हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 50 ☆ व्यंग्य – आत्मनिर्भरता यानी सेल्फी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक अतिसुन्दर सेल्फी पर आधारित व्यंग्य  “आत्मनिर्भरता यानी सेल्फी। मेरी समवयस्क पीढ़ी ने फोटोग्राफी के लगभग सभी दौर देखे हैं तब जाकर सेल्फी  की दुनिया देखने को मिली।  नई पीढ़ी की फोटोग्राफी तो जन्म से लेकर  ही प्रारम्भ हो जाती है।  ऐसी में आत्मनिर्भरता के लिए सेल्फी कितनी जरुरी है इसके लिए तो आपको यह व्यंग्य पढ़ना ही पड़ेगा।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 50 ☆ 

☆ व्यंग्य – आत्मनिर्भरता यानी सेल्फी

 “स्वाबलंब की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष ” राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त जी की पंक्तियां सेल्फी फोटो कला के लिये प्रेरणा हैं. ये और बात है कि कुछ दिल जले  कहते हैं कि सेल्फी आत्म मुग्धता को प्रतिबिंबित करती हैं. ऐसे लोग यह भी कहते हैं कि सेल्फी मनुष्य के वर्तमान व्यस्त एकाकीपन को दर्शाती है. जिन्हें सेल्फी लेनी नही आती ऐसी प्रौढ़ पीढ़ी सेल्फी को आत्म प्रवंचना का प्रतीक बताकर अंगूर खट्टे हैं वाली कहानी को ही चरितार्थ करते दीखते हैं.

अपने एलबम को पलटता हूं तो नंगधुड़ंग नन्हें बचपन की उन श्वेत श्याम फोटो पर दृष्टि पड़ती हैं जिन्हें मेरी माँ या पिताजी ने आगफा कैमरे की सेल्युलर रील घुमा घुमा कर खींचा रहा होगा. अपनी यादो में खिंचवाई गई पहली तस्वीर में मैं गोल मटोल सा हूं, और शहर के स्टूडियो के मालिक और प्रोफेशनल फोटोग्राफर कम शूट डायरेक्टर लड़के ने घर पर आकर, चादर का बैकग्राउंड बनवाकर सैट तैयार करवाया था, हमारी फेमली फोटोग्राफ के साथ ही मेरी कुछ सोलो फोटो भी खिंची थीं. मुझे हिदायत दी थी कि मैं कैमरे के लैंस में देखूं, वहाँ से चिड़िया निकलने वाली है. घर के कम्पाउंड में वह जगह चुनी गई थी जिससे सूरज की रोशनी मुझ पर पड़े  और पिताजी के इकलौते बेटे का  बढ़िया सा फोटो बन सके. फोटो अच्छा ही है, क्योकि वह फ्रेम करवाया गया और बड़े सालों तक हमारे ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाता रहा.अब वह फोटो मेरी पत्नी और बच्चो के लिये आर्काईव महत्व का बन चुका है.

यादो के एलबम को और पलटें तो स्कूल, कालेज के वे ग्रुप फोटो मिलते हैं जिन्हें हार्ड दफ्ती पर माउंट करके नीचे नाम लिखे होते थे कि बायें से दायें कौन कहां खड़ा है. मानीतर होने के नाते मैं मास्साब के बाजू में सामने की पंक्ति पर ही सेंटर फारवार्ड पोजीशन पर मौजूद जरूर हूं पर यदि नाम न लिखा हो तो शायद खुद को भी आज पहचानना कठिन हो. वैसे सच तो यह है कि मरते दम तक हम खुद को कहाँ पहचान पाते हैं, प्याज के छिलको या कहें गिरगिटान की तरह हर मौके पर अलग रंग रूप के साथ हम खुद को बदलते रहते हैं. आफिस के खुर्राट अधिकारी भी बीबी और बास के सामने दुम दबाते नजर आते हैं. शादी में जयमाला की रस्मो के सूत्रधार फोटोग्राफर ही होते हैं वे चाहें तो गले में पड़ी हुई माला उतरवा कर फिर से डलवा दें. शादी का हार गले में क्या पड़ता है, पत्नी जीवन भर शीशे में उतारकर फोटू खींचती रहती है ये और बात है कि वे फोटू दिखती नही जीवन शैली में ढ़ल जाती हैं.

कालेज के दिन वे दिन होते हैं जब आसमान भी लिमिट नही होता. अपने कालेज के दिनो में हम स्टडी ट्रिप पर दक्षिण भारत गये थे. ऊटी के बाटनिकल गार्डेन के सामने खिंचवाई गई उस फोटो का जिक्र जरूरी लगता है जिसे निगेटिव प्लेट पर काले कपड़े से ढ़ांक कर बड़े से ट्रिपाईड पर लगे  कैमरे के सामने लगे ढ़क्ककन को हटाकर खींचा गया था, और फिर केमिकल ट्रे में धोकर कोई घंटे भर में तैयार कर हमें सुलभ करवा दिया गया था. कालेज के दिनो में हम फोटो ग्राफी क्लब के मेंम्बर रहे हैं. डार्क रूम में लाल लाइट के जीरो वाट बल्ब की रोशनी में हमने सिल्वर नाइत्रेट के सोल्यूशन में सधे हाथो से सैल्युलर फिल्में धोई और याशिका कैमरे में डाली हैं. आज भी वे निगेटिव हमारे पास सुरक्षित हैं, पर शायद ही उनसे अब फोटो बनवाने की दूकाने हों.

डिजिटल टेक्नीक की क्रांति नई सदी में आई. पिछली सदी के अंत में तस्करी से आये जापानी आटोमेटिक टाइमर कैमरे को सामने सैट करके रख कर मिनिट भर के निश्चित समय के भीतर कैमरे के सम्मुख पोज बनाकर सेल्फी हमने खींची है, पर तब उस फोटो को सेल्फी कहने का प्रचलन नहीं था. सेल्फी शब्द की उत्पत्ति मोबाइल में कैमरो के कारण हुई. यूं तो मोबाईल बाते करने के लिये होता है पर इंटनेट, रिकार्डिग सुविधा, और बढ़िया कैमरे के चलते अब हर हाथ में मोबाईल, कम्प्यूटर से कहीं बढ़कर बन चुके हैं. जब हाथ में मोबाईल हो, फोटोग्राफिक सिचुएशन हो, सिचुएसन न भी हो तो खुद अपना चेहरा किसे बुरा दिखता है.  ग्रुप फोटो में भी लोग अपना ही चेहरा ज्यादा देखते हैं. हर्रा लगे न फिटकरी रंग चोखा आये की शैली में सेल्फी खींचो और डाल दो इंस्टाग्राम या फेसबुक पर लाईक ही लाईक बटोर लो. अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ साधन हैं सेल्फी. मेरे फेसबुक डाटा बताते हैं कि मेरी नजर में मेरे अच्छे से अच्छे व्यंग को भी उतने लाइक नही मिलते जितने मेरी खराब से खराब प्रोफाइल पिक को लोड करते ही मिल जाते हैं. शायद पढ़ने का समय नही लगाना पड़ता, नजर मारो और लाइक करो इसलिये. शायद इस भावना से भी कि सामने वाला  भी लाइक रेसीप्रोकेट करेगा. यूं लड़कियो को यह प्रकृति प्रदत्त सुविधा है कि वे किसी को लाइक करें न करें उनकी फोटो हर कोई लाइक करता है.

