हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 37 – बापू के संस्मरण-12- वह मजदूर कहां है ? …… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण –वह मजदूर कहां है ? ……”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 38 – बापू के संस्मरण – 12 – वह मजदूर कहां है ? …… 

चम्पारन में निलहे गोरों के विरुद्ध जांच का काम चल रहा था। गांधीजी के आसपास काफी लोग इकट्ठे हो गये थे ।

उनमें कुष्ठ-रोग से पीड़ित एक खेतिहर मजदूर भी था । वह पैरों में चिथड़े लपेटकर चलता था । उसके घाव खुल गये थे और पैर  सूज गये थे। उसे असह्य वेदना होती थी, लेकिन न जाने किस आत्म- शक्ति के बल पर वह अपना काम कर रहा था ।

एक दिन चलते-चलते उसके पैरों के चिथड़े खुलकर रास्ते में गिर गये, घावों से खून बहने लगा, चलना दूभर हो गया। दूसरे साथी आगे बढ़ गये। गांधीजी तो सबसे तेज चलते थे। वह सबसे आगे थे । उस रोगी की और किसी ने ध्यान नहीं दिया । अपने आवास पर पहुंचकर जब सब लोग प्रार्थना के लिए बैठे तो गांधीजी ने उसको नहीं देखा । पूछा,` हमारे साथ जो मजदूर था, वह कहां है?

एक व्यक्ति ने कहा, वह जल्दी चल नहीं पा रहा था । थक जाने से एक पेड़ के नीचे बैठ गया था । गांधीजी चुप हो गये और हाथ में बत्ती लेकर उसे खोजने निकल पड़े । वह मजदूर एक पेड़ के नीचे बैठा रामनाम ले रहा था। गांधीजी को देखकर उसके चेहरे पर प्रकाश चमक आया ।

गांधीजी ने कहा, तुमसे चला नहीं जा रहा था तो मुझे कहना चाहिए था, भाई ।

उन्होंने उसके खून से सने हुए पैरों की ओर देखा. चादर फाड़कर उन्हें लपेटा । फिर सहारा देकर उसे अपने आवास पर ले आये। उस दिन उसके पैर धोकर ही उन्होंने अपनी प्रार्थना शुरू की ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 57 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – व्यंग्य चेतना ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 57

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – व्यंग्य चेतना ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय –

यह माना जाता है कि सामाजिक-राजनैतिक रूप से जागरूक और मानसिक-वैचारिक रूप से परिपक्व भाषा-समाज में ही श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन संभव है। बंगला व मलयालम में इसकेे बाबजूद व्यंग्य लेखन की कोई समृद्ध परंपरा नहीं है, जबकि अपेक्षाकृत अशिक्षित व पिछड़े हिन्दी भाषा समाज में इसकी एक स्वस्थ व जनधर्मी परम्परा कबीर के समय से ही दिखाई पड़ती है। आपकी दृष्टि में इसकेे क्या कारण है ?

हरिशंकर परसाई – 

हां, आपका यह कहना ठीक है कि बंगला और मलयालम में व्यंग्य की एक समृद्ध परंपरा नहीं है, और न व्यंग्य है, जहां तक मैं जानता हूं। पर यह कहना कि एक बड़ी परिष्कृत भाषा में ही व्यंग्य बहुत अच्छा होता है या होना चाहिए, इस बात से मैं सहमत नहीं हूं। देखिए लोकभाषा में बहुत अच्छा व्यंग्य विनोद होता है। आपने बुंदेलखंडी के व्यंग्य विनोद अवश्य सुनें होंगे। आपस में लोग बातचीत करते करते व्यंग्य विनोद करते हैं, कितने प्रभावशाली होते हैं, अब वह तो लोकभाषा है, आधुनिक भाषा रही नहीं, आधुनिक भाषा तो खड़ी बोली हिन्दी है।

लोकभाषा में बहुत अच्छा व्यंग्य, बहुत अच्छा विनोद होता है, तो मैं समझता हूं कि भाषा किसी भी प्रकार से इसमें बाधक नहीं है। आवश्यकता है व्यंग्य चेतना की।

किसी  भाषा के लेखकों में व्यंग्य चेतना अधिक होगी तो वे व्यंग्य अधिक लिखेंगे। लोकभाषा बुंदेली में या भोजपुरी में लोग बात बात पर व्यंग्य करते हैं, बात बात में विनोद करते हैं, तो उन लोगो की कहने की शैली भी व्यंग्यात्मक हो गई है। यद्यपि लोकभाषा में व्यंग्य अधिक लिखा नहीं गया है पर वे व्यंग्य करते हैं, विनोद करते हैं। हिंदी वैसे नयी भाषा है, बहुत समृद्ध नहीं, पर इसमें कबीरदास की भाषा से तो हिंदी शायद न भी कहीं चूंकि वह बहुत प्रकार के मेल से बनी भाषा है। उन्होंने भाषा को तोड़फोड़ कर ठीक-ठाक कर लिया है, विद्रोही थे वे। कबीर दास में व्यंग्य है। आधुनिक भाषा हिन्दी में व्यंग्य की परंपरा है, भारतेन्दु हरिश्चंद्र के अलावा ‘मतवाला’ जो पत्र निकलता था उसमें उग्र, मतवाला, निराला वगैरह काम करते थे। उसमें बहुत व्यंग्य है। उसकी फाइल उठाकर देखिए उसमें व्यंग्य ही व्यंग्य है। प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त वगैरह व्यंग्य के कालम लिखते थे, जैसे मैं भी व्यंग्य के कोलौम्न कॉलम लिखता हूं। तो परंपरा है ही, उसी परंपरा में नवयुग की चेतना के अनुकूल और अपनी शैली से उसमें और जुड़कर तथा परंपराओं को तोड़कर मैंने व्यंग्य लिखा और हिंदी में व्यंग्य, लिखने वाले बहुत अधिक हैं, इसमें कोई शक नहीं, किसी अन्य भाषा में इतने अधिक नहीं होंगे शायद।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 56 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – समर्पित ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 56

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – समर्पित ☆ 

 

जय प्रकाश पाण्डेय –

आपने अपनी कोई भी पुस्तक प्रकाशित रुप में कभी किसी को समर्पित नहीं की, जबकि विश्व की सभी भाषाओं में इसकी अत्यंत समृद्ध परंपरा मिलती है।आपके व्यक्तित्व व लेखन दोनों की अपार लोकप्रियता को देखते हुए यह बात कुछ अधिक ही चकित करती है ?

हरिशंकर परसाई – 

यह समर्पण की परंपरा बहुत पुरानी है। अपने से बड़े को, गुरु को, कोई यूनिवर्सिटी में है तो वाइस चांसलर को समर्पित कर देते हैं।कभी किसी आदरणीय व्यक्ति को,कभी कुछ लोग पत्नियों को भी समर्पित कर देते हैं। कुछ में साहस होता है तो प्रेमिका को भी समर्पित कर देते हैं। ये पता नहीं क्यों हुआ है ऐसा।कभी भी मेरे मन में यह बात नहीं उठी कि मैं अपनी पुस्तक किसी को समर्पित कर दूं।जब मेरी पहली पुस्तक छपी, जो मैंने ही छपवाई थी, तो मेरे सबसे अधिक निकट पंडित भवानी प्रसाद तिवारी थे, अग्रज थे, नेता थे, कवि थे,, साहित्यिक बड़ा व्यक्तित्व था, उनसे मैंने टिप्पणी तो लिखवाई किन्तु मैंने समर्पण में लिखा-‘उनके लिए,जो डेढ़ रुपया खर्च करके खरीद सकते हैं।ये समर्पण है मेरी एक किताब में। लेकिन वास्तव में यह है वो- उनके लिए जिनके पास डेढ़ रुपए है और जो यह पुस्तक खरीद सकते हैं, उस समय इस पुस्तक की कीमत सिर्फ डेढ़ रुपए थी।सस्ता जमाना था, पुस्तक भी करीब सवा सौ पेज की थी। इसके बाद मेरे मन में कभी आया ही नहीं कि मैं किसी के नाम समर्पित कर दूं अपनी पुस्तक। जैसा आपने कहा कि मैंने तो पाठकों के लिए लिखा है, तो यह समझ लिया जाये कि मेरी पुस्तकें मैंने किसी व्यक्ति को समर्पित न करके तमाम भारतीय जनता को समर्पित कर दी है।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 58 ☆ संस्मरण – हमारे मित्र डॉ लालित्य ललित जी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर संस्मरण “हमारे मित्र  डॉ लालित्य ललित जी।  श्री विवेक जी ने  डॉ लालित्य ललित जी  के बारे में थोड़ा  लिखा  ज्यादा पढ़ें की शैली में बेहद संजीदगी से यह संस्मरण साझा किया है।। इस संस्मरण  को हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 58 ☆

 

☆ संस्मरण –  हमारे मित्र डॉ लालित्य ललित जी ☆

खाने के शौकीन, घुमक्कड़, मन से कवि,  कलम से व्यंग्यकार हमारे मित्र  लालित्य ललित जी!

