हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह – [1] नासमझ [2] ऊपरी कमाई ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में आज से शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “नासमझ “एवं “ऊपरी कमाई”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह – [1] नासमझ [2] ऊपरी कमाई ☆

[1]

नासमझ

‘नहीं माँ, मैं लिव इन में रह लूँगी पर ब्याह नहीं करुँगी.’

‘क्या कह रही रही है बेटी तू?’

‘पति की गुलामी, बच्चों की गुलामी, घर गृहस्थी की सेवा संभाल करते-करते आज की औरत तंगहाल है माँ, उसका स्व कुछ नहीं रह गया है.’

आजाद ख्याल बच्ची को नासमझ  कहने के सिवाय उसके पास शेष कुछ रह नहीं गया था.

 

[2]

ऊपरी कमाई

बिचौलिया कह रहा था ‘लड़के की तनख्वाह जरूर कम है पर ऊपरी आमदनी, बाबा रे बाबा , लड़की कार चढ़ेगी.’

‘ऊपरी कमाई ऊपर के ऊपर उड़ जाएगी, साथ में मेरे जेवर भी बेच खाएगी. शराब जुआँ संग ले आएगी, लगे हाथ सौत भी खिची चलीआएगी, घर भी बेच खाएगी. बचेगा निल बटे सन्नाटा-टा-टा.’

लड़की मुँहमोड़ गयी.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – गीलापन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – गीलापन ?

‘उनके शरीर का खून गाढ़ा होगा। मुश्किल से थोड़ा बहुत बह पाएगा। फलत: जीवन बहुत कम दिनों का होगा। स्वेद, पसीना जैसे शब्दों से अपरिचित होंगे वे। देह में बमुश्किल दस प्रतिशत पानी होगा। चमड़ी खुरदरी होगी। चेहरे चिपके और पिचके होंगे। आँखें बटन जैसी और पथरीली होंगी। आँसू आएँगे ही नहीं।

उस समाज में सूखी नदियों की घाटियाँ संरक्षित स्थल होंगे। इन घाटियों के बारे में स्कूलों में पढ़ाया जाएगा ताकि भावी पीढ़ी अपने गौरवशाली अतीत और उन्नत सभ्यता के बारे में जान सके। अशेष बरसात, अवशेष हो जाएगी और ज़िंदा बची नदियों के ऊपर एकाध दशक में कभी-कभार ही बरसेगी। पेड़ का जीवाश्म मिलना शुभ माना जाएगा। ‘हरा’ शब्द की मीमांसा के लिए अनेक टीकाकार ग्रंथ रचेंगे। पानी से स्नान करना किंवदंती होगा। एक समय पृथ्वी पर जल ही जल था, को कपोलकल्पित कहकर अमान्य कर दिया जाएगा।

धनवान दिन में तीन बार एक-एक गिलास पानी पी सकेंगे। निर्धन को तीन दिन में एक बार पानी का एक गिलास मिलेगा। यह समाज रस शब्द से अपरिचित होगा। गला तर नहीं होगा, आकंठ कोई नहीं डूबेगा। डूबकर कभी कोई मृत्यु नहीं होगी।’

…पर हम हमेशा ऐसे नहीं थे। हमारे पूर्वजों की ये तस्वीरें देखो। सुनते हैं उनके समय में हर घर में दो बाल्टी पानी होता था।

..हाँ तभी तो उनकी आँखों में गीलापन दिखता है।

…ये सबसे ज्यादा पनीली आँखोंवाला कौन है?

