हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 29 ☆ लघुकथा – एक सवाल मजदूर का ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “एक सवाल मजदूर का”। मजदूर का ही नहीं हम सब का भी एक सवाल है कि जिन  मजदूरों को गाड़ियों में भर भर कर जैसे भी भेजा है उनमें से कितने वापिस आएंगे ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 29 ☆

☆ लघुकथा – एक सवाल मजदूर का

 

बाबा मजदूर क्या होता है?

मजदूर बहुत मेहनतकश इंसान होता है बेटवा!

अच्छा! मजदूर  काम क्या करता है?

बडी-  बडी इमारतें बनाता है, पुल बनाता है, मेहनत – मजूरी के जितने काम होते हैं सब करत है वह.

और वह रहता कहाँ है?

ऐसी ही झोपडिया में, जैसे हम रहत हैं, हम मजदूर ही तो हैं .

बाबा तुमने भी शहरों में बडी- बडी बिल्डिंग बनाई हैं?

हाँ, अरे पूरे देश में घूमे हैं काम खातिर. जहाँ सेठ ले गए, चले गए मुंबई,कलकत्ता बहुत जगह.

तो तुमने अपने लिए बडा – सा घर क्यों नहीं बनाया बाबा,  कित्ती छोटी झोपडी है हमार, शुरु हुई कि खत्म  – बेटा मासूमियत से पर थोडी नाराजगी के साथ बोला.

गंगू के पास मानों शब्द ही नहीं थे, कैसे समझाता बेटे को कि मजदूर दूसरों के घर बनाता है लेकिन उसके पैरों तले जमीन नहीं होती. टी.वी.पर आती मजदूरों के दर- ब- दर भटकने की दर्दनाक खबरें उसका कलेजा छलनी कर रहीं थीं. कोरोना से जुडे अनेक सवालों पर चर्चाएं चल रही थी पर गंगू के मन में तो एक ही सवाल चल रहा था –  मजदूरों के बिना किसी राज्य का काम नहीं चलता लेकिन कोई भी उन्हें एक टुकडा जमीन और दो रोटी चैन से खाने को क्यों नहीं देता?

मजदूर यह सवाल कभी पूछ सकता है  क्या?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 47 – प्यार बढ़ता गया ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “प्यार बढ़ता गया। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 47 ☆

☆ लघुकथा –  प्यार बढ़ता गया☆

नौ को आठ का जबान लड़ाना अच्छा नहीं लगा. उस ने गुस्से में सात को थप्पड़ रसीद कर दिया. सात ने छः को, छः ने पांच को. मगर यह सिलसिला एक पर आ कर रुक गया. एक किस को थप्पड़ रसीद करता. यह उस का स्वभाव नहीं था . उस ने प्यार से शून्य को बुलाया और पास बैठा लिया.

यह देख कर नौ घबरा गया. वह समझ गया कि शून्य के साथ लग जाने से एक का मान उस से एक ज्यादा हो गया, “ अब आप मेरे साथ भी वही सलूक करेंगे ?”

“ नहीं , अब मैं इसी तरह सभी का मान बढ़ता रहूँगा,” कहते हुए दस ने सभी अंकों को एक के बाद, एक प्यार से जमाना शुरू कर दिया.

अब नौ पछता रहा था कि यदि उस ने गुस्सा न किया होता तो उस का मान सब से अधिक होता.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०१/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 45 – आजचं कथानक ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनका एक समसामयिक संस्मरणात्मक  लघुकथा  “आजचं कथानक”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #45 ☆ 

☆ आजचं कथानक ☆ 

ह्या लाँकडाऊन मुळे काहीच कळत नाहीये…फक्त चालू आहे तो म्हणजे एकांताचा एकांताशी संवाद. तो ही निशब्द . . ! घरातल्या फुलांनीही आता उमलणं सोडलंय. पुन्हा पुन्हा तेच तेच फोन . . तेच तेच आवाज. .  तीच तीच चौकशी. .  काळजी घे . .  जपून रहा . . ऐकून ऐकून  घाबरायला होतय.  या सा-यात ना वेळेचं भान रहातं, ना दिवसाचं. . !

