हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 61 – अनंत रुप ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “अनंत रुप।   अनंत चतुर्दशी के अवसर पर रचित यह रचना  पौत्र के सार्थक प्रयास से पारिवारिक मिलन को आजीवन अविस्मरणीय बना देने के कथानक पर आधारित है। इस सार्थक  एवं समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 61 ☆

☆ लघुकथा – अनंत रुप

आज फिर अनंत चतुर्दशी के दिन छोटे से घर पर ‘गणपति बप्पा’ के सामने दीपक जला कंपकंपाते हाथों से अपने बेटे के फोटो को देखकर आंखें भर आई। बूढ़ी आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। पतिदेव ने गुस्से से कहा…. कब तक रोती रहोगी, वह अब कभी नहीं आएगा। हम मर भी जाएंगे तो भी नहीं आएगा। पर सयानी बूढ़ी अम्मा ने जोर से आवाज लगाई और चश्मा पोंछ कर बोली…. “आएगा। मेरा बेटा जरूर आएगा। मुझसे नाराज है पर बिछड़ा नहीं है। उसका गुस्सा होना जरूरी है पर वह हमसे दूर नहीं है।”

बारिश होने लगी थी। दीपक की लौ भी टिम टिम करने लगी। तेज हवा के चलते दरवाजा बंद करने जैसे ही बूढ़े बाबा ने हाथ बढ़ाया, दरवाजे पर हाथ किसी ने पकड़ लिया … “दादाजी” और जैसे चारों तरफ घंटी बजने लगी कंपकंपाते हाथों से छूकर आँखों से निहारा। उसी की तरह ही तो है। हाँ, यह अपना बेटा ही तो है????  परंतु दादाजी क्यों कह रहा है। आयुष ने चरण स्पर्श कर सब बातें बताई।

“पापा की डायरी से आपका नाम पता लिखकर मैं हॉस्टल से चला आया हूँ। अभी पापा को पता नहीं है। पोते ने जैसे ही कहा दादी कुछ देर सुनकर बोली…. “बेटा तुम अभी जाओ, नहीं तो कुछ अनर्थ हो जाएगा। तुम्हारे पापा बहुत ही जिद्दी हैं।” वह तो जैसे ठान कर आया हुआ था। जिद्द पकड़ ली कहा… “अभी और इसी वक्त आप मेरे साथ शहर चलेंगे। पोते की जिद से दादा दादी शहर रवाना हो गए।”

घर के दरवाजे पर जैसे ही पहुँचे बैंड बाजा बजने लगा। उन्होंने कहा…. “यहाँ क्या हो रहा है आयुष बेटा?” आयुष ने कहा… “दादा दादी आप अंदर तो चलिए यह आपका ही घर है। सारी प्लानिंग मम्मी- पापा ने मिलकर किया है।”  बेटे बहू ने भी माँ बाबूजी को घर के अंदर ले गए। बेटे ने कहा… “पिता जी आपकी बात और मेरी बात दोनों की जीत हो गई। परंतु, मेरे बेटे ने अनंत डिग्री के साथ अपनी खुशियों को लौटा लाया और उसने किसी की नहीं सुना। मेरी सारी गलतियों को क्षमा करें।” यह कह कर वह पिताजी से लिपट कर खुशी से रो पड़ा। पिताजी भी पुरानी बातें भूल बेटे को गले लगा गणपति बप्पा की जय जयकार करने लगे। बूढ़ी अम्मा कभी बेटे और कभी अपने पतिदेव को निहार कर गणपति बप्पा के अनंत रूप को प्रणाम कर मुस्कुराने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ छुट्टी… ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ छुट्टी…☆

…माँ, हंपी का छोटा भाई संडे को पैदा हुआ है।

….तो!

…पर संडे को तो छुट्टी रहती है न?

माँ हँस पड़ी। बोली, ‘जन्म को कभी छुट्टी नहीं होती।’

फिर बचपन ने भी स्थायी छुट्टी ले ली, प्रौढ़ अवस्था आ पहुँची।

…काका, वो चार्ली है न..,

…चार्ली?

… आपके दोस्त खन्ना अंकल का बेटा, चैतन्य।

…क्या हुआ चैतन्य को?

