(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “घृणा से निपटना ही होगा… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 314 ☆
व्यंग्य – हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी से बचना ! श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी न करना वरना लोकायुक्त धर लेगा। हुनरमंद होना भी कभी मुश्किल में डाल देता है। मेरा दोस्त बचपन से ही बड़ा हुनरमंद है। स्कूल के दिनों से ही वह पढ़ाई के साथ साथ छोटे बच्चों को ट्यूशन देकर अपनी फीस और जेब खर्च सहज निकाल लेता था। जब कभी कालेज में फन फेयर लगता तो वह गोलगप्पे और चाय की स्टाल लगा लेता था। सुंदर लड़कियों की सबसे ज्यादा भीड़ उसी की स्टाल पर होती और बाद में जब नफे नुकसान का हिसाब बनता तो वह सबसे ज्यादा कमाई करने वालों में नंबर एक पर होता था।
कालेज से डिग्री करते करते वह व्यापार के और कई हुनर सीख गया। दिल्ली घूमने जाता तो वहां से इलेक्ट्रानिक्स के सामान ले आता, उसकी दिल्ली ट्रिप तो फ्री हो ही जाती परिचितों को बाजार भाव से कुछ कम पर नया से नया सामान बेचकर वह कमाई भी कर लेता। बाद में उसने सीजनल बिजनेस का नया माडल ही खड़ा कर डाला। राखी के समय राखियां, दीपावली पर झिलमिल करती बिजली की लड़ियां, ठंड में लुधियाना से गरम कपड़े, चुनावों के मौसम में हर पार्टी के झंडे, टोपियां, गर्मियों में लखनऊ से मलमल और चिकनकारी के वस्त्र वह अपने घर से ही उपलब्ध करवाने वाला टेक्टफुल बंदा बन गया। दुबई घूमने गया तो सस्ते आई फोन ले आया मतलब यह कि वह हुनरमंद, टेक्टफुल और होशियार है।
इस सबके बीच ही वह नौकरी के लिये कांपटेटिव परीक्षायें भी देता रहा। जैसा होता है, स्क्रीनिग, मुख्य परीक्षा, साक्षात्कार, परिणाम पर स्टे वगैरह की वर्षौं चली प्रक्रिया के बाद एक दिन एक प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम आया और हमारा मित्र द्वितीय श्रेणि सरकारी कर्मचारी बन गया। अब अपने हुनर से वह दिन भर का सरकारी काम घंटो में निपटा कर फुर्सत में बना रहता। बैठा क्या न करता उसने अपना साइड बिजनेस, पत्नी के नाम पर कुछ और बड़े स्तर पर डाल दिया। उसके पद के प्रभाव का लाभ भी मिलता चला गया और वह दिन दूना रात चौगुना सफल व्यापार करने लगा। कमाई हुई तो गहने, प्लाट, मकान, खेत की फसल भी काटने लगा। जब तब पार्टियां होने लगीं।
गुमनाम शिकायतें, डिपार्टमेंटल इनक्वायरी वगैरह शुरु होनी ही थीं, किसी की सफलता उसके परिवेश के लोगों को ही सहजता से नहीं पचती। फिर एकदिन भुनसारे हमारे मित्र के बंगले पर लोकायुक्त का छापा पड़ा। दूसरे दिन वह अखबार की सुर्खियों में सचित्र छा गया। अब वह कोर्ट, कचहरी, वकीलों, लोकायुक्त कार्यालय के चक्कर लगाता मिला करता है। हम उसके बचपन के मित्र हैं। हमने उसके हुनर को बहुत निकट से देखा समझा है, तो हम यही कह सकते हैं कि हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी न करना वरना लोकायुक्त धर लेगा।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य – “एक फूफा का दर्द…“।)
अभी अभी # 527 ⇒ एक फूफा का दर्द श्री प्रदीप शर्मा
हम अच्छी तरह जानते हैं कि एक फूफा जगत फूफा होता है और वह जहां भी शादियों में जाता है, लोग उसे आंखें फाड़ फाड़कर देखते हैं, लेकिन इसमें उसका कोई दोष नहीं। वह ना तो आसमान से टपका है और ना ही जन्म से फूफा पैदा हुआ है। परिस्थितियों ने उसे फूफा बनाया है और उससे अधिक, आपकी बुआ ने ही उसे फूफा बनाया है। वह भी कभी आपकी तरह एक अच्छा भला, खाता पीता इंसान था।
वैसे पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती, लेकिन जब फूफा फूफा में भेद होने लगता है तो हम भी अपनी फूफागिरी पर आ जाते हैं।
जब बड़ी बुआ से छोटी बुआ को अधिक महत्व दिया जाता है, तो हमसे बर्दाश्त नहीं होता। जिस जगह बुआ का ही मान ना हो, वहां एक फूफा आखिर किस मुंह से पांव रखे। ।
हम पर अक्सर आरोप लगाया जाता है कि हम किसी से बात ही नहीं करते। जरा अपनी बुआ से पूछकर तो देखिए, कभी उसने किसी के सामने अपना मुंह खोलने दिया है। आप तो बस चुप ही रहा करिए, हर जगह मेरी नाक कटाया करते हो। क्या होता है यह मान सम्मान और मनुहार, अब गिद्ध भोज में क्या कोई आकर अपने हाथ से आपके मुंह में गुलाबजामुन ठूंसेगा। और वैसे भी आप इसकी भी नौबत ही कहां आने देते हो। पहले से ही प्लेट में चार पांच गुलाब जामुन सजा लेते हो, मानो बाद में कभी खाने को मिले ना मिले। और उधर मुझे सुनना पड़ता है, लो देखो बुआ जी, आप कहते हो, फूफा जी को शुगर है, पूरी प्लेट में चाशनी चू रही है और उधर फूफा जी की लार टपक रही है। कल से उन्हें कुछ हो गया, तो ठीकरा तो हमारे माथे ही फूटेगा ना।
वैसे आपकी बुआ भी कम नहीं है, चुपके से हमारी प्लेट में दो कचोरियां रख जाती हैं, जल्दी खा लो, गर्मागर्म हैं, फिर खत्म हो जाएंगी। तुम काजू को छूना भी मत। मैने तुम्हारे लिए मुठ्ठी भर भरकर काजू निकाल रखी है, इनका क्या है, भगवान ने बहुत दिया है इन भाइयों को। ।
यकीन मानिए, हम पहले ऐसे नहीं थे। बढ़ती उम्र ने हमें ऐसा बना दिया है। एक जमाना था, जब हमारे भी जलवे थे। खूब दबा दबाकर खाते थे, और चोरी छुपे सोमरस पीने वाली युवा पीढ़ी की पूंछ पर पांव धर देते थे, फिर उन्हें ब्लैकमेल कर उनकी जमात में शामिल हो जाते थे। अच्छे भले दिन गुजर रहे थे कि किसी दिलजले ने बुआ से हमारी चुगली कर दी।
बस वह दिन है और आज का दिन, तुम्हारी बुआ ही हमारी नंबर एक की दुश्मन है। हमें जगह जगह बदनाम करती है, हमारी चादर मैली करती है और खुद तो जैसे दूध की धुली नजर आती है। ।
समय ने हमें क्या से क्या बना दिया, किडनी, बीपी, शुगर, कोलेस्ट्रॉल और भूलने की बीमारी ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। बुआ तो खैर हमारी आवश्यक बीमारी है, क्योंकि वही तो हमें समय समय पर दवा की खुराक और मुफ्त का डोज़ पिलाते रहती है।
