हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 81 – लघुकथा – गंगवा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत  भावप्रवण एवं विचारणीय लघुकथा  “गंगवा । इस  भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 81 ☆

?लघुकथा  – गंगवा ?

गंगाराम का नाम जाने कब गंगवा बन गया। उसे नहीं मालूम?

गंगवा के ना कोई सुधि लेने वाला था और ना ही आगे पीछे कोई रिश्तेदार।

गांव में दिनकर बाबू और गंगवा लगभग सम उम्र। दिनकर जी के यहां सालों से काम करते-करते गंगवा जाने कब उनके अपने परिवार का सदस्य बन गया था।

गंगवा को बचपन से ही कम सुनाई और बात नहीं कर पाने की वजह से कोई उसे ठीक से बात भी नहीं करता था और न ही कोई उसकी बातें सुनता था।

बिना सुने, बिना बोले ही गंगवा सबके मन के भाव को पहचान लेता था परंतु किसी ने उसकी अच्छाइयों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया।

दिनकर बाबू के यहां काम करते-करते दोनों साथ-साथ बड़े होकर बुजुर्ग भी हो गए।

दिनकर बाबू का बेटा-बहू बाहर विदेश में रहते थे। दिनकर को कोरोना के कारण अस्पताल में रखा गया। अब कोरोना की लड़ाई जीत कर वे घर आ गए थे।

आज सुबह से ही गांव में टीकाकरण के लिए शहर से टीम आई थीं।

दिनकर बाबू क्योंकि सरकारी नौकरी से रिटायर्ड थे और सभी बातों को समझते थे। अपनी पत्नी के साथ टीका के लिए अस्पताल जाना था वे गंगवा को अपने साथ ले गए।

अस्पताल लाइन में लगे दोनों पति-पत्नी को गांव वाले अच्छी तरह से पहचानते थे और आदर सत्कार भी करते थे। दोनों ने अपना नाम आगे कर पर्ची बढ़ाया, लगभग सभी लोग लाइन से खड़े थे परंतु मेडिकल टीम ने गंगवा को पीछे करते-करते लगभग बाहर ही कर दिया।

दिनकर जी और उनकी पत्नी एक दूसरे को देखते रह गए उसके नही बोलने और नहीं सुनने की गलतफहमी हो गई थी।

तभी दिनकर बाबू ने कहां आज मुझे गांव में टीकाकरण का सबसे पहला मौका आप लोगों ने दिया है। मेरा अपना तो कोई पूछने आज तक नहीं आया और जब मुझे कोई अपना कहने वाला नहीं था गंगवा ने उस समय ‘कोरोना योद्धा’ बनकर मेरा साथ दिया।

मुझसे पहले मेरे गंगवा को टीका लगना है। यह मेरा अपना है… कह कर दिनकर बाबू की आंखों से आंसू बहने लगे।

आज मैं सभी को बताता हूं.. मेरा जो कुछ भी है मेरे मरने के बाद में सारी संपत्ति और मेरी सारी जिम्मेदारी मैं आज गंगवा को सौंप रहा हूं।

गंगवा भाव विभोर हो सब बातों को समझ रहा था।

आज वह अपने आप को रोक नहीं सका दोनों बाँहें फैलाकर दौड़ कर दिनकर जी को गले लगा लिया।

अस्पताल के कर्मचारियों ने तालियों से स्वागत किया। गंगवा आज दोनों हाथ उठा कर ऊपर ईश्वर को शायद शुक्रिया अदाकर रहा था। इस सब बातों को सुनने के लिए वह कब से तरस रहा था।

वह अब अकेला नहीं उसका अपना परिवार है। और सबसे पहले टीका ‘गंगवा बाबू’ को लगा।

दिनकर जी की बातों को बिना सुने भी गंगवा की आंखों से अश्रुं धारा बहने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ युक्ति ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “युक्ति”)

☆ लघुकथा – युक्ति ☆

प्रमोद के आगे चलने वाली कार के चालक ने अपनी कार को सड़क पर एक तरफ करके रोक दिया था, परन्तु फिर भी उसकी कार का इतना हिस्सा सड़क पर ही था कि प्रमोद बड़ी मुश्किल से अपनी बाइक को बचा पाया।

पीछे बैठे उसके दोस्त ने एकदम गुस्से से प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “…अभी इसकी ऐसी की तैसी करता हूँ और गाड़ी हटवाता हूँ सड़क पर से…।”

दोस्त गया और कार वाले से बहस करने लगा, “भाई साहब, क्या आपने बीच सड़क में कार खड़ी कर दी है, अभी हमारी टक्कर हो जाती और चोट लग जाती…। गाड़ी एक तरफ नहीं कर सकते क्या, इतनी जगह पड़ी है..?”

