हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 237 ☆ व्यंग्य – बंडू की फौजदारी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय एवं अप्रतिम व्यंग्य – बंडू की फौजदारी। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 237 ☆

☆ व्यंग्य – बंडू की फौजदारी

बंडू ने फिर लफड़ा कर लिया। अपने पड़ोसी महावीर जी की फुरसत से मरम्मत करके भागा भागा फिर रहा है और महावीर जी अपने दो-तीन शुभचिंतकों को लिये, गुस्से में बौराये हुए, हिसाब चुकाने के लिए उसे ढूँढ़ते फिर रहे हैं। फिलहाल बंडू मेरे घर में छिपा बैठा है।

बंडू के साथ मुश्किल यह है कि वह बिलकुल दुनियादार नहीं है। न उसे मुखौटे पहनना आता है, न छद्म करना। जो आदमी उसे पसन्द नहीं आता उसके साथ पाँच मिनट गु़ज़ारना उसे पहाड़ लगता है। मन की बात बिना लाग-लपेट के फट से बोल देता है और सामने वाले को नाराज़ कर देता है। तिकड़म और जोड़-जुगाड़ में लगे होशियार लोगों से उसकी पटरी नहीं बैठती। इसी वजह से तकलीफ भी उठाता है, लेकिन अपनी फितरत से मजबूर है।

दूसरी तरफ उसके पड़ोसी महावीर जी नख से शिख तक दुनियादारी में रसे-बसे हैं। दफ्तर में जिस दिन ऊपरी कमाई नहीं होती उस दिन उन्हें दुनिया बेईमान और बेवफा नज़र आती है। उस दिन वे दिन भर घर में झींकते और भौंकते रहते हैं। जिस दिन जेब में वज़न आ जाता है उस दिन उन्हें दुनिया भरोसे के लायक लगती है। उस दिन वे सब के प्रति स्नेह से उफनते, गुनगुनाते घूमते रहते हैं।

कपड़े-लत्ते के मामले में महावीर जी भारी किफायत बरतते हैं। घर में ज़्यादातर वक्त कपड़े की बंडी और पट्टेदार अंडरवियर में ही रहते हैं। कमीज़ पायजामा पहनने की फिज़ूलखर्ची तभी करते हैं जब घर में कोई ‘सम्माननीय’ मेहमान आ जाता है। अगर मेहमान ‘अर्ध- सम्माननीय’ होता है तो अंडरवियर पर सिर्फ पायजामा चढ़ाकर काम चला लेते हैं, कमीज़ को दुरुपयोग से फिर भी बचा लेते हैं।

इसी किफायतसारी के तहत महावीर जी अखबार नहीं खरीदते। जब पड़ोस में बंडू के घर अखबार आता है तो उन्हें खरीदने की क्या ज़रूरत? सबेरे से अंडरवियर का नाड़ा झुलाते आ जाते हैं और कुर्सी पर पालथी मार कर अखबार लेकर बैठ जाते हैं। सबसे पहले राशिफल पढ़ते हैं। कभी खुश होकर बंडू से कहते हैं, ‘आज लाभ का योग है’, कभी मुँह लटका कर कहते हैं, ‘आज राशिफल गड़बड़ है। देखो क्या होता है।’ राशिफल के बाद बाजार के भाव पढ़ते हैं, फिर दूसरी खबरें। दुर्घटना, हत्या, अन्याय, क्रूरता, सामाजिक उथल-पुथल की खबरों को सरसरी नज़र से देख जाते हैं, फिर मुँह बिचका कर कहते हैं, ‘इन अखबार वालों की नज़र भी कौवों की तरह गन्दी चीज़ों पर ही रहती है।’

फिर नाड़ा झुलाते, गुनगुनाते वापस चले जाते हैं।

बंडू की हालत उल्टी है। वह अखबार को सुर्खियों से पढ़ना शुरू करता है। हत्या और क्रूरता की खबरें उसे विचलित कर देती हैं। नेताओं के भाषणों से उसे एलर्जी है। कहता है, ‘कहीं झूठ और पाखंड का अंतर्राष्ट्रीय मुकाबला हो तो पहले दस पुरस्कार हमसे कोई नहीं ले सकता। ग्यारहवें से ही दूसरे देशों का नंबर लग सकता है।’

बंडू दुखी होकर महावीर जी से कहता है, ‘देखिए तो, बांग्लादेश में कैसी भीषण बाढ़ आयी है। हजारों लोग खत्म हो गये। लाखों बेघर हो गये।’

महावीर जी निर्विकार भाव से कहते हैं, ‘विधि का लिखा को मेटन हारा। जिसकी जब लिखी है सो जाएगा।’

बंडू चिढ़ जाता है। कहता है, ‘इतनी बड़ी दुर्घटना हो गयी और आप उसे कुछ समझ ही नहीं रहे हैं।’

महावीर जी ‘ही ही’ करके हँसते हैं, तोंद में आन्दोलन होता है। कहते हैं, ‘अरे, आप तो ऐसे परेशान हो रहे हो जैसे बांग्लादेश की बाढ़ आपके ही घर में घुस आयी हो।’

कभी बंडू कहता है, ‘देश में बेईमानी और भ्रष्टाचार बहुत बढ़ रहा है। पता नहीं इस देश का क्या होगा।’

महावीर जी सन्त की मुद्रा में जवाब देते हैं, ‘सब अच्छा होगा। भ्रष्टाचार होने से काम जल्दी और अच्छा होता है, नहीं तो आज के जमाने में कौन दिलचस्पी लेता है। और फिर बेईमानी और भ्रष्टाचार कौन आज के हैं। हमेशा से यही होता आया है। अब हमेंइ देखो, दो पैसे ऊपर लेते हैं लेकिन काम एकदम चौकस करते हैं। मजाल है कोई शिकायत कर जाए।’

बंडू भुन्ना जाता है।

कभी बंडू चिन्ताग्रस्त होकर कहता है, ‘रोजगार की समस्या बड़ी कठिन हो रही है।’

महावीर जी हँसकर कहते हैं, ‘भैया आप बड़े भोले हो। बेरोजगारी की समस्या बेवकूफों के लिए है। अब हमें देखो। हमारे बेटों को नौकरी की क्या जरूरत? एक को दुकान खुलवा देंगे, दूसरे से ठेकेदारी करवाएँगे, तीसरे को एक दो ट्रक खरीद देंगे। चार पैसे खुद खाओ, चार ऊपर वालों को खिलाओ। खुश रहोगे। हम तो नौकरी करके पछताये। दो-तीन साल में रिटायरमेंट लेकर धंधा करेंगे और चैन से रहेंगे।’

महावीर जी अक्सर तरह-तरह के धंधों के प्रस्ताव लेकर बंडू के पास आते रहते हैं। कभी कहते हैं, ‘पाँच दस हजार की अलसी भर लो। अच्छा मुनाफा मिल जाएगा।’ कभी कहते हैं, ‘सरसों भर लो। चाँदी काटोगे।’ बंडू को इन बातों से चिढ़ होती है। गुस्सा बढ़ता है तो तीखे स्वर में कहता है, ‘आप ही यह भरने और खाली करने का धंधा कीजिए। इस मुनाफाखोरी में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है।’

बंडू के गुस्से को महावीर जी उसकी नादानी समझते हैं। वे फिर भी बंडू का ‘भला’ करने की नीयत से नये-नये प्रस्ताव लेकर आते रहते हैं। कभी कहते हैं, ‘चलो सहकारी दुकान से एक बोरा शक्कर दिलवा देते हैं। मुनाफे पर बेच लेना।’ और बंडू उन्हें दरवाजा दिखाता रहता है।

पश्चिमी सेनाओं और इराक के बीच युद्ध के समय एक दिन जब महावीर जी अखबार पढ़ने पधारे तब बंडू सिर पकड़े बैठा था। महावीर जी सहानुभूति से बोले, ‘क्या बात है भाई? तबियत खराब है क्या?’

बंडू बोला, ‘तबियत खराब नहीं है। जरा अखबार पढ़ो। अमेरिका के मिसाइल ने बंकर को तोड़कर तीन चार सौ स्त्रियों बच्चों को माँस के लोथड़ों में बदल दिया।’

महावीर जी ताली पीट कर हँसे, बोले, ‘वह खबर तो हमने रात को टीवी पर सुन ली थी। भई, हम तो अमरीका की तारीफ करते हैं कि क्या मिसाइल बनाया कि इतने मोटे कंक्रीट को तोड़कर बंकर के भीतर घुस गया। कमाल कर दिया भई।’

बंडू बोला, ‘और जो तीन चार सौ निर्दोष स्त्री बच्चे मरे सो?’

महावीर जी बाँह पर बैठे मच्छर को स्वर्गलोक भेजते हुए बोले, ‘अरे यार, लड़ाई में तो ये सब मामूली बातें हैं। लड़ाई में आदमी नहीं मरेंगे तो क्या घोड़े हाथी मरेंगे?’

फिर कहते हैं, ‘लेकिन ब्रदर, पहली बार लड़ाई का मजा आया। टीवी पर बमबारी क्या मजा देती है! बिल्कुल आतिशबाजी का आनन्द आता है।’

लड़ाई की नौबत जिस दिन आयी उसके एक दिन पहले से ही बंडू महावीर जी से जला-भुना बैठा था। एक दिन पहले वे बंडू को गर्व से बता चुके थे कि कैसे दफ्तर में एक देहाती का काम करने के लिए उन्होंने उसकी जेब का एक-एक पैसा झटक लिया था। उन्होंने गर्व से कहा था, ‘साला एक पचास रुपये का नोट दबाये ले रहा था, लेकिन अपनी नजर से पैसा बच जाए यह नामुमकिन है। साले को एकदम नंगा कर दिया।’

तब से ही बंडू का दिमाग खराब था। बार-बार महावीर जी की वह हरकत उसके दिमाग में घूमती थी और उसका माथा खौल जाता था।

दुर्भाग्य से दूसरे दिन महावीर जी फिर आ टपके। प्रसन्नता से दाँत निकाल कर बोले, ‘बंधु, मुनाफा कमाने का बढ़िया मौका है। निराश्रित लड़कों के हॉस्टल के लिए खाने की चीजें सप्लाई करने का ठेका मिल रहा है।’

बंडू गुस्से में भरा बैठा था। उसने कोई जवाब नहीं दिया।

महावीर जी अपनी धुन में बोलते रहे, ‘मैंने सब मामला ‘सेट’ कर लिया है। जैसा भी माल सप्लाई करेंगे सब चल जाएगा। थोड़ा वहाँ के अफसरों को खिलाना पड़ेगा, बाकी हमारा। चालीस पचास परसेंट तक मुनाफा हो सकता है।’

और बंडू किचकिचा कर महावीर जी पर चढ़ बैठा। महावीर जी इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबराकर चित्त हो गये। बंडू ने उन्हें कितने लात- घूँसे मारे यह उसे खुद भी नहीं मालूम। महावीर जी का आर्तनाद सुनकर लोग दौड़े और बंडू को अलग किया। महावीर जी उस वक्त तक हाथ-पाँव हिलाने लायक भी नहीं रह गये थे।

बस तभी से बंडू मेरे घर में छिपा बैठा है और महावीर जी अपने पहलवानों के साथ उसे हिसाब चुकाने के लिए ढूँढ़ते फिर रहे हैं।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 1 – जूँ पुराण ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

परिचय 

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

जन्म विवरणः 28 जनवरी, 1981  – वाराणसी, उ.प्र.