अब हम फूफा हैं तो हैं, अच्छे बुरे जैसे भी हैं, फूफा ही रहेंगे। यही हमारी और आपकी नियति है। आखिर हमसे बच के कहां जाओगे। अगर शादी में नहीं आए, तो लोगों को क्या जवाब दोगे, क्या बात है, वे ललितपुर वाली बुआ और फूफा जी कहीं नजर नहीं आ रहे..!!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डिक्टेशन…“।)
अभी अभी # 526 ⇒ डिक्टेशन श्री प्रदीप शर्मा
अगर इस अंग्रेजी शब्द का डिसेक्शन अथवा चीर फाड़ की जाए तो आप किसी को डिक्टेट भी कर सकते हैं। समझने वाले भले ही इसे तानाशाही समझें, लेकिन साधारण शब्दों में आप जैसा बोल रहे हैं, वैसा अगर सामने वाला लिखता जाए, तो यह डिक्टेशन हो जाए।
डिक्टेशन शब्द में आदेश देने की बू भी आती है। जब कि अगर प्रेम से बोला जाए, तो मैं बोलूं, तू लिखते जा, ही इस अंग्रेजी शब्द का हिंदी अर्थ होता है।।
आज तो हर बोला हुआ आसानी से रिकॉर्ड हो जाता है, वॉइस स्पीच विधा भी हमारे पास उपलब्ध है, मैं तब की बात कर रहा हूं, जब कक्षा में नोट्स लिखवाए जाते थे। बस उधर से आदेश होता था, चुपचाप बैठे मत रहो, कॉपी कलम निकालो, और जो हम बोल रहे हैं, उसे नोट करो। इट्स इंपॉर्टेंट।
डिक्टेशन हिंदी में भी हो सकता है और अंग्रेजी में भी। जिसे जो भाषा आती है, वह उसी में डिक्टेशन ले सकता है। यह संभव नहीं कि कोई अंग्रेजी में बोल रहा हैं, आपको अंग्रेजी नहीं आती, तो आप हिंदी, उर्दू, मराठी अथवा गुजराती में ही डिक्टेशन ले लो।।
जैसा बोला जाए, वैसा ही सुना जाए, समझा जाए, और लिखा जाए, यानी सुनो, समझो और नोट करो, यही डिक्टेशन का अर्थ हुआ। लेकिन इतनी कसरत क्यों, क्या डिक्टेशन के लिए क्या हिंदी में कोई शब्द नहीं है।
किसी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना अथवा मिलकर गीत गाना, जितना आसान है, उतना ही कठिन है, किसी के बोले हुए को उसी गति में लिखते जाना, शायद इसीलिए पिटमैन ने शॉर्ट हैंड यानी आशु लिपि का आविष्कार किया। कुछ कुछ उर्दू जैसी सांकेतिक भाषा में द्रुत गति में पहले लिखना और बाद में उसे टाइपिंग करना ही एक स्टेनोग्राफर का मुख्य दायित्व होता था।।
आज की तारीख में यह विधा तो छोड़िए, मोबाइल में गूगल आपको अनुवाद भी कर देगा, भाषा उसके लिए कोई समस्या नहीं। अनुवाद की समस्या पर एक जमाने में कई ग्रंथ लिखे गए हैं, लेकिन डिक्टेशन की समस्या का निदान कभी किसी ने नहीं सुझाया।
महाभारत महाकाव्य के लिपिबद्ध होने की कहानी भी बड़ी रोचक है। कुछ कुछ, जब तक आप बोलते जाओगे, मेरी कलम चलेगी, की तरह। इधर वेदव्यास जी महाराज रुके, और उधर गणेश जी का फाइनल फुल स्टॉप।।
हिंदी में डिक्टेशन लेने में शायद इतनी समस्या नहीं आती है, जितना अंग्रेजी में आती है। हां अगर बोलने वाले का ही अगर उच्चारण दोष है तो डिक्टेशन लेने वाले का नहीं दोष गुसाईं।
सबकी अंग्रजी इतनी अच्छी भी नहीं होती। जैसा सुनते हैं, समझते हैं, वैसा लिख लेते हैं। अगर कोई, I have to say को eye have two say लिख मारे तो आप अपना सर कहां दे मारेंगे।।
हमारे कॉलेज में अंग्रेजी की कक्षा में ऐसी कई कॉपियां मौजूद थीं, अगर उनको चेक किया जाए, क्या सुना, क्या, समझा, और क्या लिखा तो समझिए बस महाभारत शुरू हो जाए।
लव की स्पेलिंग luv भी हो सकती थी और मैरिज की mirage. Come here को come hear लिखने वाले भी कम नहीं थे। अगर किसी ने, I don’t know को, I don’t no लिख दिया, तो क्या आप उसे फांसी पर चढ़ा दोगे।
कुछ छात्र, जिनके लिए अंग्रेजी किसी ग्रीक और लैटिन भाषा से कम नहीं थी, वे निश्चिंत होकर कॉपी में कुछ कविता, शायरी अथवा चित्र बनाया करते थे। बाद में यही विधा उन्हें आगे काम आई, अंग्रेजी नहीं।
हम भले ही भाषा को भासा बोलें, लेकिन हमारे भाव शुद्ध हैं और हमें अपनी मातृ भाषा से बहुत प्रेम है। अगर कोई विदेशी भाषा हम पर जबरदस्ती थौंपी जाएगी, तो हम इसी तरह उसकी ऐसी तैसी, क्या कहते हैं उसे हिंदी में, Teeth for tat, यानी जैसे को तैसा करते ही रहेंगे।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 28 – आदर्शलोक का असली चेहरा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
आदर्शलोक की कहानी आज से कुछ साल पहले की है। एक दिन, वहाँ के राजमहल के मुख्य दरवाज़े पर एक नोटिस टांगा गया – “नया राजा चुना जाएगा। जो भी राजा बनना चाहता है, उसे बिना झूठ बोले, बिना चोरी किए, और बिना रिश्वत लिए पाँच साल तक इस राज्य को चलाना होगा।”
लोगों ने पढ़ा और हँस दिए। क्योंकि यहाँ तो हर कोई जानता था कि बिना इन तीनों के कोई भी राजा बन ही नहीं सकता। खैर, एक दिन एक महात्मा जी आए, जिनका नाम था सत्यानंद। उन्होंने कहा, “मैं ये चुनौती स्वीकार करता हूँ। मुझे राजा बनाइए, और देखिए कैसे मैं आदर्शलोक को सच में आदर्श बनाऊँगा।”
सत्यानंद जी राजा बने। पहले ही दिन उन्होंने मंत्रियों की सभा बुलाई और कहा, “अब से कोई भी झूठ नहीं बोलेगा। सभी लोग सच्चाई के साथ चलेंगे।”
मंत्री हक्का-बक्का रह गए। “महाराज,” एक ने कहा, “झूठ तो हमारी सरकारी नीतियों का आधार है। अगर हम सच्चाई बोलने लगे तो जनता जान जाएगी कि हम कुछ काम नहीं करते। फिर तो हमें कुर्सी से हाथ धोना पड़ेगा।”
“तो धो लो,” सत्यानंद ने आदेश दिया।
अब झूठ बंद हो गया, और राज्य की सच्चाई सामने आ गई। किसान बोले, “हमारी फसलें सूख गई हैं, और सरकारी मदद कागजों में ही मिल रही है।” व्यापारी बोले, “टैक्स इतना ज्यादा है कि हमें चोरी करनी पड़ती है।” अफसर बोले, “हमारी तनख्वाह में भ्रष्टाचार शामिल है, बिना रिश्वत के हम गुजारा नहीं कर सकते।”
राज्य में हड़कंप मच गया। जनता सड़कों पर आ गई। सभी अपनी सच्चाई बयां करने लगे। सत्यानंद जी ने सोचा कि अब कुछ और सुधार करना चाहिए। उन्होंने आदेश दिया, “अब से कोई चोरी नहीं करेगा।”
मंत्रियों ने माथा पकड़ा, “महाराज, अगर चोरी बंद हो गई, तो हम क्या खाएँगे?”
