हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ व्यंग्य – राजभाषा अकादमी अवार्ड्स ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री हेमन्त बावनकर

 

(राजभाषा दिवस पर श्री हेमन्त बावनकर जी का  विशेष  व्यंग्य  राजभाषा अकादमी अवार्ड्स.)

 

☆ राजभाषा अकादमी अवार्ड्स

 

गत कई वर्षों से विभिन्न राजभाषा कार्यक्रमों में भाग लेते-लेते साहित्यवीर को भ्रम हो गया कि अब वे महान साहित्यकार हो गए हैं। अब तक उन्होने राजभाषा की बेबुनियाद तारीफ़ों के पुल बाँध कर अच्छी ख़ासी विभागीय ख्याति एवं विभागीय पुरस्कार अर्जित किए थे। कविता प्रतियोगिताओं में राजभाषा के भाट कवि के रूप में अपनी कवितायें प्रस्तुत कर अन्य चारणों को मात देने की चेष्टा की। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अपने अकाट्य तर्क प्रस्तुत कर प्रतियोगियों एवं निर्णायकों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया। कभी सफलता ने साहित्यवीर के चरण चूमें तो कभी साहित्यवीर धराशायी होकर चारों खाने चित्त गिरे।

साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपनी साहित्यिक प्रतिभा की तलवार भाँजते-भाँजते साहित्य की उत्कृष्ट विधा समालोचना के समुद्र में गोता लगाने का दुस्साहस कर बैठे। कुछ अभ्यास के पश्चात उन्हें भ्रम हो गया कि उन्होंने समालोचना में भी महारत हासिल कर लिया है। खैर साहब, साहित्यवीर जी ने प्रतिवर्षानुसार अपनी समस्त प्रविष्टियों को गत वर्ष प्रायोगिक तौर पर समालोचनात्मक व्यंग के रंग में रंग कर प्रेषित कर दी।

उनकी कहानी और लेख का तो पता नहीं क्या हुआ, किन्तु, कविता बड़ी क्रान्तिकारी सिद्ध हुई। कविता का शीर्षक था साहित्यवीर और भावार्थ कुछ निम्नानुसार था।

एक सखी ने दूसरी सखी से कहा कि- हे सखी! जिस प्रकार लोग वर्ष में एक बार गणतंत्रता और स्वतन्त्रता का स्मरण करते हैं उसी प्रकार वर्ष में एक बार राजभाषा का स्मरण भी करते हैं। जिस प्रकार सावन में सम्पूर्ण प्रकृति उत्प्रेरक का कार्य करते हुए वातावरण  को मादक बना देती है और युवा हृदयों में उल्लास भर देती है उसी प्रकार राजभाषा के रंग बिरंगे पोस्टर, प्रतियोगिताओं के प्रपत्र और राजभाषा मास के भव्य कार्यक्रम प्रतियोगियों के हृदय को राजभाषा प्रेम से आन्दोलित कर देते हैं। अहा! ये देखो प्रतियोगिताओं के प्रपत्र पढ़-पढ़ कर प्रतियोगियों के चेहरे कैसे खिल उठे हैं? पूरा वातावरण राजभाषामय हो गया है। अन्तिम तिथि निकट है। हमें कार्यालयीन समय का उपयोग करना पड़ सकता है। हे सखी! जब कार्यालयीन समय में राजभाषा कार्यक्रम हो सकता है, तो प्रविष्टियों का सृजन क्यों नहीं?

दूसरी सखी ने पहली सखी से कहा – हे सखी! तुम कुछ भी कहो मुझे तो कार्यालय की दीवारों पर लगे द्विभाषीय पोस्टर द्विअर्थी संवाद की भाँति दृष्टिगोचर होते हैं। अब तुम ही देखो न एक पोस्टर पर लिखा है “इस कार्यालय में हिन्दी में कार्य करने की पूरी छूट है। तो इसका अर्थ यही हुआ न कि- “इस कार्यालय में अङ्ग्रेज़ी का प्रयोग हानिप्रद है। क्या तुम्हें यह पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि जिस प्रकार लोग धूम्रपान की “वैधानिक चेतावनी” पढ़ कर भी धूम्रपान करते हैं उसी प्रकार द्विभाषीय पोस्टर पढ़ कर अङ्ग्रेज़ी का प्रयोग करते हैं।

पहली सखी ने दूसरी सखी से कहा – हे सखी! तुम उचित कह रही हो। अब देखो न  जब कस्बा, जिला, प्रदेश, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार हो सकते हैं तो सरकारी कार्यालयों तथा सरकारी उपक्रमों के विभागों में कार्यरत विभागीय स्तर के साहित्यकार, राष्ट्रीय स्तर के  साहित्यकार क्यों नहीं हो सकते?   कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है कि ये विभागीय स्तर के साहित्यकार आखिर कब तक हिन्दी टंकण, हिन्दी शीघ्रलेखन, हिन्दी कार्यशाला, हिन्दी कार्यक्रम से लेकर राजभाषा मास में आयोजित कार्यक्रमों/प्रतियोगिताओं में कुलाञ्चे भरते रहेंगे? हे सखी! बड़े आश्चर्य की बात है कि राजभाषा अधिनियम लागू होने के इतने वर्षों के पश्चात भी किसी के मस्तिष्क में “राजभाषा अकादमी” की स्थापना का पवित्र विचार क्यूँ नहीं आया? जब अन्य तथाकथित भाषा-भाषी लोग अपनी भाषायी अकादमी के माध्यम से अपनी तथाकथित भाषाओं का तथाकथित विकास कर सकती हैं तो राजभाषा अकादमी के अभाव में तो राजभाषा के विकास का सारा दायित्व ही हमारे कन्धों पर आन पड़ा है। मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मैं राजभाषा के रथ की सारथी हूँ। अतः

“यदा यदा ही राजभाषस्य ग्लानिर्भवती सखी …”

अर्थात हे सखी! जब-जब राजभाषा की हानि और आङ्ग्ल्भाषा का विकास होता है तब तब मैं अपने रूप अर्थात विभागीय साहित्यकार के रूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होती हूँ।

हे सखी! धिक्कार है हमें, हम पर और स्वतन्त्र भारत के उन स्वतन्त्र नागरिकों पर जिन्हें उनके मौलिक अधिकारों का स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु, उन्हें उनकी गणतन्त्रता, स्वतन्त्रता और राजभाषा का मूल्य और उसका औचित्य स्मरण कराने के लिए उत्सवों और महोत्सवों की आवश्यकता पड़ती है। वैसे भी उत्सव और महोत्सव से ज्यादा लोगों की उत्सुकता मित्रों के साथ या सपरिवार अवकाश मनाने में होती है।

साहित्यवीर को अपनी प्रयोगवादी, क्रान्तिकारी, समालोचनात्मक व्यंग के रंग में रंगी कविता पर बड़ा गर्व था। किन्तु, जब उन्हें पुरस्कार वितरण के समय मंच के एक कोने में बुलाकर अमुक अधिनियम की अमुक धारा का उल्लंघन करने के दोष में अपनी सफाई देने हेतु ज्ञापन सौंपा गया कि- “क्यों ना आपसे पूछा जाए कि …. ?”  वे मंच के किनारे मूर्छित होते-होते बचे। पुरस्कार वितरण करने आए मुख्य अतिथि ने उन्हें सान्त्वना स्वरूप निम्न श्लोक सुनाया।

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन …”

अर्थात कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में नहीं। अतः तुम कर्मफल हेतु भी मत बनो और तुम्हारी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो। इससे उनकी थोड़ी हिम्मत बँधी और उन्होने चुपचाप अपना स्थान ग्रहण किया। उनकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया और रोम-रोम पसीने से भींग गया। उस दिन से उनका राजभाषा प्रेम जाता रहा।

अब पुनः राज भाषा मास आ गया है। चारों ओर बैनर पोस्टर लगे हुए हैं। प्रतियोगिताओं के प्रपत्र बाँटे जा रहे हैं। विभागीय साहित्यकारों में जोश का संचार होने लगा है। प्रेरक वातावरण साहित्यवीर को पुनः उद्वेलित करने लगता है। राज भाषा प्रेम उनके मन में फिर से हिलोरें मारने लगता है। “राजभाषा अकादमी अवार्ड्स की स्थापना और उसके अस्तित्व की कल्पना का स्वप्न पुनः जागने लगता है। वे अपनी कागज कलम उठा लेते हैं। किन्तु, यह क्या? वे जो कुछ भी लिखने की चेष्टा करते हैं, तो प्रत्येक बार उनकी कलम पिछले ज्ञापन का उत्तर ही लिख पाती है।

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष ☆ व्यंग्य – हिंदी के फूफा ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(राजभाषा दिवस पर श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  प्रस्तुत है विशेष व्यंग्य  हिन्दी के फूफा 

 

हिन्दी के फूफा 

 