सेल्फी से ही रायल जमाने के तैल चित्र बनवाने के मजे लेने हो तो अब आपको घंटो एक ही पोज पर चित्रकार के सामने स्थिर मुद्रा में बैठने की कतई जरूरत नहीं है. प्रिज्मा जैसे साफ्टवेयर मोबाईल पर उपलब्ध हैं, सेल्फी लोड करिये और अपना राजसी तैल चित्र बना लीजीये वह भी अलग अलग स्टाइल में मिनटो में.

जब सस्ती सरल सुलभ सेल्फी टेक्नीक हर हाथ में हो तो उसके व्यवसायिक उपयोग केसे न हों. कुछ इनोवेटिव एम बी ए पढ़े प्रोडक्ट मेनेजर्स ने उनके उत्पाद के साथ  सेल्फी लोड करने  पर पुरस्कार योजनायें भी बना डालीं. कोई कचरे के साथ सेल्फी से हिट है तो कोई देश के विकास में योगदान दे रहा है योगासन की सेल्फी से,   तो अपनी ढ़ेर सी शुभकामनायें सभी सेल्फ़ीबाजो को. सैल्फी युग में सब कुछ हो, भगवान से यही दुआ है कि हम सैल्फिश होने से बचें और खतरनाक सेल्फी लेते हुये  किसी पहाड़ की चोटी,  बहुमंजिला इमारत, चलती ट्रेन, या बाइक पर स्टंट की सेल्फीलेते किसी की जान न जावें.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 19 ☆ जोड़ – तोड़ ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं प्रेरणास्पद रचना “जोड़-तोड़।  इस आलेख के माध्यम से श्रीमती छाया सक्सेना जी का कथन जीवन जल की तरह अनमोल है कदाचित सत्य है और वास्तव में इसे सहेज कर रखना ही चाहिए। इस सार्थक एवं विचारणीय रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 19 ☆

☆ जोड़-तोड़

बड़े धूमधाम से  मिलन समारोह का आयोजन हुआ, लोग मुस्कुराते हुए  फूले नहीं समा रहे थे;  पर इस सब में भी कुछ चेहरे ऐसे थे जो जोड़ – तोड़ करने में लगे हुए  थे ।  क्या केवल जोड़ से ही जीवन अच्छा बन सकता है ???

कभी नहीं, जोड़ बिना  तोड़ के अधूरा  है ;   ठीक उसी प्रकार जैसे फूल बिना काँटे के, रेगिस्तान बिना मृगमरीचिका के, पनघट बिना पनिहारिन के, भगवान बिना भक्त के , आकाश बिना तारे के और धरती बिना हरियाली के कुछ अधूरी- अधूरी सी लगती  है ।

खैर जब कुटिलता पीछे  पड़  जाए तो यथार्थ पर आना ही पड़ता है, सो  मिठाई की टेबल छोड़कर लोग चल दिये पानी पूरी व चाट के स्टाल की ओर, मैं तो  अवलोकन करते हुए  न जाने कितनी कॉफी पी गयी, फिर ध्यान आया अरे  टेस्ट  तो करूँ, सो एक बड़ी सी प्लेट में ढेर सारा अंकुरित अनाज भर कर,  चल दी तबा  फ्राय से  भरवां करेला लेने, मेरा एक उसूल है;  मीठा हो लेकिन कड़वे के साथ, अब बारी थी मिठाई के तरफ बढ़ने की सो वहाँ पहुँची और जम कर  चमचम व खोये की जलेबी  का आनन्द लिया क्योंकि मुझे मालुम है उत्सव के बाद कुछ  कड़वाहट तो  फैलेगी ही सो तैयार रहो  ।

सबसे जरूरी बात कि  मीठा रोग होता है जबकि कड़वा  भोग होता है जिसने कटुता को जी कर राह  बनायी उसका बाल बाँका कोई नहीं कर पाया  वो शिखर पर स्थापित हो  पूज्य हुआ अतः जीवन में मीठे और कड़वे दोनों अनुभवों को सहेजें क्योंकि  ये जीवन अनमोल है जल की तरह, इसे बचाएँ , हरियाली की तरह फ़ैलाएँ झूमें और गायें खुशियाँ मनाएँ क्योंकि बीता  समय लौट कर नहीं आता । अवसर का उपयोग करें पर अवसरवादी बनना है या नहीं ये आप पर निर्भर करता है ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 49 ☆ व्यंग्य – ब्रांडेड  स्टेटस सिंबल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक अतिसुन्दर गॉसिप आधारित व्यंग्य  “ब्रांडेड  स्टेटस सिंबल।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 49 ☆ 

☆ व्यंग्य – ब्रांडेड  स्टेटस सिंबल

सोसायटी में स्टेटस सिंबल के मापदण्ड समय के साथ बदलते रहते हैं. एक जमाना था जब घर के बाहर खड़ी मंहगी गाडी घर वालों का स्टेटस बताती थी.मंहगे बंगले से समाज में व्यक्ति की इज्जत बढ़ती थी. महिलायें क्लब में घर की लक्जरी सुविधाओ जकूजी बाथ सिस्टम, बरगर एलार्म, सी सी टीवी, वगैरह को लेकर या अपनी मंहगी गाड़ी के नये माडल को लेकर बतियातीं थी.जिस बेचारी के पति मारुति ८०० में चलते, वह पति की ईमानदारी के ही गुण गाकर और उनहें मन ही मन कोसकर संतोष कर लेती थी. ननद, भाभियों, बहनो, कालेज के जमाने की सखियों में लम्बी लम्बी मोबाईल वार्ता के विषय गाड़ी, बंगले, फ्लैट रहते थे. पर जब से ई एम आई और निन्यानबे प्रतिशत लोन पर गाडीयो की मार्केटिंग होने लगी है, केवल सैलरी स्लिप पर लाइफ इंश्योरेंस करके बड़े बड़े होम लोन के लिये बैंक स्वयं फोन करने लगे हैं बंगले और गाड़ियां स्टेटस के मुद्दे नही रह गये. फिर  मंहगी ब्रांडेड ज्वेलरी, मंहगी घड़ियां,सिल्क और हैण्डलूम की मंहगी साड़ियां चर्चा के विषय बने. किस पार्टी में किसने कितनी मंहगी साड़ी पहनी से लेकर, अरे उसने तो वह साड़ी अमुक की शादी में भी पहनी थी, फेसबुक पर फोटो भी है. हुंह, उसका वह डायमण्ड सैट ब्रांडेड थोड़े था पर बात होने लगी किंतु किश्तों में ज्वैलरी स्कीम्स से वह मजा भी जाता रहा. स्टेटस सिंबल की महिला गासिप  फारेन ट्रिप पर केंद्रित हुई,नेपाल, भूटान, मालदीव ट्रिप वाले, देहरादून, शिमला, कुल्लू मनाली से स्वयं को श्रेष्ठ मानते थे.  वे अगले बरस एनीवर्सरी पर दुबई, सिंगापुर, बैंकाक  की प्लानिंग की बातें करते नही थकते थे.  बड़े लोग यूरोप, आस्ट्रेलिया,पेरिस ट्रिप से शुरुवात ही करते थे. हनीमून पर बेटी दामाद को लासवेगास की ट्रिप के पैकेज गिफ्ट करना स्टेटस का द्योतक  बन गया था.

