(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय संस्मरण– लंदन से 1।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 265 ☆
संस्मरण– लंदन से 1
ब्रिटेन की पार्लियामेंट के सामने ही महात्मा गांधी मिले।
मंद ठंडी बयार में लहराते कामनवेल्थ देशों के झंडे, अन्य अनेक महापुरुषों के बुतों के साथ अपने अंदाज में सत्य की लाठी के साथ डटे हुए।
लंदन में अपनी मांग, आवाज, आंदोलन, इसी पार्क में उठाई जाती हैं। (भारत के जंतर मंतर की तरह)
यद्यपि इंग्लैंड में बब्बर शेर या टाइगर नहीं होते, पर फिर भी इसे इंग्लैंड के राष्ट्रीय पशु के रूप में मान्यता दी गई है।
यहां की महत्वपूर्ण इमारतों के स्वागत द्वार पर शेरों की मूर्तियां लगी हुई हैं।
शेरों को लंबे समय से ताकत के प्रतीक के रूप में जाना जाता है, क्योंकि वह जंगल का सर्वथा शक्तिशाली प्राणी होता है।
इंग्लैंड के इतिहास में 12 वीं सदी से यहां के शासको प्लांटैजेनेट परिवार के समय से सिंह की छबि और मूर्तियों को सत्ता के प्रतीक के रूप में प्रतिपादित किया गया, और यह परंपरा आज तक कायम है।
दरअसल इंग्लैंड की संस्कृति में धरोहर, परंपरा और इतिहास को बहुत महत्व दिया जाता है।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग- 8 – जहाँ कदम बढ़े पत्रकारिता की ओर… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
मित्रो! आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह जालंधर में ऐसा क्या है जो बार बार वही जाता हूँ! जालंधर में मैने कलम पकड़नी सीखी और शायद पत्रकारिता का क, ख, ग, भी यहीं से सीखा और पहले सीखा प्रेसनोट लिखना! कैसे भला? ‘विचारधारा’ के जितने आयोजन होते, बाद में मेरी जिम्मेदारी हो गयी कि गोष्ठी की पूरी रिपोर्ट लिखकर अखबारों के कार्यालय में पहुंचाऊं, क्योंकि मेरी हिंदी की लिखावट थोड़ी अच्छी थी और उन दिनों फोटोस्टेट करवा कर प्रेसनोट बांटा जाता था! मुझे स्कूटर चलाना कभी नहीं आया तो कोई स्कूटर वाला सहयोगी अपने स्कूटर के पीछे बिठाकर हर अखबार के दफ्तर ले जाता और इस तरह प्रेसनोट लिखने का शऊर सीखा। हालांकि दूसरे दिन समाचार प्रकाशित होने पर उस खबर का पोस्टमार्टम किया जाता कि ऐसा क्यों लिखा, ऐसे क्यों नही लिखा? मतलब मुद्दे की बात कहाँ है? जो समाचार कोई संदेश लोगों के बीच मुद्दा ही स्पष्ट न कर पाये, वह समाचार कैसा? तो इस तरह अनजाने ही पत्रकारिता की ओर कदम बढ़ते गये!
अब आपका परिचय अपने एक और दोस्त व कथाकार सुरेंद्र मनन से करवाता हूँ जो जालंधर के होने के बावजूद , मेरे सम्पर्क में चंडीगढ़ में आये! वे चंडीगढ़ में नौकरी कर रहे थे और रमेश बतरा के साथ चंडीगढ़ में हमारी दोस्ती का सफर शुरू हुआ! जालंधर भी कुछ मुलाक़ातें हुईं लेकिन ज्यादा मुलाकातें चंडीगढ़ में हुईं। इनका पहला कथा संग्रह उठो लछमीनारायण आया! इसके बाद कैद में किताब, फिर ये चंडीगढ़ से भी उड़ान भर दिल्ली जा पहुंचे, वहां इनकी रूचि दस्तावेजी फिल्में बनाने में बढ़ती गयी और अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी जीते! पर फिर कहानी की ओर लौटे तब बर्षो बाद कथा संग्रह आया-अहमद अल हिल्लोल कहां हो? इतने बर्षों बाद मुझे याद रखा और वह कथा संग्रह हिसार के पते पर भेजा!
कैद में किताब और शिलाओं पर लिखे शब्द हिल्लोल भी आया! मैं इस दोस्त से जब फोन पर बात शुरू करता हूं तब हर बार कहता हूँ, हां भई सुरेंद्र मनन, नाम तो है मनन, भावें मेरी गल्ल मन्नन या न मन्नन ! फिर हम हंसते हुए नयी ताज़ी पूछते हैं, अपनी अपनी अपनी खैर खबर देते हैं! बेशक हमारी रूबरू मुलाक़ात पिछले कई सालों से नहीं हुई लेकिन दोस्ती बरकरार है! यह दोस्ती ज़िदाबाद! अब मिलने की इच्छा भी बलवती होती जा रही है!
जालंधर में मेरी एक लम्बे समय से महिला गीता डोगरा भी दोस्तों की सूची में शामिल हैं, जो सिमर सदोष और हिंदी मिलाप के माध्यम से परिचय के दायरे में आईं और वैसे तो अमृतसर की थीं लेकिन विवाह जालंधर में हुआ तो समारोहों में मिलना जुलना होता रहा! ये वहां पहले पंजाब केसरी से जुड़ी रहीं फिर दैनिक जागरण से! आजकल त्रिवेणी साहित्य मंच चला रही हैं और अनेक पुस्तकों की रचना कर चुकी हैं, त्रिवेणी को कभी पालमपुर तो कभी मोगा तक ले जाती हैं। नाटक भी लिखा जो लूणा के दर्द पर केंद्रित है और पंजाब की श्रेष्ठ कहानियाँ का संपादन भी किया, जिसमें मेरी कहानी मंगवाकर सम्मानपूर्वक प्रकाशित की! बीच में साहित्यिक पत्रिका भी निकाली, उसमें भी मेरी रचनायें आती रहीं वैसे गीता डोगरा सबसे ज्यादा अमृता प्रीतम से प्रभावित हैं! इसीलिए इनकी पत्रिका भी अमृता प्रीतम की पत्रिका नागमणि के आकार की है और नाम भी है पारसमणि ! लघुकथा लेखन भी किया और बहुत ही भावुक कविताओं के संकलन भी इनके नाम हैं आजकल थोडा़ अस्वस्थ रहती हैं, फिर भी साहित्य लेखन जारी है। संयोग देखिए की आज गीता का जन्मदिन है और अचानक इस ओर मेरा ध्यान गया!इनकी स्वस्थता की दुआ करते आज जालंधर की यादों को यहीं पर विराम दे रहा हूँ। फिर मिलेंगे जालंधर की यादों के साथ!
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – झबरू।)
मेरी डायरी के पन्ने से… – झबरू
हमारा शहर अत्याधुनिकता की ओर पुरज़ोर अग्रसर हो रहा है और मेट्रो बनाने का काम भी तीव्र गति से चल रहा है। ऐसे में भीड़-भाड़वाले इस विशाल शहर में जब ट्रैफिक रुकती है तो इंसान चाहे तो एक पावर नैप ले ही सकता है।
सुबह के आठ बजे थे। इस समय दफ्तर जानेवालों की भीड़ एकत्रित हो रही थी और मैं अपनी बिटिया को एयरपोर्ट से लाने के लिए निकली थी। यात्रा लंबी थी और कई ट्रैफिक लाइट पर रुकने की मानसिक तैयारी मैं भी कर चुकी थी।
ट्रैफिकलाइट के पास गाड़ी रुक गई। गाड़ी के रुकते ही फूलवाले, कूड़ा रखने के पैकेटवाले और टिश्यूपेपर बॉक्स वाले गाड़ियों के आसपास काँच पर टोका मारते हुए घूमने लगे। सुबह का समय था तो इन सबके साथ नींबू और मिर्ची बाँधकर बेचनेवाले भी घूम रहे थे और भीड़ में खड़े टैक्सीवाले बहुनी के चक्कर में उन्हीं को अधिक महत्त्व दे रहे दे।
मेरी नज़र रास्ते की बाईं ओर थी क्योंकि बाहर बिकनेवाली किसी भी वस्तु में मुझे रुचि नहीं थी। बाईं फुटपाथ पर एक आठ -नौ बरस का लड़का अपनी बाईं कमर पर साल दो साल के बच्चे को पकड़े हुए था और उसके दूसरे हाथ में एक पन्नी में गरम चाय थी। शायद सुब-सुबह अपने माता पिता के लिए किसी टपरी से चाय ले जा रहा था।
वह भी रास्ता पार करने के लिए ही खड़ा था पर उसे जल्दी न थी। वह अपनी कमर को इस तरह हिलाता कि गोद का बच्चा थिरक उठता और साथ ही खिलखिलाता। अपने छोटे भाई को खिलखिलाते देख उसका कमर नचाना बढ़ गया और वह और स्फूर्ति से उसे हँसाता।
मुझे उस दृश्य को देखने में आनंद आ रहा था। दरिद्रता में संतोष की छवि का दर्शन मिल रहा था। प्रसन्न रहने के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं इस बात को यह बालक स्पष्ट रूप से व्यक्त कर रहा था। मेरी दृष्टि बस उस भीड़ में उसी को देख पा रही थी। मौका मिलते ही वह रास्ता पार कर अपनी माँ के पास पहुँचा जहाँ वह गुलाब के फूलों का गुच्छा बना रही थी।
गाड़ी चल पड़ी और मेरी आँखों के सामने अचानक झबुआ खड़ा हो गया। झबुआ उत्तर प्रदेश के बस्ती का रहनेवाला था। उसका बाप कानपुर शहर में साइकिल रिक्शा चलाता था। उसकी पत्नी का जब देहांत हो गया तो वह अपने बच्चे को कानपुर ले आया।
