हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 93 ☆ ऑनलाइन से ऑफलाइन की ओर… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “ऑनलाइन से ऑफलाइन की ओर…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 93 ☆

☆ ऑनलाइन से ऑफलाइन की ओर… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

लाइन में लगकर न जाने क्या- क्या कार्य किए जाते रहे हैं। राशन, बिल, रेल व पिक्चर के टिकिट, रोजगार हेतु फॉर्म जमा करना,  फीस जमा करना, बैंक के कार्यों में आदि। वैसे सबसे पहले स्कूल में प्रार्थना करते समय लाइन का अभ्यास बच्चों को शुरू से कराया जाता है। ऊँचाई के आधार पर, कक्षा, वर्ग की लाइन लगती है। जरा सी तिरछी होने पर तुरंत कड़क आवाज द्वारा सीधा करा दिया जाता है।

कृपया लाइन से आइए तभी सारे कार्य सुचारू रूप से हो सकेंगे। ऐसा कहते और सुनते हुए हम लोग बड़े हुए हैं। तकनीकी के प्रभाव से भले ही, लाइन लगाने के अवसरों में कमीं आयी है किंतु हम लोग इस अधूरेपन को कहीं न कहीं महसूस अवश्य कर रहे हैं। लाइन में लगकर बातचीत करते हुए अपने अधिकारों की चर्चा करना भला किसको याद नहीं होगा। सारी रामकथा वहीं पर कहते – सुनते हुए लोग देखे जा सकते थे किंतु ऑफलाइन के बढ़ते प्रभाव ने इस भावनात्मक मेलजोल को कम कर दिया है। 

इधर सारे कार्य भी वर्क फ्रॉम होम होने से उदास लोग मौका ढूंढते हुए दिखने लगे हैं कि ऑफलाइन में जो मजा था वो फिर से चाहिए। हालांकि अब कोई रोक- टोक नहीं है किंतु सब कुछ गति में आने पर वक्त तो लगता ही है। हर नियमों के  लाभ और हानि को मापना संभव नहीं  है। इस सबमें सबसे अधिक नुकसान स्कूली बच्चों का हुआ है। वे अब ऑफलाइन जाने में डर रहे हैं। दो वर्षों से ऑनलाइन परीक्षा देने पर जो लाभ उन्हें मिला है उससे उनकी पढ़ने व याद करने की आदत छूट गयी है। गूगल की सहायता से उत्तर लिखते हुए जो मजा उन्हें आ रहा था अब वो नहीं मिलेगा सो चिड़चिड़ाते हुए स्कूल जाते देखे जा सकते हैं। स्कूल प्रशासन को चाहिए कि उन्हें धैर्य के साथ समझाए। ज्यादा भय देने पर अरुचि होना स्वाभाविक है। बाल मन जब खेल- कूद की ओर लगेगा तो धीरे- धीरे पुनः गति आएगी।

माता- पिता को भी शिक्षकों के साथ तारतम्यता बैठाते हुए बच्चों को पुनः पहले जैसा बनाने की पहल करनी चाहिए। ऑफ लाइन की लाइन भले ही कष्टकारी हो किंतु सच्ची सीख, परस्पर प्रेम, देने का भाव, मेलजोल, सहनशीलता व संवाद को जन्म देती है इसलिए आइए मिलकर पुनः उसी धारा की ओर लौटें थोड़े से परिवर्तन के साथ क्योंकि परिवर्तन सदैव हितकारी होते हैं। इनसे ही सुखद भविष्य की नींव गढ़ी जा सकती हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 26 ☆ जिनके लिए कोई फायर फायर नहीं, कोई वॉल वॉल नहीं ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “जिनके लिए कोई फायर फायर नहीं, कोई वॉल वॉल नहीं”। इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ शेष कुशल # 26 ☆

☆ व्यंग्य – “जिनके लिए कोई फायर फायर नहीं, कोई वॉल वॉल नहीं” – शांतिलाल जैन ☆ 

प्रिय पाठक,

मेरी कोशिश है कि आगे जो आप पढ़ने जा रहे हैं उसे व्यंग्य कहानी की तरह पढ़ें तो ये आपको सच्ची कहानी लगे और सत्यकथानुमा पढ़ें तो व्यंग्यसा लगे. तो कहानी में नायिका गुनगुना रही है – “जोगी (यूपी वाले नहीं), हम तो लुट गये तेरे प्यार में, जाने तुझको खबर कब होगी.” तभी एक आकाशवाणी होती है –

घबराओ मत चित्रे,  हमें खबर है. हम तुम्हें लुटने नहीं देंगे बल्कि करोड़ों लूट लेने का मंत्र सिखाएँगे.

नमन शिरोंमनीजी, परंतु आप वहाँ हिमालय में हैं और मैं मुंबई में. आप निराकार, अदृश्य, अलौकिक, सिद्ध पुरुष और मैं चराचर मिथ्याजगत में एक अबला नारी. आपसे कैसे बात करूँ ? हर बार तो आकाशवाणी से बात हो नहीं सकती ना!

बजरिये ई-मेल के. हम सागर तल की गहराईयों से लेकर हिमालय की ऊंची चोटियों तक कहीं से भी ई-मेल कर सकते हैं बालिके.

और नेटवर्क, कम्प्यूटर, पॉवर?

हमारी शक्तियों से कुछ भी बाहर नहीं है सुदर्शने.

धन्य हैं आप प्रभु, आपका मेल आई-डी प्लीज़ ?

सिम्पल, तीन वेदों के नाम से मिलकर बना है हमारा आई-डी, तुम [email protected] पर मेल कर सकती हो सुंदरी.

मगर एनएसई के सर्वर में तो फायरवॉल लगी है.

योगियों के लिए कोई फायर फायर नहीं है, कोई वॉल वॉल नहीं है मनोहारिणी.

शिरोंमनीजी, मेल तो अँग्रेजी में…और आप….,आई मीन कैसे !!! मैं समझ नहीं पा रही.

योगी भाषा बोली से बहुत ऊपर होते हैं सारिके. वे किसी भी भाषा में लिख-बोल-पढ़ सकते हैं. इन दिनों हम अँग्रेजी में लिखते हैं, तमिल में भक्तिगीत सुनते हैं.

वहाँ, हिमालय में शिरोंमनीजी ??

