उसे आख़िरी कौर तक खाना पड़ता है।”
“हमें उसे बस यही सिखाना है कि तीसरा, चौथा या पहला, दूसरा कौर भी आख़िरी कौर हो सकता है।”
संवाद सम्पन्न हो गया था, पति पत्नी दोनों एक दूसरे की तरफ पीठ किए शून्य में पता नहीं बहुत देर तक क्या देखते रहे।
(विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘खिलेगा तो देखेंगे’ के एक प्रसंग से प्रेरित)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रेम
“वी आर इन रिलेशनशिप.., आई लव हर डैड,” होस्टल में रहनेवाले बेटे ने फोन पर ऐलान किया था। वह चुप रहा। यहाँ-वहाँ की बातें कर कुछ देर बाद फोन रख दिया।
ज़्यादा समय नहीं बीता। शायद छह महीने बाद ही उसने घोषणा कर दी, ” हमारा ब्रेकअप हो गया है। आई डोंट लव हर एनी मोर।” कुछ देर के संवाद के बाद पिता ने फिर फोन रख दिया।
‘लव हर.., डोंट लव हर..?’ देह तक पहुँचने का रास्ता कितना छोटा होता है! मन तक पहुँचने का रास्ता कहीं ठहरने का नाम ही नहीं लेता बल्कि हर कदम के बाद पीछे लौटने का रास्ता बंद होता जाता है। न रास्ता ठहरता है, न पीछे लौट सकने की गुंजाइश का खत्म होना रुकता है। प्रेम और वापस लौटना विलोम हैं। लव में ‘अन-डू’ का ऑप्शन नहीं होता। जो खुद को लौटा हुआ घोषित करते हैं, वे भी केवल देह लेकर ही लौट पाते हैं। मन तो बिंधा पड़ा होता है वहीं। काँटा चुभने की पीर, गुमशुदा के गुमशुदा रहने की दुआ, खोने की टीस, पाने की भी टीस, पराये का अपना होने की प्रीत, अपने का पराया होने की रीत, थोड़ा अपना पर थोड़ा पराया दिखता मीत.., किसी से भी, कहीं से भी वापस नहीं लौट पाता मनुष्य।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है नवीन पीढ़ी में संस्कारों के अंकुरण हेतु विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “संस्कारों की बुवाई…”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 127 ☆
☆ लघुकथा – संस्कारों की बुवाई☆
सत्य प्रकाश और उसकी पत्नी धीरा बहुत ही संस्कारवान और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। एक ही बेटा है तनय वह भी बाहर पढ़ते हुए अपनी पसंद से शादी कर सुखद जीवन बिता रहे थे।
गाँव में सत्य प्रकाश को बहुत चाहते थे क्योंकि उनकी बातें व्यर्थ नहीं होती थी और न ही कभी असत्य का साथ देते थे।
वर्क फ्रॉम होम होने के कारण बेटा बहू अपने पाँच साल के बेटे यश को लेकर घर आए। दादा – दादी के प्यार से यश बहुत खुश हुआ। दिन भर धमाचौकड़ी मचाने वाला बच्चा दादा जी के साथ सुबह से उठकर उनसे अच्छी बातें सुनता, पूजा-पाठ में भी बड़े लगन के साथ रहता और जिज्ञासा वश दिनभर दादा – दादी से प्रश्न करता रहता।
समय बीतता जा रहा था। उनका भी मन लग गया। बेटा बहु देरी से सो कर उठते थे। आज तनय जल्दी सो कर उठा। तो देखा कि दादा दादी और पोता मिलकर भगवान की आरती कर रहे हैं और बराबरी से मंत्र का उच्चारण उनके साथ उसका बेटा यश भी कर रहा है।
तनय आश्चर्य से देखने लगा बहुत अच्छा सा महसूस किया।
अपने पापा को आरती देकर यश चरण स्पर्श करता है तो तनय खुशी से झूम उठता है।
और अपने पिताजी की ओर देखने लगता है। सत्य प्रकाश जी कहने लगे… बेटा मैंने संस्कारों की बुवाई कर दिया है। इसे किस तरह बढ़ाना है तैयार करना है यह तुम्हारे ऊपर है।
और हाँ इसका फायदा भी तुम्हें ही मिलेगा।
बरसों बाद आज माँ पिता के चरण स्पर्श कर तनय गले से लग गया।
(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है पितृदिवस पर आपकी एक संवेदनशील लघुकथा – “मुक्ति”)
☆ कथा-कहानी ☆ पितृ दिवस विशेष – लघुकथा – “मुक्ति” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆
(पिता हर साल बूढ़े होते हैं, पुराने नहीं। आज फादर्स डे पर, सभी के पिताओं प्रणाम करते हुए, एक बूढ़ी-सी विवश लघुकथा)
दो दिन पहले एक भीषण दुर्घटना हो गई। मौसम की पहली तेज मूसलाधार बारिश से नदी के पुल का एक हिस्सा टूट चुका था और आती हुई पैसिंजर ट्रेन की तीन बोगी नदी में गिरकर डूब चुकी थीं। चारों ओर हाहाकार मचा था। लाशें निकाली जा रही थी। फिर भी आशंका थी कि कुछ लाशें अब भी नदी में बहकर चली गई होंगी। राहत अधिकारी ने घोषणा की -” नदी में से लाश ढूँढकर लानेवाले को एक हजार रुपए मिलेंगे। “
राहत शिविर से तीन-चार मील दूरी पर एक झोंपड़ी के सामने दो भाई उदास बैठे थे। तीन दिनों से उनके पेट में अन्न का दाना तक नहीं गया था। उस पर बूढ़ा बाप चल बसा। बूढ़ा मरने से पहले बड़बड़ाता रहा था – “अरे, मेरी दवा-दारू नहीं की तो नहीं की, पर मेरी मिट्टी जरूर सुधार देना। मुझे दफनाना नहीं, अग्निमाता के हवाले कर देना, वरना मुझे मुक्ति नहीं मिलेंगी।”
“कहाँ से करें अग्निमाता के हवाले ! घर में चूल्हा जलाने को पैसे नहीं है। लाश जलाने को कहाँ से आएँगे पैसे?” एक भाई बोला।
“हम कितने गरीब और बदनसीब हैं, अपने बाप की आखिरी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकेंगे। लाश को सुबह दफनाना ही होगा।” रोता हुआ दूसरा भाई बोला। दोनों भाई सिर झुकाए रो रहे थे। बारिश हो रही थी।
अचानक उनकी आँखें चमक-सी उठीं। उन्होंने झट लाश को झोंपड़े से निकालकर खुले में रख दिया। रातभर लाश भीगती रही। तड़के ही दोनों ने लाश को उठाया और नदी के किनारे होते-होते राहत शिविर में पहुँचे। राहत अधिकारी से बोले – ” हुजूर, ये लाश नदी से लाए हैं। ट्रेन के किसी मुसाफिर की होगी। किसी हिन्दू की लगती हैं साहब, इसके गले में जनेऊ है।” एक भाई बोला।
“और साब! इसके चोटी भी है।” दूसरा बोला।
अधिकारी ने कुछ सतही सवाल पूछे और अपने कर्मचारी से कहा – “इन्हें हजार रूपए दे दो और लाश को उधर रख दो, हिन्दूवाली लाशों के साथ। कोई लेने आया तो ठीक, वरना परसों लावारिस समझकर सामुहिक जला देना। बाकी लाशें दफन कर देना।”
दो दिन बाद दोनों भाई दूर से अपने पिता की लाश को अग्निमाता के हवाले होते देख अपने बाबा को याद करते रो रहे थे। बाबा बड़ा धार्मिक आदमी था। शुभ दिन मरा, अपनी मिट्टी खुद ही सुधार गया। खुद भी मुक्त हुआ और जाते-जाते भी हमें कुछ देकर ही गया।
(इन जाहिल-गंवारों को भला क्या पता, कि उस दिन इत्तेफाक से आज ‘फादर्स डे’ भी था।)
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बॉयकॉट।)
☆ लघुकथा – बॉयकॉट☆ श्री हरभगवान चावला ☆
साठ-सत्तर हज़ार की आबादी वाले मेरे शहर में मुस्लिमों की संख्या बहुत कम थी। शहर में सिर्फ़ एक मस्जिद थी जो मेरे घर से बहुत दूर थी। साल-दो साल में एकाध बार ही उधर से जाना होता। उस दिन शुक्रवार था। संयोग से मेरा मस्जिद के सामने से निकलना हुआ। लोग जुम्मे की नमाज़ पढ़कर बाहर निकल रहे थे। मैंने देखा – उन लोगों में जालीदार टोपी लगाए दीपक सब्ज़ीवाला भी था। उसने भी मुझे देख लिया था, लेकिन कतराते हुए एक ओर मुड़ गया। शाम को सब्ज़ी खरीदने के लिए मैं उसकी दुकान पर खड़ा था, जहाँ एक लोहे का बोर्ड टँगा था और उस पर लिखा था – दीपक सब्ज़ीवाला। वह मेरे कहे अनुसार सब्ज़ी तोलता रहा, पर एक बार भी आँख नहीं मिलाई। सब्ज़ी पैक हो गई, दाम चुक गए। चलने लगा तो उसने सिर झुकाए-झुकाए कहा, “माफ़ी चाहता हूँ सर, पर दीपक नाम रखना मेरी मजबूरी थी। मुस्लिम इलाक़ों में हिंदू भी ऐसी ही मजबूरी में मुस्लिम नाम रखते हैं।”
“दीपक ही क्यों?”