उन दिनों मेरी दीदी और जीजाजी कानपुर में ही रहा करते थे। शिक्षा विभाग में उच्च पदस्थ थे तो बहुत बड़ा बँगला जो बाग- बगीचे से सुसज्जित था और नौकर – चाकर की सुविधा सरकार की ओर से उपलब्ध थी। झबरू का बाप उनके बंगले के बाहरी हिस्से में जहाँ एक गेट हमेशा बंद रहता था वहाँ अस्थाई व्यवस्था कर रहा करता था। प्रातः हैंडपंप के पानी से नहाता, अपनी धोती धोकर फैला देता और सत्तू खाकर निकल पड़ता। उसकी गठरी वहीं पड़ी रहती। दीदी को अगर पास – पड़ोस में जाना होता तो वह उसी रिक्शेवाले के साथ चली जाया करती थी।
दीदी का लड़का साल भर का ही था। झबरू का बाप एक दिन झबरू को लेकर दीदी के पास आया और झबरू को नौकर रखने के लिए कहा। आठ -नौ साल का बच्चा क्या काम करेगा ? पर झबरू के बाप की परेशानी देखकर उसे घर पर रख लिया गया। उसे दीदी के बच्चे को संभालने का काम दिया गया। वह दिन भर बच्चे के साथ खेलता उसे अपनी कलाबाज़ी दिखाता, उसे अपनी गोद में लेकर बगीचे में घूमता और दोनों खूब खुश रहते।
झबरू को बागवानी का शौक था तो वह माली का एसिस्टेंट भी बन गया था। धनिया, पुदीना, हरीमिर्च, पालक, मेथी टमाटर पत्तागोभी आदि घर के बगीचे में उगाए जाते। झबरू का काम बड़ा साफ़ था। वह बगीचे से झरे हुए पत्ते उठाकर बगीचा साफ़ रखता। लॉन पर रखी बेंत की कुर्सी मेज़ साफ़ करता। शाम को लॉन में पानी डालता और दीदी जीजाजी की सेवा में जुटा रहता।
दीदी का लड़का स्कूल जाने लगा, स्कूल ले जाने -लाने की ज़िम्मेदारी भी झबरू के पिता ने सहर्ष ले ली। इधर झबरू भी बड़ा होने लगा। दीदी के हाथ के नीचे कई छोटे -बड़े काम करने लगा। उन दिनों गरीब बच्चों को पढ़ाने -लिखाने की बात पर लोग खास विचार नहीं करते थे। पर झबरू जब सोलह वर्ष का हुआ तो जीजा जी ने उसे एक बढ़ई के हाथ के नीचे काम करने के लिए भेज दिया।
वह अभी भी उनके घर में ही रहता था। घर बुहारना, पोछा लगाना, रसोई में धनिया, मेथी पालक, पुदीना साफ़ कर देना, चूल्हा जलाना (उन दिनों गैस का प्रचलन नहीं था) आलू छील देना सब्ज़ी धोकर रखना आदि सारे काम कर नहा-धोकर नाश्ता खाकर टिफन लेकर काम सीखने जाने लगा।
झबरू बहुत हँसमुख, खुशमिजाज़, मिलनसार तथा हुनरमंद लड़का था। हर काम को सीखने की उसकी तीव्र इच्छा और त्वरित सीख लेने की योग्यता ने जीजाजी की आँखों में उसे विशेष स्थान दिया था। दीदी के लिए वह घर का सेवक मात्र था पर हाँ दीदी उसकी अच्छी देखभाल करतीं और स्नेह भी।
जिस बच्चे को झबरू गोद में लेकर घूमता था वह भी अब बड़ा हो गया था। वह अब नौवीं में पढ़ता था और झबरू शायद बाईस -तईस साल का था। कानपुर के किसी बड़े कॉलेज में फर्नीचर बनाने का बड़ा कॉन्ट्रेक्ट हीरालालको दिया गया। झबरू हीरालाल के पास ही काम सीखता था।
झबरू ने जी-जान से सभी प्रकार के फर्नीचर बनाए। मेज़, अलमारी, साहब के लिए शानदार कुर्सी, ग्रंथालय के लिए डेस्क सब कुछ नायाब डिज़ाइन के बनाए गए और झबरू की कुशलता स्पष्ट दिखाई दी। उसकी खूब प्रशंसा भी की गई। अब रोज़गार भी खूब बढ़ गया।
झबरू की उम्र बढ़ती रही, कामकाज भी अच्छा करने लगा, हाथ में अच्छा रुपया पैसा आ गया तो उसने गंगा के किनारे एक खोली किराए पर ले ली। आवश्यक वस्तुएँ जुटाकर कमरा सजाया और बाप को लेकर वहाँ रहने गया।
झबरू मेरी दीदी को माई कहता था और जीजाजी को बड़े बाबू। उसके जाने पर जिस कमरे में वह रहता था उसकी सफ़ाई की गई। एक लोहे के बक्से में बढ़ई के काम के औज़ार मिले। कुछ काँच के रंगीन टुकड़े, कँचे, गंगा के गोल- गोल पत्थर, गुलेल, भैया जी के ड्रॉइंग पेपर के कई कागज़ जिस पर फ़र्नीचर के पेंसिल से डिज़ाइन निकाले गए थे। कुछ गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ चिपका कर डिज़ाइन बनाए गए पुराने कागज़ भी मिले। कानपुर की मिट्टी थोड़ी सफेद सी होती है जिसमें बालू भी मिश्रित रहती है। मिट्टी के कई गोले मिले जिन्हें सुखाकर उस पर कई सुंदर आकृतियाँ उकारी गई थीं। मसूरदाल चिपकाकर एक सुंदर स्त्री का चित्र मिला जो देखने में कुछ कुछ मेरी दीदी जैसा ही था। अगर झबरू को पढ़ना लिखना आता तो शायद वह उस चेहरे के नीचे माई लिख डालता। सभी वस्तुओं को देखकर दीदी के नैन डबडबा उठे थे। एक योग्य लड़के को जीवन में खास अवसर न दे पाने का शायद उन्हें पश्चाताप भी होने लगा था।
झबरू जब से पिता को लेकर गंगा पार रहने गया था तब से वह भी फिर कभी लौटकर नहीं आया। कई वर्ष बीत गए। दीदी का लड़का पढ़ने के लिए लखनऊ यूनिवरसिटी चला गया तो जीजाजी ने अपना भी ट्रांसफर करा लिया।
एक दिन घर के दरवान ने आकर कहा कि कोई वृद्ध व्यक्ति उनसे मिलना चाहता है। अपना नाम वह रसिकलाल बताता है। जीजाजी तुरंत बाहर बरामदे में आए। वृद्ध कोई और नहीं झबरू का बाप था। जीजाजी को देखते ही पैर पकड़कर फूटफूटकर वह रोने लगा। शांत होने पर बोला उसके बेटे को पुलिस पकड़कर ले गई। कृपया उसे बचा लीजिए। मेरा बेटा निर्दोष है। कोई उसे फँसा रहा है।
जीजाजी की सरकारी दफ्तरों के उच्च पदस्थ लोगों के साथ न केवल परिचय था बल्कि उठना -बैठना भी था। पता चला कि झबरू खूब पैसा कमाने लगा तो गलत लोगों के संगत में रहने लगा था। वह वेश्याओं के यहाँ भी आना जाना रखता था। किसी एक पर उसका दिल आया था और वह नहीं चाहता था कि और कोई ग्राहक उसके पास जाए। बस एक दिन हाथापाई हो गई और उसने आरी से अपनी प्रेमिका और ग्राहक दोनों को मार डाला।
पुलिस पकड़कर ले गई। बाप को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि झबरू ऐसा काम कर भी सकता था। पर अब हत्या का आरोप था वह भी एक नहीं दो हत्याओं का। रसिकलाल बेटे को बचाना चाहता था पर जीजाजी को जब पता चला कि उसे शायद फाँसी की सज़ा सुनवाई जाएगी तो उन्होंने उसे यह कहकर लौटा दिया कि उनसे जो बन पड़ेगा वे करेंगे।
साल दो साल बीत गए। एक दिन समाचार पत्र में झबरू की फाँसी का समाचार आया। जिस दिन उसे फाँसी दी गई उसके बाप को मृतदेह ले जाने के लिए बुलवाया गया। शाम हो गई पर वह न आया। रात के समय पता चला कि गंगा में पेट पर पत्थर बाँधकर रसिकलाल ने आत्महत्या कर ली।
घटना तो बहुत ही पुरानी है पर आज ट्रैफिक पर खड़े उस खुशमिज़ाज बालक ने झबरू की यादें किसी फिल्म के रील की तरह आँखों के सामने घुमा दी। मैं झबरू से बहुत बार दीदी के घर मिल चुकी थी। आज उसे याद कर अनायास ही मेरे कपोलों पर अश्रु ढुलक पड़े।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-7- ताप के ताये हुए दिन… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
इधर तीन चार दिन आप सबसे मुलाकात न कर सका! आपने नये कथा संग्रह- सूनी मांग का गीत के फाइनल प्रूफ देखने के काम में व्यस्त हो गया!
चलिए आपको फिर जालंधर लिए चलता हू। आज कुछ और मित्रों से आपका परिचय करवाता हूँ और कुछ साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ी बातें भी करूंगा! पंजाब साहित्य अकादमी और बड़े भाई सिमर सदोष की यादें पहले आपको सुना चुका हूँ। आज अवतार जौड़ा और हम सभी मित्रों की संस्था विचारधारा की बात करूँगा, जिसकी बैठक हर माह में एक बार होती थी और इसमें भी दिल्ली से रमेश उपाध्याय,आनंद प्रकाश सिंह जैसे अनेक वरिष्ठ रचनाकारों को विशेष तौर पर आमंत्रित किया जिससे कि हमें न केवल अपने विचार बल्कि विचारधारा को समझने का अवसर मिल सके। यानी मीरा दीवानी की तरह
संतन डिग बैठि के
मैं मीरा दीवानी हुई!