भादों के महीने में आफिस में जबरदस्ती राजभाषा मास मनवाया जाता है। 14 सितम्बर मतलब हिंदी दिवस। इस दिन हर सरकारी आफिस में किसी हिंदी विद्वान को येन-केन प्रकारेण पकड़ कर सम्मान कर देने के बॉस के निर्देश होते हैं। सो हम सलूजा के संग चल पड़े ढलान भरी सड़क पर डॉ सोमालिया को पकड़ने।  डॉ सोमालिया बहुत साल पहले विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष रहे फिर रिटायर होने पर कविता – अविता जैसा कुछ करने लगे। सलूजा बोला – सही जीव है इस बार इसी को पकड़ो। सो हम लोग ढलान भरी सड़क के किनारे स्थित उनके मकान के बाहर खड़े हो गए, जैसे ही मकान के बाहर का टूटा लोहे का गेट खोला, डॉ साहब का मरियल सा कुत्ता भौंका, एक दो बार भौंक कर शान्त हो गया। हम लोगों ने आवाज लगाई… डॉ साहब…… डॉ साहब…..?  डॉ सोमालिया डरे डरे सहमे से पट्टे की चड्डी पहने बाहर निकले….. हम लोगों ने कहा – डॉ साहब हम लोग फलां विभाग से आये हैं, हिन्दी दिवस पर आपका सम्मान करना है। सम्मान की बात सुनकर सोमालिया जी कुछ गदगद से जरूर हुए पीछे से उनकी पत्नी के बड़बड़ाने की आवाज सुनकर तुरंत अपने को संभालते हुए कहने लगे – अरे भाई, सम्मान – अम्मान की क्या जरूरत है। मैं तो आप सबका सेवक हूँ, वैसे आप लोगों की इच्छा… मेरा जैसा “यूज” करना चाहें….. वैसे जब मैं रिटायर नहीं हुआ था तो मुझे मुख्य अतिथि बनाने के लिए आपके बड़े साहबों की लाईन लगा करती थी, खैर छोड़ो उन दिनों को, पर ये अच्छी बात है कि आप लोग अभी भी हिंदी का समय समय पर ध्यान रखते हैं। वैसे आपके यहां भी हिंदी में थोड़ा बहुत काम तो तो होता होगा?

 

…….. हां सर, नाम मात्र का तभी तो हम लोग राजभाषा मास मना लेते हैं।

 

……. आपके यहां अधिकारियों का हिंदी के प्रति लगाव है कि नहीं ?

 

…….. हां सर,, हिन्दी दिवस के दिन ऐसा थोड़ा सा लगता तो है।

…….. दरअसल क्या है कि हिन्दी के साथ ये दिक्कत है कि हम उसे लाना चाहते हैं पर वो आने में किन्न – मिन्न करती है। है न ऐसा ?

…. बस सर…… यस सर… ठीक कहा वैसे आपने जीवन भर हिंदी की सेवा की है तो ये ये हिन्दी के बारे में आपको ज्यादा ज्ञान होगा पर समझ में नहीं आता कि ये चाहती क्या है…… कुछ इस तरह की बातें चलतीं रहीं, फीकी – फीकी बातों के साथ फीकी – फीकी बिना दूध की चाय भी मिली, काफी रात हो चली थी हम लोग उठ कर चल चल दिए। रास्ते में डॉ सोमालिया को लेकर हम लोगों ने काफी मजाक और हंसी – ठिठोली भी की टाईम पास के लिए।

दूसरे दिन हम लोग आफिस से डॉ सोमालिया के लिए स्मृति चिन्ह खरीदने के बहाने गोल हो गए, सलूजा कहने लगा, यार जितना पैसा स्वीकृत हुआ है उतने पूरे का सामान नहीं लेना, बिल पूरे पैसे का बनवा लेना बीच में अपने खर्चा – पानी के के लिए कुछ पैसा बचा लेना है, हमको सलूजा की बात माननी पड़ी न मानते तो नाटक करवा देता, नेता आदमी है। इस प्रकार डॉ सोमालिया के नाम से स्वीकृत हुए पैसे का कुछ हिस्सा सलूजा की जेब में चला गया हांलाकि उसने प्रामिस किया कि सम्मान समारोह के दिन की थकावट दूर करने के लिए इसी पैसे का इस्तेमाल किया जाएगा।

14 सितम्बर आया। लोगों को जोर जबरदस्ती कर अनमने मन से एक हाल में इकट्ठा किया गया। डॉ सोमालिया को लेने एक कार भेजी गई, कार के ड्रायवर को समझा दिया गया कि रास्ते में डॉ सोमालिया को अपने तरह से समझा देगा कि आफिस वालों के आगे ज्यादा देर तक फालतू बातें वे नहीं करेंगे तो अच्छा रहेगा क्योंकि आफिस वाले बड़े बॉस हिंदी से थोड़ा चिढ़ते हैं हिंदी आये चाहे न आये बॉस खुश रहना चाहिए। थोड़ी देर बाद सोमालिया जी आए, हाल में बैठा दिया गया, हिन्दी में लिखे बैनर देख देख वे टाइम पास करने लगे। इस बीच हाल से लोग उठ उठकर भाग रहे थे, किसी प्रकार लोगों को थामकर रखा गया। बेचारे डॉ सोमालिया जी अकेले बैठे थे, बिग बॉस, मीडियम बॉस और अन्य बॉस का पता नहीं था किसी प्रकार खींच तान कर सबको लाया गया। डॉ सोमालिया को एक के बाद एक माला पहनाने का जो क्रम चला तो रूकने का नाम नहीं ले रहा था, सोमालिया जी माला संस्कार से तंग आ गये इतने माले जीवन भर में कभी नहीं पहने थे। माला पहनते हुए उन्हें माल्या की याद आ गई। सलूजा ने अधकचरे ढंग से डॉ सोमालिया का परिचय दिया, डायस में बैठे सभी बॉस टाइप के लोगों ने हिंदी के बारे में झूठ मूठ की बातें की। डॉ सोमालिया ने भाषा के महत्व के बारे में विस्तार से बताया बोले – हिन्दी को आने में कुछ तकलीफ सी हो रही है कुछ अंग्रेज परस्त बड़े साहबों के कारण। सलूजा चौकन्ना हुआ बीच में भाषण रुकवा कर डॉ साहब को एक तरफ ले जाकर समझाया कि अग्रेजी परस्त बॉस  लोगों के बारे में कुछ भी मत बोलो नहीं तो प्रोग्राम के बाद हमारी चड्डी उतार लेंगे ये लोग। विषय की गंभीरता को समझते हुए माईक में आकर सोमालिया जी ने विभाग की झूठ मूठ की तारीफ की…. बिग बॉस लोगों ने तालियां पीटी, कार्यक्रम समाप्त हुआ। डॉ सोमालिया को समझ में आ गया कि हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है। जाते-जाते उन्हें कोई छोड़ने नहीं गया, हारकर बुझे मन से उन्होंने रिक्शा बुलाया और सवार हो गए घर जाने के लिए।

………………………

जय प्रकाश पाण्डेय

जय नगर जबलपुर

9977318765

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 13 ☆ नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 13 ☆ 

 

 ☆ नये कुल,गोत्र, जाति और संप्रदाय☆

 

धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय की जड़ें हमारी संस्कारों में बहुत गहरी हैं। यूं हम आचरण में धर्म के मूल्यो का पालन करें न करें, पर यदि झूठी अफवाह भी फैल जाये कि किसी ने हमारे धर्म या जाति पर उंगली भी उठा दी है, तो हम कब्र से निकलकर भी अपने धर्म की रक्षा के लिये सड़को पर उतर आते हैं, यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। हमें इस पर गर्व है। इतिहास साक्षी है धर्म के नाम पर ढ़ेरो युद्ध लड़े गये हैं, कुल, जाति, उपजाति,गोत्र, संप्रदाय के नाम पर समाज सदैव बंटा रहा है। समय के साथ लड़ाई के तरीके बदलते रहे हैं, आज भी जाति और संप्रदाय भारतीय राजनीति में अहं भूमिका निभा रहे है। वोट की जोड़ तोड़ में जातिगत समीकरण बेहद महत्वपूर्ण हैं। जिसने यह गणित समझ लिया वह सत्ता मैनेज करने में सफल हुआ। इन जातियों, कुल, गोत्र आदि का गठन कैसे हुआ होगा ? यह समाज शास्त्र के शोध का विषय है पर मोटे तौर पर मेरे जैसे नासमझ भी समझ सकते हैं कि तत्कालीन, अपेक्षाकृत अल्पशिक्षित समाज को एक व्यवस्था के अंतर्गत चलाने के लिये इस तरह के मापदण्ड व परिपाटियां बनाई गई रही होंगी, जिनने लम्बे समय में रुढ़ि व कट्टरता का स्वरूप धारण कर लिया। चरम पंथी कट्टरता इस स्तर तक बढ़ी कि धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय से बाहर विवाह करने के प्रेमी दिलों के प्रस्तावों पर हर पीढ़ी में विरोध हुये, कहीं ये हौसले दबा दिये गये, तो कही युवा मन ने बागी तेवर अपनाकर अपनी नई ही दुनिया बसाने में सफलता पाई। जब पुरा्तन पंथी हार गये तो उन्होने समरथ को नहिं दोष गोंसाईं का राग अलाप कर चुप्पी लगा ली, और जब रुढ़िवादियों की जीत हुई तो उन्होने जात से बाहर, तनखैया वगैरह करके प्रताड़ित करने में कसर न उठा रखी। जो भी हो, इस डर से समाज एक परंपरा गत व्यवस्था से संचालित होता रहा है। धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय के बंधन प्रायः शादी विवाह, रिश्ते तय करने हेतु मार्ग दर्शक सिद्धांत बनते गये। पर दिल तो दिल है, गधी पर दिल आये तो परी क्या चीज है ? जब तब धर्म की सीमाओ को लांघकर प्रेमी जोड़े, प्रेम के कीर्तिमान बनाते रहे हैं। प्रेम कथाओ के नये नये हीरो और कथानक रचते रहे हैं। इसी क्रम को नई पीढ़ी बहुत तेजी से आगे बढ़ा रही लगती है।