कार वाला भी शायद लड़ने की मनोदशा में था, गुस्से से बोला, “तुम देख कर नहीं चल सकते क्या? नहीं करता एक तरफ क्या कर लोगे?”

दोस्त को एकदम से कुछ न सूझा। वह आवेश में कुछ बोलने ही वाला था कि प्रमोद ने दोस्त के कंधे को दबा कर उसे चुप रहने का संकेत देते हुए कार वाले को कहा, “बात वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं भाई साहब. दरअसल यह चलती सड़क है, कहीं ऐसा न हो कि कोई दूसरा कार या ट्रक वाला आपकी गाड़ी को ठोक कर चला जाए और आपका खामखाह का नुकसान हो जाए। हम तो बस इसलिए…।”

सुन कर कार वाले ने अपनी कार एक तरफ लगा दी।

 

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#4 – दो भाई ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#4 – दो भाई ☆ श्री आशीष कुमार☆

दो भाई थे। परस्पर बडे़ ही स्नेह तथा सद्भावपूर्वक रहते थे। बड़े भाई कोई वस्तु लाते तो भाई तथा उसके परिवार के लिए भी अवश्य ही लाते, छोटा भाई भी सदा उनको आदर तथा सम्मान की दृष्टि से देखता।

पर एक दिन किसी बात पर दोनों में कहा सुनी हो गई। बात बढ़ गई और छोटे भाई ने बडे़ भाई के प्रति अपशब्द कह दिए। बस फिर क्या था ? दोनों के बीच दरार पड़ ही तो गई। उस दिन से ही दोनों अलग-अलग रहने लगे और कोई किसी से नहीं बोला। कई वर्ष बीत गये। मार्ग में आमने सामने भी पड़ जाते तो कतराकर दृष्टि बचा जाते, छोटे भाई की कन्या का विवाह आया। उसने सोचा बडे़ अंत में बडे़ ही हैं, जाकर मना लाना चाहिए।

वह बडे़ भाई के पास गया और पैरों में पड़कर पिछली बातों के लिए क्षमा माँगने लगा। बोला अब चलिए और विवाह कार्य संभालिए।

पर बड़ा भाई न पसीजा, चलने से साफ मना कर दिया। छोटे भाई को दुःख हुआ। अब वह इसी चिंता में रहने लगा कि कैसे भाई को मनाकर लगा जाए इधर विवाह के भी बहित ही थोडे दिन रह गये थे। संबंधी आने लगे थे।

किसी ने कहा-उसका बडा भाई एक संत के पास नित्य जाता है और उनका कहना भी मानता है। छोटा भाई उन संत के पास पहुँचा और पिछली सारी बात बताते हुए अपनी त्रुटि के लिए क्षमा याचना की तथा गहरा पश्चात्ताप व्यक्त किया और प्रार्थना की कि ”आप किसी भी प्रकार मेरे भाई को मेरे यही आने के लिए तैयार कर दे।”

दूसरे दिन जब बडा़ भाई सत्संग में गया तो संत ने पूछा क्यों तुम्हारे छोटे भाई के यहाँ कन्या का विवाह है ? तुम क्या-क्या काम संभाल रहे हो ?

बड़ा भाई बोला- “मैं विवाह में सम्मिलित नही हो रहा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे छोटे भाई ने मुझे ऐसे कड़वे वचन कहे थे, जो आज भी मेरे हृदय में काँटे की तरह खटक रहे हैं।” संत जी ने कहा जब सत्संग समाप्त हो जाए तो जरा मुझसे मिलते जाना।” सत्संग समाप्त होने पर वह संत के पास पहुँचा, उन्होंने पूछा- मैंने गत रविवार को जो प्रवचन दिया था उसमें क्या बतलाया था ?

बडा भाई मौन ? कहा कुछ याद नहीं पडता़ कौन सा विषय था ?

