हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 37 ☆ लघुकथा – सदा सुहागिन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री के मर्म पर विमर्श करती लघुकथा  सदा सुहागिन। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 37 ☆

☆  लघुकथा – सदा सुहागिन

लंबी छरहरी  काया,  रंग गोरा, तीखे नाक- नक्श, दाँत कुछ आगे निकले  हुए थे लेकिन उनकी मुस्कान के पीछे छिप जाते थे. वह सीधे पल्लेवाली साडी पहनती थीं, जिसके पल्लू से उनका सिर हमेशा ढका ही रहता. माथे पर लाल रंग की मध्यम आकार की बिंदी और मांग सिंदूर से  भरी  हुई.  पैरों में चाँदी की पतली – सी पायल, कभी- कभार  नाखूनों में लाल रंग की नेलपॉलिश भी लगी होती,   इन सबको  सँवारती थी उनकी मुस्कुराहट . मिलने पर वे अपनी चिर परिचित   मुस्कान के साथ कहती – कइसन बा बिटिया?  एक नजर पडने पर पंडिताईन भारतीय संस्कृति के अनुसार  सुहागिन  ही कहलायेंगी.

हर दिन की तरह वह सुबह भी थी, सब कुछ वैसा ही था लेकिन पंडिताईन के लिए मानों दुनिया ही पलट गई. पूरा घर छान मारा, खेतों पर भी दौडकर देख आई, आसपास पता किया पर पंडित का कहीं पता ना चला.वह समझ  ना पाई कि धरती निगल  गई कि आसमान खा गया. बार -बार खटिया पर हाथ फेरकर बोलती – यहीं तो सोय रहे हमरे पंडित, कहाँ चले गए. महीनों पागल की तरह उन्हें ढूंढती रही,  कभी गंगा किनारे, कभी मंदिरों में.बाबा,फकीर कोई नहीं छोडा. एक बार तो किसी ढोंगी बाबा के  कहने पर  पंडित का एक  कपडा  लेकर उसके पास  पहुँच गई. बाबा पंडित के बारे में तो क्या बताता पंडिताईन से पैसे लेकर  चंपत हो गया. उसके बाद से पंडिताईन ने  पंडित को ढूंढना छोड दिया. उन्होंने  मान लिया कि वह  सुहागिन हैं और अपने रख – रखाव से गांववालों को जता भी दिया.

पंडिताईन ने  अपने मन को समझा लिया, जरूरी भी था वरना छोटे – छोटे   बच्चों को  पालती कैसे ? खेत खलिहान कैसे संभालती. लेकिन गांववालों को चैन कहाँ. सबकी नजरें पंडिताईन के सिंदूर और बिछिया पर अटक जाती. एक दिन ऐसे ही किसी की बात कानों में पड गई – ‘ पति का पता नहीं और पंडिताईन जवानी में सिंगार करे मुस्काती घूमत हैं गाँव भर मां ‘. पंडिताईन  की आँखों में आँसू आ गए बोलीं- बिटिया! ई बतावा इनका का करे का है ? हमार मरजी हम सिंगार करी या ना करी ? हम सिंदूर लगाई, पाजेब पहनी कि  ना  पहनी ? जौन सात फेरे लिया रहा ऊ मालूम नहीं कहाँ  चला गवा हमका छोडकर,  तो ई अडोसी – पडोसी कौन हैं हमें बताए वाले.  मांग में लगे सिंदूर की ओर इशारा करके बोलीं –‘ जब  तलक हम जिंदा हैं तब तलक ई मांग में रही, हमरे साथ हमार सुहाग जाई.’

पंडिताईन सुहागिन हैं या नहीं, वह विधवा की तरह रहे या नहीं  ?  पंडिताईन ने किसी को यह तय करने का अधिकार दिया ही नहीं.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 56 – तकनीक☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “तकनीक। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 56 ☆

☆ लघुकथा – तकनीक ☆

बिना मांगे ही उस ने गुरु मन्त्र दिया, “आप को किस ने कहा था, भारी-भारी दरवाजे लगाओं. तय मापदंड के हिसाब से सीमेंट-रेत मिला कर अच्छे माल में शौचालय बनावाओं.  यदि मेरे अनुसार काम करते तो आप का भी फायदा होता ?” परेशान शिक्षक को और परेशान करते हुए पंचायत सचिव ने कहा, “बिना दक्षिणा दिए तो आप का शौचालय पास नहीं होगा. चाहे आप को १०,००० का घाटा हुआ हो.”