“दीपक मेरे बचपन का दोस्त है। वह भी मेरी तरह अपने घर से बहुत दूर मुसलमानों के इलाक़े में कारोबार करता है और वहाँ उसने अपना नाम सत्तार रखा हुआ है।”
“हूँऽ…”
“शुक्रिया सर, आपने मेरा बॉयकॉट नहीं किया।”
इस एक वाक्य में निहित बेचारगी ने मुझे कँपा दिया। मैंने पूछा, “तुम्हारा असली नाम क्या है दीपक?”
“सत्तार।” उसने अपना नाम इतना धीरे बोला कि मेरे अलावा हवा भी उसे न सुन सकी।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – आज का रांझा… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(सन् 1972 में उन दिनों के लोकप्रिय अखबार वीर प्रताप द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में मेरी यह लघुकथा सर्वप्रथम रही थी। आज आपकी अदालत में –कमलेश भारतीय)
उन दोनों ने एक दूसरे को देख लिया था और मुस्कुरा दिए थे । करीब आते ही लड़की ने इशारा किया था और क्वार्टरों की ओर बढ़ चली । लड़का पीछे पीछे चलने लगा ।
लड़के ने कहा -तुम्हारी आंखें झील सी गहरी हैं ।
-हूं ।
लड़की ने तेज तेज कदम रखते इतना ही कहा ।
-तुम्हारे बाल काले बादल हैं ।
-हूं ।
लड़की तेज चलती गयी ।
बाद में लड़का उसकी गर्दन, उंगलियों, गोलाइयों और कसाव की उपमाएं देता रहा । लड़की ने हूं भी नहीं की ।
क्वार्टर खोलते ही लड़की ने पूछा – तुम्हारे लिए चाय बनाऊं ?
चाय कह देना ही उसकी कमजोर नस पर हाथ रख देने के समान है, दूसरा वह बनाये । लड़के ने हाँ कह दी । लड़की चाय चली गयी औ, लड़का सपने बुनने लगा । दोनों नौकरी करते हैं । एक दूसरे को चाहते हैं । बस । ज़िंदगी कटेगी ।
पर्दा हटा और ,,,,
लड़का सोफे में धंस गया । उसे लगा जैसे लड़की के हाथ में चाय का प्याला न होकर कोई रायफल हो, जिसकी नली उसकी तरफ हो । जो अभी गोली उगल देगी ।
-चाय नहीं लोगे ?
लड़का चुप बैठा रहा ।
लड़की से, बोली -मेरा चेहरा देखते हो ? स्टोव के ऊपर अचानक आने से झुलस गया । तुम्हें चाय तो पिलानी ही थी । सो दर्द पिये चुपचाप बना लाई ।
लड़के ने कुछ नहीं कहा । उठा और दरवाजे तक पहुंच गया ।
-चाय नहीं लोगे ?
लड़की ने पूछा ।
-फिर कब आओगे?
– अब नहीं आऊंगा ।
-क्यों ? मैं सुंदर नहीं रही ?
