हेमन्त बावनकर
(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। आज प्रस्तुत है मेरी एक समसामयिक व्यंग्य “स्विच ”। कल रात्रि लिखी यह रचना आप अवश्य पढ़िएगा । आखिर वह स्विच कौन सा है ? अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 16 ☆
☆ व्यंग्य – स्विच ☆
आज के अखबार की हेडलाइन्स ने चौंका दिया ….. देश के सभी धार्मिक स्थल के भक्त-निवासों को अस्पताल के वार्ड में तब्दील करने का निर्णय …… तालों में बंद ईश्वर की मौन अनुमति ….. सभी देवी देवताओं और नेताओं की बड़ी-बड़ी मूर्तियों के दानदाताओं द्वारा उतनी ही या उससे अधिक राशि अस्पताल और जनसेवाओं के लिए दान में देने का निर्णय ……
बड़ा अजीब माहौल है …… कोई मेरी ओर देख ही नहीं रहा …… सब अपने आप में मशगूल हैं। मैं सोसायटी गेट से बाहर निकल रहा हूँ …… गार्ड रोकना चाह रहा है…… किन्तु, मैं अपने में ही मशगूल हूँ …… बाहर निकल गया हूँ …… सब कुछ शांत …… पूरी सड़क सुनसान …… सिर्फ दूध और दवा की दुकान खुली है और दारू की बन्द है ….. मुझे चिंता होने लगी है कि सरकार के आय का बड़ा स्रोत बन्द है तो जनता पर व्यय कैसे होगा ? ….. शायद दान से….. वेतन में कटौती से…… महंगाई भत्ते पर रोक से …… पर पेंशनरों का तो सहारा ही यही है ….. कम से कम पेंशनरों को तो बख्श देते ….. बुढ़ापे में ….. पेंशनरों की वित्तीय समस्या का निर्णय वो लोग क्यों लेते हैं जो स्वयं का वेतन स्वयं निर्धारित करते हैं …… पेंशनरों की समस्या का हल करने की समिति में कोई पेंशनर ही नहीं है …… समस्या कटौती की नहीं है …… समस्या भविष्य की योजना की है …… कहते हैं बीमा करा लो …… राष्ट्र का बीमा क्यों नहीं ? …… सभी का स्वास्थ्य बीमा क्यों नहीं ?…… राष्ट्र का स्वास्थ्य बीमा क्यों नहीं ? …… हमारा पेंशन फंड है …… राष्ट्र का पेंशन फंड क्यों नहीं? ……
मैं दुबारा देखता हूँ …… मैंने सही देखा है दारू की दुकान बन्द है …… सड़क के किनारे फिल्मों के पोस्टर गायब हैं ….. सारे शहर में डॉक्टर, नर्सों, सफाई कर्मियों, पुलिसवालों के मुस्कराते चेहरों वाले पोस्टर लगे हैं। बड़े बड़े नेताओं के पोस्टर लगे हैं ….. सब में एक कॉमन बात दिखाई दे रही है, सब पोस्टर में बड़े अक्षरों में लिखा है COVID-19 और सबने मास्क पहन रखा है…….
सारी की सारी सड़क साफ हो गई है …….. कहीं कोई कचरा नहीं ….. कोई प्लास्टिक बैग / पन्नियाँ नहीं ….. गैर पालतू जानवर आराम से घूम रहे हैं …… जरा भूखे जरूर लग रहे हैं …… किन्तु, काटने नहीं दौड़ रहे ….. आज तालाब के किनारे वॉकिंग ट्रैक पर कोई वाक नहीं कर रहा ….. तालाब का पानी शीशे की तरह साफ कैसे हो गया? …… कहीं धूल नहीं ….. हवा में प्रदूषण नहीं ….. ये क्या तालाब के किनारे मंदिर में बहुत बड़ा ताला लगा है ….. पुजारी का अता-पता नहीं है ….. तो पूजा कौन करता है? आगे अस्पताल खुला है ….. सब मुझे शक की नज़र से देख रहे हैं ….. जैसे गेट पर मेरी प्रतीक्षा के लिए हाथ में लेजर से बुखार नापने का यंत्र लिए नर्स खड़ी है और कुछ नर्सिंग स्टाफ ….. उन्हें लगा मैं अंदर जाऊंगा ….. उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ता हूँ ….. तिरछी नजर से देखता हूँ ….. शायद वे निराश हो गए …..
आगे मॉल में एक मल्टीप्लेक्स है ….. बाहर बहुत बड़ा पोस्टर लगा है ….. पूरे पोस्टर पर लिखा है COVID-19 …. शायद साइंटिफिक फंतासी फिल्म हो ….. सोचता हूँ देख ही लूँ …… मॉल में इक्का दुक्का लोग घूम रहे हैं ….. दुकानें बन्द हैं ….. मल्टीप्लेक्स खुले हैं ….. सीधे सिनेमा हाल के गेट तक पहुँच जाता हूँ ….. कोई रोकता क्यों नहीं ? ….. सिनेमा हाल में चला जाता हूँ ….. शायद फिल्म शुरू हो गई है….. अंधेरे में खाली सीट टटोलते हुए एक किनारे की खाली सीट पर बैठ जाता हूँ ….. फिल्म शुरू हो चुकी है ….. विदेश का कोई शहर है ….. अफरा तफरी मची हुई है ….. शायद कोई महामारी फैल रही है….. बीच बीच में कोई वाइरस पूरे स्क्रीन पर उछल कूद मचाते रहता है ….. लोग एक दूसरे से हाथ मिला रहे हैं ….. गले लग रहे हैं ….. फ्लाइट पकड़ कर दूसरे देश जा रहे हैं ….. खुद भी बीमार हो रहे हैं ….. औरों को भी बीमार कर रहे हैं ….. अब तो मौतें भी हो रही हैं …..
