हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 90 – स्वधर्म ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #90 🌻 स्वधर्म 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक साधु गंगा में स्नान कर रहे थे. गंगा की धारा में बहता हुआ एक बिच्छू चला जा रहा था. वह पानी की तेज धारा से बच निकलने की जद्दोजहद में था. साधु ने उसे पकड़ कर बाहर करने की कोशिश की, मगर बिच्छू ने साधु की उँगली पर डंक मार दिया. ऐसा कई बार हुआ.

पास ही एक व्यक्ति यह सब देख रहा था. उससे रहा नहीं गया तो उसने साधु से कहा “महाराज, हर बार आप इसे बचाने के लिए पकड़ते हैं और हर बार यह आपको डंक मारता है. फिर भी आप इसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं. इसे बह जाने क्यों नहीं देते”

साधु ने जवाब दिया “ डंक मारना बिच्छू की प्रकृति और उसका स्वधर्म है. यदि यह अपनी प्रकृति नहीं बदल सकता तो मैं अपनी प्रकृति क्यों बदलूं?  दरअसल इसने आज मुझे अपने स्वधर्म को और अधिक दृढ़ निश्चय से निभाने को सिखाया है”

“आपके आसपास के लोग आप पर डंक मारें, तब भी आप अपनी सहृदयता न छोड़ें “

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 92 ☆ अनहोनी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘अनहोनी’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 92 ☆

☆ लघुकथा – अनहोनी ☆ 

कई बार दरवाजा खटखटाने पर भी जब रोमा ने दरवाजा नहीं खोला तो उसका मन किसी अनहोनी की आशंका से बेचैन होने लगा। ऐसा तो कभी नहीं हुआ। इतनी देर तो कभी नहीं होती उसे दरवाजा खोलने में। आज क्या हो गया ?  आज सुबह जाते समय वह बाथरूम से उससे कुछ कह रही थी लेकिन काम पर जाने की जल्दी में उसने  जानबूझकर उसकी आवाज अनसुनी कर दी। कहीं बेहोश तो नहीं हो गई ? दिल घबराने लगा, आस – पड़ोसवाले भी इकठ्ठे होने शुरू हो गए थे।

वह रोज सुबह अपने काम से निकल जाता और रोमा घर में सारा दिन अकेली  रहा करती थी। बेटी की शादी हो गई और बेटा विदेश में था। उसने कई बार पति को समझाने की कोशिश भी की कि अब उसे काम करने की कोई जरूरत नहीं है, उम्र के इस दौर में आराम से रहेंगे दोनों पति-पत्नी लेकिन पुरुषों को घर में बैठना कब रास आता है।  किसी तरह से घर का दरवाजा खोला गया। रोमा बाथरूम में बेहोश पड़ी थी उसे शायद हार्ट अटैक आया था। पड़ोसियों की मदद से वह रोमा को अस्पताल ले गया। रोमा को अभी तक होश नहीं आया था। वह उसका हाथ पकड़े बैठा था और सोच रहा था कि अगर आज भी रोज की तरह देर रात घर आता तो ?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – लाँग वॉक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – लाँग वॉक ??

तुम्हारा लाँग वॉक मार डालेगा मुझे…रुको..!.. इतना तेज़ मत चलो… मैं इतना नहीं चल सकती…दम लगने लगता है…हम कभी साथ नहीं चल सकते…, उसने कहा था। वह रुक गया। आगे जाकर राहें ही जुदा हो गईं।

बरसों बाद एक मोड़ पर मिले।…क्या करती हो आजकल?… लाँग वॉक करती हूँ, कई- कई घंटे… साथ वॉक करें कल? …नहीं मेरा वॉक बहुत कम हो गया है। मैं इतना नहीं चल सकता…दम लगने लगता है… हम कभी साथ नहीं चल सकते…, उसने फीकी हँसी के साथ कहा। राहें फिर जुदा हो गईं।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – महँगी घनिष्ठता ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ☆

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी की एक विचारणीय रचना महँगी घनिष्ठता

 ☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – महँगी घनिष्ठता ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ☆ 