…कुछ नहीं बहुत बोर है। इस उम्र में धार्मिक किताबें पढ़ता है, रिलिजियस चैनल देखता है, कल तो सत्संग भी गया था, कहते हुए एबी ठहाके मारकर हँसने लगा।

…लेकिन अभिजीत, सबको अपना रास्ता चुनने का हक है न।

…बट काका, अभी हमारी उम्र ऐश करने की है, मस्ती कैश करने की है। बाकी बातों के लिए तो ज़िंदगी बाकी पड़ी है।

हृदयविदारक समाचार मिला गत संडे को दुर्घटना में एबी के गुजर जाने का।

उसने लिखा, …’काल को छुट्टी नहीं होती।’

©  संजय भारद्वाज 

19.5.2019, रात्रि 3:52 बजे।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 41 ☆ लघुकथा – विडम्बना ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा विडंबना।  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 41 ☆

☆  लघुकथा – विडंबना 

’बहू ! गैस तेज करो, तेज आँच पर ही पूरियाँ फूलती हैं’ यह कहकर सास ने गैस का बटन फुल के चिन्ह की ओर घुमा दिया। तेल में से धुआँ निकल रहा था। पूरियाँ तेजी से फूलकर सुनहरी हो रही थी और घरवाले खाकर। कढ़ाई से निकलता धुआँ पूरियाँ को सुनहरा बना रहा था और मुझे जला रहा था। मेरी छुट्टियाँ पूरी-कचौड़ी बनाने में खाक हो रही थीं। बहुत दिन बाद एक हफ्ते की छुट्टी मिली थी।  मेरे अपने कई काम दिमाग में थे, सोचा था छुट्टियों में निबटा लूंगी। एक-एक कर सातों दिन नाश्ते- खाने में हवा हो गए। दिमाग में बसे मेरे काम कागजों पर उतर ही नहीं पाए। सच कहूँ तो मुझे उसका मौका ही नहीं मिला। पति का आदेश- ‘तुम्हारी छुट्टी है अम्मा को थोड़ा आराम दो अब, बाबूजी की पसंद का खाना बनाओ’। बच्चों की फरमाइश अलग- ‘मम्मी ! छुट्टी में तो आप मेरे प्रोजेक्ट में भी मदद कर सकती हैं ना ?’

बस, बाकी सबके कामकाज चलते रहे, मेरे कामों की फाइलें बंद हो गई थीं। कॉलेज में परीक्षाएँ समाप्त हुई थीं और जाँचने के लिए कॉपियों का ढेर मेरी मेज पर पड़ा था। बंडल बंधा ही रह गया। सोचा था इस छुट्टी में किसी एक शोध छात्र की थीसिस का एक अध्याय तो देख ही लूंगी लेकिन सब धरा रह गया। घर भर मेरी छुट्टी को एन्जॉय करता रहा। ‘बहू की छुट्टी है’ का भाव सासू जी को मुक्त कर देता है। मेरे घर पर ना रहने पर पति जो काम खुद कर लेते थे अब उन छोटे-मोटे कामों के लिए भी वे मुझे आवाज लगाते।  बच्चे वे तो बच्चे ही हैं।

छुट्टी खत्म होने को आई थी , छुट्टी के पहले जो थकान थी, वह छुट्टी खत्म होने तक और बढ़ गई थी। कल सुबह से फिर वही रुटीन-सुबह की भागम-भाग, सवा सात बजे कॉलेज पहुँचना है। मन में झुंझलाहट हो रही थी , इसी तरह काम करते-करते जीवन किसी दिन खत्म हो जाएगा। यह सब बैठी सोच ही रही थी कि पति ने बड़ी सहजता से मेरी पीठ पर हाथ मारते हुए कहा- बड़ी बोर हो यार तुम? कभी तो खुश रहा करो? छुट्टियों में भी रोनी सूरत बनाए बैठी रहती हो। आराम से सोफे पर लेट कर क्रिकेट मैच देखते हुए उन्होंने अपनी बात पूरी की- एन्जॉय करो लाइफ को यार ! मैं अवाक् देखती रह गई।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 60 – हाइबन – नभ में छवि ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “नभ में छवि। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 60 ☆

☆ नभ में छवि ☆

आठ वर्षीय समृद्धि बादलों को उमड़ती घुमड़ती आकृति को देखकर बोली, ” दादाजी ! वह देखो । कुहू और पीहू।” और उसने बादलों की ओर इशारा कर दिया।

बादलों में विभिन्न आकृतियां बन बिगड़ रही थी, ” हाँ  बेटा ! बादल है ।” दादाजी ने कहा तो वह बोली, ” नहीं दादू , वह दादी है।” उसने दूसरी आकृति की ओर इशारा किया, ”  वह पानी लाकर यहां पर बरसाएगी।”

“अच्छा !”