पहले विदेश यात्रा और फिर उसके फोटो व्हाट्सअप के स्टेटस, इंस्टाग्राम पर चस्पा करना सोसायटी में डील करने के लिये जरूरी हो गया था. आयकर विभाग ने भी इस प्रवृति को संज्ञान में लेकर इनकम टैक्स रिटर्न में फारेन ट्रिप के डिटेल्स भरवाने शुरू कर दिये. इन सब भौतिकतावादी अमीरी के प्रदर्शक स्टेटस सिंबल्स के बीच बुद्धिजीवी परिवारों ने बच्चो की एजूकेशन को लेकर स्टेटस के सर्वथा पवित्र मापदण्ड स्वयं गढ़े. बच्चे किस स्कूल में पढ़ रहे हैं ? मुझे क्या देखते हो मेरे बच्चो को देखो, के आदर्श आधार पर बच्चों के रेसिडेंशियल काण्वेंट स्कूल से प्रारंभ हुई  स्टेटस की यह दौड़ बच्चो को हायर एजूकेशन के लिये सीधे अमेरिका और लंदन ले गई. किसके बच्चे ने मास्टर्स विदेश से किया है,और अब कितने के पैकेज पर किस मल्टी नेशनल में काम कर रहा है,  यह बात बड़े गर्व से माता पिता की चर्चा का हिस्सा बन गई. बच्चे विदेश गये तो घरो में काम करने वाले मेड् और ड्राईवर, शोफर और उन गरीब परिवारो को मदद की चर्चा भी स्टेटस सिंबल बना. मंहगे मोबाईल्स, उसके फीचर्स, मोबाईल  कैमरे के पिक्सेल थोड़ा तकनीकी टाईप के नेचर वाली महिलाओ के स्टेटस वार्तालाप के हिस्से रहे.बड़ी ब्रांड के सेंट, साबुन, कास्मेटिक्स, सौंदर्य प्रसाधन, स्पा, मसाज की बातें भी खूब हुईं.

पर पिछले दो महीनो में स्टेटस सिंबल एकदम से बदले हैं. कोरोना ने दुनियां को घरो में बन्द कर दिया है. नौकरो की सवैतनिक छुट्टी कर दी गई है. बायें हाथ को दाहिने हाथ से कोरोना संक्रमण का डर सता रहा है. ऐसे माहौल में लोग व्यस्त भी हैं और फ्री भी. वर्क फ्राम होम चल रहा है. महीनो हो गये महिलायें सज धज ही नहीं रही. पति पूछ रहे हैं कि सजना है मुझे सजना के लिये वाले गाने में सजना मैं ही हूं न ? ब्रांडेड ड्रेसेज पहने महीनो बीत गये हैं.लूज घरू कपड़ों में दिन कट रहे हैं. इन दिनों घर के कामों में किसके पति कितना हाथ बटांते हैं, यह लेटेस्ट स्टेटस चर्चा में चल रहा है. घर के कामों में पति की भागीदारी से उसका प्यार नापा जा रहा है.  किचन के किस आटोमेटिक उपकरण से क्या नई डिश बनी, उसमें पति की कितनी भागीदारी रही, और उसका स्वाद किस फाइवस्टार होटल की किस डिश के समान था यह आज का स्टेटस डिस्कशन पाईंट था. मुझे भरोसा है कि जल्दी ही इन तरह तरह की डिसेज से भी मन ऊब ही जायेगा, और यदि तब भी लाकडाउन और क्वेरंटाईन जारी रहा तो चर्चा के नये विषय होंगे ब्रांडेड झाडू और पोंछे.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 3 ☆ नलियाबाखल से मंडीहाउस तक : किस्सा कामियाब सफ़र का ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक सकारात्मक सार्थक व्यंग्य “नलियाबाखल से मंडीहाउस तक : किस्सा कामियाब सफ़र का।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आप तक उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करते रहेंगे। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #3 ☆

☆ नलियाबाखल से मंडीहाउस तक : किस्सा कामियाब सफ़र का

आप रम्मू को नहीं जानते.

अरे वोई, जो एक जमाने में कंठाल चौराहे पर, साईकिल खड़ी करके, दोपहर का अखबार चिल्ला चिल्ला कर बेचा करता था. यस, वोई. इन दिनों एक न्यूज चैनल में एडिटर-इन-चीफ हो गया है. प्राईम टाईम के प्रोग्राम कम्पाईल करता है. मुझे भी नहीं पता था.

कुछ दिनों पहले, मैं चैनल बदल रहा था तो जोर की आवाज पड़ी कान में. अरे ये तो अपना रम्मू है. ध्यान से देखा तो वोई निकला. कैसा तो मोटा हो गया है. नाक नक्श में भी थोड़ा बदलाव आया है. चश्मा भी लगने लगा है, इसीलिए पहिचानने में देर लगी. लेकिन मैं आवाज से पहचान गया. चिल्लाने की वैसी ही अदा, वही आवाज़ हॉकरों वाली, उतनी ही लाउड. ख़बरों की वैसी ही अदायगी – ‘महापौर के अवैध सम्बन्ध उजागर. छुप छुप के मिलने की कहानी का पर्दाफ़ाश’. आज वो स्टूडियो के न्यूज रूम से पूरे देश के सामने मुखातिब है. क्या शानदार तरक्की की है रम्मू ने!!!

समाचारों की दुनिया में रम्मू के प्रवेश की छोटी सी मगर दिलचस्प कहानी है. शुरू शुरू में रम्मू अपनी साईकिल पर हांक लगाकर खटमलमार पावडर बेचा करता था. क्या तो हाई पिच गला उसका और क्या मज़बूत फेफड़े पाये उसने!! बंसी काका की उस पर नज़र पड़ी, उन्होंने उसे साथ-साथ ‘जलती मशाल’  अखबार बेचने के लिये राजी कर लिया. शहर का सबसे पॉपुलर टैब्लॉयड, क्राईम की खबरों से भरपूर. रम्मू उसमें से ह्त्या, बलात्कार, डकैती की किसी खबर को बुलंद आवाज़ में दोहराता और सौ-दो सौ प्रतियाँ बेच लेता था. ‘आज की ताज़ा खबर’ की उसकी हांक इतनी जोरदार होती थी कि चार किलोमीटर दूर टॉवर चौराहे पर खड़े लोग जान जाते कि कोई सत्तर साल की वृद्धा बीस साल के युवक के साथ भाग गयी है.

एक दिन बंसी काका ने संपादन का दायित्व भी थमा दिया. वो सुबह सुबह प्रूफरीडर होता, फिर एडिटर, फिर हॉकर. ‘तीन ग्रामीणों की पीट पीट कर हत्या’ जैसी खबर नागालैंड से होती, मगर उसकी गूँज से लगता कि क़त्ल अभी अभी इसी चौराहे पर हुआ है. सनसनी वो तब भी बेचता रहा, अब भी. असल जनसरोकारों से उसे तब भी कोई लेना देना नहीं रहा, अब भी. सरोकार में कमाई, टारगेट में बिक्री. नलियाबाखल से मंडीहाउस तक के उसके सफ़र में ‘जलती मशाल’ की झलक हर पायदान पर महसूस की जा सकती है.