शिक्षा :एम. ए. हिंदी (स्वर्ण पदक)  एम. ए. अंग्रेजी (स्वर्ण पदक)  एम. ए. शिक्षा  (डिस्टिंक्शन)  हिंदी शिक्षक प्रशिक्षण, आई.ए.एस.ई., हैदराबाद (स्वर्ण पदक)  स्नातकोत्तर अनुवाद डिप्लोमा (स्वर्ण पदक) केंद्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद  राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) उत्तीर्ण  एडवांस डिप्लोमा इन डेस्कटॉप पब्लिशिंग कोर्स (स्वर्ण पदक) एपी कंप्यूटर इंस्टीट्यूट – मानव संसाधन विकास मंत्रालय  पोस्ट.एम.ए. अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान डिप्लोमा – कें.हिं.सं. दिल्ली (स्वर्ण पदक)  आईसीटी प्रशिक्षण, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस, मुंबई से उत्तीर्ण (डिस्टिंक्शन)  अशोक वाजपेयी के काव्य में आधुनिकता बोध विषय पर पीएच.डी. उत्तीर्ण उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद

प्रसिद्धीः

  • प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्यकार व कवि के रूप में
  • हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल की पुस्तक के प्रथम ऑनलाइन संपादक के रूप में
  • तेलंगाना सरकार की पाठशाला, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय स्तर की कुल 55 पुस्तकों में बतौर लेखक, संपादक तथा समन्वयक के रूप में
  • जमैका, त्रिनिदाद, सूरीनाम, मॉरीशस और सिंगापुर के लिए हिंदी पाठ्यपुस्तकों का लेखन

प्रकाशनः    

  • तेलंगाना गांधी के.सी.आर (कवि- कविता संग्रह)
  • सरल, सुगम, संक्षिप्त व्याकरण (लेखक – व्याकरण पुस्तक)
  • एक तिनका इक्यावन आँखें (लेखक – व्यंग्य संग्रह)
  • हिंदी भाषा के विविध आयामः वैश्विक परिदृश्य (संपादन)
  • हिंदी भाषा साहित्य के विविध आयाम (संपादन)
  • हिंदी साहित्य और संस्कृति के विविध आयाम (संपादन)
  • आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहासः आचार्य रामचंद्र शुक्ल (ऑनलाइन संपादन)
  • सबरंग में मेरे रंग (लेखक – पंजाब केसरी में प्रकाशित व्यंग्य माला)
  • सदाबहार पांडेयजी (सुपरिचित व्यंग्यकार लालित्य ललित के व्यंग्य संग्रह – संपादन)
  • दक्षिण भारत में प्राथमिक स्तर की हिंदी पाठ्यपुस्तकों का एक गहन अध्ययन (संपादन)
  • शिक्षा के केंद्र में बच्चे (लेखन)
  • एनसीईआरटी श्राव्य आलेख (लेखन – एनसीईआरटी की ऑडियो-पुस्तक)
  • नन्हों का सृजन आसमान (लेखन – बाल साहित्य की पुस्तक)
  • म्यान एक तलवार अनेक (लेखक – व्यंग्य संग्रह)
  • इधर-उधर के बीच में (लेखक – व्यंग्य उपन्यास)

व्यंग्यकार : शिक्षक की मौत शीर्षकीय व्यंग्य से अब तक के सबसे ज्यादा पढ़े, देखे और सुने गए व्यंग्यकार के रूप में कीर्तिमान स्थापित किया है। आज तक समाचार चैनल में मात्र चार दिनों के भीतर इस व्यंग्य को पाँच लाख श्रोताओं-पाठकों का प्रेम मिला है, जो अब तक के किसी भी व्यंग्यकार से अधिक पढ़ा और सुना गया है।

देश विदेश के प्रसिद्ध समाचार पत्रों (बीबीसी, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी, जनसत्ता, हिंदुस्तान, अमर उजाला, के साथ-साथ देश-विदेश के अनेकों समाचार पत्रो में अब तक एक हजार व्यंग्य प्रकाशित

ऑनलाइन संप्रतिः   

  • विश्व हिंदी सचिवालय (भारत और मॉरीशस सरकार के अधीन कार्य करने वाली हिंदी की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकारी संस्था) – http://www.vishwahindidb.com/show_scholar.aspx?id=695
  • भारतदर्शन – https://bharatdarshan.co.nz/author-profile/240/dr-suresh-kumar-mishra.html
  • साहित्य कुंज – https://m.sahityakunj.net/lekhak/suresh-kumar-mishra-urtript
  • कविताकोश – kavitakosh.org/kk/सुरेश_कुमार_मिश्रा%27उरतृप्त%27
  • गद्यकोश – gadyakosh.org/kk/सुरेश_कुमार_मिश्रा%27उरतृप्त%27
  • विकिपीडिया – https://hi.wikipedia.org/s/24vq
  • विकिपुस्तक – https://hi.wikibooks.org/wiki/हिंदी साहित्य का विधागत इतिहास/हिन्दी व्यंग्य का इतिहास
  • कविताशाला – https://kavishala.com/nayaSahitya/do-suresa-kumara-misra-uratrpta/kitabom-ki-antima-yatra

पुरस्कार व सम्मानः 

  • स्वर्ण जन्मभूमि पुरस्कार (मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायुडु) – 2002
  • राज्य स्तरीय श्रेष्ठ पाठ्यपुस्तक लेखक पुरस्कार – 2013 (आंध्र प्रदेश, भारत, मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी)
  • राज्य स्तरीय श्रेष्ठ पाठ्यपुस्तक लेखक, संपादक व समन्वयक पुरस्कार – 2014 (तेलंगाना, भारत, मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव)
  • राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार (म. ते. संगठन, भारत सरकार) – 2015
  • तेलंगाना गांधी के.सी.आर. काव्य ग्रंथ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार (केरल सरकार) – 2015
  • राष्ट्रीय दलित साहित्य पुरस्कार (केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान) – 2016
  • विश्व हिंदी अकादमी का श्रेष्ठ लेखक पुरस्कार (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से)– 2020
  • प्रभासाक्षी का राष्ट्रीय हिंदी सेवा सम्मान (पूर्व स्पीकर नज्मा हेफ्तुल्ला के करकमलों से) – 2020
  • इंडियन बेस्टीज़ अवार्ड-2021 सम्मान, (राजस्थान के परिवहन मंत्री श्री प्रताप खचारवसिया के करकमलों से) एनआरबी फाउंडेशन, जयपुर
  • हिंदी अकादमी, मुंबई द्वारा नवयुवा रचनाकार सम्मान, (महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशयारी के करकमलों से) 2021
  • तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से)
  • व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान, 2021 – (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से)
  • साहित्य सृजन सम्मान-2020 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से

ई-अभिव्यक्ति में डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी का स्वागत। आज से आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी प्रथम व्यंग्य रचना जूँ पुराण)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 1 – जूँ पुराणडॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

जूँ पुराण आरंभ करने से पहले दुनिया के समस्त जुँओं को मैं प्रणाम करता हूँ। मुझे नहीं लगता कि लेख समाप्त होने-होने तक वे मुझे बख्शेंगे। आज मैं उनसे जुड़े कई रहस्य की परतें खोलने वाला हूँ। जैसा कि सभी जानते हैं कि हम सब समाज पर निर्भर प्राणी हैं। हम जितना दुनिया के संसाधनों का हरण करते हैं, शायद ही कोई करता हो। किंतु इस मामले में जुँओं की दाद देनी पड़ेगी। वे हमसे भी ज्यादा पराश्रित हैं। जिस तरह हमारे लिए हमारा सिर महत्वपूर्ण होता है, ठीक उसी तरह हमारा सिर जुँओं के लिए जरूरी होता है। वे हमेशा हमारे साथ रहते हैं। हमारा साथ नहीं छोड़ते। सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते, खेलते-कूदते, पढ़ते-लिखते, सिनेमा देखते चाहे जहाँ चले जाएँ हम, वे हमें बख्शने वाले नहीं हैं। जुँओं को हमारे वैध-अवैध संबंध, शराब-सिगरेट की लत, पसंद-नापसंद जैसी सारी बातें पता होती हैं। यदि उन्हें खुफिया एजेंसी में नौकरी मिल जाए तो कइयों की जिंदगी पल में तबाह कर सकते हैं। इसीलिए ‘ये दोस्ती हम नहीं तोडेंगे, तोडेंगे दम मगर तेरा साथ न छोड़ेंगे’ की तर्ज पर हमारे साथ चिपके रहते हैं। वे इतने बेशर्म, बेहया, बेगैरत होते हैं कि हम उन्हें जितना भगाने की कोशिश करेंगे वे उतना ही हमसे चिपके रहने का प्रयास करेंगे। बड़े ही ‘चिपकू’ किस्म के होते हैं।

जूँ बड़े आदर्शवान होते हैं। उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। वे बड़े मेहनती होते हैं। वे हमारी तरह ईर्ष्यालु अथवा झगड़ालु नहीं होते। वे अत्यंत मिलनसार तथा भाई-चारा का संदेश देने वाले महान प्राणी होते हैं। इस सृष्टि की रचना के आरंभ से उनका और हमारा साथ फेविक्विक से भी ज्यादा मजबूत है। वे जिनके भी सिर को अपना आशियाना बना लेते हैं, उसे मंदिर की तरह पूजते हैं। ‘तुम ही मेरे मंदिर, तुम ही मेरी पूजा, तुम ही देवता हो’ की तर्ज पर हमारी खोपड़ी की पूजा तन-मन से करते हैं। जुँएँ बाहुबली की तरह शक्तिशाली होते हैं। उनकी पकड़ अद्वितीय है। उनकी चाल-ढाल और गतिशीलता बिजली की भांति तेज होती है। हम तो उनके सामने फेल हैं। पलक झपकते ही सिर में ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे उनके पंख लगे हों। वे बड़े संघर्षशील तथा अस्तित्वप्रिय होते हैं। वे हमारी तरह डरपोक नहीं होते। बड़ी-बड़ी मुसीबतों का सामना हँसते-हँसते करते हैं। वे धूप, बरसात, आंधी, बाढ़ सबका सामना ‘खड़ा हिमालय बता रहा है, डरो न आंधी पानी में, खड़े रहो तुम अविचल होकर, सब संकट तूफानी में’ की तर्ज पर करते हैं। किसी की मजाल जो उन्हें भगा दें। जब तक उनके बारे में खोपड़ी वाले को पता न चले, तब तक वे बाहर नहीं निकलते। बेचारे अपने सभी काम उस छोटी सी खोपड़ी पर करते हैं। कभी जगह की कमी की शिकायत नहीं करते। जो मिला उसे भगवान की देन मानकर उसी में अपना सब कुछ लगा देते हैं। स्थान और समय प्रबंधन के महागुरु हैं। हमारे नहाने के साथ वे नहा लेते हैं। त्यौहार का दिन हो तो उनका जीना मुश्किल हो जाता है। उस दिन शैंपू, हेयर क्लीनर के नाम पर न जाने कितने रासायनिक पदार्थों का सामना करते हैं। फिर भी जुँएँ संघर्ष का परचम फहराने से नहीं चूकते। ये सब तो उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है। उनकी शामत तो सिर पर तौलिया रगड़ने से आती है। जैसे-तैसे प्राण बचाने में सफल हो जाते हैं। हेयर ड्रायर की जोरदार गर्म हवा से इनके शरीर का तापमान गरमा जाता है और अपनों से बिछुड़ जाते हैं। फिर भी अपने आत्मविश्वास में रत्ती भर का फर्क नहीं आने देते। आए दिन उन पर खुजलाने के नाम पर, कंघी के नाम पर हमले होते ही रहते हैं। सबका डटकर सामना करते हैं। यदि वे हमारे हत्थे चढ़ भी जाते हैं, तो नाखूनों की वेदी पर हँसते-हँसते ‘कर चले हम फिदा जानो-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले ये ‘सिर’ साथियों’ की तर्ज पर प्राण त्याग देते हैं।

वैसे जुँओं से नुकसान ही क्या है? केवल खुजली ही तो पैदा करते हैं। इस एक अपराध को छोड़ दें तो वे बड़े भोले-भाले होते हैं। वे इतने शांतप्रिय होते हैं कि उनके होने का आभास भी नहीं होता। उनके इसी गुण के कारण ‘कान पर जूँ न रेंगना’ मुहावरे की उत्पत्ति हुई है। वे हमारा थोड़ा-सा खून ही तो पीते हैं। भ्रष्टाचार, धांधली, धोखाधड़ी, लूटखोरी, कालाबाजारी के नाम पर चूसे जाने वाले खून की तुलना में यह बहुत कम है। जुँएँ अपने स्वास्थ्य व रूप से बड़े आकर्षक होते हैं। हम खाने को तो बहुत कुछ खा लेते हैं और तोंद निकलने पर व्यायाम करने से कतराते हैं। इस मामले में जुँएँ बड़े चुस्त-दुरुस्त और स्लिम होते हैं। वास्कोडिगामा ने भारत की खोज क्या कर दी उसकी तारीफ के पुल बाँधते हम नहीं थकते। जबकि जुँएँ एक सिर से दूसरे सिर, दूसरे सिर से तीसरे और न जाने कितने सिरों की खोज कर लेते हैं। वे वास्कोडिगामा जैसे यात्रियों को यूँ मात देते दिखायी देते हैं। वे तो ऐसे उड़न छू हो जाते हैं जैसे सरकार ने गब्बर पर नहीं इन पर इनाम रखा हो।