अपने से ज्यादा अनुभवी रचनाकारों से सीखने समझने की कोशिश रही। मुझे अपनी एक कहानी -देश दर्शन का पाठ करने का सुअवसर मिला था और वहाँ मौजूद मित्र व उन दिनों ‘लोक लहर’ पंजाबी समाचारपत्र से आये सतनाम माणक ने वह कहानी तुरंत मांग ली जिसे उन्होंने पंजाबी में अनुवाद कर अपने समाचारपत्र में प्रकाशित किया! इस तरह समझ लीजिये कि हम अगर इकट्ठे बैठ कर कुछ विचार विमर्श करते हैं तो हमारी समझ बनती है और नयी राहें खुलती हैं। आज सतनाम माणक जालंधर से निकलने वाले अजीत समाचारपत्र में संपादक हैं और बीच बीच में उनकी ओर से कुछ विषयों पर लिखने का न्यौता आ जाता है। पंजाबी अजीत में भी मेरी रचनायें आज भी प्रकाशित होकर आती हैं जिन पर फोन नम्बर होने के चलते पंजाब से अनेक मित्रों की प्रतिक्रिया सुनने को मिलती है। इस तरह जालंधर से जुड़े रहने का अवसर सतनाम माणक बना देते हैं।
आगे मुझे जनवादी लेखक संघ की याद है जिसके अध्यक्ष प्रसिद्ध आलोचक व सौंदर्य शास्त्र के लिए जाने जाते डाॅ रमेश कुंतल मेघ थे और यही प्रिंसिपल रीटा बावा से मुलाकातें हुईं। मुझ जैसे नये रचनाकार को भी इसकी कार्यकारिणी में स्थान मिला! इसमें एक खास विचारधारा से जुड़े साहित्य पर आयोजन किये जाते! इसमें प्रसिद्ध आलोचक डाॅ शिव कुमार मिश्र की कही बात आज भी स्मृतियों में एक सीख की तरह गांठ बांध रखी है कि प्रेमचंद ऐसे ही प्रेमचंद नहीं हो गये, उन्होंने अपने समय की खासतौर पर किसान और गांव की समस्याओं को गहरे समझ कर गोदान जैसा बहुप्रशंसित उपन्यास लिखा जो विश्व की 127 भाषाओं में अनुवादित हुआ। प्रेमचंद ने बहुत सरल भाषा में बड़ी बातें कही हैं और इस तरह कठिन को सरल बनाना बहुत ही मुश्किल काम है। यह भी कहा कि काले ब्लैक बोर्ड पर सफेद चाॅक से ही कोई नयी इबारत लिखी जा सकती है यानी लेखक काले समाज को अपनी कलम से कल्याणकारी बना देता है!
कितनी बातें सीखने समझने को मिलतीं ! कुछ समय पूर्व ही पंचकूला में डाॅ रमेश कुंतल मेघ ने आखिरी सांस ली और रीटा बावा को महाविद्यालय में मिले आवास में बड़ी बेरहमी से मौत के घाट सुला दिया गया। वे एक बार हिसार के फतेह चंद कन्या महाविद्यालय यूजीसी की टीम की सदस्यता के रूप में आई दी तब प्रिंसिपल डाॅ शमीम शर्मा ने मुझे बुलाया था और इस तरह वर्षों बाद जनवादी लेखक संघ के दो पुराने साथी मिल पाये थे! आज के लिए शायद इतना ही काफी!
वे विचार विमर्श के ताप के ताये हुए दिन आज भी याद हैं!
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-6 – कौई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
सच! कितनी प्यारी पंक्तियाँ हैं :
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन
प्यारे प्यारे दिन,
वो मेरे प्यारे पल छिन!
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!
नहीं हम सब जानते हैं कि बीते हुए दिन कभी नहीं लौटते, बस उन दिनों की यादें शेष रह जाती हैं। मेरे पास भी बस यादें ही बची हैं, जालंधर में बिताये सुनहरी दिनों कीं! बात हो रही थी डाॅ तरसेम गुजराल के संपादन में प्रकाशित कथा संकलन ‘खुला आकाश, की और उसमें प्रकाशित कथाकारों की ! इसमें खुद तरसेम गुजराल, रमेश बतरा, योगेन्द्र कुमार मल्होत्रा (यकम), राजेन्द्र चुघ, रमेंद्र जाखू, कमलेश भारतीय, सुरेंद्र मनन, विकेश निझा वनऔर मुकेश सेठी जैसे दस कथाकार शामिल थे। आपस में हम सब मज़ाक में कहते थे कि हम दस नम्बरी लेखकों में शामिल हैं। हम में से विकेश निझावन अम्बाला शहर में रहते थे जिन्होंने आजकल “पुष्पांजलि’ जैसी शानदार मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर रखा है। इनके पास मैं और मुकेश सेठी नवांशहर से अम्बाला जाते और उन बसंती दिनों में रात का सिनेमा शो भी देखते। विकेश निझावन की कहानियों को जालंधर दूरदर्शन पर नाट्य रूपांतरण कर प्रसारित किया गया तब उनकी खूब चर्चा हुई। यही नहीं उन्हें हिसार में प्रसिद्ध कवि उदयभानु हंस ने हंस पुरस्कार से भी पुरस्कृत किया। जिन दिनों मुझे हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया तब हिसार से चंडीगढ़ जाते या लौटते समय मैं ड्राइवर को उनके घर गाड़ी रोकने को कहता। विकेश निझावन का घर बिल्कुल मेन सड़क पर ही है और हम चाय की चुस्कियों के साथ पुराने दिनों को याद करते। इनके पापा डाॅक्टर थे।विकेश ने पुष्पगंधा’ के कथा विशेषांक में मेरी कहानी भी चुनी। छोटे बच्चों का स्कूल यानी किनरगार्डन भी चलाते रहे।
हम वरिष्ठ व चर्चित कथाकारों स्वदेश दीपक व राकेश वत्स के संग भी बैठते और कथा लिखने पर बातें करते करते कथा लेखन की बारीकियाँ भी सीखते! अफसोस आज न स्वदेश दीपक हैं और न ही राकेश वत्स! स्वदेश दीपक के प्रथम कथा संग्रह- अश्वारोही को हम दोनों ने राजेन्द्र यादव के अक्षर प्रकाशन से मंगवाया और खूब डूब कर, गहरे से पढ़ा। ये अलग तरह की कहानियों का संकलन है। स्वदेश दीपक फिर एच आर धीमान के सुझाव पर नाटक लिखने लगे और उनका लिखा नाटक-कोर्ट मार्शल न जाने देश भर में कहां कहां मंचित किया गया! फिर उन्होंने मेरे द्वारा दैनिक ट्रिब्यून के लिए हुई इंटरव्यू में कहा भी कि कहानियों के पाठक कम और नाटक के दर्शक ज्यादा होते हैं और इनका दर्शकों पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है। देर तक मन पर प्रभाव बना रहता है। दुख यह है कि स्वदेश दीपक के अंदर कहीं गहरे उदासी और आत्मघाती भावना किसी कोने में रहती थी जिसके चलते एक बार रसोई गैस सिलेंडर से खुद को जला लिया और पीजीआई, चंडीगढ़ में दाखिल करवाया गीता भाभी ने! उन दिनों तक मैं देनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक हो चुका था। यह सन् 1990 के आसपास की बात होगी ! मैने संपादक विजय सहगल को यह जानकारी दी तो उन्होंने मेरे साथ फोटोग्राफर मनोज महाजन को भेजा कि उनसे हो सके तो कुछ बात करके आऊं! हम दोनों पीजीआई गये। बैड के पास गीता भाभी उदास बैठी थीं और मनोज ने पट्टियों में लिपटे स्वदेश दीपक की फोटो खींची और मैने रिपोर्ट लिखी- ‘स्वदेश दीपक को अपनों का इंतजार’ जिसमें चोट हरियाणा साहित्य अकादमी पर की गयी थी कि ऐसे चर्चित कथाकार की कोई सहायता क्यों नहीं की जा रही। मेरी रिपोर्ट का असर भी हुआ। अकादमी ने बिना देरी किये पांच हजार रुपये देने की घोषणा कर दी। इस रिपोर्ट की कटिंग बहुत साल तक मेरे पर्स में पड़ी रही। पता नहीं क्यों? तब तो स्वदेश दीपक बच गये क्योंकि अभी उन्हें हिंदी साहित्य को शोभायात्रा जैसा नाटक और मैने मांडू नहीं देखा जैसी कृतियाँ देनी थीं लेकिन फिर कुछ वर्षों बाद वही आत्मघाती भावना ने जोर मारा और वे बिना बताये घर से चले गये! कोई नहीं
जानता कि उनका अंतिम समय कहाँ और कैसे हुआ! राकेश वत्स भी पिंजौर जाते हुए बुरी तरह दुर्घटनाग्रस्त हुए और उनके इलाज़ उपचार में शास्त्री नगर में बनाया खूबसूरत मकान भी बिक गया लेकिन वे नही बच पाये! वैसे वे स्कूटर पर ही चंडीगढ़ आते जाते। हमने भी उनके स्कूटर की सवारी का लुत्फ चंडीगढ़ में अनेक बार उठाया। उनकी भी इंटरव्यू करने जब अम्बाला छावनी गया था तब अपना शानदार मकान दिखाते बड़े चाव से बताया था कि यह मकान मैंने अपनी मेहनत से बनाया है लेकिन अफसोस वही मकान बेच कर भी उन्हें बचाया न जा सका! राकेश वत्स सरस्वती विद्यालय नाम से प्राइवेट संस्था चलाते थे और उन्होंने ‘मंच’ नामक पत्रिका भी निकाली और ‘सक्रिय’ कहानी आंदोलन चलाने की कोशिश की जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। दोनों की कहानियों को मैंने हरियाणा ग्रंथ अकादमी की कथा समय पत्रिका में प्रकाशित किया और सम्मान राशि इनके परिवारजनों को भिजवाई। स्वदेश दीपक की कहानी महामारी और राकेश वत्स की कहानी आखिरी लड़ाई प्रकाशित की। तब इनकी पत्नी नवल किशोरी ने मुझे आशीष दी थी, आज वे भी इस दुनिया में नहीं है। स्वदेश दीपक की सम्मान राशि इनकी बेटी पारूल को भिजवाई जो अब इंडियन एक्सप्रेस में सीनियर पत्रकार हैं और उसका पंजाब विश्वविद्यालय में एडमिशन फाॅर्म लेकर देने मैं ही उसे लेकर गया था, प्यारी बेटी की तरह क्योंकि मैं दैनिक ट्रिब्यून की ओर से पंजाब विश्वविद्यालय की कवरेज करता था तो मेरी सीनियर डाॅ रेणुका नैयर ने पारूल को विश्वविद्यालय लेकर जाने को कहा था। पारूल आज भी मेरे सम्पर्क में है। राकेश वत्स के बेटे बल्केश से कभी कभार बात हो जाती है !
खैर! आप भी सोचते होंगे कि कहाँ जालंधर और कहाँ अम्बाला छावनी पर मैं और मुकेश सेठी एकसाथ अम्बाला छावनी और जालंधर जाते थे और बाद में चंडीगढ़ भी साथ रहा। मुकेश सेठी और जालंधर के किस्से कल आपको सुनाऊंगा!
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – द ग्रेट नानी।)
मेरी डायरी के पन्ने से… – द ग्रेट नानी
मैं डॉरोथी किंग्सवेल।
अपनी पच्चीसवीं सालगिरह मनाने के लिए मैं पहली बार भारत आई थी। यद्यपि यह पहली यात्रा थी मेरी पर ऐसा लगता रहा मानो हर शहर मेरा परिचित है। हर चेहरा मेरे देशवासियों का है, मेरे अपने हैं। यह मेरी जन्मभूमि तो नहीं है पर फिर भी मुझे यहाँ सब कुछ अपना – सा महसूस होता रहा। इस तरह के भावों के लिए मैं अपनी नानी की शुक्रगुजार हूँ।
इस संस्मरण को पूर्णता प्रदान करने के लिए हमें थोड़ा अतीत में जाना होगा क्योंकि यहाँ तीन पीढ़ियाँ और तीन स्त्रियों का जीवन रचा- बसा है।
तेईस वर्ष की उम्र में मेरी माँ एम. एस. करने अमेरिका गई थीं। वहीं उनकी मुलाकात मेरे पापा से हुई थी। पापा नेटिव अमेरिकन हैं जिन्हें अक्सर आज भी भारतीय रेड इंडियन कहते हैं। माँ ने जब पापा से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की तो नाना – नानी असंतुष्ट हुईं। माँ कुछ समय के लिए भारत लौट आईं। फिर छह माह बाद उन्हें USA में काम मिल गया और वे लौट गईं। उन्होंने पापा से विवाह कर लिया और वहीं बस गईं। फिर कभी भारत न आईं।
माँ की शादी होने पर तीन साल तक नाना – नानी उनसे नाराज़ रहे। मेरी माँ नाना- नानी की इकलौती औलाद थीं, बड़े लाड़ – प्यार से पाला था उन्हें। इस तरह स्वेच्छा से शादी कर लेने पर उनके दिल को भारी ठेस पहुँची थी। नानी बैंक में उच्च पदस्थ थीं । मृदुभाषी, मिलनसार महिला थीं।
मैं जब इस संसार में आनेवाली थी तो नाना -नानी सारी कटुता भूल गए। कहते हैं असली से ज्यादा सूद प्रिय होता है। नानी ने छह महीने की छुट्टी ली और पहली बार अमेरिका आईं। माँ – बेटी के बीच का मनमुटाव दूर हुआ। नानी ने माँ की और मेरी खूब सेवा की और फिर भारत लौट आईं। बाकी छह माह फोन पर और फिर कंप्यूटर पर चैटिंग, ईमेल आदि द्वारा बातचीत जारी रही। अपनी बढ़ती उम्र के साथ -साथ नानी के साथ मैं जुड़ी रही। मेरी दादी और बुआ जी भी आती – जाती रहती थीं।
मैं नानी के बहुत करीब थी। साथ रहती तो मुझे बहुत ख़ुशी होती थी। बचपन से उन्होंने मुझे हिंदी भाषा से परिचित करवाया। भारतीय संस्कृति, कथाएँ, राम ,कृष्ण और अन्य देवों की कथा सुनाई। भारतीय शूरवीर महाराणाओं, राजाओं , रानियों की कथा सुनाई। भारत की आज़ादी और गुलामी के कष्टों की दास्तां सुनाती रहीं , विविध उत्सवों का महत्त्व समझाया और भारत देश के प्रति मेरे मन में जिज्ञासा और प्रेम को पनपने का मौका दिया।
मेरे पापा एक अच्छे पिता हैं,एक अच्छे इंसान भी हैं। उन्होंने अपना सारा जीवन अपनी जाति के लोगों की सुरक्षा और अधिकार दिलाने में समर्पित कर दिया। वे लॉयर हैं। उन्होंने माँ को सब प्रकार की छूट दी और हम भारत से दूर रहकर भी भारतीय त्योहार मनाते रहे, गीत- संगीत का आनंद लेते रहे। हमें दोनों संस्कृतियों के बीच आसानी से तालमेल बिठाने का अवसर भी पापा ने ही दिया। पापा के कबीले की कहानियाँ, उन पर सदियों से होते आ रहे जुल्मों की कथा दादी सुनाया करती थीं। मुझे दोनों देशों और संस्कारों से परिचित करवाया गया। न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता जैसे इन दोनों देश की कथाएँ एक जैसी हैं। यह मेरा सौभाग्य ही है कि मैं दो अलग संस्कृतियों को समझने और उसका हिस्सा बनने के लिए अमेरिका में जन्मी।
नानी हर साल आतीं, छह माह रहतीं और मुझे इस भारत जैसे सुंदर देश से परिचित करवाती रहतीं। यह सिलसिला मेरी सत्रह वर्ष की आयु तक चलता रहा। मैं जब सत्रह वर्ष की हुई तो ग्रेज्यूएशन के लिए होस्टल में भेज दी गई। अमेरिका का यही नियम है।नानी का भी अमेरिका आना अब बंद हो गया। इस बीच नाना जी का स्वर्गवास हुआ।
मेरी नानी एक साहसी महिला हैं। नानाजी के जाने के बाद भी वे स्वयं को अकेले में संभाल लेने में समर्थ रहीं। अब तक हम दोनों खूब एक दूसरे के करीब आ गईं थीं।अब हम एक दूसरे के साथ विडियो कॉल करतीं। खूब मज़ा आता। अब वह मेरी सबसे अच्छी सहेली हैं।
इस साल नानी का भी पचहत्तरवाँ जन्म दिन था। उन्होंने मुझे बताया था कि अब उन्हें बड़े घर की ज़रूरत नहीं थी। वे अकेली ही थीं तो एक छोटा घर किराए पर लिया था। अपना मकान बेचकर सारी रकम बैंक में जमा कर दी और छोटे से घर में रहने गईं। वहाँ पड़ोसी बहुत अच्छे थे। उन्हें अकेलापन महसूस नहीं होने देते थे।
मैं अमेरिका से उनसे मिलने आई तो मेरे आश्चर्य की कोई सीमा न थी। नानी शहर से दूर एक वृद्धाश्रम में रहती थीं। जहाँ उनके लिए एक कमरा और स्नानघर था । इसे ही वे अपना छोटा – सा घर कहती थीं। वे खुश थीं, उस दिन वृद्धाश्रम में धूमधाम से उनका जन्मदिन मनाया गया। उनकी कई सहेलियाँ आई थीं जो अपने परिवार के साथ रह रही थीं।
मेरी नानी सकारात्मक दृष्टिकोण रखती हैं, सबसे स्नेह करती हैं, क्षमाशील हैं। मैं अब अपने घर लौट रही हूँ । अपने साथ एक अद्भुत ऊर्जा लिए जा रही हूँ। नानी ने मुझे जीवन को समझने और जीने की दिशा दी। कर्त्तव्य करना हमारा धर्म है। फल की अपेक्षा न रखें तो जीवन सुखमय हो जाता है। अपनी संतानों के प्रति कर्त्तव्य करो पर अपेक्षाएँ न रखो।
मैं उमंग, उम्मीद और उत्साह से भर उठी। प्रतिवर्ष नानी से मिलने आने की मैंने प्रतिज्ञा कर ली।
अपने जीवन में कुछ निर्णय स्वयं ही लेने चाहिए ये मैंने अपनी नानी से ही सीखा।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-5 – अपनी पीढ़ी की बात ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
आज फिर मन जालंधर की ओर उड़ान भर रहा है। आज अपनी पीढ़ी को याद करने जा रहा हूँ । जैसे कि रमेश बतरा ने अपने एक कथा संग्रह में हम सबके नाम लिखकर कहा था कि जिनके बीच उठते बैठते मैं इस लायक बना! मैं भी आज अपने सब मित्र लेखकों को याद करते विनम्रता से यही बात दोहराना चाहता हूँ कि आप सबको मैं इसीलिए याद कर रहा हूँ कि आप सबकी संगत में कुछ बन पाया। आप सबको मैं भूल नहीं पाया। मेरी हालत ऐसी हो गयी है :
जैसे उड़ी जहाज को पंछी
उड़ी जहाज पे धावै!