…यही वह लेखक है जिसने हमारा आज का सच दो हजार साल पहले ही लिख दिया था।

…ओह ! स्कूल की घंटी बजी और 42वीं सदी के बच्चों की बातें रुक गईं।

समुद्र मंथन से अमृत निकला था। आज का अमृत, जल है। स्मरण रहे, जल है तो कल है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 88 ☆ लघुकथा – विश्वास ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “विश्वास। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 88 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – विश्वास ☆

देश का माहौल बहुत खराब है।इस कोरोना महामारी ने सबका सुख चैन छीन लिया है। आज उनको काम से यू.पी. जाना है और रास्ते में थे, तभी पता चला लॉक डाउन में कुछ ढील है तो सारे लोग सड़क पर उतर आए। रास्ते जाम हो गए। तभी नजर पड़ी एक राहगीर रास्ते में बेहोश पड़ा है और उसके सर से खून बह रहा है। इतनी भीड़ में पैदल चल रहे राहगीर को कोई टक्कर मार गया होगा। कोरोना के भय से कोई भी हाथ लगाने को तैयार नहीं लेकिन उनका मन नहीं माना। उनको  विश्वास था कि  हो सकता है इस बेचारे की जान बच जाए। वह पानी और सैनिटाइजर लेकर नीचे उतरे। उस पर पानी का छिड़काव किया। उसमें कुछ हरकत हुई तब उन्होंने पुलिस को फोन किया। एंबुलेंस बुलाई। उसका फोन दूर गिरा था उन्होंने उसे सैनेटाईज किया। जानना चाहा कि आखरी फोन  किसे किया था। इत्तेफाक से वह इसके पिता का नंबर  था। सारी जानकारी दे दी गई। उसे बस्ती के अस्पताल में भर्ती करवा दिया और वह खतरे से बाहर है।उनका दृढ़ विश्वास और बढ़ गया।

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#47 – आधा किलो आटा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#47 – आधा किलो आटा ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक नगर का सेठ अपार धन सम्पदा का स्वामी था। एक दिन उसे अपनी सम्पत्ति के मूल्य निर्धारण की इच्छा हुई। उसने तत्काल अपने लेखा अधिकारी को बुलाया और आदेश दिया कि मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण कर ब्यौरा दीजिए, पता तो चले मेरे पास कुल कितनी सम्पदा है।

सप्ताह भर बाद लेखाधिकारी ब्यौरा लेकर सेठ की सेवा में उपस्थित हुआ। सेठ ने पूछा- “कुल कितनी सम्पदा है?” लेखाधिकारी नें कहा – “सेठ जी, मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ी बिना कुछ किए धरे आनन्द से भोग सके इतनी सम्पदा है आपकी”

लेखाधिकारी के जाने के बाद सेठ चिंता में डूब गए, ‘तो क्या मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मरेगी?’ वे रात दिन चिंता में रहने लगे।  तनाव ग्रस्त रहते, भूख भाग चुकी थी, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो गए। सेठानी द्वारा बार बार तनाव का कारण पूछने पर भी जवाब नहीं देते। सेठानी से हालत देखी नहीं जा रही थी। उसने मन स्थिरता व शान्त्ति के किए साधु संत के पास सत्संग में जाने को प्रेरित किया। सेठ को भी यह विचार पसंद आया। चलो अच्छा है, संत अवश्य कोई विद्या जानते होंगे जिससे मेरे दुख दूर हो जाय।

सेठ सीधा संत समागम में पहूँचा और एकांत में मिलकर अपनी समस्या का निदान जानना चाहा। सेठ नें कहा- “महाराज मेरे दुख का तो पार नहीं है, मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास मात्र अपनी सात पीढ़ी के लिए पर्याप्त हो इतनी ही सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय बताएँ कि मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरे। आप जो भी बताएं मैं अनुष्ठान, विधी आदि करने को तैयार हूँ”

संत ने समस्या समझी और बोले- “इसका तो हल बड़ा आसान है। ध्यान से सुनो सेठ, बस्ती के अन्तिम छोर पर एक बुढ़िया रहती है, एक दम कंगाल और विपन्न। उसके न कोई कमानेवाला है और न वह कुछ कमा पाने में समर्थ है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। अगर वह यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित हो जाएगा कि तुम्हारी समस्त मनोकामना पूर्ण हो जाएगी। तुम्हें अवश्य अपना वांछित प्राप्त होगा।”