संत ने कहा- अच्छी तरह याद करके बताओ।

पर प्रयत्न करने पर उसे वह विषय याद न आया।

संत बोले ‘देखो! मेरी बताई हुई अच्छी बात तो तुम्हें आठ दिन भी याद न रहीं और छोटे भाई के कडवे बोल जो एक वर्ष पहले कहे गये थे, वे तुम्हें अभी तक हृदय में चुभ रहे है। जब तुम अच्छी बातों को याद ही नहीं रख सकते, तब उन्हें जीवन में कैसे उतारोगे और जब जीवन नहीं सुधारा तब सत्सग में आने का लाभ ही क्या रहा? अतः कल से यहाँ मत आया करो।”

अब बडे़ भाई की आँखें खुली। अब उसने आत्म-चिंतन किया और देखा कि मैं वास्तव में ही गलत मार्ग पर हूँ। छोटों की बुराई भूल ही जाना चाहिए। इसी में बडप्पन है।

उसने संत के चरणों में सिर नवाते हुए कहा मैं समझ गया गुरुदेव! अभी छोटे भाई के पास जाता हूँ, आज मैंने अपना गंतव्य पा लिया।”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – कठपुतली ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

 

 

 

 

☆ जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – कठपुतली ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆ 

“मम्मी, काल आमच्या शाळेत कठपुतलीचा खेळ दाखवला,” जमिनीवर बसून वहीत ड्रॉइंग काढत असलेली पारंबी म्हणाली.

“अरे वा, काय काय दाखवलं?” गाईला चारा घालून परत घरात येता येता मम्मीने विचारलं.

“अगं ए, गाईला चारा-पाणी देऊन झालं असेल तर जरा इकडे ये, आणि माझे पाय दाबून दे,” कॉटवर आरामात लोळत पडलेल्या नवऱ्याने हुकूम फर्मावल्यासारख सांगितलं.

“सगळं दाखवलं मम्मी— त्या बाहुल्यांनी विहिरीतून पाणी काढून घरात आणून ठेवणं, चुलीवर स्वैंपाक करणं, मुलांना आंघोळी घालणं, कपडे धुणे, इस्त्री करणं — सगळं सगळं दाखवलं—” काढलेलं चित्र रंगवता रंगवता पारंबीने सांगितलं.

“कसा वाटला तुला तो कठपुतलीचा खेळ?”— नवऱ्याच्या पायापाशी बसून आता ती बायको त्याचे पाय चेपायला लागली होती.

“खूपच छान”, पारम्बी उत्साहाने सांगायला लागली.

“दोऱ्यांचे एक एक टोक खेळ दाखवणाऱ्या त्या माणसाच्या बोटांना बांधलेले होते, आणि दुसरी टोके त्या बाहुल्यांच्या अंगावर बांधलेली होती. तो माणूस त्या बाहुल्यान्ना इशारा केल्यासारखा बोटं हलवतो, आणि मग त्या बाहुल्यांचे अंग हलायला लागते. मग तुम्ही तुम्हाला जे पाहिजे ते त्यांच्याकडून करून घ्या. उड्या मारायच्या, खाली पडायचं, नाचायचं, गाणं- बजावण करायचं, भांडणं करायची—- हे सगळंही करत होत्या त्या. खूप खूप मज्जा आली मम्मी मला.”

” थांब– पुरे झालं पाय चेपन”

” थांब— पुरे झालं आता. एक तरी काम व्यवस्थित करायला कधी शिकणार आहेस कोण जाणे”— नवरा रागावून म्हणाला. बायको कॉटवरून खाली उतरताच तो पुन्हा गुरगुरला— “चाललीस कुठे लगेच? जरा तेल लावून डोक्याला मालीश करून दे– आणि सावकाश कर– मान तोडायची नाहीये माझी,” त्याच्या आवाजात कडवटपणा होता.

“बाळा तू रिमोटवर चालणाऱ्या कठपुतळ्या पाहिल्या आहेस का?”– आता नवऱ्याच्या डोक्यापाशी बसून, त्याच्या डोक्याला तेलाने मालिश करणाऱ्या बायकोने विचारलं.

“रिमोटवर चालणारी म्हणजे?”– खोडरबराने चित्र खोडता खोडता पारंबीने विचारलं.

“म्हणजे– म्हणजे फक्त आवाज ऐकून सगळं काही करते ती — कठपुतली– जसे की– तुम्ही हुकूम द्या– जा, गाईला चारा घालून ये– की ती जाऊन गाईला चारा घालून येईल. मग तुम्ही सांगा, की इकडे येऊन पाय चेपून दे– मग ती पट्कन येऊन पाय चेपत बसेल. — मग तुम्ही तिला दम देत सांगायचं, की आता डोक्याला तेल —“.