गूगल के सर्च इंजिन में किसी खोज के जो स्थापित मापदण्ड हैं उनमें वीडियो, समाचार, चित्र, पुस्तकें प्रमुख हैं.

जब मैंने गूगल सर्च बार पर हिन्दी में लालित्य ललित लिखा और एंटर का बटन दबाया तो आधे मिनट में ही लगभग ३१ लाख परिणाम मेरे सामने मिले. यह खोज मेरे लिये विस्मयकारी है. यह इस तथ्य की ओर भी इंगित करती है कि लालित्य जी कितने कम्प्यूटर फ्रेंडली हैं, और उन पर कितना कुछ लिखा गया है.

सोशल मीडिया पर अनायास ही किसी स्वादिष्ट भोज पदार्थ की प्लेट थामें परिवार या मित्रो के साथ  उनके  चित्र मिल जाते हैं. और खाने के ऐसे शीौकीन हमारे लालित्य जी उतने ही घूमक्कड़ प्रवृत्ति के भी हैं. देश विदेश घूमना उनकी रुचि भी है, और संभवतः उनकी नौकरी का हिस्सा भी. पुस्तक मेले के सिलसिले में वे जगह जगह घूमते लोगों से मिलते रहते हैं.

मेरा उनसे पहला परिचय ही तब हुआ जब वे एक व्यंग्य आयोजन के सिलसिले में श्री प्रेम जनमेजय जी व सहगल जी के साथ व्यंग्य की राजधानी, परसाई जी की हमारी नगरी जबलपुर आये थे. शाम को रानी दुर्गावती संग्रहालय के सभागार में व्यंग्य पर भव्य आयोजन संपन्न हुआ, दूसरे दिन भेड़ागाट पर्यटन पर जाने से पहले उन्होने पोहा जलेबी की प्लेटस के साथ तस्वीर खिंचवाई और शाम की ट्रेन से वापसी की.

मुझे स्मरण है कि ट्रेन की बर्थ पर बैठे हम मित्र रमेश सैनी जी ट्रेन छूटने तक लम्बी साहित्यिक चर्चायें करते रहे थे.

इसके बाद उन्हें लगातार बहुत पढ़ा, वे बहुप्रकाशित, खूब लिख्खाड़ लेखक हैं. व्यग्यम की गोष्ठियो में हम व्यकार मित्रो ने उनकी किताबों पर समीक्षायें भी की हैं. मैं अपने समीक्षा के साप्ताहिक स्तंभ में उनकी पुस्तक पर लिख भी चुका हूं. वे अच्छे कवि, सफल व्यंग्यकार तो हैं ही सबसे पहले एक खुशमिजाज सहृदय इंसान हैं, जो यत्र तत्र हर किसी की हर संभव सहायता हेतु तत्पर मिलता है. अपनी व्यस्त नौकरी के बीच इस सब साहित्यिक गतिविधियो  के लिये समय निकाल लेना उनकी विशेषता है.

वे बड़े पारिवारिक व्यक्ति भी हैं, भाभी जी और बच्चो में रमे रहते हुये भी निरंतर लिख लेने की खासियत उन्ही में है. इतना ही नही व्यंग्ययात्रा व्हाट्सअप व अब फेसबुक पर भी समूह के द्वारा देश विदेश के ख्याति लब्ध व्यंग्यकारो को जोड़कर सकारात्मक, रचनात्मक, अन्वेषी गतिविधियों को वे सहजता से संचालित करते दिखते हैं.

मैं उनके यश्स्वी सुदीर्घ सुखी जीवन की कामना करता हूं, व अपेक्षा करता हूं कि उनका स्नेह व आत्मीय भाव दिन पर दिन मुझे द्विगुणित होकर सदा मिलता रहेगा.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य- संस्मरण ☆ संस्मरणात्मक आलेख  – भाग रहा कोरोना ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

डॉ कुंवर प्रेमिल

(डॉ कुंवर प्रेमिल जी  जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम नागरिकों ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक कई महामारियों से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है। आज प्रस्तुत है  उनके संस्मरण पर आधारित रचना “भाग रहा कोरोना”. उनके दीर्घ जीवन के एक संस्मरण  की स्मृतियाँ जो हमें याद दिलाती है  कि हम जीवन में कैसे-कैसे अनुभवों से गुजरते हैं।)

☆ संस्मरणात्मक आलेख  – भाग रहा कोरोना ☆  

सत्तर के दशक में ओडीसा राज्य में सरवे हेतु गया था. वहां का घना जंगल देख कर भय लगता था, बड़े बड़े अजगर, शेर, भालू, कदम-कदम पर मिलते थे, जान जोखिम में रहती थी,

हम लोग दिन भर जंगलों में काम करते थे, थक हार कर कैंप में लौटते तो हाथी दल से सामना हो जाता,  गाँव वालों के साथ टीन टप्पर बजाकर हाथियों को भगाया जाता,  भागते हाथियों को देख कर तालियां बजाते,

वैसा का वैसा दृश्य बाइस मार्च को देखने मिला, पूरा शहर घंटा-घडियाल, शंख बजा रहा था ऐसा लगता था जैसे हम लोग कोरोना को भगा रहे थे, और कोरोना सिर पर पैर रख कर भाग रहा था,

भागते हाथियों का संस्मरण भागते कोरोना से जोड़ कर मैं आशान्वित हो रहा था. आप भी हों. आशा से आसमान जो टंगा है.

यह संस्मरण सांकेतिक है किन्तु, इस आशा के पीछे छुपा है स्वास्थ्य कर्मियों, पुलिस एवं प्रशासनिक कार्य में जुटे हुए उन लाखों भारतीय नागरिकों का सतत निःस्वार्थ भाव से किया जा रहा कार्य जो हमें इस अदृश्य शत्रु से लड़ने में सहयोग दे रहे हैं।  घंटे घड़ियाल, शंख, थाली और तालियों से उन सबको नमन।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 43 – समारोप ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक अविस्मरणीय संस्मरण  “समारोप । वास्तव में जीवन के कुछ अविस्मरणीय क्षण होते हैं जिन्हें हम आजीवन विस्मृत नहीं कर सकते । वे क्षण कुछ भी हो सकते हैं  किन्तु,  हाईस्कूल से कॉलेज में पदार्पण के पूर्व हाईस्कूल का फेयरवेल जिसमें लड़कियां साड़ियां और लडके फॉर्मल्स में  सम्मिलित होते हैं, बेहद रोमांचक क्षण होते हैं। उस समय की मित्रता और  भविष्य के स्वप्न संजोते ह्रदय का स्मरण कर या मित्रों में साझा कर एक रोमांच का अनुभव होता है और लगता है  कि  काश वे दिन एक बार पुनः लौट आते जो कि असंभव हैं।  सुश्री प्रभा जी ने उन क्षणों को अपने इस संस्मरण से सजीव कर दिया है। इस भावप्रवण अप्रतिम  सजीव संस्मरण  साझा करने के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 43☆

☆ समारोप ☆ 

आयुष्यात समारोपाचे अनेक प्रसंग आले, लक्षात राहिल असा एकच समारोप, शाळेत असताना मैत्रीणीबरोबर चा अकरावीला घेतलेला शाळेचा समारोप!

मी अकरावीला असताना, शिरूरच्या विद्याधाम प्रशालेत शिकत होते, शाळेत भेटली जिवाभावाची मैत्रीण राणी गायकवाड! शाळेच्या send off ला आम्ही साड्या नेसलो होतो,आणि दोघी एकमेकींना खुप छान दिसतेस म्हणत होतो! राणीची मैत्री ही मला आयुष्यात मिळालेली अनमोल देणगी! त्या दिवशी ती माझ्याकडे राहिली होती आणि रात्रभर जागून गप्पा मारल्या होत्या! खरोखर शिरूर मधले दिवस हे मंतरलेलॆ दिवस होते! अकरावी चा अभ्यासही आम्ही एकमेकींच्या घरी रात्री जागून केला, ब-याचदा मी झोपून जायचे आणि ती अभ्यास करत असायची, एकदा रात्री खुप भूक लागली, मी तिच्या घरी गेले होते, तिनं स्वयंपाक घरात पाहिलं फक्त भात शिल्लक होता आणि कांदे, बटाटे, टॉमेटो दिसले आम्ही टॉमेटोची चटनी केली…आयुष्यात ला तो काही पदार्थ बनविण्याचा तो दोघींचाही पहिलाच प्रसंग पण चटणी खुपच टेस्टी झाली होती आम्ही भाताबरोबर खाल्ली!