सेठ को बड़ा आसान उपाय मिल गया। उसे सब्र कहां था, घर पहुंच कर सेवक के साथ कुन्तल भर आटा लेकर पहुँच गया बुढिया के झोपडे पर। सेठ नें कहा- “माताजी मैं आपके लिए आटा लाया हूँ इसे स्वीकार कीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा आटा तो मेरे पास है, मुझे नहीं चाहिए”

सेठ ने कहा- “फिर भी रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “क्या करूंगी रख के मुझे आवश्यकता नहीं है”

सेठ ने कहा- “अच्छा, कोई बात नहीं, कुन्तल नहीं तो यह आधा किलो तो रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, आज खाने के लिए जरूरी, आधा किलो आटा पहले से ही  मेरे पास है, मुझे अतिरिक्त की जरूरत नहीं है”

सेठ ने कहा- “तो फिर इसे कल के लिए रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, कल की चिंता मैं आज क्यों करूँ, जैसे हमेशा प्रबंध होता है कल के लिए कल प्रबंध हो जाएगा”  बूढ़ी मां ने लेने से साफ इन्कार कर दिया।

सेठ की आँख खुल चुकी थी, एक गरीब बुढ़िया कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही और मेरे पास अथाह धन सामग्री होते हुए भी मैं आठवी पीढ़ी की चिन्ता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं तृष्णा है।

वाकई तृष्णा का कोई अन्त नहीं है। संग्रहखोरी तो दूषण ही है। संतोष में ही शान्ति व सुख निहित है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – मूल्यांकन ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

 

 

 

 

☆ जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – मूल्यांकन ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

“हे बघा, माझ्याकडे ए, बी, सी, डी, या चारही प्रतींचा कापूस ठेवलेला आहे. त्याच्याशी ताडून पाहून मी कापसाची किंमत ठरवत असतो. पण तुम्ही आणलेला कापूस यातल्या कुठल्याच श्रेणीत बसत नाहीये. कुठल्यातरी वेगळ्याच विचित्र प्रकारचा आहे तुमचा कापूस. म्हणून त्याला ई श्रेणी दिली गेली आहे. त्या श्रेणीच्या भावाप्रमाणेच तुम्हाला पैसे मिळतील.”

“तुम्ही जरा समजून घेण्याचा प्रयत्न करा साहेब. मी खूप कष्ट करून, आणि खूप सारे पैसे खर्च करून हे पीक घेतलं आहे. त्याची योग्य ती किंमत ठरवावी अशी अपेक्षा आहे माझी.”

कापसाची प्रत ठरवणारा तो माणूस आणि तो शेतकरी यांच्यात काहीच नक्की ठरत नाहीये हे पाहून, तिथल्या व्यवस्थापकांनी दुसऱ्या बाजारातल्या एका परीक्षा करणाऱ्याला बोलावलं. तो माणूस त्या शेतकऱ्याचा कापूस पाहून फक्त आश्चर्यचकीतच झाला नाही, तर अक्षरशः भारावल्यासारखा झाला.

“अरे वा, हा तर चीनमधला ‘ब्लू कॉटन‘ म्हणून ओळखला जाणारा लांब धाग्यांचा कापूस आहे. आपल्याकडच्या शेतात हे पीक घेण्यासाठी खूपच कष्ट करावे लागतात, आणि खर्चही खूप करावा लागतो.”

“म्हणजे कापूस शेतात पिकतो का ?” पहिल्या परिक्षकाने त्या दुसऱ्या परिक्षकाला जरा बाजूला नेऊन विचारलं.

“म्हणजे मग तुम्ही काय समजत होतात ?”

“मी तर समजत होतो की साखर किंवा थर्मोकोलसारखे हा कापूस तयार करण्याचेही कारखाने असतील.”