क्यूँ नहीं, हम अपनी सिद्धियों से गानों की रेडियो तरंगें कैच कर लेते हैं. आनंद की अनुभूति के लिए मैं तुम्हें मकरा-कुंडला गीत भेज रहा हूँ. बहरहाल, आज तुम बहुत नयनाभिराम लग रही हो, वेरी चार्मिंग. लंबे, घने, काले केश हैं तुम्हारे, इनका विन्यास रोजाना अलग अलग डिजाईन से किया करो रूपमति.

आप मुझे देख पा रहे हैं !!!

हम त्रिकालदर्शी हैं सुकन्या, हम हर समय, हर जगह, हर कुछ देख सकते हैं. हम देख पा रहे हैं लक्ष्मी आने के लिए तुम्हारे माऊस पर सवार होकर तैयार खड़ी है, जस्ट क्लिक इट. एनएसई के सर्वर लॉगिन में कुछेक सेकेंड्स आगे-पीछे एक्सेस देने से विपुल धन-प्राप्ति का योग बन रहा है कंचने.

संशय से मन बहुत घबरा रहा है शिरोंमनी. बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को पता चल गया तो.

घबराओ मत तनुजे, धन प्राप्ति केक की तरह होनी चाहिए. काटना-बांटना साथ साथ चले. मुँह में केक भरा हो तो खोलना-बोलना मुश्किल होता है. लायन्स शेयर तुम्हारा होगा रमणे. केक हम सेशेल्स के खूबसूरत समंदर किनारे तैरते हुवे एंजॉय करेंगे. आनंद में डूबना ध्यान की परम अवस्था है कमनिया.

और नियामक संस्थान भी तो हैं ?

उनको केक का इतना बड़ा टुकड़ा खिलाना कि चार-छह साल तो मुँह बंद ही रहे. इस बीच अहम सबूत भस्म कर देने का काम हम पर छोड़ देना.

महाराज एक बात और ?

अब और प्रश्न करके समय खराब मत करो सुंदरी. उठो, जागो, धन ग्रहण करो, को-लोकेशन सर्वर्स में प्रिफ्रेंशियल एक्सेस देने का समय आ गया है. मेरा आशीर्वाद और रुहानी ताकत तुम्हारे साथ है. और हाँ,. हर्षद मेहता, केतन पारेख जैसी सुर्खियां न बनें इसीलिए केक का एक हिस्सा खबरचियों के लिए रिझर्व रखना, ये नब्बे-दो हज़ार का दशक नहीं है. तुम्हारे लिए थोड़ा सा कठिन समय दो हज़ार बाईस में आएगा परंतु जल्द गुजर जाएगा. अपरिमित धन-सुख के मुक़ाबिल इतना कष्ट सहनीय है, चित्रे.

सफलता तुम्हारी राह देख रही है सारिके – स्कैम स्टार भवः

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तो प्रिय पाठक, जोगी की कहानी पर सेबी ने एतबार कर लिया है, और आपने ?

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #133 ☆ व्यंग्य – प्यार पर पहरा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘प्यार पर पहरा’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 133 ☆

☆ व्यंग्य – प्यार पर पहरा

ख़बर गर्म है अमरावती के एक स्कूल में प्राचार्य जी ने लड़कियों को शपथ दिलवायी कि वे प्रेम-विवाह नहीं करेंगीं। समझ में नहीं आया कि प्राचार्य जी को इश्क से इतनी चिढ़ क्यों है। लगता है उन्होंने इश्क में गच्चा खाया होगा, तभी उन्हें इश्क से एलर्जी हुई। कबीर कह गये, ‘ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय’ और बुल्ले शाह ने फरमाया, ‘बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, पर प्यार भरा दिल कभी ना तोड़ो’, लेकिन प्राचार्य जी प्यार भरा दिल तोड़ने के लिए हथौड़ा लेकर खड़े हैं।

‘जिगर’ ने लिखा, ‘ये इश्क नहीं आसाँ, बस इतना समझ लीजे, इक आग का दरया है और डूब के जाना है’, और ‘ग़ालिब’ ने लिखा, ‘इश्क पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश ग़ालिब, जो लगाये न लगे और बुझाये न बने।’ प्राचार्य जी ने सही सोचा कि कोमलांगी कन्याओं को इस ख़तरनाक आग में कूदने से बचना चाहिए और अगर नासमझी में यह नामुराद आग लग जाए तो तुरंत अग्निशामक यंत्र की मदद से उसे बुझाने का इंतज़ाम करना चाहिए।

प्रेम-विवाह से बचने का अर्थ यह निकलता है कि शादी अपनी जाति और अपने धर्म में और माता-पिता की सहमति से की जाए, और दिल के दरवाज़े पर मज़बूत ताला लगा कर रखा जाए ताकि उसमें इश्क की ‘एंट्री’ ना होने पाए।

पारंपरिक परिवारों में लड़की के बड़े होने के साथ माता-पिता का चैन और नींद हराम होने लगते हैं। नाते-रिश्तेदारों की मदद से वर के लिए खोजी अभियान चलाना पड़ता है। ज़िन्दगी भर की बचत लड़की की शादी के लिए समर्पित हो जाती है। कहीं बात चली तो कन्या-दर्शन का कार्यक्रम होगा। खुद लड़का, उसके माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, फूफा-फूफी, मामा- मामी, दादा-दादी, सब अपने-अपने चश्मे से लड़की का चेहरा झाँकेंगे। कोई छूट जाएँ तो बाद में पधार सकते हैं। लड़की नुमाइश के लिए उपलब्ध रहेगी। वर-पक्ष का निर्णय मिलने तक कन्या-पक्ष की साँस चढ़ी रहती है, रक्तचाप बढ़ा रहता है।

लड़की पसन्द आ गयी तो फिर दहेज की बात। प्रस्ताव बड़ी सज्जनता के साथ आते हैं— ‘हमें तो कुछ नहीं चाहिए, लेकिन लड़के के ताऊजी चाहते हैं कि—‘, ‘हमें तो कुछ नहीं चाहिए, लेकिन लड़के के दादा की इच्छा है कि—‘। जब तक शादी नहीं हो जाती लड़की के माता-पिता की जान साँसत में रहती है। कई मामलों में शादी के बाद भी कन्या-पक्ष का जीना हराम रहता है। हमारे समाज में वर-पक्ष को कन्या-पक्ष से श्रेष्ठ समझा जाता है। इसीलिए मामा भांजे के पाँव छूता है और साले-साली के साथ मनचाही मसखरी की छूट रहती है। अपनी बहन और पत्नी की बहन में बहुत फर्क होता है। कहीं कहीं बूढ़े नाना को नाती के पाँव छूते देखा है।

