हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ घड़ी… ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

पुनर्पाठ मेंआज एक लघुकथा->

☆ संजय दृष्टि  ☆ घड़ी… ☆

 

अंततः यमलोक को झुकना पड़ा। मर्त्यलोक और यमलोक में समझौता हो गया। समझौते के अनुसार जन्म के साथ ही बच्चे की कलाई पर यमदूत जीवनकाल दर्शाने वाली घड़ी बांध जाता। थोड़ी समझ आते ही अब हर कोई कलाई पर बंधी घड़ी की सूइयाँ पीछे करने लग गया।

वह अकाल मृत्यु का युग था। उस युग में हर कोई जवानी में ही गुज़र गया।

केवल एक आदमी उस युग में बेहद बुजुर्ग होकर गुज़रा। सुनते हैं, उसने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी बचपन में ही उतार फेंकी थी।

 

©  संजय भारद्वाज 

श्रीगणेशचतुर्थी, 22.8.20 प्रात: 5:41 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चातक… ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ चातक… ☆

 

…माना कि अच्छा लिखते हो पर कुछ जमाने को भी समझो। दुनियादारी सीखो। हमेशा कोई अमृत नहीं पी सकता। कुछ मिर्च- मसालेवाला लिखो। नदी, नाला, पोखर, गड्ढा जो मिले , उसमें उतर जाओ, अपनी प्यास बुझाओ। सूखा कंठ लिये कबतक जी सकोगे?

…चातक कुल का हूँ। पीऊँगा तो स्वाति नक्षत्र का पानी अन्यथा मेरी तृष्णा, मेरी नियति बनी रहेगी।

 

©  संजय भारद्वाज 

श्रीगणेशचतुर्थी, 22.8.20 प्रात: 5:41 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ स्त्री ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा स्त्री । इस रचना के सन्दर्भ में श्री कमलेश भारतीय जी के ही शब्दों में “डाॅ कमल चोपड़ा के संपादन में आई संरचना के सन् 2019 के संकलन में प्रकाशित यह लघुकथा। फेसबुक ने की रिपीट। यानी इसे लिखे हो गया एक साल।” कृपया आत्मसात करें।

☆ लघुकथा : स्त्री 

वह जार जार रोये जा रही थी और फोन पर ही अपने पति से झगड़  रही थी । बार बार एक ही बात पर अड़ी  हुई थी कि आज मैं घर नहीं आऊँगी। बहुत हो गया । संभालो अपने बच्चे । मुझे कुछ नहीं चाहिए ।

पति दूसरी तरफ से मनाने की कोशिश में लगा था और वह  आँसुओं में डूबी कह रही थो कि आखिर मैं कलाकार हूं तो बुराई कहाँ  है ? क्या मैं घर का काम नहीं करती ? क्या मैं आदर्श बहू नहीं ? यदि कला का दामन छोड दूं और मन मार कर रोटियां थापती और बच्चे पालती रहूँ तभी आप बाप बेटा खुश होंगे ? नहीं । मुझे अपनी खुशी भी चाहिए । मेरो कला मर रही है । आज मेरा इंतजार मत करना । मैं नौकरी के बाद सीधे मायके जाऊँगी। मेरे पीछे मत आना ।

इसी तरह लगातार रोती बिसूरती वह ऑफिस का टाइम खत्म होते ही सचमुच अपने मायके चली गयी।

माँ  बाप ने हैरानी जताई । अजीब सी नजरों से देखा । कैसे आई ? कोई जरूरी काम आ पड़ा ? कोई स्वागत नहीं । कहीं बेटी के घर आने की कोई खुशी नहीं । चिंता, बस चिंता । क्या करेगो यहां बैठ कर ? मुहल्लेवाले क्या कहेंगे ? हम कैसे मुँह दिखायेंगे ?

