हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #57 – आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #57 –  आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार

किसी दूर गाँव में एक पुजारी रहते थे जो हमेशा धर्म कर्म के कामों में लगे रहते थे। एक दिन किसी काम से गांव के बाहर जा रहे थे तो अचानक उनकी नज़र एक बड़े से पत्थर पे पड़ी। तभी उनके मन में विचार आया कितना विशाल पत्थर है क्यूँ ना इस पत्थर से भगवान की एक मूर्ति बनाई जाये। यही सोचकर पुजारी ने वो पत्थर उठवा लिया। 

गाँव लौटते हुए पुजारी ने वो पत्थर के टुकड़ा एक मूर्तिकार को दे दिया जो बहुत ही प्रसिद्ध मूर्तिकार था। अब मूर्तिकार जल्दी ही अपने औजार लेकर पत्थर को काटने में जुट गया। जैसे ही मूर्तिकार ने पहला वार किया उसे एहसास हुआ की पत्थर बहुत ही कठोर है। मूर्तिकार ने एक बार फिर से पूरे जोश के साथ प्रहार किया लेकिन पत्थर टस से मस भी नहीं हुआ। अब तो मूर्तिकार का पसीना छूट गया वो लगातार हथौड़े से प्रहार करता रहा लेकिन पत्थर नहीं टूटा । उसने लगातार 99 प्रयास किये लेकिन पत्थर तोड़ने में नाकाम रहा।

अगले दिन जब पुजारी आये तो मूर्तिकार ने भगवान की मूर्ति बनाने से मना कर दिया और सारी बात बताई। पुजारी जी दुखी मन से पत्थर वापस उठाया और गाँव के ही एक छोटे मूर्तिकार को वो पत्थर मूर्ति बनाने के लिए दे दिया। अब मूर्तिकार ने अपने औजार उठाये और पत्थर काटने में जुट गया, जैसे ही उसने पहला हथोड़ा मारा पत्थर टूट गया क्यूंकि पत्थर पहले मूर्तिकार की चोटों से काफी कमजोर हो गया था। पुजारी यह देखकर बहुत खुश हुआ और देखते ही देखते मूर्तिकार ने भगवान शिव की बहुत सुन्दर मूर्ति बना डाली।

पुजारी जी मन ही मन पहले मूर्तिकार की दशा सोचकर मुस्कुराये कि उस मूर्तिकार ने 99 प्रहार किये और थक गया, काश उसने एक आखिरी प्रहार भी किया होता तो वो सफल हो गया होता।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 71 ☆ नॉट रिचेबल ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  वर्तमान परिस्थितयों में ह्रदय कठोर कर निर्णय लेने के लिए प्रेरित करती लघुकथा नॉट रिचेबलडॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 71 ☆

☆ लघुकथा – नॉट रिचेबल ☆

पत्नी का देहांत हुए महीना भर ही हुआ था । घर में बडा अकेलापन महसूस कर रहे थे । बेटा – बहू , बच्चे अपना – अपना लैपटॉप लेकर कमरों में बंद हो जाते थे । घर खाने को दौड रहा था । पत्नी के जाते ही हाथ- पाँव जैसे कट से गए थे , कुछ सूझ ही नहीं रहा था । अब समझ में आ रहा है कि बेटे बहू की बातें भी वह अपने तक ही रखती थी । समय रहते कद्र नहीं समझी मैंने उसकी , गुमसुम बैठ सोच रहे थे । तभी बेटा आकर बोला – पापा ! एक बात करनी थी आपसे । असल में ऑनलाइन क्लास के लिए सबको अलग कमरा चाहिए । मम्मी रही नहीं तो अब —– वे चश्मा उतारकर उसे देखने लगे – तो ?

क्या है सुमन आपके साथ कम्फर्टेबिल फील नहीं करती ।

गैरेज के पास जो कमरा है आप उसमें रह लेंगे क्या ?