“ नहीं दूं तो ?”

“शौचालय पास नहीं होगा और आप का घाटा ३५,००० हजार हो जाएगा. इसलिए यह आप को सोचना है कि आप १५,००० का घाटा खाना चाहते है या ३५,००० हजार का?”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२४/०६/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 56 – मन के द्वार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक  अतिसुन्दर भावनात्मक एवं प्रेरक लघुकथा  “मन के द्वार । लॉक डाउन एवं मन के द्वार में अद्भुत सामंजस्य बन पड़ा है। हमारे सामाजिक जीवन के साथ ही साहित्य पर भी इस महामारी एवं लॉक डाउन का प्रभाव स्वाभाविक तौर पर पड़ रहा है। इस सर्वोत्कृष्ट  शब्द शिल्प के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 56 ☆

☆ मन के द्वार

आज सुबह अजय अनमना सा उठा। उसे बार-बार अपने दोस्त वेद प्रकाश की याद आ रही थी। कुछ बातों के चलते दोनों पड़ोसियों में कहा सुनी हो जाने के कारण बातचीत बंद हो गई  थी । यहां तक कि बच्चों में भी तालमेल खत्म सा हो गया था। दोनों की पक्की दोस्ती के कारण मोहल्ले वाले उन्हें ‘अभेद’ नाम से पुकारते थे, क्योंकि दोनों ने कभी कोई बात एक दूसरे से छुपा कर नहीं रख रखी थी। इतना गहरा संबंध होने के बाद भी कहते हैं….. नजर लग गई दोस्ती को क्या करें??

वेद प्रकाश की बिटिया को आज लड़के वाले देखने आ रहे थे। वेद और भी परेशान हो रहा था। इस मौके पर उसे अपने दोस्त की सख्त जरूरत और याद आ रही थी। लाकडाउन की वजह से सभी का आना जाना बंद हो गया था। कोई किसी के यहां नहीं आ जा रहे थे। ऐसे में बिटिया की शादी की बात को सुनकर अजय मन ही मन खुश हो गया, और सोचने लगा मेहमान आ जाए…. और मैं अब जल्दी तैयार हो जाता हूं।  पत्नी ने भी हंस कर कहा….. मुझे भी ऐसा ही कुछ लग रहा है।

ठीक समय पर मेहमानों की गाड़ी दरवाजे पर आकर रुकी। वेद प्रकाश आवभगत में जुट  गया। दालान में आकर सभी बैठे ही थे और बिटिया सज संवर  कर चाय लेकर मेहमानों के बीच आ रही थी, ठीक उसी समय अजय सपरिवार मुंह में मास्क लगाए…. आकर दरवाजे पर खड़ा होकर बोला… माफ कीजिएगा यह लॉकडाउन भी बहुत ही परेशान कर रखा है सभी का आना जाना बंद कर दिया है। वरना हमारी बिटिया को क्या??? आप को अकेले-अकेले ले जाना होता। बस लॉकडाउन खुल जाए और हम धूमधाम से बिटिया को विदा करेंगे। इतना सुनना था कि वेद प्रकाश दौड़कर आया और जोर से बोला… लॉक डाउन खुल गया, लाकडाउन खुल गया समझो दोस्त लाकडाउन सदा सदा के लिए खुल गया। बहुत तरसा रहा था। अब नहीं होगा ऐसा कभी लाकडाउन।

कभी ना आए जीवन में ऐसा वक्त की लाकडाउन होना पड़े। दोनों एक दूसरे की बात को समझ मुस्कुरा दिए। मेहमान को लगा शायद विषम परिस्थितियों पर बात हो रही है, परंतु दोनों दोस्त हाथ तो क्या.. गले मिलकर लॉकडाउन को सदा सदा के लिए विदा कर चुके और मन के द्वार खुल चुके थे। बिटिया भी मुस्कराते हुए चाय की प्याली आगे बढ़ाने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – माँ  का आँचल ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की  एक सार्थक एवं  हृदयस्पर्शी लघुकथा माँ  का आँचल। इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

 ☆  माँ  का आँचल  ☆ 

 