पड़ोस के घर में दूर-दूर से जो परिचित आए उनमें से एक से घनिष्ठता बढ़ गई।  बड़े इतने प्यार से दीदी दीदी करते रहे। मैंने सोचा कि अच्छे लोगों से हमेशा परिचय और जान पहचान होनी चाहिए। फोन पर बातचीत के द्वारा पूरे घर परिवार से एक आत्मीयता बंध गई। शादी का कार्ड मिला फोन पर मुझसे कहा गया, नहीं तुम्हें तो बड़ी बहन का दर्जा निभाना है।

मैं भी स्नेह की डोर से बँधी कड़ी गर्मी में राजस्थान जैसी जगह पर सभी के लिए बेशकीमती तोहफ़े और  सामानों से लदी फदी पहुंची। आने जाने की टिकट, शादी की तैयारी का खर्च तो अलग था ही। वापस आते समय ₹1 भी मेरे हाथ पर नहीं रखा गया। कहा अरे आप तो बड़ी हैं, हम आपको क्या दें, यकायक मुझे महसूस हुआ कि वहां मेरे जैसी ही और भी बड़ी बहने मौजूद थी। 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

जबलपुर मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 89 – अभिमान ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #89 🌻 अभिमान 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा को यह अभिमान था कि – मैं ही राजा हूँ और सब जगत् का पालक हूँ, मनु आदि शास्त्रकारों के व्यर्थ विष्णु को गत् पालक कहकर शास्त्रों में घुसेड़ दिया है। एक बार एक संन्यासी शहर के बाहर एक पेड़ के नीचे जा बैठे। लोग उनकी शान्तिप्रद मीठी-मीठी बातें सुनने के लिए वहाँ जाने लगे। एक दिन राजा भी वहाँ गया और कहने लगा कि मैं ही सब लोगों का पालक हूँ।

यह सुनकर सन्त ने पूछा- तेरे राज्य में कितने कौए, कुत्ते और कीड़े हैं? राजा चुप हो गया। सन्त ने कहा- ’जब तू यही नहीं जानता तो उनको भोजन कैसे भेजता होगा? राजा ने लज्जित होकर कहा- ’तो क्या तेरे भगवान कीड़े-मकोड़े को भी भोजन देते हैं?  यदि ऐसा है तो मैं एक कीड़े को डिबिया में बंद करके रखता हूं, कल देखूँगा भगवान इसे कैसे भोजन देते हैं?

दूसरे दिन राजा ने सन्त के पास आकर डिबिया खोली तो वह कीड़ा चावल का एक टुकड़ा बड़े प्रेम से खा रहा था। यह चावल डिबिया बन्द करते समय राजा के मस्तक से गिर पड़ा था। तब उस अभिमानी ने माना कि भगवान ही सबका पालक है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – शत्रु ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा शत्रु।)

☆ लघुकथा – शत्रु ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

 (कविता के ऐसे तमाम शत्रुओं से क्षमा सहित)

– एक कवि आपसे मिलने के लिए द्वार पर हाथ बाँधे खड़ा है, आज्ञा हो तो उसे दरबार में आने दिया जाए ।

– कवि!! हमसे मिलने के लिए आया है, आश्चर्य! ये कवि कहे जाने वाले प्राणी तो जैसे पैदा ही राजाओं की निंदा के लिए हुए हैं ।

– पर यह कवि वैसा नहीं है ।

– कवि तो है न! तुम क्या नहीं जानते कि हम कवियों से और कवि हमसे कितना चिढ़ते हैं । कितने कवि हमारे कारागार में बंद हैं, कितनों पर मुकद्दमें चल रहे हैं, कितनों से हमारे दरबारी अपने स्तर पर लड़ रहे हैं ।

– जानता हूँ महाराज, पर इस कवि ने आपकी प्रशस्ति में कई चालीसे लिखे हैं, अब महाकाव्य लिखने की तैयारी में है । इस कवि ने प्रजा के बीच आपको अवतार के रूप में स्थापित करने का प्रण किया है ।

– अच्छा, उसका हमसे मिलने का प्रयोजन क्या है?

– वह आपको अपनी लिखी कविता की किताबें भेंट करना चाहता है ।

– किताबें! हा…हा…हा…हमने कभी कोई किताब पढ़ी है आज तक? और कविता के तो हम घोषित शत्रु हैं ।

– कविता का शत्रु तो वह भी है महाराज, अघोषित ही सही ।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #130 ☆ लघुकथा – समय की धार ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक विचारणीय लघुकथा  “समय की धार।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 130 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – समय की धार ☆

इंदु की बाहर पोस्टिंग हो जाने बाद आज उसका फोन आया. वहां के सारे हालचाल सुनाए और निश्चितता से कहा बहुत मजे से जिंदगी चल रही है.