कन्या के दर्शन के बाद वर-पक्ष अस्वीकृत कर दे तो लड़की अवसाद में घिर जाती है। दो चार बार ऐसा हुआ तो लड़की का आत्मविश्वास और आत्मसम्मान दरकने लगता है। माता-पिता की परेशानी देख कर लड़की अपने को अपराधी महसूस करने लगती है।

अब लड़कियाँ फाइटर प्लेन चला रही हैं, हर पेशे में आगे बढ़ रही हैं, खुद का व्यवसाय चला रही हैं, सरकार में मंत्री बन रही हैं, लेकिन अब भी बहुत से लोगों की सोच पिछली सदी में अटकी है। लड़की प्रेम-विवाह करती है तो वह माता-पिता को ज़िम्मेदारी और परेशानी से मुक्त करती है और उनके कमाये धन को उनके बुढ़ापे के लिए छोड़ जाती है। पारंपरिक शादियाँ उन धनाढ्यों को ‘सूट’ करती हैं जिनके पास उड़ाने और दिखाने के लिए बहुत माल होता है। परसाई जी ने ‘सुशीला’ उस कन्या को कहा है जो भाग कर अपनी शादी कर लेती है और माता पिता का धन बचा लेती है। लेकिन बहुत से लोगों के मन में अभी वही सिर झुका कर बैठने वाली, मौन रहने वाली, पैर के अँगूठे से ज़मीन खुरचने वाली सुशील कन्या बैठी है।

इश्क की मुख़ालफ़त करने वालों को याद दिलाना ज़रूरी है कि कभी एक बादशाह (एडवर्ड अष्टम) ने अपनी प्रेमिका से शादी करने के लिए अपनी गद्दी छोड़ दी थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 92 ☆ बदलते समीकरण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना बदलते समीकरण…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 92 ☆

☆ बदलते समीकरण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

आवेश में दिया गया आदेश खाली रह जाता है। ऐसा मैंने नहीं कहा ये तो भुक्त भोगी कहते हुए देखे व सुनें जा सकते हैं। कहते हैं, कार्यों का परिणाम जब आशानुरूप होता है तो मन सत्संगति की ओर चला ही जाता है।

दिव्य शक्ति के प्रति विश्वास आपको एक नयी ऊर्जा से भर देता है, जो कुछ हुआ वो अच्छा था और जो होगा वो और अच्छा होगा ऐसी सोच  जीने की चाहत को बढ़ाती है।  मन में उमंग हो तो वातावरण सुखद लगता है। किन्तु इन सबमें हारे हुए सिपाही कुछ अलग ही गाथा कहते हुए दिखाई देते हैं।

कुछ लोग इतने निराशावादी होते हैं कि पूरे जीवन भर न तो खुद  करते हैं न किसी को करने देते हैं। जब एक- एक बूंद जुड़कर महासागर  बन सकता है तो थोड़ा- थोड़ा  अनवरत किया गया परिश्रम क्या  जिंदगी को नहीं  बदल सकता ?

इसी उधेड़बुन में दिमाग़  उलझा हुआ था तभी सजगनाथ जी आ पहुँचे।

सजगनाथ जी अपने नाम के अनुरूप हमेशा सजग रहते, आखिर रहे भी क्यों न ? इधर का उधर करना उनकी आदत में शुमार था। पहले तो पुस्तकों को पढ़कर फिर दूसरे का लेख अपने नाम से करने में कुछ मेहनत तो लगती है थी किन्तु जब से तकनीकी ज्ञान से जुड़े तब तो मानो  सारा साहित्य ही उनकी  मुट्ठी में आ गया या ये भी कहा जा सकता है कि बस एक क्लिक करने कि देर  और कोई भी रचना उनके नाम से तैयार ।

अब तो सजग साहब हमेशा ही काव्यपाठ,  उद्घाटन व अन्य समारोह में व्यस्त रहते। एक दिन  अखिलभारतीय स्तर के काव्य पाठ में उनको बुलाया गया वहाँ बड़े- बड़े नेता जी भी आमंत्रित थे   अब तो सजग साहब बड़े घमंड से संचालन करने बैठे उन्होंने  जैसे ही पहली पंक्ति पढ़ी तो लोग वाह- वाह करने लगे तभी  मंच से एक कवि बोल पड़ा अरे सजग  दादा यही कविता तो मुझे पढ़नी है इसे आप बोल दोगे तो मैं क्या करूँगा उन्होंने  बात सम्भालते हुए कहा बेटा तुम्हारे लिए ही तो भूमिका बना रहा था पर क्या करें ये नई पीढ़ी का जोश भी जल्दी होश खो देता है। ये बात तो जैसे- तैसे निपटी पर जैसे ही उन्होंने दूसरी कविता की पंक्ति पढ़ी तो दर्शक दीर्घा से एक महिला उठ खड़ी हुई  अरे ये क्या यह कविता  तो   प्रसिद्ध  छायावादी रचनाकार की है, आप इसे अपनी बता कर श्रोताओं को  उल्लू बना रहे हैं।

तभी पीछे से आवाज़ आयी सज़ग  नाथ जी अब श्रोता भी सजग हो गए हैं, केवल आप ही फेसबुक में रचनाएँ नहीं पढ़ते हम  लोग भी पढ़ते हैं साहब।

खैर ये सब तो उनके लिए कोई नई बात तो थी नहीं ऐसी मुसीबतों से निपटना वो अच्छी तरह जानते थे।

कार्यक्रम बड़े जोर शोर से चल रहा था।  उनकी सजगता  श्रोताओं को बाँधे हुए थी अब सजगनाथ जी के काव्यपाठ की बारी आयी  उनको बड़े आदर सत्कार से एक वरिष्ठ कवि ने आमन्त्रित किया,   आते ही उन्होंने  बड़ी- बड़ी भूमिका बाँधी फिर दो लाइन कविता की बोली, फिर वही हास्य से परिपूर्ण चर्चा शुरू की फिर दो पंक्ति पढ़ी  उसमें भी ये दो पंक्ति उनकी नहीं मशहूर शायरों की थी पूरे एक घण्टे उन्होंने मंच पर काव्यपाठ किया  (संचालन का समय अतिरिक्त) पर स्वरचित पंक्ति के नाम पर कुछ भी नहीं केवल मुस्कुराहट बस उनकी थी बाकी सब कुछ  साहित्यतेय स्तेय था। ऐसा ही सभी क्षेत्रों में होता हुआ दिखाई देता है – क्या नेता क्या अभिनेता।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 150 ☆ व्यंग्य – उल्लू बनाओ मूर्ख दिवस मनाओ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  व्यंग्य उल्लू बनाओ मूर्ख दिवस मनाओ

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 150 ☆

? व्यंग्य – उल्लू बनाओ मूर्ख दिवस मनाओ  ?