देखिये ना, आज वो विचार भी उसी शिद्दत से बेच लेता है जिस शिद्दत से कभी खटमलमर पावडर बेचा करता था. पोलिटिकल लीनिंग और लाईनिंग वो पजामे की तरह बदलता रहता है. थाने की दलाली का कौशल उसे नेशनल केपिटल में पॉलिटिकल पार्टीज के साथ डील करने में मददगार साबित हो रहा है. वो न्यूज का अल्केमिस्ट है. खबर को बाज़ारी से बाजारू बना देने के हुनर को उसने महारथ में जो बदल लिया है. पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये रम्मू ‘यलो जर्नलिज्म’ की एक फिट केस स्टडी है. वो राई को पहाड़ और पहाड़ को राई बना सकता है. निर्मल बाबा जैसे प्रोडक्ट उसी ने बाज़ार में चलाये हैं. वो राधे माँ, हनी प्रीत, कंगना रानौत-ह्रितिक रोशन प्रसंगों पर घंटों बहस कर सकता है. बिना जमीर के पत्रकारिता करने की उसने एक नायाब नज़ीर कायम की है. प्राईम टाईम की शुरुआत वो गालियों से करता है, और ताली बजा बजा कर इंफोटेनमेंट का सर्कस जमा लेता है. वो पैनलिस्टों से बौद्धिक बहस नहीं करता उन्हें नचवा लेता है. वो इंटेलेक्चुअल्स को शट-अप बोलने का शऊर रखता है. अपनी आवाज़ के दम पर बीस बीस पैनलिस्टों पर अकेला भारी पड़ता है. कभी-कभी उसके पैनलिस्ट सुनील वाल्सन की तरह होते हैं – वे टीम में चुने तो जाते हैं, मैच नहीं खेल पाते. उनके मुंह खोले बिना ही डिबेट पूरी हो जाती है.  उज्जैन में था तो पाड़े लड़वाता था, अब पैनलिस्ट.

पढ़ने में फिसड्डी रहने का स्याह अध्याय वो बहुत पीछे छोड़ आया है. आज वो किसी भी विषय पर बहस करा लेता है. उसका ज्ञान से कोई लेना देना नहीं. वो विज्ञान, समाजशास्त्र, पर्यावरण, कला-साहित्य जैसे विषयों को बिना पढ़े भी खींच तो ले जाता है मगर सुकून उसे हिन्दू-मुसलमां डिबेट में ही मिलता है. वो अपनी बात किसी भी पैनालिस्ट के मुंह में ठूंस सकता है, उगलवा सकता है, निगलवा सकता है, स्टूडियो में उल्टी करने को मजबूर कर सकता है. ‘जलती मशाल’ तो कभी स्तरीय बना नहीं पाया, अलबत्ता नेशनल न्यूज को उसने ‘जलती मशाल’ के स्तर पर ला खड़ा किया है. वो एक ऐसा कीमियागर है जिसने मामूली खबर को निरर्थक बहस से प्रॉफिट के ढेर में तब्दील करने की तकनीक विकसित की है.

वो रात नौ बजे पड़ोसी मुल्क के पैनालिस्टों के विरुद्ध अपनी कर्णभेदी आवाज़ में जंग का बिगुल बजा देता है दस बजते बजते विजय की दुंदुभी बजाकर उठ जाता है. ‘बूँद बूँद को तरसेगा….’ से ‘कुत्ते की मौत मरेगा ….’ जैसे केप्शन्स भरी चीख़ उसे टीआरपी दिलाती है और टीआरपी विज्ञापन. इन सालों में उसने बहुत कुछ सीखा है, अब वो चैनल में ही कचहरी लगा लेता है. जज, ज्यूरी, एक्सीक्यूशनर सब वही रहता है. घंटे-आधे घंटे में फैसले सुनाने लगा है. फैसले जिनके पार्श्व में सिक्के खनकें तो, मगर सुनाई न दें.

उसका अगला लक्ष्य राज्यसभा की कुर्सी है. रम्मू एक दिन होगा वहां. उस रोज़ हम नलियाबाखल में मिठाई बाँट रहे होंगे और आतिशबाजी तो होगी ही. अब इससे ज्यादा, रम्मू के बारे  और क्या जानना चाहेंगे आप ?

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 47 ☆ माइक्रो व्यंग्य – ईगो का ईको ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  माइक्रो व्यंग्य –  इगो का इको। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 47

☆ माइक्रो व्यंग्य –  इगो का इको ☆ 

बीस साल पहले हम साथ साथ एक ही आफिस में काम करते थे। पर वे हमारे सुपर बाॅस थे, गुड मार्निंग करो तो देखते नहीं थे, नमस्कार करो तो ऐटीकेट की बात करते थे। जब हेड आफिस से हमारे नाम पुरस्कार आते तो देते समय सबके सामने कहते कि इनके यही सब दंद फंद के काम है बैंक का काम करने में इनका मन लगता नहीं। हेड आफिस से प्रशंसा पत्र आते तो दबा के रख लेते।

जब तक रिटायर नहीं हुए तब तक फेसबुक में हमारी फ्रेंड रिक्वेस्ट को इग्नोर करते रहे। हार कर जब रिटायर हुए तो बेमन से हमारी फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली। पिछले दो साल से उन्हें फेसबुक में लिखा आने वाला वाक्य “हैपी बर्थडे टू यू” बिना श्रम के हम भेज देते थे। वे पढ़ कर रख लेते थे। कुछ कहते नहीं थे रिटायरमेंट के हैंगओवर में रहते।  इस बार से हमने न्यु ईयर की हैप्पी न्यु ईयर भी भेजने लगे। थैंक्यू का मेसेज तुरंत आया हमें बहुत खुशी हुई। मार्च माह में इस बार गजब हुआ जैसई हमनें “हैपी बर्थ डे टू यू” भेजा वहां से तुरंत रिप्लाई आई, “आपका हैप्पी बर्थडे का संदेश ऊपर भेजा जा रहा है। साहब का अचानक हृदयाघात से निधन हो गया था जाते-जाते कह गये थे कि सब मेसेज ऊपर फारवर्ड कर देना फिर मैं देख लूंगा।  जाते समय वे आपको याद कर रहे थे और उनकी इच्छा थी कि आप भी उनके साथ चलते……

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 50 ☆ व्यंग्य – निरगुन बाबू की पीड़ा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘निरगुन बाबू की पीड़ा’। वास्तव में कुछ पात्र हमारे आसपास  ही दिख जाते हैं, किन्तु , उन्हें हूबहू अपनी लेखनी से कागज़ पर उतार देना, डॉ परिहार सर  की लेखनी ही कर सकती है।  ऐसा लगता है जैसे अभी हाल ही में निर्गुण बाबू से मिल कर आ रहे हैं। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 50 ☆

☆ व्यंग्य – निरगुन बाबू की पीड़ा ☆

निरगुन बाबू चौबीस घंटे पीड़ा से भरे रहते हैं। उन्हें संसार में अच्छा कुछ भी नहीं दिखता। सब भ्रष्टाचार है, सत्यानाश है, बरबादी है।

