(“परसाई स्मृति”के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का हृदय से आभार।)
संस्मरण – परसाई के रुप राम
जबलपुर के बस स्टैंड के बाहर पवार होटल के बाजू में बड़ी पुरानी पान की दुकान है। रैकवार समाज के प्रदेश अध्यक्ष “रूप राम” मुस्कुराहट के साथ पान लगाकर परसाई जी को पान खिलाते थे। परसाई जी का लकड़ी की बैंच में वहां दरबार लगता था। इस अड्डे में बड़े बड़े साहित्यकार पत्रकार इकठ्ठे होते थे साथ में पाटन वाले चिरुव महराज भी बैठते। ये वही चिरुव महराज जो जवाहरलाल नेहरू के विरुद्ध चुनाव लड़ते थे। बाजू में उनकी चाय की दुकान थी मस्त मौला थे।
(स्व. रूप राम रैकवार जी)
आज उस पान की दुकान में पान खाते हुए परसाई याद आये, रुप राम याद आये और चिरुव महराज याद आये। पान दुकान में रुप राम की तस्वीर लगी थी। परसाई जी रुप राम रैकवार को बहुत चाहते थे उनकी कई रचनाओं में पान की दुकान रुप राम और चिरुव महराज का जिक्र आया है।
अब सब बदल गया है, बस स्टैंड उठकर दूर दीनदयाल चौक के पास चला गया परसाई नहीं रहे और नहीं रहे रुप राम और चिरुव महराज… पान की दुकान चल रही है रुप राम का नाती बैठता है बाजू में पुलिस चौकी चल रही है पवार होटल भी चल रही है चिरुव महराज की चाय की होटल बहुत पहले बंद हो गई थी एवं वो पुराने जमाने का बंद किवाड़ और सांकल भी वहीं है और रुप राम तस्वीर से पान खाने वालों को देखते रहते हैं।
(“परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए नरसिंहपुर मध्यप्रदेश की वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’ जी का हृदय से आभार।)
हरिशंकर परसाई… व्यंग्य से करते ठुकाई…!!
सबसे गहरा घाव वो होता जो शब्दों से दिया जाता कि उसका कोई इलाज़ नहीं वो तो सीधा जाकर मर्म पर ही वार करता और ऐसा जख्म देता कि अगला टीस को न सह ही पाता और न कुछ कह पाता कि शब्द-बाण तो रह-रहकर चुभते कुछ इस तरह से हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा को स्थापित करने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी मध्यप्रदेश का गौरव कहलाने वाले और हर एक विषयवस्तु पर तिरछी नजर रखने वाले साहित्य शिरोमणि ‘हरिशंकर परसाई’ ने कलम रूपी हथियार की मदद से समाज की कुरीतियों ही नहीं हर एक विसंगति पर सटीक प्रहार करते हुये देश व समाज की देह में होने वाले पुराने से पुराने दर्द को भी मिटाने का सतत प्रयास किया कि ताकि इस तरह से वे एक ऐसा भारत बना सके जिसे देखकर कोई उसकी किसी भी प्रथा, सनातन परंपरा या किसी जात-पांत पर कोई ऊँगली उठा न सके कि ये इस विविध संस्कृति के पोषक धर्म-निरपेक्ष देश की वैश्विक पहचान हैं ।
इसलिये उन्होंने अपनी चाँद रूपी मातृभूमि पर धब्बे के समान दिखाई देने वाली छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी असमानता पर चुटीला कटाक्ष किया जिससे कि वो इन दाग़-धब्बों को आसमान की तरह फैली अपनी श्वेत चादर से विलग कर दाग़रहित होकर उभरे तो आजीवन हर विषय, हर परिस्थिति, हर व्यक्ति, हर नीति, हर घटना, हर प्रसंग, हर तीज-त्यौहार, हर सम-सामयिक मुद्दे, हर कमी, हर विशेषता और हर एक विचित्र दिखाई देने वाली बात को अपनी तेज-तर्रार कलम का निशाना बनाकर हंसी-हंसी में वो सब कह दिया जिसे यदि गुस्से में कहा या लिखा जाता तो शायद, उसका वो सर्वकालिक असर नहीं हो पाता कि मज़ाक तो बर्दाश्त किया जा सकता हैं लेकिन, क्रोध से क्रोध ही उपजता जिसके कारण उनका उद्देश्य बाधित हो जाता तो अपने हाथों में थामी हुई कलम को मीठी छूरी बनाकर ऐसा झटका दिया जैसे कोई कसाई किसी जानवर की गर्दन को एक झटके में ही हलाल कर देता हैं ।
