हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्व. पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”

☆ कहाँ गए वे लोग # ३० ☆

☆ हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

ऊँचा कद, गौर वर्ण, ज्ञान के प्रकाश से आलोकित मुखमंडल । ज्यादातर चूड़ीदार पाजामा और शेरवानी पहनना पसंद करने वाले पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर” न सिर्फ हिंदी और उर्दू साहित्य के वरन शिक्षा जगत के भी “नूर” थे । बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी नूर साहब का कार्य क्षेत्र बहुत व्यापक था । एक ओर वे प्रसिद्ध विधि शिक्षक, हितकारिणी विधि महाविद्यालय के प्राचार्य और वरिष्ठ अधिवक्ता थे, निःस्वार्थ समाजसेवी, देशभक्त, जबलपुर नगरनिगम के महापौर थे तो दूसरी ओर राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संवेदनशील कवि, शायर और साहित्यकार थे ।

5 दिसंबर 1915 को श्री गया प्रसाद श्रीवास्तव के यहां जन्मे पन्नालाल श्रीवास्तव जी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि व रचनात्मक प्रवृत्ति के थे । छात्र जीवन से ही उनकी साहित्य के प्रति अभिरुचि जाग्रत हो गई थी उन्होंने न केवल कविताएं लिखना वरन उर्दू एवं फारसी भाषाओं का अध्ययन भी प्रारंभ कर दिया था । वे अत्यंत सुंदर व स्पष्ट उर्दू लिखते थे । नूर साहब मेरे पिता स्मृति शेष लोक विज्ञानी, शिक्षाविद् डॉ, पूरनचंद श्रीवास्तव के निकटतम मित्र थे अतः मुझे उनका स्नेह-आशीर्वाद प्राप्त रहा । जब मैं नवभारत समाचार पत्र के साहित्य संपादन का दायित्व निभा रहा था तब मैंने नूर साहब की अति व्यस्तता के बावजूद उनसे प्रति सप्ताह एक गजल उर्दू लिपि में लिखवाकर हिंदी और उर्दू दोनों लिपियों में प्रकाशित की । इसे पाठकों ने अत्यंत सराहा । नूर साहब ने जबलपुर में ऑल इंडिया मुशायरे की शुरूआत कराई । उर्दू में उनकी महारात और उपलब्धियां देखते हुए मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी के गठन के समय उन्हें इसका सदस्य मनोनीत किया गया । नूर साहब ने जबलपुर नगर के उर्दू भाषा प्रेमियों से मिलकर उर्दू की एक प्रतिष्ठित संस्था “अंजुमन तरक्कीये” की स्थापना की थी । इस संस्था द्वारा नियमित रूप से मुशायरे का आयोजन होता था ।

नूर साहब एक बेहतरीन शायर – गज़लकार होने के साथ ही मधुर गीतकार भी थे । उनका पहला संग्रह “मंजिल – मंजिल” 1972 में, दूसरी कृति “लहरें और तिनके” गीत संग्रह 1990 में प्रकाशित हुई । नूर साहब ने “रूबाईयाते – खय्याम व ग़ज़लयाते – हाफ़िज़” के शानदार अनुवाद की पुस्तक भी प्रस्तुत की जो अत्यधिक चर्चित रही । कोलकाता विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के तत्कालीन प्रोफेसर डॉ, मुजफ्फर हनफी इकबाल ने लिखा था कि नूर साहब द्वारा प्रस्तुत खय्याम की रुबाइयों का यह हिंदी रूपांतरण पाठकों को बताएगा कि पुर्तगाली शराब और ठर्रे में क्या अंतर होता है ।

उर्दू – फारसी के पूर्व प्रोफेसर एवं साहित्यकार अब्दुल बाकी ने नूर साहब के बारे में लिखा है कि वे सही मायने में इंसान थे । बकौल रशीद अहमद सिद्दीकी अच्छे शायर की असल पहचान भी यही है । वह तालिब – इल्म के दौर से ही वतन की तहरीके – आजादी में हिस्सा लेने लगे थे और उनकी इल्मी व अदबी सरगर्मियों का सिलसिला शुरू हो गया । उन्होंने अपनी जिंदगी की राहें खुद मुतय्यन कीं । इल्म अपनी मेहनत से हासिल किया और अपने कूबते बाजू से बहुत दौलत कमाई फिर कामयाबी ने खुद बढ़ कर इनके कदम चूमे, वह अपने जज्बये – हुब्बे – वतन और इंसानी – दोस्ती की बिना पर मुल्क – कौम और इल्मो – अदब की अमली खिदमत में मशरूफ रहे । उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश उर्दू साहित्य अकादमी प्रति वर्ष प्रादेशिक स्तर पर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर” पुरस्कार (आत्मकथा, संस्मरण विधा में) प्रदान कर नूर जी की उपलब्धियों को स्मरण कर उन पर गौरव करती है ।

 उर्दू और हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकार के साथ ही लोग उनका विधि और उद्देश पूर्ण सेवाभावी राजनीतिज्ञ के रूप में सम्मान सहित स्मरण करते हैं ।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ मेरी यात्रा और वह पहला शॉल ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ संस्मरण ☆ मेरी यात्रा और वह पहला शॉल  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

इस यात्रा का वाकया आज से 45 वर्ष पुराना है।वह मेरा पहला कवि सम्मेलन था,जहाँ मुझे कुछ घंटों की यात्रा करके पहुँचना था,और रात में ही वापस लौटना था।

मैं आयोजित इस कवि सम्मेलन में भाग लेने ट्रेन से शाम पहुंच गया।देर रात तक कवि सम्मेलन चला ।मेरा काव्य पाठ अच्छा रहा था।मैं सम्मान में प्राप्त शॉल को सीने से लगाये कस्बे के स्टेशन पर पहुंच गया,जहाँ से वापिसी की ट्रेन अपने शहर को पकड़नी थी।

चूँकि ट्रेन लेट थी इसलिए मैं एक बेंच पर बैठकर इंतज़ार करने लगा।तभी मैंने देखा कि प्लेटफार्म के एक कोने में एक भिखारीनुमा वृद्ध आदमी लेटा है।उसके पास न तो गर्म कपड़े थे,और न ही उसने कुछ ओढ़ रखा था।वह कँपकँपा रहा था।मेरे मन में आया कि सम्मान में मिले शॉल को उसे उड़ा दूँ।पर दूसरे ही पल मन में आया कि वह जीवन में मिले सम्मान का पहला शॉल है।इस तरह उसे गँवा देना ठीक नहीं।मैं इसी उधेड़बुन में लगा था कि तभी ट्रेन आ गई।मैं अभी भी मानवता और स्वार्थ के बीच पशोपेश में था।तभी ट्रेन चलने लगी । मैं ट्रेन की ओर लपका,पर मेरे भीतर की करुणा ने यह सोचकर जोर मारा कि शॉल तो और मिल जाएंगे,पर वह वृद्ध सर्दी के कारण कहीं मर गया तो।यही सोचकर मैं वापस मुड़ा और शॉल उस वद्ध को उड़ाया और दौड़कर चढ़ गया।मुझे लगा कि मौसम गर्मा गया है,और मेरी सारी सर्दी फुर्र हो गई है।

