डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘निष्कासन’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 90 ☆
☆ लघुकथा – निष्कासन ☆
वह सिर झुकाए बैठी थी। चेहरा दुपट्टे से ढ़ंका हुआ था। एक महिला पुलिस तेज आवाज में पूछ रही थी – कैसे आ गई इस धंधे में ? यहाँ कौन लाया तुझे ? बोल जल्दी – उसने सख्ती से कहा। उसने सूनी आँखों से चारों तरफ देखा, उत्तर देने में जख्म हरे हो जाते हैं, पर क्या करे ? ना जाने कितनी बार बता चुकी है यह सब —
सौतेली माँ ने बहुत कम उम्र में मेरी शादी कर दी। मेरा आदमी मुंबई में मजदूरी करता था। सास खाने में रोटी और मिर्च की चटनी देती थी। आग लग जाती थी मुँह में। पानी पी- पीकर किसी तरह पेट भरती थी अपना। बोलते – बोलते उसकी जबान लड़खड़ाने लगी मानों मिर्च का तीखापन फिर लार में घुल गया हो।
नाटक मत कर, कहानी सुनने को नहीं बैठे हैं हम, आगे बोल –
पति आया तो उसको सारी बात बताई। वह मुझे अपने साथ मुंबई ले गया। इंसान को मालूम नहीं होता कि किस्मत में क्या लिखा है वरना मिर्च की चटनी खाकर चुपचाप जीवन काट लेती। अपने आदमी के साथ चली तो गई पर वहाँ जाकर समझ में आया कि यहाँ के लोग अच्छे नहीं हैं। मुझे देखकर गंदे इशारे करते थे। एक रात पति काम के लिए बाहर गया था। रात में कुछ लोग मुझे जबर्दस्ती उठाकर ले गए। बहुत रोई, गिड़गिड़ाई पर —। आधी रात को पत्थरों पर फेंककर चले गए। तन - मन से बुरी तरह टूट गई थी मैं। पति पहले तो बोला कि तेरी कोई गल्ती नहीं है इसमें लेकिन बाद में अपनी माँ की ही बात सुनने लगा। सास उससे बोली कि इसके साथ ऐसा काम हुआ है इसको क्यों रखा है अब घर में, निकाल बाहर कर। उसके बाद से वह मुझे बहुत मारने लगा। हाथ में जो आता, उससे मारता। एक दिन परेशान होकर मैं घर से निकल गई। मायके का रास्ता मेरे लिए पहले ही बंद था। छोटी – सी बच्ची थी मेरी, गोद में उसे लेकर इधर – उधर भटकती रही। कहने को माँ – बाप, भाई, पति सब थे, पर कोई सहारा नहीं। कुछ दिन भीख मांगकर किसी तरह अपना और बच्ची का पेट भरती रही। तब भी लोगों की गंदी बातें सुननी पड़ती थीं। कब तक झेलती यह सब? एक दिन ऑटो रिक्शे में बैठकर निकल पड़ी। रिक्शेवाले ने पूछा – कहाँ जाना है? मैंने कहा – पता नहीं, जहाँ ले जाना हो, ले चल। उसने इस गली में लाकर छोड़ दिया। बस तब से यहीं —
और कुछ पूछना है मैडम? उसने धीमी आवाज में पूछा।
नाम क्या है तुम्हारा ? – थोड़ी नरमी से उसने पूछा।
सीता।
© डॉ. ऋचा शर्मा
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