“सचाई से पेट भरो,” सत्यानंद ने फिर आदेश दिया।
अब बिना चोरी के मंत्री और अफसर भूखे मरने लगे। उन्हें याद आने लगा कि पहले के राजा कितने समझदार थे, जो चोरी को अनकहा अधिकार मानते थे। एक मंत्री ने कहा, “महाराज, जनता तो खुश है, लेकिन हम क्या करें? हमारे घरों में चूल्हा तक नहीं जल रहा।”
सत्यानंद बोले, “भ्रष्टाचार भी बंद करना पड़ेगा।”
यह सुनते ही पूरे दरबार में चुप्पी छा गई। भ्रष्टाचार बंद! मंत्रियों की आत्माएँ काँप उठीं। एक ने हिम्मत जुटाकर कहा, “महाराज, अगर रिश्वत लेना बंद कर दिया, तो हम राजमहल तक पहुँचेंगे कैसे? हमारी गाड़ियाँ तो जनता के पैसों से चलती हैं।”
“पैदल चलो, स्वास्थ्य अच्छा रहेगा,” सत्यानंद ने हंसते हुए कहा।
अब मंत्री और अफसर पैदल चलने लगे। राज्य की सड़कों पर उन्हें देखकर लोग हँसते और कहते, “देखो, ये हैं हमारे राजा के सुधार।”
आखिरकार, पाँच साल बाद चुनाव का समय आया। सत्यानंद ने अपने कार्यकाल की उपलब्धियाँ गिनाईं – “राज्य में सच्चाई है, कोई चोरी नहीं करता, और रिश्वतखोरी खत्म हो गई है।”
लेकिन जनता का धैर्य अब टूट चुका था। किसान, व्यापारी, मजदूर सब भूखों मर रहे थे। राजमहल के गेट पर भीड़ जमा हो गई और नारे लगे, “हमें हमारा पुराना राजा वापस चाहिए!”
सत्यानंद जी का आदर्शलोक अब स्वप्नलोक बन चुका था। लोग हंसते हुए बोले, “राजा का आदर्शवाद हमारे पेट नहीं भर सकता। हम मिलावटी दूध पीने वाले शुद्ध दूध खाक पचायेंगे?”
अगले चुनाव में एक नया राजा चुना गया। उसने आते ही घोषणा की, “मैं फिर से सबकुछ वैसे ही करूँगा, जैसा पहले था। झूठ, चोरी, और रिश्वत का राज वापस आएगा। और हम फिर से खुशहाल होंगे।”
आदर्शलोक वापस अपने पुराने ढर्रे पर लौट आया। लोग खुश थे, मंत्री अमीर थे, और अफसर फिर से मोटी गाड़ियों में घूमने लगे।
और सत्यानंद? वह राज्य छोड़कर जंगल में ध्यान करने चले गए। कहते हैं, अब वो भी झूठ बोलते हैं कि “आदर्शलोक एक दिन आएगा।”
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य “सेलेब्रिटी बनने के शॉर्टकट्स…” ।)
☆ शेष कुशल # 47 ☆
☆ व्यंग्य – “सेलेब्रिटी बनने के शॉर्टकट्स…”– शांतिलाल जैन ☆
अगर आप सेलेब्रिटी बनने के शॉर्टकट्स खोज रहे हैं तो यह पेशकश खास आपके लिए है. ग्यारंटीड सक्सेज सिरीज़ में आज हम लाए हैं कुछ जाने-परखे उपाय…
पहला शॉर्टकट चमकदार, चिकने, रंगीन पन्नों से होकर गुजरता है. मीडिया तक पहुँचते हुए आपको कुछ बकवास करनी है. किसी मशहूर हस्ती की शान में गुस्ताखी कर देना है. खजुराहो की प्रतिमाओं टाईप के कुछ पोज देने हैं. देह पर से कपड़ों का बोझ कम करना है और मन से नैतिकता का. पद्मिनी कोल्हापुरे ने जो नज़ीर कायम की है उसे निभाते रहिए. जब आप किसी प्रिंस चार्ल्स को जबरन चूम रही होंगी, सफलता आपके कदम चूम रही होगी. अगर आप मर्द हैं तो भी राह बहुत अलग नहीं है. नायक खजुराहो के प्रस्तर खण्डों में ही नहीं उतरते जॉन अब्राहम सी देहयष्टि में भी उभरते हैं. बस एक बार सिक्स पैक एब में ढ़ली देह ‘जीक्यू इंडिया’ के कवर पेज पर आ जाए कि आप हुए फुलटू सेलेब्रिटी.
कुकुर झौं झौं कुत्तों में ही नहीं होती, सेलेब्रिटीज में भी होती है. डॉग-डॉगिनी की नॅशनल फाईट का मुज़ाहिरा बिग बॉस के घर से निकलता है तो हमारे आपके घरों के ड्राईंग रूम में उतरता है. कुकुर झौं झौं सेलेब्रिटी स्टेटस में सीमेंट लगाती है. तो नियमित अंतराल पर पिछली से अधिक गिरी हुई कोई हरकत कीजिए और अपने लिए दीवानगी का बढ़ता आलम देखिए. है ना बेहद आसान और शॉर्टकट भी.
एक शॉर्टकट सरकारी बैंक की तिज़ोरी के रास्ते से हो कर भी गुजरता है. फैन्स आपसे क्या चाहते हैं ? क्रूज़ की डेक पर मौज उड़ाते बालाओं संग आपका एक रंगीन कैलेण्डर. इनफ़. लोन का माल खुसा हो अंटी में तो पार्टी समंदर के अन्दर भी की जा सकती है और आकाश के ऊपर भी. पूरे पेज थ्री पर बस आप ही आप. पक्षी तो आप किंगफिशर प्रजाति के हैं ही, खतरा भाँपकर उड़ जाईए सात समंदर पार. फिरंगियों के देश में लेंडिंग के बाद आर्यावर्त की दिशा में पैर करके सोईएगा भी नहीं. सेलेब्रिटी आप वहाँ भी बने रहेंगे.