आज अरुण की तलाश पूरी हुई।

आखिरकार इंटरव्यू में पास हो गया।

इतने में जोर से बारिश आ गई। भीगता हुआ अरुण बस स्टैंड से दौड़ता सा घर पहुंचा। भीतर सब लोग हाॅल में बैठे थे। उसे देखकर भैया भाभी रहस्यमय तरीके से एक दूसरे को देखकर चाय की सिप लेने लगे। छोटी बहन उसका बैग टटोलने लगी।

पिता गरजे कुछ देर ठहर कर नहीं आ सकते थे वैसे भी हम जानते हैं क्या हुआ होगा। इतनी बड़ी कंपनी में तुम्हें नौकरी  नहीं मिलेगी।

इतने में माँ दौड़ती सी तौलिया लेकर आई और धीरे से पूछा बेटा कुछ खाया कि नहीं और माँ के आँचल से खुशी के आँसू पोंछते अरुण की आँखों ने सच्चाई बयां कर दी जिसे कहने की असफल कोशिश कर रहा था।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – समझदारी का पाठ ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। एच आर में कई प्रमाणपत्रों के अतिरिक्त एच. आर.  प्रोफेशनल लीडर ऑफ द ईयर-2017 से सम्मानित । आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है।  आज प्रस्तुत है उनकी एक सार्थक लघुकथा  – समझदारी का पाठ )

? समझदारी का पाठ ?

लॉकडाउन खुलने की प्रक्रिया चालू हो चुकी थी पर अभी भी स्कूल बंद थे।

सोनू स्कूल बंद होने की वजह से घर में बैठ-बैठ कर बहुत परेशान हो गया था। सावधानी बरतने के लिए मम्मी सोसाइटी में भी नहीं जाने देती थी। वो बाहर खेलने जाने के लिए मम्मी से बहुत लड़ता था पर उसका, मम्मी पर कोई असर नहीं होता था और सोनू नाराज़ होकर खाना भी नहीं खाता।

अब थक हार कर, वो रोज़ मन लगाने के लिए बालकनी में बैठने लगा और बाहर देखा करता। स्वस्थ रहने के लिए सोनू के पापा ने उसे जल्दी उठाना चालू कर दिया था ताकि सुबह-सुबह व्यायाम कर सके। धीरे-धीरे सोनू को जल्दी उठने की आदत पड़ने लगी।

एक दिन सुबह वो 5 बजे ही उठ गया और जा कर बालकॉनी में बैठ गया और बाहर देखने लगा। तभी उसने देखा चौकीदार अंकल का बेटा गोलू सोसाइटी के गाड़ियाँ साफ़ कर रहा था। सोनू ने जिज्ञासा वश पापा से पूछा की “इस माहौल में वो तो बाहर जा सकता है पर हम क्यों नहीं ?”

पापा ने बताया ” चौकीदार अंकल के पैर में चोट लगने की वजह से वो गाड़ियाँ साफ़ नहीं कर सकते और अगर गाड़ियाँ साफ़ नहीं करेंगे तो उन्हें गाडी साफ़ करने के पैसे नहीं मिलेगा और फिर घर खर्च कैसे चलेगा। इसलिए उनका बेटा उनका काम करता है। काम के साथ सेहत का भी ध्यान रखना है इसलिए वो सुबह जल्दी काम निबटा कर वापस घर चला जाता है। ”

पापा की बात सुन सोनू की आँख में पानी आ गया और खुद पर शर्म आने लगी, पापा ने सोनू को रोने की वजह पूछी।

सोनू बोला ” एक गोलू है जो मज़बूरी में घर खर्च चलाने के लिए घर से अपनी परवाह किये बिना बाहर निकल रहा है और एक मैं हूँ जो सिर्फ खेलने के लिए बाहर जाने की ज़िद्द करता हूँ| वो मुझसे छोटा होकर भी कितना समझदार है और मैं। अब से मैं कभी ज़िद्द नहीं करूंगा और जब तक सब कुछ सामान्य नहीं हो जाता तब तक घर के बाहर जाने की बात भी नहीं करूंगा। ”

इस छोटी सी घटना ने सोनू को समझदारी का पाठ सीखा दिया जिसे उसने ज़िंदगी भर याद रखा।

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ खबरें ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

( संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम  साहित्यकारों ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  खबरें। )

☆ लघुकथा – खबरें ☆  

बिस्कुट लेने गई एक लड़की का अपहरण, एक अबोध बच्ची के साथ  हुआ बलात्कार, किसी महिला के साथ हुआ सामूहिक अत्याचार…… रोज-रोज अखबारों  में ऐसी अनेकों खबरें पढ़ने को मिल रही है. पूरा माहौल बद से बदतर हो गया है.