शाम को पति मनाने और लिवाने आ गया । कहाँ है मेरा घर ? यह सोचती अपने रोते बच्चों के लिए घर लौट गयी । पर कौन सा घर ? किसका घर ? कहाँ खो गयी कला ? किसी घर में नहीं ?

©  कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 40 ☆ लघुकथा – मैडम ! चलता है ये सब ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा  मैडम ! चलता है ये सब ।  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 40 ☆

☆  लघुकथा – मैडम ! चलता है ये सब   

मैडम ! मैं आज पुणे आ रही हूँ, आई (माँ) एडमिट है उसका शुगर बढ़ गया है। उसे देखने आ रही हूँ। आपसे मिले बिना नहीं जाऊँगी। आप व्यस्त होंगी तो भी आपका थोड़ा समय तो लूँगी ही।

मैंने हँसकर कहा- आओ भई ! तुम्हें कौन रोक सकता है। मेरी शोध छात्रा स्नेहा का फोन था। स्नेहा का स्वभाव कुछ ऐसा ही था। इतने अपनेपन और अधिकार से बात करती कि सामनेवाला ना बोल ही नहीं पाता। दूसरों के काम भी वह पूरे मन से करती थी। आप उसे अपना काम कह दीजिए, फिर देखिए जब तक काम पूरा न हो चैन नहीं लेती, ना दूसरे को लेने देगी। परेशान होकर आदमी उसका काम पूरा कर ही देता है। मैं कभी-कभी मज़ाक में उससे कहती कि स्नेहा ! तुम्हें तो किसी नेता की टीम में होना चाहिए लोगों का भला होगा।

‘क्या मैडम आप भी’ यह कहकर वह हँस देती।

नियत समय पर स्नेहा मेरे घर के सामने थी। रिक्शा रोके रखा, उसे तुरंत वापस जाना था। चिरपरिचित मुस्कान के साथ वह मेरे सामने बैठी थी, कुछ अस्त-व्यस्त-सी लगी। हमेशा की तरह दो-तीन बैग उसके कंधे पर झूल रहे थे। मैं समझ गयी कि घर से माँ के लिए खाना बनाकर लायी होगी। हल्के गुलाबी रंग का सूट पहने थी, उस पर भी तरह-तरह के दाग-धब्बे  दिख रहे थे , वह इस सब से बेपरवाह थी। आई (माँ) को देखना है और मैडम से मिलना है ये दो काम उसे करने थे। अर्जुन की तरह पक्षी की आँख जैसा उसका लक्ष्य हमेशा निर्धारित रहता था।

स्नेहा मेरी नजर भाँप गयी। मेरा ध्यान उधर से हटाने के लिए उसने अपने शोध-कार्य के कागज मेज पर फैला दिए। अधिक से अधिक बातों को तेजी से समेटती हुई बोली- मैम ! ये किताबें मुझे मिली हैं| इनमें से विषय से संबंधित सामग्री जेरोक्स करा ली है। एक अध्याय पूरा हो गया है। आप फुरसत से देख लीजिएगा।

ठीक है, मैं देख लूँगी। घर में सब कैसे है स्नेहा ? स्नेहा के पारिवारिक जीवन की उथल-पुथल से मैं परिचित थी। ससुरालवालों ने उसके जीवन को नरक बना रखा था। मैं यह भी जानती थी कि स्नेहा जैसी जीवट लड़की ही वहाँ टिक सकती है। मेरे प्रश्न के उत्तर में स्नेहा मुस्कुरा दी, बोली-

मैडम ! शादी को सात साल पूरे होनेवाले हैं पर वहाँ कुछ नहीं बदलता। सास का स्वभाव वैसा ही है। संजय कहता है कि ‘माँ जो करती है, सब ठीक है। मैं माँ को कुछ नहीं कहूँगा।’ उन लोगों को पैसा चाहिए, कहते हैं नौकरी करो,  अपने मायके से माँगो। मुझे पढ़ने भी नहीं देते। जिस दिन मेरी  परीक्षा होती है उससे एक दिन पहले मेरी सास को घर के सारे भूले-बिसरे काम याद आते हैं  और पति को लगता है कि बहुत दिन से उसने अपने दोस्तों को घर पर दावत नहीं दी। मना करो तो गाली-गलौज सुनो। मेरी बेटी सौम्या अब छ: साल की होनेवाली है। लड़ाई-झगड़े से वह डर जाती है  इसलिए मैं घर का माहौल ठीक रखना चाहती  हूँ।