एखादे झुरळ झटदिशी उडावे, तसे पारंबीचे लक्ष त्या चित्रावरून उडाले आणि ती मम्मीकडे बघायला लागली. खरं तर तिच्या लक्षात आलं होतं की, तिच्या मम्मीचा आत्ताचा आवाज हा आवाज नाही, तर बरसण्यासाठी व्याकूळ झालेले – गच्च दाटून आलेले काळे ढग होते. हातातलं खोडरबर तिथेच टाकून ती उठली, आणि जाऊन कॉटवर तिच्या मम्मीला चिकटून बसली — आणि तिच्या गळ्यात हात टाकत म्हणाली — “मम्मी मी कठपुतली होणार नाही– मुळीच नाही– कधी म्हणजे कधीच होणार नाही मी कठ पुतली — तू मला स्वतःसारखी कठपुतली बनवू नकोस मम्मी—-

मूळ हिंदी कथा : श्री भगवान वैद्य “प्रखर”

अनुवाद :  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 61 ☆ लघुकथा – बेडियाँ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर एक  हृदयस्पर्शी लघुकथा। मानव जीवन अमूल्य है और हमारी विचारधारा कैसे उसे अमूल्य से कष्टप्रद बनाती है यह पठनीय है ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को एक  विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 61 ☆

☆ लघुकथा – बेडियाँ ☆

मैं ऐसी नहीं थी, बहुत स्मार्ट हुआ करती थी अपनी उम्र में – वह हँसकर बोली। यह हमारी पहली मुलाकात थी और वह थोडी देर में ही अपने बारे में सब कुछ बता देना चाहती थी। वह खटाखट इंगलिश बोल रही थी और जता रही थी कि हिंदी थोडी कम आती है। हमारे परिवार में किसी के कहीं भी आने जाने पर कोई रोक – टोक नहीं थी, खुले माहौल में पले थे। शादी ऐसे घर में हुई जहाँ पति को मेरा घर से बाहर निकलना पसंद नहीं था। बहुत मुश्किल लगा उस समय, अकेले में रोती थी लेकिन क्या करती, समेट लिया अपनेआप को घर के भीतर। मेरी दुनिया घर की चहारदीवार के भीतर पति और बच्चों तक सीमित रह गई।

बच्चे बडे हो गए। बेटी की शादी कर दी और बेटा विदेश चला गया। अपनी जिम्मेदारी  पूरी कर चैन की साँस ली ही थी कि पति  एक दुर्घटना में चल बसे। जिनके इर्द- गिर्द मेरी दुनिया सिमट गई थी, वे सहारे ही अब नहीं रहे। अब  बच्चे समझाते हैं मम्मी घर से बाहर निकलो, लोगों से मिलो, बात करो, अकेली घर में बंद मत रहो। फीकी सी हँसी के साथ बोली – अब कैसे समझाऊँ इन्हें कि चालीस साल की इन बेडियों को इतनी जल्दी कैसे काटा जा सकता है ?

मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रही थी, मेरी आँखों के सामने एक बिंब उभर रहा था चार पैरवाले पशु का, जिसके दो पैर रस्सी से बाँध दिए गए थे।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 78 – हाइबन- सबसे बड़ा पक्षी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- सबसे बड़ा पक्षी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 78☆

☆ हाइबन- सबसे बड़ा पक्षी ☆

मैं सबसे बड़ा पक्षी हूं। उड़ नहीं पाता हूं इस कारण उड़ान रहित पक्षी कहलाता हूं। मेरे वर्ग में एमु, कीवी पक्षी पाए जाते हैं। चुंकि मैं सबसे बड़ा पक्षी हूं इसलिए सबसे ज्यादा वजनी भी हूं। मेरा वजन 120 किलोग्राम तक होता है। अंडे भी सबसे बड़े होते हैं।

मैं शाकाहारी पक्षी हूं । झुंड में रहता हूं। एक साथ 5 से 50 तक पक्षी एक झुंडमें देखे जा सकते हैं। मैं संकट के समय, संकट से बचने के लिए जमीन पर लेट कर अपने को बचाता हूं । यदि छुपने की जगह ना हो तो 70 किलोमीटर की गति से भाग जाता हूं।