सरकार नौकरी दे या न दे, किंतु जुँएँ कइयों को रोजगार देते हैं। इन्हें मारने के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियाँ टी.वी., समाचार पत्रों, सामाजिक माध्यमों में आए दिन प्रचार-प्रसार करते रहते हैं। इनके नाम पर करोड़ों-अरबों रुपयों का तेल, शैंपू, साबून, रासायनिक पदार्थ, हेयर ड्रायर लुभावने ढंग से बेचे जाते हैं। यदि उनकी उपस्थिति न हो तो कई कंपनियाँ रातोंरात बंद हो जाएँगी, सेंसेक्स मुँह के बल गिर जाएगा और हम नौकरी गंवाकर बीवी-बच्चों के साथ दर-दर की ठोकर खाते नजर आएँगे। उनकी बदौलत कई परिवार रोटी, कपड़ा और मकान का इंतजाम कर पाते हैं। इसलिए हमें उनके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए।

हमने अपने अस्तित्व के लिए पर्यावरण की हत्या की। आज भी बदस्तूर जारी है। असंख्य प्राणियों की विलुप्तता का कारण बने। हमारे जैसा स्वार्थी प्राणी शायद ही दुनिया में कोई हो। इतना होने पर भी सृष्टि के आरंभ से लेकर अब तक जुँएँ ‘अभी मैं जिंदा हूँ’ की तर्ज पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हुए हैं। उनकी संघर्ष भावना के सामने नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकते। कई बातों में वे हमसे श्रेष्ठ हैं। वे बड़े निस्वार्थ तथा अपनी कौम के लिए हँसते-हँसते जान गंवाने के लिए तैयार रहते हैं। वे हमारी तरह जात-पात, लिंग, धर्म, भाषा के नाम पर बिल्कुल नहीं लड़ते। उनके लिए ‘जूँ’ बने रहना बड़े गर्व की बात होती है और एक हम हैं जो इंसान छोड़कर सब बनने के लिए लड़ते-झगड़ते रहते हैं। उनके गुणों की प्रशंसा की जाए तो कागज और स्याही की कमी पड़ जाएगी। इसलिए उनसे बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। विशेषकर उनके ‘जूँ’ बने रहने की तर्ज पर हमारा ‘इंसान’ बने रहने की सीख।जूँ पुराण आरंभ करने से पहले दुनिया के समस्त जुँओं को मैं प्रणाम करता हूँ। मुझे नहीं लगता कि लेख समाप्त होने-होने तक वे मुझे बख्शेंगे। आज मैं उनसे जुड़े कई रहस्य की परतें खोलने वाला हूँ। जैसा कि सभी जानते हैं कि हम सब समाज पर निर्भर प्राणी हैं। हम जितना दुनिया के संसाधनों का हरण करते हैं, शायद ही कोई करता हो। किंतु इस मामले में जुँओं की दाद देनी पड़ेगी। वे हमसे भी ज्यादा पराश्रित हैं। जिस तरह हमारे लिए हमारा सिर महत्वपूर्ण होता है, ठीक उसी तरह हमारा सिर जुँओं के लिए जरूरी होता है। वे हमेशा हमारे साथ रहते हैं। हमारा साथ नहीं छोड़ते। सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते, खेलते-कूदते, पढ़ते-लिखते, सिनेमा देखते चाहे जहाँ चले जाएँ हम, वे हमें बख्शने वाले नहीं हैं। जुँओं को हमारे वैध-अवैध संबंध, शराब-सिगरेट की लत, पसंद-नापसंद जैसी सारी बातें पता होती हैं। यदि उन्हें खुफिया एजेंसी में नौकरी मिल जाए तो कइयों की जिंदगी पल में तबाह कर सकते हैं। इसीलिए ‘ये दोस्ती हम नहीं तोडेंगे, तोडेंगे दम मगर तेरा साथ न छोड़ेंगे’ की तर्ज पर हमारे साथ चिपके रहते हैं। वे इतने बेशर्म, बेहया, बेगैरत होते हैं कि हम उन्हें जितना भगाने की कोशिश करेंगे वे उतना ही हमसे चिपके रहने का प्रयास करेंगे। बड़े ही ‘चिपकू’ किस्म के होते हैं।

जूँ बड़े आदर्शवान होते हैं। उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। वे बड़े मेहनती होते हैं। वे हमारी तरह ईर्ष्यालु अथवा झगड़ालु नहीं होते। वे अत्यंत मिलनसार तथा भाई-चारा का संदेश देने वाले महान प्राणी होते हैं। इस सृष्टि की रचना के आरंभ से उनका और हमारा साथ फेविक्विक से भी ज्यादा मजबूत है। वे जिनके भी सिर को अपना आशियाना बना लेते हैं, उसे मंदिर की तरह पूजते हैं। ‘तुम ही मेरे मंदिर, तुम ही मेरी पूजा, तुम ही देवता हो’ की तर्ज पर हमारी खोपड़ी की पूजा तन-मन से करते हैं। जुँएँ बाहुबली की तरह शक्तिशाली होते हैं। उनकी पकड़ अद्वितीय है। उनकी चाल-ढाल और गतिशीलता बिजली की भांति तेज होती है। हम तो उनके सामने फेल हैं। पलक झपकते ही सिर में ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे उनके पंख लगे हों। वे बड़े संघर्षशील तथा अस्तित्वप्रिय होते हैं। वे हमारी तरह डरपोक नहीं होते। बड़ी-बड़ी मुसीबतों का सामना हँसते-हँसते करते हैं। वे धूप, बरसात, आंधी, बाढ़ सबका सामना ‘खड़ा हिमालय बता रहा है, डरो न आंधी पानी में, खड़े रहो तुम अविचल होकर, सब संकट तूफानी में’ की तर्ज पर करते हैं। किसी की मजाल जो उन्हें भगा दें। जब तक उनके बारे में खोपड़ी वाले को पता न चले, तब तक वे बाहर नहीं निकलते। बेचारे अपने सभी काम उस छोटी सी खोपड़ी पर करते हैं। कभी जगह की कमी की शिकायत नहीं करते। जो मिला उसे भगवान की देन मानकर उसी में अपना सब कुछ लगा देते हैं। स्थान और समय प्रबंधन के महागुरु हैं। हमारे नहाने के साथ वे नहा लेते हैं। त्यौहार का दिन हो तो उनका जीना मुश्किल हो जाता है। उस दिन शैंपू, हेयर क्लीनर के नाम पर न जाने कितने रासायनिक पदार्थों का सामना करते हैं। फिर भी जुँएँ संघर्ष का परचम फहराने से नहीं चूकते। ये सब तो उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है। उनकी शामत तो सिर पर तौलिया रगड़ने से आती है। जैसे-तैसे प्राण बचाने में सफल हो जाते हैं। हेयर ड्रायर की जोरदार गर्म हवा से इनके शरीर का तापमान गरमा जाता है और अपनों से बिछुड़ जाते हैं। फिर भी अपने आत्मविश्वास में रत्ती भर का फर्क नहीं आने देते। आए दिन उन पर खुजलाने के नाम पर, कंघी के नाम पर हमले होते ही रहते हैं। सबका डटकर सामना करते हैं। यदि वे हमारे हत्थे चढ़ भी जाते हैं, तो नाखूनों की वेदी पर हँसते-हँसते ‘कर चले हम फिदा जानो-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले ये ‘सिर’ साथियों’ की तर्ज पर प्राण त्याग देते हैं।

वैसे जुँओं से नुकसान ही क्या है? केवल खुजली ही तो पैदा करते हैं। इस एक अपराध को छोड़ दें तो वे बड़े भोले-भाले होते हैं। वे इतने शांतप्रिय होते हैं कि उनके होने का आभास भी नहीं होता। उनके इसी गुण के कारण ‘कान पर जूँ न रेंगना’ मुहावरे की उत्पत्ति हुई है। वे हमारा थोड़ा-सा खून ही तो पीते हैं। भ्रष्टाचार, धांधली, धोखाधड़ी, लूटखोरी, कालाबाजारी के नाम पर चूसे जाने वाले खून की तुलना में यह बहुत कम है। जुँएँ अपने स्वास्थ्य व रूप से बड़े आकर्षक होते हैं। हम खाने को तो बहुत कुछ खा लेते हैं और तोंद निकलने पर व्यायाम करने से कतराते हैं। इस मामले में जुँएँ बड़े चुस्त-दुरुस्त और स्लिम होते हैं। वास्कोडिगामा ने भारत की खोज क्या कर दी उसकी तारीफ के पुल बाँधते हम नहीं थकते। जबकि जुँएँ एक सिर से दूसरे सिर, दूसरे सिर से तीसरे और न जाने कितने सिरों की खोज कर लेते हैं। वे वास्कोडिगामा जैसे यात्रियों को यूँ मात देते दिखायी देते हैं। वे तो ऐसे उड़न छू हो जाते हैं जैसे सरकार ने गब्बर पर नहीं इन पर इनाम रखा हो।

सरकार नौकरी दे या न दे, किंतु जुँएँ कइयों को रोजगार देते हैं। इन्हें मारने के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियाँ टी.वी., समाचार पत्रों, सामाजिक माध्यमों में आए दिन प्रचार-प्रसार करते रहते हैं। इनके नाम पर करोड़ों-अरबों रुपयों का तेल, शैंपू, साबून, रासायनिक पदार्थ, हेयर ड्रायर लुभावने ढंग से बेचे जाते हैं। यदि उनकी उपस्थिति न हो तो कई कंपनियाँ रातोंरात बंद हो जाएँगी, सेंसेक्स मुँह के बल गिर जाएगा और हम नौकरी गंवाकर बीवी-बच्चों के साथ दर-दर की ठोकर खाते नजर आएँगे। उनकी बदौलत कई परिवार रोटी, कपड़ा और मकान का इंतजाम कर पाते हैं। इसलिए हमें उनके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए।

हमने अपने अस्तित्व के लिए पर्यावरण की हत्या की। आज भी बदस्तूर जारी है। असंख्य प्राणियों की विलुप्तता का कारण बने। हमारे जैसा स्वार्थी प्राणी शायद ही दुनिया में कोई हो। इतना होने पर भी सृष्टि के आरंभ से लेकर अब तक जुँएँ ‘अभी मैं जिंदा हूँ’ की तर्ज पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हुए हैं। उनकी संघर्ष भावना के सामने नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकते। कई बातों में वे हमसे श्रेष्ठ हैं। वे बड़े निस्वार्थ तथा अपनी कौम के लिए हँसते-हँसते जान गंवाने के लिए तैयार रहते हैं। वे हमारी तरह जात-पात, लिंग, धर्म, भाषा के नाम पर बिल्कुल नहीं लड़ते। उनके लिए ‘जूँ’ बने रहना बड़े गर्व की बात होती है और एक हम हैं जो इंसान छोड़कर सब बनने के लिए लड़ते-झगड़ते रहते हैं। उनके गुणों की प्रशंसा की जाए तो कागज और स्याही की कमी पड़ जाएगी। इसलिए उनसे बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। विशेषकर उनके ‘जूँ’ बने रहने की तर्ज पर हमारा ‘इंसान’ बने रहने की सीख।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 39 ☆ व्यंग्य – “जलते अनारों के बीच परिणय पथ पर गुजरते हुए…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  जलते अनारों के बीच परिणय पथ पर गुजरते हुए…”।) 

☆ शेष कुशल # 39 ☆

☆ व्यंग्य – “जलते अनारों के बीच परिणय पथ पर गुजरते हुए…” – शांतिलाल जैन 

“परिणयाकांक्षी युगल की मंच पर एंट्री रुकी हुई है. कारण, कि गफूरमियाँ कहीं चले गए हैं.” – मैंने दादू को बताया.