और वह खिलखिला कर हंस दी ।
लड़के ने पलट कर देखा,,,
लड़की के हाथ में एक सड़ा हुआ चेहरा था और वह पहले की तरह सुंदर थी ।
लड़का मुस्कुरा कर करीब आने लगा तो उसने सड़ा हुआ चेहरा उसके मुंह पर फेंकते कहा -मुझे मुंह मत दिखाओ ।
(श्री श्याम संकत जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। स्वान्त: सुखाय कविता, ललित निबंध, व्यंग एवं बाल साहित्य में लेखन। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं व आकाशवाणी पर प्रसारण/प्रकाशन। रेखांकन व फोटोग्राफी में रुचि। आज प्रस्तुत है पर्यावरण दिवस पर आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘कुतरन’।)
☆ लघुकथा – कुतरन ☆ श्री श्याम संकत ☆
दो भाई-बहन थे। बहन का नाम था ‘कापी’ और भाई था ‘पेस्ट’। एक मम्मी भी रहीं, नाम था उनका ‘कट’।
सब मिल कर घर में धमाल मचाए रहते। खूब फाईल फ़ोल्डर में क्रांति करते, आज़ादी मांगते, खुदाई कर डालते। गूगल को संग ले कर भगवान जाने क्या क्या सर्वे करते रहते। कभी नया साहित्य रचते, कभी विमर्श में उलझते, कभी आलोचना में हाथ आजमाते तो कभी समीक्षक बन बैठते। कभी तो आला दर्जे के टिप्पणीकार भी बन जाते। कविता, कहानी, गज़ल, लघुकथा टाईप चीजें तो इनके बाएं हाथ का खेल थीं।
हाँ, घर में एक बाप भी था, नाम था ‘डिलीट’। ये बाप अपनी पर आ जाए तो समझो एक झटके में सब गुड़ का गोबर हुआ।
हुआ यूँ , कि एक दिन सबने मिलकर बहुत साहित्य बघारा, खटा-पटी चलती रही। सो रात पड़े टेबल के नीचे छिपे माऊस, जी हाँ वही माऊस यानि चूहा, इसका दिमाग भन्नाया तो उसने सब यानि कट, कापी, पेस्ट, डिलीट को किसी सरकारी एजेन्सी सरीखे तीखे बारीक दांतों से कुतर कुतर कर बिखेर डाला।
सुबह कामवाली बाई ने जरुर थोड़ी पें पें करी, लेकिन अब घर में शांति है।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा ‘कसक’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 93 ☆
☆ लघुकथा – कसक ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
कॉलबेल बजी। मैंने दरवाजा खोला, सामने एक वृद्धा खड़ी थीं। कद छोटा, गोल- मटोल, रंग गोरा, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, जो उनके चेहरे पर निहायत सलोनापन बिखेर रही थी। कुल मिलाकर सलीके से सिल्क की साड़ी पहने बड़ी प्यारी सी महिला मेरे सामने खड़ी थी। जवानी में निस्संदेह बहुत खूबसूरत रही होंगी। मैंने उनसे घर के अंदर आने का आग्रह किया तो बोलीं – ‘पहले बताओ मेरी कहानी पढ़ोगी तुम? ‘
अरे, आप अंदर तो आइए, बहुत धूप है बाहर – मैंने हंसकर कहा।
सब सोचते होंगे बुढ़िया सठिया गई है। मुझे बचपन से ही लिखना पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ ना कुछ लिखती रहती हूँ पर परिवार में मेरे लिखे हुए को कोई पढ़ता ही नहीं। पिता ने मेरी शादी बहुत जल्दी कर दी। सास की डाँट खा- खाकर जवान हुई। फिर पति ने रौब जमाना शुरू कर दिया। बुढ़ापा आया तो बेटा तैयार बैठा है हुकुम चलाने को। पति चल बसे तो मैंने बेटे से कहा – अब किसी की धौंस नहीं सहना,मैं अकेले रहूंगी। सब पागल कहते हैं मुझे कि बुढ़ापे में लड़के के पास नहीं रहती। जीवन कभी अपने मन से जी ही नहीं सकी। अरे भाई, अब तो अपने ढ़ंग से जी लेने दो मुझे।
वह धीरे – धीरे संभलकर चलती हुई अपनेआप ही बोलती जा रही थीं।
मैंने कहा – आराम से बैठकर पानी पी लीजिए, फिर बात करेंगे। गर्मी के कारण उनका गोरा चेहरा लाल पड़ गया था और लगातार बोलने से साँस फूल रही थी। वह सोफे पर पालथी मारकर बैठ गईं और साड़ी के पल्लू से पसीना पोंछने लगीं। पानी पीकर गहरी साँस लेकर बोलीं – अब तो सुनोगी मेरी बात?