मैडम ! इससे अच्छा ये लोग होने देना नहीं चाहते , इससे बुरा मैं होने नहीं दूँगी। गर्भ ठहर गया था। मैं दूसरा बच्चा नहीं चाहती। ये मुझे उसमें अटकाना चाहते थे। मेरी पढ़ाई-लिखाई सब चौपट। मैंने तय किया……….. मैं ऐसा नहीं होने दूँगी। मुझे किसी भी हालत में नेट परीक्षा पास करनी है, पीएच.डी. का काम पूरा करना है। मुझसे नजरें बचाती हुई धीरे से बोली-  मैंने कल एबॉर्शन करवा लिया है , मजबूरी थी , नहीं तो किसे अच्छा लगता है यह सब ? फिर बात बदलने के लिए बोली- छोड़ो ना मैडम ये सब चलता रहता है। डबडबाई आँखों को पोंछती स्नेहा फिर हँस पड़ी  थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ आत्मकथा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ आत्मकथा ☆

अनंत बार जो हुआ, वही आज फिर घटा। परिस्थितियाँ पोर-पोर को असीम वेदना देती रहीं। देह को निढाल पाकर धूर्तता से फिर आत्मसमर्पण का प्रस्ताव सामने रखा। विवश देह कोई हरकत करती, उससे पूर्व फिर बिजली-सी झपटी जिजीविषा और प्रस्ताव को टुकड़े-टुकड़े कर फेंक दिया। फटे कागज़ का अम्बार और बढ़ गया।

किसीने पूछा, ‘आत्मकथा क्यों नहीं लिखते?’… ‘लिखी तो है। अनंत खंड हैं। खंड-खंड बाँच लो’, लेखक ने फटे कागज़ के अम्बार की ओर इशारा करते हुए कहा।

 

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 4:27 बजे, 19.8.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ ककनूस ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ ककनूस ☆

‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’

उसकी लिखी यही बात लोगों को राह दिखाती  पर व्यवस्था की राह में वह रोड़ा था। लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने मिलकर उसके लिखे को तितर-बितर करने का हमेशा प्रयास किया।

फिर चोला तजने का समय आ गया। उसने देह छोड़ दी। प्रसन्न व्यवस्था ने उसे मृतक घोषित कर दिया। आश्चर्य! मृतक अपने लिखे के माध्यम से कुछ साँसें लेने लगा।

मरने के बाद भी चल रही उसकी धड़कन से बौखलाए लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने उसके लिखे को जला दिया। कुछ हिस्से को पानी में बहा दिया। कुछ को दफ़्न कर दिया, कुछ को पहाड़ की चोटी से फेंक दिया। फिर जो कुछ शेष रह गया, उसे चील-कौवों के खाने के लिए सूखे कुएँ में लटका दिया। उसे ज़्यादा, बहुत ज़्यादा मरा हुआ घोषित कर दिया।

अब वह श्रुतियों में लोगों के भीतर पैदा होने लगा। लोग उसके लिखे की चर्चा करते, उसकी कहानी सुनते-सुनाते। किसी रहस्यलोक की तरह धरती के नीचे ढूँढ़ते, नदियों के उछाल में पाने की कोशिश करते। उसकी साँसें कुछ और चलने लगीं।