हाँ — उन्होंने गहरी साँस ली । अगले दिन वे फ्लाईट्स के चार टिकट ले आए । बहू से बोले – बेटी! बहुत दिनों से तुम लोग कहीं घूमने नहीं गए हो । मैंने केरल में होटल की बुकिंग करवा दी है, खर्चे की चिंता मत करना । बच्चों की ऑनलाइन क्लासेस हैं और तुम दोनों का काम भी घर से ही हो रहा है तो तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी । सब खुश हो गए । बेटा भौचक्का था , बोला – पापा आप नाराज नहीं हैं ना मुझसे ? मुझे लगा था कि —

अरे ! अपने बच्चों से भी कोई नाराज होता है – वे मुस्कुराकर बोले ।

बेटे – बहू के जाने के बाद दूसरे दिन ही मकान के खरीददार आ गए । अपना बंगला बेचकर वे वन बेडरूम के छोटे फ्लैट में शिफ्ट हो गए । बेटा घूमकर लौटा तो वॉचमैन ने बेटे को एक पत्र दिया जिसमें बेटे के किराए के फ्लैट का पता लिखा हुआ था । पिता का फोन नॉट रिचेबल बता रहा था ।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 87 – लघुकथा – अंतिम इच्छा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण लघुकथा  “अंतिम इच्छा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 86 7

☆ लघुकथा अंतिम इच्छा ☆ 

“मेरी एक अंतिम बात मानोगे?”

“जी!”, डॉ ने अपने हाथ सैनिटाइजर्स धोते हुए पूछा।

वह कुछ देर चुप रही। फिर बोली, ” एक बार आपने एक इच्छा जाहिर की थी।”

“जी !”

“आपने कहा था- एक बार मुझे गले से लगा कर प्यार कर लो। मगर तब मैं मजबूर थी। मेरी सगाई हो चुकी थी।”

“जी।”

“अब पति भी जा चुका है। चाहती हूं मेरी भी इच्छा पूरी कर लूं।”

” क्या !”

” क्या आखरी बार मुझे आलिंगन करके प्यार नहीं करोगे? ताकि यहां नहीं मिल सके तो क्या हुआ वहां तो…..,”  कह कर वह डॉक्टर को निहारने लगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-05-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #98 – सुख-दुख के आँसू…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक विचारणीय लघुकथा सुख-दुख के आँसू…… । )

☆  तन्मय साहित्य  # 98 ☆

 ☆ सुख-दुख के आँसू…… ☆

“चलिए पिताजी- खाना खा लीजिए” कहते हुए बहू ने कमरे में प्रवेश किया।”

“अरे–!आप तो रो रहे हैं, क्या हुआ पिताजी, तबीयत तो ठीक है न?”

“हाँ, हाँ बेटी कुछ नहीं हुआ तबीयत को। ये तो आँखों मे दवाई डालने से आँसू निकल रहे हैं, रो थोड़े ही रहा हूँ मैं, मैं भला क्यों रोऊँगा।”

“तो ठीक है पिताजी, चलिए मैं थाली लगा रही हूँ।”

दूसरे दिन सुबह चाय पीते हुए बेटे ने पूछा–

“कल आप रो क्यों रहे थे, क्या हुआ पिताजी, बताइये न हमें?”

“कुछ नहीं बेटे, बहु से कहा तो था मैंने कि, दवाई के कारण आँखों से आँसू निकल रहे हैं।”

“पर आँख की दवाई तो आप के कमरे में थी ही नहीं, वह तो परसों से मेरे पास है,”

“बताइए न पिताजी क्या परेशानी है आपको? कोई गलती या चूक तो नहीं हो रही है हमसे?”