कभी वो किसी धोबी की तरह समाज के उपर पड़े मटमैले आवरण को पटक-पटक कर धो उसे उजला बनाने का प्रयास करते तो कभी किसी डॉक्टर की तरह बड़ी निर्दयता से उसके घाव की चीर-फाड़ करते जिससे कि उसमें भरा हुआ सड़ी-गली कुरीतियों का मवाद बहर निक जाये तो समय-समय पर वे साहित्यकार से समाज सेवक बन एक जागरूक नागरिक होने के अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते यही वजह हैं कि उनका लिखा हुआ आज भी प्रासंगिक हैं कि कहने को भले ही समाज व समय में परिवर्तन हो गया लेकिन उसके भीतर अब भी बहुत गंदगी भरी हुई हैं जिसके दिखाई देने पर अक्सर उनका लिखा कोई वाक्य या व्यंग्य याद आ जाता और उनकी दूरदर्शिता का अहसास होता कि किस तरह से वे समय के पार देख लेते थे और आने वाली परिस्थितियों को महसूस कर उसका व्यंग्य में वर्णन कर देते थे तभी तो भ्रष्टाचार हो या फिर धर्मांतरण बहस या फिर राजनीति सब पर उनका लिखा हुआ कोई न कोई आदर्श लेखन जेहन में तैरने लगता हैं ।
साहित्य व समाज के ऐसे मर्मज्ञ और ज्ञानी आज ही के दिन अपने व्यंग्य से हम सबको एक अनूठा ज्ञान देने हम सबके बीच आये थे तो आज उनकी जन्मतिथि पर हम उनको ये शब्दांजलि अर्पित करते हैं और ये प्रयास करे कि जिस तरह के भारत का वे स्वपन देखते था या जिस तरह का वो इसे दुनिया के मानचित्र पर स्थापित करना चाहते थे वैसा ही कुछ सचमुच में कर पाये तो उनके शब्दों को वास्तविक मान-सम्मान दे पायेंगे ।
(“परसाई स्मृति”के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का हृदय से आभार।)
संस्मरण – व्यंग्यकार स्व. श्रीबाल पांडे
साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था ‘रचना’ के संयोजन में जबलपुर के मानस भवन में हर साल मार्च माह में अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन आयोजित किया जाता था। जिसमें देश के हास्य व्यंग्य जगत के बड़े हस्ताक्षर शैल चतुर्वेदी, अशोक चक्रधर, शरद जोशी, सुरेन्द्र शर्मा, के पी सक्सेना जैसे अनेक ख्यातिलब्ध अपनी कविताएँ पढ़ते थे। रचना संस्था के संरक्षक श्री दादा धर्माधिकारी थे सचिव आनंद चौबे और संयोजन का जिम्मा हमारे ऊपर रहता था। देश भर में चर्चित इस अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन के दौरान हम लोगों ने जबलपुर के प्रसिद्ध हास्य व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय का सम्मान करने की योजना बनाई, श्रीबाल पाण्डेय जी से सहमति लेने गए तो उनका मत था कि उन्हें सम्मान पुरस्कार से दूर रखा जाए तो अच्छा है फिर ऐन केन प्रकारेण परसाई जी के मार्फत उन्हें तैयार किया गया।
इतने बड़े आयोजन में सबका सहयोग जरूरी होता है। लोगों से सम्पर्क किया गया बहुतों ने सहमति दी, कुछ ने मुंह बिचकाया, कई ने सहयोग किया। स्टेट बैंक अधिकारी संघ के पदाधिकारियों को समझाया। उस समय अधिकारी संघ के मुखिया श्री टी पी चौधरी ने हमारे प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकारा। तय किया गया कि स्टेट बैंक अधिकारी संघ रचना के अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन के दौरान श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान करेगी।