अकरावीच्या परीक्षेच्या वेळी युनिफॉर्म घालण्याची अट नव्हती पण आम्ही म्हटलं आपण युनिफॉर्मचं घालू कारण नंतर कधीच परत घालता येणार नाही. सगळ्या मैत्रीणी रंगीबेरंगी कपडे घालून यायच्या पण आम्ही आकाशी निळा स्कर्ट आणि पांढरा ब्लाऊज घालून जात होतो! शेवटच्या पेपराच्या दिवशी खुप भरून आलं….कारण तो शाळेच्या समारोपाचा दिवस होता…त्या दिवशी रात्री आम्ही तंबूत माला सिन्हा चा हमसाया सिनेमा पाहिला होता…वो हसीन दर्द दे दो जिसे मै गले लगा लू…..म्हणणारी माला सिन्हा अजूनही आठवते……

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ आलेख ☆ मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी का लम्बा किन्तु , विचारणीय एवं पठनीय आलेख  ” मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा“।  वास्तव में  यह संस्मरणात्मक आलेख मानवता के अदृश्य शत्रु के कारण सारे विश्व में व्याप्त भय के वातावरण में अनुशासन ही नहीं अपितु, इस भय से भी लाभ कमाने वालों को नसीहत देता दस्तावेज है।  मानवता के इस सफरनामे  के माध्यम से डॉ गंगाप्रसाद जी ने अपने संवेदनशील हृदय की मनोभावनाओं को रेखांकित किया है। डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के इस सार्थक एवं समसामयिक आलेख के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ संस्मरणात्मक आलेख – – मानवता का सफरनामा – डरा सो मरा ☆

दिनांक –26-03- 2020
दिन-गुरुवार, समय 2:42

सुबह-सुबह मेरे ड्राइवर ने आकर दस्तक दी। आते ही जुमला उछाला, ‘जो डरा सो मरा’। मैंने यह जानते हुए भी कि जुमला मुझ पर ही उछाला  गया है सिर नीचे कर बाउंसर जाने दिया। वह गेट के बाहर ज़मीन पर ही बैठ गया और उसके ठीक पीछे लिफ्ट के बगल वाली सीढ़ियों पर उसकी बीबी जिसे कोरोना के डर से हमने बर्तन मांजने से चार दिन पहले ही मना किया है। मेरा अनुमान यही है कि मेरी ही तरह के और भी सामान्य काल के वीरों और संकट काल के भीरुओं ने उसे मना कर दिया होगा। अन्य दिनों की तरह ना तो उसे अंदर आने को कहा और ना ही कुर्सी ही ऑफ़र की। पहले भी वह भीतर भले आ जाता था पर कुर्सी पर कभी नहीं बैठा। हमेशा यही कहता था ‘साहब हमें ज़मीन पर ही बैठना अच्छा लगता है।’ उसका इस तरह बैठना मुझे पहले अच्छा लगता रहा है। कल उसका जमीन पर बैठना मुझे उतना बेतकल्लुफ नहीं लगा सो अच्छा भी नहीं लगा लेकिन इसे बुरा लगना भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह अखरने वाली बात मुझे उसके जाने के बाद पता चली।

25 फ्लैट वाले हमारे अपार्टमेंट का वह केयर टेकर भी है। इन दिनों उसकी पत्नी, दो बेटे और उसे मिलाकर परिवार के कुल 4 सदस्य बस एक कमरे में गुजर-बसर करते हैं। कोई तीन-चार महीने पहले उसका बड़ा  बेटा, बहू और पोती भी इसी के साथ रहते थे। यानी इसका कुल मिलाकर 7 जनों का कुनबा  है। लेकिन जिन दिनों इसके बहू बेटा साथ रहते थे, केवल वही कमरे में सोते थे और शेष जन 12:00 बजे रात के बाद बाहर की पार्किंग में अपनी अपनी खाट बिछाकर सो जाते थे। लेकिन ये सभी तभी सो पाते थे जब अपार्टमेंट के मुख्य द्वार पर ताला लग जाए और ताला लगने का समय 12:00 रात निर्धारित है। इसके बावज़ूद ‘निबल की बहू सबकी सरहज। ‘आने जाने वालों की आज़ादी के कारण ताला कभी-कभी एक-दो बजे भी खोलना पड़ता  है। संभव है कि इन दिनों इन लोगों को कुछ राहत हो क्योंकि अभी लॉकडाउन का काल है। यह सब केवल मैं अनुमान से कह रहा हूँ । वह इसलिए कि दो दिनों से नीचे उतरना क्या दरवाज़े से बाहर भी कदम नहीं रखा है। लेकिन केवल नींद ही तो सब कुछ नहीं है भूख भी तो कुछ है। नींद भी तभी लगती है जब पेट में कुछ पड़े। जब मुझ पेट भरे हुए को नींद  नहीं आ रही है तो उन्हें कैसे आती होगी।  रोज कुआं खोदकर पानी पीने वालों का दर्द  भला वे क्या जानेंगे जिनके घर बिसलेरी की बोतलें आती हैं।

बीते रविवार को ये लोग अपने भांजे की मंगनी में गए थे। ज़ाहिर सी बात है सारी जमा पूंजी वही खरच आए होंगे। ड्राइवर के उस जुमले पर जो जीवन का असली फलसफा था मैंने सौ रुपए निछावर किए तो उसने ऐसे लपक लिए जैसे कोई बंदर हाथ से थैली लपक लेता है। ऐसा एक  वाकया उज्जैन में वास्तव में मेरे साथ उस समय घटा था जब भैरवनाथ के दर पर गया था। चढ़ाने जा रहे प्रसाद को एक लंगूर मेरे हाथ से बिजली की गति से लपक ले गया था। यह तो गनीमत है कि प्रसाद वाले के द्वारा लाख कहने के बावजूद मैंने शराब की बोतल नहीं ली थी। नहीं तो हो सकता है कि वह उसे भी लपक ले जाता और मेरे ही सामने बैठकर गटकता।  इंसान के भीतर की पीड़ा के लिए इतनी भोंड़ी उपमा मैं उसके अपमान के लिए नहीं अपितु उसकी ज़रूरत की तीव्रता को दर्शाने के लिए दे रहा हूँ। यद्यपि मेरे बिस्तर पर डेढ़ सौ रुपए और पड़े थे लेकिन एटीएम के कुंजीपटल को दबाने के डर से मेरे मन ने पुनः अपने बढ़े  हुए हाथ सायास रोक लिए थे। उसकी पत्नी को कुछ दिनों के लिए काम से विरमित के कारण और कुछ अपने जीवनानुभव से भी उस अपढ़ ने मेरे डर को पढ़ लिया था। इसमें झूठ भी क्या है। आज की रात मिलाकर दो रातें हो रही हैं बिना सोए हुए। यह डर नहीं तो और क्या है!