उसके बाद शॉल तो मुझे अनेक मिले, यात्राएं  भी मैंने बहुत कीं,पर वह यात्रा और वह पहला शॉल मेरे भीतर एक ज़बरदस्त उत्साह बनाये रखते हैं।

💐 प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे जी को उनके जन्मदिवस पर ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से अशेष हार्दिक शुभकामनायें 💐

© प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

स्व. वसंत काशीकर

☆ कहाँ गए वे लोग # ३० ☆

☆ “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

‘कोरोना ने लील लिया एक चमकते सितारे – रंगकर्मी स्व. बसंत काशीकर को’

वसंत काशीकर जी, नाट्य जगत का जाना पहचाना नाम जिन्होंने अपनी नाट्य कला से संस्कारधानी जबलपुर के साथ पूरे देश मे हर दर्शक के दिल में अमिट छाप छोड़ी। जबलपुर में रंगमंच और रंगकर्म की एक लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। नगर में अनेक नाट्य-संस्थाएं काम कर रही हैं और ये एक-दूसरे के समानांतर नहीं, बल्कि साथ-साथ हैं। भौतिकी का सर्वमान्य सिद्धांत है कि समानांतर क्रम में जुड़ने पर परिणामी प्रतिरोध कम हो जाता है और श्रेणी क्रम में यह इंडिजुअल्स के योग के बराबर हो जाता है। प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है। सामने लहर बहुत बड़ी हो तो लोग हाथ जोड़कर श्रृंखलाबद्ध हो जाते हैं। समय के इस मोड़ पर जबलपुर की रंग संस्थाओं ने यही किया है। 

वसंत काशीकर जितने बड़े कलाकार थे उतने ही बड़े निर्देशक भी थे। रंगमंच के सम्पूर्ण क्राफ्ट पर उनकी पकड़ दिखायी देती थी। उन्होंने विवेचना के लिए कोई 30 से भी ज्यादा नाटकों का निर्देशन किया। उनके द्वारा निर्देशित प्रमुख नाटक हैं, मोटेराम का सत्याग्रह, रानी नागफनी की कहानी, पोस्टर, बैरिस्टर, महाब्राह्मण, दूसरी आजादी, सूपना का सपना, मनबोध बाबू, मायाजाल, एक मामूली आदमी, आँखों देखा गदर, मित्र और मौसाजी जैहिंद। सब लोगों के बीच वे मौसाजी जैहिंद बन गए थे। मौसाजी जैहिंद में उनका गजब का अभिनय था। 

काशीकर ने नाटक भी लिखे और कहानियों का नाट्य रूपांतर भी किया। हरिशंकर परसाई के फैंटेसी उपन्यास रानी नागफनी की कहानी और इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर जैसी रचनाओं का उन्होंने प्रभावी रूपांतर किया था। जब वे स्टेट बैंक में अधिकारी थे तो उनके निर्देशन में हरिशंकर परसाई के फैंटेसी उपन्यास रानी नागफनी के नाट्य रूपांतरण हमारा भी सहयोग रहा, नाटक को संगीतमय बनाने में और आंचलिक भाषा में हम लोगों ने मिलकर बीच-बीच में खूब गीत बना कर डाले थे। भोपाल में रवींद्र भवन में मंचन के बाद बेस्ट नाटक का अवार्ड भी मिला था, याद आता है उन दिनों का स्टेट बैंक नाट्य समारोह… 

स्टेट बैंक द्वारा तीन दिवसीय नाट्य स्पर्धा समारोह का आयोजन होता था। सन 1984 में भारतीय स्टेट बैंक ने प्रदेश में स्थापित अपने क्षेत्रीय कार्यालयों एवं स्थानीय प्रधान कार्यालयों के कर्मचारियों के बीच राजभाषा मास के अंतर्गत नाट्य स्पर्धा की शुरुआत की जो अनवरत 25 वर्षों से अधिक चलती रही।इस नाट्य समारोह के प्रणेता श्री एच, एम, शारदा ( सेवानिवृत्त मुख्य महाप्रबंधक ) थे। उन्होंने अपने रायपुर में पदस्थापना के समय स्टेट बैंक नाट्य मंच की स्थापना की थी। श्री शारदा स्वयं “पारिजात ” नाम से अपना लेखन कार्य करते थे। इस नाट्य समारोह में नाटकों की प्रस्तुति किसी पेशेवर कलाकारों से कम नहीं होती थी। इस समारोह का नगर के नाट्य प्रेमियों में आकर्षण बढ़ता चला गया। स्टेट बैंक का नाट्य समारोह भोपाल के लिए इतना लोकप्रिय हो गया कि प्रतिवर्ष राजभाषा मास आते ही नाट्य प्रेमियों के लिए इसकी प्रतीक्षा और उत्सुकता रहती। नाट्य कर्मी महीनों पहले से उसकी तैयारी में जुट जाते। प्रबंधन की ओर से सभी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती थी। यह स्पर्धा रायपुर, जबलपुर, ग्वालियर, भोपाल आंचलिक कार्यालयों की शाखाओं एवं स्थानीय प्रधान कार्यालय के कर्मचारियों के मध्य आयोजित होती थी। स्टेट बैंक नाट्य समारोह में सैया भये कोतवाल, निर्णय रुका हुआ, दुलारी बाई, एक था गधा, हमीर की सुबह, सूर्यास्त, चेतना घात, रात्री भोज, कफ़न, मारीच वध, रामलीला, संध्या छाया जैसे आदि लोकप्रिय नाटकों का मंचन किया गया। इन समारोहों में प्रसिद्ध रंगकर्मीं एवं निर्देशक बंसी कौल, राजेंद्र गुप्ता, हबीब तनवीर, प्रभात गांगुली, एम, के, रैना, अलखनंदन, राजीव वर्मा, जयंत देशमुख, आलोक चटर्जी, जावेद जैदी, सतीश मेहता, संजय मेहता, अनूप जोशी, पापिया आंटी, सरोज शर्मा, स्वस्तिक चक्रवर्ती जैसे स्वनामधन्य नाट्य जगत की हस्तियां साक्षी बनी और निर्णायक की भूमिका रही है। स्टेट बैंक नाट्य समारोह ने जो कलाकार भोपाल के नाट्य जगत को दिए वे आज भी सक्रिय है। बसंत काशीकर के निर्देशन में जबलपुर आंचलिक कार्यालय का नाट्य दल इस समारोह में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेता था और डंके की चोट में अनेक पुरस्कार सम्मान लेकर नाट्य समारोह से लौटता था। नाटकों में संगीत, गायन और मंच सज्जा भी बैंक कर्मियों द्वारा ही की जाती थी। जबलपुर आंचलिक कार्यालय के नाटक को देखने खूब भीड़ उमड़ती थी। इस नाट्य समारोह ने बड़े बड़े रंगकर्मी और नाट्य निर्देशक दिए जिन्होंने फिल्मी दुनिया में भी खूब नाम कमाया।