किशमिश, काजू, बादाम सब महज 300रु किलो,  फेसबुक पर विज्ञापन की दुकानें भरी पड़ी हैं। सस्ते के लालच में रोज नए नए लोग ग्राहक बन जाते हैं।  जैसे ही आपने पेमेंट किया दुकान बंद हो जाती है। मेवे नहीं आते, जब समझ आता है की आप मूर्ख बन चुके हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इस डिजिटल दुकानदारी के युग की विशेषता है कि मूर्ख बनाने वाले को कहीं भागना तक नहीं पड़ता, हो सकता है की वह आपके बाजू में ही किसी कंप्यूटर से आपको उल्लू बना रहा हो।

सीधे सादे, सहज ही सब पर भरोसा कर लेने वालों को कभी ओ टी पी लेकर, तो कभी किसी दूसरे तरीके से जालसाज मूर्ख बनाते रहते हैं।

राजनैतिक दल और सरकारें, नेता और रुपहले परदे पर अपने किरदारों में अभिनेता,  सरे आम जनता से बड़े बड़े झूठे सच्चे वादे करते हुए लोगों को मूर्ख बनाकर भी अखबारों के फ्रंट पेज पर बने रहते हैं।

कभी पेड़ लगाकर अकूत धन वृद्धि का लालच, तो कभी आर्गेनिक फार्मिंग के नाम पर खुली लूट, कभी बिल्डर तो कभी प्लाट के नाम पर जनता को मूर्ख बनाने में सफल चार सौ बीस, बंटी बबली, नटवर लाल बहुत हैं। पोलिस, प्रशासन को बराबर धोखा देते हुए लकड़ी की हांडी भी बारम्बार चढ़ा कर अपनी खिचड़ी पकाने में निपुण इन स्पाइल्ड जीनियस का मैं लोहा मानता हूं।

अप्रैल का महीना नए बजट के साथ नए मूर्ख दिवस से प्रारंभ होता है, मेरा सोचना है की इस मौके पर पोलिस को मूर्ख बनाने वालों को मिस्टर नटवर, मिस्टर बंटी, मिस बबली जैसी उपाधियों से नवाजने की पहल प्रारंभ करनी चाहिए। इसी तरह बड़े बड़े धोखाधड़ी के शिकार लोगों को उल्लू श्रेष्ठ, मूर्ख श्रेष्ठ, लल्लू लाल जैसी उपाधियों से विभूषित किया जा सकता है।

इस तरह के नवाचारी कैंपेन से धूर्त अपराधियों को, सरल सीधे लोगों को मूर्ख बनाने से किसी हद तक रोका जा सकेगा।

बहरहाल ठगी, धोखाधड़ी, जालसाजी से बचते हुए हास परिहास में मूर्ख बनाने  और बनने में अपना अलग ही मजा है,  इसलिए उल्लू बनाओ, मूर्ख दिवस मनाओ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 149 ☆ व्यंग्य – बुरा मानकर भी कर क्या लोगे ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  व्यंग्य बुरा मानकर भी कर क्या लोगे !

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 149 ☆

? व्यंग्य – बुरा मानकर भी कर क्या लोगे ! ?

बुरा न मानो होली है कहकर, बुरा मानने लायक कई वारदातें हमारे आपके साथ घट गईं. होली हो ली. सबको अच्छी तरह समझ आ जाना चाहिये कि बुरा मानकर भी हम सिवाय अपने किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते.बुरा तो लगता है जब धार्मिक स्थल राजनैतिक फतवे जारी करने के केंद्र बनते दिखते हैं. अच्छा नहीं लगता जब  सप्ताह के दिन विशेष भरी दोपहर पूजा इबादत के लिये इकट्ठे हुये लोग राजनैतिक मंथन करते नजर आते हैं. बुरा लगता है जब सोशल मीडीया की ताकत का उपयोग भोली भीड़ को गुमराह करने में होता दिखता है. बुरा लगता है जब काले कपड़े में लड़कियों को गठरी बनाने की साजिश होती समझ आती है. बुरा लगता है जब भैंस के आगे बीन बजाते रहने पर भी भैंस खड़ी  पगुराती ही रह जाती है.  बुरा लगता है जब मंच से चीख चीख कर भीड़ को वास्तविकता समझाने की हर कोशिश परिणामों में बेकार हो जाती है. इसलिये राग गर्दभ में सुर से सुर मिलाने में ही भलाई है. यही लोकतंत्र है. जो राग गर्दभ में आलाप मिलायेंगे, ताल बैठायेंगे,  भैया जी ! वे ही नवाजे जायेंगे. जो सही धुन बताने के लिये अपनी ढ़पली का अपना अलग राग बजाने की कोशिश करेंगे, भीड़ उन्हें दरकिनारे कर देगी. भीड़ के चेहरे रंगे पुते होते हैं. भीड़ के चेहरों के नाम नहीं होते. भीड़ जिससे भिड़ जाये उसका हारना तय है. लोकतंत्र में भीड़ के पास वोट होते हैं और वोट के बूते ही सत्ता होती है.

सत्ता वही करती है जो भीड़ चाहती है. भीड़ सड़क जाम कर सकती है, भीड़ थियेटर में जयकारा लगा सकती है,  भीड़ मारपीट, गाली गलौज, कुछ भी कर सकती है. फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री राशन और मुफ्तखोरी के लुभावने वादों से भीड़ खरीदना लोकतांत्रिक कला है.  बेरोजगारी भत्ते, मातृत्व भत्ते, कुपोषण भत्ते, उम्रदराज होने पर वरिष्ठता भत्ते जैसे आकर्षक शब्दों के बैनरों से बनी योजनाओ से बिन मेहनत कमाई के जनोन्मुखी कार्यक्रम भीड़ को वोट बैंक बनाये रखते हैं.