सेलेब्रिटी बनने का एक और शॉर्टकट अपराधी बन जाना भी है या फिर आप बाबाजी बन जाएँ. एक ही बात है. सुर्ख़ियों में बाहर भी, सुर्ख़ियों में अन्दर भी. दोनों में इंसान को बैकुंठ के लिए रवाना करने की क्षमता होती है. दोनों अपना अपना नेटवर्क जेल के अन्दर रह कर ऑपरेट करते हैं. इस मेथड में आप को छुरा लेकर खुद नहीं निकलना पड़ता, रिमोट से मरवा सकते हैं. जेल पूरब के देश में, वध पश्चिम के देश में, और सुर्खियाँ अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में. या फिर परोल, फर्लो में कारा से मुक्ताकाश मंच तक कथा, दर्शन, आशीर्वाद और फिर कारा में लौट जाने की यात्रा करते रहिए. सुर्ख़ियों को आपका इंतज़ार रहता है.
शॉर्टकट एक और भी है मगर उसके लिए फादर का दी अमीरेस्ट होना जरूरी है. ब्याह में पप्पा के चार हज़ार करोड़ लगाकर मीडिया में महीनों दीवानगी पैदा की जा सकती है. शादी बेगानी अब्दुल्लाह बेशुमार. बहरहाल, आप हर दिन रंगीन तस्वीरों में पेज थ्री पर नमूदार हो सकते हैं. अखबार का हर पन्ना पेज थ्री. ये बात और है कि चलें तो बदन से चर्बी झरे और ज़ेब से मुद्राएँ. न काया संभाली जा रही हो न माया मगर इनायत कुबेर की हो तो सेलेब्रिटी बनते देर नहीं लगती. धन के देवता से बड़ी बड़ी सेलेब्रिटीज को अँगुलियों पर नचाने का वरदान पा जाते हैं आप. ‘ये चमक, ये दमक, फूलवन मा महक सब कुछ, सरकार, तुम्हई से है’ गाते-ठुमकते स्टार-स्टारनियाँ. ठुमकता तो ताकतवर निज़ाम भी है, उसके सामने आपको गुनगुनाते रहना है – ‘मैं कहाँ जा कर सौदा बेचूँ? मेरा सब व्यापार तुम्हई से है.’ इसके बाद सब कुछ आसान है.
चलिए सेलेब्रिटी तो बन लिए आप. एक सावधानी रखिएगा, आपको कब, कहाँ और क्या नहीं बोलना है. कभी निज़ाम की ज्यादतियों पर किसी नामचीन को कुछ कहते सुना है आपने? किसान आंदोलन हो, पहलवानों का प्रदर्शन हो, श्रमिकों की छटनीं हो, बुलडोज़र का कहर हो, मॉब लिंचिंग हो, मणिपुर हो, अंडमान हो, बेरोज़गारी हो, महंगाई की मार हो, मुँह पर लगी ज़िप खोलिएगा नहीं. निवेश आपने सेलेब्रिटी बनने के लिए किया है संवेदनशील मुद्दों पर मुँह खोलकर डुबाने के लिए नहीं.
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘राजनीति के रंगरूटों के लिए प्रशिक्षण योजना‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 264 ☆
☆ व्यंग्य ☆ राजनीति के रंगरूटों के लिए प्रशिक्षण योजना ☆
होशियार सिंह ‘देशप्रेमी’ अपनी ज़िन्दगी में बहुत से धंधे कर चुके हैं। धन भी काफी कमाया है। अब उनका रुझान राजनीति में प्रवेश के इच्छुक लोगों के लिए एक ट्रेनिंग स्कूल खोलने की तरफ है। उनका कहना है कि लोग बिना राजनीति की तबियत और उसके लिए ज़रूरी खूबियों को समझे उसमें जगह बनाने की कोशिश करते हैं और इसीलिए सारी ज़िन्दगी एक ही जगह पांव पीटते रह जाते हैं। हासिल कुछ नहीं होता।
एक मुलाकात में होशियार सिंह ने अपनी योजना पर तफ़सील से प्रकाश डाला। बताया कि पॉलिटिक्स का बुनियादी उसूल यह है कि कोई उसूल नहीं होना चाहिए। पॉलिटिक्स में उसूल पालने का मतलब अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। उसूल वाला आदमी पॉलिटिक्स में नाकारा और नालायक माना जाता है। कोई उसे सीरियसली नहीं लेता, न कोई उसकी बातों को तरजीह देता है। इसलिए पॉलिटिक्स के प्रवेशार्थी को जल्दी से जल्दी उसूलों की बीमारी से मुक्त हो जाना चाहिए। ‘उसूल उतारे, भुइं धरे, तब पैठे (राजनीति के) घर माहिं।’
होशियार सिंह ने दूसरी बात बतायी कि पॉलिटिक्स के प्रवेशार्थी को रीढ़ झुकाने और पावरफुल लोगों के चरण छूने में कोताही नहीं करना चाहिए। सामने वाला भ्रष्ट है या बलात्कारी, चरण छूने वाले से उम्र में छोटा है या बड़ा, ये सब बातें मायने नहीं रखतीं। प्रवेशार्थी का लक्ष्य अर्जुन की तरह सब कुछ भूल कर चिड़िया की आंख पर होना चाहिए।
उनके अनुसार राजनीति के आदमी को अपने चेहरे को ऐसा रखना सीखना होगा कि कोई उसके मन का भाव न पढ़ सके। राजनीतिज्ञ का जीवन बहता पानी होता है। आज इस पार्टी के किनारे हैं, कल दूसरी पार्टी के किनारे। मन के भाव और इरादे छिपाने के लिए राजनीतिज्ञ को ‘पोकर फेस्ड’ होना चाहिए, यानी उसे जुआड़ी की तरह अपने चेहरे को भावशून्य रखना सीखना चाहिए ताकि अन्य खिलाड़ी उसके हाथ के पत्तों का अन्दाज़ न कर सकें।
आगे होशियार जी ने बताया कि राजनीति में आदमी को ‘थिक स्किन्ड’ यानी कुछ मोटी चमड़ी का होना चाहिए। कई बार ऊपर के नेताओं या जनता के हाथों अपमानित होना पड़ता है, अर्श से फर्श पर उतरना पड़ता है, लेकिन राजनीतिज्ञ को अपमान को दिल पर नहीं लेना चाहिए। ‘कभी न छोडें खेत’ की नीति पर चलना चाहिए। खुद्दारी और आत्मसम्मान को उठाकर परे रख देना चाहिए।