आज कोणती तारीख कोणता वार काहीच कळत नाही. माझे कान  मात्र सारखेच कुणाच्या तरी पावलाची चाहूल लागतेय की काय ह्या कडेच लागलेले असतात  आणि जेव्हा काहीच कळत नाही तेव्हा खिडकीच्या एका कोप-यात वही पेन घेऊन मी बसून राहतो तासन तास. . ! वेळेचं भान हरवून. .माझ्याच विचारात गर्क . . ! तसंही आत्ता  वेळ खूप आहे. …पण. . ह्या जगण्यात तोच तोच पणा इतका वाढलाय की, टेप रेकॉर्डरमध्ये कुणीतरी रोज सकाळी तीच तीच कँसेट पुन्हा पुन्हा लावतंय की काय असा भास होऊ लागलाय….! कसलाच संवाद नसतानाही संवाद जाणवू लागलाय. . !

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 45 – लघुकथा – अदृश्य ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम लघुकथा  “अदृश्यअतिसुन्दर लघुकथा जिसके पीछे एक लम्बी कहानी दिखाई देती है जो वास्तव में अदृश्य है और पाठक को उसकी विवेचना स्वयं करनी होगी। इस लघुकथा की खूबसूरती यह है कि प्रत्येक पाठक की भिन्न विचारधारा के अनुरूप इस लघुकथा के पीछे विभिन्न कथाएं दिखाई देंगी जो उनकी  विभिन्न परिकल्पनाओं पर आधारित होंगी । इस सर्वोत्कृष्ट विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 45 ☆

☆ लघुकथा  – अदृश्य

प्रतिदिन की भांति दिव्या उठी। माँ से लाड प्यार कर ऑफिस जाने के लिए तैयार होने लगी। फिर माँ के पूजन के बाद एक लिफाफे को निकाल प्रणाम कर, फिर पूजा के जगह पर रख देना प्रतिदिन का नियम था। कभी उसने लिफाफे को देखने के लिए जिद नहीं की, क्योंकि माँ ने मना कर रखी थी।

आज ना जाने क्यों वह बार-बार माँ से पूछने लगी- “माँ आखिर इस लिफाफे में क्या है? जो आप मुझसे बताना नहीं चाहती। मां ने रुधें गले से आवाज लगाई “दिव्या जैसे भगवान दिखाई नहीं देते और हमारी सभी चीजों को सही वक्त पर हमें देते हैं, ठीक उसी प्रकार यह वह अदृश्य रूप में ईश्वर है। जिनके कारण आज तुम मेरे पास सुरक्षित हो। नहीं तो पता नहीं क्या हो गया होता” और आंखों से आंसू बहने लगे। दिव्या बोली “माँ मुझे तो देखने दो।”

माँ ने आखिरकार छोटी सी तस्वीर को निकाल कर दिखा दी। जल्दी जल्दी तैयार होकर वह ऑफिस के लिए निकल गई क्योंकि जिस कंपनी में वह काम करती है। उसके बॉस की शादी की 25वीं सालगिरह है और आज वह पहली बार बाकी कर्मचारियों के साथ उन्हें देखेगी।

मन में बहुत उत्साह था। क्योंकि छोटे कर्मचारियों को बॉस किसी भी मीटिंग में या कार्यक्रम में शामिल नहीं करते थे। आज पहली बार दिव्या को बुलाया गया था। सजे हुए हॉल में जैसे ही दिव्य पहुंची। सभी बॉस को बधाइयां दे रहे थे। परंतु दिव्या दरवाजे के पास पहुंच कर ठिठक कर खड़ी हो गई। हाथ से फूलों का गुलदस्ता नीचे गिर गया। वो और कोई नहीं लिफाफे वाले अदृश्य ईश्वर है। फूलों का गुलदस्ता बॉस के चरणों में रख दिव्या बहुत खुश होकर माँ को बताने घर चल पड़ी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 44 ☆ पेंशन ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  आज के सामाजिक परिवेश में जीवन के सत्य को उजागर करती एक लघुकथा  “पेंशन”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 44 – साहित्य निकुंज ☆

☆ पेंशन ☆

“क्या हुआ तुम क्यों अम्मा को चिल्ला रही हो ?”

“अरे तुम तो ड्यूटी चले जाते हो अम्मा सुनती नहीं हैं, चलते बनता नहीं है फिर भी बर्तन मांजने बैठ जाती हैं. एक पल भी बैठने नहीं देती .”

“देखो तुमसे कितनी बार कहा अम्मा का ध्यान रखा करो. उन्हें कुछ करने नहीं दिया करो .”

वहां से अम्मा की कराहने की आवाज़  आती है ….”वे कहती है बेटा अब ऐसे जीने से अच्छा है भगवान् हमें उठा ले कितना जियेगे .”