मुझे अपनी पीढ़ी के रचनाकार आज भी अपने परिवार के सदस्यों जैसे लगते हैं। जब भी कोई मौका जालंधर जाने का बनता है, मैं अपना बैग उठाकर वहाँ पहुँच जाता हूँ। सबसे पहले मैं हिंदी मिलाप के साहित्य संपादक सिमर सदोष को याद कर रहा हूँ जो आजकल अजीत समाचार में साहित्य संपादक हैं। इनसे हम नये लेखक मिलने जाते और इनकी कमीज़ को खींच खींच कर अपनी रचनायें बच्चों की तरह सौंपते और वे बड़े धैर्य से हमारी रचनायें लेते और प्रकाशित करते। हिंदी मिलाप संघ के हम सब सदस्य भी थे। धीरे धीरे मुझे इसी मिलाप संघ के प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंप दी। इनके साथ अमृतसर, जालंधर हिंदी मिलाप के हरे भरे लाॅन में और अपने शहर नवांशहर में साहित्यिक आयोजन किये जिनकी कवरेज पूरे पन्ने पर प्रकाशित होती थी। यहीं मैं कमलेश कुमार भुच्चर से कमलेश भारतीय बना। कुछ नाम याद आ रहे हैं- रमेश बतरा,गीता डोगरा, कृष्ण दिलचस्प, रमेश शौंकी, रत्ना भारती (जम्मू), फगवाड़ा से जवाहर धीर आज़ाद, शिमला (हिमाचल) से कुमार कृष्ण जो बाद में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रहे और स्वर्ण पदक भी पाया था। आजकल वे पंचकूला रहते हैं और दो तीन बार शिमला के कार्यकमों में हम पिछले दो चार साल में फिर मिले। रमेश बतरा तो मेरा ऐसा मित्र बना जिसका जन्म तो जालंधर का था लेकिन वह पहले करनाल में नौकरी करता रहा, फिर उसकी ट्रांस्फर चंडीगढ़ हो गयी। इस तरह मेरा दूसरा घर चंडीगढ़ भी बन गया। कभी हम इकट्ठे ही सिमर सदोष के घर रहते और रचना भाभी हमारे लिए खाना बनातीं। वे खुद भी लेखिका थीं। अब वे नहीं हैं और उनकी कमी जालंधर जाने पर हर बार खलती है। सिमर जब कभी हम पर किसी बात पर नाराज़ हो जाते तो रचना भाभी ही सब मामला संभालतीं! इसीलिए मैने पिछले वर्ष इनकी पंजाब साहित्य अकादमी के समारोह की अध्यक्षता करते कहा था कि सिमर एक ऐसा शख्स है जिसे बहुत नाजुक चीज़ की तरह हैंडल विद केयर रखना पड़ता है। पहले हमारी भाभी रचना संभाल लेती थी। अब इनकी बहूरानी ने को सब संभालना पड़ता है। वही इनकी पंकस अकादमी को भी पृष्ठभूमि में संभाल रही है। मंच पर सारी भागदौड़ वही करती दिखाई देती है। सिमर अपनी संस्था को पिछले छब्बीस साल से चला रहे हैं जिसके मंच पर डाॅ प्रेम जनमेजय, लालित्य ललित, नलिनी विभा नाजली, आशा शैली, जवाहर आजाद, सुरेश सेठ, मोहन सपरा न जाने कितने लेखक सम्मानित हो चुके हैं। मुझे प्यार से दो दो बार सम्मानित किया। एक बार जब मैं हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना और दूसरी बार दो साल पहले। सिमर का असली इरादा तो मुझे जालंधर खींच लाने का होता है। इस वर्ष अस्वस्थता के कारण जा नहीं पाया नहीं तो मेरी क्रिकेट की तरह हैट्रिक बन जाती !
खैर! यहीं मेरी दोस्ती तरसेम गुजराल से हुई जो आज तक कायम है। वे उन दिनों शेखां बाजार में रहते थे और इनके पापा गुजराल बैग हाउस चलाते थे और ये भी अपने पिता का हाथ बंटाया करते थे। इनका घर भी दुकान के ऊपर ही था जो सिमर के घर के बिल्कुल पास था। आज तरसेम गुजराल कम से कम अस्सी किताबें अपने नाम कर चुके हैं और अनेक संकलनों का संपादन भी किया है। अनेक पुरस्कार भी इनके नाम है। मज़ेदार बात यह कि इनके संपादित प्रथम कथा संग्रह -खुला आकाश के रूप आया जिसमें सबसे पहली कहानी मेरी ही थी-अंधेरे के कैदी। इसमें दस रचनाकार शामिल थे जिनमें रमेंद्र जाखू जो बाद में आई ए एस बने और हरियाणा में अपनी सेवायें दीं। आजकल सेवानिवृत्त होकर पंचकूला के मनसा देवी कम्लैक्स में रहते हैं। बीच में हरियाणा उर्दू अकादमी का अतिरिक्त कार्यभार भी संभाला। बहुत अच्छे शायर भी हैं और आवाज़ भी खूब है! जिन दिनों चंडीगढ़ दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक रहा इनके सरकारी आवास पर हर माह हम काव्य गोष्ठी में मिलते। दैनिक ट्रिब्यून में शुरू शुरू में मैंने एक रविवार यह बात अपने सहयोगियों को बताई तो वे मेरी गप्प मानने लगे और कहा कि यदि वह आपका दोस्त है तो ऑफिस आभी बुलाओ तो माने ! मैंने ऑफिस के फोन पर यही बात जाखू को कहते कह दिया कि यहाँ हमारी दोस्ती का इम्तिहान लिया जा रहा है। आप मुझे मिलने आ जाओ। उस दिन ड्राइवर की छुट्टी होने के बावजूद जाखू खुद गाड़ी ड्राइव करते आ पहुंचे और कहा कि देख लो मुझे, मैं ही रमेंद्र जाखू हूँ जो भारती का दोस्त है। सब हक्के बक्के रह गये और मेरे कहने पर तरन्नुम में एक ग़ज़ल भी सुनाई। चाय की प्याली बड़ी विनम्रता से पीकर गये। वे हरियाणा हैफेड के भी निदेशक रहे। इनकी पत्नी शकुंतला जाखू भी हरियाणा में आई ए एस रहीं जो राजनीतिज्ञ सुश्री सैलजा की कजिन हैं। इस तरह हिसार आने से पहले से ही जाखू के मुंह से सैलजा की जानकारी मिली। खुला आकाश में रमेश बतरा भी शामिल थे जो बाद में पहले चंडीगढ़ से शाम लाल मेहंदीरत्ता प्रचंड की मासिक पत्रिका साहित्य निर्झर का संपादन करते रहे बाद में मुम्बई से निकलने वाली चर्चित पत्रिका सारिका के उपसंपादक बने और जब यह पत्रिका दिल्ली आई तब हमारी मुलाकातें फिर शुरू हुईं और इस तरह मैं दिल्ली के लेखको से भी जुड़ पाया जिनमें आज भी डाॅ प्रेम जनमेजय, राजी सेठ, रमेश उपाध्याय , महावीर प्रसाद जैन, सुरेंद्र सुकुमार, जया रावत,हरीश नवल, बलराम, अरूण बर्धन, रमेश उपाध्यायऔर अन्य अनेक मित्र बने ! जया रावत का बाद में रमेश बतरा से विवाह हो गया लेकिन जोड़ी ज्यादा लम्बे समय तक जमी नहीं और रमेश अब इस दुनिया में नहीं ओंर जया भाभी गाजियाबाद में बच्चों के साथ रहती हैं और एक एन जी ओ भी चलाती हैं । सारिका के संपादक कन्हैयालाल नंदन से भी मुलाकात यही हुई। मेरी अनेक कहानियां सारिका में आईं जिसमें प्रकाशित होना बड़े गर्व की बात होती थी। फिर नंदन जी के साथ ही रमेश संडे मेल साप्ताहिक में चला गया, फिर वहाँ भी मेरी लघुकथाओं को स्थान मिलता रहा। शायद आज जालंधर की नयी अपनी पीढ़ी को यही विराम देना पड़ेगा। बाकी कल मिलते हैं। जैसे रमेश कहता था कि आज के जय जय!
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-4 – यह आकाशवाणी का जालंधर केंद्र है ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
जालंधर की यादों का सिलसिला जारी है और सुझाव भी आया कि एक बार जालंधर आकाशवाणी व दूरदर्शन को अच्छे से याद करूँ क्योंकि संयुक्त पंजाब के यही केंद्र थे और इनमें प्रसिद्ध हिदी लेखकों ने अपनी सेवायें दीं और इन केंद्रों को संवारने में अमूल्य सहयोग दिया।
मेरी जानकारी में प्रसिद्ध नाटककार हरिकृष्ण प्रेमी, गिरिजा कुमार माथुर, विश्व प्रकाश दीक्षित बटुक, श्रीवर्धन कपिल, लक्ष्मेंद्र चोपड़ा आदि जालंधर आकाशवाणी केंद्र में निदेशक रहे। जहाँ हरिकृष्ण प्रेमी व गिरिजा कुमार माथुर हिंदी के प्रसिद्ध नाटककार रहे। गिरिजा कुमार माथुर को प्रसिद्ध लेखक अज्ञेय जी के संपादन में तार सप्तक में संकलित किया गया और चर्चित कवियों में उनका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इनकी पत्नी शकुंत माथुर भी अच्छी रचनाकार थीं। वहीं श्रीबर्धन कपिल अपनी आवाज़ के दम पर राष्ट्रीय स्तर पर कमेंटेटर रहे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अमृतसर से पाकिस्तान की बस यात्रा की बहुत ही शानदार कमेंट्री की थी। राष्ट्रीय दिवसों का आंखों देखा हाल भी सुनाते रहे। विश्व प्रकाश दीक्षित बटुक को वीर प्रताप समाचारपत्र के संपादक वीरेंद्र वीर जी ने सम्मानित भी किया था। इनके बेटे विजय बर्धन दीक्षित भी जालंधर आकाशवाणी केंद्र में प्रोड्यूसर पद पर रहे ।