लोग कह रहे हैं- यह क्या हो रहा है? सरकार क्या कर रही है? आखिर, बीच-बीच में कहीं-कहीं से क्या यह स्वर नहीं  उभरना  चाहिए- हम क्या कर रहे हैं?

हमारी कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है क्या? और हम सबसे पहले इन खबरों को चटकारे लेकर नहीं पढ़ रहे हैं क्या?

यह प्रश्न चिन्ह अब तक हमारे सामने आकर क्यों नहीं खड़ा होता? आखिर – आखिर?

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #4 ☆ मराठी लघुकथा ‘पुतळा’ – हिन्दी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  

आज प्रस्तुत है  श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  की मूल मराठी  लघुकथा  ‘पुतळा’ एवं  तत्पश्चात आपके ही द्वारा इस  लघुकथा का हिंदी अनुवाद  ।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #4 ☆ 

☆ पुतळा

 ‘साहेब…’

‘बोल….’

‘सरकारच्या प्रत्येक योजनेबद्दल, निर्णयाबद्दल टीका करणं, हीच आपली  पक्षीय नीति आहे. होय नं?’

‘बरं.. मग … ‘

‘मग त्या दिवशी आपण मुख्यमंत्रीजींच्या नव्या घोषणेचं स्वागत कसं केलत?

‘ मी? स्वागत केलं? कसली घोषणा ? कसलं स्वागत ?’

‘तीच घोषणा … नगराच्या मधोमध नेताजींचा पुतळा उभा करायची घोषणा … त्या दिवशी आपण म्हणाला होतात, सरकारच्या सगळ्या विधायक कार्यात आमचा पक्ष सहकार्य करेल. आपल्या दृष्टीने तर सरकारचं कुठलच कार्य विधायक नसतं. मग यावेळी सहकार्याची भाषा कशी काय?

‘अरे, मुर्खा, पुतळा उभा करायचा तर देणग्या गोळा करायला नकोत? ..’

‘हां… ते आहेच.’

‘त्या कामात आपण त्यांना मदत करू .’

‘पण का?’

‘तेव्हाच मग देणगीतील काही पैसा आपल्या तिजोरीत जमा होईल नं?

‘हूं … ‘

‘पुतळा उभा केल्यानंतर कधी-ना-कधी , कुणी-ना-कुणी त्या पुतळ्याची विटंबना करेल किंवा तिथे तोडफोड करेल…’

‘पण असं झालं नाही तर…’

‘ती व्यवस्थादेखील आपण करू. मग आंदोलन होईल. लूट –मार होईल. दंगे-धोपे होतील. तेव्हा मग आपली चांदीच चांदी॰…

 

©श्रीमति उज्ज्वला केळकर

❃❃❃❃❃❃

☆  प्रतिमा

(मराठी कथा – पुतळा   मूळ लेखिका – उज्ज्वला केळकर)

‘साहबजी…’

‘बोल…’

‘सरकार की हर योजना, निर्णय की आलोचना करना , यही हमारी पक्षीय नीति है. है नं?’

‘हं.. तो फिर… ‘

‘तो उस दिन आपने मुख्यमंत्रीजी की घोषणा का स्वागत कैसे किया?’

‘मै ने किया ?  कैसी घोषणा ? कैसा स्वागत ?’

‘वही … नगर के बीचों बीच उस नेताजी की प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा … उस दिन आप ने कहा  था, सरकार के सभी विधायक कार्यों में हमारा पक्ष अपना सहयोग देगा. अपनी दृष्टि से तो सरकार का कोई भी कार्य विधायक हो ही नहीं सकता. तो फिर इस बार सहयोग की भाषा कैसी?

‘अरे, मूरख प्रतिमा बनानी है, तो चंदा इकठ्ठा करना ही पड़ेगा ..’

‘हां! सो तो है !’

‘इस काम में हम उन की मदद करेंगे.’

‘क्यों?’

‘तभी तो चंदे का कुछ हिस्सा अपनी तिजोरी में भी आ जाएगा नं?

‘हूं … ‘

‘प्रतिमा की स्थापना करने के बाद कभी – न – कभी , कोई –न – कोई उस की विडम्बना करेगा. उसे तोड भी सकता है.’