सबेरे दूधवाला दूध देकर जाता है तो निरगुन बाबू पाँच मिनट तक पतीले को हिलाते खड़े रहते हैं। कहते हैं, ‘देखो, पानी में थोड़ा सा दूध मिलाकर दे गया। ये बेपढ़े लिखे लोग हमारे कान काटते हैं। दुनिया बहुत होशियार हो गयी।’

सब्ज़ी लेने जाते हैं तो सब्ज़ीवालों से घंटों महाभारत करते हैं। घंटों भाव-ताव होता है। कहते हैं, ‘ठगने को हमीं मिले? हमें पूरा बाजार मालूम है। हमें क्या ठगते हो?’  तराजू में से आधी सब्ज़ी निकालकर वापस टोकरी में फेंक देते हैं। कहते हैं, ‘यह सड़ी सब्जी हमारे सिर मत मढ़ो। जानता हूँ कि तुम बड़े होशियार हो।’

सब्ज़ी की तौल के वक्त निरगुन बाबू की चौकन्नी नज़र तराजू के काँटे पर रहती है। हिदायत चलती है—-‘पल्ले पर से हाथ हटाओ। जरा और ऊपर उठाओ। पल्ला नीचे जमीन पर धरा है। डंडी मत मारो।’ तराजू उठाए उठाए सब्ज़ीवाले का हाथ थरथराने लगता है, लेकिन निरगुन बाबू का शक दूर नहीं होता। घर लौटकर कहते हैं, ‘साले सब चोर बेईमान हैं। ठगने के चक्कर में रहते हैं।’

उनकी नज़र में मोची भी बेईमान है और धोबी भी। चप्पल सुधरवाकर कई मिनट उसको उलटते पलटते हैं। फिर भुनभुनाते हैं, ‘दो टाँके मारे और दो रुपये ले लिये। लूट मची है।’

कपड़े धुल कर आने पर निरगुन बाबू उनमें पचास धब्बे ढूँढ़ निकालते हैं। पचास जगह सलवटें बताते हैं।  ‘ससुरे मुफ्त के पैसे लेते हैं। इससे अच्छा तो घर में ही धो लेते।’

नुक्कड़ का बनिया उनकी नज़र में पक्का बेईमान है। कम तौलता है, खराब माल देता है और ज़्यादा पैसे लेता है। यानी सर्वगुणसंपन्न है। लेकिन उससे निरगुन बाबू कुछ नहीं बोलते क्योंकि महीने भर उधार चलता है। उधार का तत्व उनकी तेजस्विता का गला घोंट देता है।

उनके बच्चों के मास्टर बेईमान हैं। कुछ पढ़ाते लिखाते नहीं। जानबूझकर उनके सपूतों को फेल कर देते हैं। एक मास्टर को उन्होंने घर पर पढ़ाने के लिए लगाया था। लेकिन पढ़ाई के वक्त निरगुन बाबू उसके आसपास ही मंडराते रहते थे। नतीजा यह कि एक महीना होते न होते वह मास्टर भाग गया।

राशन की लाइन में लगने वालों को निरगुन बाबू बताते हैं कि कैसे अच्छा राशन खराब राशन में बदल जाता है। बस में बैठते हैं तो सहयात्रियों  को बताते हैं कि कैसे बसों के टायर-ट्यूब और हिस्से-पुर्ज़े बिक जाते हैं। ट्रेन में बैठते हैं तो भाषण देते हैं कि कैसे रेलवे के बाबू लोग पैसे बनाते हैं।

निरगुन बाबू देश के भ्रष्टाचार के चलते-फिरते ज्ञानकोश हैं। एक एक कोने के भ्रष्टाचार की जानकारी उन्हें है। भ्रष्टाचार सर्वत्र है, सर्वव्यापी है, लाइलाज है। दुनिया चूल्हे में धरने लायक हो गयी है।

भ्रष्टाचार का रोना रोने वाले निरगुन बाबू साढ़े दस बजे अपने दफ्तर के सामने ज़रूर पहुँच जाते हैं, लेकिन ग्यारह बजे तक सामने वाले पान के ठेले पर खैनी मलते रहते हैं। निरगुन बाबू नगर निगम के जल विभाग में हैं। ग्यारह बजे कुरसी पर पहुँचने पर यदि उन्हें कोई शिकायतकर्ता इंतज़ार करता मिल जाता है तो उनका माथा चढ़ जाता है। कहते हैं, ‘क्यों भइया, रात को सोये नहीं क्या? हमारे दरसन की इतनी इच्छा थी तो हमसे कहते। हम आपके घर आ जाते।’ आधे घंटे तक मेज कुरसी खिसकाने और पोथा-पोथी इधर उधर करने के बाद उनका काम शुरू होता है।

हर दस मिनट पर निरगुन बाबू दोस्तों से गप लड़ाने या बाथरूम जाने के लिए उठ जाते हैं और उनकी कुरसी खाली हो जाती है। शिकायतकर्ता खड़े उनका इंतज़ार करते रहते हैं। कोई कुछ कहता है तो निरगुन बाबू जवाब देते हैं, ‘आदमी हैं। कोई कोल्हू के बैल नहीं हैं कि जुते रहें।’

हर घंटे में वे चाय के लिए खिसक लेते हैं। लंच टाइम एक से दो बजे तक होता है, लेकिन वे पौन बजे कुरसी छोड़ देते हैं और ढाई बजे से पहले कुरसी के पास नहीं फटकते। लोग काम के लिए घिघियाते रह जाते हैं।

पौने पाँच बजे फिर निरगुन बाबू कुरसी छोड़ देते हैं और पान के ठेले पर पहुँच जाते हैं। वहाँ उनका भाषण शुरू हो जाता है, ‘भइया, बाल पक गये, लेकिन ऐसा अंधेर और भ्रष्टाचार न देखा। दुनिया ससुरी बिलकुल चूल्हे में धरने लायक हो गयी। ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 4 ☆ व्यंग्य – स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक  समसामयिक सार्थक व्यंग्य  “स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट।  दान महात्मय पर रचित  अकल्पनीय रचना । कोरोना का खौफ इस तरह बैठता जा रहा है कि स्वप्न  में  भी कोरोना और सामाजिक परिवेश के चित्र दिखाई देने लगे हैं। फिर स्वप्न को स्वप्न की ही दृष्टि से देखना चाहिए, जाति, धर्म और राजनीति की दृष्टि से  कदापि नहीं। श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 47 ☆ 

☆ व्यंग्य – स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट 

दानं वीरस्य भूषणम्.गुरूजी ने उन्हें जीवन मंत्र समझाया  था कि ये सारे करेंसी नोट तो यहीं रह जाते हैं, ऊपर तो केवल दान, दया,मदद की कोमल भावना के नोट ही चलते हैं.इस भाव को उन्होने जीवन में अपना लिया था और इस दृष्टि से निश्चित ही वे बड़े पुण्यात्मा थे.  उन्होने सबकी सदैव हर संभव मदद की थी. प्रधान मंत्री सहायता कोष की ढ़ेर सारी रसीदें उनके पास सुरक्षित हैं. १९७१ के भारत पाकिस्तान युद्ध का मौका रहा हो, कहीं भूकम्प आया रहा हो या बाढ़ की विपत्ति से देश प्रभावित हुआ हो, अकाल पड़ा रहा हो या आगजनी की विपदा आई हो,उनसे जितना बन पड़ा मुक्त हृदय से उन्होने सहयोग किया. पहले चैक से राशि भेजते थे, फिर ड्राफ्ट का जमाना आया, सीधे खाते में राशि जमा करने का मौका आया और अब तो घर बैठे नेट बैंकिंग से या मोबाईल एप के जरिये ही मदद पहुंचाने की  सुविधायें दी जाने लगी हैं. कुछ निजी संस्थानो को उनके इस भामाशाही नेचर का ज्ञान जाने कैसे हो जाता है ? शायद वे सहायता कोष के डाटा बेस में सेंध लगा लेते हैं, क्योंकि उनके पास कोकिल कंठी युवा लडकियो के स्वर में उन संस्थाओ को भी दान देने की प्रार्थना के फोन आने लगते हैं. वे यथा संभव उन्हें भी निराश नही करते. मतलब उन्होने स्वयं की ऐसी दानी प्रोफाईल बना ली थी कि चित्रगुप्त जी को स्वर्ग में उनकी सीट आरक्षण में कहीं कोई अंदेशा न हो.