भीड़ बिकती समझ आती है पर बुरा मानकर भी कर क्या लोगे ! खरीदने बिकने के सिलसिले मन ही मन समझने के लिये होते हैं, बुरा भला मानने के लिये नहीं. खिलाड़ियो को नीलामी में बड़ी बड़ी कीमतों पर सरे आम खरीद कर, एक रंग की पोशाक की लीग टीमें बनाई जाती हैं. मैच होते हैं, भीड़ का काम बिके हुये खिलाड़ियों को चीयर करना होता है. चीयर गर्ल्स भीड़ का मनोरंजन करती हैं. भीड़ में शामिल हर चेहरा व्यवस्था की इकाई होता है. ये चेहरे सट्टा लगाते है, हार जीत होती है करोड़ो के वारे न्यारे होते हैं. बुद्धिमान भीड़ को हांकते हैं. जैसे चरवाहा भेड़ों को हांकता है. भीड़ को भेड़ चाल पसंद होती है. भीड़ तालियां पीटकर समर्थन करती है.  काले झंडे दिखाकर, टमाटर फेंककर और हूट करके भीड़ विरोध जताती है. आग लगाकर, तोड़ फोड़ करके भीड़ गुम हो जाती है.  भीड़ को कही गई कड़वी बात भी किसी के लिये व्यक्तिगत नहीं होती. भीड़ उन्मादी होती है. भीड़ के उन्माद को दिशा देने वाला जननायक बन जाता है. 

भीड़ के कारनामों का बुरा नहीं मानना चाहिये, बल्कि किसी पुरातन संदर्भ से गलत सही तरीके से उसे जोड़कर सही साबित कर देने में ही वाहवाही होती है. भीड़ प्रसन्न तो सब अमन चैन. सो बुरा न मानो, होली है, और जो बुरा मान भी जाओगे तो कुछ कर न सकोगे क्योंकि तुम भीड़ नही हो, और अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता. इसलिये भीड़ भाड़ में बने रहो, मन लगा रहेगा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 129 ☆ “शादी – ब्याह के नखरे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “शादी – ब्याह के नखरे”।)  

☆ व्यंग्य # 129 ☆ “शादी – ब्याह के नखरे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

काये भाई इटली शादी करन गए थे और हनीमून किसी और देश में मनाने चले गए….. का हो गओ तो…… शादी में कोऊ अड़ंगा डाल रहो थो क्या ? तबई भागे भागे फिर रहे थे। छक्के पर हम सब लोग छक्कों की तरह ताली बजा बजाकर तुमसे छक्का लगवाते रहे हैं और तुम शादी के चक्कर में इटली भाग गये। जो साऊथ की इडली में मजा है वो इटली की इडली में कहां है। और सीधी-सादी बात जे है कि शादी करन गये थे तो देशी नाऊ और देशी पंडित तो ले जाते कम से कम। बिना नाऊ और पंडित के शादी इनवेलिड हो जाती है मैरिज सर्टिफिकेट में पंडित का प्रमाणपत्र लगता है। सब लोग कह रहे हैं कि यदि इटली में जाकर शादी की है तो इण्डिया में मैरिज सर्टिफिकेट नहीं बनेगा, इण्डिया में तुम दोनों को अलग अलग ही रहना पड़ेगा……. लिव इन रिलेशनशिप में रहोगे तो 28 प्रतिशत जीएसटी देना पड़ेगा और खेल में भी मन नहीं लगेगा। 

पेपर वाले कह रहे हैं कि शादी करके उड़ गए थे फिर कहीं और हनीमून मनाके लौट के बुद्धू यहीं फिर आये, कहीं फूफा और जीजा तंग तो नहीं कर रहे थे। यहां आके शादी की पब्लिसिटी के लिए दिल्ली और मुंबई में मेगा पंगत पार्टी करके चौके-छक्के वाली वाह वाही लूट ली। 

दाढ़ी वालों का जमाना है दाढ़ी वाले जीतते हैं और विकास की भी बातें करते हैं पर ये भी सच है कि शादी के बाद दाढ़ी गड़ती भी खूब है। कोई बात नहीं दिल्ली की हवेली में जहां तुम आशीर्वाद लेने के चक्कर में घुसे हो उस बेचारे ने शादी करके देख लिया है, तुम काली दाढ़ी लेकर आशीर्वाद लेने गए हो तो वो तुम्हारी दाढ़ी में पहले तिनका जरूर ढूढ़ेगा….. शादी के पहले और शादी के बाद पर कई तरह के भाषण पिला देगा। तुम शादी की मेगा पंगत में खाने को बुलाओगे तो वो झटके मारके बहाने बना देगा….. तुम बार बार पर्दे के अंदर झांकने की कोशिश करोगे तो डांटकर कहेगा – बार बार क्या देखते हो बंगले में “वो “नहीं रहती, हम ब्रम्हचारी हैं….. शादी करके सब देख चुके हैं दाढ़ी से वो चिढ़ती है और दाढ़ी से हम प्यार करते हैं……. अरे वो क्या था कि पंडित और नाऊ ने मिलकर बचपन में शादी करा दी थी तब हम लोग खुले में शौच जाया करते थे…… शादी के बहुत दिन बाद समझ में आया कि इन्द्रियों के क्षुद्र विषयों में फंसे रहने से मनुष्य दुखी रहता है इन्द्रियों के आकर्षण से बचना, अपने विकारों को संयम द्वारा वश में रखना, अपनी आवश्यकताओं को कम करना दुख से बचने का उपाय है…… सो भाईयो और बहनों जो है वो तो है उसमें किया भी क्या जा सकता है जिनके मामा इटली में रहते हैं उनको भी हमारी बात जम गई है…….. 

-हां तो बताओ इटली में जाकर शादी करने में कैसा लगा ? 

—-सर जी, हमसे एक भूल हो गई अपना देशी नाऊ और देशी पंडित शादी में ले जाना भूल गए, इटली वालों को जल्दी पड़ी थी। सर यहां के लोग कह रहे हैं कि मैरिज सर्टिफिकेट यहां नहीं बनेगा….. अब क्या करें ? 