“नहीं अम्मा ऐसा नहीं कहते आप आराम करो हम अभी आते हैं “

इतने में बहू आती है ..” कहती है क्यों अम्मा क्या शिकायत कर रही थी इनसे .”

“ नहीं हमने कुछ नहीं कहा ..”

इतने में बहू अम्मा का हाथ मरोड़ती और दबी आवाज में कहती है..” तुम्हें सिर्फ इसलिए खिला पिला रहे हैं,  क्योंकि  हर महीने तुम्हारी पेंशन जो आती है.”

अम्मा ने अपना हाथ बहू के सिर पर रख दिया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 46 – बता ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “बता। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 46 ☆

☆ लघुकथा –  बता ☆

“माना कि मानव ने वृक्षों का भरपूर उपयोग कर इमारतों के जंगल सजा लिया, मगर तू तो आरी है और यह भी जानती है कि हम सभी वृक्ष जीते जी भी काम आते है और मरने के बाद भी.“

“हाँ, यह निर्विवाद सत्य है .”

“मगर तू यह बता कि मरने के बाद मानव क्या काम आता है ?”

यह सुन कर आरी के साथ-साथ मानव की हंसी भी गायब हो चुकी थी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०१/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 5 ☆ नींव के पत्थर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा “विश्व में कविता समाहित या कविता में विश्व?”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 5 ☆ 

☆  नींव के पत्थर ☆ 

महल के कलश कितने भव्य हैं… मीनारें तो देखो कितनी सुंदर हैं…. दीवारों पर की गई पच्चीकारी अद्वितीय है…. छतों पर अद्भुत चित्रकारी है… वातायनों और गवाक्षों पर कैसी मनोहर बेलें हैं… दर्शक भावविभोर रहकर प्रशंसा कर रहे थे।

किसी ने एक भी शब्द नहीं कहा उन सीढ़ियों के लिए जो पूर्ण समर्पण के साथ मौन रहकर उठाये थीं उन सबका भार और अदेखे रह गये महल का असहनीय भार पल-पल अपने सिर पर उठाये नींव के पत्थर।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

३-४-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 16 ☆ व्यंग्य – स्विच ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है मेरी एक समसामयिक व्यंग्य  “स्विच ”।  कल रात्रि लिखी यह रचना आप अवश्य पढ़िएगा । आखिर वह स्विच कौन सा है ? अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 16

☆ व्यंग्य – स्विच ☆

आज के अखबार की हेडलाइन्स ने चौंका दिया ….. देश के सभी धार्मिक स्थल के भक्त-निवासों को अस्पताल के वार्ड में तब्दील करने का निर्णय ……  तालों में बंद ईश्वर की मौन अनुमति  ….. सभी देवी देवताओं और नेताओं की बड़ी-बड़ी मूर्तियों के दानदाताओं द्वारा उतनी ही या उससे अधिक राशि अस्पताल और जनसेवाओं के लिए दान में देने का निर्णय ……

बड़ा अजीब माहौल है …… कोई मेरी ओर देख ही नहीं रहा …… सब अपने आप में मशगूल हैं। मैं सोसायटी गेट से बाहर निकल रहा हूँ …… गार्ड रोकना चाह रहा है…… किन्तु, मैं अपने में ही मशगूल हूँ …… बाहर निकल गया हूँ …… सब कुछ शांत …… पूरी सड़क सुनसान …… सिर्फ दूध और दवा की दुकान खुली है और दारू की बन्द है ….. मुझे चिंता होने लगी है कि सरकार के आय का बड़ा स्रोत बन्द है तो जनता पर व्यय कैसे होगा ? ….. शायद दान से….. वेतन में कटौती से…… महंगाई भत्ते पर रोक से …… पर पेंशनरों का तो सहारा ही यही है ….. कम से कम पेंशनरों को तो बख्श देते ….. बुढ़ापे में ….. पेंशनरों की वित्तीय समस्या का निर्णय वो लोग क्यों लेते हैं जो स्वयं का वेतन स्वयं निर्धारित करते हैं …… पेंशनरों की समस्या का हल करने की समिति में कोई पेंशनर ही नहीं है …… समस्या कटौती की नहीं है  …… समस्या भविष्य की योजना की है …… कहते हैं बीमा करा लो …… राष्ट्र का बीमा क्यों नहीं ? …… सभी का स्वास्थ्य बीमा क्यों नहीं ?…… राष्ट्र का स्वास्थ्य बीमा क्यों नहीं ? …… हमारा पेंशन फंड है ……  राष्ट्र का पेंशन फंड क्यों नहीं?  ……