मराठी संस्कृति और संस्कारों के कारण काशीकर का कला के प्रति स्वाभाविक रुझान था। सादगी भरा जीवन था और उनका मित्र संसार बड़ा था। परस्परता उनका स्वभाव था। अहंकार और अकड़ न थी। सहजता थी। जुटकर काम करने की आदत थी। प्रायः यह देखने में आता है कि जो कला के किसी क्षेत्र में गहरे उतर जाते हैं, वे अपने अन्य दायित्वों की तरफ पीठ कर लेते हैं, पर उन्होंने पारिवारिक जिम्मेदारियों से कभी मुख नहीं मोड़ा। जब वे अभिनय करते थे, तो उनका सर्वांग बोलने लगता था। संवाद भर उनके किरदार को नहीं खोलते थे, बल्कि उनका अंग-संचालन और हाव-भाव भी किरदार को जीवंत बनाने के काम में सन्नद्ध हो जाया करते थे। लेखक की रचना को मंच पर साकार करने और उसकी व्यंजनाओं को डिकोड करने का काम उन्होंने अंजाम दिया। कला की जीवन के साथ संगति बैठाई। यह कठिन काम है, पर काशीकर ने यह काम दिल से ईमानदारी से करके दिखाया।

नाट्य जगत का चमकता सितारा जिसने अपनी नाट्य कला से संस्कारधानी जबलपुर के हर दर्शक के दिल में अमिट छाप छोड़ी । प्रदेश ही नहीं बल्कि भारत के विभिन्न प्रांतों में जाकर अपनी कला से लोगों को सम्मोहित करने वाला हसमुख स्वभाव के धनी भाई बसंत काशीकर को दिनांक १४ मई २०२१ को कोरोना ने लील लिया और वे नश्वर देह त्याग कर परमपिता में समाहित हो गये।

श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

डॉ. नंद किशोर पाण्डेय

☆ कहाँ गए वे लोग # २९ ☆

☆ सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

सौम्य-आकर्षक व्यक्तित्व एवं प्रभावशाली वाणी के धनी डॉ. नंद किशोर पाण्डेय अपनी सरलता, सहजता, मिलनसारिता एवं विद्वता के लिए न सिर्फ अपने विद्यार्थियों, सहयोगियों के  वरन सम्पूर्ण समाज के प्रिय एवं आदरणीय थे। डॉ. पाण्डेय ने अर्थ शास्त्र में एम. ए. करने के उपरांत “स्वतंत्रता के पश्चात सहकारी आंदोलन के प्रति राज्य की नीति” विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। डॉ. पाण्डेय ने विभिन्न अवसरों पर अपने भाषणों, वक्तव्यों एवं लेखन के माध्यम से सहकारिता द्वारा सम्पूर्ण विकास पर अपने चिंतन को प्रस्तुत किया।

डॉ. पाण्डेय ने जी. एस. कामर्स कालेज, जबलपुर में आचार्य, विभागाध्यक्ष एवं प्राचार्य पद पर रहते हुए विद्यार्थियों सहित वाणिज्य एवं सहकारिता क्षेत्र को चिंतन की नई दिशा व ऊर्जा प्रदान की। डॉ. पाण्डेय रानी दुर्गावती वि.वि., जबलपुर सहित वाणिज्य संकाय ग्रामोदय वि.वि. चित्रकूट, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वि.वि. नई दिल्ली व भोजपुर, गुरु घासीदास वि.वि. रायपुर एवं रीवा, सागर तथा भोपाल विश्वविद्यालयों में अर्थशास्त्र एवं वाणिज्य से संबंधित महत्वपूर्ण समितियों एवं पदों पर रहे। किसी विषय में गहरे उतर कर उसका तर्क पूर्वक विश्लेषण और फिर सहज सुपाच्य समाधान प्रस्तुत करना उनका कौशल था।

छत्तीसगढ़ स्थित बिलासपुर के निकट ग्राम गनियारी में 22 अगस्त 1932 को जन्मे डॉ. नंद किशोर पाण्डेय ने अपने पिता श्री ए.एल. पाण्डेय से प्राप्त शिक्षा स्पष्टवादिता, ईमानदारी, शोषण का विरोध और पीड़ितों की मदद  को जीवन का हिस्सा बना लिया। उन्होंने अशासकीय महाविद्यालयीन प्राध्यापक संघ के पदाधिकारी के रूप में शिक्षकों के हितों के लिए सार्थक संघर्ष किया। वे प्रदेश भर के शिक्षकों में जितने लोकप्रिय थे उतना ही स्नेह और सम्मान उन्हें सदा अपने छात्रों से भी प्राप्त हुआ। उनके एक छात्र और सहकारिता क्षेत्र के विशेषज्ञ श्री यशोवर्धन पाठक ने लिखा है कि लोग उनके व्याख्यान और लेखन में डूब जाया करते थे। उनके विषय में कहा जाता था कि डॉ. पाण्डेय बोलें या लिखें सब कुछ अच्छा लगता है। 18 मार्च 1998 को जबलपुर के डी.एन. जैन महाविद्यालय में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी थी जिसकी अध्यक्षता डॉ. पाण्डेय ने की। पाण्डेय जी ने उद्बोधन दिया, लोगों से प्रशंसा व स्नेह प्राप्त किया और कार्यक्रम की समाप्ति पर ही अचानक हृदयाघात से उनका निधन हो गया। लोगों ने एक विद्वान चिंतक व हितैषी खो दिया।