अचानक स्क्रीन पर आंकड़े आने लग गए …..पहले विदेशों के ….. फिर अपने देश के ….. आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं ….. अचानक जाना माना टी वी एंकर स्क्रीन पर आ गया ….. एक एक कर वक्ता आने लगे ….. बहस चालू हो गई ….. अरे! ये फिल्म में टी वी एंकर कैसे घुस गया ….. यहाँ भी टी आर पी ….. हाल में रोशनी बढ़ने लगी ….. सबने मास्क लगा रखा था ….. दस्ताने पहन रखे थे …..
एंकर चीख चीख कर कह रहा था ….. अपनी सुरक्षा स्वयं करें ….. सार्वजनिक स्थानों पर मत जाएँ ….. मास्क पहन कर रहें ….. घर से बाहर न निकलें ….. घबरा कर उठ खड़ा होता हूँ ….. और अपने आपको बीच सड़क पर पाता हूँ …..आवाज एंकर की नहीं थी ….. पुलिसवाले अपनी गाड़ी में माइक पर चीख चीख कर कह रहे थे ….. लॉक डाउन में घर से बाहर न निकलें ….. सरकारी नियमों का कड़ाई से पालन करें …..अचानक पुलिस मुझे घेर लेती है ….. मैं बेतहाशा भागने लगता हूँ ….. तेज …..और तेज …..इतना तेज कि जिंदगी में नहीं दौड़ा …..पुलिस के बूटों की आवाज कम होने लगती है ….. पलट कर देखता हूँ ….. कोई भी नहीं ….. चैन की सांस लेता हूँ जैसे ही पलटता हूँ ….. ये क्या? ….. एक इंस्पेक्टर खड़ा है और कुछ पुलिस वाले….. पुलिस वाले जैसे ही डंडा उठाते हैं…..इंस्पेक्टर रोक देता है….. उम्र का लिहाज कर रहा हूँ ….. दुबारा नहीं छोडूंगा ….. हाथ जोड़ माफी मांग कर घर लौट आता हूँ …..
घर पर कोई नहीं दिखते ….. बाबूजी बहुत याद आ रहे हैं ….. सीधे उनके कमरे में जाता हूँ ….. बाबूजी खिड़की के किनारे अपनी कुर्सी पर बैठकर अपनी डायरी लिख रहे हैं ….. वे मेरी ओर नाराजगी से देखते हैं ….. शायद उन्हें मेरा बाहर जाना अच्छा नहीं लगा ….. उनके कदमों में बैठ कर पाँव पकड़ कर माफी मांगने लगता हूँ …..अरे ये क्या? बाबूजी तो हैं ही नहीं….. बाबूजी तो वास्तव में हैं ही नहीं….. तो वो कौन थे …..उठ कर देखता हूँ बाबूजी की डायरी वैसे ही खुली पड़ी है ….. बाजू में उनका चश्मा ….. और डायरी में कलम ….. पढ़ने की कोशिश करता हूँ ….. अपनी आदत के अनुसार एक लाइन छोड़ कर सुंदर हस्तलिपि में एक एक पंक्तियाँ ….. पढ़ने की कोशिश करता हूँ ….. उनकी सर्वाधिक प्रिय पुराने फिल्मी गानों की एक-एक पंक्तियाँ ….. सब पंक्तियों के अंत में आँसुओं की कुछ बूंदें …..
गांधीजी के जन्म के 150वें वर्ष पर ………..
आज है दो अक्तूबर का दिन, आज का दिन है बड़ा महान…….
नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है ……
नन्हा मुन्ना राही हूँ देश का सिपाही हूँ …….
आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की …….
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा …….
ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी …….
हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के ……..
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा ……
डायरी उठाने के लिए जैसे ही हाथ आगे बढ़ाता हूँ तो सब कुछ गायब …… डायरी …… चश्मा …… कलम …… सब कुछ …… आँखें भर आती हैं …… गला रुँध जाता है ….. रोने की कोशिश करता हूँ …… गले से आवाज ही नहीं निकलती …… गले से सिसकियाँ निकलने लगती हैं ……
सुनिये …… सुनिये …… श्रीमति जी मुझे हिला कर नींद से उठा रही हैं …… पूछ रही हैं …… क्या हुआ? इतनी देर से क्यों रो रहे हैं? श्रीमति से लिपट कर रो पड़ता हूँ ……
सोच रहा हूँ …… आखिर यह स्वप्न है या दुःस्वप्न? ईश्वर ने इस जटिल मस्तिष्क की रचना भी कितने जतन से की होगी। लोग कहते हैं कि सोचना बंद कर दो। अरे भाई! आपको सारे शरीर में कहीं कोई ऐसा स्विच दिख रहा है क्या कि- ऑफ कर दूँ और सोचना बंद हो जाए? यह तो मस्तिष्क में ही कहीं होगा तो होगा । यदि होगा तो जाते समय अपने आप ऑफ हो जाएगा….
© हेमन्त बावनकर, पुणे