यह सदी नवाचार की है। नई पीढ़ी नये धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय बना रही है। आज इन पुरातन जाति के बंधनो से परे बहुतायत में आई ए एस की शादी आई ए एस से, डाक्टर की डाक्टर से, साफ्टवेयर इंजीनियर की साफ्टवेयर इंजीनियर से, जज की जज से, मैनेजर की मैनेजर से होती दिख रही हैं। ऐसी शादियां सफल भी हो रही हैं। ये शादियां माता पिता नही स्वयं युवक व युवतियां तय कर रहे हैं। माता पिता तो ऐसे विवाहो के समारोहो में खुद मेहमान की भूमिका में दिखते हैं। बच्चों से संबंध रखना है तो, उनके पास इन नये कुल गोत्र जाति की शादियो को स्वीकारने के सिवाय और कोई विकल्प ही नही होता। मतलब शिक्षा, व्यवसाय, कंपनी, ने कुल, गोत्र, जाति का स्थान ले लिया है। इन वैवाहिक आयोजनो में रिश्तेदारों से अधिक दूल्हे दुल्हन के मित्र नजर आते हैं। रिश्तेदार तो बस मौके मौके पर नेग के लिये सजावट के सामान की तरह स्थापित दिखते हैं। ऐसे आयोजनो का प्रायः खर्च स्वयं वर वधू उठाते है। सामान्यतया कहा जाता था कि दूल्हे को दुल्हन मिली, बारातियो को क्या मिला ? पर मैनेजमेंट मे निपुण इस नई पीढ़ी ने ये समारोह परंपराओ से भिन्न तरीको से पांच सितारा होतलों और नये नये कांसेप्ट्स के साथ आयोजित कर सबके मनोरंजन के लिये व्यवस्थाये करने में सफलता पाई है। कोई डेस्टिनेशन मैरिज कर रहा है तो कोई थीम मैरिज आयोजित कर रहा है। ये विवाह सचमुच उत्सव बन रहे हैं। कुटुम्ब के मिलन समारोह के रूप में भी ये विवाह समारोह स्थापित हो रहे हैं। लड़कियो की शिक्षा से समाज में यह क्रांतिकारी परिवर्तन होता दिख रहा है। लड़के लड़की दोनो की साफ्टवेयर इंजीनियरिंग जैसे व्यवसायों की मल्टीनेशनल कंपनी की आय मिला दें तो वह औसत परिवारो की सकल आय से ज्यादा होती है, इसी के चलते दहेज जैसी कुप्रथा जिसके उन्मूलन हेतु सरकारी कानून भी कुछ ज्यादा नही कर सके खुद ही समाप्त हो रही है। हमारी तो पत्नी ही हम पर हुक्म चलाती है, पर इन विवाहो में सब कुछ लड़की की मरजी से ही होता दिखता है, क्योकि कुवर जी पर दुल्हन का पूरा हुक्म चलता दिखता है।

यूं तो नये समय में कालेज से निकलते निकलते ही बाय फ्रेंड, गर्ल फ्रेंड, अफेयर, ब्रेकअप इत्यादि सब होने लगा है, पर फिर भी जो कुछ युवा कालेज के दिनो में सिसियरली पढ़ते ही रहते हैं उनके विवाह तय करने में नाई, पंडित की भूमिका समाप्त प्राय है, उसकी जगह शादी डाट काम, जीवनसाथी डाट काम आदि वेब साइट्स ने ले ली है। युवा पीढ़ी एस एम एस, चैटिग, मीटिग, डेटिंग, आउटिंग से स्वयं ही अपनी शादियां तय कर रही है। सार्वजनिक तौर से हम जितना उन्मुक्त शादी के २० बरस बाद भी अपनी पिताजी की पसंद की पत्नी से नही हो पाये हैं, हनीमून पर जाने की आवश्यकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुये परस्पर उससे ज्यादा फ्री, ये वर वधू विवाह के स्वागत समारोह में नजर आते हैं। नये धर्म, कुल, गोत्र, जाति और संप्रदाय की रचियता इस पीढ़ी को मेरा फिर फिर नमन। सच ही है समरथ को नही दोष गुसाईं। मैं इस परिवर्तन को व्यंजना, लक्षणा ही नही अमिधा में भी स्वीकार करने में सबकी भलाई समझने लगा हूं।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 12 – व्यंग्य – बरसात की रात ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  बारहवीं कड़ी में  उनका व्यंग्य   “बरसात की रात ”।  आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 12 ☆

 

☆ बरसात की रात ☆ 

 

रिमझिम रिमझिम बरसात हो रही है, गर्मागर्म पकोड़े खाये जा रहे हैं, और श्रीमती मोबाइल से फोन लगाकर ये गाना सुना रही है..

“रिमझिम बरसे बादरवा,

मस्त हवाएं आयीं,

पिया घर आजा.. आजा.. “

बार बार फोन आने से गंगू नाराज होकर बोला – देखो  अभी डिस्टर्ब नहीं करो बड़ी मुश्किल से गोटी बैठ पायी है। अभी गेटवे आफ इण्डिया में समंदर के किनारे की मस्त हवाओं का मजा लूट रहे हैं, तुम बार बार मोबाइल पर ये गाना सुनवा कर डिस्टर्ब नहीं करो, यहां तो और अच्छी सुहावनी रिमझिम बरसात चल रही है और मस्त हवाएं आ रहीं हैं और जा रहीं हैं। फेसबुक फ्रेंड मनमोहनी के साथ रिमझिम फुहारों का मजा आ रहा है। चुपचाप सो जाओ.. इसी में भलाई है, नहीं तो लिव इन रिलेशनशिप के लिए ताजमहल होटल सामने खड़ी है… बोलो क्या करना है। जीवन भर से लोन ले लेकर सब सुख सुविधाएं दे रहे हैं, एक दिन के लिए ऐश भी नहीं करने दे रही हो, जलन लग रही होगी, ये तुमसे ज्यादा सुंदर है समझे…….. ।

बरसात हो रही है और ताजमहल होटल के सामने गंगू और फेसबुक फ्रेंड भीगते हुए नाच रहे हैं गाना चल रहा है…….

“बरसात में हमसे मिले तुम,

तुम से मिले हम बरसात में, ”

जब नाचते नाचते थक गए तो गंगू बोला – गजब हो गया 70 साल से बरसात के साथ विकास नहीं बरसा और इन चार साल में बरसात के साथ विकास इतना बरसा कि सब जगह नुकसान ही नुकसान दिख रहा है। झूठ बोलो राज करो। सच कहने में अभी पाबंदी है। जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले हम कुछ नहीं बोलेगा, मीडिया में लिखेगा तो जुल्म हो जाएगा।

चलो अच्छा पिक्चर में बैठते हैं वहां अंधेरा भी रहता है। सुनो मनमोहनी अंधेरे में चैन खींचने वाले और जेबकट बहुत रहते हैं तो ये चैन और पर्स अपने बड़े पर्स में सुरक्षित रख लो, पर्स में 20-30 हजार पड़े हैं सम्भाल कर रखना। गंगू सीधा और दयालु किस्म का है, बड़े पर्दे पर फिल्म चालू हो गई है गाना चल रहा है………

‘मुझे प्यास, मुझे प्यास लगी है

मेरी प्यास मेरी प्यास को बुझा देना…… आ….के.. बुझा…. ‘

पूरा गाना देखने के बाद गंगू बड़बड़ाते हुए बोला – बड़ी मुश्किल है मुंबई में, समुद्र में हाईटाइड का माहौल है, जमके बरसात मची है सब तरफ पानी पानी है और इसकी प्यास कोई बुझा नहीं पा रहा है सिर्फ़ चुल्लू भर पानी से प्यास बुझ जाएगी, बड़ा निर्मम शहर है, हमको तो दया आ रही है और मनमोहनी तुमको…….?  जबाब नहीं मिलने पर उसने अंधेरे में टटोला, बाजू की कुर्सी से मनमोहनी गायब थी चैन भी ले गई और पर्स भी……….