‘मगर ऐसा नहीं हुआ तो…’

‘तो उस की व्यवस्था भी हम करेंगे . तब आंदोलन होगा. लूट-मार होगी. दंगा-फसाद  होगा. तब तो समझो अपनी चांदी – ही – चांदी…’

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 36 ☆ लघुकथा – देवी नहीं, इंसान है वह ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक सामाजिक त्रासदी पर विमर्श करती लघुकथा  “देवी नहीं, इंसान है वह। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 36 ☆

☆  लघुकथा – देवी नहीं, इंसान है वह

 

उसे देवी मत बनाओ, इंसान समझो- आजकल ये पंक्तियां  स्त्री के लिए कही जा रही हैं. हाँ खासतौर से भारतीय नारी के लिए जिसे आदर्श नारी के फ्रेम में जडकर  दीवार पर टाँग दिया जाता है, उसकी जिंदा मौत किसी को नजर नहीं आती, खुद उसे भी नहीं, क्योंकि ये तो घर – घर की बात है.

उसे भी मायके से विदा होते समय यही समझाया गया था कि पति परमेश्वर होता है, मायके की बातें ससुराल में नहीं कहना और ससुराल में तो जैसे रखा जाए, वैसे रहना.  वह भूलती नहीं थी अपने पिता की बात – डोली में जा रही हो ससुराल से अर्थी ही उठनी चाहिए. सुनने में ये बातें साठ के दशक की किसी पुरानी फिल्म के संवाद लगते हैं, पर नहीं, ये उसका  जीवन था जिसे उसने जिया. इतनी गहराई से जिया कि अपनी बीमारी में वह सब भूल गई लेकिन यह ना भूली कि पति परमेश्वर होता है. उसे ना अपने खाने – पीने की सुध थी, ना अपनी, बौराई- सी इधर – उधर घूमती  बोलती रहती – आपने खाना खाया कि नहीं ? बताओ किसी ने अभी तक इन्हें खाने के लिए नहीं पूछा, हम अभी बना देते हैं. वह सिर पीट रही थी –  हे भगवान बहुत पाप लगेगा हमें कि पति से पहले हमने खा लिया.  थोडी देर बाद वही बात दोहराती, फिर वही, वही —.

सिलसिला थमता कैसे ? वह अल्जाइमर की रोगी है.  इस रोग ने भी उसे ससुराल जाते समय दी गई सीख को भूलने नहीं दिया. शायद वह सीख नहीं, मंत्र होता था जिसे अनजाने ही स्त्रियां जीवन भर जपती रहतीं थीं.  धीरे – धीरे उसमें अपना अस्तित्व ही खत्म कर लेती थीं, अपना  खाना- पीना, सुख – दुख सब  होम . उससे मिलता क्या था उन्हें ? आईए यह भी देख लेते हैं –

वह अब घर की चहारदीवारी में कैद है, कहने को मुक्त, पर उसे कुछ पता नहीं . बूढे पति देव छुटकारा पाने के लिए निकल लेते हैं दोस्तों – यारों से मिलने.  उनके आने पर वह कोई शिकायत ना कर कभी उन्हें पुचकारती है, कभी सिर पर हाथ फेरती है, कहती है बहुत थक गए होंगे आओ पैर दबा दूँ, क्या खाओगे ? वे झिडक देते हैं – हटो, जाओ यहाँ से अपना काम करो —

अपना काम??? वह दोहराती है, इधर- उधर जाकर फिर लौटती है उसी प्यार और अपनेपन के साथ, पूछती है – थक गए होगे, पैर दबा दूँ, क्या खाओगे ——  फिर झिडकी —————-.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 55 – तनाव ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “तनाव। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 55 ☆

☆ लघुकथा – तनाव ☆

 

“ रंजना ! ये मोबाइल छोड़ दे. चार रोटी बना. मुझे विद्यालयों में निरीक्षण पर जाना है. देर हो रही है.”

रंजना पहले तो ‘हुहाँ’ करती रही. फिर माँ पर चिल्ला पड़ी, “ मैं नहीं बनाऊँगी. मुझे आज प्रोजेक्ट बनाना है. उसी के लिए दोस्तों से चैट कर रही हूँ. ताकि मेरा काम हो जाए और मैं जल्दी कालेज जा सकू.”

तभी पापा बीच में आ गए, “ तुम बाद में लड़ना. पहले मुझे खाना दे दो.”