लम्बे हाथों और रौबीली आवाज़ों ने जनता की भाषा, जनता के धर्म, जनता की संस्कृति में बदलाव लाने की कोशिश की। लोग बदले भी  लेकिन केवल ऊपर से। अब भी भीतर जब कभी पीड़ित होते, भ्रमित होते, चकित होते, अपने पूर्वजों से सुना उसका लिखा उन्हें राह दिखाता। बदली पोशाकों और संस्कृति में खंड-खंड समूह के भीतर वह दम भरने लगा अखंड होकर।

फिर माटी ने पोषित किया अपने ही गर्भ में दफ़्न उसका लिखा हुआ। नदियों ने सिंचित किया अपनी ही लहरों में अंतर्निहित उसका लिखा हुआ। समय की अग्नि में कुंदन बनकर तपा उसका लिखा हुआ। कुएँ की दीवारों पर अमरबेल बनकर खिला और खाइयों में संजीवनी बूटी बनकर उगा उसका लिखा हुआ।

ब्रह्मांड के चिकित्सक ने कहा, ‘पूरी तन्मयता से आ रहा है श्वास। लेखक एकदम स्वस्थ है।’

अब अनहद नाद-सा गूँज रहा है उसका लेखन।

अब आदि-अनादि के अस्तित्व पर गुदा है उसका लिखा, ‘साहित्य को जब कभी दफनाया, जलाया या गलाया जाता है, ककनूस की तरह फिर-फिर जन्म पाता है।’

(असीम आनंद दिया इस कृति ने। माँ सरस्वती को दंडवत प्रणाम।)

©  संजय भारद्वाज 

14 अगस्त 2020, रात्रि 3:25 बजे।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ स्वतंत्रता दिवस विशेष – लघुकथा – सन्देश ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार 

( स्वतंत्रता दिवस के शुभ अवसर पर आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक   श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा “सन्देश”। )

☆ स्वतंत्रता दिवस विशेष – लघुकथा – सन्देश ☆

स्वतंत्रता दिवस अर्थात 15 अगस्त को जैसे ही प्रातः उसने अपने मोबाइल पर व्हाट्सएप्प खोला, स्वतंत्रता दिवस की बधाई और शुभकामनाओं के तरह-तरह के संदेश आने आरंभ हो गए। उसने एक-एक कर सभी को देखा और उत्तर देने में लग गया। उसे व्यस्त देखकर पत्नी उठी और बोली, “आप मोबाइल चलाइए, मैं चाय बना कर लाती हूं।”

थोड़ी ही देर में पत्नी चाय लेकर आ गई।

“अरे, बड़ी जल्दी फुर्सत पा ली मुए मोबाइल से”, पत्नी ने मजाक में कहा।

“तुम्हें पता तो है सुलोचना, मैं कितना मोबाइल चलाता हूं। आवश्यक होता है, तभी प्रयोग करता हूं।” दर्शन ने कहा।

“हां, पर आज स्वतंत्रता दिवस है, तो मैंने सोचा खूब सारे बधाई संदेश आए होंगे, तो जवाब देते-देते देर तो लग ही जाएगी।” सुलोचना ने चाय पकड़ाते हुए कहा।

“आए तो बहुत हैं, पर मैंने सभी को उत्तर नहीं दिया।” दर्शन चाय की चुस्की लेता हुआ बोला।

“क्यों? किसको दिया और किसको नहीं दिया?” सुलोचना सोचते हुए बोली।

“जिन्होंने हिंदी में बधाई और शुभकामनाएं दीं, उनको किया है, और जिन्होंने अंग्रेजी में संदेश भेजे हैं, उनको नहीं किया।” दर्शन ने खुलासा किया।