“हां दादाजी, ”  कहकर वह बादलों  को निहारने लगी।

नभ में छवि~

दादाजी को दिखाए

दादी का फोटो।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ घड़ी… ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

पुनर्पाठ मेंआज एक लघुकथा->

☆ संजय दृष्टि  ☆ घड़ी… ☆

 

अंततः यमलोक को झुकना पड़ा। मर्त्यलोक और यमलोक में समझौता हो गया। समझौते के अनुसार जन्म के साथ ही बच्चे की कलाई पर यमदूत जीवनकाल दर्शाने वाली घड़ी बांध जाता। थोड़ी समझ आते ही अब हर कोई कलाई पर बंधी घड़ी की सूइयाँ पीछे करने लग गया।

वह अकाल मृत्यु का युग था। उस युग में हर कोई जवानी में ही गुज़र गया।

केवल एक आदमी उस युग में बेहद बुजुर्ग होकर गुज़रा। सुनते हैं, उसने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी बचपन में ही उतार फेंकी थी।

 

©  संजय भारद्वाज 

श्रीगणेशचतुर्थी, 22.8.20 प्रात: 5:41 बजे

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मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चातक… ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ चातक… ☆

 

…माना कि अच्छा लिखते हो पर कुछ जमाने को भी समझो। दुनियादारी सीखो। हमेशा कोई अमृत नहीं पी सकता। कुछ मिर्च- मसालेवाला लिखो। नदी, नाला, पोखर, गड्ढा जो मिले , उसमें उतर जाओ, अपनी प्यास बुझाओ। सूखा कंठ लिये कबतक जी सकोगे?

…चातक कुल का हूँ। पीऊँगा तो स्वाति नक्षत्र का पानी अन्यथा मेरी तृष्णा, मेरी नियति बनी रहेगी।

 

©  संजय भारद्वाज 

श्रीगणेशचतुर्थी, 22.8.20 प्रात: 5:41 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ स्त्री ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा स्त्री । इस रचना के सन्दर्भ में श्री कमलेश भारतीय जी के ही शब्दों में “डाॅ कमल चोपड़ा के संपादन में आई संरचना के सन् 2019 के संकलन में प्रकाशित यह लघुकथा। फेसबुक ने की रिपीट। यानी इसे लिखे हो गया एक साल।” कृपया आत्मसात करें।

☆ लघुकथा : स्त्री 

वह जार जार रोये जा रही थी और फोन पर ही अपने पति से झगड़  रही थी । बार बार एक ही बात पर अड़ी  हुई थी कि आज मैं घर नहीं आऊँगी। बहुत हो गया । संभालो अपने बच्चे । मुझे कुछ नहीं चाहिए ।

पति दूसरी तरफ से मनाने की कोशिश में लगा था और वह  आँसुओं में डूबी कह रही थो कि आखिर मैं कलाकार हूं तो बुराई कहाँ  है ? क्या मैं घर का काम नहीं करती ? क्या मैं आदर्श बहू नहीं ? यदि कला का दामन छोड दूं और मन मार कर रोटियां थापती और बच्चे पालती रहूँ तभी आप बाप बेटा खुश होंगे ? नहीं । मुझे अपनी खुशी भी चाहिए । मेरो कला मर रही है । आज मेरा इंतजार मत करना । मैं नौकरी के बाद सीधे मायके जाऊँगी। मेरे पीछे मत आना ।

इसी तरह लगातार रोती बिसूरती वह ऑफिस का टाइम खत्म होते ही सचमुच अपने मायके चली गयी।

माँ  बाप ने हैरानी जताई । अजीब सी नजरों से देखा । कैसे आई ? कोई जरूरी काम आ पड़ा ? कोई स्वागत नहीं । कहीं बेटी के घर आने की कोई खुशी नहीं । चिंता, बस चिंता । क्या करेगो यहां बैठ कर ? मुहल्लेवाले क्या कहेंगे ? हम कैसे मुँह दिखायेंगे ?

शाम को पति मनाने और लिवाने आ गया । कहाँ है मेरा घर ? यह सोचती अपने रोते बच्चों के लिए घर लौट गयी । पर कौन सा घर ? किसका घर ? कहाँ खो गयी कला ? किसी घर में नहीं ?