मैं दुबारा देखता हूँ …… मैंने सही देखा है दारू की दुकान बन्द है ……  सड़क के किनारे फिल्मों के पोस्टर गायब हैं ….. सारे शहर में डॉक्टर, नर्सों, सफाई कर्मियों, पुलिसवालों के मुस्कराते चेहरों वाले पोस्टर लगे हैं। बड़े बड़े नेताओं के पोस्टर लगे हैं ….. सब में एक कॉमन बात दिखाई दे रही है, सब पोस्टर में बड़े अक्षरों में लिखा है COVID-19 और सबने मास्क पहन रखा है…….

सारी की सारी सड़क साफ हो गई है …….. कहीं कोई कचरा नहीं ….. कोई प्लास्टिक बैग / पन्नियाँ नहीं ….. गैर पालतू जानवर आराम से घूम रहे हैं …… जरा भूखे जरूर लग रहे हैं ……  किन्तु, काटने नहीं दौड़ रहे ….. आज तालाब के किनारे वॉकिंग ट्रैक पर कोई वाक नहीं कर रहा ….. तालाब का पानी शीशे की तरह साफ कैसे हो गया?  …… कहीं धूल नहीं ….. हवा में प्रदूषण नहीं ….. ये क्या तालाब के किनारे मंदिर में बहुत बड़ा ताला लगा है ….. पुजारी का अता-पता नहीं है ….. तो पूजा कौन करता है? आगे अस्पताल खुला है ….. सब मुझे शक की नज़र से देख रहे हैं ….. जैसे गेट पर मेरी प्रतीक्षा के लिए हाथ में लेजर से बुखार नापने का यंत्र  लिए नर्स खड़ी है और कुछ नर्सिंग स्टाफ ….. उन्हें लगा मैं अंदर जाऊंगा ….. उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ता हूँ ….. तिरछी नजर से देखता हूँ ….. शायद वे निराश हो गए …..

आगे मॉल में एक मल्टीप्लेक्स है ….. बाहर बहुत बड़ा पोस्टर लगा है ….. पूरे पोस्टर पर लिखा है COVID-19 ….  शायद साइंटिफिक फंतासी फिल्म हो ….. सोचता हूँ देख ही लूँ …… मॉल में इक्का दुक्का लोग घूम रहे हैं ….. दुकानें बन्द हैं ….. मल्टीप्लेक्स खुले हैं ….. सीधे सिनेमा हाल के गेट तक पहुँच जाता हूँ ….. कोई रोकता क्यों नहीं ? ….. सिनेमा हाल में चला जाता हूँ ….. शायद फिल्म शुरू हो गई है….. अंधेरे में खाली सीट टटोलते हुए एक किनारे की खाली सीट पर बैठ जाता हूँ ….. फिल्म शुरू हो चुकी है ….. विदेश का कोई शहर है ….. अफरा तफरी मची हुई है ….. शायद कोई महामारी फैल रही है….. बीच बीच में कोई वाइरस पूरे स्क्रीन पर उछल कूद मचाते रहता है ….. लोग एक दूसरे से हाथ मिला रहे हैं ….. गले लग रहे हैं ….. फ्लाइट पकड़ कर दूसरे देश जा रहे हैं ….. खुद भी बीमार हो रहे हैं ….. औरों को भी बीमार कर रहे हैं ….. अब तो मौतें भी हो रही हैं …..

अचानक स्क्रीन पर आंकड़े आने लग गए …..पहले विदेशों के ….. फिर अपने देश के ….. आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं ….. अचानक जाना माना टी वी एंकर स्क्रीन पर आ गया ….. एक एक कर वक्ता आने लगे ….. बहस चालू हो गई ….. अरे! ये फिल्म में टी वी एंकर कैसे घुस गया ….. यहाँ भी टी आर पी ….. हाल में रोशनी बढ़ने लगी ….. सबने मास्क लगा रखा था ….. दस्ताने पहन रखे थे …..