विद्वतजनों के अनुसार डॉ. पाण्डेय के पास हमेशा जटिल प्रश्नों के आसान जवाब होते थे। संभवतः यही कारण था कि चाहे विद्यार्थी हों अथवा साथी डॉ. पाण्डेय का सत्संग उन्हें तनाव मुक्त कर नई स्फूर्ति से भर देता था। उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं – 1* सहकारी नेतृत्व, सहकारी नीति, सहकारी आंदोलन  2* सहकारी नेतृत्व और को- आपरेटिव प्लानिंग फॉर एग्रीकल्चर एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट, चिंतन सूत्र। पाण्डेय जी ने तथ्य परक और शोध पूर्ण सैकड़ों लेख लिखे जो देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए, आकाशवाणी से प्रसारित हुए। आपके कुछ आलेख आपकी विदुषी सुपुत्री डॉ. वंदना पाण्डेय द्वारा संपादित पुस्तक “दृष्टिकोण” में संग्रहित हैं। रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के पूर्व कुलपति डॉ. कपिलदेव मिश्र ने लिखा है कि उन्हें डॉ. पाण्डेय की सहजता, सरलता, सौम्यता, ज्ञान-गरिमा, कर्म निष्ठा, अनुभव शीलता एवं मौलिकता से परिचित होने का अवसर महात्मा गांधी ग्रामोदय चित्रकूट विश्वविद्यालय में मिला जब वे वहां वाणिज्य विभाग के विभागाध्यक्ष एवं अधिष्ठाता थे। सुप्रसिद्ध साहित्यकार, चिंतक डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी के अनुसार डॉ. पाण्डेय शीलवान संस्कारी और बौद्धिक चेतना सम्पन्न व्यक्ति थे। वे गंभीर समीक्षक-विश्लेषक थे।

उपदेश देने के बजाय समाज के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करने वाले स्मृति शेष विद्वान शिक्षाविद् डॉ. नंद किशोर पाण्डेय जी को सादर नमन।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं – “पद्मश्री शरद जोशी”)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

पद्मश्री श्री शरद जोशी

(जन्म – 21 मई 1931- निधन – 5 सितंबर 1991)

☆ कहाँ गए वे लोग # २८ ☆

☆ पद्मश्री श्री शरद जोशी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

शरद जोशी जी ने एक जगह लिखा है…

“पृथ्वी पर जन्म लेने के समय खुद ईश्वर अपने लिए ऐसा बाप छांटता है जो खाता कमाता और सुखी हो। अक्सर ही ईश्वर ने राजा के घर जन्म लिया है, उससे कई सहूलियतें रहतीं हैं…” 

ऐसे महान व्यंग्यकार शरद जोशी का जन्म 21 मई 1931 को उज्जैन, मध्य प्रदेश में श्रीनिवास और संतोषी जोशी के परिवार में दूसरी संतान के रूप में हुआ था। उनकी चार बेटियाँ हैं। शरद जी को बचपन से ही लेखन में दिलचस्पी थी।

उन्होंने  इंदौर के होलकर कॉलेज से बी.ए. किया था।

शरद जोशी जी ने इंदौर में समाचार पत्रों और रेडियो के लिए लिखने से अपने करियर की शुरुआत की, जहां उनकी मिलस्कात इरफाना सिद्दीकी से हुई, जिनसे उन्होने बाद में शादी की।  

वे हिंदी के महान कवि, लेखक, व्यंग्यकार और हिंदी फिल्मों और टेलीविजन के संवाद और पटकथा लेखक थे। उनके लघु व्यंग्य लेख प्रमुख हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित किए गए, जिनमें नई दूनिया, धर्मयुग, रविवार, सप्तक, हिंदुस्तान, कादंबनी और ज्ञानोदय शामिल हैं।  नवभारत टाइम्स में उनके दैनिक कॉलम “प्रतिदिन” को सात साल तक प्रकाशित किया गया और देखते देखते अखबार हाथों हाथ बिकने लगा, लोग सबसे पहले प्रतिदिन कालम पढ़ते थे।

बहुत पहले आदरणीय शरद जोशी जी “रचना”  संस्था के आयोजन में परसाई की नगरी जबलपुर में मुख्य अतिथि बनकर आए थे, हम उन दिनों “रचना ” के संयोजक के रूप में सहयोग करते थे। 

“रचना” साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था का मान था उन दिनों। हर रंगपंचमी पर राष्ट्रीय स्तर के हास्य व्यंग्य के ख्यातिलब्ध हस्ताक्षर आमंत्रित किए जाते थे। हम लोगों ने आदरणीय शरद जोशी जी को रसल चौक स्थित उत्सव होटल में रूकवाया था, “व्यंग्य की दशा और दिशा” विषय पर केंद्रित इस कार्यक्रम के वे मुख्य अतिथि थे। व्यंग्य विधा के इस आयोजन के प्रथम सत्र में ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं पर आधारित रेखाचित्रों की प्रदर्शनी का उदघाटन करते हुए जोशी जी ने कहा था- “मैं भाग्यवान हूं कि परसाई के शहर में परसाई की रचनाओं पर आधारित  रेखाचित्र प्रदर्शनी के उदघाटन का सुअवसर मिला, फिर उन्होंने परसाई की सभी रचनाओं को घूम घूम कर पढ़ा हंसते रहे और हंसाते रहे। ख्यातिलब्ध चित्रकार श्री अवधेश बाजपेयी की पीठ ठोंकी, खूब तारीफ की। व्यंग्य विधा की बारीकियों पर उभरते लेखकों से लंबी बातचीत की। शाम को जब होटल के कमरे में वापस लौटे फिर दिल्ली के अखबार के लिए ‘प्रतिदिन ‘कालम लिखा, हमें डाक से भेजने के लिए दिया। स्थानीय साहित्यकारों के साथ थोड़ी देर चर्चा की, फिर टीवी देखते देखते सो गए।”

उन्होंने चौदह पुस्तकें लिखीं: परिक्रमा, केसी बहेन, तिलस्म, जीप पार संवार इल्लियां, राह किनारे बैठ, मेरी श्रेष्ठ रचनाएँ, दूसरी कथा, यथा संभव, यत्र तत्र सर्वत्र, यथा समा, हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे,  और प्रतिदिन 3भागों में। उनकी पुस्तकें जीप पर संवार इल्लियां ’सरकारी अधिकारियों पर एक जबरदस्त व्यंग्य है।

उनके लिखे नाटक-

अंधों का हाथी,एक था गधा उर्फ़ अलादत खान।  यह व्यंग्य नाटक पिछले दशक के सबसे लोकप्रिय नाटकों में से एक था।

संवाद लेखक के रूप में फिल्मोग्राफी:

  • क्षितिज (1974)
  • छोटी सी बात (1975)
  • सांच को आंच नहीं (1979)
  • गोधुली (1977)
  • चोरनी (1982)
  • उत्सव (1984)
  • मेरा दमाद (1990)
  • दिल है कि मानता नहीं (1991)
  • उदान (1997)

टीवी धारावाहिक–

  • ये जो है जिंदगी (1984-85)
  • विक्रम और वेताल
  • वाह जनाब
  • दाने अनार के
  • श्रीमती जी
  • सिंहासन बत्तीसी
  • ये दुनीया है गजब की
  • प्याले माई तोफान
  • गुलदस्ता
  • लापतागंज (2009)

शरद जोशी जी ने कवियों के चरित्र को देखते हुए  इस कविता में शब्दों को जोड़-तोड़ कर कविता लिखने वालों पर करारा व्यंग्य किया था: 