गंगू को काटो तो खून नहीं, रो पड़ा, क्या जमाना आ गया प्यार के नाम पर लुटाई….. वाह री बरसात तू गजब करती है जब प्यास लगती है तो फेसबुक फ्रेंड पर्स लेकर भगती है………. ।

पिक्चर भी गई हाथ से। पर्स चैन जाने से गंगू दुखी है बाहर चाय पीते हुए भावुकता में गाने लगा……….

“मेरे नैना सावन भादों,

फिर भी मेरा मन प्यासा, “

चाय वाला बोला गजब हो गया साब, चाय भी पी रहे हो और मन को प्यासा बता रहे हो, आपकी आंखों में सावन भादों के बादल छाये हैं और बरसात भी हो रही है तो मन प्यासा का बहाना काहे फेंक रहे हो… मन तो भीगा भीगा लग रहा है और नेताओं जैसे गधे की राग में चिल्ला रहे हो ‘मेरा मन प्यासा’……..

चाय वाले आप नहीं समझोगे…. बहुत धोखाधड़ी है इस दुनिया में….. खुद के नैयनों में बरसात मची है पर हर कोई दूसरे के नैयनों का पानी पीकर मन की प्यास बुझाना चाह रहा है। घरवाली के नयनों का पानी नहीं पी रहे हैं, बाहर वाली के नयनों के पानी से प्यास बुझाना चाहते हैं।

अरे ये फेसबुक और वाटस्अप की चैटिंग बहुत खतरनाक है यार, फेसबुक फ्रेंड से चैटिंग इस बार बहुत मंहगी पड़ गई…. रोते हुए गंगू फिर गाने लगा…………

“जिंदगी भर नहीं भूलेगी,

ये बरसात की रात,

एक अनजान हसीना से,

मुलाकात की रात, “

चाय वाला बोला – चुप जा भाई चुप जा ‘ये है बाम्बे मेरी जान…..’

दुखी गंगू रात को ही घर की तरफ चल पड़ा, रास्ते में फिल्म की शूटिंग चल रही थी, शूटिंग देखते देखते भावुकता में गाने के साथ गंगू भी नाचने लगा……..

” मेघा रे मेघा रे…….. “गाने में हीरोइन लगातार झीने – झीने कपड़ों में भीगती नाच रही है और देखने वालों का दिल लेकर अचानक अदृश्य हो जाती है म्यूजिक चलता रहता है और गंगू के साथ और लोग भी भीगते हुए नाच रहे हैं, सुबह का चार बज गया है शूटिंग बंद हो गई है, गंगू और कई लोग कंपकपाते हुए गिर गए हैं ऐम्बुलेंस आयी, सब अस्पताल में भर्ती हुए । नर्स गर्म हवा फेंकती है गंगू बेहोश है। सुबह आठ बजे सीवियर निमोनिया और इन्फेक्शन से गंगू को डाक्टर मृत घोषित कर देते हैं……….

दो घंटे बाद गंगू की शव यात्रा पान की दुकान के सामने रुकती है, पान की दुकान में गाना बज रहा है….

“टिप टिप बरसा पानी,

पानी ने आग लगाई, “

गाना सुनकर मुर्दे में हरकत हुई……. सब भूत – भूत चिल्लाते हुए बरसते पानी में भाग गए ……… ।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 12 ☆ धन्नो, बसंती और बसंत ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “धन्नो, बसंती और बसंत”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 12 ☆ 

 

 ☆ धन्नो, बसंती और बसंत ☆

 

बसंत बहुत फेमस है  पुराने समय से, बसंती भी धन्नो सहित शोले के जमाने से फेमस हो गई है । बसंत हर साल आता है, जस्ट आफ्टर विंटर. उधर कामदेव पुष्पो के बाण चलाते हैं और यहाँ मौसम सुहाना हो जाता है।  बगीचो में फूल खिल जाते हैं। हवा में मदमस्त गंध घुल जाती है। भौंरे गुनगुनाने लगते हैं। रंगबिरंगी तितलियां फूलो पर मंडराने लगती है। जंगल में मंगल होने लगता है। लोग बीबी बच्चो मित्रो सहित पिकनिक मनाने निकल पड़ते हैं।  बसंती के मन में उमंग जाग उठती है। उमंग तो धन्नो के मन में भी जागती ही होगी पर वह बेचारी हिनहिनाने के सिवाय और कुछ नया कर नही पाती।

कवि और साहित्यकार होने का भ्रम पाले हुये बुद्धिजीवियो में यह उमंग कुछ ज्यादा ही हिलोरें मारती पाई जाती है। वे बसंत को लेकर बड़े सेंसेटिव होते हैं। अपने अपने गुटों में सरस्वती पूजन के बहाने कवि गोष्ठी से लेकर साहित्यिक विमर्श के छोटे बड़े आयोजन कर डालते हैं। डायरी में बंद अपनी  पुरानी कविताओ  को समसामयिक रूपको से सजा कर बसंत के आगमन से १५ दिनो पहले ही उसे महसूस करते हुये परिमार्जित कर डालते हैं और छपने भेज देते हैं। यदि रचना छप गई तब तो इनका बसंत सही तरीके से आ जाता है वरना संपादक पर गुटबाजी के षडयंत्र का आरोप लगाकर स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाकर दिलासा देना मजबूरी होती है। चित्रकार बसंत पर केंद्रित चित्र प्रदर्शनी के आयोजन करते हैं। कला और बसंत का नाता बड़ा गहरा  है।

बरसात होगी तो छाता निकाला ही जायेगा, ठंड पड़ेगी तो स्वेटर पहनना ही पड़ेगा, चुनाव का मौसम आयेगा, तो नेता वोट मांगने आयेंगे ही, परीक्षा का मौसम आयेगा, तो बिहार में नकल करवाने के ठेके होगें ही। दरअसल मौसम का हम पर असर पड़ना स्वाभाविक ही है। सारे फिल्मी गीत गवाह हैं कि बसंत के मौसम से दिल  वेलेंटाइन डे टाइप का हो ही जाता है। बजरंग दल वालो को भी हमारे युवाओ को संस्कार सिखाने के अवसर और पिंक ब्रिगेड को नारी स्वात्रंय के झंडे गाड़ने के स्टेटमेंट देने के मौके मिल जाते हैं। बड़े बुजुर्गो को जमाने को कोसने और दक्षिणपंथी लेखको को नैतिक लेखन के विषय मिल जाते हैं।

मेरा दार्शनिक चिंतन धन्नो को प्रकृति के मूक प्राणियो का प्रतिनिधि मानता है, बसंती आज की युवा नारी को रिप्रजेंट करती है, जो सारे आवरण फाड़कर अपनी समस्त प्रतिभा के साथ दुनिया में  छा जाना चाहती है। आखिर इंटरनेट पर एक क्लिक पर अनावृत होती सनी लिओने सी बसंतियां स्वेच्छा से ही तो यह सब कर रही हैं। बसंत प्रकृति पुरुष है। वह अपने इर्द गिर्द रगीनियां सजाना चाहता है, पर प्रगति की कांक्रीट से बनी गगनचुम्बी चुनौतियां, कारखानो के हूटर और धुंआ उगलती चिमनियां बसंत के इस प्रयास को रोकना चाहती है, बसंती के नारी सुलभ परिधान, नृत्य, रोमांटिक गायन को उसकी कमजोरी माना जाता है। बसंती के कोमल हाथो में फूल नहीं कार की स्टियरिंग थमाकर, जीन्स और टाप पहनाकर उसे जो चैलेंज जमाना दे रहा है, उसके जबाब में नेचर्स एनक्लेव बिल्डिंग के आठवें माले के फ्लैट की बालकनी में लटके गमले में गेंदे के फूल के साथ सैल्फी लेती बसंती ने दे दिया है, हमारी बसंती जानती है कि उसे बसंत और धन्नो के साथ सामंजस्य बनाते हुये कैसे बजरंग दलीय मानसिकता से जीतते हुये अपना पिंक झंडा लहराना है।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ यूज़ एंड थ्रो ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

 

(श्रीमती छाया सक्सेना जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है. आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य “यूज एंड थ्रो”. हम भविष्य में भी उनकी चुनिंदा रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करते रहेंगे.)