हमने ना चाहते भी पूछ लिया अब शादी के बारे में क्या ख्याल है यह सुनते ही उसका गला भर आया.

उसने कहा..”माँ  बाबूजी भी इस बारे में बहुत फोर्स कर रहे हैं लेकिन मन गवाही नहीं दे रहा कि अब फिर से वही जिंदगी शुरू की जाए. पुराने दिन भुलाए नहीं भूलते।”

हमने समझाया ” सभी एक जैसे नही होते, हो सकता है कोई इतना बढ़िया इंसान मिले कि तुम पुराना सब कुछ भूल जाओ।”

“दी कैसे भूल जाऊं वह यादें… ,कितना गलत था मेरा वह निर्णय, पहले उसने इतनी खुशी दी और उसके बाद चौगुना दर्द, मारना -पीटना, भूखे रखना. उसकी माँ जल्लादों जैसा व्यवहार करती थी।”

“माँ बाप की बात को अनसुना करके बिना उनकी इजाजत के कोर्ट मैरिज कर ली और हमारे जन्म के संबंध एक पल में टूट गये।”

“देखो इंदु , अब तुम बीती बातों को भुला दो और अब यह आंसू बहाना बंद कर दो।”

“दी यह मैं जान ही नहीं पाई कि जो व्यक्ति इतना चाहने वाला था वह शादी के बाद ही गिरगिट की तरह रंग कैसे बदलने लगा।”

“इंदु अब तुम सारी बातों को समय की धार में छोड़ दो।”

“नहीं दी यह मैं नहीं भूल सकती, मैंने अपने माता पिता को बहुत कष्ट दिया, इसका उत्तर भगवान ने हमें दे दिया.”

“इंदु एक बात ध्यान रखना माता-पिता भगवान से बढकर है, वे अपनी संतान को हमेशा मांफ कर देते है।”

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – अक्षय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – अक्षय ??

बचपन में उसने तीन ‘द’ की कहानी पढ़ी थी। दानवों से दया, देवताओं से इंद्रिय दमन और मनुष्यों से दान अपेक्षित है।

वह अकिंचन था। देने के लिए कुछ नहीं था उसके पास। फिर वह अपनी रोटी में से एक हिस्सा दूसरों को देने लगा। प्यासों में बाँटकर पानी पीने लगा। छोटों को हाथ और बड़ों को साथ देने लगा।

सुनते हैं, अकिंचन का संचय सदा अक्षय रहा।

 

© संजय भारद्वाज

श्रीविजयादशमी, 2019, संध्या 5:17 बजे।

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 123 – लघुकथा – ठहरी बिदाई… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा  “ठहरी बिदाई… ”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 123 ☆

☆ लघुकथा – ठहरी बिदाई 

सुधीर आज अपनी बिटिया का विवाह कर रहा था। सारा परिवार खुश था परंतु रिश्तेदारों में चर्चा का विषय था कि सुधीर इस शुभ अवसर पर अपनी बहन को माफ कर सकेगा कि नहीं।

बहन रुपा ने अपनी मर्जी से शादी कर ली थी। घर परिवार के विरोध के बाद भी। स्वभाव से थोड़ा सख्त और अच्छी कंपनी पर कार्यरत सुधीर के परिवार की जीवन शैली बहुत अच्छी हो चुकी थी।

बहुत सुंदर और खर्चीली शादी लग रही थी। सुधीर की धर्मपत्नी नीरा बहुत ही विचारों से सुलझी और संस्कारों में ढली महिला थी।

द्वारचार का समय और बारात आगमन होने ही वाला था। सुधीर के स्वभाव के कारण कोई भी अपने मन से आगे बढ़कर काम नहीं कर रहा था। परंतु पत्नी की व्यवहारिकता सभी को आकर्षित कर रही थी। द्वारचार पर दरवाजे पर कलश उठाकर स्वागत करने के लिए बुआ का इंतजार किया जा रहा था।

सुधीर मन ही मन अपनी बहन रुपा को याद कर रहा था परंतु बोल किसी से नहीं पा रहा था। अपने स्टेटस और माता-पिता की इच्छा के कारण वह सामान्य बना हुआ था।

धीरे से परेशान हो वह अपनी पत्नी से बोला…. “रूपा होती तो कलश उठाकर द्वार पर स्वागत करती।” बस इतना ही तो कहना था सुधीर को!!!!!