‘च’ ने चिड़िया पर कविता लिखी।

उसे देख ‘छ’ और ‘ज’ ने चिड़िया पर  कविता लिखी।

तब त, थ, द, ध, न, ने

फिर प, फ, ब, भ और म, ने

‘य’ ने, ‘र’ ने, ‘ल’ ने

इस तरह युवा कविता की बारहखड़ी के सारे सदस्यों ने

चिड़िया पर कविता लिखी।

चिड़िया बेचारी परेशान

उड़े तो कविता

न उड़े तो कविता।

तार पर बैठी हो या आँगन में   

डाल पर बैठी हो या मुंडेर पर

कविता से बचना, मुश्किल

मारे शरम मरी जाए।

एक तो नंगी,

ऊपर से कवियों की नज़र

क्या करे, कहाँ जाए

बेचारी अपनी जात भूल गई

घर भूल गई, घोंसला भूल गई

कविता का क्या करे

ओढ़े कि बिछाए, फेंके कि खाए

मरी जाए कविता के मारे

नासपिटे कवि घूरते रहें रात-दिन।

एक दिन सोचा चिड़िया ने

कविता में ज़िन्दगी जीने से तो मौत अच्छी।

मर गई चिड़िया

बच गई कविता।

कवियों का क्या,

वे दूसरी तरफ़ देखने लगे।”

……

शरद जोशी ने अपनी स्पष्ट और पृथक पहचान बनाई थी। शरद जोशी ने इस कदर धुआंधार लेखन किया कि हजारों की संख्या में रचनाओं का अम्बार खड़ा कर दिया। उनकी इन रचनाओं की शैली परसाई की लेखन शैली से भिन्न थी। शरद जोशी ने अपने व्यंग्य के नये शिल्प इस तरह गढ़े कि बाद के लेखकों में उनका प्रभाव व अनुसरण अधिक दिखने लगा।परसाई का लेखन अपने किस्म का एक फौजदारी मामला लगता था जबकि शरदजी किसी प्रकार के खून खराबे से बचकर मामले को दीवानी बनाए रखने के पक्षधर लगते थे।

परसाई से कम उम्र होने के बाद भी शरद जोशी पहले दिवंगत हो गए थे तब मध्य प्रदेश साहित्य परिषद ने उनके नाम से व्यंग्य लेखन के लिए ‘शरद जोशी पुरस्कार’ रखा। यह पहला शरद जोशी सम्मान श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन के हरिशंकर परसाई को दिया गया था। इस विडंबना पूर्ण उपलब्धि को परसाई जी ने प्राप्त किया था।  परसाई व्यंग्य के प्रथम पुरुष थे पर खुद को व्यंग्यकार कहलवाने का आग्रह उनमें नहीं था। यह आग्रह शरद जोशी में भी नहीं रहा होगा पर उनके पाठक उनके नाम के आगे व्यंग्यकार का विशेषण किसी विभूषण की तरह लगाने लगे और वे ‘व्यंग्यकार शरद जोशी’ कहलाने लगे थे। 

श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

श्री अनूप कुमार शुक्ल  

परिचय 

जन्मतिथि: 20.04.1964

शिक्षा: बी. ई . (मेकेनिकल), एम. टेक. (मशीन डिजाइन)

प्रकाशित पुस्तकें: 

  1. पुलिया पर दुनिया 2. बेवकूफी का सौन्दर्य 3. झाड़े रहो कलट्टरगंज 4. सूरज की मिस्ड कॉल 5. घुमक्कड़ी की दिहाड़ी 6. आलोक पुराणिक –व्यंग्य का एटीएम 7. अनूप शुक्ल -चयनित व्यंग्य

हिन्दी ब्लागिंग में 2004 से सक्रिय। ब्लाग फ़ुरसतिया (fursatiya.blogspot.com) एवं चिट्ठा चर्चा (chitthacharcha.blogspot.com) में 2000 से अधिक लेख प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित।

सम्मान: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘सूरज की मिस्ड कॉल’ पर सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ सम्मान एवं ‘घुमक्कड़ी की दिहाड़ी’ पर बाबू गुलाब राय सम्मान।

संप्रति: भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय से उपमहानिदेशक पद से अप्रैल, 2024 में सेवानिवृत्त। 

ईमेल: [email protected]

फ़ेसबुक: https://www.facebook.com/anup.shukla.14

व्यंग्यकार अनूप शुक्ला कानपुर: http://fursatiya.blogspot.com/2006/08/blog-post.html?m=1

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व स्व. फ़िराक़ गोरखपुरीके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

 

स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी 

आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअस्रों

जब ये ख्याल आयेगा उनको,तुमने फ़िराक़ को देखा था।

☆ कहाँ गए वे लोग # २७ ☆

☆ “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

फ़िराक़ गोरखपुरी बीसवीं सदी के उर्दू के महान शायर थे। फ़िराक़ का जन्म 28 अगस्त 1886 में गोरखपुर में हुआ। बी.ए. में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान पाने के बाद आई.सी.एस. में चुने गये। 1920 में नौकरी छोड़ दी तथा स्वराज्य आंदोलन में कूद पड़े। डे़ढ साल जेल में रहे। जेल से छूटने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने अखिल भारतीय कांग्रेस के दफ्तर में ‘अण्डर सेक्रेटरी’ की जगह दिला दी। बाद में नेहरू जी के यूरोप चले जाने के बाद कांग्रेस का ‘अण्डर सेक्रेटरी’ पद छोड़ दिया। फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1930  से लेकर 1959 तक अंग्रेजी के अध्यापक रहे। 1970 में उनकी उर्दू काव्यकृति ‘गुले नग्‍़मा’ पर ज्ञानपीठ पुरुस्कार मिला। सन् 1982 में उनका देहावसान हुआ।

फ़िराक़ का व्यक्तित्व बहुत जटिल था। तद्भव के सातवें अंक में फ़िराक गोरखपुरी पर विश्वनाथ त्रिपाठी ने बहुत विस्तार से संस्मरण लिखा है। फ़िराक़ के व्यक्तित्व के विविध पहलुओं के बारे में इस संस्मरणात्मक लेख में बताया गया। 

फ़िराक़ गोरखपुरी अपने विवाह को अपने जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना मानते थे। वे अपने दुखों को बढ़ा-चढ़ाकर बताते रहे। पत्नी को ताजिन्दगी कोसते रहे। 75 वर्ष की अवस्था में उन्होंने लिखा:-

मेरी जिन्दादिली वह चादर है, वह परदा है, जिसे मैं अपने दारुण जीवन पर डाले रहता हूँ। ब्याह को छप्पन बरस हो चुके हैं और इस लम्बे अरसे में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता कि मैं दाँत पीस-पीसकर न रह गया हूँ। मेरे सुख ही नहीं,मेरे दुख भी मेरे ब्याह ने मुझसे छीन लिये। पिता-माता,भाइयों-बहनों,दोस्तों- किसी की मौत पर मैं रो न सका।