“ऐसा कुछ भी नहीं है बेटे, सच बात यह है कि, तुम सब बच्चों के द्वारा आत्मीय भाव से की जा रही मेरी सेवा-सुश्रुषा व देखभाल से मन द्रवित हो गया था और ईश्वर से तुम्हारी सुख समृध्दि की मंगल कामना करते हुए अनायास ही आँखों से खूशी के आँसू बहने लगे थे, बस यही बात है।”

किन्तु एक और सच बात यह भी थी इस खुशी के साथ जुड़ी हुई कि, रामदीन अपने माता-पिता के लिए उस समय की परिस्थितियों के चलते  ये सब नहीं कर पाया था, जो आज उसके बच्चे पूरी निष्ठा से उसके लिए कर रहे हैं।

सुख-दुख की स्मृतियों के यही आँसू यदा-कदा प्रकट हो रामदीन के एकाकी मन को ठंडक प्रदान करते रहते हैं।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – ऐसे थे तुम ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा – कहानी ☆ लघुकथा – ऐसे थे तुम ☆ श्री कमलेश भारतीय  

बरसों बीत गये इस बात को । जैसे कभी सपना आया हो । अब ऐसा लगता था । बरसों पहले काॅलेज में दूर पहाड़ों से एक लड़की पढ़ने आई थी । उससे हुआ परिचय धीरे धीरे उस बिंदु पर पहुंच गया जिसे सभी प्रेम कहते हैं ।

फिर वही होने लगा । लड़की काॅलेज न आती तो लड़का उदास हो जाता और लड़का न आता तो लड़की के लिए काॅलेज में कुछ न होता । दोनों इकट्ठे होते तो जैसे कहीं संगीत गूंजने लगता, पक्षी चहचहाने लगते ।

फिर वही हुआ जो अक्सर प्रेम कथाओं का अंत होता है । पढ़ाई के दौरान लड़की की सगाई कर दी गयी । साल बीतते न बीतते लड़की अपनी शादी का काॅर्ड देकर उसमें आने का न्यौता देकर विदा हो गयी।

लड़का शादी में गया । पहाड़ी झरने के किनारे बैठ कर खूब खूब रोया पर…. झरने की तरह समय बहने लगा …. बहता रहा । इस तरह बरसों बीत गये …. इस बीच लड़के ने आम लड़कों की तरह नौकरी ढूंढी, शादी की और उसके जीवन में बच्चे भी आए । कभी कभी उसे वह प्रेम कथा याद आती । आंखें नम होतीं पर वह गृहस्थी में रम जाता और कुछ भूलने की कोशिश करता ।

आज पहाड़ में घूमने का अवसर आया । बस में कदम रखते ही उसे याद आया कि बरसों पहले की प्रेम वाली नायिका का शहर भी आयेगा । उत्सुक हुआ वह कि वह शहर आने पर उसे कैसा कैसा लगेगा ? आकुल व्याकुल था पर….कब उसका शहर निकल गया….बिना हलचल किए, बिना किसी विशेष याद के ….क्योंकि वह सीट से पीठ टिकाये चुपचाप सो गया था …. जब तक जागा तब तक उसका शहर बहुत पीछे छूट चुका था ।

वह मुस्कुराया । मन ही मन कहा कि सत्रह बरस पहले एक युवक आया था, अब एक गृहस्थी । जिसकी पीठ पर पत्नी और गुलाब से बच्चे महक रहे थे । उसे किसी की फिजूल सी यादों और भावुक से परिचय से क्या लेना देना था ?

इस तरह बहुत पीछे छूटते रहते हैं शहर, प्यारे प्यारे लोग….उनकी मीठी मीठी बातें….आती रहती हैं ….धुंधली धुंधली सी यादें और अंत में एक जोरदार हंसी -अच्छा । ऐसे थे तुम । अच्छा ऐसे भी हुआ था तुम्हारे जीवन में कभी ?

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- गोटेदार लहंगा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा- गोटेदार लहंगा ?

..सुनो।

…हूँ।

…एक गोटेदार लहँगा सिलवाना है.., कुछ झिझकते, कुछ सकुचाते हुए उसके बच्चों की माँ बोली।

….हूँ……हाँ…फिर सन्नाटा।

…अरे हम तो मजाक कर रहीं थीं। अब तो बच्चों के लिए करेंगे, जो करेंगे।…तुम तो यूँ ही मन छोटा करते हो…।