—बात तो ठीक कह रहे हैं 125 करोड़ देशवासियों का देश है, फिर भी देखते हैं नागपुर वालों से सलाह लेनी पड़ेगी। 

….. शहर का नाम लेने से डर लगता है क्योंकि वे शादी-ब्याह से चिढ़ते हैं शादी के नाम पर गंभीर हो जाते हैं घर परिवार और मौजूदा हालात से उदासीन रहते हैं शादी का नाम लो तो उदासी ओढ़ लेते हैं उदासी जैसे मानसिक रोग से पीड़ित रोगी सदा गंभीर और नैराश्य मुद्रा बनाये रखते हैं आधुनिक देशभक्ति पर जोर देते हैं, आधार को देशभक्ति से जोड़ने के पक्षधर होते हैं ऐसे आदमी देखने में ऐसे लगते हैं जैसे वे किसी मुर्दे का दाहकर्म करके श्मशान से लौट रहे हों। 

पान की दुकान में खड़ा गंगू उदास नहीं है बहुत खुश दिख रहा है खुशी का राज पूछने पर गंगू ने बताया कि वह दिल्ली की मेगा पंगत पार्टी से लौटा है और बाबा चमनबहार वाला पान खा रहा है। गंगू ने बताया कि कम से कम 100 करोड़ की शादी हुई होगी, इटली में शादी…. एक और देश जिसका नाम अजीब है वहां हनीमून और दिल्ली में पंगत……….. 

गंगू ने मजाक करते हुए हंसकर बताया कि महिला का नाम भले ही कुछ भी क्यों न हो….. भले शादी में 100 करोड़ ही क्यों न ख़र्च किए हों लेकिन वो 50 पर्सेंट की सेल की लाइन में खड़े होने में शर्मा नहीं सकती पति कितना भी विराट क्यों न हो बीबी उसे झोला पकड़ा ही देती है। 

शादी की मेगा पंगत पार्टी के अनुभवों पर चर्चा करते हुए गंगू ने बताया कि 100 नाई और 100 पंडित की फरमाइश पर जमीन पर बैठ कर पंगत लगाई गई बड़े बड़े मंत्री और उद्योगपतियों की लार टपक रही थी अरे शादी की पंगत में जमीन पर बैठ कर पतरी – दोना में खाने का अलग सुख है वे सब ये सुख लेने के लिए लालायित थे पर अहं और आसामी होने के संकोच में कुछ नहीं कर पा रहे थे। तो पंगत बैठी परोसने वाले की गलती से गंगू को “मही-बरा” नहीं परोसा गया तो गंगू ने हुड़दंग मचा दी, वर-वधू को गालियाँ बकना चालू कर दिया और खड़े होकर पंगत रुकवा दी चिल्ला कर बोला – इस पंगत में गाज गिरना चाहिए, जब पंडितों ने पूछा कि गाज गिरेगी तो गंगू तुम भी नहीं बचोगे…. तब गंगू ने तर्क दिया कि जैसे पंगत में मठा – बरा सबको मिला और गंगू की पतरी को नहीं मिला वैसई गाज गिरने पर गंगू बच जाएगा। तुरत-फुरत गंगू के लिए मही-बरा बुलवाया गया तब कहीं पंगत चालू हो पाई। 

पंगत के इस छोर पर 50 पुड़ी खाने के बाद एक पंडित बहक गये कहने लगे – शादी जन्म जन्मांतर का बंधन होता है छक्के मारते रहने से मजबूत गठबंधन बनता है छक्के – चौके लगाने से फिल्मी स्टारों से शादी हो जाती है और शादी से सम्पत्ति बढ़ती है। हालांकि भले बाद में पछताना पड़े पर ये भी सच है कि शादी वो लड्डू है जो खाये वो पछताये जो न खाये वो भी पछताये….. और पंडित जी ने दोना में रखे दो बड़े लड्डू एक साथ गुटक लिए……… ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #132 ☆ व्यंग्य – स्वर्ग और पुनर्जन्म के लिए सेटिंग ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘स्वर्ग और पुनर्जन्म के लिए सेटिंग’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 132 ☆

☆ व्यंग्य – स्वर्ग और पुनर्जन्म के लिए सेटिंग

चार छः दिन से चुन्नीलाल को तबियत गड़बड़ लग रही थी। छाती की बायीं तरफ हल्का दर्द और भारीपन था।काम करने में जल्दी थकान आती थी।बेटों ने डॉक्टर को दिखाने को कहा तो उनका जवाब था, ‘आजकल कोई डाक्टर पाँच सौ से कम फीस नहीं लेता।जरा सी तकलीफ के पाँच सौ कौन देगा? मौसम का असर लगता है। दो चार दिन में अपने आप ठीक हो जाएगा।’

रात को सोते सोते कुछ खटपट सुनाई पड़ी तो आँख खुल गयी। देखा, दो आदमी अजीब से वस्त्र पहने पलंग के पास खड़े थे। चुन्नीलाल डर कर बोले, ‘कौन हो भाई? अंदर कैसे आये? चोरी करने का इरादा है क्या?’

उन दोनों में से एक हँसकर बोला, ‘हम तुम्हारी आत्मा की चोरी करने यमलोक से आये हैं। तुम्हारा टाइम हो गया।’

चुन्नीलाल घबराकर पलंग पर बैठ गये। बोले,  ‘अरे, अभी तो हमारे हाथ पाँव दुरुस्त हैं। अभी कैसे ले जाना है?’

यमदूत बोला, ‘बाहर से ठीक-ठाक है, लेकिन भीतर तो सब गड़बड़ हो गया है। जिन्दगी भर दूकान की गद्दी पर धरे रहे, हाथ पाँव चलाये नहीं, इसीलिए यह नौबत आयी।’
उनकी बातचीत सुनकर चुन्नीलाल के दोनों बेटे आ गये। यमदूतों की बातें सुनकर वे अवाक थे।

चुन्नीलाल गुस्से में बोले, ‘तुम्हारे यहां का सिस्टम इतना खराब है। बिना सूचना दिये चाहे जब आ धमकते हो। कोई नोटिस मिल जाये तो आदमी घरवालों को जरूरी जानकारी दे दे।’

यमदूत बोला, ‘इस सबसे हमें कुछ लेना देना नहीं। यह शिकायत ऊपर चल कर करना।’

तभी दूसरा यमदूत सीलिंग की तरफ आँखें टिका कर बोला, ‘स्वर्ग की सेटिंग करना हो तो कर लो।’

चुन्नीलाल चौंके, बोले, ‘क्या कहा?’