हमने परसाई जी को श्रीबाल पाण्डेय के सम्मान की तैयारियों की जानकारी जब दी तो परसाई जी बहुत खुश हुए और उन्होंने श्रीबाल पाण्डेय के सम्मान की खुशी में तुरंत पत्र लिखकर हमें दिया।
श्रीबाल पाण्डेय जी उन दिनों बल्देवबाग चौक के आगे चेरीताल के एक पुराने से मकान में किराये से रहते थे। आयोजन के पहले शैल चतुर्वेदी को लेकर हम लोग उस मकान की सीढ़ियाँ चढ़े, शैल चतुर्वेदी डील-डौल में तगड़े मस्तमौला इंसान थे, पहले तो उन्होंने खड़ी सीढ़ियाँ चढ़ने में आनाकानी की फिर हमने सहारा दिया तब वे ऊपर पहुंचे। श्रीबाल पाण्डेय जी सफेद कुर्ता पहन चुके थे और जनाना धोती की सलवटें ठीक कर कांच लगाने वाले ही थे कि उनके चरणों में शैल चतुर्वेदी दण्डवत प्रणाम करने लोट गए। श्रीबाल पाण्डेय की आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी पर वे कुछ बोल नहीं पा रहे थे चूंकि उनकी जीभ में लकवा लग गया था। उस समय गुरु और शिष्य के अद्भुत भावुक मिलन का दृश्य देखने लायक था। श्रीबाल पाण्डेय, शैल चतुर्वेदी के साहित्यिक गुरु थे।
मानस भवन में हजारों की भीड़ की करतल ध्वनि के साथ श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान हुआ। मंच पर देश भर के नामचीन हास्य व्यंग्य कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया था पर उस दिन मंच से शैल चतुर्वेदी अपनी रचनाएँ नहीं सुना पाये थे क्योंकि गुरु से मिलने के बाद नेपथ्य में चुपचाप जाकर रो लेते थे और उनका गला बुरी तरह चोक हो गया था।
स्वर्गीय श्रीबाल पाण्डेय जी अपने जमाने के बड़े हास्य व्यंग्यकार माने जाते थे। जब परसाई जी ‘वसुधा’ पत्रिका निकालते थे तब वसुधा पत्रिका के प्रबंध सम्पादक पंडित श्रीबाल पाण्डेय हुआ करते थे। उनके “जब मैंने मूंछ रखी”, “साहब का अर्दली” जैसे कई व्यंग्य संग्रह पढ़कर पाठक अभी भी उनको याद करते हैं। उन्हें सादर नमन।
(“परसाई स्मृति”के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का हृदय से आभार।)
संस्मरण – परसाई का गाँव
देश की पहली विशेषीकृत माईक्रो फाईनेंस शाखा भोपाल में पदस्थापना के दौरान एक बार इटारसी क्षेत्र दौरे में जाना हुआ। जमानी गांव से गुजरते हुए परसाई जी याद आ गए। हरिशंकर परसाई इसी गांव में पैदा हुए थे। जमानी गांव में फैले अजीबोगरीब सूनेपन और अल्हड़ सी पगडंडी में हमने किसी ऐसे व्यकित की तलाश की जो परसाई जी का पैतृक घर दिखा सके। रास्ते में एक दो को पकड़ा पर उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। हारकर हाईस्कूल तरफ गए। पहले तो हाईस्कूल वाले गाड़ी देखकर डर गए। क्योंकि कई मास्साब स्कूल से गायब थे। जैसे तैसे एक मास्साब ने हिम्मत दिखाई। बोले – “परसाई जी यहाँ पैदा जरूर हुए थे पर गर्दिश के दिनों में वे यहाँ रह नहीं पाए।” हांलाकि नयी पीढ़ी कुछ बता नहीं पाती क्यूंकि पढ़ने की आदत नहीं है। फेसबुकिया माहौल में चेट करते एक लड़के से जब हरिशंकर परसाई जी के पुराने मकान के बारे में पूछा तो उसने पूछा – “कौन परसाई ?”