अनार में आग तो वही लगाएँगे. अनार जले तो वर-वधू आगे चलें.  स्टेज की दिशा में प्रशस्त, कालीन बिछे, परिणय पथ पर कोरिओग्राफ्ड तरीके से आगे बढ़ने के लिए युगल तैयार खड़ा है. दुल्हे ने ज़रदोज़ी के कामवाली शेरवानी पहनी है तो दुल्हन ने पेस्टल लहंगा. कलरफुल स्मोक उगलने वाली मटकियाँ दोनों किनारों पर लगी हैं. अनार फिट कर दिए गए हैं. ‘दिन शगना दा चढेया,  आओ सखियो..’   एंट्री सोंग बज रहा है. फोटोग्राफर, वीडिओग्राफर बार बार कैमरे के लेंस और एंगल सेट कर रहे हैं. छत से गुलाब की पंखुरियों को वैसे ही बरसाया जाना है जैसा आपने धार्मिक टीवी सीरियलों में देवताओं को आकाश से बरसाते हुए देखा होगा. नभ में विचरण करनेवाली परियों की ट्रू-कापियाँ वर-वधू के साथ-साथ पंखा झलते हुए चलेंगी. इन पंखों से हवा कितनी आएगी पता नहीं. आएगी भी कि नहीं कह नहीं सकते. मगर, फूटते बेलून और उड़ते गुब्बारों के बीच जब चलेंगे संग-संग मोहल्ले के अनंत अम्बानी – राधिका चौपड़ा तो उधर के आड़ी का बॉलीवुड बगलें झाँकने लगेगा. सेल्युलाईड के दृश्यों में परीकथा का तड़का लगाकार ब्राईडल एंट्री का यूनिक सीन क्रिएट किया हुआ है. देरी इसलिए हो रही है कि अनार जलानेवाले गफूरमियाँ एन वक्त पर कहीं चले गए हैं. अब अनार जले तो वर-वधू आगे चलें.  

इस बीच दादू अधीर हो रहा था, जल्दी निकलना चाहता था. मंच के बाईं तरफ बड़ी संख्या में और भी मेहमान लिफ़ाफ़े लिए प्रतीक्षारत थे. अपना लिफाफा मुझे थमाते हुए दादू बोला – ‘शांतिबाबू मेरी तरफ से भी तुम ही सिंचित कर देना.’

‘सिंचित नहीं दादू अभिसिंचित.’

‘अभी सिंचित, बाद में सिंचित, कभी भी सिंचित करना यार, मगर करना जरूर. असिंचित ना रह जाए. जिझौतिया परिवार में लिफाफा फाड़ संध्या में रजिस्टर में नाम इसी से लिखा जाएगा. पता लगा कि हमने तो कर दिया मगर सिंचन उत्तरापेक्षी तक पहुँचा ही नहीं.’

‘दादू, पत्रिका में आशीर्वाद से अभिसिंचित करने का लिखा है.’

‘लिखना तो ऐसा ही पड़ता है. वैसे गौरीशंकरजी से पूछ लो अनार ही छोड़ना है तो हम भी छोड़ सकते हैं, दीवाली पे हाथ में पकड़े-पकड़े छोड़ लेते हैं.’

‘काहे इवेंटवालों के पेट पर लात मारना दादू, इनकी दुकानदारी है. कभी विंटेज कार में तो कभी गोल्फ-कार्ट में, कभी बजाज स्कूटर पर तो कभी डांसिंग दुल्हन के सर पर खटिया, फूलों से सजी, उठाए चार युवा. वो तो गार्डन अन्दर अलग से नाम रखने की परम्परा नहीं है सिरिमान वरना इस राह का नाम लैला-मजनूँ मार्ग होता. जो भी हो हर बार कौतुक कोई नया होना. कोल्ड स्टोरेजवाले अग्रवालजी तो और ग्रेट निकले. उनका राजकुमार शादी में खास तौर पर सजाए गए साईकिल रिक्शे में दुल्हनियाँ को बैठाकर रिक्शा चलाता हुआ मंच तक पहुँचा. अग्रवाल परिवार की बहू बनने को है, एक बार भाव तो करा ही होगा – स्टेज तक जाने का क्या लोगे? दूल्हे ने भी कहा ही होगा – उधर से लौटते में खाली आना पड़ता है, सवारी नी मिलती. बहरहाल, पारिजनों ने चलते रिक्शे पर क्विंटल भर फूलों की बारिश की. जो बात पंडितजी सात वचन में नहीं समझा पाते हैं इवेंटवालों ने बिना कहे ही समझा दी, बेटा इसी तरह खर्चा करते रहे तो एक दिन सच में साईकिल रिक्शा चलाकर पेट पालना पड़ेगा.

कल की कल से देखी जाएगी शांतिबाबू, आज तो एन्जॉय द ग्रैंड मैरिज ऑफ़ जिझौतिया’ज. दादू बोला – ‘इन्हीं पलों के लिए तो गौरीशंकरजी ने प्रोविडेंट फण्ड खाली कर डाला है, पर्सनल लोन लिया है सो अलग.’ लोकल अम्बानीज के पास ग्लोबल अम्बानीज जितने संसाधन भले न हों, खुशियाँ मनाने का जज्बा है यही क्या कम है!!

लो आ गए गफूरमियाँ. लाइट्स कैमरा एक्शन में जलते अनारों के बीच परिणय पथ पर गुजरते हुए…

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 235 ☆ व्यंग्य – समाज-सेवा पखवाड़ा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – ‘गृहप्रवेश’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 235 ☆

☆ व्यंग्य –  समाज-सेवा पखवाड़ा

जब ट्रक उछलता-कूदता गाँव में घुसा तब उसमें खड़े कुर्ता-धोती और टोपी धारी ताली बजा बजा कर रामधुन गा रहे थे। गाँव के बच्चे गाने की धुन सुनकर तमाशा देखने के लिए बाहर निकल आये और विचित्र मुद्राओं में ताली पीटने वालों को कौतूहल से देखने लगे। इतने में सरपंच दुलीचन्द के घर के सामने ड्राइवर ने ब्रेक लगाया, और ताली बजाने वाले भरभरा कर एक दूसरे के ऊपर गिर पड़े।

उनमें से एक किचकिचाकर बोला, ‘हमने त्यागी जी से कहा था कि रामधुन मुँह से गा लेंगे, ताली मत बजवाओ, लेकिन उन्हें तो पूरा ढोंग किये बिना चैन नहीं पड़ता।’

ड्राइवर के बगल वाली खिड़की खोलकर त्यागी जी कूद कर बाहर आ गये। अब तक आवाज़ सुनकर दुलीचन्द भी बाहर आ गये थे। त्यागी जी ने दुलीचन्द को देखकर दोनों हाथ जोड़कर सिर से ऊपर तक उठा लिये, बोले, ‘नमस्ते दुलीचन्द जी।’

त्यागी जी और उनकी टोली को देखकर दुलीचन्द का मुँह उतर गया। अभिवादन का उत्तर देने के बाद उन्होंने पूछा, ‘कैसे पधारे?’

त्यागी जी ने हर्ष से उत्तर दिया, ‘आपके गाँव में समाजसेवा पखवाड़ा मनाना है।’

दुलीचन्द चिन्तित मुद्रा में बोले,  ‘हमारे गाँव की सेवा तो आप कई बार कर चुके। अब किसी दूसरे गाँव की सेवा कर लेते।’

त्यागी जी बोले, ‘आपका गाँव हमारा जाना पहचाना है। आपसे हमारा हृदय मिल गया।अब दूसरे गाँव में कहाँ जाएँ?’

दुलीचन्द ने पूछा, ‘पहले से खबर नहीं दी?’

त्यागी जी ने बत्तीसी दिखायी, बोले, ‘खबर कहाँ से देते? सरकार की ग्रांट इस बार बड़ी देर से मिली। हम तो समझे कि इस साल समाज सेवा नहीं कर पाएँगे।’

दुलीचन्द ने लंबी साँस छोड़ी, बोले, ‘ठीक है, तो फिर हमारी सेवा कर लो।’

त्यागी जी ने पूछा, ‘रुकने का प्रबंध?’

दुलीचन्द ने जवाब दिया, ‘अपने पास तो स्कूल ही है। वहीं इन्तजाम कर देते हैं।’

दुलीचन्द ने स्कूल का एक बड़ा कमरा समाजसेवकों को दे दिया। सब बिस्तर बिछा बिछा कर फैल गये।

त्यागी जी ने देखा राष्ट्रबंधु जी खिड़की से चिपके बाहर देख रहे थे। त्यागी जी ने आवाज़ देकर उन्हें बुलाया। राष्ट्रबंधु अपने पान से लाल दाँत चमकाते हुए आये। त्यागी जी ने बिस्तर के कोने की तरफ इशारा किया, कहा, ‘बैठो।’ राष्ट्रबंधु  बैठ गये।

त्यागी जी हल्के स्वर में बोले, ‘देखो, तुमको तुम्हारी जिद पर ले तो आये हैं, लेकिन यहाँ अपने पर काबू रखकर रहना। तुम्हारी जो लड़कियों के पीछे पगलाने की आदत है उसे यहाँ दिखाओगे तो तुम्हारी तबियत ठीक हो जाएगी और आगे से फिर हम तुम्हें समाज सेवा के लिए नहीं ले जाएँगे।’

राष्ट्रबंधु ने त्यागी जी के चरन पकड़ लिये। बोले, ‘कैसी बातें कर रहे हो दद्दा! हम समझते नहीं क्या? एक शिकायत भी सुन लो तो कान पकड़ के दो ठो लगाना हमारे। हम इतने पागल नहीं हैं।’

त्यागी जी आश्वस्त हो गये। थोड़ी देर में दुलीचन्द आ गये। बैठकर बातें होने लगीं।

त्यागी जी बोले, ‘दुलीचन्द जी, हमारा प्रोग्राम बनवा दो तो कल से काम शुरू करें।’

दुलीचन्द ने पूछा, ‘क्या समाज सेवा करनी है?’

त्यागी जी हँसे, बोले, ‘आप तो ऐसे पूछ रहे हैं जैसे हम पहली बार आये हों। सब पुराने कार्यक्रम हैं। दिन को नालियाँ वालियाँ खोद देंगे या सड़क बना देंगे, किसी मन्दिर का जीर्णोद्धार कर देंगे, शाम को प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम हो जाएगा।’

दुलीचन्द बोले, ‘प्रौढ़ शिक्षा तो मुश्किल है। लोग दिन भर खेतों में रहते हैं, शाम को पढ़ने कौन आएगा?’

त्यागी जी दुलीचन्द का हाथ पकड़ कर बोले, ‘ऐसी बात मत करो दुलीचन्द जी। आप चाहो तो सब हो सकता है। चार छः लोग भी जुटा दोगे तो अपना काम बन जाएगा।’

दूसरे दिन सवेरे चार बजे से स्कूल से रामधुन की आवाज़ आने लगी। समाजसेवक सवेरे से रामधुन गा रहे थे। त्यागी जी ने सबको उठाकर बरामदे में बैठा लिया था। वे सब  उबासियाँ लेते ‘रघुपति राघव राजा राम’ गा रहे थे। कुछ अब भी नींद में भरे, दीवार से टिके, आँखें बन्द किये रामधुन के शब्दों पर मुँह चला रहे थे। राष्ट्रबंधु अभी तक बिस्तर में ही थे। वे वहीं से लेटे-लेटे रामधुन गाने लगे। त्यागी जी ने दरवाजे में झाँककर कहा, ‘तुम क्या कर रहे हो?’

‘रामधुन गा रहा हूँ दद्दा!’

‘तुम उठकर बाहर आते हो कि हम आकर एक हाथ लगाएँ?’

राष्ट्रबंधु सिर खुजाते हुए उठे, बोले, ‘आ रहे हैं मेरे बाप।’

सवेरे  आठ बजे समाजसेवक फावड़े ले लेकर गाँव की नालियाँ खोदने निकल पड़े। राष्ट्रबंधु जिस घर के सामने फावड़ा चला रहे थे वहाँ एक युवक बैठा था। वह गुस्से में बोला, ‘भैया, आप हमारे घर को माफ करो। आप आधी दूर तक नाली खोद कर चले जाओगे, फिर हमारे दरवाजे पर पानी ठिला रह जाएगा तो हमें परेशानी हो जाएगी।’

राष्ट्रबंधु बोले, ‘तो हम समाज सेवा न करें क्या?’