लक्ष्मेंद्र चोपड़ा का हिंदी लघुकथा में विशेष स्थान है। वे मुम्बई दूरदर्शन के निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हुए और आजकल गुरुग्राम में रहकर साहित्य सेवा कर रहे हैं। प्रसिद्ध पंजाबी कवि सोहन सिंह मीशा भी आकाशवाणी केंद्र, जालंधर में रहे और उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड मिलने पर नवांशहर के अपने आर के आर्य काॅलेज में भी आमंत्रित किया था। मैं और मुकेश सेठी उनको आमंत्रित करने गये थे और वे सहर्ष आये भी और अपनी प्रसिद्ध कविता -चीक बुलबली का बहुत शानदार पाठ किया था जिसका मूल भाव यह था कि जहाँ कहीं वे अन्याय देखते हैं, वे चुप नहीं रह पाते और विरोध में ऊंची चींख निकल ही आती है। दुखांत यह रहा कि वे कपूरथला की कांजली नदी में नौका विहार करते नदी में ही गिर गये और बाद में प्राण नहीं बचाये नहीं जा सके थे। आज तक उनकी कविता चीक बुलबली का सार याद है और मीशा जी भी। जालंधर आकाशवाणी केंद्र के जानकी प्रसाद भारद्वाज व हेमराज शर्मा आकाशवाणी केंद्र से बाहर अनेक कार्यक्रमों में खूब हंसाते और आकाशवाणी पर ग्रामीण कार्यक्रम बहुत बढ़िया प्रस्तुत करते। भारद्वाज की बेटी चंद्रकला भी प्रोड्यूसर रहीं। यदि हिंदी कार्यक्रम प्रोड्यूसर डाॅ रश्मि खुराना को याद न करूँ तो अन्याय होगा। उन्होंने मुझे सिखाया कि आकाशवाणी के माइक के आगे कैसे बोलना है और ऐसे ही एक प्रोड्यूसर कैलाश शर्मा ने मुझे आकाशवाणी पर बड़े अवसर दिये। वे दिल्ली से ट्रांस्फर होकर आये थे और आकाशवाणी केंद्र के पास ही रहते थे। हरभजन बटालवी और देवेंद्र जौहल पंजाबी कार्यक्रमों के प्रोड्यूसर रहे। विनोद धीर व पुनीत सहगल ड्रामा प्रोड्यूसर रहे। आजकल पुनीत सहगल दूरदर्शन केंद्र, जालंधर केंद्र के प्रोग्राम प्रमुख हैं।
आकाशवाणी केंद्र, जालंधर की बात अपने मित्र राजेन्द्र चुघ के बिना भी अधूरी रहेगी। वे आकाशवाणी के जालंधर केंद्र पहले कैजुअल अनाउंसर रहे बाद में उन्नति करते करते दिल्ली से पौने नौ बजे के प्रमुख समाचार वाचक रहे और मैं उन्हें मुलाकात होने पर मज़ाक में कहता कि अब आप राजेन्द्र चुघ से राष्ट्रीय समाचार सुनिये। वे अच्छे कवि भी हैं। जब मुझे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से पुरस्कार मिलना था तब मुझे हरियाणा भवन में बधाई देने आए थे और हमने जालंधर के मित्रों को याद किया था।
जालंधर दूरदर्शन केंद्र के समाचार संपादक प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार जगदीश चन्द्र वैद थे जिनका उपन्यास धरती धन न अपना हिंदी के बहुचर्चित उपन्यासों में से एक है और अनेक भाषाओं में अनुवादित भी हुआ। बलविंदर अत्री भी समाचार संपादक रहे और हिंदी के अच्छे कवि हैं और अनुराग ललित के नाम से लिखते हैं । रवि दीप ड्रामा प्रोड्यूसर रहे और उनका निर्दशित नाटक खींच रहे हैं आज तक याद है कि हम सब अपनी इच्छाओं को बढ़ाते जाते हैं जैसे बच्चे पतंग उड़ाते हैं, ऐसे ही हम अपनी इच्छायें बढ़ाते जाते हैं। रवि दीप आजकल मुम्बई में रहते हैं। सुरेंद्र शर्मा भी ड्रामा प्रोड्यूसर थे और उन्होंने स्वदेश दीपक की तमाशा कहानी का नाट्य रूपांतरण करवाया था। लखविंदर जौहल लिश्कारा नाम से कार्य क्रम बनाते थे जिसे प्रसिद्ध पंजाबी कवि सुरजीत पात्र होस्ट करते थे। इंदु वर्मा भी यहीं और मित्र डाॅ कृष्ण कुमार दत्त भी रहे और विपिन गोयल भी याद आ रहे हैं। दत्तू अच्छे लेखक भी हैं।
मैं सोचता हूँ कि आज के लिए इतना ही काफी है। अभी भी बहुत मित्र छूट रहे होंगे। मुझ अज्ञानी, खलकामी समझ कर माफ कर देंगे।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-3 – जालंधर के समाचार-पत्र ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
जालंधर से कितने समाचारपत्र निकले और निकल रहे हैं। आज इसकी बात करने का मन है। विभाजन से पहले लाहौर से उर्दू में प्रताप और मिलाप अखबार निकलते थे। प्रताप के संपादक वीरेंद्र जी थे जिन्हें प्यार से सब वीर जी कहते थे। लाहौर से जयहिंद नाम से एकमात्र हिंदी का अखबार निकलता था जिसमें लाला जगत नारायण काम करते थे। ट्रिब्यून भी लाहौर से ही प्रकाशित होता था।
विभाजन के बाद ये सभी अखबार जालंधर से प्रकाशित होने लगे, ट्रिब्यून को छोड़कर! यह पहले कुछ समय शिमला व अम्बाला में प्रकाशित हुआ बाद में चंडीगढ़ में स्थायी तौर पर प्रकाशित हो रहा है। अम्बाला में आज भी ट्रिब्यून कालोनी है।
अब बात जालंधर से प्रकाशित समाचारपत्रों की ! मिलाप और प्रताप जालंधर से प्रकाशित होने लगे। उर्दू नयी पीढ़ी की भाषा नहीं थी। इसे देखते हुए वीर प्रताप और हिंदी मिलाप शुरू हुए। हालांकि लाला जगत नारायण ने उर्दू में हिंद समाचारपत्र शुरू किया। इसी में पंजाबी के प्रसिद्ध कथाकार प्रेम प्रकाश काम करते थे।काफी वर्ष बाद पंजाब केसरी का प्रकाशन शुरू किया। लाला जगतनारायण व वीरेंद्र राजनीति में भी आये और सफल रहे। इसी तरह ट्रिब्यून ट्रस्ट ने भी पंद्रह अगस्त, 1978 से दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून शुरू किये।
वैसे पंजाबी समाचारपत्र भी प्रकाशित होते थे जिनमें-अजीत, अकाली पत्रिका, नवां जमाना, लोकलहर व बाद में जगवाणी भी प्रकाशित होने लगे बल्कि अब तो जागरण का भी पंजाबी संस्करण आ रहा है। बात करूँ लोकलहर की तो इसमें सतनाम माणक व लखविंदर जौहल काम करते थे और मेरी अनेक कहानियों का पंजाबी में अनुवाद कर प्रकाशित किया। लखविंदर जौहल बाद में जालंधर दूरदर्शन में प्रोड्यूसर हो गये और सतनाम माणक अजीत समाचारपत्र में चले गये। आज वे वहाँ बहुत प्रभावशाली हैं और अजीत हिंदी समाचारपत्र के सर्वेसर्वा भी। सिमर सदोष का भी अजीत समाचारपत्र में बहुत योगदान है। इसमें आज भी मेरी रचनाओं को स्थान मिल रहा है। सिमर आज भी नये रचनाकारों को प्रमुखता से प्रकाशित करते हैं। नवां जमाना में बलवीर परवाना साहित्य के पन्ने देखते थे और मेरी अनेक कहानियों का पंजाबी अनुवाद इसमें भी प्रकाशित हुआ। अजीत के संपादक बृजेन्द्र हमदर्द पहले पंजाबी ट्रिब्यून के संपादक रहे। बाद में अपना अखबार अजीत संभाला। एक साहित्यिक पंजाबी पत्रिका दृष्टि का संपादन भी किया और राज्य सभा सांसद भी रहे। किसी मुद्दे को लेकर राज्यसभा छोड़ दी थी। बृजेन्द्र हमदर्द को प्यार से सब पाजी बुलाते हैं।
जालंधर से ही एक और हिंदी समाचारपत्र जनप्रदीप प्रकाशित हुआ जिसके संपादक ज्ञानेंद्र भारद्वाज थे।जनप्रदीप तीन चार साल ही चल पाया। इसमें अनिल कपिला से मुलाकातें होती रहीं जो बाद में दैनिक ट्रिब्यून में आ गये थे। वीर प्रताप के समाचार संपादक व शायर सत्यानंद शाकिर ने वीर प्रताप छोड़ कर कुछ समय अपना सांध्य कालीन उर्दू अखबार मेहनत निकाला और बाद में दैनिक ट्रिब्यून के पहले समाचार संपादक बने ।
वीर प्रताप में ही डाॅ चंद्र त्रिखा भी संपादकीय विभाग में रहे। लगभग सवा साल हिंदी मिलाप में रहे और सिने मिलाप के पहले इंचार्ज भी रहे। (बाद में भद्रसेन ने इसका संपादन किया।) फिर उन्हें वीर प्रताप का हरियाणा बनने पर अम्बाला में एडीटर इंचार्ज बना दिया गया। वे नवभारत टाइम्स के भी प्रतिनिधि रहे और अपना पाक्षिक पत्र युग मार्ग भी प्रकाशित करते रहे। जन संदेश के संपादक भी रहे। आजकल चंडीगढ़ में हैं और हरियाणा उर्दू अकादमी के निदेशक पद पर हैं। पहले हरियाणा हिंदी साहित्य अकादमी के निदेशक रहे। इनका साहित्य में भी बड़ा योगदान है और अनेक किताबों के रचियता हैं। विभाजन पर इनका विशेष काम है।