चीन से कोरोना क्या आया वैश्विक महामारी फैल गई, इससे पहले कि वे इस पेंडेमिक राहत कोष में किसी तरह का कोई दान धर्म कर पाते इस पावन धरा पर उनका जीवन काल पूरा हो गया. लाकडाउन के चलते सड़कें, गलियां,शहर सब वैसे ही वीरान थे, बिना ट्रेफिक में फंसे मिस्टर एम राज अर्थात यमराज आ धमके. उन्होंने प्रसन्न मन, धरा को त्याग वासांसी जीर्णानी यथा विहाय को ध्यान रख नश्वर शरीर त्याग गोलोक गमन किया.अपने दान धर्म पर उन्हें भरोसा था,  मन ही मन उन्होने सोचा चलो अब स्वर्ग में अप्सराओ के नृत्य, गंधर्वो का संगीत सुनने का समय आ गया है. लेकिन यह क्या जैसे ही वे स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे उनको द्वार पाल ने रोक लिया. उन्हें लगा यार गलती हो गई मैं दान की संभाल कर रखी रसीदें तो ला  ही नहीं पाया. उन्होने स्वयं को कोसा अरे कम से कम उनकी स्कैन कापी डिजिटल लाकर में डाल ली होतीं तो आज काम आतीं. फिर उन्हें ध्यान आया कि हां इनकम टैक्स रिटर्न में तो हर बार रसीदें लगाईं थी और एट्टी जी में उसकी छूट भी ली थी, मतलब सारे दान के डिटेल्स रिकवर करने के चांसेज हैं. वे द्वार पाल को कोने में ले जाकर अपने टैक्स रिटर्न्स निकलवाने के लिये पैन नम्बर बताना चाहते थे, जो उन्हें जगह जगह लिखते हुये मुखाग्र याद हो गया था. किन्तु वे ऐसा कुछ करते इससे पहले ही उन्होने देखा कि द्वार पर एक सुंदर नर्स और एक डाक्टर भी थे, जो लोगों के माथे पर पिस्तौल सा यंत्र ताने लोगों का तापमान ले रहे थे, नर्स गले से स्वाब, नाक से नेजल एस्पिरिट निकाल रही है, और सारी पुण्यात्माओ को बेवजह २१ दिनो के क्वेरेंटीन में स्वर्ग से बाहर बनाये गये टेंट के कैम्प में भेजा जा रहा था. उन्हें कुछ गुस्सा भी आया कैसे भगवान हैं जो चाइना के कोरोना से जीत नही पाये हैं. किंतु जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये का ध्यान कर उन्होने सब्र से काम लिया और सारे सेंपल देकर लाइन से क्वेरेंटीन कैंम्प की ओर बढ़ चले. वहां पहले से ही कुछ जमाती पलंग पर जमे दिखे, पूछा तो पता हुआ कि कब्रिस्तान फुल चल रहे थे इसलिये हूरों की वेटिंग के लिये कुछ इंटर रिलीजन एग्रीमेंट हुआ है जिसके चलते इस केम्प में सीट्स खाली होने से इन लोगों को यहां रखा गया था. वे पलंग पर लेट ही रहे थे कि एक कर्कश आवाज आई कब तक लेटे रहियेगा, उठिये चाय बनाइये, आज आपकी बारी है. गहरी तंद्रा टूट गई. पत्नी चाय बनाने का आदेश दे रही थी, रामदीन की छुट्टी कर दी थी उन्होंने और बारी बारी से पति पत्नी किचन का जिम्मा संभाल रहे थे. उन्होंने चाय का पानी चढ़ाते हुये तय किया आज पी एम केयर फंड में ग्यारह हजार डाल देंगे, आखिर परलोक भी तो सुधारना है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 2 ☆बहिष्कृत सेब और परितक्त्य केला संवाद ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं।

श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक सकारात्मक सार्थक व्यंग्य “बहिष्कृत सेब और परितक्त्य केला संवाद।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आप तक उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करते रहेंगे। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #2 ☆

☆ बहिष्कृत सेब और परितक्त्य केला संवाद

‘हेलो डियर एपल, तुम यहाँ कैसे?’ – कचरे के ढेर पर पड़े केले ने सेब से पूछा.

‘हुआ ये कि एक थे जानकी दादा, उन्होंने किलो भर ख़रीदा. थोड़ी दूर जाकर उनको पता चला कि विक्रेता असलम था तो वे मुझे यहाँ फेंक गये. कहते हैं मैं मुसलमां हो गया हूँ, और आप?’

‘अपन की भी वोई कहानी.’ – केले ने कहा – ‘आबिद भाई ने परचेस तो कर लिया था, मगर घर पहुँचने से पहले उन्हें किसी ने बताया कि वेंडर कैलास था, वो मुझे यहाँ पटक गये. बोला कि मैं हिन्दू हो गया हूँ.’

‘यार कुछ भी कहो, ठौर सही मिला है अपन को. आस-पास थोडा कचरा जरूर है मगर है जगह धर्म निरपेक्ष. सर्वसमावेशी. निरापद. शांत. निर्विवाद.’

‘सही कहा दोस्त, अब तो ये साले इंसान सेब, केले, अंगूर, अनार का भी धरम तय करने लगे. मेरा जन्म तो हिमाचल में दौलतरामजी के बगीचे में हुआ. इस लिहाज से तो मैं पैदाइशी हिन्दू हुआ.’

‘डेफिनेशन बाय बर्थ से चलें तो अपन भी मोमेडन ही हुवे. मेरा प्लेस ऑफ़ बर्थ जलगाँव के अहमद मियां का फार्म है.’

‘दोस्त, मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि हमारा धर्म उगानेवाले से तय होगा कि बेचनेवाले से? प्रकृति ने तो हमें भूख मिटाने के धर्म में दीक्षित करके भेजा था, इसमें हिन्दू-मुसलमान कहाँ से आ गया?’

‘पता नहीं यार, कोई वाट्सअप नाम की चीज़ है आदमियों की दुनिया में, शायद तक तो उसी से हुआ है. बहिष्कार की अपीलें चल रहीं हैं वहाँ. बहरहाल, ये बताओ कि वे अगर तुम्हें खा लेते और उसके बाद उनके नॉलेज में आता तब क्या होता?’