©  कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 40 ☆ लघुकथा – मैडम ! चलता है ये सब ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा  मैडम ! चलता है ये सब ।  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 40 ☆

☆  लघुकथा – मैडम ! चलता है ये सब   

मैडम ! मैं आज पुणे आ रही हूँ, आई (माँ) एडमिट है उसका शुगर बढ़ गया है। उसे देखने आ रही हूँ। आपसे मिले बिना नहीं जाऊँगी। आप व्यस्त होंगी तो भी आपका थोड़ा समय तो लूँगी ही।

मैंने हँसकर कहा- आओ भई ! तुम्हें कौन रोक सकता है। मेरी शोध छात्रा स्नेहा का फोन था। स्नेहा का स्वभाव कुछ ऐसा ही था। इतने अपनेपन और अधिकार से बात करती कि सामनेवाला ना बोल ही नहीं पाता। दूसरों के काम भी वह पूरे मन से करती थी। आप उसे अपना काम कह दीजिए, फिर देखिए जब तक काम पूरा न हो चैन नहीं लेती, ना दूसरे को लेने देगी। परेशान होकर आदमी उसका काम पूरा कर ही देता है। मैं कभी-कभी मज़ाक में उससे कहती कि स्नेहा ! तुम्हें तो किसी नेता की टीम में होना चाहिए लोगों का भला होगा।

‘क्या मैडम आप भी’ यह कहकर वह हँस देती।

नियत समय पर स्नेहा मेरे घर के सामने थी। रिक्शा रोके रखा, उसे तुरंत वापस जाना था। चिरपरिचित मुस्कान के साथ वह मेरे सामने बैठी थी, कुछ अस्त-व्यस्त-सी लगी। हमेशा की तरह दो-तीन बैग उसके कंधे पर झूल रहे थे। मैं समझ गयी कि घर से माँ के लिए खाना बनाकर लायी होगी। हल्के गुलाबी रंग का सूट पहने थी, उस पर भी तरह-तरह के दाग-धब्बे  दिख रहे थे , वह इस सब से बेपरवाह थी। आई (माँ) को देखना है और मैडम से मिलना है ये दो काम उसे करने थे। अर्जुन की तरह पक्षी की आँख जैसा उसका लक्ष्य हमेशा निर्धारित रहता था।

स्नेहा मेरी नजर भाँप गयी। मेरा ध्यान उधर से हटाने के लिए उसने अपने शोध-कार्य के कागज मेज पर फैला दिए। अधिक से अधिक बातों को तेजी से समेटती हुई बोली- मैम ! ये किताबें मुझे मिली हैं| इनमें से विषय से संबंधित सामग्री जेरोक्स करा ली है। एक अध्याय पूरा हो गया है। आप फुरसत से देख लीजिएगा।

ठीक है, मैं देख लूँगी। घर में सब कैसे है स्नेहा ? स्नेहा के पारिवारिक जीवन की उथल-पुथल से मैं परिचित थी। ससुरालवालों ने उसके जीवन को नरक बना रखा था। मैं यह भी जानती थी कि स्नेहा जैसी जीवट लड़की ही वहाँ टिक सकती है। मेरे प्रश्न के उत्तर में स्नेहा मुस्कुरा दी, बोली-

मैडम ! शादी को सात साल पूरे होनेवाले हैं पर वहाँ कुछ नहीं बदलता। सास का स्वभाव वैसा ही है। संजय कहता है कि ‘माँ जो करती है, सब ठीक है। मैं माँ को कुछ नहीं कहूँगा।’ उन लोगों को पैसा चाहिए, कहते हैं नौकरी करो,  अपने मायके से माँगो। मुझे पढ़ने भी नहीं देते। जिस दिन मेरी  परीक्षा होती है उससे एक दिन पहले मेरी सास को घर के सारे भूले-बिसरे काम याद आते हैं  और पति को लगता है कि बहुत दिन से उसने अपने दोस्तों को घर पर दावत नहीं दी। मना करो तो गाली-गलौज सुनो। मेरी बेटी सौम्या अब छ: साल की होनेवाली है। लड़ाई-झगड़े से वह डर जाती है  इसलिए मैं घर का माहौल ठीक रखना चाहती  हूँ।