मेरी पत्नी शुगर की मरीज़ है। टीवी पर बार-बार शुगर वालों को हाई रिस्क कहा जा रहा है। इटली में रह रहे एक भारतीय शेफ और देशभक्त गायिका श्वेता पण्डित के डरावने अनुभव वाले वीडियो। इसी तरह से अन्य देशों के डरावने दृश्यों से भरे संदेश पर संदेश के बावज़ूद अपने कुछ देश वासियों की नादानियां और भी डराती हैं। इस वज़ह से कई दफ़े टी वी बंद करके कुछ ही मिनटों में पुन: उसे खोल के बैठ जाता हूँ।

बच्चे और नातिनें पोतियाँ,नाते रिश्तेदार और मित्र हमसे दूर हैं। उनके ठहाके और  दूर से दिखने वाले चेहरों की आभासी खुशी  जब तक देखता हूँ खुश रहता हूँ। उसके बाद फिर वही मायूसी। कंपनी के काम से गया बीमार भांजा इन्दौर में फँस गया है और भतीजा बंगलौर में। गाँव में माँ और भाई, उनकी पत्नियाँ, बहुएँ और पोते-पोतियाँ। लब्बोलुआब यह कि बहिनें और उनके  परिवार समेत पूरा कुनबा अलग-अलग गाँवों और शहरों में। इन सबसे कम से कम बारह सौ से डेढ़ हज़ार किलोमीटर दूर बैठा मैं। डर को इतने भयावह रूप में वह भी इतने करीब से बल्कि अपने ही भीतर ज़हर बुझे बरछे  की मानिंद धंसे पहले कभी नहीं देखा। शायद अपने-अपने जीवन में पहली दफ़ा इतने बड़े और अदृश्य शत्रु से हर कोई अकेले लड़ रहा है। यह भी इस धरती के इतिहास का पहला युद्ध है जिसे एक जुटता के साथ किंतु अकेले-अकेले लड़ते हुए घर बैठे जीता जा सकता है।

टीवी चैनलों पर बैठे डरे-डरे चेहरे और भी डरा रहे हैं। उनसे भी ज़्यादा विकसित देशों से आने वाली खबरें डरा रही हैं। फिर हम क्यों ना डरें। आखिर हम भी तो हांड़-माँस के ही हैं ना। जिसके परिणाम का पता ना हो डर लगता ही है। बड़े से बड़ा प्रतिभाशाली विद्यार्थी भी परीक्षा परिणाम के पूर्व डरा डरा-डरा रहता है। यह दीगर बात है कि बाद में  वह कहे कि मैं अपने परिणाम से आश्वस्त था। मैं भी अपनी ही तरह के डरे हुए दूसरे बुद्धिजीवियों की तरह बाद में झूठ बोलूं इसके पूर्व ही अपने डर को लिपिबद्ध कर लेना चाहता हूँ। हो सकता है कुछ दिन बीतने के बाद मैं इसे लिख देने के बावज़ूद अपनी ईमानदारी कह कर कॉलर ऊँचा करूँ। अपने को खुद ही हरिश्चंद्र या गाँधी  पुकारूँ। इसे अपना अप्रतिम साहस बताऊँ। यह और बात है। पर, अभी तो अपने भीतर का डर यथार्थ है। वास्तविक है।

ऊपर मैं जिस ड्राईवर की बात कर रहा था ऐसे न जाने कितने हर गली, हर मोहल्ले, हर गांव और हर शहर में पड़े होंगे। बहुतेरे नालों के किनारे की झुग्गियों में भी होंगे। कूड़ेदानों और भिनभिनाती मक्खियों (इससे अनजान कि मक्खियाँ भी कोरोना की संवाहिका हैं) से भरे कूड़े  के ढेरों  में जीविका खोजने वालों पर ढेर के ढेर मुंह बना रहे होंगे। उन सबके चूल्हे ठंडे पड़े होंगे। शराबियों की बीबियाँ अपने शौहरों को अब न कोस रही होंगी। जब कोई काम पर ही न गया होगा तो पिएगा क्या? अब वह भी अपनी करनी पर पछता रहा होगा। सुनारों की दुकानें भी नहीं खुली होंगी जहां अपने इकलौते जेवर पायल या  बिछियों को बेचकर कोई मजबूर मज़दूरन  अपने बच्चों के लिए आटा ला सके। माना कि इनकी नींद तो इस मज़बूरी से भी उड़ी होगी। परंतु मेरी नींद क्यों उड़ी हुई है?

कल के पहले मेरा यही ड्राइवर जिसका नाम ए बी चौहाण है, स्वाभिमानी लगता रहा है। ज़बरन देने पर ही इसने कभी कुछ पैसे  अपनी हथेली पर  रखने दिए हैं। लेकिन कल उसमें यह स्वाभिमान गायब-सा दिखा। अपने स्वाभिमान की भरपाई एक और नए जुमले से की कि, ‘मौत से वह डरे जिसके पास कुछ हो। मेरे पास न तो कोई दुकान है न मकान फिर मैं क्यों डरूं।’ शायद यही जीवन दर्शन अन्य निर्धनों का भी हो। हमें उन्हें डराने से अधिक समझाना है। मुझे लगता है हम बुद्धिजीवियों ने यही नहीं किया।

मुंबई और पुणे से अपने-अपने वतनों को गठरी लादे भाग रही  भीड़ों का भी  ध्येय वाक्य मेरे ड्राइवर वाला ही ध्येय वाक्य रहा होगा। हो यह भी सकता है कि सामने खड़ी मौत के डर और भूख के भय की वज़ह से इंसान से भीड़ में तब्दील यह जन सैलाब ‘मरता क्या न करता’ की रहन पर  हज़ार-हज़ार किलोमीटर तक के सफ़र पर पैदल, रिक्शे, साइकिल, ट्रेन या बस में ठूंसे-ठूंसे जाने को खुशी-खुशी तैयार हो। इन सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां हैं। पर वे सड़क की ओर पागलों की तरह क्यों भागे जा रहे हैं जिनके घर कम से कम महीने भर का राशन है। मौज़-मस्ती के चक्कर में उठ-बैठ रहे हैं या फिर पुलिस से धींगामुश्ती कर रहे हैं। कोई जन प्रतिनिधि वह भी विधायक सपर्पित चिकित्सकों के लिए गालियों का उपहार दे रहा है। हाथ उठा रहा है। इनमें कुछेक सही भी हो सकते हैं। पर पुलिस भी इतनी पागल या महाबली  नहीं कि दिन भर भागती हुई लाठियाँ ही भाँजती रहे। पुरी की सब्जी मंडी से भी हम कुछ सीख ले सकते हैं।

मेरा डर कुछ इसलिए भी बढ़ा है क्योंकि कल रात को 9:00 बजे से ही कुत्ते भौंकने लगे थे। अभी  जब सुबह के 4:00 बज रहे हैं कहीं से भी कुत्तों के भौंकने की आवाज़ नहीं आ रही है और न ही सड़क पर किसी भी प्रकार के वाहन का स्वर। फर फर फर फर पत्तियां फड़काने वाली सामने की नीम भी मौन है और कभी हर हर हर हर हरहराने वाले कोने वाले पीपल बाबा भी।

नींद अभी तक नहीं आई है और सात बजते-बजते टीवी पर देखता हूँ कि मुश्किल से पाँच साल का बच्चा अपने पिता को ड्यूटी पर नहीं जाने दे रहा है। रो-रो कर उसका बुरा हाल है। वह अपने पिता से गुहार कर रहा है कि, “पापा प्लीज़ बाहर मत जाओ कोरोना है।” बिलखते बच्चे और पिता को कर्तव्य और वात्सल्य के बीच झूलते कारुणिक दृश्य किसे नहीं द्रवित कर देंगे। पिता आखिर चला गया और बाहर जाकर रोया होगा। यही सोच-सोच कर मेरी आँखें अभी तक नम हैं। भीतर-बाहर कहीं से भी कुछ भी सामान्य नहीं लग रहा है। कभी-कभी लगता है कि  कहीं यह सब कुछ अपने ही भीतर का रचा हुआ तो नहीं है जो उमड़ घुमड़ कर बादलों-सा फट पड़ने को आतुर है। लेकिन हाथ-पाँव पटक-पटक बेहाल हुए जा रहे बच्चे के विलाप को कैसे झुठलाऊँ।

बच्चे से बूढ़े  तक में व्यापे डर के इतने सारे रूप और कारणों के होते हुए भी हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है जो जीवन के प्रति साहस बढ़ाने और आशा बँधाने के लिए पर्याप्त है बल्कि पर्याप्त ही नहीं पर्याप्त से भी कुछ अधिक है। अपवाद स्वरूप एकाध जनप्रतिनिधियों की नापाक हरक़तों के विपरीत विधायकों, सांसदों, सरकारों की राहत वाली घोषणाएँ। करोड़ों  गरीबों के लिए हाथ बढ़ाते भामा शाह। भूखों को खाना खिलाते, सैनेटाइज़र और मास्क लिए राहों में खड़े उत्साही नागरिक। अपनी आँखों के तारे को झिटक कर ड्यूटी जाते पुलिस कर्मी। अपनी गीली आँखों से अपने परिवार को भूले हुए उनसे महीनों से दूर राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाते समर्पित चिकित्सक। इनमें से बहुतों की हफ्तों और महीनों से उड़ी नीँदें भी मेरी नींद उड़ने का कारण है। हमें क्या पता कि  हमारे प्रधानमंत्री, उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और अधिकारी कब से नहीं सोए हैं। कर्मचारी कब नहाते-धोते हैं। इसका पता तो उनके घर वालों को भी नहीं होगा। सब कुछ सबसे नहीं कहा जा सकता। कुछ बातें महसूसने की भी होती हैं। शायद मेरी बेचैनी का एक कारण यह भी है।