मैं पापिन ऐसी जली कोयला भई न राख।

विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने फ़िराक़ के बारे में लिखते हुये जानकारी दी:-

अहमद साहब फिराक के साहब के बहुत नजदीक थे। वे उनके व्यक्तित्व के इस आयाम के आलोचक थे। उन्होंने बताया कि फिराक साहब की बीबी अच्छी थीं। देखने सुनने में और वे कभी-कभी फिराक को कोसती भी थीं। फिराक साहब उन पर कभी-कभी जुल्म भी करते थे। जैसे, एक बार वे गोरखपुर से आयीं। आते ही जैसे ही सामान नीचे रखा तो फिराक साहब ने पूछा-मरिचा का आचार लायी हो? वे लाना भूल गयीं थीं। तो फिराक साहब ने उसी वक्त उनको लौटा दिया और कहा कि जाओ मरिचा का अचार लेकर तब आओ गोरखपुर से, भूल कैसे गयी तुम? और कभी-कभी जब वे गुस्से में आती थीं तो कहती थीं कि- तुम पहले अपना थोबड़ा तो देख लो कैसे हो? वे दबती नहीं थीं। कहने का मतलब ये है कि कल्पना में कोई रूपसी चाहते होंगे फिराक साहब जो उनको नहीं मिली। एक बार सबके बीच में फिराक साहब ने बडे़ जोर से कहा कि – I am not a born homosexual, it is my wife, who has made me homosexual तो मुझे लगता है कि अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिये वे अपनी बीबी को बलि का बकरा बनाते थे। उनकी पत्नी तो सबके सामने आकर बातें कह नहीं सकतीं थीं। इसलिये फिराक साहब अपने सारे दोषों के लिये अपनी बीबी को जिम्मेदार ठहराते थे।

फिराक साहब मिलनसार थे, हाजिरजवाब थे और विटी थे। अपने बारे में तमाम उल्टी-सीधी बातें खुद करते थे। उनके यहाँ उनके द्वारा ही प्रचारित चुटकुले आत्मविज्ञापन प्रमुख हो गये । अपने दुख को बढ़ा-चढ़ाकर बताते थे। स्वाभिमानी हमेशा रहे। पहनावे में अजीब लापरवाही झलकती थी-

टोपी से बाहर झाँकते हुये बिखरे बाल,शेरवानी के खुलेबटन,ढीला-ढाला (और कभी-कभी बेहद गंदा और मुसा हुआ) पैजामा, लटकता हुआ इजारबंद, एक हाथ में सिगरेट और दूसरे में घड़ी, गहरी-गहरी और गोल-गोल- डस लेने वाली-सी आँखों में उनके व्यक्तित्व का फक्कड़पन खूब जाहिर होता था।

लेकिन बीसवीं सदी के इस महान शायर की गहन गंभीरता और विद्वता का अंदाज उनकी शायरी से ही पता चलता है।लेकिन बीसवीं सदी के इस महान शायर की गहन गंभीरता और विद्वता का अंदाज उनकी शायरी से ही पता चलता है। जब वे लिखते हैं :-

जाओ न तुम हमारी इस बेखबरी पर कि हमारे

हर ख्‍़वाब से इक अह्‌द की बुनियाद पड़ी है।

फिराक साहब की कविता में सौन्दर्य के बड़े कोमल और अछूते अनुभव व्यक्त हुये हैं। एक शेर है:-

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी

ये हुस्नों इश्क धोखा है सब मगर फिर भी।

1962  की चीन की लड़ाई के समय फिराक साहब की यह गजल बहुत मशहूर हुई:-

सुखन की शम्मां जलाओ बहुत उदास है रात

नवाए मीर सुनाओ बहुत उदास है रात

कोई कहे ये खयालों और ख्वाबों से

दिलों से दूर न जाओ बहुत उदास है रात

पड़े हो धुंधली फिजाओं में मुंह लपेटे हुये

सितारों सामने आओ बहुत उदास है रात।

शायद अपने जीवन के आखिरी दिनों में फिराक साहब ने लिखा:-

अब तुमसे रुख़सत होता हूँ आओ सँभालो साजे़- गजल,

नये तराने छेडो़,मेरे नग्‍़मों को नींद आती है।

अपने बारे में अपने खास अंदाज में लिखते हुये फिराक साहब ने लिखा था:-

आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअस्रों

जब ये ख्याल आयेगा उनको,तुमने फ़िराक़ को देखा था।

———————————-

साभार – व्यंग्यकार श्री अनूप शुक्ल (कानपुर)

प्रस्तुति -जय प्रकाश पाण्डेय 

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्व चंद्रकांत देवताले

☆ कहाँ गए वे लोग # २६ ☆

☆ यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

म.प्र.के बैतूल जिले के  एक गांव में 07.11.1936 को चंद्रकांत देवताले का जन्म हुआ था। वे जितने उम्दा कवि-लेखक, समीक्षक थे, उतने ही सरल और फक्कड़ इंसान थे। अस्सी बरस की आयु पूरी कर वे 14 अगस्त 2017 को वे इस दुनिया को अलविदा कह कर चले गए।

      मैं आता रहूंगा 

      उजली रातों में 

      चन्द्रमा को गिटार सा बजाऊंगा 

       तुम्हारे लिए 

वे आधुनिक जीवन की विविधताओं और विडम्बनाओं  के ऐसे कवि हैं जिनकी जड़ें गांव कस्बों के निम्न मध्यवर्गीय जीवन में थीं। उनके काव्य संग्रह के नाम कुछ तरह के हैं ‘हड्डियों में छिपा ज्वर,’ ‘लकड़बघ्घा हंस रहा है,’ ‘भूखंड तप रहा है,’ ‘रौशनी के मैदान की तरफ़,’ ‘आग हर चीज़ में बताई गयी थी,’ ‘पत्थर की बेंच,’ ‘इतनी पत्थर रौशनी,’ ‘उजाड़ में संग्रहालय,’ ‘बदला बेहद मंहगा सौदा’ …. वे ऐसे तो वर्ष 1954 से कविता लिख रहे थे; पर उनकी पहचान साठोत्तरी पीढ़ी के कवियों के साथ जुड़ी थी| विभिन्न भारतीय भाषाओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओं में भी देवताले की कविताएं अनूदित हुईं हैं। वे लम्बे समय तक प्रेमचंद सृजनपीठ’ उज्जैन के निदेशक भी रहे। मध्य प्रदेश शासन के ‘शिखर सम्मान,’ ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान के साथ-साथ ‘पहल सम्मान’ और ‘सृजन भारती’ सम्मान से सम्मानित देवताले जी ने दिलीप चित्रे की प्रतिनिधि  कविताओं का मराठी से अनुवाद भी किया था। उन्होंने कविताओं में अपनी बात बहुत आत्मीयता के साथ,लेकिन सीधे और मारक तरीके से कही है, उनकी एक कविता ‘अन्तिम प्रेम’ की चार पंक्तियां…