 

मूळ हिंदी कथा : श्री भगवान वैद्य ‘ प्रखर‘

अनुवाद :  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मैं नहीं जानता ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – मैं नहीं जानता  ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

बस में कदम रखते ही एक चेहरे पर नज़र टिकी तो बस टिकी ही रह गयी । यह चेहरा तो एकदम जाना पहचाना है । कौन हो सकता है ? सीट पर सामान टिकाते टिकाते मैं स्मृति की पगडंडियों पर निकल चुका था ।

अरे, याद आया । यह तो हरि है । बचपन का नायक । स्कूल में शरारती छात्र । गीत संगीत में आगे । सुबह प्रार्थना के समय बैंड मास्टर के साथ ड्रम बजाता था । परेड के वक्त बिगुल । हर समारोह में उसके गाये गीत स्कूल में गूंजते । हर छात्र हरि जैसा हो ….. अध्यापक उपदेश देते न थकते ।

घर की ढहती आर्थिक हालत उसे किसी प्राइवेट स्कूल का अध्यापक बनने पर मजबूर कल गयी। अपनी अदाओं से वह एक सहयोगी अध्यापिका को भा गया। पर ,,, समाज दोनों के बीच दीवार बन कर खड़ा हो गया । जाति बंधन पांव की जंजीर बनते जा रहे थे। ऐसे में हरि और उस अध्यापिका के भाग जाने की खबर नगर की हर दीवार पर चिपक गयी थी। कुछ दिनों तक तलाश जारी रही थी, कुछ दिनों तक अफवाहों का बाज़ार गर्म रहा था। फिर मेरा छोटा सा शहर सो गया था। हरि और वह लड़की कहां गये, क्या हुआ शहर इस सबसे पूरी तरह बेखबर था। हां, लड़की के पिता ने समाज के सामने क्या मुंह लेकर जाऊं, इस शर्म के मारे आत्महत्या कर ली थी।

मैंने बार बार चेहरे को देखा, बिल्कुल वही था। हरि और साथ बैठी वह महिला? हो न हो वही होगी। अनदेखी प्रेमिका।

चाय पान के लिए बस रुकी तो मैं उतरते ही उस आदमी की तरफ लपका।

– आपका नाम हरि है न?

– हरि ? कौन हरि ? मैं नहीं जानता किसी हरि को।

– झूठ न कहिए । आप हरि ही हैं।

– अच्छा ? आपका हरि कैसा था ? कहां था ?

– हम एक ही स्कूल में पढ़ते थे। याद कीजिए वह शरारतें, वह बैंड बजाना ,,,गीत गाना,,

-नहीं नहीं। मैं किसी हरि को नहीं जानता।

हम बस के पास ही खड़े थे। खिड़की के पास बैठी हुई वह महिला हमारी बातचीत सुनने का प्रयास कर रही थी। उसने वहीं से पुकार लिया -हरि क्या बात है ? क्या पूछ रहे हैं ये ?

अब न शक की गुंजाइश थी और न किसी और सवाल पूछने की जरूरत रह गयी थी।

मैं चलने लगा तो उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा – भाई बुरा मत मानना। मैं नहीं चाहता था कि बरसों पहले जिस कथा पर धूल जम चुकी हो उसे झाड़ पोंछ कर फिर से पढ़ा जाये। मैं तुम्हारा नायक ही बना रहना चाहता था पर वक्त ने मुझे खलनायक बना दिया। खैर, जिस हरि को तुम जानते थे वह हरि मैं अब कहां हूं ? उसकी आंखों में नमी उतर आई । शायद खोये हुए हरि को याद करके ….

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 79 – हाइबन- प्राकृतिक इंडिया ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- प्राकृतिक इंडिया। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 80 ☆

☆ हाइबन- प्राकृतिक इंडिया ☆

आकाश से पृथ्वी का नजारा अनोखा व अलग दिखाई देता है। ऐसा ही जब आप हवाई जहाज से यात्रा करते हैं तो गांव, शहर, पहाड़ व प्रकृति के अनोखे नजारे दृश्यमान होते हैं। मगर आप जैसलमेर के ऊपर से 10 साल बाद हवाई यात्रा करेंगे तो यहां के घोटारु के रेगिस्तान में आपको इंडिया का प्राकृतिक नजारा दिखाई देगा।