अपनी महासागरीय संस्कृति महाप्रलय के बाद भी सँभली है। संस्कृति-शूरों के शौर्य और धैर्य से धरती लहलहाई है। इस संकट काल में कल्पना करें कि मनु का अकेलापन हमारे इस अकेलेपन या घर में अपनों के बीच  बैठकर समाज से कटाव (वह भी करुणार्द्र  अपील के साथ कही जा रही ‘दूरी पर रहने’ का) से कितना बड़ा रहा होगा। निश्चय ही अपने आयतन में भी और गुरुत्त्व में भी हमारे इस एकांतवास से यहाँ तक कि कैदियों के एकांतवास से भी इतना बड़ा रहा होगा जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। उसकी तुलना में हमारा यह अकेलापन कितना लघु, हल्का और सीमित है। लक्ष्मण को शक्ति लगने के बाद वाले राम, यदुवंश के सर्वनाश के बाद वाले कृष्ण, पुत्र के दाह संस्कार के लिए अपनी ही पत्नी से कर मांगते हरिश्चंद्र, अपने बेटों को दीवार में चुने जाते देखने वाले गुरु गोविंद सिंह हों या दूसरे सिक्ख गुरु थाल में अपने ही बेटे का कटा सिर इस उपहास के साथ हृदय विदारक दृश्य को देखते-सहते हुए कि, ‘यह तरबूज है।’  मानव जाति और राष्ट्र के लिए अपने को इन विषम स्थितियों में संभालने वाले परम साहसी और सन्तोखी  गुरु हों या फिर शीश महल गुरुद्वारा पर मत्था टेकते ही आज भी रोंगटे खड़े कर देने जैसे असर रखने वाले  क्रूरता के शिकार हुए गुरु तेग बहादुर जैसे वीर बहादुर हों। क्या ये वीर बहादुर हमें कुछ भी साहस नहीं देते? हमारा मनोबल नहीं बढ़ाते? बढ़ाते हैं। बहुत बढ़ाते हैं तभी तो हम अब तक अजेय माने जाने वाले शत्रु के सामने पहाड़-सा सीना ताने खड़े हैं।

बात सिर्फ इतनी-सी ही नहीं है कि हम इन साहसी त्यागियों और बलिदानियों से कुछ भी साहस नहीं ले पा रहे हैं। बात कुछ और  है जिसके कारण हमारी साहसी और बलिदानी  संस्कृति के संवाहक प्रबुद्ध जन तक के भीतर भी डर  समाया हुआ है और मेरी ही तरह और भी बहुतों की नींद उड़ी हुई है। हमारे इन बलिदानियों के शत्रु दृश्य थे और हमारा शत्रु अदृश्य।

इन कारणों के बीच से अपना सिर उठाता एक और बड़ा कारण भी है मेरे भीतर समाए डर और उसके फलस्वरूप नींद उड़ने का। यह है नक्सलियों द्वारा 17 जवानों की निर्मम हत्या। इसी के साथ एक और घटना भी है जो भीतर तक दहला देती है। वह घटना किसी और स्थल की नहीं बल्कि उस स्थल की है जिसके दरवाज़े  हमेशा-हमेशा के लिए  जितना किसी भक्त के लिए खुले रहते हैं उतना ही भूखे के लिए भी और जिसका एक धर्म लंगर खिलाना भी है। यह घटना अफगानिस्तान के उस गुरुद्वारे की है जिसमें हमने 20 लाशें बिछी हुई देखीं। इतना ही नहीं कइयों के तो चिथड़े भी उड़े हुए थे। नक्सली और आतंकी गतिविधियों में बिछी हुई है लाशें भय को भी भयभीत कर देने की क्षमता रखती हैं। मेरी पीड़ा के यह और पिछले सारे कारण या तो ममता के कारण हैं या फिर करुणा के। मेरी चिंता का एक विषय और है कि मेरी वृत्ति के विपरीत एक वृत्ति घृणा भी इनके साथ-साथ मेरे भीतर किसी के लिए  हिलोरें मारे जा रही है।

कोरोना जैसी विश्वव्यापी महामारी के कारण बने आपातकाल में एक ओर जहाँ सारा विश्व एकजुट होकर अपने अदृश्य शत्रु से लोहा ले रहा है वहीं दूसरी ओर आतंकी और नक्सली गतिविधियाँ  जारी हैं। इन्हीं के सहधर्मी  साइबर जालसाज, मुनाफ़ाखोर और नकली मास्क बनाने वाले भी अवसर का लाभ उठाकर सक्रिय हैं। ऐसी मुश्किल घड़ी में जब पता नहीं कब कहां से और किसके द्वार पर मौत अपने लावलश्कर के साथ आ खड़ी हो और जो इन  दुष्टों के द्वार भी आ सकती है वह भी बिना दस्तक दिए, इनकी हरकतें घृणा ही पैदा कर सकती  हैं।

निष्प्राण ट्रेन तक का एक टर्मिनल पॉइंट होता है।वह वहीं ठहर भी जाती है। उसके आगे वह एक इंच भर भी नहीं जाती। लेकिन लगता है कि क्रूरता और लोभ का कोई टर्मिनल पॉइंट है ही  नहीं। माना इन नक्सलियों और आतंकियों का कोई भी दीन-ईमान नहीं होता। लेकिन मानवता की सेवा का ढोंग रचने वाले  व्यापारियों तक में भी तो कुछ न कुछ होना ही चाहिए। अगर  नकली मास्क पकड़ में ना आए होते तो न जाने कितने धरती के भगवान (हमारे जीवन रक्षक चिकित्सक) इनके लोभ की भेंट चढ़ गए होते। उन्हें पहनने वाले मरीज़ और चिकित्सक केवल एक विश्वास के नाते मारे जाते। ऐसे धन लोलुप भी हमारे हत्यारे ही हैं। हाँ, एक बात ज़रूर है कि इनके द्वारा की गई हत्याओं से न तो खून फैलता है और न खौलता है फिर भी न जाने क्यों मेरा खून खौल रहा है।

हमारा समकाल भीषण संकट का काल है,जिसमें हमारे देश के प्रधानमंत्री से लेकर हर जिम्मेदार पत्रकार, नागरिक, नेता, अभिनेता, रचनाकार और गायक अपने-अपने तरीके से और पूरी ईमानदारी से बहुत संवेदनशील तरीके से अपील कर रहे हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि इनसे पत्थर भी पसीज  गए होंगे। पर, मनुष्य जाति के कलंक  नक्सली आतंकी और धन लोलुप व्यापारी बिंदास भाव से अपने कुत्सित, क्रूर और बर्बर कृत्य में लिप्त हैं। मेरे भीतर कुंडली मारकर बैठ गया डर और उससे उड़ी नींद को असली समाधान तभी मिलेगा जब ये हत्यारे भी निर्भया के हत्यारों की तरह तख्ते पर झूल रहे होंगे। आखिर इनका भी तो कोई न कोई टर्मिनस होना ही चाहिए।

अपने ही घर में रहना न किसी से मिलना-जुलना  न किसी को बुलाना। इसके बावजूद बीस-बीस बार हाथ धोना यह आज का यथार्थ है डर नहीं । लेकिन यह डर में तब्दील हो रहा है? कोई और अवसर होता तो इतनी बार और इतनी  देर तक हाथ धोने के कारण किसी न किसी मनोचिकित्सक के पास जाना ही पड़ता। लेकिन आज समय की माँग है। युग सत्य है। हर युग का अपना धर्म होता है। चारित्र होता है। युग सत्य होता है। इस सत्य को कोई नकार नहीं सकता। इसलिए बड़े से बड़ा चिकित्सक भी इसे ही सही ठहराएगा। हो भी क्यों न! एक-एक करके अपने भाइयों को खोता हुआ रावण या बेटों को  खोता हुआ धृतराष्ट्र भी कभी इतना न डरा होगा। यदि वे इतना डरे होते तो न तो ये युद्ध होते और न ही रावण और धृतराष्ट्र का सर्व(वंश)नाश होता है।