फिर भी बेचारे स्कूल के उन मास्साब ने मदद की। पैदल गाँव की तरफ जाते हुए मास्साब ने बताया कि उनका पुराना घर तो पूरी तरह से गिर चुका है ,घर के खपरे और ईंटें लोग पहले ही चुरा ले गए । अब टूटे घर के ठीहे में लोग लघुशंका करते रहते हैं ,……..”
हमने मास्साब से कहा चलो फिर भी वो जगह देख लेते हैं और चल पड़े उस ओर ……. कच्ची पगडंडी के बाजू में मास्साब ने ईशारा किया ,….नींंव के कुछ पत्थर शेष दिखे । दुर्गंध कचरा के सिवा कुछ न था। चालीस बाई साठ के एरिया में हमने अंदाज लगाया कि शायद इस जगह पर परसाई सशरीर धरती पर उतरे रहे होंगे धरती छूकर पता नहीं आम बच्चों की तरह ” कहाँ कहाँ कहाँ “की आवाज से अपनी उपस्थिति बतायी या चुपचाप गोबर लिपी धरती पर उतर गए रहे होंगे ………. आह और वाह के अनमनेपन के बीच उस प्लाट की एक परिक्रमा पूरी हुई जब तक उस पार खड़े सज्जन की लघुशंका करने की व्यग्रता को देखते हुए हम मास्साब के साथ स्कूल तरफ मुड़ गए ………”
(जस का तस लिखने में दुख हुआ दर्द हुआ पर आंखिन देखी पर विश्वास करना पड़ा। क्षमायाचना सहित )
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
संजय दृष्टि –आज़ादी मुबारक
(15 अगस्त 2016 को लिखा संस्मरण)
मेरा दफ़्तर जिस इलाके में है, वहाँ वर्षों से सोमवार की साप्ताहिक छुट्टी का चलन है। दुकानें, अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठान, यों कहिए कमोबेश सारा बाज़ार सोमवार को बंद रहता है। मार्केट के साफ-सफाई वाले कर्मचारियों की भी साप्ताहिक छुट्टी इसी दिन रहती है।
15 अगस्त को सोमवार था। स्वाभाविक था कि सारे छुट्टीबाजों के लिए डबल धमाका था। लॉन्ग वीकेंड वालों के लिए तो यह मुँह माँगी मुराद थी।
किसी काम से 15 अगस्त की सुबह अपने दफ्तर पहुँचा। हमारे कॉम्प्लेक्स का दृश्य देखकर सुखद अनुभूति हुई। रविवार के आफ्टर इफेक्ट्स झेलने वाला हमारा कॉम्प्लेक्स कामवाली बाई की अनुपस्थिति के चलते अमूमन सोमवार को अस्वच्छ रहता है है। आज दृश्य सोमवारीय नहीं था। पूरे कॉम्प्लेक्स में झाड़ू- पोछा हो रखा था। दीवारें भी स्वच्छ! पूरे वातावरण में एक अलग अनुभूति, अलग खुशबू।
पता चला कि कॉम्प्लेक्स में काम करनेवाली बाई सीताम्मा, सुबह जल्दी आकर पूरे परिसर को झाड़-बुहार गई है। लगभग दो किलोमीटर पैदल चलकर काम करने आनेवाली इस निरक्षर लिए 15 अगस्त किसी तीज-त्योहार से बढ़कर था। तीज-त्योहार पर तो बख्शीस की आशा भी रहती है, पर यहाँ तो बिना किसी अपेक्षा के अपने काम को राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर अपनी साप्ताहिक छुट्टी छोड़ देनेवाली इस सच्ची नागरिक के प्रति गर्व का भाव जगा। छुट्टी मनाते सारे बंद ऑफिसों पर एक दृष्टि डाली तो लगा कि हम तो धार्मिक और राष्ट्रीय त्योहार केवल पढ़ते-पढ़ाते रहे, स्वाधीनता दिवस को राष्ट्रीय त्योहार, वास्तव में सीताम्मा ने ही समझा।
आज़ादी मुबारक सीताम्मा, तुम्हें और तुम्हारे जैसे असंख्य कर्मनिष्ठ भारतीयों को!