भारत पाक बॉर्डर पर बीएसएफ के जवान ऐसे ही एक पार्क का निर्माण कर रहे हैं। इसमें डेढ़ किलो मीटर लंबे व आधा किलो मीटर चौड़ाई में अर्जुन, शीशम, पीपल के वृक्ष लगाए जा रहे हैं। 6500 वृक्षों से निर्मित पार्क को हवाई जहाज से देखने पर जमीन पर ‘इंडिया’ लिखा हुआ दिखाई देगा।

रेगिस्तान में एनजीओ संकल्पतरू के प्रयास से यह पार्क बनाया जा रहा है। जिसे 3 साल तक पोषित करने के बाद यह सोलर ऊर्जा की लाइट से सज्जित पार्क बीएसएफ को सौंप दिया जाएगा।

यह भारतमाला हाईवे पर निर्मित पहला टूरिज्म स्पॉट होगा जिसका आनंद बीएसएफ के जवान भी उठा पाएंगे।

रेगिस्तानी लूं~

इंडिया की सुरक्षा

में डटी सेना।

————

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-01-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 101 ☆ हास्य लघुकथा – तीन विचार चित्र ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की  हास्य लघुकथा – तीन विचार चित्र।  इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 101☆

? हास्य लघुकथा – तीन विचार चित्र ?

कितना भला था कोरोना .. २०२१ का दिसम्बर

पति सोचेंगे  

फिर शॉपिंग का चक्कर, फिर मूवी की फरमाइश…फिर वीक एंड पर होटलिंग,  फिर घूमने जाने की बच्चों की फरमाईश,  बीबी की नई साड़ी की डिमांड,  किटी पार्टी के चक्कर,  नई ज्वैलरी खरीदने की जिद्द .. इससे तो कोरोना ही भला था. न रिश्तेदारी में भागमभाग करनी पड़ती थी,  न आफिस के दौरे करने परते थे,  न बाजार जाकर चुन बीन कर देख भाल कर खरीददारी होती थी, सब कुछ मोबाईल से निपट जाता था,  कोरोना का बहाना सब ढ़ांक लेता था, कितना भला था कोरोना.

पत्नी सोचेंगी  

हाय कितने मजे थे,  शादी के २१ बरस हो गये,  इतना घरेलू काम तो इन्होने कभी नही किया,  इतना साथ रहने का समय भी कभी न मिला था,  थोड़ा बहुत डर था तो क्या हुआ सब कुछ ठीक ही चल रहा था,  जैसा भी था पर कोरोना बड़ा भला था.

बच्चे सोचेंगे

न होमवर्क की खिच खिच न स्कूल जाने की झंझट,  न परीक्षा का लफडा. ज्यादा पढ़ो तो मम्मी खुद कहती थीं कि थोड़ी देर टी वी देख लो. जरा सा खांसते थे तो मम्मी पापा कितनी चिंता करते थे,  कितना अच्छा था कोरोना.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – वृत्त ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – वृत्त ?

सात-आठ साल का रहा होगा जब गृहकार्य करते हुए परकार से वृत्त खींच रहा था। बैठक में लेटे हुए दादाजी अपने किसी मिलने आए हुए से कह रहे थे कि जीवन वृत्त है। जहाँ से अथ, वहीं पर इति, वहीं से यात्रा पुनः आरंभ। कुछ समझ नहीं पाया। जीवन वृत्त कैसे हो सकता है?

समय अपनी गति से चलता रहा। उसे याद आया कि पड़ोस के लक्खू बाबा की मौत पर कैसा डर गया था वह! पहली बार अर्थी जाते देखी थी उसने। कई रातें दादी के आँचल में चिपक कर निकाली थीं। उसे लगा, जो बाबा उससे रोज़ बोलते-बतियाते थे, उसे फल, मेवा देते थे, वे मर कैसे सकते हैं?