वीर प्रताप से ही स्पाटू के विजय सहगल पत्रकारिता में आये और दैनिक ट्रिब्यून में पहले सहायक संपादक और फिर बारह तेरह साल दैनिक ट्रिब्यून के संपादक भी रहे। इससे पहले विजय सहगल नवभारत टाइम्स , दिल्ली और फिर मुम्बई धर्मयुग में भी रहे। इनका कथा संग्रह आधा सुख नाम से आया। हिंदी मिलाप में ही जहाँ सिमर सदोष मिले वहीं जीतेन्द्र अवस्थी से भी दोस्ती हुई। वे भी दैनिक ट्रिब्यून में फिर मिले और समाचार संपादक पद तक पर पहुंचे। इनकी साहित्य लेखन में गहरी रूचि थी लेकिन पत्रकारिता में दब कर रह गयी। अभी शारदा राणा ने भी बताया कि उन्होंने भी पत्रकारिता की शुरुआत हिंदी मिलाप से ही की। फिर जनसत्ता के बाद दैनिक ट्रिब्यून का रविवारीय अंक का संपादन भी किया। शारदा राणा से भी पहले रेणुका नैयर ने भी जालंधर से पत्रकारिता की शुरूआत कर दैनिक ट्रिब्यून में रविवारीय का संपादन किया। न्यूज डेस्क पर भी रहीं।
आज बस इतना ही। अगला भाग शीघ्र। आज भी कुछ भूल चूक हुई होगी। मेरी अज्ञानता समझ कर माफ करेंगे।
☆ संस्मरण – Spread Goodness Spread Happiness (SGSH) कहानी के पीछे की कहानी ☆ सुश्री दिव्या त्रिवेदी ☆
(किताब राइटिंग पब्लिकेशन्स की संस्थापिका सुश्री दिव्या त्रिवेदी के जीवन के उतार चढ़ाव की प्रेरक कथा। एक वर्ष से भी कम समय में उन्होंने 1500+ पुस्तकें प्रकाशित की हैं। ई- अभिव्यक्ति के अनुरोध पर उनका संस्मरण हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए।)
जिंदगी कभी भी आसान नहीं होती लेकिन मेरी जिंदगी आसान थी। मैंने ही अपनी जिंदगी को अशांत कर दिया था। लेकिन मैंने किस तरह उसे फिर से आसान बनाया आइए जानते है।
मुझे एक भयंकर क्रोध की बीमारी है। बचपन से ही मुझे छोटी-छोटी बातों में बहुत गुस्सा आता है। इस ही गुस्से की वजह से जब में आठवीं कक्षा में थी तब अपने हाथ में पेन की नीव से काट दिए थे। तब टीचर्स स्टूडेंट्स में भेदभाव करते थे। जो अच्छे गुण लाते थे उनको ही आगे रखते थे। उनको ही कक्षा का मुख्य बनाते थे। तब उस समय मुझे इतना गुस्सा आ रहा था कि जब शिक्षक पढ़ा रहे थे तब मैंने दोनों हाथों में पेन वाली पेंसिल 🖋️ की नीव से अपने हाथों में छाले कर दिए थे। जब छूटते समय मेरी सहेली को उनसे काम था तो मैं उसके साथ गई थी। बात करते करते समय शिक्षक ने मेरा छाले वाला हाथ देख लिया। वह देखते ही मुझे चाटा मारा और प्रिंसिपल के पास ले गए। प्रिंसिपल ने बोला कल मम्मी पापा को लेकर आना। लेकिन मैंने घर पर कुछ नहीं बताया और घर पर किसी को पता भी नहीं चला क्योंकि उस समय ठंडी का सीजन चल रहा था तो मैंने लंबा स्वेटर पहनकर ही रखा था तो किसी को कुछ पता नहीं चला।
दूसरे दिन जब में क्लास में गई तब प्रिंसिपल ने पूछा मम्मी पापा किधर है ? मैं बिना कुछ बोले सिर झुकाकर खड़ी रही। लेकिन मेरा स्कूल का आईडी कार्ड लेकर प्रिंसिपल ने पापा को फोन करके बुलाया और पापा ने मम्मी को स्कूल भेजा। मम्मी ने भी आकर चाटा मारा और पूछा यह सब क्यूं किया ? मेरे पास बोलने के लिए कुछ था ही नहीं लेकिन जवाब तो देना था इसलिए मैंने बोला की आपने कल सुबह दीदी को पानी गरम करने के लिए पूछा लेकिन मुझे नहीं पूछा। यह मैंने झूठ बोला था लेकिन क्या करती टीचर के सामने उनका बुरा नहीं ही बोल सकती थी। धीरे – धीरे सब टीचर को पता चल गया और सब टीचर मुझसे डरने लगे। जो टीचर मुझे कभी जानते नहीं थे वो भी मेरे से अच्छे से बात करने लगे थे। उनको डर था फिर गुस्से में कुछ कर दूंगी तो स्कूल का नाम खराब हो जाएगा। यह मेरी पहली आत्महत्या की कहानी थी। जिसकी शुरुआत बचपन से ही हो गई थी। लेकिन आने वाले साल और मेरा गुस्सा उम्र के साथ ज्यादा बढ़ने वाला था।
कुछ साल बाद…
मैं जब ग्यारहवीं कक्षा, जो मुंबई में जूनियर कॉलेज होता है । मुझे तारीख आज भी याद है १ नवंबर, २०१७, कॉलेज से निकलकर ऐसिड बैग में डालकर बोरीवली मुंबई में से चर्नी रोड़ जो पहले खुला था और वहां बहुत पानी की बड़ी नदी है। उधर जाकर मैं पानी में डूब गई थी। पूरा अंदर चली गई थी और मरने ही वाली थी लेकिन किसीने आकर मुझे पानी से बाहर निकाला। मुझसे वहां के लोगों ने पूछा की क्यूं यह सब कर रही हूं? लेकिन मैं चुप रही और फिर बोला मुझे मत रोको। ( उस समय पानी में मेरा एटीन थाउसैंड का फोन पानी में गया जो कभी भी ठीक नहीं हुआ ) वह लोगों ने मेरा बैग देखा की शायद किसका नंबर मिल जाए लेकिन उसमें मैंने ऐसिड की बोतल रखी थी। वो लोगों ने देखकर ही फेक दी। बैग में मेरी एक किताब मिली जिस में क्लास टीचर का नंबर लिखा हुआ था। उन लोगों ने मेरी क्लास टीचर को फोन करके सब बताया। मेरी टीचर ने मुझे कॉलेज लाने के लिए कहा और मेरे परिवार को भी संपर्क किया । फिर वो लोग मुझे स्टेशन तक छोड़कर गए और मेरी बहन मुझे लेने आई थी। टीचर ने कॉलेज बुलाया था तब जब हम कॉलेज जा रहे थे, तब सामने मेरे क्लास के मेरे क्लासमेट मेरा मज़ाक उड़ा रहे थे। टीचर को काम था तो वह मुझसे मिल नहीं पाई थी। ( वैसे अच्छा ही हुआ, मेरे में हिम्मत नहीं थी उनकी बात सुनने की ) जब दीदी घर पर लाई तो सबने मेरे पर बहुत गुस्सा किया। उनकी जगह कोई भी परिवार होता तो ऐसी हरकतें देखकर गुस्सा ही करेंगे लेकिन उस वक्त में अंदर से पूरा खत्म हो गई थी। सब बिखरता हुआ दिख रहा था । मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा की आगे मैं क्या करूं और सब लोगों का सामना कैसे करूं? किसको अपना दर्द बताऊं? वही दूसरे दिन कॉलेज जाकर पता चला कि मेरे क्लास टीचर ने हर क्लास में जाकर बताया कि मेरे क्लास की एक लड़की कल सुसाइड करने गई थी। मैं जिसको अपनी सहेली मानती थी, उसने भी वो जहां ट्यूशन जाती थे, वहां उसने भी सबको बताया। मैं जहां रहती थी, वहां मेरी क्लास की एक लड़की रहती थी। मेरा परिवार उनको जानता था। एक दिन मम्मी जब किसी से बाहर कुछ बात कर रही थी तो उन्होंने मेरी मम्मी को ताना मारा की इनकी बेटी पानी में मरने गई थी। मम्मी ने घर आकर बताया कि वह ऐसा बोल रहे थे। मुझे मन में इतना दुःख हुआ की शब्दो में वह स्थिति बयान नहीं कर सकती ।
इतना सब होने के बाद भी मेरे परिवार ने मुझ पर विश्वास करके मुझे कॉलेज भेजा। नया स्मार्ट फोन दिलाया। परिवार का प्यार भी शब्दों में बताना मुश्किल है। सब फिर से नॉर्मल हो गया था लेकिन……
फिर एक दिन मुझे गुस्सा आया और सुबह सुबह मैं गई जूहु बीच। तब मैंने ब्लैड से अपनी नस काटकर बहुत पानी में गई। ( वह ब्लैड के निशान आज भी मेरे हाथों में है।) तब भी मुझे किसीने बचा लिया और फिर से वही सब सुनना पड़ा। मैंने कई बार आत्महत्या करने के इससे भी बड़े प्रयास किए लेकिन इतना अभी बता नहीं सकती। मैंने इतना गुस्से में किया की लग रहा था; अब सब खत्म हो रहा था और वो सब मैं अपने हाथों से ही अपनी जिंदगी बर्बाद कर रही थी। जब मुझे किसी एक सच्चे मित्र की आवश्कता थी तब मेरे पास, मेरी परेशानी सुनने वाला कोई भी नहीं था। हां, जब क्लास नोट्स या कुछ काम हो तो सब आते थे लेकिन मेरे दर्द में किसीने मुड़कर भी नहीं देखा था। घर वाले, रिश्तेदार, कॉलेज वाले सब ताना मार रहे थे और मुझे और मेरे परिवार को सबका सुनना पड़ रहा था। साल बीतते रहे और समय जाता रहा। मुझे डॉक्टर बनना था लेकिन यह सब की वजह से मेरा ध्यान भटक गया था। सिर्फ मेरे परिवार की वजह से जिंदगी काट रही थी। लेकिन वो कहते है ना हर अंधेरे के बाद एक दिन रोशनी जरूर होती है और मेरा अच्छा समय भी आने वाला था….