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज से प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला के अंश स्मृतियाँ/Memories। आज प्रस्तुत है इस लेखमाला की पहली कड़ी जिसे पढ़कर आप निश्चित ही बचपन की स्मृतियों में खो जाएंगे। )
☆ स्मृतियाँ/Memories – #1 – बचपन वाले विज्ञान का BOX ☆
बचपन वाला विज्ञान का Box
कक्षा 10 में मेरे पास एक box हुआ करता था।जिसमे मैं विज्ञानं से सम्बंधित वस्तुएँ रखा करता था।
स्कूल में पढ़ता और प्रयोग करने के लिए विज्ञान की उन वस्तुओ को एक box मे रख लेता।
एक दिशा सूचक यंत्र (compass) था जिसकी सुईया नाचती तो थी पर रूकती हमेशा उत्तर-दक्षिण दिशा में ही थी ।
एक उत्तल लेंस था जो वस्तुओ का प्रतिबिम्ब एक खास दूरी पर ही बनता था।
कभी कभी जाड़ो की गुठली मारती धूप में उसे कागज के ऊपर फोकस (focus) करके सूरज की ऊर्जा से उस कागज़ को जलाया करता था।
उस box में मैंने दो लिटमस पेपरो की छोटी छोटी गड्डिया भी रख रखीं थी एक नीले लिटमस की और दूसरी लाल लिटमस की, जो अम्ल और क्षार से क्रिया करके रंग बदलते थे।
चुपके से एक फौजी वाली ताश की गड्डी भी मैंने उस box में छिपा रखीं थी और राजा, रानी, इक्का सब मेरे कब्ज़े में थे।
और कई सारी चीजों के साथ एक वो पेन्सिल भी थी जिसमे एक पारदर्शी खांचे में छोटे छोटे कई सारे तीले होते है और अगर एक तीला घिस का ठूठ हो जाये तो उसे निकल कर सबसे पीछे लगा दो और नया नुकीला तीला आगे आ जाता था।
बरसो बाद पता नहीं आज क्यों उस box की याद आ गयी।
अब मैं घर से दूर हूँ इस बार जब घर जाऊँगा तो ढूंढूंगा उस box को स्टोर मे कही खोल कर देखूँगा फिर से वही बचपन वाला विज्ञानं।
जीवन जो अब दिशाहीन सा हो गया है कोशिश करूँगा उसे उस compass से एक दिशा में ही रोकने की।
इस बार जाकर देखूँगा की क्या वो उत्तल लेंस मेरे बचपन की यादो के प्रतिबिम्ब अभी भी बना पायेगा?
जुबाँ में अम्ल घुल चुका है सोचता हूँ उस box से निकाल कर नीले लिटमस पेपर की पूरी गड्डी ही मुँह में रख लूँगा मुझे यक़ीन है मेरा मुँह भी हनुमान जी की तरह लाल हो जायेगा।
इस दफा वर्षो के बाद जब वो box खोलूँगा तो राजा, रानी, गुलाम सब को आज़ाद कर दूँगा।
और वो कई तीलो वाली पेन्सिल, उसे अपने साथ ले आऊंगा क्योकि गलतियाँ तो मैं अब भी करता हूँ पर अब उन्हें मानने भी लगा हूँ। पेन्सिल से लिखीं गलतियों को सही करने मैं शायद ज्यादा कठनाई ना हो?
कुछ दिनों की बाद मैं गया था घर अपने बचपन वाले विज्ञानं का वो box फिर से खोलने पर दीमक ने अब उसके कुछ अवशेष ही छोड़े है।
वो कंपास (compass) तो मेरे से भी ज्यादा दिशाहीन हो गया है। मैं कोशिश करता हूँ उसकी सूइयों को उत्तर दक्षिण में रोकने की पर वो तो पश्चिम की ओर ही जाती प्रतीत होती है।
वो उत्तल लेंस अब किसी को जलता नहीं है उसके बीच में पड़ी एक दरार ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया है शायद।
Box खोला तो पहचान ही नहीं पाया की लाल लिटमस की गड्डी कौन सी है ओर नीले की कौन सी? शायद दोनों लिटमसो की गड्डियाँ ज्यादा ही पुरानी हो गयी है या फिर मैं?