मेरी समझ में सर्वसहा भारत भूमि भी इतना और पहले कभी न डरी होगी। न तो भीतरी आक्रमणकारियों के आतंक से और न ही बाहरी आक्रांताओं के आक्रमणों से। शायद उनके द्वारा अनेकश: किए गए  नरसंहारों से भी नहीं। जलियांवाला बाग हत्याकांड से भी हमारा देश इतना भयभीत न हुआ होगा। दोनों विश्व युद्धों से भी दुनिया इतनी तो नहीं ही डरी  होगी वरना ये दोनों युद्ध 5-5 सालों तक न खिंचे होते। लेकिन हम दुस्साहसी रावण नहीं हैं और मोहांध धृतराष्ट्र भी नहीं। हमारी आँखें खुली हैं और दृष्टि भी साफ़ है। इससे एक बात साफ़ हो जाती है कि यह डर सकारात्मक है। लेकिन इसे इतना भी पैनिक नहीं बनने देना है कि सीधे अटैक ही पड़  जाए।

सारी बातें एक तरफ़ और यह कहावत एक तरफ़  यानी कि सौ बातों की एक बात ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत।’

हम जीतेंगे इस कोरोना से भी। जैसे जीतते आए हैं त्रेता में रावण को और द्वापर में कौरव दल को। भले ही यह कलयुग का समय है। पर,यह जीत तभी संभव है जब हम सरकारी लॉकडाउन का उसी आस्था से सम्मान करें जिनके साथ अपने पूजा स्थलों पर जाते हैं। घर में कोई सामान न हो तो अपरिग्रही होकर 14 अप्रैल तक रह सह लें। खाने का सामान भी कम पड़ जाए तो कुछ दिनों के लिए उपवास  और रोज़े रख लें। इसी में बुद्धिमानी है। -“सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध्ं  त्यजति पण्डित:।”

इस तरह यदि अपने संकल्पशील मन से लड़ें तो इस कलयुग में भी इस महायुद्ध को जीतने में महाभारत से  तीन दिनों का ही अधिक समय लगेगा यानी इक्कीस दिनों में जीता जा सकेगा। इनमें से भी इतने दिन तो बीत ही चुके हैं कि बस महाभारत के युद्धकाल के बराबर का ही समय बचा है।

यकीन मानो ये दिन ब्रह्मा के दिन नहीं हैं। कट जाएँगे। कोई सरकार और उसके अधिकारियों-कर्मचारियों को शत्रु न समझें। सरकारी प्रयासों के उलटे अर्थ न लें। कोई भी कर्मचारी न तो किसी के झूठे सज़्दे में है और न ही किसी से दुश्मनी निभाने के मूड में। वह अपने कर्तव्य और धर्म को निभा रहा है न कि किसी दूसरे के। तुम्हें कष्ट देने की मंशा भी उसकी कत्तई नहीं है। हथेली पर जान लिए  सीमा पर  संगीनें ताने खड़े वीर जवानों की भाँति चिकित्सक, पुलिस और अन्य कर्मचारी जो हमारी आवश्यक सेवाओं में लगे हैं, कोरोना वारियर्स हैं। दुनिया भर से मिल रही सूचनाएं बताती हैं कि कोरोना के दूसरे चरण में प्रवेश तक ही कई चिकित्सक जान भी गवां चुके थे। अपने देश में भी एक चिकित्सक शहीद हुआ है।  फिर भी चिकित्सक  सेवाएँ दे रहे हैं। इसी तरह के खतरे दूसरे कर्मचारियों को भी हैं। उनके त्याग को समझें। इसे दुष्यंत के एक शेर की मदद से (उसके परिप्रेक्ष्य को सीधे ऋजु कोण पर बदलते हुए) भी समझा जा सकता है-

“अपने ही बोझ से दुहरा हुआ होगा
वह सज़दे में नहीं था तुम्हें धोखा हुआ होगा।”

अत:आइए हम सब मिलकर अपने मन को बिना हराए इसे घर में ही रहकर हराने का संकल्प लें, ‘तन्मे मन: शिव संकल्पम् अस्तु!’

 

डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

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हिन्दी साहित्य ☆ होली पर्व विशेष – अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 2☆ प्रस्तुति – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  उनके । द्वारा संकलित  बाल साहित्यकारों की यादगार  होली के संस्मरण ।  ये संस्मरण हम दो भागों में प्रकाशित कर रहे हैं।  यह इस कड़ी का अंतिम भाग है।  हम सभी बाल साहित्यकारों का ह्रदय से अभिनंदन करते हैं । )

श्री ओमप्रकाश जी के ही शब्दों में –

“होली वही है. होली का भाईचारा वही है. होली खेलने के तरीके बदल गए है. पहले दुश्मन को गले लगाते थे. उसे दोस्त बनाते थे. उस के लिए एक नया अंदाज था. आज वह अंदाज बदल गया है. होली दुश्मनी  निकालने का तरीका रह गई है.

क्या आप जानना चाहते हैं कि आप के पसंदीदा रचनाकार बचपन में कैसे होली खेलते थे? आइए उन्हीं से उन्हीं की लेखनी से पढ़ते हैं, वै कैसे होली खेलते थे.”

प्रस्तुति- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 2 ☆

गौरव वाजपेयी “स्वप्निल”

गौरव वाजपेयी “स्वप्निल” एक नवोदित बालसाहित्यकार है. ये बच्चों के लिए बहुत अच्छा कार्य कर रहे है. उन का कहना है कि मेरे बचपन की यादगार होली रही है. यह बात वर्ष 1991 की है. तब मैं नवीं कक्षा में पढ़ता था. होली पर मेरे गृहनगर शाहजहाँपुर में लाट साहब का जुलूस निकलता है.वैसे तो सड़क पर जा कर हर बार बड़ों के साथ मैं यह जुलूस देखता था, किन्तु उस वर्ष पहली बार मैं कुछ जान-पहचान के हमउम्र लड़कों के साथ जुलूस के साथ आगे चलता चला गया. ढोल व गाजे-बाजे के मधुर संगीत और चारों ओर बरसते रंगों का हम भरपूर आनन्द ले रहे थे.

परिवार के बड़े लोगों ने हमें ज़्यादा दूर जाने से मना किया था, पर होली के रंग-बिरंगे उल्लास में डूबे हम चलते-चलते ऐसे अनजान मोहल्ले में पहुँच गए जहाँ कुछ बड़ी उम्र के लड़के शराब के नशे में धुत्त थे. वापस लौटते समय उन्हों ने हमें घेर लिया. अपशब्द कहते हुए हमारे कपड़े फाड़ दिए.

हमने बहुत हाथ-पैर जोड़े. पर, नशे में धुत्त उन लड़कों ने हमारी एक न सुनी. हम बहुत दुःखी हुए. बेहद शर्मिंदगी के साथ घर वापस लौटे.घर पर बड़ों से बहुत डाँट भी खानी पड़ी थी. तब पहली बार एहसास हुआ कि बड़ों की बात न मानना कितना भारी पड़ सकता है.

राजेंद्र श्रीवास्तव

राजेंद्र श्रीवास्तव बहुत अच्छे कवि और लेखक है. आप बताते हैं कि अपने गाँव की एक होली हमें आज भी याद है.वे लिखते हैं कि हमारे गाँव में होलिका दहन के अगले दिन होली की राख और धूल लेकर बच्चे बूढ़े घर-घर जाते थे. उसे किसी भी आँगन या बंद दरवाजे पर फेंक कर आते थे.

दूसरे दिन का हम बच्चों को बेसब्री से रहता था. सुबह  लगभग नौ-दस बजे गाँव के बड़े-बूढ़े  घरों में बनाए गोबर के गोवर्धन का थोड़ा सा गोबर, होलिका स्थल पर लेकर जाते. तब तक हम बच्चे अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार गाँव की एक मात्र गली में मुखिया जी के घर के सामने की ढलान की ऊँचाई पर गोबर इकठ्ठा कर लेते.

जब गाँव के बड़े-बूढ़े लौटकर आते तो उन्हे रोकने के लिए गोबर के हथगोले बना कर उन पर फेंकते. उस तरफ से वह गुट भी टोकरी आदि की ओट लेकर हमारी ओर आने का जतन करते. ढपला, झाँझ व छोटे नगाड़ों के शोर में यह गोबर युद्ध तब तक चलता, जब तक हम लोगों का गोबर का भंडार खत्म न हो जाता. या कि गोबर खत्म होने से पहले ही गाँव के मुखिया किसी तरह बचते-बचाते हमारी सीमा में न आ जाते.