होशियार जी ने यह भी बताया कि वे प्रवेशार्थियों की ट्रेनिंग के लिए कुछ नाट्य-कर्मियों को भी बुलाएंगे जो उन्हें ज़रूरत पड़ने पर तुरन्त आंसू बहाने और बिना लज्जा के जनता के सामने झूठे वादे करने का अभ्यास कराएंगे। वे विपक्षियों के सच को तत्काल झूठा साबित करने का भी अभ्यास करेंगे।
एक और बात होशियार जी ने कृपापूर्वक बतायी कि पॉलिटिक्स में ‘वफादारी’ का रोग नहीं पालना चाहिए। पार्टी में रहो, लेकिन जब छोड़ना फायदे का सौदा लगे, एक झटके में, बेदिली से छोड़ दो। फिर पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं। ऐसा ही पुराने दोस्तों के मामले में भी करना चाहिए।
होशियार जी के हिसाब से एक बहुत ज़रूरी बात यह है कि राजनीतिज्ञ जब भी कहीं मुंह खोले, अपनी पार्टी के सर्वोच्च नेता की तारीफ में कसीदे ज़रूर पढ़े। यह उसके पद की सुरक्षा का रामबाण नुस्खा है। कई लोग भाषण देने से पहले प्रभु की स्तुति में श्लोक पढ़ते हैं। राजनीतिज्ञ के लिए हाई कमांड ही प्रभु होती है, उसी के हाथ में राजनीतिज्ञ का कैरियर, उसकी सुख-समृद्धि होती है। इसलिए ऊपर वालों (भगवान नहीं) से हमेशा सुर मिलाकर चलना चाहिए।
सावधानी हटते ही दुर्घटना घटती है और आदमी संसद से सड़क पर आ जाता है। इसलिए राजनीतिज्ञ को चौबीस घंटे चौकन्ना और जागरूक रहना चाहिए।
भाई होशियार सिंह ने अन्त में बताया की कई प्रवेशार्थी ‘जागृत अन्तरात्मा सिंड्रोम’ नामक रोग से पीड़ित होते हैं। उनकी अन्तरात्मा में बीच-बीच में पीड़ा होती है। ऐसे लोगों की अन्तरात्मा को सुलाने और शान्त करने के लिए देश के बड़े ‘एनेस्थीसिया’ विशेषज्ञों की राय ली जा रही है।
मैंने होशियार सिंह को उनकी योजना की सफलता के लिए शुभकामनाएं दीं कि वे भावी राजनीतिज्ञों में ज़रूरी खूबियां पैदा करके देश का भविष्य उज्ज्वल बनाने के अपने मिशन में कामयाब हों। साथ ही उन्हें आगाह किया कि राजनीति के रंगरूटों को ट्रेनिंग देते वक्त वे यह कभी न भूलें कि हमें जल्दी से जल्दी विश्वगुरू का दर्ज़ा प्राप्त करना है।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सपनों की बातें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 27 – सपनों की बातें ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
हरिद्वार के एक छोटे से चाय की दुकान पर, रमेश, सुरेश और किशोर तीनों बैठे हुए थे। मगर किशोर थोड़ी दूर, एक कुर्सी पर अकेला बैठा था।
“सुना तुमने!” रमेश ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।
“क्या?” सुरेश ने उत्सुकता से पूछा।
“कल हमारे माननीय परिवहन मंत्री कह रहे थे कि हमारे देश में नई इलेक्ट्रिक गाड़ियों का प्रोजेक्ट शुरू हो रहा है। इस पर तो विपक्षियों की छाती पर सांप लोट रहा है!” रमेश ने आंखों में चमक लाते हुए कहा।
“अरे, गाड़ी से याद आया, तुम्हारी पुरानी मोटरसाइकिल कहाँ गई?” सुरेश ने सवाल दागा।
काफी दिन हो गए थे जब से रमेश मोटरसाइकिल पर नजर नहीं आया था। वह अक्सर उसी पर बैठकर जोर-जोर से गाने गाते हुए निकलता था।
“बेच दी!” रमेश ने धीमे स्वर में कहा।
“बेच दी! मगर क्यों?” सुरेश ने चौंकते हुए पूछा।
रमेश ने चुप्पी साध ली।
“क्यों भाई? बोलोगे या चुप रहोगे?” मैंने दुबारा पूछा।
“वो क्या है कि, भाई साहब, आवाज बहुत करती थी!” रमेश ने हल्की आवाज में कहा।
मैंने रमेश की आंखों में झांका।
“मोटरसाइकिल को मारिए गोली! अब तो सीधे इलेक्ट्रिक गाड़ी में चलेंगे भाई साहब!” रमेश अचानक से तड़का।
“हाँ, और इलेक्ट्रिक गाड़ी में तो बस चार्जिंग की बात करनी होगी, पेट्रोल भरवाने की तो कोई बात ही नहीं!” सुरेश ने जोर से हंसते हुए कहा।
“आप बुढ़ा गए हैं, आपको कुछ मालूम नहीं!” रमेश ने दांत पीसते हुए कहा।
फिर मैंने रमेश को देखते हुए कहा, “अरे, इधर वो ससुरी मोटरसाइकिल कुछ ज्यादा ही आवाज करने लगी थी भाई!”
इसी बीच किशोर ने अपने मोबाइल पर कुछ दिखाने की कोशिश की। उसने मोबाइल की आवाज पूरी तेज कर दी। मैंने देखा ‘गैंग ऑफ वासेपुर’ फिल्म का एक टुकड़ा चल रहा था, जिसमें एक विधायक अपने गुर्गे को गाली देते हुए कह रहा था, “अब तो सच बोल दे @#₹&”
यह देखकर मेरी हंसी छूट गई।
रमेश अचानक से उठा और किशोर की ओर लपका। किशोर ने मुंह से “वूम-वूम” की आवाज निकालते हुए दौड़ लगा दी।
“अरे, जाने दो!” मैंने हंसी को रोकते हुए कहा।
रमेश ने जोर से कहा, “अगर हाथ लग गया तो सीधे टेंटुवा ही दबाएंगे, बुढ़ऊ का…सत्य अन्वेषक बने हैं!”
यह सुनकर किशोर ने अपनी भागने की गति और मुंह से निकलती मोटरसाइकिल की आवाज दोनों तेज कर दीं।
इस बीच, रमेश की उत्सुकता बढ़ती गई। उसने अपने हाथ में चाय का कप लिया और चाय की गरमागरमी में हल्की-सी गुनगुनाहट की, “अगर इलेक्ट्रिक गाड़ी बन गई, तो मैं भी उसी पर बैठकर दिल्ली जाऊंगा। वहां जाकर एक बार मटर पनीर का मजा लेना तो बनता है!”
सुरेश ने मुस्कराते हुए कहा, “लेकिन भाई, इलेक्ट्रिक गाड़ी में बैठकर तुम्हें चार्जिंग तो करानी पड़ेगी, और वो भी ठीक जगह पर!”