‘अंगुली गले में फंसा के उल्टी करते, फिर तीन बार कुल्ले करके शुद्धि कर लेते.’ ऊssssssक्क. उलटी की आवाज़ की मिमिक्री कर दोनों ने एक साथ ठहाका लगाया. तभी शेष कचरे में से जोर जोर से हंसने आवाज आई. उन्होंने पूछा तुम कौन हो?

‘मैं अधर्म हूँ.’

‘तुम यहाँ क्या कर रहे हो और इतनी जोर-जोर से क्यों हंस रहे हो?’

‘वो जो असलीवाला धर्म है ना वो मुझे बार बार कचरे में डाल जाता हैं. मैं बजरिये भक्तों के धर्म को ही जार जार करने निकल पड़ता हूँ. देखो इस विपत्तिकाल में भी लोग मुझे कम एक दूसरे को ज्यादा निपटा रहे हैं. अपन की चाँदी है तो क्यों नहीं हंसे?….अभी यहाँ हूँ, कुछ देर में वाट्सअप पर रहूँगा, फिर चीखते चैनलों में, फेक न्यूज में, डॉक्टर्ड वीडिओ में, फिर पढ़े-लिखे दिमागों में, हाथ के पत्थरों में, जलते टायरों में, आंसू गैस के गोलों में, रबर की बुलेटों में, फिर…..फिर….’, फिर चुप्पी मार गया अधर्म.

‘माय डियर बनाना, अब हम क्या करेंगे?’

‘चेरिटी करेंगे. जस्ट वेट. पुलिस की नज़र बचाकर आती ही होंगी पन्नी बीननेवाली औरतें, हम उनके खाने के काम आयेंगे.’

‘वो किस धरम की हैं?’

‘जो लोग कचरे में से बीन कर पेट भरते हैं वे धरम-करम के फेर में नहीं पड़ते. समझो कि वे भूख के धरम की हैं. नाक चढ़ाना उनके चोंचले हैं जिनके हाथ में थर्टी थाउजंड का स्मार्ट फ़ोन और दो जीबी डाटा डेली खरीदने का दम है.’

‘तब तो हम हमेशा ही पन्नी बीननेवालियों के काम आया करेंगे.’ – सेब ने खुश होकर कहा.

‘नहीं दोस्त, नहीं हो पायेगा, इंसान की फितरत तुम जानते नहीं. प्लान्स ये हैं कि साईन बोर्ड पर ही लिखवा दें – कैलास हिन्दू केला भंडार, असलम मोमेडन फ्रूट स्टोर्स जैसा कुछ. खाये-पिये अघाये लोगों की फितरतें हैं – ये यहाँ से नहीं खरीदो, वो वहाँ से नहीं खरीदो.’ – केले ने समझाया.

सेब सोच रहा है इससे तो ईडन गार्डन में ही अच्छा था. काश वहीं लटका रह जाता. न तो आदिम आदम को धरम से कोई मतलब रहा था, न हव्वा को. मानव सभ्यता रिवाईंड हो जाये तो मजा आ जाये.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 49 ☆ व्यंग्य – महामारी पर भारी शायर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘महामारी पर भारी शायर’। डॉ परिहार सर का इस बार का कैरेक्टर वास्तव में कैरेक्टर ही है। वैसे शायर शब्द से अंदाजा तो आप ने लगा ही लिया होगा।  शायर भारी कैसे पड़ा ? इसके लिए तो आपको रचना पढ़नी ही पड़ेगी। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 49 ☆

☆ व्यंग्य – महामारी पर भारी शायर ☆

मुहल्ले में अफ़रा-तफ़री थी। पूरा लॉकडाउन लगा था, घरों से निकलने की सख़्त मुमानियत थी। लेकिन लोग थे कि बेवजह प्रकट होने से बाज़ नहीं आ रहे थे। पुलिस उन्हें हाँकते हाँकते परेशान थी। पाँच को भगाती तो दस पैदा हो जाते।

अचानक पुलिस इंस्पेक्टर के पास एक नौजवान आकर खड़ा हो गया। महीनों की बढ़ी दाढ़ी और बाल, तुचड़े-मुचड़े कपड़े। लगता था महीनों से नहाया नहीं है। देखते ही ‘सोशल डिस्टांसिंग’ की इच्छा होती।

इंस्पेक्टर को सलाम करके बोला,  ‘सर, ख़ाकसार को लोग ‘ज़ख़्मी’ के नाम से जानते हैं। शायर हूँ। शहर का बच्चा बच्चा मेरे अशआर का दीवाना है। आपकी परेशानी देखकर मन हुआ कि आप की कुछ मदद करूँ। कौम की ख़िदमत करना अपना फर्ज़ मानता हूँ। मैंने इस महामारी पर कुछ नज़्में लिखी हैं। लोगों को सुनाऊँगा तो वे आपका नज़रिया समझेंगे और आपका काम हल्का हो जाएगा। मुझे एक कुर्सी और मेगाफोन दिलवा दें तो मैं अभी काम में लग जाऊँगा।’

इंस्पेक्टर साहब उसकी बात से प्रभावित हुए। कुर्सी और मेगाफोन का इंतज़ाम हो गया और ‘ज़ख़्मी’ साहब अपना रजिस्टर निकाल कर तत्काल शुरू हो गये। थोड़ी देर में इंस्पेक्टर साहब ड्यूटी बदलकर चले गये।

दूसरे दिन सबेरे लौटे तो पाया ‘ज़ख़्मी’ साहब, दीन-दुनिया से बेख़बर, पूरे जोश के साथ अपनी नज़्में पढ़ने में लगे हैं। उनकी बुलन्द आवाज़ पूरे वातावरण में गूँज रही थी। बाकी सब तरफ सन्नाटा था। कहीं चिरई का पूत भी दिखायी नहीं पड़ता था।

इंस्पेक्टर को देखकर ‘ज़ख़्मी’ साहब अपना कलाम बन्द करके खड़े हो गये, बोले, ‘देख लीजिए सर, अपनी नज़्मों का कैसा असर हुआ है। कोई घरों से बाहर नहीं निकल रहा है। इस मुहल्ले के लोग यकीनन अच्छी शायरी के कद्रदाँ हैं।’

इंस्पेक्टर साहब ने संतोष ज़ाहिर किया। इधर उधर नज़र घुमायी तो देखा सामने खिड़की में कई सिर इकट्ठे हैं और उन्हें पास आने का इशारा किया जा रहा है। इंस्पेक्टर साहब खिड़की के पास पहुँचे तो उनमें से एक बन्दा हाथ जोड़कर बोला, ‘सर, कल हमसे बड़ी गलती हुई जो हमने आपकी हुक्मउदूली की। लेकिन इस शायर को यहाँ छोड़कर आपने हमें बड़ी सज़ा दे दी है। ये हज़रत जब से शुरू हुए हैं तबसे पाँच मिनट को भी बन्द नहीं हुए। एक ही सुर में लगातार पढ़े जा रहे हैं। हम रात भर सो नहीं पाये। अब हमें बर्दाश्त नहीं हो पायेगा। हम इस महामारी से मरें न मरें, इनकी शायरी से यकीनन मर जाएंगे। इन्हें यहाँ से रुख़्सत करें। हम वादा करते हैं कि आगे आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’

इंस्पेक्टर वापस आये तो ‘ज़ख़्मी’ साहब ने पूछा, ‘सर,ये लोग क्या कह रहे थे?’