जीवन आगे बढ़ा। दादा-दादी भी चले गए। माता, पिता भी चले गए। जिन शिक्षकों, अग्रजों से कुछ सीखा, पढ़ा, उन्होंने भी विदा लेना शुरू कर दिया। पिछली पीढ़ी के नाम पर शून्य शेष रहा था।

उसकी अपनी देह भी बीमार रहने लगी। कहीं आना-जाना भी छूट चला। उस दिन अख़बार में अपने पुराने साथी की मृत्यु और बैठक का समाचार पढ़ा तो मन विचलित हो उठा। अब तो विचलन भी समाप्त हो गया क्योंकि गाहे-बगाहे संगी-साथियों के बिछड़ने के समाचार आने लगे हैं।

आज पलंग पर लेटा था। शरीर में उठ पाने की भी शक्ति नहीं थी। लेटे-लेटे देखा, छोटा पोता होमवर्क कर रहा है। सहज पूछ लिया, ‘मोनू, क्या कर रहा है?’…’दद्दू, सर्कल ड्रॉ कर रहा हूँ, आई मीन गोला, मीन्स वृत्त खींच रहा हूँ।’…..’जीवन भी वृत्त है बेटा..’ कहते हुए वह फीकी हँसी हँस पड़ा।

जीवन की परिक्रमा को सहजता से स्वीकार करो। सहज योग हर अवस्था के आनंद को जी सकने की कुंजी है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – परदुःख ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

 

 

 

 

☆ जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – परदुःख ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

“एका विवाहित महिलेची,आपल्या दोन मुलांसह विहिरीत उडी मारून आत्महत्या….. नवऱ्याचे दुसऱ्या कोणा बाईशी अनैतिक संबंध हे या आत्महत्येचे कारण असल्याचे समजते “…….. सकाळी सकाळी वर्तमानपत्रात ही बातमी वाचल्यावाचल्या आभाची बडबड सुरु झाली……..

“वेडी होती ही बाई….. एक नंबरची मूर्ख होती…… जरासाही विचार केला नसावा तिने. एवढा एकच मार्ग उरला होता का तिच्याकडे…. सोडून द्यायचं होतं तिने असल्या नवऱ्याला. किंवा मग मुलांना घेऊन निघून जायचं कुठेतरी… नोकरी करायची…… सन्मानाने रहायचं….. मुलांना सांभाळायचं. एका दोषी माणसाला असा स्वतः मरुन शह दिला, आणि एक आई असूनही, स्वतःच्या मुलांच्या आयुष्यातल्या सगळ्या चांगल्या शक्यता तिने स्वतःच्या हाताने संपवून टाकल्या….. त्यांचं भविष्यच हिरावून घेतलं……..”

…….. “ तू तरी करू शकली होतीस का असं काही”?…….जेव्हा तुझा पंचेचाळीस वर्षांचा नवरा, त्याच्या ऑफिसमधल्या चोवीस वर्षांच्या दामिनीच्या प्रेमात पार गुरफटला होता तेव्हा ?’…..’येता जाता तुला ‘ म्हातारी – शिळी होत चालली आहेस तू’ असं म्हणत तो तुझा अपमान करत होता तेव्हा?’……’ती दामिनी नावाची आग स्वतःच्या आयुष्याला लागू नये म्हणून तू विझवू शकली होतीस का त्या आगीला?’…..’ तू तर शिकली – सवरलेली होतीस, सक्षम होतीस ना? मग तू का नाही केलास कुठे नोकरी करण्याचा विचार?’……’त्यावेळी हाआत्मसन्मानाचा धडा तुझ्या आयुष्याच्या अभ्यासक्रमासाठी का नाही निवडलास तू ?’ “…………

……. आभाच्या अंतर्मनात दुसऱ्याच क्षणी असे कितीतरी प्रश्न उभे ठाकले, आणि त्यांनी चारही बाजूंनी तिला जणू घेरून टाकलं …….  आणि  एखाद्याला उपदेश करणं अगदी सोप्पं असतं, पण दुसऱ्याचं दुःख मनापासून समजून घेणं फार फार अवघड असतं, हे आता तिला कळलं होतं…..आणि मनापासून पटलंही होतं.. ….

मूळ हिंदी कथा : डॉ. लता  अग्रवाल

अनुवाद :  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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