 

☆ यूज़ एन्ड थ्रो ☆

 

आजकल हर चीजों की दो  केटेगरी है- यूज़ या अनयूज़ ।  कीमती लाल के तो मापदंड ही निराले हैं वो अपने अनुसार किसी की भी उपयोगिता को निर्धारित कर देते हैं ।  यदि कोई  आगे बढ़ता हुआ दिखता है तो झट से  उसे घसीट कर  बाहर कर देना और फिर उसकी जगह किसी की भी ताजपोशी कर देना  उनका प्रिय शगल है, ये बात अलग है कि  सामने वाले को रोने व अपनी बात कहने की खुली छूट होती है, यदि वो  वापस आना चाहे तो उसका भी स्वागत धूम धाम से किया जाता है बस शर्त यही कि  भविष्य में वो सच्चे सेवक का धर्म निभायेगा ।

इधर कई दिनों से निरंतर सेवकों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है और शीर्ष पर आज्ञाकारी लोगों को दो दिनों की चाँदनी का ताज दिखा कर धम से जमीन पर पटका जाता है। कोई भाग्यशाली हुआ तो आसमान से गिर कर खजूर में अटक जाता है और इतराते हुए सेल्फी लेकर फेसबुक में अपलोड कर देता है ।

चने के  झाड़ पर चढ़े हुए लोग  भी अपनी सेल्फी लेकर सबको टैग करते हुए लाइक की उम्मीद में पलके बिछाए बैठे हुए ऐसे प्रतीत होते हैं मानो  यदि  आपने पोस्ट पर ध्यान नहीं  दिया तो आपको  व्हाट्सएप में संदेश भेजकर कहेंगे जागो मोहन प्यारे  मुझे लाइक करो या न करो पोस्ट अवश्य लाइक करो ।

सही भी है यदि फेसबुक पर ही  दोस्ती नहीं निभ सकी तो ऐसे फेसबुक फ्रेंड्स का क्या फायदा , भेजो इनको कीमती लाल के  पास जो एक झटके में पटका लगा कर सबक सिखा देने की क्षमता रखते हैं ।

आजकल तो उत्सवों में भी थर्माकोल  , प्लास्टिक आदि की प्लेट, कटोरी, चम्मच , काँटे व गिलास उपयोग में आते हैं । जिन्हें इस्तेमाल किया और फेका । पानी भी बोतलों में मिलता है । जितनी भी जरूरत की चीजें हैं वो सब केवल एक ही बार उपयोग में आने हेतु बनायीं जातीं हैं ।  सिरिंज का  एक प्रयोग तो जायज है  सुरक्षा  की दृष्टि से  पर और वस्तुएँ कैसे  और कब तक बर्दाश्त  हों ।

वस्तुएँ रिसायकल  हों ये जरूर आज के समय की माँग है । बेस्ट आउट ऑफ वेस्ट की दिशा में तो आजकल बहुत कार्य हो रहा है । नगर निगम द्वारा भी जगह- जगह सूखा कचरा व गीला कचरा एकत्र करने हेतु अलग- अलग डिब्बे रखे गए हैं । दुकानों में भी हरे रिसायकल  निशान वाले कागज के बैग मिल रहे हैं । पर स्थिति जस की तस बनी हुयी है आखिर हमें आदत हो चुकी है  इस्तेमाल के बाद फेंकने की ।

ये आदतें कोई आज की देन नहीं है पुरातन काल से  यही सब चल रहा जब तक किसी से कार्य हो उसे पुरस्कार से नवाजो जैसे ही वो बेकार हुआ फेक दो । यही सब आज  प्रायवेट कंपनी कर रहीं हैं  असम्भव टारगेट देकर नवयुवकों का मनोबल तोड़ना, बात- बात पर धमकी देना और जब वो अपने को कमजोर मान लें तो अपने अनुसार काम लेना क्योंकि मन तो उनका टूट चुका जिससे वो  भी किसी योग्य हैं इस बात को भूल कर स्वामिभक्ति का राग अलापते हैं ।

आखिर कब तक ये रीति चलेगी ,  कभी तो इस पर विचार होना चाहिए या फिर एक अवधि तय होनी चाहिए  किसी भी चीज के उपयोग करने की जैसे खाद्य पदार्थों व दवाइयों की पैकिंग में लिखा रहता है  एक्सपाइरी डेट ।  रिश्तों में तो ये चलन इस कदर बढ़ गया है कि पुत्र का विवाह होते ही माता पिता की उपस्थिति अनुपयोगी हो जाती है जिसकी  वैधता समाप्ति की ओर अग्रसर होकर दम तोड़ती हुयी दिखायी देती है ।

रोजमर्रा की चीजें भी स्टेटस सिंबल बन कर रोज बदली जा रहीं हैं  गर्ल फ्रेंड  और बॉय फ्रेंड  बदलना तो मामूली बात है ।  किन- किन चीजों में बदलाव देखना होगा ये अभी तक विवादित है पर यूज़ एन्ड थ्रो तो जीवन का  अमिट हिस्सा बन शान से इतरा रहा है ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर (म.प्र.)
मो.- 7024285788

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हिन्दी साहित्य- श्री गणेश चतुर्थी विशेष – व्यंग्य – ☆ गणपति और गणतंत्र ☆ श्री विनोद साव

श्री गणेश चतुर्थी विशेष

श्री विनोद साव 

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकर श्री विनोद साव जी का  श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर विशेष व्यंग्य – गणपति और गणतंत्र. )

 

☆ व्यंग्य – गणपति और गणतंत्र ☆

गणपति की स्थापना कर उसे उत्सव के रूप में मनाने का श्रीगणेश किया लोकमान्य तिलक ने. गणतंत्र की स्थापना – भीमराव अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित संविधान की संसद द्वारा स्वीकृति के बाद हुई. गणपति और गणतंत्र दोनों को राष्ट्रीय स्वरुप देने का श्रेय महाराष्ट्र को मिला. गणेशोत्सव की शुरुआत तिलक ने जनता में देशप्रेम व राष्ट्रीयता की भावना जगाने और राष्ट्रीयता का सूत्रपात करने के लिए की थी. अम्बेडकर ने देश की निरीह और वंचित जनता के लिए उन्नति के द्वार खोले संविधान को गणतांत्रिक रूप देकर. लेकिन हर साल गणपति हमारे पास आते रहे और गणतंत्र हमसे दूर होता गया. आज़ादी के बाद गणपति रह गए जनता के हिस्से और गणतंत्र के ठेकेदार बन गए गणनायक अर्थात हमारे जन-प्रतिनिधि जो संविधान द्वारा दी गयी सुविधाओं को खुद भोगते रहे और जनता को उनके मौलिक अधिकारों से भी वंचित करते रहे. जनता बेचारी गणतंत्र की आस में हर साल अपना रोना गणपति जी के पास रो लेती है.
वैसे तथाकथित गणनायकों से तो गणपति अच्छे जो हर साल आ जाते हैं. जनता पुकारती है ‘हे गणपति महराज तोर जय बोलावन जी’ और सुनकर भोले-भाले, ऊपर जनेऊ और नीचे लंगोटी धारण किए हुए मस्ती में सूंड हिलाते हुए वे अपने श्रद्धालुओं के बीच पहुँचते ही लम्बोदराय-सकलाय हो जाते हैं. उनके विराजमान होते ही सारा शहर बाग़-जाग हो उठता है. फिर ग्यारह दिनों तक गजबदन विनायक का धूम-धड़ाका. नारियल, लड्डू और ककडी का भोग है. प्रसाद भी सबके लिए ‘आरक्षित’ है– नारियल – भक्तजनों के लिए, लड्डू – गणेशजी की उदारपूर्ति में और ककडी – उनके मूसकराज को नसीब. सारे शहर की रौनक बढ़ गयी है. नौजवान और नौजवानियों का हुजूम है रिमझिम बारिश में भीगते हुए. गणेश प्ररिक्रमा के बहाने ‘वाहन-चालन और सौन्दर्य-दर्शन दोनों ही पूरे उफान पर हैं.
कई विभाग और संभाग अपने-अपने हिसाब से गणपति जी को ‘प्लीज’ करने में लगे रहते हैं. ग्यारह दिनों का चार्ज गणपति महराज के जिम्मे है. सबके ‘हेड ऑफ दी  डिपार्टमेंट’ वही बन जाते हैं. भक्तजन भी अपनी-अपनी फरमाइश की लिस्ट लेकर एक साथ चीत्कार कर उठे हैं ‘हे गणनायक बुद्धिविनायक.. इस बार तो हमें कुछ देते जाओ – महंगाई बढ़ रही है महंगाई भत्ता बढाओ, ऋण मुक्त कराओ लगान माफ़ी करवाओ, बेजा कब्जे पर पट्टा दिलवाओ, धान के मूल्य से लेव्ही हटवाओ, पब्लिक सेक्टर को प्राइवेट बनवाओ, थर्ड क्लास की नौकरी लगवाओ. इस तरह हर बढे-चढ़े बजट पेश होने के बाद गणपति महाशय इंस्पेक्शन’ के लिए आते हैं और ग्यारह दिनों तक जमकर खिदमत करवाकर बजट बिगाड़कर चले जाते हैं.
हर रोज नयी समस्या का श्रीगणेश करने वाले इस देश की भार-क्षमता चमत्कृत कर देती है. हर साल आ तो जाते हैं गणपति पर कब आयेगा सचमुच पूर्ण गणतंत्र इस देश में?