युवक बोला, ‘खूब करो। लेकिन समाज सेवा करने को हमारा ही घर बचा है क्या? गाँव में इतने घर हैं, कहीं और करो।’

राष्ट्रबंधु नाराज हो गये, बोले, ‘एक तो सेवा कर रहे हैं, ऊपर से ऐंठ दिखा रहे हो। समाज सेवा पखवाड़ा ना होता तो अभी बताता तुम्हें।’

बातचीत सुनकर दूसरे समाजसेवक वहाँ आ गये। उन्होंने राष्ट्रबंधु को समझाया। राष्ट्रबंधु गुस्से में थे, बोले, ‘बड़ी ऐंठ दिखाता है। मुझे गुस्सा चढ़ेगा तो तीन दिन तक इसी के दरवाजे पर समाज सेवा करता रहूँगा। देखें क्या कर लेता है।’

थोड़ी दूर पर सत्संगी जी अपने घुटनों पर फावड़ा टिकाये त्यागी जी को अपनी हथेलियाँ दिखा रहे थे। ‘देख लो बड़े भैया, घट्टे पड़ गये।’

त्यागी जी बोले, ‘फिकर मत करो। घर पहुँचोगे तो फिर मुलायम हो जाएँगे। अभी से रोओगे तो पंद्रह दिन में तो तुम पसर जाओगे।’

सत्संगी जी दाँत निकाल कर कुर्ते की बाँह से माथे का पसीना पोंछने लगे।

दोपहर तक सब लस्त हो गये। त्यागी जी ने भोजन की छुट्टी दी तो सब कमरे में जाकर चित्त पड़ गये। सत्संगी जी बोले, ‘प्रान निकल गये। हाथ उठाया नहीं जाता, खाना कौन खाएगा?’

राष्ट्रबंधु लंबी साँस छोड़कर बोले, ‘त्यागी जी भी तो खोपड़ी पर चढ़े रहते हैं, जैसे ट्रेन निकली जा रही हो। आदमी थोड़ा सुस्ता सुस्ता के काम करे तो इत्ता नहीं अखरे।’

जैसे तैसे काँखते कराहते भोजन हुआ, फिर सब अपने-अपने हाथ के घट्टे देखते सो गये।

शाम को जनसंपर्क और गाँव के लोगों से वार्तालाप हुआ। उसके बाद प्रौढ़ शिक्षा की तैयारी हुई। दुलीचन्द बोले, ‘प्रौढ़ शिक्षा के लिए किसे लायें? सब तो काम में लगे हैं। वही दो चार बूढ़े टेढ़े मिलेंगे।’

त्यागी जी बोले, ‘बस चार छः  बूढ़े टेढ़े दे दो।’ फिर कुछ याद करके बोले, ‘अरे वे पिछली बार वाली दोनों बुढ़ियाँ तो होंगीं?’

दुलीचन्द बोले, ‘रामप्यारी और रामकली? हाँ, वे तो हैं।’

त्यागी जी उत्साह से बोले, ‘उनको जरूर बुलवा लेना। बेचारी बड़ी श्रद्धा से पढ़ती हैं।’

थोड़ी देर में आठ बूढ़े मर्द- औरतें आ गये। त्यागी जी ने खुद पढ़ाया, पूछा, ‘रामप्यारी, पहले का पढ़ाया कुछ याद है?’

रामप्यारी बोली, ‘सब बिसर गया महाराज। घर में पढ़ती तो बाल बच्चे हँसते रहते।’

‘चलो कोई बात नहीं, हम फिर पढ़ा देते हैं। पढ़ोगी न?’

‘काए न पढ़ेंगे महाराज। हमें कामइ का है। जैसे घर में बैठे हैं ऐसइ घंटा भर हियाँ बैठे रहेंगे।’

त्यागी जी पढ़ाते रहे और बूढ़े बुढ़िया श्रद्धा भाव से सिर हिलाते रहे।

त्यागी जी ने सब साथियों को वहीं बैठा लिया था। थोड़ी देर में उन्होंने देखा रामसेवक जी वहाँ से खिसकने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने पूछा, ‘कहाँ चले?’

रामसेवक जी बोले, ‘थोड़ा टहल आएँ।’

त्यागी जी बोले, ‘कहीं टहलने वहलने नहीं जाना। यहीं बैठो।’

रामसेवक जी मुँह फुला कर बैठ गये।

दूसरे दिन सवेरे सवेरे राष्ट्रबंधु को स्कूल के सामने वही युवक दिख गया जिसके दरवाजे पर उन्होंने समाज सेवा की थी। वे त्यागी जी से बोले, ‘इसकी तबियत जरूर ठीक करनी है। इसे देखकर हमारा खून खौल जाता है।’

त्यागी जी डपट कर बोले,  ‘तुम यहाँ गड़बड़ करोगे तो हम अभी तुम्हें यहाँ से भगा देंगे।’

राष्ट्रबंधु दाँत भींच कर रह गये।

इसी तरह कूल्हते- काँखते  पंद्रह दिन बीत गये। राष्ट्रबंधु कमरे की दीवार पर रोज एक लकीर खींच देते थे और सोते वक्त सत्संगी जी से पूछते थे, ‘हांँ तो दादा, अब कितने दिन बाकी रह गये? ये पंद्रह दिन तो ससुरे पहाड़ हो गये।’

पंद्रहवें दिन त्यागी जी ने जोरदार उत्सव किया। क्षेत्र के विधायक आमंत्रित किए गये। शहर से फोटोग्राफर और समाचार- पत्रों के संवाददाता आये। हाथों में फावड़े लिये पूरी टोली के फोटो खिंचे, भाषण हुए। विधायक महोदय ने त्यागी जी और उनके साथियों के सेवाभाव की भूरि भूरि प्रशंसा की।

समारोह समाप्त होने के बाद ट्रक आ गया। सब सामान लद जाने के बाद समाजसेवक उस पर चढ़ गये। त्यागी जी ने दुलीचन्द को धन्यवाद दिया। गाँववालों की इकट्ठी भीड़ में अपने दुश्मन युवक को देखकर राष्ट्रबंधु ट्रक पर से बोले, ‘बेटा, अभी तो समाजसेवा पखवाड़ा है, इसलिए हम कुछ नहीं बोले। कभी हमारे शहर आना तो हम बताएँगे।’ रामसेवक जी ने उनका मुँह दाब लिया।

ट्रक चल पड़ा और समाजसेवक तालियाँ बजा बजाकर रामधुन गाने लगे। गाँव से बाहर आकर सत्संगी जी बोले, ‘अब बहुत हो गया। बन्द करो रामधुन। कहीं ड्राइवर ने ब्रेक मार दिया तो सबके दाँत टूट जाएँगे।’

और फिर सब आराम से ट्रक के फर्श पर पसरकर बैठ गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 270 ☆ व्यंग्य – लंदन से 6 – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – लंदन से 6 – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है !

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 270 ☆

? व्यंग्य – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है ! ?

पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम् |

कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||

अर्थ – यह है कि पुस्तक में रखा ज्ञान तथा दूसरे के हाथ में दिया गया धन, ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम के नहीं होते

यह चाणक्य के समय की बात थी, जो तब शाश्वत सत्य रही होगी।

अब इस नीति में अमेंडमेंट की आवश्यकता है। मोबाइल हाथ में हो, और इंटरनेट हो तो गूगल का ज्ञान और ई बटुए का धन ही नहीं, ई मेल में पड़े रिफरेंस, डिजिटल डाक्यूमेंट, फोटो गैलरी के फोटो, कांटेक्ट लिस्ट के नंबर, एड्रेस, बैंक एकाउंट, सब कुछ काम का होता है। बल्कि यूं कहना ज्यादा सही है की जो कुछ “ई” है, आज वह ही सोते, जगते, उठते बैठते, घर बाहर, हर कहीं सदा साथ होता है।

देश विदेश की यात्रा करते हुए न तो सारे सहेजे हुए फिजिकल डाक्यूमेंट्स और न ही एल्बम तथा विजिटिंग कार्ड्स होल्डर लेकर चल पाते हैं न ही पास बुक और चैक बुक किसी काम आते हैं।

आवश्यकता इंस्टेंट होती है, तब ई डाक्यूमेंट्स एक सर्च पर खुल जाते हैं। दुनियां में कहीं भी हों नेट बैंकिंग ही रूपयो के लेन देन में काम आती है। खुल जा सिम सिम के जप की तरह पासवर्ड डालते ही एप ओपन हो जाते हैं और वह सब जो “ई” है न वह सेवा में हाजिर मिलता है। याददाश्त में पासवर्ड गुम भी हों तो मोबाइल आपका चेहरा देखकर खुल जाता है और स्कैनर पर फिंगर प्रिंट्स लगाते ही आप मनचाही वेबसाइट खोल पाते हैं।

मुझे तो लगता है कि ” ई ” ईश्वर सा ही है जो सर्व व्यापी है। ईश्वर की कल्पना स्वर्ग में होने की है। स्वर्ग की परिकल्पना बादलों के पार कहीं आकाश में की गई है। ये जो सदा साथ रहने वाला “ई” है वह भी क्लाउड स्टोरेज में रहता है। आप कहीं भी हों, क्लोज सर्किट कैमरों की मदद से घर दफ़्तर जहां चाहें पहुंच जाते हैं। कैमरों के क्लाउड स्टोरेज से घर बाहर के बीते हुए पल भी फिर फिर देख सकते हैं।

इधर जूम या गूगल पर वर्चुअल सेमिनार खत्म होता है और क्लिक करते ही ई सर्टिफिकेट जनरेट होकर मेल बाक्स में हाजिर हो जाता है।

हर चैट बोट पर कोई ई सहायक ईवा, दिया, सिया, 24 घंटे सेवा में समर्पित है।

ई वीजा, ई पासपोर्ट, ई सर्टिफिकेट, ई कामर्स, ई पत्रिका, ई अखबार, ई बुक्स, ई राइटिंग, और ई रेटिंग, ई वोटिंग वगैरह वगैरह है। जमाना ई का है, पर ई डेटिंग से जनरेटेड दिल की अहसासी फाइल अभी भी भौतिक स्पर्श की ही भूखी है।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 38 ☆ व्यंग्य – “तब जब आपको बनेसिंग का फोन आए…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  तब जब आपको बनेसिंग का फोन आए…।) 

☆ शेष कुशल # 38 ☆

☆ व्यंग्य – “तब जब आपको बनेसिंग का फोन आए…” – शांतिलाल जैन 

मैं इस समय ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर के चेंबर के बाहर बैठा अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. तकलीफ क्या है ये मैं बाद में बताता हूँ, पहले आप बनेसिंग के बारे में जान लीजिए.

जब से बनेसिंग के मन में ये बात घर कर गई है कि मोबाइल कंपनीवाले दूसरी तरफ जाती हुई उसकी आवाज़ रिसीवर तक पहुँचने से पहले धीमी कर देते हैं तब से हर कॉल पर वो इतनी जोर से बात करता है कि आप हज़ार कोस दूर हरा बटन प्रेस किए बिना ही उसे सुन सकते हैं. बनेसिंग जब फोन पर बात करना शुरू करता है तो समूची कायनात सहम उठती है. उसके ‘हेलो’ बोलते ही अफरा-तफरी सी मच जाती है. एक जलजला आ जाने की आशंका में लोग इधर उधर छिपने-दुबकने लगते हैं. डेसीबल मीटर काम करना बंद कर देता है. हमारे विभाग की खिडकियों के कांच बनेसिंग के ट्रान्सफर होकर आने से पहले साबुत अवस्था में हुआ करते थे, चटक गए हैं. बनेसिंग को मैंने जब भी फोन करते सुना है हमेशा आरोह के स्वर में ही सुना है. ‘हेलो, मैं बोल रहा हूँ.’  जी, पता है आप ही बोल रहे हो.  ‘हेलो, मैं बोल रहा हूँ, मेरी आवाज़ आ रही है आपको.’  जी, आ रही है, संसदों-विधायकों का तो नहीं पता परन्तु शेष देश में साढ़े छह करोड़ बधिरों को भी आ रही है.

यूं तो बनेसिंग एक दुबला पतला ज़ईफ़ इंसान है मगर कुदरत की मेहर से उसने फेफड़े मज़बूत पाए हैं, वोकल कार्ड भी उतनी ही सशक्त. कोरोना की दोनों लहरों में बनेसिंग के फेफड़े संक्रमित हुए मगर परवरदिगार ने उसकी ज़ोरदार आवाज़ में कोई कमी नहीं आने दी. काश!! समय रहते उसकी आवाज़ किसी समाचार चैनल के एचआर हेड के कानों में पड़ी होती तो वो आज देश का नंबर वन न्यूज एंकर होता. मुझे विश्वास है एक दिन ऐसा आएगा जब कवि सम्मलेन के मंच से वो पाकिस्तान में किसी को आईएसडी कॉल लगाकर बात करेगा और हम लोग हिंदी कविता के क्षितिज़ पर वीर रस का तेज़ी से उभरता कवि देखेंगे, बनेसिंह ज्वालामुखी.