“हां, और सबसे जरूरी बात, चार्जिंग करने से पहले हमेशा अपनी बैटरी चेक कर लेना!” रमेश ने मजाक करते हुए कहा।
तीनों दोस्त इसी तरह हंसते-मुस्कुराते रहे। मोटरसाइकिल और इलेक्ट्रिक गाड़ियों की बातें करते हुए, उन्होंने अपनी पुरानी यादों को ताजा किया और फिर से चाय की चुस्की लेने लगे।
एक साधारण से चाय की दुकान पर, तीनों दोस्तों ने मोटरसाइकिल और पुराने दिनों की यादों में खोकर, एक नई कहानी बुन डाली। कहीं न कहीं, यह उनकी दोस्ती की मिठास को और भी गहरा कर गया।
आखिरकार, यह एक इलेक्ट्रिक गाड़ी की कहानी नहीं थी, बल्कि एक दोस्ती की यात्रा थी, जो हमेशा के लिए दिलों में बस गई।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “व्यंग्य— चिकने घड़े पर ईमानदारी का पानी”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 193 ☆
☆ व्यंग्य— चिकने घड़े पर ईमानदारी का पानी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
वह हारने वालों में से नहीं था. उस ने सोच लिया था कि जो हो, वह चिकने घड़े पर ईमानदारी का पानी ठहरा के रहेगा. कहते हैं कि दुनिया में कोई काम असंभव नहीं है. इसलिए उस ने अपने मित्र रोहन से कहा था,” देखना यार ! एक दिन में असंभव कार्य कर के रहूंगा.”
यह सुन कर रोहन हंसा, ” तू यूं ही अपनी ऊर्जा व्यर्थ करेगा. ये चिकना घड़ा है. इस में कोई पानी नहीं ठहरता है. तू उस पर ईमानदारी का पानी ठहराने की बात कर रहा है.”
” हां, यह मैं कर के दिखाऊँगा.” रोहन ने कहा, ” हरेक व्यक्ति की अपनी शक्ति होती है. उसे अपनी शक्ति याद दिलाने की जरूरत होती है.”
” भाई, यह हनुमानजी नहीं है. इन्हें शक्ति याद दिलाई और ये उसे याद कर के समुद्र लांघने जैसा असंभव कार्य कर दें. इन्हें शक्ति याद है. मगर इन्हें कार्य नहीं करना है.”
” लगी शर्त ?”
” हां,” रोहन ने कहा और उस मित्र ने शर्त मान ली.
” चल, अब हम छह माह बाद मिलेंगे.”
” बिलकुल कह कर, ” मित्र अपनी शर्त को जीतने के लिए क्रियान्वित करने लग गया. उसे पता था कि देवीलालजी बुद्धिमान आदमी है. इन्हें बहुत अच्छी गणित आती है. यह बात ओर है कि वह अपनी बुद्धिमतता का उपयोग विद्यालय में नहीं करते हैं. मगर, क्यों नहीं करते हैं ? यह मित्र को मालुम नहीं था. उस ने तय कर लिया था कि इन की बुद्धिमतता का उपयोग कर के रहेगा.
इसलिए मित्र ने देवीलालजी से कहा, ” सर! आप को डाक विभाग का कार्य करना है.”
यह सुनते ही वे झट से मुस्काए. मानो उन्हें खजाना मिल गया हो. बोले, ” क्यों नहीं सर! आप तो जो कोई भी काम हो दीजिएगा. मैं आप का आदेश का पालन तत्परता से करूंगा.”
सुन कर मित्र खुश हो गया. फिर मन ही मन सोचने लगा. ‘ मेरा मित्र रोहन शर्त हार जाएगा.’ यह सोच कर वह मुस्कराया.
” आप यह कार्य कर लेंगे ,” मित्र ने आश्वस्त होने के लिए पूछा तो देवीलालजी मुस्कराए, ” आप के होते हुए मुझे किस बात की तकलीफ हो सकती है? आप जैसा अफसर मिलना सौभग्य की बात होती है.” कहते हुए उन्हों ने अपनी उभरी हुई तोंद पर हाथ फेरा. फिर उलझे हुए बाल पर अंगुलियां घुमाते हुए बोले, ” बस आप तो आदेश देते रहिएगा.”
तभी फोन की घंटी घनघना उठी. उधर से फोन आया था. पूरे संकुल की डाक बना कर जल्दी पहुंचानी थी. छात्र संख्या को जातिवार, वर्गवार और कक्षावार जानकारी भेजना थी.
” सर! सभी से जानकारी मंगवा लीजिए. छात्रों की जानकारी अभी भेजना है. ” मित्र के कहते ही देवीलालजी ने चपरासी को आवाज दी, ” सत्तु ! इधर आना. ”
” जी साहब !”
” मुझे सभी के टेलिफोन नंबर बता. मैं टेलीफोन लगाता हूं. तू सभी की जानकारी नोट करना,” कहते हुए वे धनाधन फोन लगाने लगे. उधर से आने वाली जानकारी को बोलबोल कर चपरासी को नोट करवाने रहे थे.
तब तक मित्र ने जानकारी का प्रारुप बना लिया था. देवीलालजी ने प्रारुप लिया, ” साहब !मैं अभी भर देता हूं.” कहते हुए उन्हों ने प्रारूप भरना शुरु किया .
” सत्तु ! जानकारी बोलना. मैं अभी भर देता हूं.” कहते हुए उन्हों ने पेन पकड़ लिया. सत्तु ने बोलना शुरू किया.
” हां, गूंदीखेड़ा की जानकारी बोल,” कहने के साथ सत्तु ने गूंदीखेड़ा की जानकारी बोल दी.
” माधोपुरा की हो गई,” देवीलालजी बोले, ” अब गूंदीखेड़ा की बोलना.”
यह सुनते ही सत्तु ने कहा, ” अभी तो गूंदीखेड़ा की बोली थी.”
” क्या !” कहते हुए देवीलालजी ने प्रारूप में झट से क्रास लाइन फेर दी, ” अरे यार ! तू ने गलत करवा दिया.”
मित्र आवाक था. बड़ी मेहनत से बना हुआ प्रारूप खराब हो गया था. वह चिढ़ कर बोला, ” सरजी ! यह क्या किया ? बड़ी मेहनत से प्रारूप बनाया था. वह बिगाड़ दिया.”
” तो क्या हुआ ?” देवीलालजी ने कहा, ” चिंता क्यों करते हो सर जी ? मुझे कागज दीजिए. मैं अभी बना देता हूं,” कहते हुए उन्हों ने कागज लिया. एक बार प्रारूप बनाया. उस में जाति का कालम छोड़ दिया. दूसरा कागज लिया. प्रारूप बनाया. उस में कक्षा का कालम छोड़ दिया. तीसरी बार कागज लिया. उस में छात्र का कालम बनाया मगर, छात्रा का कालम छोड़ दिया.
आखिर मित्र परेशान हो गया था. उसे जानकारी आज ही भेजना थी. उस ने मन ही मन खींजते हुए कहा, ” सर ! आप रहने दीजिए. आप कक्षा में जाइए. मैं प्रारूप में जानकारी भर कर भेज दूंगा.”
यह सुन कर देवीलालजी मुस्करा कर कक्षा में चले गए. एक दिन कैसे चला गया, पता ही नहीं चला.