 

✒  © विनोद साव , छत्तीसगढ़ 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 11 ☆ मिले दल मेरा तुम्हारा ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “मिले दल मेरा तुम्हारा ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 11 ☆ 

 

 ☆ मिले दल मेरा तुम्हारा ☆

 

मुझे कोई यह बताये कि जब हमारे नेता “घोड़े”  नहीं हैं, तो फिर उनकी हार्स ट्रेडिंग कैसे होती है ? जनता तो चुनावो में नेताओ को गधा मानकर  “कोई नृप होय हमें का हानि चेरी छोड़ न हुई हैं रानी” वाले मनोभाव के साथ या फिर स्वयं को बड़ा बुद्धिजीवी और नेताओ से ज्यादा श्रेष्ठ मानते हुये,मारे ढ़केले बड़े उपेक्षा भाव से अपना वोट देती आई है।ये और बात है कि चुने जाते ही, लालबत्ती और खाकी वर्दी के चलते वही नेता हमारा भाग्यविधाता बन जाता है और हम जनगण ही रह जाते हैं। यद्यपि जन प्रतिनिधि को मिलने वाली मासिक निधि इतनी कम होती है कि लगभग हर सरकार को ध्वनिमत से अपने वेतन भत्ते बढ़वाने के बिल पास करने पड़ते हैं, पर जाने कैसे नेता जी चुने जाते  ही  बहुत अमीर बन जाते हैं।पैसे और पावर  ही शायद वह कारण हैं कि चुनावो की घोषणा के साथ ही जीत के हर संभव समीकरण पर नेता जी लोग और उनकी पार्टियां  गहन मंथन करती दिखती है।चुपके चुपके “दिल मिले न मिले,जो मिले दल मेरा तुम्हारा तो सरकार बने हमारी ” के सौदे, समझौते होने लगते हैं, चुनाव परिणामो के बाद ये ही रिश्ते हार्स ट्रेडिंग में तब्दील हो सकने की संभावनाओ से भरपूर होते हैं।

“मेरे सजना जी से आज मैने ब्रेकअप कर लिया” वाले सेलीब्रेशन के शोख अंदाज के साथ नेता जी धुर्र विरोधी पार्टी में एंट्री ले लेने की ऐसी क्षमता रखते हैं कि बेचारा रंगबदलू गिरगिटान भी शर्मा जाये।पुरानी पार्टी आर्काईव से नेताजी के पुराने भाषण जिनमें उन्होने उनकी नई पार्टी को भरपूर भला बुरा कहा होता है, तलाश कर वायरल करने में लगी रहती है।सारी शर्मो हया त्यागकर आमआदमी की भलाई के लिये उसूलो पर कुर्बान नेता नई पार्टी में अपनी कुर्सी के पायो में कीलें ठोंककर उन्हे मजबूत करने में जुटा रहता है।ऐसे आयाराम गयाराम खुद को सही साबित करने के लिये खुदा का सहारा लेने या “राम” को भी निशाने पर लेने से नही चूकते । जनता का सच्चा हितैषी बनने के लिये ये दिल बदल आपरेशन करते हैं और उसके लिये जनता का खून बहाने के लिये दंगे फसाद करवाने से भी नही चूकते।बाप बेटे, भाई भाई, माँ बेटे, लड़ पड़ते हैं जनता की सेवा के लिये हर रिश्ता दांव पर लगा दिया जाता है।पहले नेता का दिल बदलता है, बदलता क्या है, जिस पार्टी की जीत की संभावना ज्यादा दिखती है उस पर दिल आ जाता है।फिर उस पार्टी में जुगाड़ फिट किया जाता है।प्रापर मुद्दा ढ़ूढ़कर सही समय पर नेता अपने अनुयायियो की ताकत के साथ दल बदल कर डालता है।  वोटर का  दिल बदलने के लिये बाटल से लेकर साड़ी, कम्बल, नोट बांटने के फंडे अब पुराने हो चले हैं।जमाना हाईटेक है, अब मोबाईल, लेपटाप, स्कूटी, साईकिल बांटी जाती है।पर जीतता वो है जो सपने बांट सकने में सफल होता है।सपने अमीर बनाने के, सपने घर बसाने के, सपने भ्रष्टाचार मिटाने के।सपने दिखाने पर अभी तक चुनाव आयोग का भी कोई प्रतिबंध नही है।तो आइये सच्चे झूठे सपने दिखाईये, लुभाईये और जीत जाईये।फिर सपने सच न कर पाने की कोई न कोई विवशता तो ब्यूरोक्रेसी ढ़ूंढ़ ही देगी।और तब भी यदि आपको अगले चुनावो में दरकिनार होने का जरा भी डर लगे तो निसंकोच दिल बदल लीजीयेगा, दल बदल कर लीजीयेगा।आखिर जनता को सपने देखने के लिये एक अदद नेता तो चाहिये ही, वह अपना दिल फिर बदल लेगी आपकी कुर्बानियो और उसूलो की तारीफ करेगी और फिर से चुन लेगी आपको अपनी सेवा करने के लिये।ब्रेक अप के झटके के बाद फिर से नये प्रेमी के साथ नया सुखी संसार बस ही जायेगा।दिल बदल बनाम दलबदल,  लोकतंत्र चलता रहेगा।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ इस तरह गुजरा जन्मदिन ☆ – स्व. हरिशंकर परसाई

स्व.  हरीशंकर परसाई 

(परसाई जी अपना जन्मदिन मनाने के कभी भी समर्थक नहीं रहे हैं। किन्तु, हम लोगों ने बिना उनकी अनुमति के सन 1991 में जबलपुर में तीन दिवसीय वृहद् जन्मदिन का आयोजन करने का साहस किया था, जिसमें भारतीय स्टेट बैंक ने भी  उनका सम्मान किया था।। अब तो परसाई का जन्मदिन मनाये जाने की होड़ सी लगी है अब सबको लगने लगा है  कि परसाई का जन्मदिन मनाने से धन एवं यश मिलता है। – जय प्रकाश पाण्डेय)

स्मृतियाँ –

भारतीय स्टेट बैंक के महाप्रबंधक श्री जाखोदिया भोपाल से परसाई को सम्मानित करने उनके घर गए थे।
इस चित्र में परसाई जी के साथ बाल नाट्यकर्मियों का दल है जिन्होंने सदाचार का तावीज रचना पर नाटक किया था। प्रसिद्ध नाट्यकार श्री वसंत काशीकर जी द्वारा लिखित यह नाटक हम इसी अंक में प्रकाशित कर रहे हैं।

 

✍ इस तरह गुजरा जन्मदिन✍

– हरिशंकर परसाई

 

(अपने जन्मदिन पर उन्होने एक व्यंग्य-संस्मरण  लिखा था “इस तरह गुजरा जन्मदिन”। उनका यह व्यंग्य-संस्मरण हम यहाँ उद्धृत कर रहे हैं।)

 

तीस साल पहले 22 अगस्त को एक सज्जन सुबह मेरे घर आये। उनके हाथ में गुलदस्ता था। उन्होंने बड़े स्नेह और आदर से मुझे गुलदस्ता दिया। मैं अचकचा गया। मैंने पूछा यह क्यों? उन्होंने कहा  आज आपका जन्मदिन है न। मुझे याद आया मैं 22 अगस्त को पैदा हुआ था। यह जन्मदिन का पहला गुलदस्ता था। वे बैठ गए। हम दोनों अटपटे से और बैचैन थे। कुछ बातें होती रहीं। उनके लिए चाय आयी वे मिठाई की आशा कर रहे होंगे। मेरी टेबल में फूल भी नहीं थे वे समझ गए होंगे कि सबेरे से इनके पास कोई नहीं आया। इसे कोई नहीं पूछता। लगा होगा जैसे शादी की बधाई देने आए हैं और इधर घर में रात को दहेज की चोरी हो गई हो। उन्होंने मुझे जन्मदिन के लायक भी नहीं समझा तब से अभी तक उन्होंने मेरे जन्मदिन पर आने की गलती नहीं की, धिक्कारते होगें कि कैसा निकम्मा लेखक है कि अधेड़ हो रहा है मगर जन्मदिन मनवाने का इंतजाम नहीं कर सका, इसका साहित्य अधिक दिन टिकेगा नहीं। हाँ अपने जन्मदिन के समारोह का इंतजाम खुद करने वाले मैने देखे हैं जन्मदिन ही क्यों स्वर्ण जयंती और हीरक जयंती भी खुद आयोजित करके ऐसा अभिनय करते हैं जैसे दूसरे लोग उन्हें यह कष्ट दे रहे हैं। सड़क पर मिल गए तो कहा – परसौं शाम के आयोजन में आना भूलिए मत। फिर बोले – मुझे क्या मतलब?  आप लोग आयोजन कर रहे हैं आप जानें।