“ऐसा क्यों?” सुलोचना ने पूछा।

“अब तुम ही बताओ सुलोचना कि आज ‘स्वतंत्रता दिवस’ है या ‘इंडिपेंडेंस डे’? जिन अंग्रेजों के हम गुलाम रहे, जिनकी दी गयी यातनाएं और प्रताड़नाएँ सहन कीं, जिनके खिलाफ लड़ कर हमारे लाखों वीरों और नौजवानों ने अपना खून बहाकर स्वतंत्रता प्राप्त की; भारत में रहकर भारतवासी होकर अपने स्वतंत्रता दिवस पर उन्हीं की बोली यानी अंग्रेजी में संदेश भेजकर कौन सी स्वतंत्रता मना रहे हैं लोग”, दर्शन आक्रोश से भर कर बोला, “भारत को इंडिया बना दिया है सभी ने मिलकर। और तो और, त्योहारों पर भी हैप्पी होली, हैप्पी दिवाली, हैप्पी ईद, हैप्पी फलाना, हैप्पी ढिमकाना के संदेश आते रहते हैं। यह बधाई, शुभकामनाएं, मुबारकें या विशुद्ध क्षेत्रीय या मातृभाषा में सन्देश भेजना तो भूलते ही जा रहे हैं लोग। यह हैप्पी कब हमारी संस्कृति से चिपक गया, हमें पता ही नहीं चला। अफसोस की बात यह है कि लोग अपनी संस्कृति, अपनी विरासत को भूल कर आंखें बंद कर यह सब अपना रहे हैं। इस तरह अपने हाथों, अपने ही घर में अपनी ही बेकद्री करवा रहे हैं लोग।”

“बात तो आपकी सोलह आने सही है जी”, सुलोचना ने हामी भरी, “पारंपरिक तौर से अपने देश के तीज- त्यौहार और पर्व मनाने में जो उत्साह, जो आनंद आता है, वह पश्चिमी तौर तरीकों में कहां है। पर आजकल की पीढ़ी यह सब समझे और माने तब ना।”

“कोई माने या ना माने पर समझाना तो हमारा कर्तव्य है। कम से कम मैं तो हर वर्ष इन मूल्यों और उच्च आदर्शों का पालन अवश्य करता रहूंगा। हो सकता है देर-सवेर अपने आप या ठोकर खाकर दूसरों को भी समझ आ ही जाए, और वह इन बातों को मानना शुरू कर दें।” दर्शन ने स्वर में दृढ़ता लाते हुए कहा।

“चलो अब मेरी तरफ से स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं तो ले लो।” सुलोचना ने कहा तो दर्शन के मुख पर भी मुस्कुराहट छा गई, “तुम्हें भी…।”

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विराम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ विराम ☆

सुनो, बहुत हो गया यह लिखना- लिखाना। मन उचट-सा गया है। यों भी पढ़ता कौन है आजकल?….अब कुछ दिनों के लिए विराम। इस दौरान कलम को छूऊँगा भी नहीं।

फिर…?

कुछ अलग करते हैं। कहीं लाँग ड्राइव पर निकलते हैं। जी भरके प्रकृति को निहारेंगे। शाम को पंडित जी का सुगम संगीत का कार्यक्रम है। लौटते हुए उसे भी सुनने चलेंगे।

उस रात उसने प्रकृति के वर्णन और सुगम संगीत के श्रवण पर दो संस्मरण लिखे।

©  संजय भारद्वाज

अपराह्न 2:43 बजे, 15 जून 2020

# आपका दिन सृजनशील हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ हिंदी का लेखक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ हिंदी का लेखक ☆

हिंदी का लेखक संकट में है। मेज पर सरकारी विभाग का एक पत्र रखा है। हिंदी दिवस पर प्रकाशित की जानेवाली स्मारिका के लिए उसका लेख मांगा है। पत्र में यह भी लिखा है कि आपको यह बताते हुए हर्ष होता है कि इसके लिए आपको रु. पाँच सौ मानदेय दिया जायेगा..। इसी पत्र के बगल में बिजली का बिल भी रखा है। छह सौ सत्तर रुपये की रकम का भुगतान अभी बाकी है।