फौजी वाली ताश की गड्डी के फौजियों की बंदूकों पर जंग लग गया है अब उनसे निकली गोलिया फौजियों के हाथो में ही फट जाती है।
राजा, रानी गुलाम जैसे लगने लगे है।
वो कई तीलो वाली पेन्सिल के सारे तीले इतने ठूठ हो गए है की उसके पारदर्शी भाग से देखने पर उनके बीच में दूरिया नजर आती है। कुछ के बीच की दूरिया तो इतनी बढ़ गयी है की पीछे वाले तीले का हाथ अब उससे आगे वाले तीले के कंधो तक नहीं पहुँचता है।
वो मेरे बचपन का जादू भरा विज्ञान वाला box कबाड़ी 5 रूपये में ले गया।
मैं गया था बाजार में वो 5 रूपये लेकर कंपास (compass) ख़रीदने …………
पर शायद सही दिशा बताने वाले कंपास (compass) अब 5 रुपये में नहीं आते ………………
(आज स्व. शरद जोशी जी को उनके जन्म दिवस पर e-abhivyakti की ओर से सादर नमन। श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का आभार जिन्होने स्व. शरद जोशी जी के साथ अपने संस्मरण हमारे पाठकों के साथ साझा किया। प्रस्तुत है उनका संक्षिप्त जीवन परिचय एवं श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के अविस्मरणीय क्षण जो उन्होने श्री जोशी जी के साथ व्यतीत किए थे।)
स्व. शरद जोशी जी का जीवन परिचय
जन्म – 21 मई 1931 को मध्य प्रदेश के उज्जैन मध्य प्रदेश में हुआ।
मृत्यु – 60 वर्ष की आयु में 5 सितंबर 1991 को मुंबई में हुआ।
जीवन परिचय – आपने कुछ समय तक सरकारी नौकरी की फिर लेखन को आजीविका के रूप में अपना लिया।
साहित्य सृजन – आरम्भ में कुछ कहानियाँ लिखीं, फिर पूरी तरह व्यंग्य-लेखन ही करने लगे। इसके अतिरिक्त आपने व्यंग्य लेख, व्यंग्य उपन्यास, व्यंग्य के स्थायी स्तम्भ के अतिरिक्त हास्य-व्यंग्यपूर्ण धारावाहिकों की पटकथाएँ और संवाद भी लिखे।आपकी रचनाओं में समाज में पाई जाने वाली सभी विसंगतियों का बेबाक चित्रण मिलता है।
साहित्य – गद्य रचनाएँ परिक्रमा, किसी बहाने, जीप पर सवार इल्लियाँ, रहा किनारे बैठ, दूसरी सतह, प्रतिदिन(3 खण्ड), यथासंभव, यथासमय, यत्र-तत्र-सर्वत्र, नावक के तीर, मुद्रिका रहस्य, हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे, झरता नीम शाश्वत थीम, जादू की सरकार, पिछले दिनों, राग भोपाली, नदी में खड़ा कवि, घाव करे गंभीर, मेरी श्रेष्ठ व्यंग रचनाएँ।
व्यंग्य नाटक – अंधों का हाथी, एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ
उपन्यास – मैं, मैं और केवल मैं उर्फ़ कमलमुख बी0ए0
टीवी धारावाहिक – यह जो है जिंदगी, मालगुड़ी डेज, विक्रम और बेताल, सिंहासन बत्तीसी, वाह जनाब, दाने अनार के, यह दुनिया गज़ब की, लापतागंज आदि।
फिल्मी सम्वाद लेखन – क्षितिज, गोधूलि, उत्सव, उड़ान, चोरनी, साँच को आँच नहीं, दिल है कि मानता नहीं।
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☆ आदरणीय शरद जोशी के जन्मदिन पर ☆
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बहुत पहले आदरणीय शरद जोशी जी “रचना” संस्था के आयोजन में परसाई की नगरी जबलपुर में मुख्य अतिथि बनकर आए थे,हम उन दिनों “रचना ” के संयोजक के रूप में सहयोग करते थे।
“रचना “साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था का मान था उन दिनों। हर रंगपंचमी पर राष्ट्रीय स्तर के हास्य व्यंग्य के ख्यातिलब्ध हस्ताक्षर आमंत्रित किए जाते थे। हम लोगों ने आदरणीय शरद जोशी जी को रसल चौक स्थित उत्सव होटल में रूकवाया था, “व्यंग्य की दशा और दिशा” विषय पर केंद्रित इस कार्यक्रम के वे मुख्य अतिथि थे।
व्यंग्य विधा के इस आयोजन के प्रथम सत्र में ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं पर आधारित रेखाचित्रों की प्रदर्शनी का उदघाटन करते हुए जोशी जी ने कहा था- “मैं भाग्यवान हूं कि परसाई के शहर में परसाई की रचनाओं पर आधारित रेखाचित्र प्रदर्शनी के उदघाटन का सुअवसर मिला.”