हाँ बिल्कुल, बताइए।
मैं पचहत्तर साल की हूँ। मुझे मालूम है कि मैं बूढ़ी हो गई हूँ पर क्या बूढ़े आदमी की कोई इच्छाएं नहीं होतीं? उसे बस मौत का इंतजार करना चाहिए? और किसी लायक नहीं रह जाता वह? बहुत- सी कविताएं और कहानियां लिखी हैं मैंने। घर में सब मेरा मजाक बनाते हैं, कहते हैं चुपचाप राम – नाम जपो, कविता – कहानी छोड़ो। कंप्यूटरवाले की दुकान पर गई थी कि मुझे कंप्यूटर सिखा दो तो वह बोला माताजी, अपनी उम्र देखो।
मैंने कहा – उम्र को क्या देखना? लिखने पढ़ने की भी कोई उम्र होती है? तुम अपनी फीस से मतलब रखो मेरी उम्र मत देखो। जब उम्र थी तो परिवारवालों ने कुछ करने नहीं दिया। अब करना चाहती हूँ तो उम्र को बीच में लाकर खड़ा कर दो, ना भई !
यह कहानी लिखी है बेटी ! तुम पढ़ना, उन्होंने बड़ी विनम्रता से कागज मेरे सामने रख दिया। मैं उनकी भरी आँखों और भर्राई आवाज को महसूस कर रही थी। मैंने कागज हाथ में ले लिया। अपने ढ़ंग से जिंदगी ना जी पाने की कसक की कहानी उनके चेहरे पर साफ लिखी थी।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “लघुकथा – वातानुकूलित संवेदना…”।)
एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती छिटपुट छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये एक रिक्शा चालक पर अचानक नज़र पड़ी।
लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर उसके पास जा कर देखा –
वह खर्राटे भरते हुए गहरी नींद सो रहा था।
समस्त सुख-संसाधनों के बीच मुझ जैसे अनिद्रा रोग से ग्रस्त सर्व सुविधा भोगी व्यक्ति को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने इत्मिनान से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से स्वाभाविक ही ईर्ष्या होने लगी।
इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे की सवारी वाली सीट पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वापस अपनी कार में सवार हो गया
घर पहुँचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में लग गया।
‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरा करते हुए मेरे तन-मन में एक अलग ही स्फूर्ति व उल्लास है।
रिक्शाचालक पर तैयार इस सशक्त कहानी को पढ़ने के बाद मेरे अन्तस पर इतना असर हो रहा है कि, इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी खुशी से मन में हिलोरें लेने लगी है।
अब इस पर कविता लिखना इसलिए भी आवश्यक समझ रहा हूँ कि,
—- हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से रिक्शे वाले के ज़रिए मुझे किसी प्रतिष्ठित मुकाम तक पहुँचा दे
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – इस पल
“काश जी पाता फिर से वही पुराना समय…!”… समय ने एकाएक घुमा दिया पहिया।…आज की आयु को मिला अतीत का साथ…बचपन का वही पुराना घर, टूटी खपरैल, टपकता पानी।…एस.यू. वी.की जगह वही ऊँची सायकल जिसकी चेन बार-बार गिर जाती थी.., पड़ोस में बचपन की वही सहपाठी अपने आज के साथ…दिशा मैदान के लिए मोहल्ले का सार्वजनिक शौचालय…सब कुछ पहले जैसा।..एक दिन भी निकालना दूभर हो गया।..सोचने लगा, काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।
“काश भविष्य में जी पाऊँ किसी धन-कुबेर की तरह !”…समय ने फिर परिवर्तन का पहिया घुमा दिया।..अकूत संपदा.., हर सुबह गिरते-चढ़ते शेयरों से बढ़ती-ढलती धड़कनें.., फाइनेंसरों का दबाव.., घर का बिखराव.., रिश्तों के नाम पर स्वार्थियों का जमघट।..दम घुटने लगा उसका।..सोचने लगा, “काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।”
बीते कल, आते कल की मरीचिका से निकलकर वह गिर पड़ा इस पल के पैरों में।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