बहरहाल, वो कितनी तेज़ आवाज़ में बात करे ये उसका संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार है. गला है उसका, फेफड़े उसके, वोकल कार्ड उसकी, मोबाईल हेंडसेट उसका, तो फिर आप कौन? खामोखां. जिस खुदा ने उसे तेज़ आवाज़ के गले की नेमत बख्शी है उसी ने आपको पाँच अंगुलियाँ प्रति कान की दर से प्रोवाइड की हैं, बंद कर लीजिए, स्टरलाईज्ड कॉटन के फाहे लगा सकते हैं. बनेसिंग को दोष नहीं दे सकते. ऊँची आवाज़ के मामले में वो समाजवादी है. ‘आय लव यू’ जैसा नाजुक, कोमल, मृदुल-मधुर वाक्य भी उतनी ही हाय पिच पर बोल लेता है जितने कि हाय पिच पर ‘कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊँगा’. कभी उसे मिसेज बनेसिंग से बात करते सुन लीजिए आपको लगेगा किसी प्राईवेट फाइनेंस कंपनी का एजेंट अपना रिकवरी टारगेट पूरा कर रहा है.

फोन पर संवाद बनेसिंग अक्सर खड़े हो कर करता है. शुरूआती पंद्रह सेकंड्स के बाद वह छोटा सा स्टार्ट लेता है और आगे की तरफ चलने लगता है. उसकी आवाज़ के आरोह और पैरों की गति में एक परफेक्ट जुगलबंदी नज़र आती है. आप समझ नहीं पाते कि वो चलते चलते बात कर रहा है कि बात करते करते चल रहा है. कभी कभी तो चलते चलते वो उसी शख्स के पास पहुँच जाता है जिससे कॉल पर बात कर रहा होता है. उसकी मसरूफियत का खामियाजा बहुधा उसकी नाक भुगतती है जो कभी दीवार पर टंगे फायर एक्स्टिंग्युषर से, कभी पुश/पुल लिखे दरवाजे से टकराकर चोटिल होती रहती है. एक बार तो वह बात करते करते बॉस के चेंबर की कांच की दीवार से टकरा चुका है. गनीमत है वे हफ्ते भर के अवकाश पर थे, उनके ज्वाइन करने से पहले रिपेयरिंग करा ली गई, वरना बनेसिंग तो….

तो हुआ ये श्रीमान उस रोज़ मैं घर पर ही था और बनेसिंग का फोन आया. मैं उसे बिना हरा बटन दबाए भी सुन सकता था मगर मैंने बेध्यानी में ऑन कर लिया. जैसे ही बनेसिंग ने बोला – “हेलो शांतिबाबू”, मेरे ईयरड्रम्स चोटिल हो गए. अब मैं ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर के चेंबर के बाहर बैठा अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 233 ☆ व्यंग्य – जागी हुई अन्तरात्मा का उपद्रव ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य – जागी हुई अन्तरात्मा का उपद्रव। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 233 ☆

☆ व्यंग्य –  जागी हुई अन्तरात्मा का उपद्रव

एक रात लल्लूलाल लिपिक ने सपना देखा कि यमराज उससे कह रहे हैं, ‘बेटा लल्लूलाल, तुमने खूब रिश्वत खायी है, इसलिए नरक में तुम्हारे लिए कमरा रिज़र्व हो गया है।’ उन्होंने लल्लूलाल को नरक के दृश्य भी दिखाये जिन्हें देखकर लल्लूलाल की घिघ्घी बँध गयी। डर के मारे उसकी नींद खुल गयी और वह सारी रात लेटा लेटा रोता रहा, अपने कान पकड़ पकड़ कर ऐंठता रहा।

दूसरे दिन दफ्तर में भी लल्लूलाल काम करने की बजाय अपनी टेबल पर सिर रखकर रोता रहा। उसके सब साथी उसके चारों तरफ एकत्र हो गये।

छोटेलाल ने पूछा, ‘क्या बात है लल्ल्रू? कोई ठेकेदार कुछ देने का वादा करके मुकर गया क्या? ऐसा हो तो बताओ, हम एक मिनट में उसकी खाट खड़ी कर देंगे।’

लल्लूलाल विलाप करके बोला, ‘नहीं भइया, मैंने बहुत पाप किया है, बहुत रिश्वत खायी है। अपना परलोक बिगाड़ लिया। अब मेरी अन्तरात्मा जाग गयी है। मैं अपने पापों को धोना चाहता हूँ।’

मिश्रा बोला, ‘कैसे धोओगे’?

लल्लूलाल ने जवाब दिया, ‘मैं ऊपर अफसरों को लिखकर अपने अपराध स्वीकार करूँगा, अखबारों में छपवाऊँगा। छज्जूमल एण्ड कम्पनी और गिरधारीलाल एण्ड संस से जितना पैसा लिया है सबका हिसाब दूँगा।’

छोटेलाल बोला, ‘बेटा, डिसमिस हो जाओगे। जेल भोगोगे सो अलग।’

लल्लूलाल सिर हिलाकर बोला, ‘चाहे जो हो, अब मुझे परलोक बनाना है।’

मिश्रा बोला, ‘बाल बच्चे भीख मांगेंगे।’

लल्लूलाल हाथ हिला कर बोला, ‘माँगें तो माँगें। मैंने कोई सालों का ठेका ले रखा है?’

यह सुनकर दफ्तर में खलबली मच गयी। बड़ी भागदौड़ शुरू हो गयी। बड़े बाबू अपनी तोंद हिलाते तेज़ी से लल्लूलाल के पास आये, बोले, ‘लल्लू, यह क्या पागलपन है?’

लल्लूलाल ने जवाब दिया, ‘कोई पागलपन नहीं है दद्दा। अब तो बस परलोक की फिकर करना है। बहुत नुकसान कर लिया अपना।’

बड़े बाबू बोले, ‘लेकिन जब तुम छज्जूमल वाले केस को कबूल करोगे तो पूछा जाएगा कि और किस किस ने लिया था।’

लल्लूलाल ने जवाब दिया, ‘पूछेंगे तो बता देंगे।’

बड़े बाबू ने माथे का पसीना पोंछा, बोले, ‘उसमें तो साहब भी फँसेंगे।’

लल्लूलाल बोला, ‘फँसें तो फँसें। हम क्या करें? जो जैसा करेगा वैसा भोगेगा।’

बड़े बाबू बोले, ‘तुम्हें साहब की नाराजगी का डर नहीं है?’

लल्लूलाल बोला, ‘अरे, जब डिसमिसल और जेल का डर नहीं रहा तब साहब की नाराजगी की क्या फिक्र करें।’

बड़े बाबू तोंद हिलाते साहब के कमरे की तरफ भागे। जल्दी ही साहब के केबिन में लल्लूलाल का बुलावा हुआ। साहब ने उसे खूब फटकार लगायी, लेकिन लल्लूलाल सिर्फ रो रो कर सिर हिलाता रहा। साहब ने परेशान होकर बड़े बाबू से कहा कि वे उसे उसके घर छोड़ आएँ और उस पर खड़ी नज़र रखें।

बड़े बाबू, छोटेलाल और दो-तीन अन्य लोग लल्लूलाल को पकड़कर घर ले गये और उसे बिस्तर पर लिटा दिया।

बड़े बाबू ने उसकी बीवी और लड़कों को बुलाकर कहा, ‘देखो, यह पागल तुम लोगों से भीख मँगवाने का इन्तजाम कर रहा है। इसे सँभालो, नहीं तो तुम कहीं के नहीं रहोगे।’

लल्लूलाल के बीवी-बच्चों ने उस पर कड़ी निगरानी शुरू कर दी। साहब के हुक्म से दफ्तर का एक आदमी चौबीस घंटे वहाँ मौजूद रहता। बड़े बाबू बीच-बीच में चक्कर लगा जाते। लल्लूलाल बाथरूम भी जाता तो कोई दरवाजे पर चौकीदारी करता। उसके कमरे से कागज-कलम हटा लिए गये। कोई मिलने आता तो घर का एक आदमी उसकी बगल में बैठा रहता।

लल्लूलाल ने छुट्टी लेने से इनकार कर दिया तो बड़े बाबू ने उससे कह दिया कि छुट्टी लेने की कोई ज़रूरत नहीं है। वे हाजिरी- रजिस्टर लल्लूलाल के घर भेज देते और लल्लूलाल वहीं दस्तखत कर देता।

लल्लूलाल घर में दिन भर भजन- पूजा में लगा रहता था। सवेरे से वह नहा धोकर शरीर पर चन्दन पोत लेता और फिर दोपहर तक भगवान की मूर्ति के सामने बैठा रहता। बाकी समय वह रामायण पढ़ता रहता। घर के लोग उसके इस परिवर्तन से बहुत हैरान थे।

जब लल्लूलाल का चित्त कुछ शान्त हुआ तब साहब के इशारे पर बड़े बाबू ने उसके पास बैठकें करना शुरू किया। उन्होंने उसे बहुत ऊँच-नीच समझाया। कहा, ‘देखो लल्लूलाल, तुमने आगे के लिए रिश्वतखोरी छोड़ दी यह तो अच्छी बात है, लेकिन यह चिट्टियाँ लिखने वाला मामला ठीक नहीं है। इस बात की क्या गारंटी है कि ऊपर पहुँचने पर तुम्हें स्वर्ग मिल ही जाएगा? अगर वहाँ पहुँचने पर तुम्हें पिछले रिकॉर्ड के आधार पर ही नरक भेज दिया गया तब तुम्हारे दोनों लोक बिगड़ जाएँगे।’

लल्लूलाल सोच में पड़ गया।

बड़े बाबू उसे पुचकार कर बोले, ‘लल्लूलाल, तुम तो आजकल काफी पढ़ते हो। यह सब माया है। न कोई किसी से लेता है, न कोई किसी को देता है। सब अपनी प्रकृति से बँधे कर्म करते हैं। तुम बेकार भ्रम में पड़े हो।’

लल्लू लाल और गहरे सोच में पड़ गया, बोला, ‘लेकिन पुराने कर्मों का प्रायश्चित तो करना ही पड़ेगा दद्दा।’

बड़े बाबू बोले, ‘अरे, तो प्रायश्चित करने का यह तरीका थोड़े ही है जो तुम सोच रहे हो। इस तरीके से तो तुम्हारे साथ-साथ दस और लोगों को कष्ट होगा। दूसरों को कष्ट देना धर्म की बात नहीं है।’

लल्लूलाल चिन्तित होकर बोला, ‘तो फिर क्या करें?’

बड़े बाबू उसकी पीठ पर हाथ रख कर बोले, ‘मूरख! हमारे यहाँ तो पाप धोने का सीधा तरीका है। गंगा स्नान कर आओ।’

लल्लूलाल गंगा स्नान के लिए राजी हो गया। फटाफट उसकी तैयारी कर दी गयी। साहब का हुकुम हुआ कि छोटेलाल भी उसके साथ जाए, कहीं लल्लूलाल बीच में ही फिर पटरी से न उतर जाए।

छोटेलाल कुनमुनाया, बोला, ‘अभी से क्या गंगा स्नान करें?’

बड़े बाबू बोले, ‘बेटा, पिछला साफ कर आओ, फिर आगे की फिकर करो। ज्यादा एरियर एकत्र करना ठीक नहीं।’

उसने पूछा, ‘खर्च का इन्तजाम कहाँ से होगा?’