दूसरे दिन मित्र सीधा कक्षा में गया. देखा देवीलालजी कक्षा में सोए हुए थे. छात्र अपनीअपनी गाइड से लिख रहे थे. यह देख कर मित्र हैरान था. वह झट से देवीलालजी के पास गया. टेबल पर डंडे ठोका,” सर ! नींद निकाल रहे हैं?”
वे झट से उठ बैठे,” अरे नहीं सर! माथा दुख रहा था इसलिए आंख बंद कर के बैठा हुआ था.”
” लेकिन यह स्कूल है. बच्चे गाइड से लिख रहे हैं. आप सो रहे है. यह गलत बात है. इन्हें बोर्ड पर लिखवाया कीजिए.”
” जी सर, ” देवीलालजी ने कहा, ” ऐ लड़के ! चाक लाना.” कह कर वे सीधे खड़े हो गए. एक लड़का भाग कर गया. चाक ले आया. मित्र आश्वस्त हो कर चले गए.
” चलो ! देवीलालजी उन के आदेश का पालन कर रहे होंगे,” यह सोच कर वे कार्यालय का काम करने लगे. तभी उन के मन में विचार आया. एक बार चल कर देख लेना चाहिए. वे वापस आया. देखा. देवीलालजी सो रहे थे. एक छात्र गाइड से बोर्ड पर चाक से उतार रहा था. बाकी के छात्र लिख रहे थे.
” सर! ये क्या है?” मित्र ने कक्षा में प्रवेश करते ही देवीलालजी को उठाया, ” यह क्या हो रहा है ?”
” सर! बालकेंद्रित गतिविधि से प्रश्नोंत्तर लिखवा रहा हूं.” कहने के साथ देवीलालजी खड़े हो गए.
उन का कहना सही था. वाकई बालकेंद्रित गतिविधि से कार्य हो रहा था. एक छात्र लिख रहा था. दूसरे बोर्ड से नकल उतार रहे थे. यह बात दूसरी है कि एक छात्र गाइड से लिख रहा था. बाकी सभी नकल कर रहे थे.
यह देख कर मित्र ने अपना सिर पीट लिया. वह सोचने लगा कि वाकई चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता है. यह बात सही साबित हो रही थी. उस ने चाहा था कि वह देवीलालजी को सुधार कर उन से सही काम लेने लग जाए. ताकि वह शर्त जीत जाए.
मगर, मित्र के सभी उपाय फेल हो रहे थे. वह जो भी कोशिश करता, वह फेल हो जाती. देवीलालजी कोई न कोई उपाय निकाल लेते. इसलिए थकहार कर मित्र ने उन्हें छात्रवृत्ति का कार्य दे दिया. यह आनलाइन छात्रवृत्त्ति का कार्य था. सभी की छात्रवृत्ति आनलाइन चढ़ाना थी. इस के लिए एक आनलाइन सेंटर पर उन की मुलाकात करवा दी थी.
” सर ! आप को यहा पर काम करवाना है.”
” जी सर! आप निश्चिंत रहे. आप का सभी काम हो जाएगा.” देवीलालजी ने कहा और अपना काम पूरी ईमानदारी से करने लगे. उन की मेहनत रंग ला रही थी. मित्र को लगा कि पहली बार उन्हों ने देवलीलालजी को सही काम दिया है. इसलिए उस ने अपने मित्र को फोन किया, ” भाई रोहन! मैं जीत गया. मैं ने देवीलालजी जैसे चिकने घड़े पर ईमानदारी का पानी ठहरा दिया है. आजकल वे पूरी ईमानदारी से छात्रवृत्ति का कार्य कर रहे हैं. सभी आंकड़ें मिलाते हैं. आनलाइन वाले के यहां जाते हैं पूरा काम कर के आ जाते हैं.”
यह सुन कर मित्र रोहन चौंका, ” नहीं यार! यह हो नहीं सकता. जिस व्यक्ति को मैं पांच साल में सुधार नहीं सका. उसे तूने आठ महिने में सुधार दिया ?”
” हां भाई हां, ” मित्र ने कहा, ” मैं शर्त जीत गया हूं.”
” वाकई! तब तो तेरी मिठाई पक्की रही, ” कहते हुए रोहन ने फोन काट दिया. फिर निर्धारित दिन को दोनोें मित्र नीमच में मिले. शर्त के मुताबित रोहन को उसे अच्छी होटल में पार्टी देना था. वह उसी में आए थे.
तभी वरिष्ठ कार्यालय से फोन आया. जिसे सुन कर मित्र के होश उड़ गए.
मित्र का चेहरा देख कर रोहन ने पूछा, ” मित्र क्या हुआ? तेरे चेहरे का रंग क्यों उड़ गया.”
” पार्टी कैंसल!” रोहन ने कहा,” मित्र! तू सही कहता था चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता है.” कहते हुए मित्र ने देवीलालजी को फोन लगाया, ” सर! आप छात्रवृत्ति के तमाम कागज भेज दीजिए. उन्हें आज ही सुधार कर आनलाइन चढ़ाना है.”
” जी! आप अगली बस संहाल लीजिएगा,” कहते हुए मित्र ने फोन रख दिया ओर माथा पकड़ कर बैठ गया, ”अरे यार! तीन घंटे में 200 छात्रों के खाते सही करना है. यह संभव नहीं है.”
इस पर रोहन ने कहा, ” हां, यह सही कहा. मगर, घबराने से काम चलने वाला नहीं है.” रोहन ने कुछ सोचते हुए कहा, ” ऐसा करते हैं कि हम आठदस आनलाइन वाले के यहां चलते हैं. उन्हें इस लिस्ट के 20—20 छात्रों की सूची देते हैं. वे उसे आनलाइन चढ़ा देंगें.” कहते हुए रोहन ने मोटरसाइकल उठाई. आठदस आनलाइन वालों से संपर्क किया. उन्हें कागज दिए. छात्रवृत्ति के खाते सही करने का बोल दिया.
यह देख कर मित्र ने कान पकड़ लिए, ” आज के बाद में उस देवाबा से कभी काम नहीं करवाऊँगा.”
” यही तो वह चाहता है,” रोहन ने कहा, ” उस का सिद्धांत ही यही है बनो रहो पगला, काम करेगा अगला.” कहते हुए रोहन मुस्करा दिया.