“ क्यों ? आप का कहाँ जाना है ? कम से कम आप ही दो रोटी बना दो ?” माँ ने किचन में प्रवेश किया.

“ हूँउ  ! तुझे क्या पता. आज मेरे ऑफिस में आडिटर आ रहा है. इसलिए जल्दी जाना है.”

यह सुनते ही वह चिल्लाते हुए पलटी , “ पहले कहना था. सब ठेका मेरा ही है.”

पापा पीछे थे. उन के हाथ के गिलास से पानी छलका. गर्म तवे पर गिर कर उछलने लगा. कटोरे में पड़ी रोटी पेट में जाने का इंतजार करती रह गई और माँ के कान में भी अपने कहे यही शब्द गूंजते रहे, “ पहले कहना था.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०७/०८/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ घर के न  घाट के ☆ डॉ श्याम बाला राय

डॉ श्याम बाला राय

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार , पत्रकार  एवं सामाजिक कार्यकर्ता डॉ श्याम बाला राय जी  का ई-अभिव्यक्ति  में हार्दिक स्वागत हैं। आपकी उपलब्धियां इस सीमित स्थान में उल्लेखित करना संभव नहीं है। कई रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओं  में  प्रकाशित। कई राष्ट्रीय / प्रादेशिक /संस्थागत  पुरस्कारों /अलंकारों से पुरस्कृत /अलंकृत ।  लगभग 20 पुस्तकें प्रकाशित। कई साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं  का प्रतिनिधित्व। आकाशवाणी से समय समय पर रचनाओं का प्रसारण । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण लघुकथा   ‘घर के न  घाट के’।)

☆ लघुकथा – घर के न  घाट के ☆ 

भागता हुआ रजिन्दर राय साहब के यहां आकर कहने लगा कि मालिक चलिए। प्रधान जी से कह दीजिए।

राय साहब ने कहा कि मैं क्या कहूँ प्रधान जी से?

चलिए बताता हूँ।

अरे! ऐसे कैसे जाऊं ? क्या करना है? क्या कहना है? ये पता तो होना चाहिए। मेरी बात भला प्रधान जी क्यों सुनेगे?

रजिन्दर संकोच करते हुए बोला कि मुम्बई से मेरा बबुआ आया है.

अच्छा ! आया है तो जाओ उसका स्वागत करो, खिलाओं पिलाओं, प्रधान जी से क्या कहना है?

नहीं मालिक! प्रधान जी गांव में घुसने के लिए मना कर रहे हैं। कह रहे है कि मैं स्वयं को नहीं फसाऊंगा। तुम लोग भागकर शहर से छिपने गांव आये हो। भला आप ही बताइये। कोई अपने घर में नहीं आयेगा।

राय साहब ने कहा कि तुम नहीं जानते हो कि कोरोना नाम की जानलेवा बिमारी पूरे विश्व में फैली है। उसका पभाव गांव में भी हो जायेगा तो गांव वाले कहाँ जायेगे इलाज कराने।

रजिन्दर निराश होकर बोला कि तब तो कोई साथ नहीं देगा। शहर में कोई काम नहीं था। ट्रेन का टिकट नहीं मिला तो ट्रक से ही बबुआ दिन-रात धूप में तपते हुआ गांव आया है। मैं उसे पानी भी नहीं पिला पा रहा हूँ। कोई मदद करने वाला नहीं है।

राय साहब रजिन्दर को समझाते हुआ कहे कि बिमारी जानलेवा है, शहर से गांव आने के बेचैन बहुत अधिक लोग बिमारी को लोगों में फैलाये है, इसलिए सरकार ने प्रधान को चेतावनी दी है कि गांव पहुँचने वाले पर ध्यान देना प्रधान की जिम्मेदारी है। यदि गांव में एक भी मरीज मिला तो प्रधान की जिम्मेदारी होगी। अतः प्रधान जी विवश है।

रजिन्दर रोते हुए कहने लगा कि गांव से शहरी देखकर शहर कमाने गया था बबुआ। आज न घर का रहा न घाट का। ये कैसी मेरी मूर्खता थी कि उसे घर छोड़कर शहर भेजा उससे अधिक मै यहा कमा लेता हूँ।

 

©  डॉ श्यामबाला राय

द्वारा श्री यश्वन्त सिंह, यू- 28, प्रथम तल, उपाध्याय ब्लाक, शकरपुर, दिल्ली – 110092

मोबाइल न0 – 9278280879

[email protected]

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