वह वैसे ही बोला, ‘स्वर्ग की सेटिंग करना हो तो हो जाएगा। यहां के हिसाब से करीब बीस तोला सोना लगेगा। सोना तो वहां भी चलता है। सभी लोग सोने के आभूषण पहनते हैं।’

चुन्नीलाल खुश होकर बोले, ‘हो जाएगा।’ फिर बेटों से बोले, ‘जाओ, अम्माँ से सोना ले आओ। कम पड़े तो बहुओं से ले लेना।’

पहला यमदूत बोला, ‘पहले यह सब नहीं होता था। यहाँ से एक इंस्पेक्टर मातादीन गये, जो कभी चाँद पर गये थे। उन्हें चित्रगुप्त जी का असिस्टेंट नियुक्त किया गया है।

उन्हींने धीरे धीरे यह व्यवस्था बनायी ताकि सभी को अपनी मेहनत का कुछ फल मिल सके।’

चुन्नीलाल बोले, ‘लेकिन हमें तो यह बताया गया है कि पुण्य करने वालों को ही स्वर्ग मिलता है।’

यमदूत बोला, ‘पहले मिलता था। अब सेटिंग वालों से जो जगह बचती है उसी में पुण्य वालों का नंबर लगता है।’

सोना समेटने के बाद दूसरा यमदूत बोला, ‘चाहो तो दूसरे जनम की सेटिंग भी हो जाएगी, लेकिन उसमें करीब दुगुना सोना लगेगा।’

चुन्नीलाल फिर चौंके,बोले, ‘क्या मतलब?’

यमदूत बोला, ‘मतलब यह कि अगला जनम जिस खानदान में भी लेना चाहो उसका इंतजाम भी हो जाएगा।’

चुन्नीलाल आश्चर्य से बोले, ‘अरे वाह!’

यमदूत बोला, ‘अभी यहाँ जो दस बीस सबसे बड़े घराने हैं उनकी बुकिंग तो हो गयी। फिर भी बहुत से करोड़पति घराने बाकी हैं। कई दो नंबर वाले हैं जो अपनी कमाई छिपाकर रखते हैं। हमारे पास सब की जानकारी है, जहाँ कहोगे वहाँ भेज देंगे। लेकिन इसके लिए अभी टाइम है। ऊपर चल के बता देना। हम पहले यहाँ आकर तुम्हारे बेटों से सोना वसूल कर लेंगे।’

पहला यमदूत बोला, ‘सेटिंग कर लेना, नहीं तो क्या पता कुत्ते-बिल्ली की योनि में ढकेल दिये जाओ।’

चुन्नीलाल बोले, ‘लेकिन हमने तो पढ़ा था कि अच्छे कर्म करने से ही अगला जन्म सुखी होता है।’

यमदूत बोला, ‘ये बातें पुराने जमाने में राजाओं ने अपने पुरोहितों के साथ मिलकर फैलायी थीं ताकि प्रजा उनके खिलाफ विद्रोह न करे, अपना पुनर्जन्म सँवारने में लगी रहे। इसीलिए राजा को भगवान का रूप घोषित किया जाता था।’

इतनी जानकारी देकर चुन्नीलाल और उनके परिवार को प्रसन्न करके दोनों यमदूत चुन्नीलाल की आत्मा के साथ यमलोक को प्रस्थान कर गए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ होली विशेष – स्व गया प्रसाद और असहमत की – “होली है !” ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।

आज प्रस्तुत है – होली के रंग में असहमत का एक किस्सा स्व गया प्रसाद और असहमत की – “होली है !” )   

☆ कथा-कहानी ☆ होली विशेष – स्व गया प्रसाद और असहमत की – “होली है !” ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

गया प्रसाद जी का 101 वां जन्मदिन तिथि के अनुसार होली के दिन पड़ता था.इस मौज मस्ती के रंगों से भरे पर्व में जन्म लेने के कारण गया प्रसाद जी भी मस्त मौला इंसान थे. उनके सारे परिजन इस जन्मदिन को बड़े धूमधाम से मनाना चाहते थे पर इस बार बीस वर्ष पूर्व स्वर्ग सिधारी पत्नी काशी बाई ,गया प्रसाद जी के सपनों में लगभग एक सप्ताह से रोज आ रहीं थीं. और यही बोलती थीं कि “बहुत हो गया, किस चुड़ैल के चक्कर में नीचे बैठे हो,अपनी उमर का ख्याल करो, हमारे पास आ जाओ, इस बार होली साथ साथ खेलेंगे.” Go, went gone…. वाले गया प्रसाद जी, हमेशा की तरह ही पत्नी का आदेश नहीं टाल सके और यमराज एक्सप्रेस में अंतिम यात्रा की तत्काल बुकिंग करवा ही डाली.

पर जाने से पहले अपने परिवार के सारे सदस्यों को बुलाया और कहा “देखो मैं तो तुम्हारी दादी के साथ होली खेलने जा रहा हूँ, बहुत हो गया, कितना रुकता, आखिर काशी की बात तो मानना पड़ता ही है. सेंचुरी तो बन गई मेरी, परिवार भी हॉफ सेंचुरी मार चुका है. तो जाने के पहले मुझे वचन दो कि मेरी अंतिम यात्रा भी उसी धूम धाम से निकलेगी जैसे मेरी बारात निकली थी. अपना त्योहार खराब नहीं करना, रास्ते भर गुलाल उड़ाते जायेगी मेरी अंतिम यात्रा और हाँ शादी में तो अच्छा बैंड मिला नहीं था तो इस बार पैसे की परवाह नहीं करना,बैंड शानदार चाहिए. पोते ने पूछ ही लिया “बाबा जब बैंड बजेगा तो डांस करने के लिये पैर नहीं रोक पायेंगे।”