“ऐसे ज़िंदा रहने से नफ़रत  है मुझे

जिसमें हर कोई आए और मुझे  अच्छा कहे

मैं हर किसी की तारीफ़  करते भटकते रहूँ

मेरे दुश्मन न हों

और इसे मैं अपने हक़ में बड़ी  बात मानूं”

श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

मुंशी प्रेमचंद

☆ कहाँ गए वे लोग # २५ ☆

☆ कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

“क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे” 

ऐसी बात लिखने वाले प्रेमचंद  31 जुलाई 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गांव में पैदा हुए हिन्दी-उर्दू के इस सबसे बड़े साहित्यकार ने बचपन से ही गरीबी और अभाव को देखा। पिता डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे। यही कारण है कि हालात से पैदा हुआ साहित्य जब कागज पर लिखा गया तो उसमें विकास के भागते पहिये की झूठी चमक नहीं बल्कि आजादी की आधी से ज्यादा सदी गुजर जाने के बावजूद लालटेन-ढ़िबरी के युग में जीने को मजबूर ग़रीब-गुरबों और मेहनत-मशक़्क़त करनेवालों की निगाहों के सामने छाए घुप्प अंधेरे का जिक्र था।

धनपतराय से प्रेमचंद बनने का सफर दिलचस्प है, लेकिन साथ ही बहुत ज्यादा भावुक भी। उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता का देहांत हो गया। आठ साल की उम्र से जो विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय का शुरू हुआ वह अपने जीवन के अन्त तक लगातार उससे जूझते रहे। मां के देहांत के बाद उनके पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम और स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। उनका जीवन गरीबी में ही पला। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली मां का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।

पिता ने 15 साल की उम्र में ही विवाह करवा दिया. पत्नी के बारे में प्रेमचंद ने लिखा है,” उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी. जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया। उसके साथ-साथ जबान की भी मीठी न थी। पिताजी ने जीवन के अंतिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया। मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।”

विवाह के एक साल बाद ही प्रेमचंद के पिताजी का देहांत हो गया। अचानक उनके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पांच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी।

प्रेमचंद की कालजयी कृतियों पर नजर डालें तो लम्बी कतार इस प्रकार है…सेवासदन १९१८ प्रेमाश्रम१९२२ रंगभूमि १९२५ निर्मला१९२५ कायाकल्प१९२७ गबन १९२८ कर्मभूमि १९३२ गोदान १९३६ मंगलसूत्र (अपूर्ण) उपन्यास व अंधेर, अनाथ लड़की, अपनी करनी, अमृत, अलग्योझा, आख़िरी तोहफ़ा, आख़िरी मंज़िल, आत्म-संगीत, आत्माराम, आधार, आल्हा, इज्ज़त का ख़ून, इस्तीफ़ा, ईदगाह, ईश्वरीय न्याय, उद्धार, एक ऑंच की कसर, एक्ट्रेस, कप्तान साहब, कर्मों का फल, क्रिकेट मैच मचंद, कफ़न, कवच, क़ातिल, कोई दुख न हो तो बकरी ख़रीद लो, कौशल, ख़ुदी, ग़ैरत की कटार, गुल्ली डंडा, घरजमाई, घमन्ड का पुतला, ज्योति, जेल, जुलूस, ठाकुर का कुआँ, झाँकी, तेंतर, त्रिया चरित्र, तांगेवाले की बड़, तिरसूल, दण्ड, दुर्गा का मन्दिरचंद, देवी-1 चंद, देवी-2, दूसरी शादी, दिल की रानी, दो सखियाँ, धिक्कार-1, धिक्कार-2, नेउर मचंद, नेकी, नब़ी का नीति-निर्वाह चंद, नरक का मार्ग, नैराश्य, नैराश्य लीला, नशा, नसीहतों का दफ्तर, नागपूजा, नादान दोस्त, निर्वासन, पंच परमेश्वर, पत्नी से पति, पुत्र-प्रेम, पैपुजी, प्रतिशोध, प्रेम-सूत्र, पर्वत-यात्रा, प्रायश्चित, परीक्षा, पूस की रात, बड़े घर की बेटी, बड़े बाबू, बड़े भाई साहब, बन्द दरवाज़ा, बाँका ज़मीदार, बेटों वाली विधवा, बैंक का दिवाला, बोहनी, मैकू, मंत्र, मंदिर और मस्जिद, मनावन, मुबारक बीमारी, ममता, माँ, माता का हृदय, मिलाप, मोटेराम जी शास्त्री, र्स्वग की देवी, राजहठ, रामलीला, राष्ट्र का सेवक, लैला, वफ़ा का खंजर, वासना की कड़ियाँ, विजय, विश्वास, शंखनाद, शूद्र, शराब की दुकान, शांति, शादी की वजह, शोक का पुरस्कार, स्त्री और पुरुष, स्वर्ग की देवी, स्वांग, सभ्यता का रहस्य, समर यात्रा, समस्या, सैलानी बंदर, स्‍वामिनी, सिर्फ़ एक आवाज़, सोहाग का शव, सौत, होली की छुट्टी (कहानियां), ‘संग्राम’ (1923), ‘कर्बला’ (1924) और ‘प्रेम की वेदी’ (1933) …….

वर्तमान मे प्रेमचंद के नाम से आये दिन पुरस्कारों एवं सम्मानों की घोषणा होती रहती है । लेकिन प्रेमचंद को उनके जीवन काल मे किसी भी पुरस्कार एवं सम्मान से नवाजे जाने का जिक्र नहीं मिलता । दरअसल प्रेमचंद ने कभी किसी पुरस्कार या सम्मान के लिए नही लिखा । वे ताउम्र मानव समाज के हर वर्ग के आम आदमी के अधिकारों को उन्हे दिलाने हेतु अपनी रचनाओं के माध्यम से संघर्षरत रहे ।  

प्रेमचंद जी ने अपने एक वक्तव्य में कहा है _

“मेरा अभिप्राय यह नही है कि जो कुछ लिख दिया जाय, वह सबका सब साहित्य है। साहित्य उसी रचना को कहेंगे, जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और सुंदर हो और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो और साहित्य में यह गुण पूर्ण रूप में उसी अवस्था में उत्पन्न होता है, जब उसमें जीवन की सच्चाइयां और अनुभूतियां व्यक्त की गई हों। तिलिस्माती कहानियों, भूत-प्रेत की कथाओं और प्रेम-वियोग के आख्यानों से किसी जमाने में हम भले ही प्रभावित हुए हों, पर अब उनमें हमारे लिए बहुत कम दिलचस्पी है। इसमें सन्देह नहीं कि मानव-प्रकृति का मर्मज्ञ साहित्यकार राजकुमारों की प्रेम-गाथाओं और तिलिस्माती कहानियों में भी जीवन की सच्चाइयां वर्णन कर सकता है, और सौंदर्य की सृष्टि कर सकता है; परन्तु इससे भी इस सत्य की पुष्टि ही होती है कि साहित्य में प्रभाव उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि वह जीवन की सच्चाइयों का दर्पण हो। फिर आप उसे जिस चौखट में चाहें, लगा सकते हैं – चिड़े की कहानी और गुलो-बुलबुल की दास्तान भी उसके लिए उपयुक्त हो सकती है।

साहित्य की बहुत-सी परिभाषाएं की गई हैं, पर मेरे विचार से उसकी सर्वोत्तम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना’ है। चाहे वह निबंध के रूप में हों, चाहे कहानियों के या काव्य के, उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए।” 

किसी ने पूछा – एक अच्छा इंसान बनने के लिए क्या करना चाहिए?