जैसे वह कह रहा हो मित्र — चिकने घड़े पर कोई पानी नहीं ठहरता है. तुम तो उस पर ईमानदारी का पानी ठहराने वाले थे. क्या हुआ ? हार गए ना? मगर बोला कुछ नहीं.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रायोजित विचार मंच…“।)
अभी अभी # 516 ⇒ व्यंग्य – प्रायोजित विचार मंच श्री प्रदीप शर्मा
जब मौलिक विचारों का अकाल पड़ जाता है तब विचार भी प्रायोजित होने लग जाते हैं। गर्मी में जैसे पीने के पानी की कमी होने
पर पानी के टैंकर घूमा करते हैं, ठीक उसी प्रकार विचारों के अभाव में सोशल मीडिया पर विचारों के टैंकर चलते फिरते नजर आएंगे।
आपको कुछ नहीं करना है, फेसबुक पर व्हाट्सएप पर थोक में विचार प्रेरित होते रहते हैं जो विचार आपको अच्छा लगे आप उसे पढ़े अथवा बिना पढ़े भी प्रायोजित कर सकते हैं। इसके लिए आपको सिर्फ उसे शेयर करना है। आपके शेयर करते ही उस विचार को लाइक्स और कमेंट्स मिलना शुरू हो जाएंगे और सोशल मीडिया सोशल मीडिया पर आपका भी नाम हो जाएगा, इस विचार के प्रायोजक हैं फलाने चंद जी। ।
इसमें ना तो आपकी हींग लगती है और ना ही फिटकरी। अब तो यह सर्वमान्य सत्य है।
यह प्रायोजित विचार ही आगे चलकर जन आंदोलन का रूप ले लेते हैं, समाज सुधार और हिंदू चेतना यूं ही चुटकियों में जागृत नहीं हो जाती, उसके लिए पीढ़ियां लग जाती हैं। बड़ी मुश्किल से सोयी कौम जागती है। ।
केवल कोई मौलिक और उत्कृष्ट सनातन विचार ही समाज को कुंभकर्ण की नींद से जगा सकता है। आप भी जागें, और थिंक टैंक पर निःशुल्क उपलब्ध प्रायोजित विचारों का अधिक से अधिक प्रचार प्रसार करें। हम बदलेंगे, युग बदलेगा। अलख निरंजन..!!
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “गधे और हाथी की लड़ाई… ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 311 ☆
व्यंग्य – गधे और हाथी की लड़ाई श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
अमेरिका में गधे और हाथी की रेस चल रही है। डेमोक्रेट्स का चुनाव चिन्ह गधा, और रिपब्लिकन का हाथी है।
चुनावो के समय अपने देश मे भी अचानक रुपयो की गड्डियां बाजार से गायब होने की खबर आती है, मैं अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा होता हूं कि हरे गुलाबी नोट धीरे धीरे काले हो रहे हैं।
अखबार में पढ़ा था, गुजरात के माननीय १० ढ़ोकलों में बिके। सुनते हैं महाराष्ट्र में पेटी और खोको में बिकते हैं। राजस्थान में ऊंटों में सौदे होते हैं।
सोती हुई अंतर आत्मायें एक साथ जाग जाती हैं और चिल्ला चिल्लाकर माननीयो को सोने नही देती। माननीयो ने दिलों का चैनल बदल लिया , किसी स्टेशन से खरखराहट भरी आवाजें आ रही हैं तो किसी एफ एम से दिल को सुकून देने वाला मधुर संगीत बज रहा है, सारे जन प्रतिनिधियो ने दल बल सहित वही मधुर स्टेशन ट्यून कर लिया। लगता है अब क्षेत्रीय दल, राष्ट्रीय दल से बड़े होते हैं। सरकारो के लोकतांत्रिक तख्ता पलट, नित नये दल बदल, इस्तीफे,के किस्से अखबारो की सुर्खियां बन रहे हैं। हार्स ट्रेडिंग सुर्खियों में है। यानी घोड़ो के सौदे भी राजनीतिक हैं।
रेस कोर्स के पास अस्तबल में घोड़ों की बड़े गुस्से, रोष और तैश में बातें हो रहीं थी। चर्चा का मुद्दा था हार्स ट्रेडिंग ! घोड़ो का कहना था कि कथित माननीयो की क्रय विक्रय प्रक्रिया को हार्स ट्रेडिंग कहना घोड़ो का सरासर अपमान है। घोड़ो का अपना एक गौरव शाली इतिहास है। चेतक ने महाराणा प्रताप के लिये अपनी जान दे दी,टीपू सुल्तान, महारानी लक्ष्मीबाई की घोड़े के साथ प्रतिमाये हमेशा प्रेरणा देती है। अर्जुन के रथ पर सारथी बने कृष्ण के इशारो पर हवा से बातें करते घोड़े, बादल, राजा, पवन, सारंगी, जाने कितने ही घोड़े इतिहास में अपने स्वर्णिम पृष्ठ संजोये हुये हैं। धर्मवीर भारती ने तो अपनी किताब का नाम ही सूरज का सातवां घोड़ा रखा। अश्व शक्ति ही आज भी मशीनी मोटरो की ताकत नापने की इकाई है। राष्ट्रपति भवन हो या गणतंत्र दिवस की परेड तरह तरह की गाड़ियो के इस युग में भी, जब राष्ट्रीय आयोजनो में अश्वारोही दल शान से निकलता है तो दर्शको की तालियां थमती नही हैं। बारात में सही पर जीवन में कम से कम एक बार हर व्यक्ति घोड़े की सवारी जरूर करता है। यही नही आज भी हर रेस कोर्स में करोड़ो की बाजियां घोड़ो की ही दौड़ पर लगी होती हैं। फिल्मो में तो अंतिम दृश्यो में घोड़ो की दौड़ जैसे विलेन की हार के लिये जरूरी ही होती है, फिर चाहे वह हालीवुड की फिल्म हो या बालीवुड की। शोले की धन्नो और बसंती के संवाद तो जैसे अमर ही हो गये हैं। एक स्वर में सभी घोड़े हिनहिनाते हुये बोले ये माननीय जो भी हों घोड़े तो बिल्कुल नहीं हैं। घोड़े अपने मालिक के प्रति सदैव पूरे वफादार होते हैं जबकि प्रायः नेता जी की वफादारी उस आम आदमी के लिये तक नही दिखती जो उसे चुनकर नेता बना देता है।
अपने वाक्जाल से जनता को उसूलो की बाते बताकर उल्लू बनाने की तकनीक नेता जी बखूबी जानते हैं। अंतर्आत्मा की आवाज वगैरह वे घिसे पिटे जुमले होते हैं जिनके समय समय पर अपने तरीके से इस्तेमाल करते हुये वे नितांत स्वयं के हित में जन प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने किये गलत को सही साबित करने के लिये शब्दों का इतना कुशल इस्तेमाल करते हैं कि हम लेखक शर्मा जाएं। भ्रष्टाचार या अन्य मजबूरी में नेताजी बिदा होते हैं तो उनकी धर्म पत्नी या पुत्र कुर्सी पर काबिज हो जाते हैं। पार्टी अदलते बदलते रहते हैं पर नेताजी टिके रहते हैं। गठबंधन तो उसे कहते हैं जो सात फेरो के समय पत्नी के साथ मेरा, आपका हुआ था। कोई ट्रेडिंग इस गठबंधन को नही तोड़ पाती। यही कामना है कि हमारे माननीय भी हार्स ट्रेडिंग के शिकार न हों आखिर घोड़े कहां वो तो “वो” ही हैं ! वो उल्लू होते हैं, और उल्लू लक्ष्मी प्रिय हैं, वे रात रात जागते हैं, और सोती हुईं गाय सी जनता के काम पर लगे रहते हैं। इसलिए गधे हाथी लड़ते रहें अपना नारा है, उल्लू जिंदाबाद।