मेरी ऊंचाई ऊंट के बराबर होती है। मैं जिस गति से भाग सकता हूं उतनी ही गति से दुलत्ती भी मार सकता हूं। मेरी दुलत्ती से दुश्मन चारों खाने चित हो जाता है।

मैं अपने खाने के साथ-साथ कंकर भी निकल जाता हूं। यह कंकरपत्थर मेरे खाने को पीसने के काम आते हैं। इसी की वजह से पेट में खाना टुकड़ोंटुकड़ों में बढ़ जाता है।

क्या आप मुझे पहचान पाए हैं ?  यदि हां तो मेरा नाम बताइए ? नहीं तो मैं बता देता हूं। मुझे शुतुरमुर्ग कहते हैं।

अफ्रीका वन~

दुलत्ती से उछला

वजनी शेर।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

22-01-210

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – कुंडलिनी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – कुंडलिनी ☆

अजगर की कुंडली कसती जा रही थी। शिकार छटपटा रहा था। कुंडली और कसी, छटपटाहट और घटी। मंद होती छटपटाहट द्योतक थी कि उसने नियति के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है। भीड़ तमाशबीन बनी खड़ी थी। केवल खड़ी ही नहीं थी बल्कि उसके निगले जाने के क्लाइमेक्स को कैद करने के लिए मोबाइल के वीडियो कैमरा शूटिंग में जुटे थे।

क्लाइमेक्स की दम साधे प्रतीक्षा थी। एकाएक भीड़ में से एक सच्चा आदमी चिल्लाया, ‘मुक्त होने की शक्ति तुम्हारे भीतर है। जगाओ अपनी कुंडलिनी। काटो, चुभोओ, लड़ो, लड़ने से पहले मत मरो। …तुम ज़िंदा रह सकते हो।…तुम अजगर को हरा सकते हो।…हरा सकते हो तुम अजगर को।..लड़ो, लड़ो, लड़ो!’

अंतिम साँसें गिनते शिकार के शरीर छोड़ते प्राण, शरीर में लौटने लगे। वह काटने, चुभोने, मारने लगा अजगर को। संघर्ष बढ़ने लगा, चरम पर पहुँचा। वेदना भी चरम पर पहुँची। अवसरवादी वेदना ने शीघ्र ही पाला बदल लिया। बिलबिलाते अजगर की कुंडली ढीली पड़ने लगी।

कुछ समय बाद शिकार आज़ाद था। उसने विजयी भाव से अजगर की ओर देखा। भागते अजगर ने कहा, ‘आज एक बात जानी। कितना ही कस और जकड़ ले, कितनी ही मारक हो कुंडली, अंततः कुंडलिनी से हारना ही पड़ता है।’

©  संजय भारद्वाज

(21.1.2016, प्रात: 9:11बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 80 – लघुकथा – हल्दी कुमकुम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत  सार्थक, भावुक एवं समसामयिक विषय पर रचित लघुकथा  “हल्दी कुमकुम। इस सामायिक एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 80 ☆

??हल्दी कुमकुम ??

आज पड़ोसी चाची के यहां “हल्दी कुमकुम” का  कार्यक्रम है, वर्षा ने जल्दी जल्दी तैयार होते अपने पतिदेव को बताया।

उन्होंने कहा.. तुम जानती हो मम्मी फिर तुम्हें खरी खोटी सुनाएंगी, क्योंकि मम्मी का वहां आना-जाना बहुत होता है। पर चाची ने मुझे भी बुलाया है वर्षा ने हंसकर कहा..।

बाहर पढ़ते-पढ़ते और एक साथ नौकरी करते हुए वर्षा और पवन दोनों ने समाज और घर परिवार की परवाह न करते हुए विवाह कर लिया था।

मम्मी-पापा ने बेटे का आना जाना तो घर पर रखा परंतु वह बहु को अंदर घुसने भी नहीं देते थे।

बहू को अपनी बहू नहीं स्वीकार कर पा रहे थे। हारकर दोनों शहर में ही ऑफिस के पास मकान लेकर रहने लगे थे।

वर्षा समझाती… कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा। मम्मी पापा का गुस्सा होना जायज है क्योंकि मैं आपकी बिरादरी की नहीं हूं!!! पवन कहता आजकल जात-पात कौन देखता है? जिसके साथ जिंदगी संवरती है और जिससे तालमेल होता है उसी के साथ विवाह करना चाहिए।