फिर उन्होंने परसाई की सभी रचनाओं को घूम घूम कर पढ़ा हंसते रहे और हंसाते रहे। ख्यातिलब्ध चित्रकार श्री अवधेश बाजपेयी की पीठ ठोंकी, खूब तारीफ की। व्यंग्य विधा की बारीकियों पर उभरते लेखकों से लंबी बातचीत की।
शाम को जब होटल के कमरे में वापस लौटे फिर दिल्ली के अखबार के लिए ‘प्रतिदिन’ कालम लिखा, हमें डाक से भेजने के लिए दिया। साहित्यकारों के साथ थोड़ी देर चर्चा की, फिर टीवी देखते देखते सो गए ।
☆ व्यंग्य और कविता के बीच सेतु थे डा.शेरजंग गर्ग और प्रदीप चौबे ☆
(प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री विनोद साव जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। हम भविष्य में आपकी चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।)
कविता, व्यंग्य क्षेत्र में सक्रिय रहे दो रचनाकार प्रदीप चौबे और डा.शेरजंग गर्ग ने अपनी रचनायात्रा को विराम दिया और साहित्य बिरादरी से उन्होंने अंतिम बिदागरी ले ली. अब उनका व्यक्तित्व नहीं उनका कृतित्व हमारे सामने होगा और उनके व्यक्तित्व को हम उनके कृतित्व में ही तलाश पाएँगे उनसे सीधे साक्षात्कार के जरिए अब नहीं.
इन दोनों रचनाकारों से मेरा विशेष परिचय नहीं रहा सामान्य परिचय ही रहा. आंशिक मुलाकातें हुईं पर हम एक दूसरे के नाम को जाना करते थे, हमारे बीच पूरी तरह अपरिचय व्याप्त नहीं था. ये दोनों रचनाकार व्यंग्य की विधा से जुड़े रहे इसलिए मैं भी इनसे थोडा जुड़ा रहा. मैंने कविता नहीं की पर प्रदीप चौबे की कविताओं में जो हास्य-व्यंग्य की छटा मौजूद थी उसने उनकी ओर मेरी और सभी विनोदप्रिय श्रोताओं व रचनाकारों का ध्यान खूब खींचा. चौबे जी के साथ ‘प्लस’ यह रहा कि उनकी हास्य चेतना और मंचों पर उनकी प्रस्तुति में उनके बड़े भाई शैल चतुर्वेदी की प्रेरणा ने भरपूर काम किया और वे अपने भैया की तरह हास्य-व्यंग्य के सफल कवियों में गिने जाने लगे और कवि सम्मेलनों में उनकी तूती बोलने लगी थी. बल्कि कई बार श्रोताओं को ठठा ठठाकर हंसवाने में प्रदीप जी आगे भी निकल जाते थे. भ्रष्टाचार पर तंज करती कविता और भारतीय रेल में पूरे हिंदुस्तान को देखने दिखने का जो उनका उपक्रम था उनमें देश की दारुण दशाओं का भी चटखारेदार वर्णन कर लोगों को वे खूब हंसाया करते थे और बड़े निश्छल ह्रदय से हंसाया करते थे. इसकी एक बानगी देखें:
हर तरफ गोलमाल है साहब
आपका क्या ख़याल है साहब
कल का ‘भगुआ’ चुनाव जीता तो,
आज ‘भगवत दयाल’ है साहब
मुल्क मरता नहीं तो क्या करता
आपकी देख भाल है साहब
उनकी कविताओं में उनके निश्छल मन का भान होता था. वे मामूली स्थितियों में चले हुए लतीफों को पिरोकर भी हास्य का ऐसा जायका परोसते थे कि सुनने वालों के पेट में बल पड़ जाते थे. मृतात्मा और दाहकर्म पर उनकी एक कविता थी जिसमें भीषण गर्मी के दिनों में किसी के दाहकर्म में शामिल होने से ऐसी दैहिक पीड़ादायक अनुभूति होती थी कि मृतात्मा के चले जाने का मानसिक आघात कम हो जाता था जो मृतात्मा के प्रति लोगों की संवेदना को भी मार देती थी. तब आदमी ऐसे दाह्संस्कारों में जाने से बचना चाहता था. उसी में एक पंक्ति थी कि ‘आदमी को मरना चाहिए देहरादून में.’ और डा.शेरजंग गर्ग देहरादून में दिवंगत हुए क्योंकि डा.गर्ग देहरादून के रहने वाले थे. पर प्रदीप चौबे ने अंतिम साँस अपने शहर ग्वालियर में ली.