उसके बाद एक-दूसरे पर गोबर पोतते हुए दोपहर हो जाती. तब सभी अपने कपड़े लेकर नदी की ओर दौड़ जाते. जीभर नहाते. घर आकर अगले दिन होने वाली रंग की होली की योजना बनाने लगते.

इस तरह तीन दिन क्रमशः धूल, गोबर और रंग की होली की हुड़दंग में पूरा गाँव एक नजर आता. आजकल ऐसी होली नजर नहीं आती है.

इंद्रजीत कौशिक 

इंद्रजीत कौशिक एक प्रसिद्ध कहानीकार है. आप बच्चों को लिए बहुत लिखते हैं. आप को होली का एक संस्मरण याद आता है. आप लिखते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई के उपरांत मैं स्थानीय समाचार पत्र के कार्यालय में काम करने लग गया था. जैसा कि सर्वविदित है कि हमारा शहर— बीकानेर भांग प्रेमियों के लिए विख्यात है.

उसी वक्त की बात है कि होली का त्यौहार पास आता जा रहा था. समाचार पत्र के कार्यालय में नवोदित एवं वरिष्ठ साहित्यकारों का आना जाना लगा रहता था. उन के सानिध्य में मैंने लिखना शुरू भी कर दिया था. ऐसे ही एक दिन साहित्यकारों के बीच मिठाई और नमकीन के रूप में विश्वविख्यात बीकानेरी भुजिया का दौर शुरू हुआ. साहित्यकारों की टोली ने मुझे भी आमंत्रित किया तो मैं भी जा पहुंचा उन के बीच ।

” लो तुम यह लो स्पेशल वाली भुजिया ” मैं ने भुजिया देखी तो खुद को रोक न सका.भुजिया चीज ही कुछ ऐसी है जितना भी खाओ पेट भरता ही नहीं . अभी एक दो मुट्ठी भुजिया ही खाए थे कि  स्पेशल भुजिया ने रंग दिखाना शुरू कर दिया. दरअसल वे भाँग के भुजिया थे. यानी कि उन में भांग मिलाई हुई थी.

फिर क्या था,चक्कर आने शुरू हुए तो रुके ही नहीं. मुझे उस का नशा होता देख किसी ने सलाह दी,” अरे भाई, जल्दी से छाछ गिलास भर के पिला दो. नशा उतर जाएगा.”तब झटपट पड़ोस से छाछ मंगवाई गई.दोतीन गिलास मुझे पिला दी गई.नुस्खा कामयाब रहा. थोड़ी देर बात स्थिति सामान्य हुई. तब मैंने कसम खाई कि आइंदा कभी बिना सोचे विचारे कोई चीज मुंह में डालने की नहीं सोचूँगा.

अच्छा तो यही होगा कि होली जैसे मस्त त्यौहार पर नशे पते से दूर ही रहा जाए. यही सबक मिला था उस पहली यादगार होली से.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

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मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ होली पर्व विशेष – अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 1☆ प्रस्तुति – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  उनके । द्वारा संकलित  बाल साहित्यकारों की यादगार  होली के संस्मरण ।  ये संस्मरण हम दो भागों में प्रकाशित कर रहे हैं।  हम सभी बाल साहित्यकारों का ह्रदय से अभिनंदन करते हैं । )

श्री ओमप्रकाश जी के ही शब्दों में –

“होली वही है. होली का भाईचारा वही है. होली खेलने के तरीके बदल गए है. पहले दुश्मन को गले लगाते थे. उसे दोस्त बनाते थे. उस के लिए एक नया अंदाज था. आज वह अंदाज बदल गया है. होली दुश्मनी  निकालने का तरीका रह गई है.

क्या आप जानना चाहते हैं कि आप के पसंदीदा रचनाकार बचपन में कैसे होली खेलते थे? आइए उन्हीं से उन्हीं की लेखनी से पढ़ते हैं, वै कैसे होली खेलते थे.”

प्रस्तुति- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 1☆

सुश्री अंजली खेर

अंजली खेर लेखिका हैं.  वे बताती है. बात उस वक्त की है जब वे सातवी कक्षा में पढ़ती थी. उस साल हम सभी एक ही कोलोनी के बच्चों ने एक योजना बनाई. सुबह से ही सभी एक मकान  की छत पर इकट्टा हो गए . छत से बाहर पानी जाने वाले सभी रास्ते को बंद कर दिया और सभी टंकियों  के पानी को छोड़ दिया. सभी पानी छत पर इकट्टा कर लिया. फिर एकदूसरे पर छपा छप पानी फेक कर होली मनाई. उसी पानी में कबड्डी भी खेली . जम के लोटलोट कर नहाए.

जब सभी के घर में पानी नहीं आया. इस से सभी को हमारी बदमाशी का पता चल गया.  हम सब को अपनेअपने मातापिता ने खूब डांट पिलाई.

आज भी जब दोस्तों से बात होती हैं तो उस होली को याद कर सभी खिलखिला कर हंस पड़ते हैं.

श्री देवदत्त शर्मा

देवदत्त शर्मा के बचपन की यादगार होली. आप धार्मिक रचनाओं की रचियता है. आप कहते हैं कि वैसी होली कहाँ है जैसी हम खेलते थे. घर के आंगन में एक बड़े कड़ाह में पानी व गहरा गुलाबी रंग भर दिया जाता था . उस के चारों ओर घर की कुल वधुएं हाथ में कपडे़ का मोटा कोड़ा लेकर खड़ी हो जाती थी.पुरुष वर्ग कड़ाह से अपनी डोलची में रंग भरा पानी ले कर महिलाओं पर जोर से फेंकते थे.

कोशिश यह रहती थी पुरुष कड़ाह तक नहीं पहुंचे. अगर कोई पहुंचता है तो औरतें गीले कौड़े से मारती थी. कुछ औरतें मिल कर उसे भरे हुए कड़ाह में डाल देती थी. मोहल्ले के दर्शकों को मजा आता था .

हम छोटे  बच्चे थे. अत: कड़ाह के पास नहीं जाते थे. मेरे काकाजी ने बांस की एक पिचकारी बना कर मुझे दी मैं अलग बाल्टी में रंग घोल कर पिचकारी भर कर दर्शकों को भिगोता था. यह मेरी पहली होली थी. तब मैं 5-7 वर्ष का था . गांव में इस प्रथा को फाग खेलना कहते थे. अब यह प्रथा नगण्य है.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

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हिन्दी साहित्य ☆ संस्मरण ☆ पुण्य स्मरण – स्व. प्रो नामवरसिंह – आलोचना के दिनमान से अनौपचारिक संवाद ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए  प्रसिद्ध।  मैं डॉ गंगाप्रसाद शर्मा  ‘गुणशेखर’ जी का हृदय से आभारी हूँ जो उन्होंने मेरे आग्रह पर एक संस्मरण  ही नहीं  अपितु एक साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दस्तावेज  ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों को साझा करने का अवसर दिया है।  इस सन्दर्भ में अनायास ही  स्मृति पटल पर अंकित  ई-अभिव्यक्ति पर  दिए गए  प्रख्यात साहित्यकार नामवर सिंह जी नहीं रहे शीर्षक से उनके निधन के दुखद समाचार की याद दिला दी। प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘ गुणशेखर ‘ जी  का एक पुण्य संस्मरण – आलोचना के दिनमान से अनौपचारिक संवाद । ) 

☆पुण्य स्मरण – स्व. प्रो नामवरसिंह – आलोचना के दिनमान से अनौपचारिक संवाद

स्व. प्रो नामवरसिंह
जन्म: 28 जुलाई 1926 (बनारस के जीयनपुर गाँव में)  निधन: 19 फरवरी 2019 (नई दिल्ली)

“न तन होगा न मन होगा । मरेंगे हम किताबों पर, बरक अपना कफ़न होगा”प्रो नामवरसिंह 

मेरे मन में बार-बार यही प्रश्न कौंधता रहा कि हर आने-जाने वाले से हमेशा साहित्य पर चर्चा कर कराके वे ऊबते न होंगे क्या? लोग उन्हें इसलिए सताते होंगे कि किसी

२ नवंबर १८ को आलोचना के दिनमान प्रोफेसर नामवरसिंह के सानिध्य की ऊष्मा के साथ-साथ उन्हें करीब से देखने-सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। वे २८ जुलाई को ९३ वर्ष के हो चुके थे। सांध्य वेला के दिनमान होते हुए भी दीप्त और प्रदीप्त थे। उनमें पर्याप्त ऊर्जा और ऊष्मा अब भी अवशिष्ट थी।