इंस्पेक्टर साहब ने जवाब दिया, ‘आपकी तारीफ कर रहे थे। आपकी शायरी उन्हें बहुत पसन्द आयी। शुक्रिया, अब आप तशरीफ़ ले जाएं।’

‘ज़ख़्मी’ साहब बोले, ‘यह मेरा कार्ड रख लीजिए। फिर कभी मेरी ज़रूरत पड़े तो याद कीजिएगा। मैं फौरन हाज़िर हो जाऊँगा। कौम की ख़िदमत करना मेरा फर्ज़ है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 17 ☆ दो गज दूरी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय समसामयिक रचना “दो गज दूरी।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 17 ☆

☆ दो गज दूरी

एक तो रिश्तों में वैसे ही दूरियाँ बढ़ रहीं थीं  दूसरा ये भी ऐलान कर दिया कि दो गज दूरी बहुत जरूरी ।  आजकल सभी विशेषकर युवा पर्सनल स्पेस को ज्यादा महत्व देते हैं इसलिए  ऑन लाइन रिश्तों का चलन बढ़ गया है । इसकी सबसे बड़ी खूबी ;  इसमें नखरे कम झेलने पड़ते हैं । जब तक मन मिले तब तक फ्रेंड बनाओ अन्यथा अनफ्रेंड करो । ऐसा फ्रेंड किस काम का जो आपकी पोस्ट को बिना पढ़े लाइक न करता हो ।

दोस्ती होती ही तभी है;  जब आप एक दूसरे को लाइक करते हो । कहते हैं  न, सूरज अपने साथ  एक नया दिन लेकर आता है , तो ऐसे ही एक दिन सुबह – सुबह सात समंदर  पार से  कोरोना जी  भी आ धमके । जब कोई आता है तो पूरे घर की दिनचर्या बदल जाती है ; खासकर मध्यमवर्गीय परिवार की क्योंकि वे लोग दिखावे की दौड़ में खुद को शामिल कर लेते हैं । ऐसे समय में हम लोग अच्छा – अच्छा बना कर खाते और खिलाते हैं । ऐसा ही कुछ इस समय भी हो रहा है । दिन भर रामायण व महाभारत के पात्रों की चर्चा व चिंतन अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों की जीवन शैली में शामिल हो कर महक- चहक रहा है । अपनी संस्कृति से  जुड़े होने की घोषणा हम तभी करते हैं जब मेहमान घर पर हो, तो बस ये अवसर आया विदेशी मेहमान हमारे साथ – साथ रहने की इच्छा लिए आ धमका और हम देखते ही रह गए ;  क्या करते । इसकी नियत पर शक तो शुरू से ही था ,  जो दिनों दिन पुख्ता भी होता जा रहा है  पर हम तो अतिथि देवो भव की परंपरा के पोषक हैं तो स्वागत सत्कार कर रहे हैं ।

इक्कीसवीं सदी चल रही है,  हर युग की अपनी कोई न कोई विशेष उपलब्धि रही है । जब इतिहास लिखा जायेगा तो कलियुग की सबसे बड़ी उपलब्धि  तकनीकी को ही माना जायेगा । इसकी  सहायता से सब कार्य ऑन लाइन होने लगे हैं  ।  लाइन लगाने में तो वैसे भी हम लोग बड़े उस्ताद हैं ; इसका अभ्यास नोटबन्दी के दौरान खूब किया है । अब ये भी सही है कि हर पल कुछ न कुछ नया करते रहना चाहिए । सो हर कार्य शुरू हो गए नए बदलावों के साथ ।  लॉक डाउन में अर्थव्यवस्था भले ही डाउन हुई हो पर घरेलू हिंसा अप ग्रेड हो रही है । अरे भई  जहाँ  चार बर्तन होंगे तो आवाज तो उठेगी ही । मामला भी ऑन लाइन ही सुलझाया जा रहा है ।   बड़ा आंनद आयेगा जब  वीडियो अदालत होगी,  ऐसे में बहसबाजी का दौर तब तक चलेगा जब तक सर्वर डाउन न हो जाये । कुछ भी कहें इक्कीसवीं सदी की बीमारी भी दो हाथ आगे निकली । चमगादड़ से आयी या प्रयोग शाला से ये तो वैज्ञानिक ही बता सकते हैं किंतु कहाँ- कहाँ मानवता के दुश्मन पनप रहे हैं इतना जरूर बताती जा रही है । कोई इसे कोरोना मैडम कहता है तो कोई कोरोना सर जी कह कर इसको सम्मानित कर रहा है । अरे भाई हम लोग सनातन धर्म को मानते हैं जहाँ हर प्राणी में ईश्वर का वास  देखा जाता है ।  सो सम्मान तो बनता है । अब ये बात अलग है कि ये वायरस है जिसे ज्यादा प्यार पाकर बहक जाने की आदत है । सबको जल्दी ही पोजटिव करता है । और द्विगुणित होकर बढ़ते हुए चलना इसका स्वभाव है । अब इसे कौन बताए कि हम लोग हम दो हमारे दो से भी दूर होकर हम दो हमारे एक पर विश्वास करते हैं । तुम्हारी दाल यहाँ नहीं गलने वाली । हमारे यहाँ तो जैसा अन्न वैसा मन ही सिखाया गया है अतः हम लोग चमगादड़ों से नाता नहीं जोड़ते । कुछ लोग भटके हुए प्राणी अवश्य हैं ; जो  भोजन और भजन को छोड़कर माँसाहार की ओर भटकते हैं ; वे भले ही तुम्हारी सेवा करें पर जैसे ही समझेंगे कि तुम्हारी सोच सही नहीं है । तुमसे खराब वाइव्स आ रही है तुम्हें रफा दफा कर देंगे ।

जब दिमाग ठंडा हो तो लोग आराम से कार्य करते हैं वैसे ही कारोना जी को भी ठंडेपन से ज्यादा ही मोह है ये साँस की नली की गली को ही ब्लॉक कर देता है । ब्लॉक करना तो इसकी  पुरानी आदत है । गर्मी पाते ही रूठ जाता है । सारे देशभक्त इसे भागने हेतु दिन -रात एक कर रहे हैं पर ये भी पूरी शिद्दत से गद्दारों को ढूंढ कर उनको उकसाता है ; कहता है मेरा साथ दो खुद भी जन्नत नशी बनों औरों को भी बनाओ । अनपढ़ लोग इसकी बातों में आ रहे हैं ; तो कुछ दूर से ही  इसके समर्थन में अपनी राजनैतिक रोटी सेंक रहे हैं ।

जिस दिन से इंटरनेट शुरू हुआ ऑन लाइन सम्बंधो पर तो सभी ने वर्क शुरू किया । इस दौरान बहुत से फेसबुकिया रिश्तेदार भी बने ।  सारे  कार्य इसी से शुरू हो गए,  ऐसा लगने लगा मानो हम सब अंतरिक्ष में जाकर ही दम लेंगे पर ये अतिथि है कि जाने का नाम ही नहीं ले रहा । ये जाए तो हम सब की जीवनरूपी रेल पुनः पटरी पर दौड़ें ।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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