बड़े बाबू ने साहब से पूछा। साहब ने कहा, ‘छज्जूमल के यहांँ से पाँच हजार रुपया उठा लो। कह देना, धरम खाते में डाल देगा।’

और एक दिन लल्ल्रूलाल को उसकी बीवी और छोटेलाल के साथ ट्रेन में बैठा दिया गया। स्टेशन पर साहब भी उसे विदा करने आये। ट्रेन रवाना हो जाने पर उन्होंने लम्बी साँस छोड़ी।

दफ्तर लौटने पर बड़े बाबू जैसे थक कर कुर्सी पर पसर गये। मिश्रा से बोले, ‘भइया, यह अन्तरात्मा जब एक बार सो कर बीच में जाग जाती है तो बहुत गड़बड़ करने लगती है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 232 ☆ व्यंग्य – एक रोमांटिक की त्रासदी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य ‘एक रोमांटिक की त्रासदी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 232 ☆

☆ व्यंग्य –  एक रोमांटिक की त्रासदी

नन्दलाल हमारी मित्र-मंडली में भीषण रोमांटिक आदमी है, बर्नार्ड शॉ के शब्दों में ‘लाइलाज रोमांटिक स्वभाव वाला।’ बाकी हम सब लोग खाने-कमाने और ज़मीन पर रहने वाले लोग हैं। नन्दलाल अपने ऊपर ज़बरदस्ती साहित्यिक मुद्रा ओढ़े रहता है। वैसे उसकी साहित्यिक समझ खासी घटिया है, लेकिन उसे उस पर बेहद नाज़ है। सस्ते बाज़ारू शेर सुनकर उन पर घंटों सिर धुनता है। इश्क, माशूक और चांद-सितारों वाले शेरों से उसने कई कॉपियां भर रखी हैं। उनमें से कई उसे याद भी हैं, भले ही कुछ शब्द और टुकड़े छूट जाएँ। लेकिन उसे परेशानी इसलिए नहीं होती कि उन शेरों का मतलब उसे खुद भी नहीं मालूम।

तलफ्फुज़ के मामले में उसकी हालत दर्दनाक है, ‘शेर’ को ‘सेर’ और ‘माशूक’ को ‘मासूक’ कहने वाला। उसके ‘सेर’ सुनकर जानकारों का रक्तचाप बढ़ जाता है, सिर फोड़ लेने की इच्छा बलवती हो जाती है, लेकिन नन्दलाल इस स्थिति से बेखबर ‘सेर’ पर ‘सेर’ मारे जाता है। उर्दू के किसी विद्वान को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने हेतु नन्दलाल का उपयोग सफलता से किया जा सकता है।

नन्दलाल का पूरा व्यक्तित्व रूमानियत से सराबोर है। बादशाह अकबर की तरह बैठकर फूल सूँघते रहना उसे बहुत प्रिय है। लड़कियों के मामले में अपने दीवानेपन के लिए वह कुख्यात है। लेकिन उसका प्रेम विशुद्ध अफलातूनी होता है। लड़कियों को ख़त लिखना और उनके ख़तों पर आहें भरना उसका प्रिया शग़ल है। बाज़ार में किसी सुन्दर लड़की को देखकर उसकी आत्मा शरीर का साथ छोड़ देती है। वह किसी ‘ज़ोम्बी’ की तरह विदेह हुआ, लड़की के पीछे खिंचा चला जाता है। उस वक्त उसे हिला-डुला कर ज़मीन पर वापस लाना पड़ता है।

नन्दलाल अपने दोस्तों को धिक्कारता रहता है। कहता है, ‘तुम लोगों को रोटी-दाल के सिवा इस दुनिया में कुछ दिखाई नहीं पड़ता। दुनिया कितनी खूबसूरत है, जरा आँखें खोल कर देखो। यों ही एक दिन रोटी कमाते कमाते मर जाओगे।’ और फिर वह दो तीन ‘सेर’ जड़ देता है।

चाँदनी रातों में नन्दलाल बदहवास हो जाता है। कहीं मैदान में घंटों चाँदनी के नीचे लुढ़कता रहता है और हम लोगों को अपने पास पकड़ कर घंटों ‘बोर’ करता है। माशूक के मुखड़े की चाँद से तुलना करने वाले पचास साठ ‘सेर’ सुना देता है।

उसके आनन्द में सबसे ज़्यादा बाधा छुट्टन डालता है। जब नन्दलाल आँखें बन्द करके ‘सेर’ सुनाता होता है, तभी वह कसमसाने लगता है। कहता है, ‘यार, मैं चलूँ। भैंस को चारा डालना है। बाबूजी गुस्साएँगे।’

छुट्टन ‘गुस्साएँगे’ जैसे नूतन शब्द प्रयोग करने के लिए विख्यात है। नन्दलाल उसकी बात सुनकर भिन्ना जाता है। जबड़े भींच कर कहता है, ‘भैंसों को पालते पालते तुम भी भैंसा हो गये। जाओ, किसी चरई के किनारे खड़े होकर पूँछ हिलाओ।’

छुट्टन पर कोई असर नहीं होता। वह अपनी पतलून की घास झाड़ता उठ खड़ा होता है। कहता है, ‘कल से वह ठीक से खा-पी नहीं रही है। ढोर-डाक्टर को दिखाना पड़ेगा। तुम्हारे शेरों से दूध नहीं निकलने वाला।’

गुस्से में नन्दलाल के मुँह से एक मिनट तक शब्द नहीं निकलते। चेहरा लाल भभूका हो जाता है। शेर सब लटपट हो जाते हैं। छुट्टन के जाने पर हिकारत से कहता है, ‘साला बिना सींग- पूँछ का जानवर। ढोर कहीं का।’

लेकिन एक दिन नन्दलाल का रूमानीपन सूली पर चढ़ गया। कम से कम हमारे सामने तो उसने रूमानियत झाड़ना बन्द ही कर दिया। हमें काफी राहत महसूस हुई।

बात यह हुई कि एक दिन छुट्टन मुझे, नन्दलाल और राजू को बीस पच्चीस मील दूर एक गाँव में ले गया जहाँ उसकी ज़मीन थी। नन्दलाल बहुत उत्साह में गया क्योंकि उसे आवारागर्दी बहुत पसन्द है।

छुट्टन का गाँव सड़क से काफी हटकर था। सड़क भी ऐसी कि जहाँ से दिन भर में मुश्किल से तीन चार बसें निकलती हैं। हम लोग सुबह दस ग्यारह बजे बस से उतरे। फिर हमें करीब तीन मील पैदल चलना पड़ा। तीन मील धूप में चलने में नन्दलाल की हुलिया बिगड़ गयी। उसका उत्साह आधा हो गया। किसी तरह मुँह बनाते, रोते- झींकते उसने सफर पूरा किया।

बहुत छोटा सा गाँव था, करीब पच्चीस तीस घर का। लेकिन गाँव के नज़दीक पहुँचकर नन्दलाल का उत्साह लौट आया। खेतों में खड़ी फसल देखकर उसकी रूमानियत फिर जाग गयी। वैसे उसके लिए गन्ने को छोड़कर और किसी पौधे को पहचानना मुश्किल था, लेकिन हरियाली को देखकर उसका दिल भी हरा हो जाता था।

छुट्टन का घर उसके खेतों के बीच में था जिसको देखने के लिए उसने एक कारिन्दा रख छोड़ा था। वह खपरैल वाला कच्चा घर था। उसे देखकर नन्दलाल बाग़ ब़ाग हो गया। झूम कर बोला, ‘क्या खूबसूरत घर है, खेतों के बीच में। एकदम फिल्मी चीज है। शहर के मकान देखते देखते जी भर गया।’

छुट्टन बोला, ‘बेटा, एक रात गुजारोगे तो आसमान से जमीन पर आ जाओगे।’

वहाँ पहुँचकर छुट्टन तो कामकाज में लग गया और हम लेट कर सुस्ताने लगे। नन्दलाल कूदफाँद मचाये था। कभी घर में घुस जाता, कभी दौड़कर खेतों की मेड़ पर खड़ा हो जाता। वह बहुत खुश था।

छुट्टन का कारिन्दा एक पंडित था। थोड़ी देर में वह अपने घर से खाना बनवा कर ले आया। मोटी मोटी रोटियाँ, पनीली दाल, लौकी की सब्ज़ी और कैथे की चटनी। भूख के मारे बहुत अच्छा लगा। नन्दलाल खाने पर लट्टू हो रहा था। गाँव की मोटी मोटी रोटियों के प्रति भी लोगों के मन में एक रोमांस होता है। वह उसी का शिकार था। ‘वाह वाह’ करते उसने खाना खाया।

थोड़ी देर बाद छुट्टन हमें कुछ दूर नदी किनारे ले गया। छायादार बड़े-बड़े पेड़ थे और साफ, नीला पानी शोरगुल करता, उछलता- कूदता बह रहा था। सामने नीला आसमान था और रुई के टुकडे़ जैसे तैरते बादल। खेत सोने के रंग में रंगे लगते थे।

देखकर नन्दलाल पर जैसे दौरा पड़ गया। उसके मुँह से मशीनगन की गोलियों की तरह ‘सेर’ छूटने लगे। किसी तरह उसके मुँह पर ढक्कन रखने में हम सफल हुए, फिर वह आहें भरते भरते सो गया। खुर्राटे भरने लगा। करीब दो घंटे तक बेहोश सोता रहा।

जब वह जागा तो साये लंबे होने लगे थे। सूरज झुक आया था। अब छुट्टन हड़बड़ी मचाये था। सड़क से आखिरी बस छः बजे निकलती थी। उसके बाद सबसे पहली बस सुबह सात बजे ही थी।

लेकिन नन्दलाल अपनी जगह से नहीं हिला। वह इधर-उधर आँखें पसारकर आहें भरता रहा। बार-बार कहता, ‘अबे, चलते हैं। वहाँ शहर में यह नजारा कहाँ मिलने वाला।’

उसकी रंगीन तबियत के  फलस्वरूप हम लोग पाँच बजे तक गाँव से रवाना नहीं हो पाये। फिर रास्ते भर हम लोग उसे जल्दी चलने के लिए धकियाते रहे, लेकिन उसके पाँव जैसे मन-मन भर के हो गये थे।

नतीजा यह हुआ कि जब हम लोग सड़क से करीब आधा मील दूर थे तभी हमें बस आती दिखी। हम लोग दौड़े, हाथ हिलाया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। हम लोगों ने नन्दलाल को पेट भर गालियाँ दीं। वह चुप्पी साध कर रह गया।

हम फिर लौट कर गाँव गये। अब की बार नन्दलाल की हालत खराब हो गयी। अब किसी प्राकृतिक दृश्य का उस पर असर नहीं पड़ रहा था। वह मरियल टट्टू की तरह सिर लटकाये,  पाँव घसीटता चलता रहा। घर पहुँच कर वह ऐसे पड़ रहा जैसे उसके प्राण निकल गये हों।

पंडित जी ने फिर भोजन का प्रबंध किया, लेकिन अब नन्दलाल ‘वाह वाह’ करना भूल गया था। वह सिर झुकाये, मातमी चेहरा बनाये भोजन ठूँसता रहा।

घर में सिर्फ दो खाटें थीं, जिन में से एक पर पंडित जी सोते थे। पंडित जी ने प्रस्ताव रखा कि दो तीन खाटें गाँव से मँगा लें, लेकिन हमने मना कर दिया। फिर उन्होंने कहा कि हम लोग दो खाटों पर सो जाएँ, वे ज़मीन पर सो जाएँगे। लेकिन हमने ज़मीन पर सोने का निश्चय किया।

हम ज़मीन पर दो दरियाँ बिछाकर लेट गये। पंडित जी थोड़ी दूर खाट पर लेटकर नाक बजाने लगे। नन्दलाल चुपचाप लेट गया। उसकी बोली बन्द हो गयी थी।

रात घुप्प अँधेरी थी। दूर कहीं कोई रोशनी कभी-कभी टिमटिमाती थी। हवा चलती तो पेड़ ‘खड़ खड़ सूँ सूँ ‘ करने लगते। दिन का सुहावना दृश्य अब खासा भयानक हो गया था। मच्छरों का भीषण आक्रमण हुआ। छोटे मच्छर थे, बिना आवाज़ किये मार करते थे। नन्दलाल शरीर पर पट्ट पट्ट हाथ मारने लगा। फिर उठकर बैठ गया, बोला, ‘बड़े बगदर हैं।’

मैंने कहा, ‘शुद्ध भाषा बोलो। ‘बगदर’ नहीं, ‘मच्छर’ कहो।’

वह चिढ़कर बोला, ‘चुप रह बे,’ और वापस लेट गया। लेकिन उसकी और हम सब की नींद हराम थी। मच्छरों को शहरी खून काफी पसन्द आ रहा था।

नन्दलाल ने थोड़ी देर में फिर आँखें खोलीं। इधर-उधर देखकर बोला, ‘बाप रे, कैसा डरावना लगता है। मुझे तो डर लग रहा है।’

फिर थोड़ा रुक कर उसने मुझे हिलाया, कहा, ‘दत्तू, सो गये क्या यार?’