हिंदी का लेखक गहरे संकट में है। उसके घर आनेवाली पानी की  पाइपलाइन चोक हो गई है। प्लम्बर ने पंद्रह सौ रुपये मांगे हैं।…यह तो बहुत ज़्यादा है भैया..।…ज़्यादा कैसे.., नौ सौ मेरे और छह सौ मेरे दिहाड़ी मज़दूर के।….इसमें दिहाड़ी मज़दूर क्या करेगा भला..?….सीढ़ी पकड़कर खड़ा रहेगा। सामान पकड़ायेगा। पाइप काटने के बाद दोबारा जब जोड़ूँगा तो कनेक्टर के अंदर सोलुशन भी लगायेगा। बहुत काम होते हैं बाऊजी। दो-तीन घंटा मेहनत करेगा, तब कहीं छह सौ बना पायेगा बेचारा।…आप सोचकर बता दीजियेगा। अभी हाथ में दूसरा काम है..।

हिंदी के लेखक का संकट और गहरा गया  है। दो-तीन घंटा काम करने के लिए मिलेगा छह सौ रुपया।… दो-तीन दिन लगेंगे उसे लेख तैयार करने में.., मिलेगा पाँच सौ रुपया।…सरकारी मुहर लगा पत्र उसका मुँह चिढ़ा रहा है। अंततः हिम्मत जुटाकर उसने प्लम्बर को फोन कर ही दिया।…काम तो करवाना है। ..ऐसा करना तुम अकेले ही आ जाना।..नहीं, नहीं फिकर मत करो। दिहाड़ी मज़दूर है हमारे पास। छह सौ कमा लेगा तो उस गरीब का भी घर चल जायेगा।…तुम टाइम पर आ जाना भैया..।

फोन रखते समय हिंदी के लेखक ने जाने क्यों एक गहरी साँस भरी!

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 1.11 बजे, 27.7.2019

# आपका दिन सृजनशील हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ तिलिस्म ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ तिलिस्म ☆

….तुम्हारे शब्द एक अलग दुनिया में ले जाते हैं। ये दुनिया खींचती है, आकर्षित करती है, मोहित करती है। लगता है जैसे तुम्हारे शब्दों में ही उतर जाऊँ। तुम्हारे शब्दों से मेरे इर्द-गिर्द सितारे रोशन हो उठते हैं। बरसों से जिन सवालों में जीवन उलझा था, वे सुलझने लगे हैं। जीने का मज़ा आ रहा है। मन का मोर नाचने लगा है। लगता है जैसे आसमान मुट्ठी में आ गया है।  आनंद से सराबोर हो गया है जीवन।

…सुनो, तुम आओ न एक बार। जिसके शब्दों में तिलिस्म है, उससे जी भरके बतियाना है।जिसके पास हमारी दुनिया के सवालों के जवाब हैं, उसके साथ उसकी दुनिया की सैर करनी है।…..कब आओगे?

लेखक जानता था कि पाठक की पुतलियाँ बुन लेती हैं तिलिस्म और दृष्टिपटल उसे निरंतर निहारता रहता है। तिलिस्म का अपना अबूझ आकर्षण है लेकिन तब तक ही जब तक वह तिलिस्म है। तिलिस्म में प्रवेश करते ही मायावी दुनिया चटकने लगती है।

लेखक यह भी जानता था कि पाठक की आँख में घर कर चुके तिलिस्म की राह उसके शब्दों से होकर गई है। उसे पता था अर्थ ‘डूबते को तिनके का सहारा’ का। उसे भान था सूखे कंठ में पड़ी एक बूँद की अमृतधारा से उपजी तृप्ति का। लेखक परिचित था अनुभूति के गहन आनंद से। वह समझता था महत्व उन सबके जीवन में आनंद की अनुभूति का। लेखक समझता था महत्व तिलिस्म का।

लेखक ने तिलिस्म को तिलिस्म बने रहने दिया और वह कभी नहीं गया, उन सबके पास।

 

©  संजय भारद्वाज

# आपका दिन सृजनशील हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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