प्रदीप जी से लखनऊ के अट्टहास समारोहों में भी मुलाकातें हुईं. गद्य व्यंग्य लेखन में उनकी रूचि भले ही कम थी पर गद्य व्यंग्यकारों को पढने समझने का सलीका उनके पास था. अन्य मंचीय कवियों के सीमित संकीर्ण ज्ञान से वे दूर थे. एक बार भिलाई आगमन पर उन्होंने सबके बीच मुझे पहचानकर लपककर गले लगाते हुए कहा था कि ‘आप व्यंग्यकार विनोद साव हैं.’
डा.शेरजंग गर्ग वर्ष २००२ में विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में मिले और उन्होंने भावना प्रकाशन द्वारा आयोजित मेरे व्यंग्य संग्रह ‘मैंदान-ए-व्यंग्य’ के विमोचन कार्यक्रम में आना स्वीकार किया और वे आए थे. नरेंद्र कोहली जी ने विमोचन किया और कार्यक्रम का संचालन हरीश नवल ने किया था. मेरे एल्बम में उस समय का एक रंगीन चित्र है जिसमें कथाकार द्वय राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और शेरजंग गर्ग जैसे वरिष्ठ रचनाकारों के साथ मैं भी खड़ा हूं उस समय के एक उभरते हुए लेखक के रूप में.
शेरजंग गर्ग ने व्यंग्य के अतिरिक्त हिन्दी आलोचना में भी अपने हाथ चलाए और बालसाहित्य लेखन में भी.. और अपनी ग़ज़लों से भी उनकी पहचान बनी. इस बहुविध लेखन के बीच डा.गर्ग को देखने से लगता था कि उन्होंने ज्यादा आत्मसात बालसाहित्य की भावना (स्पिरिट) को किया होगा क्योंकि उनके सुदर्शन व्यक्तित्व में बालसुलभता का भाव विशेष रूप से उभरकर आता था और संभवतः उनकी इसी बालसुलभता और बच्चों जैसी निर्मलता ने उन्हें दिल्ली में रहते हुए भी साहित्य की राजनीति और उखाड़-पछाड़ से अलग रखा होगा. अपने बालसाहित्य लेखन के लिए वे ज्यादा पुरस्कृत हुए थे. मुझे भी एक बार दिल्ली प्रवास पर प्रेम जनमेजय के साथ बालभवन दिल्ली में उनके सम्मान समारोह को देखने का अवसर मिला था. ऐसी ही निर्मल भावना से शेरजंग गर्ग व्यंग्य लेखन में साहसिक वक्तव्य दे लिया करते थे. समाज के प्रति भावना कम रख समाजसेवी का मुलम्मा अपने पर चढ़ाए हुए लोगों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा है कि ‘ये समाज सुधारक हैं.. अरे ये ह्रदय विदारक हैं.’ उनके शेरो-शायरी हो बालसाहित्य, उनमें व्यंग्य की चेतना बरक़रार रहती थी. उनकी एक ग़ज़ल की ये पंक्ति देखें
चुल्लू में डूबने का अब लद चुका जमाना
उल्लू से दोस्ती कर, क्या शर्मसार होना।
व्यंग्य और कविता कर्म के बीच सेतु थे डा.शेरजंग गर्ग और प्रदीप चौबे.