मैंने आँखें बन्द किये ही कहा, ‘जाग रहा हूँ। क्या बात है?’

वह कुछ लज्जित होकर बोला, ‘कुछ नहीं’, और चुप हो गया।

थोड़ी देर में सामने कहीं से एक औरत की चीखें आने लगीं। ऐसा लगता था जैसे चीखने वाला इधर-उधर दौड़ रहा हो। बड़ी भयानक और रोंगटे खड़ी कर देने वाली चीखें थीं। हम सब की नींद खुल गयी। लेकिन पंडित जी अब भी नाक बजा रहे थे।

छुट्टन ने पंडित जी को जगा कर पूछा। पंडित जी उठकर बैठ गये, फिर दाढ़ी खुजाते हुए बोले, ‘एक काछी की बहू है। पागल हो गयी है। रोज ऐसा ही करती है। अभी घर के लोग पकड़ कर ले जाएँगे।’ फिर वे दाढ़ी खुजाते खुजाते  लेट कर सो गये।

और सचमुच थोड़ी देर में चीखें  बन्द हो गयीं। हम लोग फिर ऊँघने लगे। लेकिन नन्दलाल को बड़ी देर तक नींद नहीं आयी। वह देर तक मेरा हाथ पकड़े रहा। बार-बार कहता, ‘यार, सो गये क्या?’ और मैं आधी  नींद में जवाब देता, ‘नहीं।’

किसी तरह राम राम करते सवेरा हुआ। सवेरे नन्दलाल की हालत दयनीय थी। बिखरे बाल, नींद न आने के कारण गुलाबी आँखें, भारी पलकें और उतरा हुआ बासी मुँह। चुपचाप मुँह धोकर वह एक तरफ खड़ा हो गया।

छुट्टन ने चाय पीने का प्रस्ताव रखा तो नन्दलाल ने जोर से प्रतिवाद किया। बोला, ‘नहीं, नहीं, वहीं सड़क पर पियेंगे।’

हम वहाँ से चल दिये। नन्दलाल अब सबसे आगे तेज़ी से चल रहा था। चिड़ियों की आवाज़ से वातावरण भरा था। मैंने देखा, पूर्व में सूरज का नारंगी गोला धीरे-धीरे उठ रहा था।

मैंने नन्दलाल को आवाज़ देकर कहा, ‘देख नन्दू, सूरज कैसा सुन्दर लग रहा है।’

लेकिन हमारा परम रोमांटिक नन्दू, इन सब बातों से बेखबर, सिर झुकाये, बस के लिए दौड़ा जा रहा था।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 230 ☆ व्यंग्य – साहित्य में फौजदारी तत्व ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – साहित्य में फौजदारी तत्व। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 230 ☆

☆ व्यंग्य –  साहित्य में फौजदारी तत्व

मुकुन्दीलाल ‘दद्दा’ नगर के सयाने कवि हैं। वैसे ‘दद्दा’ हर विधा में दख़ल रखते हैं। रचना की कूवत यह कि रात भर में सौ डेढ़-सौ पन्ने की किताब लिखकर फेंक देते हैं। अब तक तिरपन किताबें छपवा चुके हैं। नगर के साहित्यकारों में उनका पन्द्रह बीस का गुट है जो उन्हें ‘दद्दा’ कह कर पुकारते हैं। इसीलिए मुकुन्दीलाल जी ने अपना उपनाम ही ‘दद्दा’ रख लिया है।

‘दद्दा’ के गुट के लोग उनके प्रति समर्पित हैं। उनके इशारे पर उनके विरोधियों पर शब्द-बाण चलाते हैं। ज़रूरत पड़ने पर असली लाठी भाँजने को भी तैयार रहते हैं। तीन-चार सेवाभावी चेले सबेरे गुरू जी के घर पहुँच जाते हैं। गुरुपत्नी के आदेश पर बाजार से सौदा-सुलुफ ले आते हैं।

‘दद्दा’ के शिष्यों का उनके प्रति भक्ति-भाव ऐसा है कि उन्होंने आपस में निर्णय कर लिया है कि ‘दद्दा’ के स्वर्गवासी होने पर उनकी मूर्ति नगर के किसी चौराहे पर लगवाएंँगे, जैसी साहित्यकारों की मूर्तियाँ रूस में लगी हैं। साथ ही यह निर्णय हुआ है कि ‘दद्दा’ के घर की गली को ‘दद्दा मार्ग’ का नाम भी दिलाया जाएगा। ‘दद्दा’ के स्वर्गवासी होते ही इस दिशा में युद्ध-स्तर पर काम शुरू हो जाएगा।

फिलहाल खबर यह है कि ‘दद्दा’ जी को लेकर एक सनसनीखेज़ घटना घट गयी। नगर के गांधी भवन में ‘दद्दा’ की चौंवनवी किताब पर कार्यक्रम था। किताब ‘दद्दा’ के निबंधों की थी। शीर्षक था ‘दद्दाजी कहिन’। किताब पर बोलने के लिए ‘दद्दा’ जी के एक शिष्य ने नागपुर के एक विद्वान श्री विपिन बिहारी ‘निर्मम’ का नाम सुझाया था। ‘निर्मम’ जी की स्वीकृति भी प्राप्त हो गयी थी और उन्हें किताब भेज दी गयी थी।

‘दद्दा’ जी के चेलों ने कार्यक्रम की पूरी तैयारी की थी। चालीस पचास लोगों को बार-बार फोन करके खींच लाये। एक भूतपूर्व मंत्री को अध्यक्षता के लिए ले आये। सभी स्थानीय अखबारों में समाचार दे दिया।

कार्यक्रम के संचालक ‘दद्दा’ जी के शिष्य थे। उन्होंने ‘दद्दा’ जी का परिचय देते हुए उन्हें प्रेमचंद और ‘प्रसाद’ की पाँत का लेखक बता दिया। इसके बाद बोलने की बारी ‘निर्मम’ जी की आयी। उन्होंने शुरू में किताब की खूबियाँ बतायीं, फिर खामियों पर आ गये।

‘निर्मम’ जी ने कहा कि ‘दद्दा’ जी की भाषा अच्छी और प्रभावशाली है, लेकिन उनके सोच में आधुनिकता और वैज्ञानिकता का अभाव दिखता है। कई निबंधों में उनकी सोच रूढ़िवादी दिखायी पड़ती है। दुनिया अब बहुत आगे बढ़ गयी है और आदमी के जीवन और व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन हो गये हैं। ‘दद्दा’ जी इन परिवर्तनों को उस हद तक नहीं पकड़ सके हैं जैसी उनसे उम्मीद थी।

‘निर्मम’ जी अभी बोल ही रहे थे कि श्रोताओं में से ‘दद्दा’ जी के एक शिष्य ने उठकर उनके हाथ से माइक छीन लिया, बोला, ‘आप यह बकवास बन्द करें। आपमें ‘दद्दा’ जी के लेखन को समझने की क्षमता नहीं है। ‘दद्दा’ जी को समझने के लिए बहुत गहरे उतरना पड़ता है। यह काम आपके बस का नहीं है। हमसे गलती हुई जो इस कार्यक्रम में आपको बुला लिया।’

‘निर्मम’ जी सिटपिटाकर बैठ गये। श्रोताओं में से एक चिल्लाकर बोला, ‘आप बाहर आइए। हम आपका आलोचना का सारा भूत उतार देंगे। आपकी इतनी हिम्मत कि हमारे ‘दद्दा’ जी की आलोचना करते हैं? बाहर निकलिए, फिर हम आपको बताते हैं।’

‘निर्मम’ जी भयभीत होकर कुर्सी में धँसे रह गये। जैसे तैसे अध्यक्ष जी का भाषण हुआ। कार्यक्रम समाप्त होने पर ‘दद्दा’ जी के शिष्य बाहर ‘निर्मम’ जी का ‘अभिनन्दन’ करने के लिए उनका इन्तज़ार करने लगे।

‘निर्मम’ जी ने हवा का रुख भाँप लिया। ‘दद्दा’ जी के जिन शिष्य ने उन्हें बुलाया था उनसे 100 नंबर पर फोन कराके पुलिस की मदद माँगी। थोड़ी देर में पुलिस की जीप आ गयी और उनकी कैफियत लेकर उन्हें रेलवे स्टेशन ले गयी जहाँ उन्हें रेलवे पुलिस की अभिरक्षा में सौंप दिया गया। कार्यक्रम स्थल से जीप चली तो पीछे से ‘दद्दा’ जी के शिष्य चिल्लाये, ‘बच्चू, इस बार तो बच गये। अगली बार हमारे शहर में आओगे तो बिना पूजा कराये नहीं जा पाओगे।’

रेलवे पुलिस के थाने में पहुँचकर ‘निर्मम’ जी एक कुर्सी में दुबके राम राम जपते रहे। उनकी गाड़ी रात में थी। गाड़ी का समय हुआ तो उन्होंने थानेदार से इल्तिजा की कि उनके साथ दो सिपाहियों को भेज दें जो उन्हें डिब्बे में बैठा दें और गाड़ी रवाना होने तक वहीं रुके रहें।

अन्ततः गाड़ी रवाना हुई तो चोटी पर चढ़े ‘निर्मम’ जी के प्राण वापस उतरे।

आइए,अब  हम सब मिलकर मनाएँ  कि जैसे ‘निर्मम’ जी अपने घर सुरक्षित वापस लौटे वैसे ही सब आलोचक सुरक्षित अपने घर वापस लौटें।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 260 ☆ व्यंग्य – पुरस्कार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – पुरस्कार)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 260 ☆

? व्यंग्य – पुरस्कार ?

वरिष्ठ व्यंग्यकार को बड़ा नगद  पुरस्कार मिला था। दिलवाने वाले प्रकाशक के साथ सेलिब्रेट कर रहे थे। एक एक पैग लेने के बाद वरिष्ठ व्यंग्यकार ने प्रकाशक से कहा प्रकाशन के लिए होड़ की दौड़ है। व्यंग्य खतरे में है। काजू खाते हुए प्रकाशक ने हामी भरी। उसने कहा प्रूफ पढ़े बिना अप्रूव कर देते हैं। सोशल मीडिया के स्व संपादित त्वरित प्रकाशन से संपादन पर विराम लग गया है।

गिलास में सोडा मिलाकर अगला पैग बनाते हुए चर्चा बढ़ी, व्यंग्य लोकप्रिय विधा है। शीर्षक और कुछ अदल बदल कर वही लेख, अलग अलग प्रकाशनों से नई नई किताबों के रूप में छप रहे हैं। पैसे वाले लेखकों के लिए पुस्तक प्रकाशन अब निवेश है। नाम, सम्मान और पुरस्कार के लिए ये इन्वेस्टमेंट धड़ल्ले से किया जा रहा है।  पुरस्कार सैटिंग है।

प्रकाशक बोला ज्यादातर व्यंग्य लेखन, साहित्य, कला और बहुत हुआ तो राजनेताओं, पोलिस के गिर्द लिखे जा रहे हैं, शायद लेखक स्वयं पर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता।

लेखक ने बात बढ़ाई, साफगोई का अभाव बड़ा संकट लगता है। धर्म पर कुछ लिख दो बिना समझे ही फतवे लेकर भीड़ खड़ी मिलती है, भावनाए बहुत जल्दी आहत हो रही हैं। इसलिए व्यंग्यकार मेन प्लेटफार्म की जगह बाई पास से निकल जाना चाहता है।

प्रकाशक हंसा …जहां उसे यश तो मिल जाए पर खतरे न हो।

फिर गंभीर होकर बोला ये तो सब ठीक है, आपकी कोई भी नई पांडुलिपि दीजिए, सरस्वती  पुरस्कार वालों से आपके लिए बात हो गई है।

वरिष्ठ लेखक की आंखों में चमक आ गई। उन्होंने कहा, अरे अब क्या नया क्या पुराना, साहित्य तो साहित्य है। तुम तो ज्ञान  पुरस्कार के लिए जो किताब छापी थी उसी मैटर को हर पैरा के लघु व्यंग्य कथा बनाकर छाप लो और पुस्तक जमा करवा दो। पर यार इस बार कवर धांसू होना चाहिए, और हां संस्कृति सचिव से भूमिका जरूर लिखवा लेना।

दोनो मुस्कराते हुए अगला पैग गटकने लगे।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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