एंकर चीख चीख कर कह रहा था ….. अपनी सुरक्षा स्वयं करें ….. सार्वजनिक स्थानों पर मत जाएँ ….. मास्क पहन कर रहें ….. घर से बाहर न निकलें ….. घबरा कर उठ खड़ा होता हूँ ….. और अपने आपको बीच सड़क पर पाता हूँ …..आवाज एंकर की नहीं थी ….. पुलिसवाले अपनी गाड़ी में माइक पर चीख चीख कर कह रहे थे ….. लॉक डाउन में घर से बाहर न निकलें ….. सरकारी नियमों का कड़ाई से पालन करें …..अचानक पुलिस मुझे घेर लेती है ….. मैं बेतहाशा भागने लगता हूँ ….. तेज …..और तेज …..इतना तेज कि जिंदगी में नहीं दौड़ा …..पुलिस के बूटों की आवाज कम होने लगती है ….. पलट कर देखता हूँ ….. कोई भी नहीं ….. चैन की सांस लेता हूँ जैसे ही पलटता हूँ ….. ये क्या? ….. एक इंस्पेक्टर खड़ा है और कुछ पुलिस वाले….. पुलिस वाले जैसे ही डंडा उठाते हैं…..इंस्पेक्टर रोक देता है….. उम्र का लिहाज कर रहा हूँ ….. दुबारा नहीं छोडूंगा ….. हाथ जोड़ माफी मांग कर घर लौट आता हूँ …..

घर पर कोई नहीं दिखते ….. बाबूजी बहुत याद आ रहे हैं ….. सीधे उनके कमरे में जाता हूँ ….. बाबूजी खिड़की के किनारे अपनी कुर्सी पर बैठकर अपनी डायरी लिख रहे हैं ….. वे मेरी ओर नाराजगी से देखते हैं ….. शायद उन्हें मेरा बाहर जाना अच्छा नहीं लगा ….. उनके कदमों में बैठ कर पाँव पकड़ कर माफी मांगने लगता हूँ …..अरे ये क्या? बाबूजी तो हैं ही नहीं….. बाबूजी तो वास्तव में हैं ही नहीं….. तो वो कौन थे …..उठ कर देखता हूँ बाबूजी की डायरी वैसे ही खुली पड़ी है ….. बाजू में उनका चश्मा ….. और डायरी में कलम ….. पढ़ने की कोशिश करता हूँ ….. अपनी आदत के अनुसार एक लाइन छोड़ कर सुंदर हस्तलिपि में एक एक पंक्तियाँ ….. पढ़ने की कोशिश करता हूँ ….. उनकी सर्वाधिक प्रिय पुराने फिल्मी गानों की एक-एक पंक्तियाँ ….. सब पंक्तियों के अंत में  आँसुओं की कुछ बूंदें …..

गांधीजी के जन्म के 150वें वर्ष पर ………..  

आज है दो अक्तूबर का दिन, आज का दिन है बड़ा महान…….

नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है ……

नन्हा मुन्ना राही हूँ देश का सिपाही हूँ …….

आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की  …….

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा  …….

ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी …….

हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के ……..

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा ……

डायरी उठाने के लिए जैसे ही हाथ आगे बढ़ाता हूँ तो सब कुछ गायब …… डायरी …… चश्मा …… कलम ……  सब कुछ …… आँखें भर आती हैं …… गला रुँध जाता है ….. रोने की कोशिश करता हूँ …… गले से आवाज ही नहीं निकलती …… गले से सिसकियाँ निकलने लगती हैं ……

सुनिये …… सुनिये …… श्रीमति जी मुझे हिला कर नींद से उठा रही हैं …… पूछ रही हैं …… क्या हुआ? इतनी देर से क्यों रो रहे हैं? श्रीमति से लिपट कर रो पड़ता हूँ ……

सोच रहा हूँ …… आखिर यह स्वप्न है या दुःस्वप्न?  ईश्वर ने इस जटिल मस्तिष्क की रचना भी कितने जतन से की होगी। लोग कहते हैं कि सोचना बंद कर दो। अरे भाई! आपको सारे शरीर में कहीं कोई ऐसा स्विच दिख रहा है क्या कि- ऑफ कर दूँ और सोचना बंद हो जाए? यह तो मस्तिष्क में ही कहीं होगा तो होगा । यदि होगा तो जाते समय अपने आप ऑफ हो जाएगा….