चार – पांच साल पहले मेरी रचनावली का प्रकाशन हुआ था  उस साल मेरे दो – तीन मित्रों ने अखबारों में मेरे बारे में लेख छपवा दिए जिनके ऊपर छपा था 22 अगस्त जन्मदिन के अवसर पर। मेरी जन्म तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है यह गलत है वास्तव में सन 1922 है।। मुझे पता नहीं मेट्रिक के सर्टिफिकेट में क्या है। मेरे पिता ने स्कूल में मेरी उम्र दो साल कम लिखाई थी  इस कारण कि सरकारी नौकरी के लिए मैं जल्दी “ओवरएज” नहीं हो जाऊं। इसका मतलब है झूठ की परंपरा मेरे कुल में है। पिता चाहते थे कि मैं “ओवरएज” नहीं हो जाऊं मैंने उनकी इच्छा पूरी की। मैं इस उम्र में भी दुनियादारी के मामले में “अंडरएज” हूं।

लेख छपे तो मुझे बधाई देने मित्र और परिचित आये। मैंने सुबह मिठाई बुला ली थी। मैंने भूल की। मिलने वालों में चार – पांच मिठाई का डिब्बा लाए। और इतने में निपट गये। अगले साल मैंने सिर्फ तीन – – चार के लिए मिठाई रखी पांचवें सज्जन मिठाई का बड़ा डिब्बा लेकर आ गये फिर हर तीन चार के बाद हर कोई मिठाई लिए आता  मिठाई बहुत बच गई, चाहता तो बेच देता और मुआवजा वसूल कर लेता। ऐसा नहीं किया, परिवार और पडोस के बच्चे दो  तीन दिन खाते रहे।

इस साल कुछ विशेष हो गया। जन्मदिन का प्रचार हफ्ता भर पहिले से हो गया। सुर्य ग्रहण चन्द्रग्रहण के घंटों पहले उसके “वेद” लग जाते हैं ऐसा पंडित बताते हैं “वेद” के समय में कुछ लोग नहीं खाते। वेद यानी वेदना…. राहू केतु के दांत गडते होगें न। मेरा खाना पीना तो नहीं छूटा वेद की अवधि में। पर आशंका रही कि इस साल क्या करने वाले हैं यार लोग। प्रगतिशील लेखक संघ के संयोजक जय प्रकाश पाण्डेय आये और बोले – इक्कीस तारीख की शाम को एक आयोजन रखा है उसमें एक चित्र प्रदर्शनी है और आपके साहित्य पर भाषण है। बिहार के गया से डाॅ सुरेंद्र चौधरी आ रहें हैं भाषण देने। अंत में आपकी कहानी “सदाचार के ताबीज” का नाटक है। मैंने कहा – नहीं  नहीं बिलकुल कोई आयोजन मत करो। मैं बिल्कुल नहीं चाहता। जय प्रकाश पाण्डेय ने कहा कि मैं आपकी मंजूरी नहीं ले रहा हूं,  आपको सूचित कर रहा हूं। आपको रोकने का अधिकार नहीं है। आपने लिखा और उसे प्रकाशित करवा दिया अब उस पर कोई भी बात कर सकता है। इसी तरह आपके जन्मदिन को कोई भी मना सकता है, उसे आप कैसे और क्यों रोकेंगे।

वहीं बैठे दूसरे मित्र ने कहा – हो सकता है मुंबई में हाजी मस्तान आपके जन्मदिन का उत्सव कर रहे हों तो। आप क्या उन्हें रोक सकते हैं।  तर्क  सही था, मेरे लिखे पर मेरा सिर्फ़ रायल्टी का अधिकार है मेरा जन्मदिन भी मेरा नहीं है और मेरा मृत्यु दिवस भी मेरा नहीं होगा। यों उत्सव, स्वागत, सम्मान का अभ्यस्त हूँ फूल माला भी बहुत पहनी है गले पडी माला की ताकत भी जानता हूं। अगर शेर के गले में किसी तरह फूलमाला डाल दी जाए तो वह भी हाथ जोड़कर कहेगा –  मेरे योग्य सेवा…….. आशा है कि अगले चुनाव में आप मुझे ही वोट देंगे।

आकस्मिक सम्मान भी मेरा हुआ। शहर में राज्य तुलसी अकादमी का तीन दिवसीय कार्यक्रम था, जलोटा का तुलसीदास के पद गाने के लिए बुलाया गया था। पहले दिन सरकारी अधिकारी मेरे पास आए, कार्यक्रम की बात की।फिर बोले कल सुबह पंडित विष्णुकांत शास्त्री और पंडित राममूर्ति त्रिपाठी पधार रहे हैं। विष्णुकांत शास्त्री कलकत्ता वाले से मेरी कई बार भेंट की है, त्रिपाठी जी से भी अच्छे संबंध है। अधिकारी ने कहा – वे आपसे भेंट करेंगे ही  उन्हें कब ले आऊं ? मैंने कहा – कभी भी   तीनेक बजे ले आईये।। दूसरे दिन सबसे पहले जलोटा आये। फिर तीन प्रेस फोटोग्राफर आये। मैं समझा ये लोग।हम लोगों का चित्र लेगें,  फिर पंडित शास्त्री और पंडित त्रिपाठी कमरे में घुसे। मेरे मुँह से निकला……..

“सेवक सदन स्वामि आगमनू

मंगल करन अमंगल हरनू”

शास्त्री ने कहा – नहीं बंधु   बात यों है  “एक घड़ी आधी घड़ी में पुनि आय, तुलसी संगत साधू की हरै कोटि अपराध”

हम बात करने लगे। इतने में वही सरकारी अधिकारी ने जाने कहां से एक थाली लेकर मेरे पीछे से प्रवेश कर गए  थाली में नारियल, हल्दी, कुमकुम  अक्षत और रामचरित मानस की पोथी थी। पुष्पमाला भी थी। मैं समझा कि विष्णुकांत शास्त्री का सम्मान होना है, मैंने कहा  बहुत उचित है   शास्त्री कब कब कलकत्ता से आते हैं उनका सम्मान करना चाहिए। शास्त्री जी बोले – नहीं महराज,  आपका सम्मान है ।

वे लोग चकित रह गए जब मैंने उसी क्षण अपना सिर टीका करने के लिए आगे बढ़ा दिया  वे आशा कर रहे थे कि मैं संकोच बताऊंगा, मना करूंगा  मैंने टीका करा लिया, माला पहिन ली नारियल और पोथी ले ली।

दूसरे दिन अखबारों में छपा – तुलसी अकादमी वाले दोपहर को परसाई जी के घर में घुस गए और उनका सम्मान कर डाला…….

ऐसी बलात्कार की खबरें छपती हैं। इक्कीस तारीख की शाम को (बर्थडे ईन) एक समारोह मेरी अनुपस्थिति में हो गया। भाषण, चित्र, प्रदर्शनी, नाटक।

दूसरे दिन जन्मदिन की सुबह थी। मैं सोकर उठा ही था कि पडोस में रहने वाले एक मित्र दम्पति आ गये, मुझे गुलदस्ता भेंट किया और एक लिफाफा दिया। बोले – हैप्पी बर्थडे। मेनी हैप्पी रिटर्न। मैंने सुना है कि मातमपुरसी करने गए एक सज्जन के मुंह से निकल पड़ा था – – मेनी हैप्पी रिटर्न। कम अग्रेजी जानने से यही होता है। एक नीम इंग्लिश भारतीय की पत्नी अस्पताल में भर्ती थी, उनको एंग्लो इंडियन पडोसिन ने पूछा – मिस्टर वर्मा हाऊ इज योर वाइफ ? वर्मा ने कहा – आन्टी, समथिंग इज बैटर दैन नथिंग…….. गुलदस्ता मैंने टेबिल पर रख दिया। उसके बगल में लिफाफा रख दिया। खोला नहीं…. समझा शुभकामना का कार्ड होगा। पर मैंने लक्ष्य किया कि दम्पति का मन बातचीत में नहीं लग रहा था। वे चाहते थे कि मैं लिफाफा खोलें। और मैंने खोला उसमें से एक हजार एक रूपये के नोट निकले। “इसकी क्या जरूरत है” जैसे फालतू वाक्य बोले बिना रूपये रख लिए।  सोचा – इसी को “गुड मॉर्निंग” कहते हैं  आगे सोचा कि अगले जन्मदिन पर अखबार में निवेदन प्रकाशित करवा दूंगा कि भेंट में सिर्फ रूपये लाएं। पुनर्विचार किया…… ऐसा नहीं छपवाऊंगा। हो सकता है कोई नहीं आये। अरे उपहारों का ऐसा होता है कि आपने जो टैबिल लैम्प किसी को शादी में दिया है वही घूमता हुआ किसी शादी में आपके पास लौट आता है।