जल्दी-जल्दी वर्षा तैयार होकर चाची के घर पहुंच गई। सासू मां पहले से ही आ गयी थीं। वर्षा ने सभी को प्रणाम करके एक ओर  बैठना ही उचित समझा।

हल्दी कुमकुम का कार्यक्रम शुरू हुआ। सभी महिलाओं को तिलक लगा। नाश्ता और खाने का सामान दिया गया। सभी की हंसी ठिठोली आरंभ हो गई और सासू मां की वर्षा को लेकर  छीटाकशी भी सभी देख रहे थे।

बातों ही बातों में वर्षा की सासू मां को सभी महिलाओं ने कहा… “तुम कब कर रही हो हल्दी कुमकुम का कार्यक्रम। पिछली बार भी तुमने नहीं किया था। इस बार तो कर लो। अब तो बहु भी आ गई है। सभी ने एक दूसरे को देखा??”

सासू मां को भी शायद इसी दिन का इंतजार था बस बोल पडी… “ठीक है तो कल ही रख लेते हैं। सभी आ जाना जितनी भी यहां महिलाएं आई हैं। सभी को निमंत्रण हैं। सभी को आना है।”

वे कनखियों से बहू की तरफ देख रही थी। बहू ने भी हाँ में सिर हिलाया।

पवन समय से पहले आ गया गाड़ी लेकर ताकि वर्षा को कहीं कोई बात न लग जाए। वह सड़क से ही गाड़ी का हार्न बजा रहा था।

वर्षा “अभी आई कह..” कर जाने लगी। सभी को प्रणाम कर सासू माँ के ज्यों ही चरण स्पर्श करने के लिए झुकी उन्होंने बाहों में भर कर कहा…  “बहु, कल तुम्हारी पहली हल्दी कुमकुम होगी। दुल्हन के रूप में सज धजकर मेरी देहली पर आना साथ में उस नालायक को भी ले आना।”

वर्षा की आँखों से आँसुओं की धार बह निकली। खुशी से रोते हुए हंस रही थी या हंसते हुए रो पडी, पर आँसू थे खुशी के ही। फूली ना समाई वर्षा।

अपने घर आने के इंतजार में वह झटपट पवन की गाड़ी में जा बैठीं। आज इतनी खुशी से चहकते हुए वर्षा को पहली बार पवन ने देखा तो देखता रह गया। क्योंकि वह माँ और वर्षा की कुछ बातों से अनजान जो था।

मुझे कल घर आना है कह कर आंसुओं की धार लिए पवन से लिपट गई वर्षा!!!!!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 86 ☆ शारदीयता☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 86 ☆ शारदीयता ☆ 

कुछ चिंतक भारतीय दर्शन को नमन का दर्शन कहते हैं जबकि यूरोपीय दर्शन को मनन का दर्शन निरूपित किया गया है।

वस्तुतः मनुष्य में विद्यमान शारदीयता उसे सृष्टि की अद्भुत संरचना और चर या अचर हर घटक की अनन्य भूमिका के प्रति मनन हेतु प्रेरित करती है। यह मनन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, कृति और कर्ता के प्रति रोम-रोम में कृतज्ञता और अपूर्वता का भाव जगता है। इस भाव का उत्कर्ष है गदगद मनुष्य का नतमस्तक हो जाना, लघुता का प्रभुता को नमन करना।

मनन से आगे का चरण है नमन। नमन में समाविष्ट है मनन।

दर्शन चक्र में मनन और नमन अद्वैत हैं। दोनों में मूल शब्द है-मन। ‘न’ प्रत्यय के रूप में आता है तो मन ‘मनन’ करने लगता है। ‘न’ उपसर्ग बन कर जुड़ता है तो नमन का भाव जगता है।

मनन और नमन का एकाकार पतझड़ को वसंत की संभावना बनाता है। देखने को दृष्टि में बदल कर आनंदपथ का पथिक हो जाता है मनुष्य।