मैडम ! इससे अच्छा ये लोग होने देना नहीं चाहते , इससे बुरा मैं होने नहीं दूँगी। गर्भ ठहर गया था। मैं दूसरा बच्चा नहीं चाहती। ये मुझे उसमें अटकाना चाहते थे। मेरी पढ़ाई-लिखाई सब चौपट। मैंने तय किया……….. मैं ऐसा नहीं होने दूँगी। मुझे किसी भी हालत में नेट परीक्षा पास करनी है, पीएच.डी. का काम पूरा करना है। मुझसे नजरें बचाती हुई धीरे से बोली-  मैंने कल एबॉर्शन करवा लिया है , मजबूरी थी , नहीं तो किसे अच्छा लगता है यह सब ? फिर बात बदलने के लिए बोली- छोड़ो ना मैडम ये सब चलता रहता है। डबडबाई आँखों को पोंछती स्नेहा फिर हँस पड़ी  थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ आत्मकथा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ आत्मकथा ☆

अनंत बार जो हुआ, वही आज फिर घटा। परिस्थितियाँ पोर-पोर को असीम वेदना देती रहीं। देह को निढाल पाकर धूर्तता से फिर आत्मसमर्पण का प्रस्ताव सामने रखा। विवश देह कोई हरकत करती, उससे पूर्व फिर बिजली-सी झपटी जिजीविषा और प्रस्ताव को टुकड़े-टुकड़े कर फेंक दिया। फटे कागज़ का अम्बार और बढ़ गया।

किसीने पूछा, ‘आत्मकथा क्यों नहीं लिखते?’… ‘लिखी तो है। अनंत खंड हैं। खंड-खंड बाँच लो’, लेखक ने फटे कागज़ के अम्बार की ओर इशारा करते हुए कहा।

 

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 4:27 बजे, 19.8.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ ककनूस ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ ककनूस ☆

‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’

उसकी लिखी यही बात लोगों को राह दिखाती  पर व्यवस्था की राह में वह रोड़ा था। लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने मिलकर उसके लिखे को तितर-बितर करने का हमेशा प्रयास किया।

फिर चोला तजने का समय आ गया। उसने देह छोड़ दी। प्रसन्न व्यवस्था ने उसे मृतक घोषित कर दिया। आश्चर्य! मृतक अपने लिखे के माध्यम से कुछ साँसें लेने लगा।

मरने के बाद भी चल रही उसकी धड़कन से बौखलाए लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने उसके लिखे को जला दिया। कुछ हिस्से को पानी में बहा दिया। कुछ को दफ़्न कर दिया, कुछ को पहाड़ की चोटी से फेंक दिया। फिर जो कुछ शेष रह गया, उसे चील-कौवों के खाने के लिए सूखे कुएँ में लटका दिया। उसे ज़्यादा, बहुत ज़्यादा मरा हुआ घोषित कर दिया।

अब वह श्रुतियों में लोगों के भीतर पैदा होने लगा। लोग उसके लिखे की चर्चा करते, उसकी कहानी सुनते-सुनाते। किसी रहस्यलोक की तरह धरती के नीचे ढूँढ़ते, नदियों के उछाल में पाने की कोशिश करते। उसकी साँसें कुछ और चलने लगीं।

लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने जनता की भाषा, जनता के धर्म, जनता की संस्कृति में बदलाव लाने की कोशिश की। लोग बदले भी  लेकिन केवल ऊपर से। अब भी भीतर जब कभी पीड़ित होते, भ्रमित होते, चकित होते, अपने पूर्वजों से सुना उसका लिखा उन्हें राह दिखाता। बदली पोशाकों और संस्कृति में खंड-खंड समूह के भीतर वह दम भरने लगा अखंड होकर।

फिर माटी ने पोषित किया अपने ही गर्भ में दफ़्न उसका लिखा हुआ। नदियों ने सिंचित किया अपनी ही लहरों में अंतर्निहित उसका लिखा हुआ। समय की अग्नि में कुंदन बनकर तपा उसका लिखा हुआ। कुएँ की दीवारों पर अमरबेल बनकर खिला और खाइयों में संजीवनी बूटी बनकर उगा उसका लिखा हुआ।

ब्रह्मांड के चिकित्सक ने कहा, ‘पूरी तन्मयता से आ रहा है श्वास। लेखक एकदम स्वस्थ है।’

अब अनहद नाद-सा गूँज रहा है उसका लेखन।

अब आदि-अनादि के अस्तित्व पर गुदा है उसका लिखा, ‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’

(असीम आनंद दिया इस कृति ने। माँ सरस्वती को दंडवत प्रणाम।)

©  संजय भारद्वाज 

14 अगस्त 2020, रात्रि 3:25 बजे।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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