रात तक मित्र शुभचिंतक, अशुभचिंतक आते रहे रहे। कुछ लोग घर में बैठकर गाली बकते रहे कि साला, अभी भी जिंदा है। क्या कर लिया एक साल और जी लिए, कौन सा पराक्रम कर दिया। नहीं वक्त ऐसा हो गया है कि एक दिन भी जी लेना पराक्रम है। मेरे एक मित्र ने रिटायर होने के दस साल पहले अपनी तीन लड़कियों की शादी कर डाली  मैंने कहा – तुम दुनिया के प्रसिद्ध पराक्रमी में से एक हो।  भीम तो वीर थे…. महा पराक्रमी थे पर उन्हें तीन लड़कियों की शादी करनी पड़ती तो चूहे हो जाते। जिजीविषा विकट शक्ति होती है। लोग खुशी से भी जीते हैं और रोते हुए भी जीते हैं। प्रसिद्ध इंजीनियर “भारत रत्न” डॉ विश्वैसरैया सौ साल से ज्यादा जिए उनके 100 वें जन्मदिन पर पत्रकार ने उनसे बातचीत के बाद कहा – अगले जन्मदिन पर आपसे मिलने की आशा करता हूं। विश्वैसरैया ने जबाब दिया – क्यों नहीं मेरे युवा मित्र… तुम बिल्कुल स्वास्थ्य हो। यह उत्साह से जीना कहलाता है और और तो और वे बुढऊ भी जीते हैं जिनकी बहुएं उन्हें सुनाकर कहती हैं – – – भगवान् अब इनकी सुन क्यों नहीं लेता? जिंदगी के रोग का और मोह का कोई इलाज नहीं। मृत्यु भय आदमी को बचाने के लिए तरह तरह की बातें कहीं जातीं हैं  कहते हैं शरीर मरता है आत्मा तो अमर है व्यास ने कृष्ण से कहलाया – – – जैसे आदमी पुराने वस्त्र त्याग कर नये ग्रहण करता है वैसे ही आत्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है मगर ऐसी सूक्ष्म आत्मा को क्या चाटें? ऐसी आत्मा न खा-पी सकती है, न भोग कर सकती है, न फिल्म दैख सकती है। नहीं, मस्तिष्क का काम बंद होते ही चेतना खत्म हो जाती है मगर………

“हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,,

दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है,”

गालिब के मन में पर मौत छाई रहती थी। कई शेरों में मौत है पता नहीं ऐसा क्यों है शायद दुखों के कारण हो,

गमें हस्ती का असद क्या हो जुजमुर्ग इलाज,

शमां हर रंग में जलती है सहर होने तक,

कैदेहयात बंदे गम असल में दोनों एक हैं,

मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों,

रवीन्द्र नाथ ने भी लिखा था_

मीत मेरे दो बिदा मैं जा रहा हूँ

सभी के चरणों में नमन् मैं जा रहा हूँ,

और कबीर दास ने शान्ति से कहा था…..

यह चादर सुर नर – मुनि ओढ़ी मूरख मैली कीन्ही,

दास कबीर जतन से ओढ़ी जस की तस धर दीन्ही,

इन सबके बावजूद जीवन की जय बोली जाती रहेगी।

 

हरिशंकर परसाई 

प्रस्तुति – जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 10 ☆ रेल्वे फाटक के उस पार ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “रेल्वे फाटक के उस पार ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 10 ☆ 

 

 ☆ रेल्वे फाटक के उस पार ☆

 

मेरा घर और दफ्तर ज्यादा दूर नहीं है, पर दफ्तर रेल्वे फाटक के उस पार है. मैं देश को एकता के सूत्र में जोड़ने वाली, लौह पथ गामिनी के गमनागमन का सुदीर्घ समय से साक्षी हूँ. मेरा मानना है कि पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक देश को जोड़े रखने में, समानता व एकता के सूत्र स्थापित करने मे, भारतीय रेल, बिजली के नेशनल ग्रिड और टीवी सीरीयल्स के माध्यम से एकता कपूर ने बराबरी की भागीदारी की है.

राष्ट्रीय एकता के इस दार्शनिक मूल्यांकन में सड़क की भूमिका भी महत्वपूर्ण है, पर चूँकि रेल्वे फाटक सड़क को दो भागों में बाँट देता है, जैसे भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर हो, अतः चाहकर भी सड़क को देश की एकता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता. इधर जब से हमारी रेल ने बिहार का नेतृत्व गृहण किया है, वह दिन दूनी रात चौगिनी रफ्तार से बढ़ रही है. ढ़ेरों माल वाहक, व अनेकानेक यात्री गाड़ियां लगातार अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हैं, और हजारों रेल्वे फाटक रेल के आगमन की सूचना के साथ बंद होकर, उसके सुरक्षित फाटक पार हो जाने तक बंद बने रहने के लिये विवश हैं.

मेरे घर और दफ्तर के बीच की सड़क पर लगा रेलवे फाटक भी इन्हीँ में से एक है, जो चौबीस घंटों में पचासों बार खुलता बंद होता है. प्रायः आते जाते मुझे भी इस फाटक पर विराम लेना पड़ता है. आपको भी जिंदगी में किसी न किसी ऐसे अवरोध पर कभी न कभी रुकना ही पड़ा होगा जिसके खुलने की चाबी किसी दूसरे के हाथों में होती है, और वह भी उसे तब ही खोल सकता है जब आसन्न ट्रेन निर्विघ्न निकल जाये.

खैर ! ज्यादा दार्शनिक होने की आवश्यकता नहीं है, सबके अपने अपने लक्ष्य हैं और सब अपनी अपनी गति से उसे पाने बढ़े जा रहे हैं अतः खुद अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिये फाटक के उस पार तभी जाना चाहिये, जब फाटक खुला हो. पर उनका क्या किया जावे जो शार्ट कट अपनाने के आदि हैं, और बंद फाटक के नीचे से बुचक कर,वह भी अपने स्कूटर या साइकिल सहित,निकल जाने को गलत नहीं मानते.नियमित रूप से फाटक के उपयोगकर्ता जानते हैं कि अभी किस ट्रेन के लिये फाटक बंद है,और अब फिर कितनी देर में बंद होगा. अक्सर रेल निकलने के इंतजार में खड़े बतियाते लोग कौन सी ट्रेन आज कितनी लेट या राइट टाइम है, पर चर्चा करते हैं. कोई भिखारिन इन रुके लोगों की दया पर जी लेती है, तो कोई फुटकर सामान बेचने वाला विक्रेता यहीं अपने जीवन निर्वाह के लायक कमा लेता है.

जैसे ही ट्रेन गुजरती है, फाटक के चौकीदार के एक ओर के गेट का लाक खोलने की प्रक्रिया के चलते, दोनो ओर से लोग अपने अपने वाहन स्टार्ट कर, रेडी, गेट, सेट, गो वाले अंदाज में तैयार हो जाते हैं. जैसे ही गेट उठना शुरू होता है, धैर्य का पारावार समाप्त हो जाता है. दोनो ओर से लोग इस तेजी से घुस आते हैं मानो युद्ध की दुदंभी बजते ही दो सेनायें रण क्षेत्र में बढ़ आयीं हों. इससे प्रायः दोनो फाटकों के बीच ट्रैफिक जाम हो जाता है ! गाड़ियों से निकला बेतहाशा धुआँ भर जाता है, जैसे कोई बम फूट गया हो ! दोपहिया वाहनों पर बैठी पिछली सीट की सवारियाँ पैदल क्रासिंग पार कर दूसरे छोर पर खड़ी, अपने साथी के आने का इंतजार करती हैं. धीरे धीरे जब तक ट्रैफिक सामान्य होता है, अगली रेल के लिये सिग्नल हो जाता है और फाटक फिर बंद होने को होता है. फाटक के बंद होने से ठीक पहले जो क्रासिंग पार कर लेता है,वह विजयी भाव से मुस्कराकर आत्म मुग्ध हो जाता है.

फाटक के उठने गिरने का क्रम जारी है.

स्थानीय नेता जी हर चुनाव से पहले फाटक की जगह ओवर ब्रिज का सपना दिखा कर वोट पा जाते हैं. लोकल अखबारों को गाहे बगाहे फाटक पर कोई एक्सीडेंट हो जाये तो सुर्खिया मिल जाती हैं. देर से कार्यालय या घर आने वालों के लिये फाटक एक स्थाई बहाना है. फाटक की चाबियाँ सँभाले चौकीदार अपनी ड्रेस में, लाल, हरी झंडिया लिये हुये पूरा नियँत्रक है, वह रोक सकता है मंत्री जी को भी कुछ समय फाटक के उस पार जाने से.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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