प्राइवेट फर्म में क्लर्की, बच्चों का जन्म, उनकी परवरिश, स्कूल-कॉलेज के खर्चे, बीमारियाँ, सब संभालते-संभालते उसका जीवन बीत गया। दोनों बेटियाँ अपने-अपने ससुराल की हो चलीं। बेटे ने अपनी शादी में ज़िद कर बहू के लिए जरीवाला लहंगा बनवा लिया था। फिर जैसा अमूमन होता है, बेटा, बहू का हो गया। आगे बेटा-बहू अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचने लगे।

बगैर पेंशन की ज़िंदगी कुछ ही सालों में उसे मौत के दरवाज़े ले आई। डॉक्टर भी घर पर ही सेवा करने की कहकर संकेत दे चुका था।

उस शाम पत्नी सूनी आँखों से छत तक रही थी।

….डागदर-वागदर छोड़ो। देवी मईया तुम्हें ठीक रखेंगी। तुम तो कोई जरूरी इच्छा हो तो बताओ.., सच को समझते हुए धीमे-से बोली।

अपने टूटे पलंग की एक फटी बल्ली में बरसों से वह कुछ नोट खोंसकर जमा करता था। इशारे से निकलवाए।

….बोलो क्या मंगवाएँ? पत्नी ने पूछा।

….तुम गोटेदार लहंगा सिलवा लो..! वह क्षीण आवाज़ में बोला।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – कोरोना की रोटी ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा कोरोना की रोटी। )

☆ लघुकथा – कोरोना की रोटी ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

रिपोर्ट पॉज़िटिव निकली। घर भर में सन्नाटा फैल गया । बूढे को अटैच -बाथरूम वाले छोटे से कमरे में 14 दिनों के लिए क्वारनटाइन कर दिया गया । बच्चों को उस कमरे से दूर रहने की हिदायत दे दी गई।  बहू सुबह-शाम डरते-डरते चाय और दो वक्त का खाना दहलीज़ पर रख आती। फिर हाथों को सेनीटाइज कर लेती।

बूढे ने आज तीन में से दो ही रोटी खाई। बची हुई तीसरी रोटी का क्या करें ? जिसकी  थाली तक नहीं छूते उसकी थाली की रोटी भला कौन खायेगा? कमरे में खिड़की नहीं थी वरना वह रोटी फेंक देता। क्या करे इस रोटी का?  जी में आया बाहर जाकर गाय या किसी भिखारी को दे दूँ । पर पॉज़िटिवों के लिए तो घर की दहलीज़ 14 दिनों के लिए लक्षमण रेखा बन जाती है। 14 दिनों तक तो रोटी पड़े-पड़े सड़ जायेगी । आखिर उसने रोटी को कमरे के बाहर रख सबको सुनाते हुए कहा- ” ज्यादा की बची रोटी बाहर रखी है, तुम लोग तो खाओगे नहीँ । बाहर किसी को दे दो।  रोटी बेकार नहीँ जानी चाहिए ।” और दरवाजा बंद कर दिया । 

“अब इनकी जूठी रोटी को कौन हाथ लगाये ? अब फिर उस कमरे तक जाना होगा। बूढ़ा भी है न…,” ऐसा नहीं कि बहू ससुर की इज्जत नहीं करती थी। कोरोना का भय ही कुछ ऐसा था। आखिर भुनभूनाती बहू ने चिमटे के सहारे रोटी को अखबार मैं लपेटकर घर के फाटक की ओर बढ़ी। गली में सन्नाटा था। रोटी को सड़क पर फेंकने में हिचक हो रही थी। किसीने देख लिया तो…..? ‘ कचरापेटी भी घर से दूर थी। अचानक उसे एक बूढा भिखारी हाथ पसारे दिखाई पड़ा । उसने उसे रोटी दिखाते अपने पास बुलाया । लॉकडाउन की वजह से दो दिनों का भूखा भिखारी रोटी देख तेजी से उसकी ओर बढ़ा। आखिर भिखारी में भी जान होती है। कहीं इसे खाकर वो भी…,”, नहीं-नहीं ।  भिखारी जब पास आया तो वो बोली  -”  यह कोरोना पॉज़िटिव की जूठी है ।- इसे खाना मत ।  इसे नुक्कड़ के कचरापेटी में  फेंक  देना।” कहते हुए बहू ने एक पाँच का सिक्का और रोटी उसे दे दी।