एक प्रसंग साझा करता हूँ।  स्वामी विवेकानंद के प्रवचन और व्याख्यानों की धूम मची हुई थी। ऐसे ही एक प्रवचन को सुनने एक सुंदर युवा महिला आई। प्रवचन का प्रभाव अद्भुत रहा। तदुपरांत स्वामी जी को प्रणाम कर एक-एक श्रोता विदा लेने लगा। वह सुंदर महिला बैठी रही। स्वामी जी ने जानना चाहा कि वह क्यों ठहरी है? महिला ने उत्तर दिया,’ एक इच्छा है, जिसकी पूर्ति केवल आप ही कर सकते हैं।’ ..’बताइये, आपके लिए क्या कर सकता हूँ’, स्वामी जी ने पूछा। ..’मैं, आपसे शादी करना चाहती हूँ।’ …स्वामी जी मुस्करा दिये। फिर पूछा, ‘ आप मुझसे विवाह क्यों करना चाहती हैं?’…कुछ समय चुप रहकर महिला बोली,’ मेरी इच्छा है कि मेरा, आप जैसा एक पुत्र हो।’…स्वामी जी तुरंत महिला के चरणों में झुक गये और बोले, ‘आजसे आप मेरी माता, मैं आपका पुत्र। मुझे पुत्र के रूप में स्वीकार कीजिए।’

देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता हम सबमें सदा जागृत रहे। वसंत ऋतु की मंगलकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#3 – पराये धन की तृष्णा सब स्वाहा कर जाती है ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#3 – पराये धन की तृष्णा सब स्वाहा कर जाती है ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक नाई जंगल में होकर जा रहा था अचानक उसे आवाज सुनाई दी “सात घड़ा धन लोगे?” उसने चारों तरफ देखा किन्तु कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उसे लालच हो गया और कहा “लूँगा”। तुरन्त आवाज आई “सातों घड़ा धन तुम्हारे घर पहुँच जायेगा जाकर सम्हाल लो”। नाई ने घर आकर देखा तो सात घड़े धन रखा था। उनमें 6 घड़े तो भरे थे किन्तु सातवाँ थोड़ा खाली था। लोभ, लालच बढ़ा। नाई ने सोचा सातवाँ घड़ा भरने पर मैं सात घड़ा धन का मालिक बन जाऊँगा। यह सोचकर उसने घर का सारा धन जेवर उसमें डाल दिया किन्तु वह भरा नहीं। वह दिन रात मेहनत मजदूरी करने लगा, घर का खर्चा कम करके धन बचाता और उसमें भरता किन्तु घड़ा नहीं भरा। वह राजा की नौकरी करता था तो राजा से कहा “महाराज मेरी तनख्वाह बढ़ाओ खर्च नहीं चलता।” तनख्वाह दूनी कर दी गई फिर भी नाई कंगाल की तरह रहता। भीख माँगकर घर का काम चलाने लगा और धन कमाकर उस घड़े में भरने लगा। एक दिन राजा ने उसे देखकर पूछा “क्यों भाई तू जब कम तनख्वाह पाता था तो मजे में रहता था अब तो तेरी तनख्वाह भी दूनी हो गई, और भी आमदनी होती है फिर भी इस तरह दरिद्री क्यों? क्या तुझे सात घड़ा धन तो नहीं मिला।” नाई ने आश्चर्य से राजा की बात सुनकर उनको सारा हाल कहा। तब राजा ने कहा “वह यक्ष का धन है। उसने एक रात मुझसे भी कहा था किन्तु मैंने इन्कार कर दिया। अब तू उसे लौटा दे।” नाई उसी स्थान पर गया और कहा “अपना सात घड़ा धन ले जाओ।” तो घर से सातों घड़ा धन गायब। नाई का जो कुछ कमाया हुआ था वह भी चला गया।

पराये धन के प्रति लोभ तृष्णा पैदा करना अपनी हानि करना है। पराया धन मिल तो जाता है किन्तु उसके साथ जो लोभ, तृष्णा रूपी सातवाँ घड़ा और आ जाता है तो वह जीवन के लक्ष्य, जीवन के आनन्द शान्ति प्रसन्नता सब को काफूर कर देता है। मनुष्य दरिद्री की तरह जीवन बिताने लगता है और अन्त में वह मुफ्त में आया धन घर के कमाये गए धन के साथ यक्ष के सातों घड़ों की तरह कुछ ही दिनों में नष्ट हो जाता है, चला जाता है। भूलकर भी पराये धन में तृष्णा, लोभ, पैदा नहीं करना चाहिए। अपने श्रम से जो रूखा−सूखा मिले उसे खाकर प्रसन्न रहते हुए भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print