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 27 ☆ लघुकथा – जिद ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “जिद ”। हमने  अपने जीवन  में यह देखा है कि यदि मनुष्य कोई बात मन में ठान ले और उसे पूरी करने पर उतर आये तो उसे सच होने में देर नहीं लगाती। हाँ समय जरूर लग सकता है, लोग जरूर उस पर हंस सकते हैं। किन्तु, अपनी जिद पूर्ण करने वाले मनुष्य भी बिरले ही होते हैं जिनका हम उदहारण बनाने के बजाय उदहारण देते नहीं थकते। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस कथानक को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 27 ☆

☆ लघुकथा – जिद

सबकी तरह उन दोनों के लिए भी लॉकडाउन में समय काटना कठिन हो रहा था. अब तक सारा दिन  मजूरी – हारी में निकल जाता था. हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का तो कभी वक्त ही नहीं मिला. रात होते – होते थककर चूर हो जाते थे दोनों.  कभी- कभी  सोचता था वह, अच्छा हुआ  भगवान ने रात तो बनाई वरना—-कोल्हू का बैल . खुद पर हँस पडा,  खाली बैठे – बैठे कुछ भी आता है दिमाग में.  घर में भी क्या कम काम हैं ? पानी लाने के लिए कोसों दूर जाना पडता है, गाँव में कोई कुआँ नहीं है . कुआँ  ? अचानक उसके मन में विचार आया और  उसने पत्नी को बुलाया– अरे  मनिया सुन ना.

मनिया दौडी – दौडी आई – क्या हुआ ?

सुन मनिया! हमारे गाँव में एक भी कुआँ नहीं है, कितनी दूर जाना पडता है पानी लेने के लिए.अरे! तो ये कौन सी नई बात बता रहे हो, रोज तो  जाते हैं पानी लेने,  दो घंटा लग जाता है.  अगर हम दोनों मिलकर अपने घर में ही कुआँ खोद लें तो ? वह मुस्कुराया.

क्या ?? वह चिल्ला पडी  – कुआँ खोदना कोई गुडिया का खेल है का, कुआँ खोदने चले हैं.

मालूम है हमें इतना आसान काम नहीं है पर कोशिश तो कर सकते हैं ना ? सारा दिन बैठे बैठे क्या करते हैं ? ये सोचो अगर  कुआँ में पानी निकल आया तो पूरा जीवन आराम से कट जाएगा.  अपना ही नहीं, अपने बच्चों और गाँववालों का भी दुख हमेशा के लिए दूर हो जायेगा.

हाँ ये बात तो है,उसकी आँखों में चमक आ गई – उसके आँगन  में कुआँ ?  हो सकता है क्या ऐसा ?

सब सपना ही लग रहा था, पर वह भी मुस्कुरा दी.

फिर शुरु हुआ  एक अनोखा सफर, गाँव में जिसने सुना बोले – पागल हो गये हैं मियां- बीबी, दो आदमी कहीं कुआँ खोद सकते हैं उसमें से एक औरत जात ?

पर उन्होंने किसी की ना सुनी. एक ही धुन थी कि अपने गाँव में कुआँ होना ही चाहिए. गाँव वाले बोले- इतनी जल्दी पानी नहीं निकलता, मशीन मंगवानी पडती है.

अब तो अपने सपने को पूरा करने की जिद थी बस.  कुआँ खोदते हुए बीस दिन हो गये थे, लगभग बाईस फीट की गहराई तक खुदाई कर चुके थे, दोनों बच्चे माता पिता को ऊपर से ही देखते रहते थे, रात का समय था अचानक बच्चे खुशी से चिल्ला उठे – अम्माँ देखो कुएँ में तारे उतर आए.

कुएँ में पानी उनके पैरों को चूम रहा था. वे दोनों कुएँ की गहराई में खडे आकाश के तारों को  देख रहे थे, ये तारे उनके दिल में चमक रहे थे.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 45 – निडरता ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “ निडरता । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 45 ☆

☆ लघुकथा –  निडरता ☆

रघु दादा ने सीमा का रास्ता रोका और सीमा को अपनी सहेली – मीना की शारीरिक और मानसिक यातना की याद आ गई जो गुंडे और समाज के कारण आज भी मीना भुगत रही थी, “ कोई है ! बचाओं ! मार डाला !” कहते हुए उस ने अपना माथा वेन से टकराया और जमीन पर गिर पड़ी.

“ अरे दौड़ो !” एक साथ कई आवाजें महाविद्यालय परिसर गूंजी  .

रघु दादा के लिए यह अप्रत्याशित था. वह डर कर चिल्लाया , “ भागो !”

कुछ ही देर में नजारा बदल गया था. लड़की के साथ गुंडागर्दी करने वाले गुंडे की निडरता का बलात्कार हो चुका का था. वही सीमा अपने साथियों के घेरे में खुशी से चीखते हुए रो पड़ी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२४/०७/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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