इन दिनों उनसे मिलने का समय लेना दुष्कर मानते हुए लोगों ने उनसे मिलने -जुलने का उपक्रम प्रायः छोड़ ही दिया था। इसके पीछे उनका स्वास्थ्य सबसे बड़ा कारण था या लोगों का स्वार्थ इस पर मौन रहना ही तब भी बेहतर था और आज भी बेहतर ही है ।

उन दिनों वे अकेले ही रहते थे। अवस्था के प्रभाव के कारण स्वास्थ्य की शिथिलता स्वाभाविक थी। लेकिन एकाकीपन भी उन्हें कम दुःख न देता होगा। जितनी देर वहां रहा यही सोचकर बहुत उद्विग्न रहा। रात का एकाकीपन उन्हें डराता भी होगा। उनके राग और वैराग्य के मध्य सम पर रहते हुए एक घंटा बिताया। विलंबित में हुए संवादों से रिसते रस ने ऐसा बांधा था कि जैसे एक घंटे में समूचा युग जी लिया हो।

मेरे जैसे क्या बड़े बड़ों तक के लिए उनसे मिलना एक व्यक्ति से नहीं एक दिशा दर्शक से मिलना होता रहा है. आलोचक से ही नहीं नए लोचन देने वाले से मिलना होता था. उनसे मिला तो सोचा था कि सताऊँगा नहीं लेकिन अंततः सता ही दिया।

लगे हाथ उनसे बाल साहित्य पर भी चर्चा कर डाली। बीसवीं सदी का महाकवि पूछ लिया। बीसवीं सदी के हिंदी के महाकवि पर उन्हें बोलने के लिए विवश किया तो जयशंकर प्रसाद और कामायनी के अनेकश: उल्लेख के बाद भी उन्होंने केवल निराला को ही महाकवि माना।इसके लिये उनका स्पष्ट मानना था कि कोई कवि अपनी रचना के शिल्प विधान से नहीं अपितु जनपक्षधरता से महाकवि बनता है। जायसीऔर तुलसी जैसे कवियों के विषय में कोई खतरा मोल न लेने के कारण मैंने जान-बूझ कर यह प्रश्न दागा था।बाल साहित्य पर उन्होंने कहा कि दुनिया के हर बड़े साहित्यकार ने लिखा है लेकिन छुटभैये उसे अछूता समझते हैं।कुछ बाल साहित्यकारों के एक दो नाम उन्होँने लिये तो कुछ नाम मैंने भी गिनाए। मेरे द्वारा लिए गए बहुत से नामों का विरोध भले उन्होंने नहीं किया लेकिन मुझसे सहमत से नहीं लगे। वे नाम यहाँ और खासकर इस अवसर पर लेना उचित न मानकर छोड़ रहा हूँ। आचार्य दिविक रमेश जी को बाल साहित्य में मिले साहित्य अकादमी को उन्होँने शुभ लक्षण माना। लेकिन गिने-चुने को छोड़कर शेष साहित्यकारों द्वारा की जा रही वर्तमान में बाल साहित्य की उपेक्षा को उन्होंने स्वस्थ वृत्ति नहीं माना। उन्हें ईश्वर जैसे विषय पर उन पर छिड़े विवाद पर प्रश्न पर प्रश्न करके विचलित करना या कुछ उगलवाना किसी भी दृष्टि से उन पर मेरे द्वारा किए गए अत्याचार से कम न था। फिर भी उन्होंने असंयत हुए बिना हर प्रश्न का यथासंभव समाधान किया था।

प्रतिष्ठित पत्रिका में स्थान मिल जाएगा। लेकिन इस बात का ध्यान उन्हें शायद ही रहता होगा कि इस अवस्था में अब उन्हें बोलने का कष्ट कम ही दिया जाए तो अच्छा है।

आलोचना के किंबदंती पुरुष बन जाने के बाद हर कोई उनसे कुछ न कुछ कबूलवाना चाहता रहा है। साहित्यकार भी टी वी के पत्रकारों की तरह क्यों सबसे पहले और सबसे नया के चक्कर में पड़ा हुआ रहता है । वह भी क्यों इसी फिराक में रहता है कि किसी तरह चर्चा में आए । शायद इसी लिए कि वह किसी को भी शहीद करके अपना लक्ष्य साध सके। यह अवमूल्यन अखरता ही नहीं बरछे की तरह भीतर धंसता चला जाता है।

मैं सोचता हूँ कि क्या साहित्यकार भी व्यापारी नहीं होता जा रहा है। जो इन जैसे व्यक्तित्वों और अन्य बुजुर्गों को प्रश्न पूछ-पूछ कर तंग करते हैं । इसके साथ यह भी सोचता हूँ कि क्या इन्होंने अपनी जवानी में खुद भी यह व्यापार न किया होगा? क्या भारतीय संस्कृति के भीतर के राग रंग इन्हें न रुचते रहे होंगे जिन्हें हठात न मानकर साम्यवाद की कंठी बाँधी थी. लेकिन इन तर्कों के बल पर उन्हें सताना मुझे बोझिल करता रहा था। पापी बनाता रहा था।

इनके साम्यवादी ताप और प्रताप का सूर्य अब तक पूरी तरह से ढल चुका था। इनके लिए कभी दो कौड़ी के रहे भारतीय जीवन दर्शन के जन्म-मरण और ईश्वर जैसे विषय अब इन्हें ख़ुद बहुत रास आ रहे थे। तभी तो इन्होंने एक घंटे की बातचीत में कई बार दुहराया कि -“न तन होगा न मन होगा । मरेंगे हम किताबों पर, बरक अपना कफ़न होगा.”

इनसे बातचीत के समय मैं इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया कि लोग इन्हें विभिन्न विश्वविद्यालयों में और अन्य जगहों पर भी हिंदी पदों के नियोक्ता जगत का अधिनायक क्यों मानते रहे हैं? इन्होंने पक्षपात किया भी होगा क्या? यदि ऐसा होता तो कोई न कोई गुरुभक्त ऐसा होता जो इनकी इनकी सेवा में तब भी आता-जाता होता जब वे मदद की बेहद ज़रूरत महसूस करते थे। ऐसे बहुत सारे उदाहरण मैं जानता हूँ जहाँ अयोग्य और योग्य के भेद से परे परम हंस सम रहकर उपकार किए गए। उनमें से एकाध लायक भी निकले जो आज भी अपने-अपने गुरुदेवों की सेवा करते -कराते देखे पाये जाते हैं। लेकिन इनके यहाँ ऐसा कुछ भी क्यों नहीं था? शायद उस कोटि का उपकार इनके द्वारा न किया जा सका होगा।

एक घंटे में ही उनके मुख मण्डल की श्यामल आभा निराला की संध्या सुंदरी के कंधे पर हाथ धरे आत्मीयता की सजलता भरे वैचारिक मेघों वाले आसमान से धीरे-धीरे उतरती हुई मेरे मानस पटल पर छविमान होती हुई अंतस तक उतर गई थी। संकोच दूर हुआ तो ऐसी छनी कि जैसे दो अंतरंग लंबे अंतराल पर मिले हों।आलोचना के दिनमान से यह अनौपचारिक संवाद मुझे आज भी ऊष्मित कर रहा है।

मेरे रहते उनका वीरान -सा घर और न कोई फोन न संवाद मुझे डराता रहा था। दो-दो संतानों के बावज़ूद बस एक समय खाना बनाने आने वाली के अलावा किसी अन्य मददगार का न होना न जाने क्यों मुझ जैसे गैर को भी डरा रहा था। पर,उनके अपने इतने निश्चिंत क्यों थे। यह बात मेरी समझ से परे थी। मेरे मन में बार-बार आ रहा था कि अगर बाथरूम में गिर गए तो कौन उठाएगा इन्हें। अस्पताल कौन ले जाएगा। बहुत संभल-संभल के चलते थे पर सीधे नहीं चल पाते थे। गौरैया की तरह फुदक-फुदक के चलना उनकी कला नहीं विवशता थी ।अटैक तो अपने बस में था नहीं। उसके लिये तो इस अवस्था में अकेले रहना खतरों से खेलना था। यह खेल वे अपने अन्तिम दिनों में भी खेल रहे थे।

उस दिन जीवन के सबसे बड़े और अनिवार्य सत्य मृत्यु के सन्निकट देखने के बावज़ूद मैं उन्हें अस्ताचल का सूर्य नहीं मान पा रहा था.

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत,  गुजरात

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