बाबा बोले “बिल्कुल करना पर उन चार लोगों को छोड़कर जो मुझे ले जाने वाले होंगे. “

होली के दिन गयाप्रसाद जी की अंतिम यात्रा बड़े धूमधाम से निकली, बैंड मौके के हिसाब से ही धुन बजा रहा था, पैरों को थिरकाने वाली धुनें नदारद थी. अचानक गयाप्रसाद जी की इस बारात का सामना, असहमत के दोस्तों की उस टोली से हुआ जो होली की मस्ती में झूम रहे थे और ढोल के नगाड़ों पर नाच रहे थे. जैसे ही सामने नजर पड़ी, असहमत के कुछ डांस को तरसते दोस्त जो कि शवयात्रा में “रामनाम सत्य है ” कर रहे थे,धीरे धीरे असहमत की हुड़दंगी टोली में शामिल होते गये.असहमत की “होली है ” की हुँकारऔर बजते ढोल से बैंड पार्टी भूल गई कि वो किस काम के लिये बुलाये गये थे. फिर बैंड की ढोल के साथ की जुगलबंदी ने डांस को तरसते युवाओं की टोली की मुराद पूरी कर दी और डांस का ये कार्यक्रम लगभग 30 मिनट चलता रहा. जब दिल की भड़ास निकल गई तो दोनों टोलियां अपने अपने रास्ते चल पड़ीं, एक मुक्तिधाम की ओर और दूसरी मधुशाला में एक और जाम की ओर. इस मनोरंजक व्यवधान में जो चार लोग अर्थी संभाले थे, उन लोगों ने भी बाकायदा इज्जत के साथ अर्थी को नीम के पेड़ के नीचे रख दिया और डांस के बाद फिर अपना कार्यभार संभाल लिया. ये दृश्य ऊपर पहुँच चुके गया प्रसाद जी भी अपनी पत्नी काशी बाई के साथ देख रहे थे और उन्होंने भी विभोर होकर होली की हुंकार “होली है” रूपी आशीष सब की ओर भेज दिया.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 128 ☆ “एक्जिट पोल का खेला” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  “एक्जिट पोल का खेला”।)  

☆ व्यंग्य # 128 ☆ “एक्जिट पोल का खेला” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

बेचारी गंगू बाई बकरियां और भेड़ चराकर जंगल से लौट रही थी और गनपत  चुनावी सर्वे (एक्जिट पोल) का बहाना करके नाहक में गंगू बाई को परेशान कर रहा है, जब गंगू बाई ने वोट ही नहीं डाला तो इतने सारे सवाल करके उसे क्यों डराया जा रहा है। गंगू बाई की ऊंगली पकड़ पकड़ कर गनपत बार बार देख रहा है कि स्याही क्यों नहीं लगी। परेशान होकर गंगू बाई कह देती है लिख लो जिसको तुम चाहो। गंगू बाई को नहीं मालुम कि कौन खड़ा हुआ और कौन बैठ गया। गंगू बाई से मिलकर सर्वे वाला गनपत भी खुश हुआ कि पहली बोहनी बढ़िया हुई है। 

सर्वे वाला गनपत आगे बढ़ा।  कुछ पार्टी वाले मिल गये, गनपत भैया ने उनसे भी पूछ लिया। काए भाई किसको जिता रहे हो? सबने एक स्वर में कहा – वोई आ रहा है क्योंकि कोई आने लायक नहीं है। गनपत को लगा कि एक्जिट पोल का अच्छा मसाला मिल रहा है। 

सामने से एक चाट फुल्की वाला आता दिखा, बोला -कौन जीत रहा है हम क्यों बताएं, हमने जिताने का ठेका लिया है क्या ?  पिछली बार तुम जीएसटी का मतलब पूछे थे तब भी हमने यही कहा था कि आपको क्या मतलब   …..! गोलगप्पे खाना हो तो बताओ… नहीं तो हम ये चले। 

अब गनपत को प्यास लगी तो एक घर में पानी मांगने पहुँचे…तो मालकिन बोली –  फ्रिज वाला पानी, कि ओपन मटके वाला …….

खैर, उनसे पूछा तो ऊंगली दिखा के बोलीं – वोट डालने गए हते तो एक हट्टे-कट्टे आदमी ने ऊंगली पकड़ लई, हमें शर्म लगी तो ऊंगली छुड़ान लगे तो पूरी ऊंगली में स्याही रगड़ दई। ऐसी स्याही कि छूटबे को नाम नहीं ले रही है। सर्वे वाले गनपत ने झट पूछो – ये तो बताओ कि कौन जीत रहो है। हमने कही जो स्याही मिटा दे, वोईई जीत जैहै। 

पानी पीकर आगे बढ़े तो पुलिस वाला खड़ा मिल गया, पूछा – क्यूँ भाई, कौन जीत रहा है ……? वो भाई बोला – किसको जिता दें आप ही बोल दो। गनपत समझदार है कुछ नोट सिपाही की जेब में डाल कर जैसा चाहिए था बुलवा लिया। पुलिस वाले से बात करके गनपत दिक्कत में पड़ गया। पुलिस वाले ने डंडा पटक दिया बोला – हेलमेट भी नहीं लगाए हो, गाड़ी के कागजात दिखाओ और चालान कटवाओ, नहीं तो थोड़ा बहुत और जेब में डालो।

कुछ लोग और मिल गए हाथ में ताजे फूल लिए थे, गनपत ने उनसे पूछा ये ताजे फूल कहां से मिल गए…… उनमें से एक रंगदारी से बोला – चुरा के लाए है बोलो क्या कर लोगे, …….. 

सुनिए तो थोड़ा चुनाव के बारे में बता दीजिये ……?

बोले – तू कौन होता बे…. पूछने वाला।  नेता जी नाराज नहीं होईये हम लोग आम आदमी से चुनाव की बात कर एक्जिट पोल बना रहे हैं। 

सुन बे ‘आम आदमी’ का नाम नहीं लेना, और ये भी नहीं पूछना कि पंजाब में क्या आम आदमी की सरकार बन रही है।

थक गए तो घर पहुंचे, पत्नी पानी लेकर आयी, तो पूछा – काए  किसको जिता रही हो …..? पत्नी बड़बड़ाती हुई बोली – तुम तो पगलाई गए हो  …! पैसा वैसा कुछ कमाते नहीं और राजनीति की बात करते रहते हो। कोई जीते कोई हारे  तुम्हें का मतलब….. 

फोन आ गया,

हां हलो, हलो ……कौन बोल रहे हैं ?

अरे भाई बताओ न कौन बोल रहे हैं ? 

आवाज आयी – साले तुमको चुनाव का सर्वे करने भेजा था  और तुम घर में पत्नी के साथ ऐश कर रहे हो ………..

नहीं साब, प्यास लगी थी पानी पीने आया था, बहुत लोगों से बात हो गई है, 

निकलो जल्दी … बहस लड़ा रहे हो, बहाना कर रहे हो ……….

काम वाली बाई रास्ते में मिल गयी, तो उससे पूछने लगे कि किसको जिता रही हो?  तो उसने पत्नी से शिकायत कर दी कि साहब छेड़छाड़ कर रहे हैं …….

रास्ते में पान की दुकान में गनपत पत्रकार रुके, पान में बाबा चटनी चमन बहार और चवन्नी के साथ तेज रगड़ा डलवाया और कसम खायी कि अगली बार से एक्जिट पोल का काम नहीं करेंगे, क्योंकि ये झटके मारने का खेला है।     

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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