पत्नी ने धीरे से कहीं  – “आप चिंता ना करें यह रही आपकी बहन रूपा।” कमरे से सोलह श्रृंगार किए बहन रूपा सिर पर कलश लिए बाहर निकली। और कहने लगी – “चलिए भैया मैं स्वागत करने के लिए आ गई हूं।”

सुधीर की आंखों से अश्रुधार बह निकली परंतु अपने आप को संभालते हुए ‘जल्दी चलो जल्दी चलो’ कहते हुए…. बाहर निकल गया।

विवाह संपन्न हुआ। बिदाई होने के बाद रूपा भी जाने के लिए तैयार होने लगी और बोली… “अच्छा भाभी मैं चलती हूं।”

भाभी अपनी समझ से खाने पीने का सामान और बिदाई दे, गले लगा कर बोली – “आपका आना सभी को अच्छा लगा। कुछ दिन ठहर जातीं।”

परंतु वह भैया को देख सहमी खड़ी रही। समान उठा द्वार के बाहर निकली! परंतु यह क्या चमचमाती कार जो फूलों से सजी हुई थी। गाड़ी के सामने अपने श्रीमान को देख चौंक गई। अंग्रेजी बाजा बजने लगा।

सुधीर ने बहन को गले लगाते हुए कहा…. “जब तुम सरप्राइज़ दे सकती हो, तो हम तो तुम्हारे भैया हैं। तुम्हारी बिदाई आज कर रहे हैं। चलो अपनी गाड़ी से अपने ससुराल जाओ और आते जाते रहना।” विदा हो रुपा चली गई।

अब पत्नी ने धीरे से कहा… “पतिदेव आप समझ से परे हैं। बहन की विदाई नहीं कर सके थे। आज आपने ठहरी विदाई कर सबके मन का बोझ हल्का कर दिया।”

यह कह कर वह चरणों पर झुक गई। माता-पिता भी प्रसन्न हो बिटिया की विदाई देख रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 88 – यह संसार क्या है? ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #88 🌻 यह संसार क्या है? 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक दिन एक शिष्य ने गुरु से पूछा, ‘गुरुदेव, आपकी दृष्टि में यह संसार क्या है?

इस पर गुरु ने एक कथा सुनाई।

‘एक नगर में एक शीशमहल था। महल की हरेक दीवार पर सैकड़ों शीशे जडे़ हुए थे। एक दिन एक गुस्सैल कुत्ता महल में घुस गया। महल के भीतर उसे सैकड़ों कुत्ते दिखे, जो नाराज और दुखी लग रहे थे। उन्हें देखकर वह उन पर भौंकने लगा। उसे सैकड़ों कुत्ते अपने ऊपर भौंकते दिखने लगे। वह डरकर वहां से भाग गया कुछ दूर जाकर उसने मन ही मन सोचा कि इससे बुरी कोई जगह नहीं हो सकती।

कुछ दिनों बाद एक अन्य कुत्ता शीशमहल पहुंचा। वह खुशमिजाज और जिंदादिल था। महल में घुसते ही उसे वहां सैकड़ों कुत्ते दुम हिलाकर स्वागत करते दिखे। उसका आत्मविश्वास बढ़ा और उसने खुश होकर सामने देखा तो उसे सैकड़ों कुत्ते खुशी जताते हुए नजर आए।

उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। जब वह महल से बाहर आया तो उसने महल को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ स्थान और वहां के अनुभव को अपने जीवन का सबसे बढ़िया अनुभव माना।  वहां फिर से आने के संकल्प के साथ वह वहां से रवाना हुआ।’

कथा समाप्त कर गुरु ने शिष्य से कहा..

‘संसार भी ऐसा ही शीशमहल है जिसमें व्यक्ति अपने विचारों के अनुरूप ही प्रतिक्रिया पाता है। जो लोग संसार को आनंद का बाजार मानते हैं, वे यहां से हर प्रकार के सुख और आनंद के अनुभव लेकर जाते हैं।

जो लोग इसे दुखों का कारागार समझते हैं उनकी झोली में दुख और कटुता के सिवाय कुछ नहीं बचता…..।’

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares