हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 51 ☆ लघुकथा – इज्जत ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  और सार्थक लघुकथा  “इज्जत । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 51 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – इज्जत ☆

आज मामी का फोन आया और बिटिया की शादी का शुभ समाचार मिला। बहुत खुशी हुई सोचा आज मामा होते तो बहुत खुश होते। शादी में अभी समय है पता चला दिती घर से चली गई है।  वह शादी नहीं करना चाहती। लेकिन मालूम हुआ उसके मौसाजी समझा बुझाकर उसे घर वापस ले आए और शादी के लिए मजबूर किया। सिर्फ घर की इज्जत बची रहे।

लेकिन आज शादी के कई  वर्ष बाद पता चला दोनों में बन नहीं रही अक्सर झगड़ा होता रहता है। दोनों की इतने वर्षों में भी नहीं बन पाई।

मौसी ने बताया कि ..” क्योंकि दिती अपने प्यार को भूल नहीं पा रही और अक्सर मिलती रहती है।”

ओह ऐसी बात है  “अब मामी की इज्जत कहां गई जिसे बचाने के लिए अपनी बेटी की खुशियां कुर्बान कर दी।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #2 ☆ सुश्री वसुधा गाडगिल की हिन्दी लघुकथा ‘लाइलाज’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम सुश्री वसुधा गाडगिल जी की  मूल हिंदी लघुकथा  ‘लाइलाज ’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद  नाइलाज

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #2 ☆ 

सुश्री वसुधा गाडगिल

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री वसुधा गाडगिल जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है । पूर्व प्राध्यापक (हिन्दी साहित्य), महर्षि वेद विज्ञान कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर, मध्य प्रदेश. कविता, कहानी, लघुकथा, आलेख, यात्रा – वृत्तांत, संस्मरण, जीवनी, हिन्दी- मराठी भाषानुवाद । सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक, भाषा तथा पर्यावरण पर रचना कर्म। विदेशों में हिन्दी भाषा के प्रचार – प्रसार के लिये एकल स्तर पर प्रयत्नशील। अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलनों में सहभागिता, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ,आकाशवाणी , दैनिक समाचार पत्रों में रचनाएं प्रकाशित। हिन्दी एकल लघुकथा संग्रह ” साझामन ” प्रकाशित। पंचतत्वों में जलतत्व पर “धारा”, साझा संग्रह प्रकाशित। प्रमुख साझा संकलन “कृति-आकृति” तथा “शिखर पर बैठकर” में लघुकथाएं प्रकाशित , “भाषा सखी”.उपक्रम में हिन्दी से मराठी अनुवाद में सहभागिता। मनुमुक्त मानव मेमोरियल ट्रस्ट, नारनौल (हरियाणा ) द्वारा “डॉ. मनुमुक्त मानव लघुकथा गौरव सम्मान”, लघुकथा शोध केन्द्र , भोपाल द्वारा  दिल्ली अधिवेशन में “लघुकथा श्री” सम्मान । वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। )

☆ लाइलाज

अस्पताल की लेखा शाखा में दोनों लिपिकों की आपस में चर्चा चल रही थी।

” सरकार ने हर मरीज पर राशि भेजी है ! ”

” अच्छा! कितनी ! ”

” पचास हज़ार प्रति मरीज ।”

” बहुत है! ”

” कुर्सी तन्नक इधर लो …हाँ ऐसे! मरीज तक दस हज़ार का इलाज पहुँच रहे हैं । ”

” बाकी चालीस हज़ार! ”

” मंत्रियों, अफसरों, स्वास्थ्य विभाग के अन्य अधिकारियों की तंदुरुस्ती बनाने में… हेंहेंहें..! ”

” महामारी का पैसा भी ड़कार लेंगे! हद है ! ”

” लालच… लाचारी, महामारी को नहीं देखती! ”

” हाँ मित्र, ये महामारी तो एक समय बाद खत्म हो जायेगी लेकिन भ्रष्टाचार की महामारी…ये लाईलाज है!

© वसुधा गाडगिल

संपर्क –  डॉ. वसुधा गाडगिल  , वैभव अपार्टमेंट जी – १ , उत्कर्ष बगीचे के पास , ६९ , लोकमान्य नगर , इंदौर – ४५२००९. मध्य प्रदेश.

❃❃❃❃❃❃

☆ नाईलाज 

(मूल कथा – लाईलाज   मूल लेखिका – डॉ. वसुधा गाडगीळ     अनुवाद – उज्ज्वला केळकर)

 

इस्पितळाच्या लेखा विभागात दोन लिपिक आपापसात बोलता होते.

‘सरकारने प्रत्येक रुग्णासाठी पैसे पाठवले आहेत.’

‘अच्छा! किती? ‘

‘प्रत्येक रुग्णागणिक पन्नास हजार.’

‘खूप झाले ना?’

‘जरा खुर्ची इकडे जवळ सरकवून घे…. हां… अशी …प्रत्येक रुग्णापर्यंत इलाजासाठी दहा हजार पोचतात.’

‘मग बाकीचे चाळीस हजार?’

‘मंत्री, ऑफिसर, स्वास्थ्य विभागातील अधिकार्‍यांना तंदुरुस्त बनवण्यात खर्ची पडतात… हाहाहा…!’

‘महामारीचा पैसासुद्धा गिळून टाकतात हे लोक…  हद्द झाली.’

‘लालसा… लाचारी, महामारी बघत नाही.’

‘होय मित्रा, ही महामारी काही काळाने का होईना संपून जाईल पण भ्रष्टाचाराची महामारी … हिच्यावर काहीsss इलाज नाही.’

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 53 – सजा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “सजा  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 53 ☆

☆ लघुकथा –  सजा  ☆

 

“तुम ने जहर क्यों खाया था ? जानते हो आत्महत्या करने वाले को सजा होती है?”

“नहीं साहब ! मैं बीवी को अच्छी जिंदगी नहीं दे पा रहा था. बच्चे अच्छे खाने को तरस रहे थे. ऊपर से साहूकार का कर्ज , प्रकृति की मार. सब फसल चौपट हो गई थी . मैं घबरा गया था साहब. क्या करता?”

“तो मरने चले?”

“हाँ साहब ! मैं उन्हें तड़फता हुआ नही देख सकता था.”

“अच्छा. अब दोनों तड़फ़ना. एक बाहर और एक अन्दर.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

१५/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ सफेद भेड़ें काली भेड़ें ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(डॉ कुंवर प्रेमिल जी  जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम नागरिकों ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं /महामारियों से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। आज प्रस्तुत है  उनकी एक सार्थक लघुकथा  “सफेद भेड़ें काली भेड़ें ”। )

☆ लघुकथा – सफेद भेड़ें काली भेड़ें ☆  

रातों रात सबकी सब भेड़ें काली हो गई . जहां भी जातीं वही प्रतीत होता कि काली अंधारी रात कंबल ओढ़ कर आगे खड़ी है.

एक बूढ़ी भेड़ से रहा नहीं गया. उसने एक काली भेड़ को बुलाकर पूछा- “क्यूंरी छोरियों यह क्या गजब हुआ? सफेद झक चांदनी सी तुम सब सफेद भेड़ें रातों रात काली कलूटी बनकर क्यों घूम रही हो भला?”

काली भेड़ बोली- “दादा अम्मां, जब सभी काले धंधो मैं निर्लिप्त हो बाकी बची हुईं को भी समय रहते चेत जाना चाहिए. जितनी वजन दारी होगी, भविष्य मैं उतनी ही चलेगी. सफेद बूढ़ी भेड़  बोली- “तू ठीक कहती है छोरी. मै भी आज सफ़ेद से काली भेड़ बन जाऊँगी. मैं  तो जैसे बिल्कुल अकेले ही पड़ गई थी. हाँ नहीं तो….. ”

आज की तारीख में वह सफेद भेड़ भी अपना रंग -रूप बदलने मेकअप रूम चली गई थी.

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #51 ☆ लॉकडाउन  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # लॉकडाउन ☆

ढाई महीने हो गए। लॉकडाउन चल रहा है। घर से बाहर ही नहीं निकले। किसी परिचित या अपरिचित से आमने-सामने बैठकर बतियाए नहीं। न कहीं आना, न कहीं जाना। कोई हाट-बाज़ार नहीं। होटल, सिनेमा, पार्टी नहीं। शादी, ब्याह नहीं। यहाँ तक कि मंदिर भी नहीं।. ..पचास साल की ज़िंदगी बीत गई।  कभी इस तरह का वक्त नहीं भोगा। यह भी कोई जीवन है? लगता है जैसे पागल हो जाऊँगा।

बात तो सही कह रहे हो तुम।…सुनो, एक बात बताना। घर में कोई बुज़ुर्ग है? याद करो, कितने महीने या साल हो गए उन्हें घर से बाहर निकले? किसी परिचित या अपरिचित से आमने-सामने बैठकर बतियाए? न कहीं आना, न कहीं जाना। कोई हाट-बाज़ार नहीं। होटल, सिनेमा, पार्टी नहीं। शादी, ब्याह नहीं। यहाँ तक कि मंदिर भी नहीं।…. उन्हें भी लगता होगा कि  यह भी कोई जीवन है? उन्हें भी लगता होगा जैसे पागल ही हो जाएँगे।

…लेकिन उनकी उम्र हो गई है। जाने की बेला है।… तुम्हें कैसे पता कि उनके जाने की बेला है। हो सकता है कि उनके पास पाँच साल बचे हों और तुम्हारे पास केवल दो साल।…बड़ी उम्र में शारीरिक गतिविधियों की कुछ सीमाएँ हो सकती हैं पर इनके चलते मृत्यु से पहले कोई जीना छोड़ दे क्या?

वे अनंत समय से लॉकडाउन में हैं। उन्हें ले जाओ बाहर, जीने दो उन्हें।…सुनो, यह चैरिटी नहीं है, तुम्हारा प्राकृतिक कर्तव्य है। उनके प्रति दृष्टिकोण बदलो। उनके लिए न सही, अपने स्वार्थ के लिए बदलो।

जीवनचक्र हरेक को धूप, छाँव, बारिश सब दिखाता है। स्मरण रहे, घात लगाकर बैठा जीवन का यह लॉकडाउन धीरे-धीरे  तुम्हारी ओर भी बढ़ रहा है।

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 4:35 बजे, 6.6.2020

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – मेहनत की पूंजी ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की  एक सार्थक एवं  हृदयस्पर्शी लघुकथा मेहनत की पूंजी। इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

 ☆  मेहनत की पूंजी ☆ 

पाँच बरस पहले जब सहर गया था जुगनू कंपनी में नौकरी करने— तब झोंपड़ी की तरह दिखने वाला मगर मजबूत घर – – घर के सामने लगभग एक एकर का बाड़ा – – बाडे़ में चारों ओर घेरते सीताफल निबू संतरा के फलदार वृक्ष आँगन के बीचों-बीच तुलसी मैया का चौरा और आँगन द्वारे से कुछ ही दूर गाँव का चौबारा पीपल की घनी छाया वाला – – ये सब छोड़ कर गया था। – – – – और सबसे ज्यादा अम्मा बाबूजी की गूंजती आवाज में सुबह सबेरे से  रामायण की दोहा, चौपाई, सोरठा, छंद और शाम को ढोलक की धमधम और झांझ की छनक छन के साथ आल्हा की रागिनी—बड़ी कठिनाई से भुला पाया था यह स्वर्गिक आनंद।

दस बाय दस की कुठरिया में बीते आजाद जिनगी की बँधी नौकरी के पांच साल और  हासिल रहा आज अम्मा बाबूजी की राख और ये उजडा़ चमन।

कुआं भीतर धस चुका था। बबूल की झाड़ियां बेसरम के झाड़ और झरबेरी पूरे परिसर को लील चुकी थी। दो तीन दिनों की हाड़तोड़ मेहनत के बाद कुंआं कुछ उपर आया और पानी हाथ को लगा।

बस दोनों आदमी औरत को तो प्राण मिल गये मनो। खोदते चले खोदते चले और एक समय घुटना घुटना पानी आ गया।

दो दिन से डबल रोटी और चाह पर जी रहे परिवार की चाह जी उठी।

अचानक घर की कुंडी बजी। द्वार पर बड़ी बखरी के कारिंदे खड़े थे। उनके हाथ में एक कागज था जिस पर कुछ लिखा था और नीचे बाबूजी का अंगूठा और नाम लिखा था। पढा कि यह घर बाड़ा कुआं सबकुछ बखरी के मालिकों के पास गिरवी पड़ा है– 20000/- रूपयों में! एक क्षण के लिए अँधेरा छा गया आँख के नीचे लेकिन सहर के वासी हो चुके दोनों मानस – – – छिपा लिए अपने टूटे दिल का हाल और वादा कर लिया उनसे कि छःमाह में पूरा पईसा चुका देंगे

और दूसरे दिन के सूरज ने देखा कि चार मेहनतकश हाथ और कांँधे हल से जुते हैं और चार नन्हीं हथेलियाँ थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हे पानी और गुड खिला रही हैं।

कोरोना के कारण बदली उस परिस्थिति में  आज बस उफनता वर्तमान और चमकता भविष्य ही उस मेहनती परिवार का सहारा है जो अपने ही घर में मजदूरी करके भी आशाओं के आशीष की राह पर चल पड़े हैं मेहनत की पूंजी के सहारे।

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथाओं में राजनीति का चेहरा – स्टिकर ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

आज प्रस्तुत है लघुकथाओं में राजनीति का चेहरा दर्शाती सुप्रसिद्ध लघुकथाओं में से एक सर्वश्रेठ लघुकथा –  स्टिकर।  हम आपके साथ भविष्य में भी श्री कमलेश भारतीय जी की सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ आपसे साझा करते रहेंगे। कृपया आत्मसात करें।

☆ लघुकथाओं में राजनीति का चेहरा : स्टिकर  

एक पार्टी के लोग मुझसे चंदा मांगने आए । उनके भले चेहरों को देखकर मैं इंकार न कर सका । चलते चलते वे अपनी पार्टी का स्टिकर भी ड्राइंगरूम में लगा गये । मैं विचारों से सहमत न होते हुए भी लोकलज्जावश चुप रह गया ।

अब जो भी आता, पहले मुझको, फिर स्टिकर को घूरने लगता । घुमा फिरा कर पूछ ही लेता कि क्या मैं फलां पार्टी का सदस्य हूं । मैं इंकार में सिर हिला देता । अगला सवाल फिर होता, यदि सदस्य नहीं तो क्या इस पार्टी के हमदर्द हो ? मैं मासूम सा इंकार फिर कर देता । फिर तो जैसे तोप का मुंह मेरी ओर हो जाता ।

मोटी सी बात कही जाती- जब सदस्य नहीं, हमदर्द नहीं, तो फिर चंदा किसलिए ?

अब मेरा माथा ठनका । यह मामूली सा स्टिकर मेरी जान का जंजाल बन गया । बात ठीक भी लगने लगी । यदि किसी पार्टी का स्टिकर मेरे ड्राइंगरूम में लगेगा तो मेरे ही विचारों का प्रतिरूप माना जायेगा । मैं मामूली से स्टिकर को अपना मुखौटा क्यों बनने दूं ? किसी की विचारधारा को मैं क्यों ढोता फिरूं ?

एक फैसले के तहत मैने चाकू लेकर स्टिकर को काट दिया और मुक्ति की सांस ली

 

©  कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ वह लिखता रहा…. ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ वह लिखता रहा….☆

 

‘सुनो, रेकॉर्डतोड़ लाइक्स मिलें, इसके लिए क्या लिखा जाना चाहिए?’
……वह लिखता रहा।

‘अश्लील और विवादास्पद लिखकर चर्चित होने का फॉर्मूला कॉमन हो चुका। रातोंरात (बद)नाम होने के लिए क्या लिखना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

‘अमां क्लासिक और स्तरीय लेखन से किसीका पेट भरा है आज तक? तुम तो यह बताओ कि पुरस्कार पाने के लिए क्या लिखना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

‘चलो छोड़ो, पुरस्कार न सही, यही बता दो कि कोई सूखा सम्मान पाने की जुगत के लिए क्या लिखना चाहिए?’
…..वह लिखता रहा।

वह लिखता रहा हर साँस के साथ, वह लिखता रहा हर उच्छवास के साथ। उसने न लाइक्स के लिए लिखा, न चर्चित होने के लिए लिखा। कलम न पुरस्कार के लिए उठी, न सम्मान की जुगत में झुकी। उसने न धर्म के लिए लिखा, न अर्थ के लिए, न काम के लिए, न मोक्ष के लिए।

उसका लिखना, उसका जीना था। उसका जीना, उसका लिखना था। वह जीता रहा, वह लिखता रहा..!

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(रात्रि 11.17 बजे, 29 मई 2019)

( लघुकथासंग्रह  *मोक्ष और अन्य लघुकथाएँ* से )

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 34 ☆ लघुकथा – जेनरेशन  गैप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा   “जेनरेशन  गैप”। यह अक्सर होता है हमारी वर्तमान पीढ़ी अपनी नयी पीढ़ी के बीच के  जनरेशन गैप को पाटने में पूरी  मानसिक ऊर्जा झोंक देती है फिर भी संतुष्ट नहीं कर पाती है। संभवतः प्रत्येक पीढ़ी इसी दौर से गुजरती है ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद  अतिसुन्दर शब्दशिल्प से सुसज्जित लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 34 ☆

☆  लघुकथा – जेनरेशन  गैप

समय की  रफ्तार को कोई रोक सका है भला ?  यही तो है जो चलता चला जाता है. उंगली पकडकर चलना सीखनेवाले बच्चे सडक पार करते समय कब  माता – पिता का सहारा बनने लगते हैं, पता ही नहीं चलता . तब लगता है कि बच्चे बडे और हम छोटे हो रहे हैं,  पर क्या सचमुच ऐसा होता है ? क्या जीवन की उम्र, उसके अनुभव कोई मायने नहीं रखते, बेमानी हो जाते हैं सब ?

माँ !  मुझे हॉस्टल में नहीं रहना है, घुटन होती है. जानवरों की तरह  पिंजरे में बंद रहो.

सुरक्षा के लिए जरूरी होता है, समय से आओ – जाओ.

इसे बंधन कहते हैं, जेल में कैदी के जैसे.

जेल नहीं, हॉस्टल के कुछ नियम होते हैं.

नियम सिर्फ लडकियों के लिए होते हैं, लडकों के हॉस्टल में ऐसा कोई नियम नहीं  होता, उन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए क्या ?

माँ सकपकाई — उन्हें भी सुरक्षा चाहिए, लडकों के हॉस्टल में भी ऐसे नियम होने चाहिए. पर लडकियाँ अँधेरा होने से पहले हॉस्टल या घर  आ जाएं तो मन निश्चिंत हो जाता है.

क्यों ? क्या दिन में लडकियाँ सुरक्षित हैं ? आपको याद है ना दिन में ट्रेन में चढते समय क्या हुआ था मेरे साथ? और कब तक चिंता करती रहेंगी आप?

हाँ, रहने दे बस सब याद है – माँ ने बात को टालते हुए कहा  पर चिंता —–

पर – वर कुछ नहीं, मुझे  बताईए कि इसमें क्या लॉजिक है कि लडकियाँ को घर जल्दी आ जाना चाहिए, हॉस्टल में भी  बताए गए समय पर गेट के अंदर आओ, फिर मैडम के पास जाकर हाजिरी लगाओ. बोलिए ना !

माँ चुप रही —

बात – बात में बेटी माँ से कहती है –  आप समझती ही नहीं छोडिए , बेकार है आपसे बात करना.  आप नहीं समझेंगी आज के समय की इन मॉर्डन बातों को, यह कहकर बेटी पैर पटकती हुई चली गई. तेज आवाज के साथ उसके कमरे का दरवाजा बंद हो गया.

माँ जिसे सुरक्षा बता रही थी, बेटी के लिए वह बंधन था. माँ के लिए हॉस्टल के नियम जरूरी थे, बेटी को उसमें कोई लॉजिक नहीं लग रहा था. बेटी की नजरों में दुराचार की घटनाओं के लिए दिन और रात का कोई अंतर नहीं था, माँ की आँखों में रात में घटी  बलात्कार की अनेक घटनाएं  जिंदा थीं.  माँ की माथे की लकीरें कह रही थीं  चिंता तो होती है बेटी —-.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 52 – नई राह ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “नई राह। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 52 ☆

☆ लघुकथा –  नई राह ☆

 

“बेटा  ! ये भगवा वस्त्र क्यों धारण कर लिए. क्या शादी नहीं करोगे ?”

“नहीं काका ! मुझे मेरे मम्मी-पापा जैसा नहीं बनाना है.”

“तब क्या करोगे तुम.”

“पहले प्रकृतिस्थ बनूंगा.”

“मतलब ?”

“पहले मैं नदी से सरसता व सरलता का पाठ सीखूंगा . फिर कबूतर जैसा शांत बनूँगा. तब मेरे इस कुत्ते से वफादारी ग्रहण करूँगा.”

“मगर यह सब क्यों बेटा?”

“ताकि मम्मी-पापा की तरह नफरत व छल-कपट की तरह जीने वाले माता-पिता को एक नई राह दिखा सकू.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

१५/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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