एक दिन मैंने सोचा कि मैं बार बार मरने का प्रयास कर रहीं हूं तो भगवान मुझे क्यों नहीं ले रहे है? क्यूं मुझे यह मतलबी, घमंडी और बुराई की दुनिया में रख रहे है? जिस दुनिया में अच्छाई ना हो और दिखावे की खुशी हो, कोई मर रहा होता है फिर भी लोग मदद करने की जगह खुश होते है, ताना मरते है, ऐसी दुनिया में रहकर क्या मतलब? बचपन से वो भेदभाव देखकर मेरी जीने की इच्छा खत्म हो गई थी। उसमें भी धीरे धीरे इन्फेक्शन, कान का ऑपरेशन सब बीमारियां बढ़ रही थी। तब परिवार के इतने पैसे जा रहे थे की अंदर से मरने का बहुत मन था लेकिन उनका प्यार देखकर सब सहन कर रही थी। कई बार सोचते सोचते एक दिन सोचा कि मेरे अंदर कुछ तो है जो भगवान मुझे मरने नहीं दे रहे है। हर बार कुछ चमत्कार करके मुझे बचा लेते है। फिर मैंने सोचा ऐसी कौन सी चीज है जिससे मुझे बहुत ही गुस्सा आता है? ऐसी कौन सी बात है, जो देखकर मुझे इस दुनिया में उठ जाना ही बेहतर लगता है? फिर मुझे ध्यान में आया की इस दुनिया में इतनी बुराई, इतना घमंड, इतनी नकारात्मकता, इतना स्वार्थीपन यही मेरे गुस्से की वजह है। फिर सोचा मुझे मेरी जिन्दगी तो पसंद है नहीं और नाही कभी होने वाली है। सोचा जो बुराई मैंने देखी है, वो बुराई सब हर दिन देखते ही होंगे। उसमें से कितने सारे मेरे जैसे होंगे और जैसे की हम सब जानते है की आत्महत्या की आए दिन कई केस देखने मिलते है । फिर वो आम इंसान हो या बड़ा सेलिब्रेटी हर कोई इस जाल में फस रहा है। फिर धीरे धीरे मैंने पॉजिटिव रहना शुरू किया, संदीप महेश्वरी सर और काफी अच्छे वीडियो देखे। तब उसका तुरंत असर नहीं हुआ लेकिन कुछ महीनों बाद अपने आप एक ही मिशन की शुरआत मैंने कर दी थी जिसका नाम था स्प्रेड गुडनेस, स्प्रेड हैप्पीनेस (Spread Goodness, Spread Happiness – SGSH ) जिसमें मैं कुछ एनजीओ या कुछ बड़ा नहीं कर रही थी लेकिन धीरे धीरे मैं सकारात्मकता, बहुत छोटी छोटी मदद करके, अच्छा बोलकर, अच्छा रहकर अच्छाई फैलाने की कोशिश करती हूं। हालांकि गुस्सा तो अभी भी वही था लेकिन धीरे धीरे अच्छाई का पावर बढ़ रहा था।
इसके चलते ही मैंने सोचा मेरे सपना क्या था? मेरा सपना डॉक्टर बनने का था लेकिन डॉक्टर बनने के लिए मेरे दो मार्क्स कम आए थे। फिर मैंने Bsc बैक अप प्लान का सोचकर बारहवीं परीक्षा वापस देने का सोचा। लेकिन जब पढ़ना चाहिए था तब मैंने समय बर्बाद करके आत्महत्या और दूसरे कामों में लगी हुई थी। जब बारहवीं की परीक्षा फिर से आई तब मैं फिजिक्स प्रेक्टिकल के समय रोने लगी थी, टीचर ने भी डाटा क्योंकि मुझे कुछ आता नहीं था फिर भी परीक्षा फिर से दे रही थी। सब टीचर और घरवालों ने बोला जो मार्क्स आए है रखो और आगे बढ़ो लेकिन मैं कहां कुछ सुनने वाली थी, अब मुझे जो करना था वो करना ही था। बारहवीं का फिर से रिजल्ट आया और जितना मार्क्स चाहिए था आ गया लेकिन अभी भी नीट की परीक्षा में उतने मार्क्स नहीं आए जितने एमबीबीएस बनने के लिए चाहिए होते है। मैं धीरे धीरे बहुत निराश हो गई थी क्योंकि ना मैं बीएससी में अच्छा कर रही थी ना मैं नीट में अच्छे से ध्यान दे पा रही थी। धीरे धीरे मेरा डॉक्टर बनने का सपना टूटता हुआ दिखा और यह भी लगा की मेरे जैसे कमजोर लोग कल डॉक्टर बन भी गए तो भी कभी किसी का इलाज नहीं कर पाएंगे यह सोचकर मैंने नीट देना बंद कर दिया और डॉक्टर के सपने को त्याग दिया । ( लेकिन डॉक्टर बनने के लिए की गई मेहनत आज भी दिल में है। )
अब निराशा बढ़ रही थी क्योंकि बीएससी में भी सब ऊपर से जा रहा था। सब लोगों का बेसिक स्ट्रॉन्ग था लेकिन मेरा तो बेसिक ही वीक था। पहले सेमेस्टर में जब मैं बारहवीं बोर्ड की परीक्षा फिर से देने गई तब बीएससी का एक पेपर छूट गया और टीचर को लाख रिक्वेस्ट करने के बाद भी उन्होंने मेरा प्रैक्टिकल पेपर नहीं लिया और absent डाल दिया। जिंदगी में पहली बार मुझे absent मतलब कॉलेज में तो केटी आई। वो भी फिर से देकर मैं पास हो गई लेकिन फिर भी मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था। मैंने सिर्फ डॉक्टर बनने के बारे में सोचा था यह सब बीएससी वगैरा की कल्पना भी नहीं की थी। बहुत ज्यादा निराशा होती थी, जब क्लास में सब अच्छा कर रहे थे और मुझे आता था लेकिन मैं पढ़ाई में मेहनत नहीं कर पाती थी। मैंने कई मोटिवेशन वीडियो, गूगल में सर्च किया लेकिन कही से भी पढ़ने के लिए कुछ समझ नहीं आ रहा था। फिर भी एक डिग्री मिल जाए इसलिए सब कर रही थी। एक दिन फिर मैंने संदीप महेश्वरी सर का एक वीडियो देखा जिसमें उन्होंने समझाया था की आप वो करो जो आपको करना अच्छा लगता है। जो काम आप पूरा दिन करो तो भी आपको थकान महसूस ना हो। कुछ दिन तो समझ में नहीं आया लेकिन कुछ ही दिन बाद मेरे सर्टिफिकेट, मेरी ट्रॉफी और स्कूल, कॉलेज में जो मेरी पसंदगी चीजें थी वह लिखना था। मुझे अलग अलग विषयों पर अपने विचार लिखना बहुत पसंद है। पहले मुझे जिस पर छोटी छोटी कामयाबी मिली वह मेरी लिखावट पर ही था। अब मैंने हररोज एक छोटे छोटे सुविचार लिखकर सोशल मीडिया में डालती गई और तब से ही मैंने अच्छाई, सच्चाई और खुशियों पर लिखने की शुरआत की और मेरा मिशन SGSH आगे बढ़ाती गई ।
एक दिन मुझे इंस्टाग्राम में एक मैसेज आया की क्या आप मेरी एंथोलॉजी में भाग लेंगे? मैंने एक सेकंड भी सोचे बिना हां बोल दिया। जिसमें ऑनलाइन ३० रुपए देने थे । मेरे पास ऑनलाइन देने के लिए कुछ पैसे नहीं थे और घर पर बोलती तो शायद कोई विश्वास नहीं करता। फिर मैंने मम्मी का डेबिट कार्ड लेकर वह लिंक में पैसे दिए बिना किसी को पूछे।
वह एंथोलॉजी में मेरे दो पन्ने और मेरा फोटो था। किताब का नाम ” मेलोडी ऑफ स्प्रिंग” था। धीरे धीरे मुझे कई सांझा संकलन में लिखने के मौके मिलते रहे । लिखने का मेरा शोख अब मेरी आदत बन गई थी। इन सबके चलते मैंने अपनी पहली एकल किताब प्रकाशित की थी जिसका नाम द ब्यूटी ऑफ़ कोट्स था। मेरे लिखने की शुरुआत अब हो गई थी। अब मैं सह लेखक से लेखक और लेखक से संपादिका बन गई। मैंने करीब ५ से ७ प्रकाशन में काम किया। धीरे धीरे मुझे थोड़े पैसे भी मिलने लगे। जैसे की हम सब जानते है हर बिज़नेस के अपने रुल होते है, ठीक वैसे ही जहां मैंने काम किया वहां कुछ नियम थे जो मुझे अच्छे नहीं लगते थे। अब मुझे थोड़ा पब्लिकेशन की जानकारी मिल गई थी। तब मैंने सोचा क्यूं ना मेरा खुद का पब्लिकेशन चालू करूं? मैंने पब्लिकेशन खोला और उसका नाम मेरे मिशन SGSH पब्लिकेशन रखा। मुझे लगता था की इससे मेरा मिशन जल्दी आगे बढ़ेगा।
अब मैं एक बिजनेस की मालकिन बन चुकी थी। जहां से कुछ पैसे भी आ रहे थे। कुछ ही महीनों में, बहुत कम समय में मेरा पब्लिकेशन सारे लेखकों की खुशी बन गया था। जो हमारे ऑथर नहीं थे वो भी हमारी सराहना करते थे। गूगल, इंस्टाग्राम, हर सोशल मीडिया में SGSH पब्लिकेशन काफी अच्छा कर रहा था। लेकिन….
वो कहते है ना जब आप ऊपर चढ़ने वाले होते है तब आपका गिरना तो बनता है। और तब मुझे पता चला की मेरा एसजीएसएच मिशन अब बिज़नेस बन गया था। मेरा काम, नाम, समय सब अब बिज़नेस में लग गया था। और कई लोग इस चीज का फायदा उठाते थे। जब मैंने देखा एसजीएसएच मिशन अब बिज़नेस हो गया है और उसका लोग फायदा उठा रहे तब मैंने सोच लिया भले, अब तक कितनी भी मेहनत करी लेकिन अगर अभी नहीं बदला तो आगे मैं कभी चैन से नहीं रह पाऊंगी। इसलिए मैंने एसजीएसएच पब्लिकेशन से किताब राइटिंग पब्लिकेशन किया। मेरे लिए पब्लिकेशन का नाम बदलना आसान नहीं था लेकिन फिर भी मैंने बदला। कुछ महीनों तो थोड़ा अजीब लगा लेकिन एक बार की खुशी थी की अब मेरा मिशन और बिजनेस दोनों अलग था। वैसे तो किताब राइटिंग पब्लिकेशन भी काफी कम समय में बहुत अच्छा करने लगा और आज हमारे 99.99% लेखक खुश है। यही हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है।
लेकिन पब्लिकेशन चलाना भी मेरे लिए आसान नहीं होता है, कई बार बंद करने का मन होता है और आज भी मेरा गुस्सा कुछ हद तक बचा है। जो कई बार मेरा काम बिगाड़ता है। लेकिन फिर भी सारे खुश है और सबसे ज्यादा खुश और संतुष्ट मैं हूं। आज कई लोग मुझसे सलाह लेते है और मुझे अपनी प्रेरणा मानते है।
अब तक आपने देखा होगा आत्महत्या से लेखक से संस्थापक बनने की कहानी। भले ही आज मेरा गुस्सा मेरी कमजोरी है लेकिन मेरा मिशन वो कमजोरी से बड़ा है। इसलिए मैं हमेशा एक बात बोलती हूं की आपका एक अच्छा विचार आपकी पूरी जिंदगी बदल सकता है। मेरा सिर्फ एक अच्छा विचार अच्छाई और खुशियाँ फैलाना है। उसने मेरी पूरी जिंदगी बदल दी। पहले मैं जिंदगी काट रही थी और आज मैं जिंदगी जी रही हूं।
यह कहानी कोई काल्पनिक नहीं है। जिससे किसीको थोड़ी देर का मोटिवेशन मिले, यह मेरी जीवनी है।