कोरोना का इतना भय और चर्चा थी कि भिखारी तक कोरोना के बारे में कुछ-कुछ जानने लगे थे।  मैं अब इस रोटी को नही खाऊँगा।अब इस कोरोना रोटी को कचरापेटी में डाल कर, इन पांच रुपयों से रोटी खरीदकर खाऊँगा । इस सोच से उसकी चाल में  एक सेठपन आ गया । जिन्दगी में पहली बार रोटी खरीद कर जो खाने जा रहा था।

मगर कचरापेटी तक आते-आते उसे खयाल आया,  इस लॉकडाउन  में उसे रोटी कहाँ मिलेंगी ? सारी होटलें तो बंद होगी। उसके हाथ रोटी को फेंकते-फेंकते रुक गये। इधर उसे कोरोना का डर भी सता रहा था, और उधर रोटी को देख उसकी दो दिन की भूख चार दिन  की हो गई थी। पता नहीं कब लॉकडाउन खत्म होगा, कब उसे रोटी मिलेगी ? पेट की भूख कोरोना के डर पर भारी पड़ने लगी।

वह रोटी को बिलकुल अपनी आँख के करीब लाकर गौर से देखने लगा। फिर रोटी को पलटकर भी उसी तरह गौर से देखा।  कहीं कोई वायरस नजर नहीं आया । माना वायरस अति सूक्ष्म होते हैं, पर होते तो हैं । एकाध तो दिखाई पड़ता। फिर उसने रोटी को दो बार जोर से झटका। एकाध होगा तो गिर गया होगा। उसने फिर रोटी को देखा। अरे, जब कोरोना पाँजिटिव और निगेटिव दोनों ही रोटी खाते हैं तो फिर रोटी निगेटिव-पॉज़िटिव कैसै हो सकती  है ? रोटी सिर्फ रोटी होती है। वह खुद को समझाने लगा। फिर भिखारियों को तो कोरोना होता नहीं। उसने आज तक किसी भिखारी को कोरोन्टाइन होते नहीं  देखा। भूख ने रोटी खाने के सारे तर्क जुटा लिये थे। रोटी को वह मुँह के करीब ले आया। फिर भी मुंह खोलने की हिम्मत नहीं हो रही धी। । कहीं कोई एकाध वायरस…. ,

अचानक उनकी आँखे चमक उठी। वह रोटी को पुनः झटकते हुए इस इतमिनान के साथ रोटी खाने लगा…, ” स्साला, इसके बावजूद एकाध वायरस पेट में चला भी गया तो क्या ?   इस रोटी से इतनी इम्युनिटी तो मिल ही जायेगी,कि  वह उस वायरस को मार सके।

अब वह प्रसन्न हो, इस रोटी को ऐसे खा रहा था, जैसे वो सिर्फ कोरी रोटी नहीं, बल्कि सब्जी के साथ  रोटी खा रहा है।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 93 – लघुकथा – बिखरे मोती ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक लघुकथा  “बिखरे मोती। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 93 ☆

 ? लघुकथा – बिखरे मोती ?

सरला के कम पढ़े लिखे होने को लेकर लगातार ससुराल में बात होती थीं। घर में कलह का कारण बन चुका था। सभी कार्य में निपुण सरला अपनी परिस्थिति, मॉं-पिता जी की कमाई की वजह से पढ़ाई नहीं कर सकी जिसका उसे बेहद अफसोस होता था।

शादी अच्छे घर में हुई। पति मनोज अच्छी कंपनी में कार्य करते थे। परंतु पत्नी के कम पढ़े लिखे को वह अपनी कमजोरी और गिल्टी महसूस करते थे। इसी वजह से सरला ने घर से जाने का फैसला कर लिया और अपने घर आकर बुटीक का काम सीखकर एक अच्छे से मार्केट में दुकान डाल दी।

देखते-देखते दुकान चल निकली। अब उसके बुटीक पर लगभग दस महिलाएं काम करती थी। सरला सभी को बहुत प्यार से रखती थी। और सभी की मजबूरी समझती थी।

आज सुबह दुकान खुली तो एक दफ्तर से बहुत सारे डिजाइनर कुर्तों के डिमांड आए । सरला उसी को पूरा करने के लिए लग गई। देखते-देखते दिन भर में उसकी सखियों ने मिलकर सभी आर्डर के कुर्ते जो दफ्तर के थे तैयार कर दिए। रात होते-होते उसको देना था क्योंकि सुबह उस दफ्तर में कार्यक्रम होना था।

काम निपटा सभी चाय पी रहे थे। उसी समय चमचमाती कार से जो सज्जन उतरे उसको देख सरला ठिठक सी गई पर सहज होते हुए बोली:-” आइए आपका ऑर्डर सब तैयार है।” मनोज सरला का पति विश्वास नहीं कर पा रहा था कि उसकी सरला आज इस मुकाम पर है।

वह रसीद ले रुपए देकर धीरे से सरला के पास आकर कहने लगा – “सरला तुमने सुई धागा से बहुत कुछ संजो लिए हैं। मेरे घर में तो सभी मोती बिखर गए हैं। यदि मुझे माफ कर सको तो सुई धागा बन मेरे बिखरे मोती को एक बार फिर से समेट लो।”

सरला अवाक होकर उसे देखती रही। मनोज ने कहा:-” मैं इंतजार करूंगा और मुस्कुराता हुआ निकल गया। “

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – लघुकथा- आईना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा- आईना ?

आईना कभी झूठ नहीं बोलता, उसने सुन रखा था। दिन में कई बार आईना देखता। हर बार खुद को लम्बा-चौड़ा, बलिष्ठ, सिक्स पैक, स्मार्ट और हैंडसम पाता। हर बार खुश हो उठता।

आज उसने एक प्रयोग करने की ठानी। आईने की जगह, अपनी गवाही में अपने मन का आईना रख दिया। इस बार उसने खुद को वीभत्स, विकृत, स्वार्थी, लोलुप और घृणित पाया। उसे यकीन हो गया कि आईना कभी झूठ नहीं बोलता।

©  संजय भारद्वाज

(बुधवार दि. 30 अगस्त 2017, अप. 12:56 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ डिश वॉशर ☆ श्रीमती अंजू खरबंदा

श्रीमती अंजू खरबंदा

☆ कथा-कहानी ☆ डिश वॉशर ☆ श्रीमती अंजू खरबंदा ☆

घर में बर्तन साफ करने की मशीन आने से सभी बेहद खुश थे। गली मोहल्ले के लोग भी उत्सुकतावश चले आते देखने । इस शहर में शायद ये पहला घर होगा जहाँ ऐसी मशीन आई होगी । सुना तो था कि विदेशों में ऐसी मशीनें होती हैं अब अपने देश में भी…!

मशीन को देखने का कौतूहल कई दिनों तक बरकरार रहा । सभी तो खुश थे एक दादी को छोड़कर! वह वैसे भी जल्दी खुश होती ही कहाँ हैं! हर चीज में कोई न कोई कमी निकाल ही देती हैं ।

अपने कमरे में बैठे सारा दिन बुड़बुड़ाती रहतीं

“बस इन मशीनों पर निर्भर हो जाओ! शर्म ही नहीं आती आजकल के बच्चों को!”

“अब भला इसमें शर्म की क्या बात! ये तो गर्व की बात है कि पहली मशीन हमारे घर आई ।”

सभी दादी की बातें सुन खूब हँसते ।

एक दिन छोटे ने पूछ ही लिया

“दादी! मशीन आने से सभी तो खुश हैं! सिर्फ तुम्हीं क्यों परेशान हो?”

“कभी सोचा ! मशीन आने से बर्तन साफ करने आने वाली महरी शांति के दिल पर क्या बीतती होगी ! उस्का घर कैसे चलता होगा और..!”

“और..!”

“और शांति के न आने पर मेरा अकेलापन कैसे कट..!”

आगे के शब्द दादी के गले में ही घुट कर रह गए ।

 

© श्रीमती अंजू खरबंदा

दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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