जबाब – प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए। 

प्रेमचंद आपको चुपचाप वो सिखा देते हैं जो बड़े से बड़ा धार्मिक साहित्य, उपदेशक, विमर्शकार नही सिखा पाएगा।

श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है श्री अजय कुमार  मिश्रा जी द्वारा लिखित – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी )

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

स्व. पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी

☆ कहाँ गए वे लोग # २४ ☆

☆ “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार – स्व. पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

(95वी जन्म जयंती पर विशेष)

बौद्धिक परिपक्वता और साहित्यिक गरिमा का जो समन्वय  पंडित हरिकृष्ण त्रिपाठी जी के साहित्य में मिलता है वह और कही देखने को नही मिलता वह साहित्य क्षेत्र के एक ऐसे दैदीप्यमान नक्षत्र रहे जिन्होंने अपनी लेखनी राष्ट्र जीवन से जुड़े अधिकाश विषयों तथा सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्रों पर चलाई और विभिन्न अवसरों पर भी उन्होंने अपने भाषणों में इन विषयों का उल्लेख किया है जो उन्हे साहित्यिक पितामह प्रमाणित करने में पर्याप्त हैं । उनका जो अध्ययन था इतना गहन था की संस्कारधानी में उनके समानांतर और कोई नही दिखाई देता।

जितना विविधतापूर्ण उनका अध्ययन और इस अध्ययन के माध्यम से वो जो साहित्य को ऊंचाई देना चाहते थे और वो उसके लिए प्रयत्न शील रहे।और कहने से नही अपितु अपने व्यक्तित्व के माध्यम से भी उन्होंने प्रमाणित किया हैं। तथा अपने कृतित्व और व्यक्तित्व दोनों के माध्यम से  इस बात को सिद्ध भी किया है ।

 

पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी एक सिद्धहस्त साहित्यकार होने के साथ-साथ पत्रकार एवं शिक्षाविद के रूप में नीरक्षीर विवेकी आलोचक के रूप में स्थापित रहे ।उनकी सभी रचनाओं (ग्रंथो)में साहित्यिक प्रतिभाओं के मूल्यांकन की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उनका हृदय “अय निः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरिताना तु वसुधैवकुटुम्बकम् ।।” के भावबोध से स्पन्दित होता हुआ विभिन्न कृतियों के माध्यम से दृष्टिगोचर होता है। सहज, सरल और प्रवाहपूर्ण भाषा द्वारा रचित साहित्य पाठकों को अनुप्रमाणित करता है। श्री त्रिपाठी जी ने लगातार युवा पीढ़ी को साहित्य-रस से अभिसिंचित कर सदैव सृजन के लिए प्रेरित किया और आज भी नई पीढ़ी के प्रेरणा स्रोत बने हुए है। कहा जा जाता है कि पुष्प की कोमलता और पाषाण की कठोरता को उन्होंने महापुरुषों की तरह आत्मसात किया है। राष्ट्रभक्ति, साहित्य और समाजसेवा का पाठ यशस्वी पारिवारिक परंपरा में बाल्यकाल से ही सीखा और उसे अपने जीवन में पूर्णरूपेण उतारने का प्रयास किया है। कर्म के प्रति ईमानदारी और अडिग विश्वास सदैव उनके यशस्वी जीवन का सबल रहे हैं। शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी निष्ठापूर्ण सेवाएँ सर्वविदित है। हिन्दी की सेवा उनके लिए राष्ट्रसेवा ही है।जिसे उन्होंने “राष्ट्रभाषा हिंदी और हमारी जनचेतना”नामक लेख में प्रस्तुत किया है की 

“स्वाधीनता के पूर्व सारे देश ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में मान्यता दे दी थी और इस प्रकार की मान्यता देने वाले सभी महापुरुषों में अहिन्दी भाषा-भाषी ही थे। कौन नहीं जानता कि स्वामी दयानंद सरस्वती, आचार्य केशवचंद्र सेन, शारदा नारायण मिश्र, केशव वामन पेठे, लोकमान्य तिलक, माधवराव सप्रे और स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जैसे महापुरुष अहिन्दी भाषा-भाषी थे। वास्तव में आज से सामाजिक एक्य और राष्ट्रीय एकता की नींव को सुदृढ़ करने की हो हमें चेष्टा करनी चाहिए। अपेक्षित है कि मनीषी और हिन्दी के हित चिंतक अहिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों के संकल्पशील होकर रचनात्मक भावना से हिन्दी भाषा के माध्यम से राष्ट्रीयता एवं सांस्कृतिक एक्य की चेतना जाग्रत करने की दिशा में सक्रिय होकर जनचेतना का निर्माण करें, क्योंकि राष्ट्र भाषा ही उन्नति का मूलमंत्र होती है।”

सृजन के क्षेत्र में साहित्येतिहास और समीक्षा उनके रुचिगत विषय रहे और उनके सुचितित लेख ग्रंथ ,गंगा प्रसाद अग्निहोत्री रचनावली मैं श्री त्रिपाठी जी ने द्विवेदीयुगीन साहित्य साधना के क्रमागत विकास का अध्ययन बड़े दृढ़ता के साथ करते हुए स्थानीय साहित्यकारों की सक्रियता को प्रस्तुत किया है वह स्वयं कहते है “भारतेन्दुबाबू हरिश्चन्द्र के अवसानोपरान्त और नवजागरण युग के आरंभ काल की सन्धि रेखा पर देश में हिन्दी हित-चितना और साहित्य-सर्जना के क्षेत्र में जो प्रतिभाएँ उदित हुई, उनमें स्वर्गीय अग्निहोत्री जी निश्चय ही एक महत्वपूर्ण स्थान के भागी है। इस काल की सभी प्रतिभाओं को साहित्येतिहास में द्विवेदी-मण्डल के साहित्यकारों में परिगणित किया गया है। इनमें हमारे मध्यप्रदेश के पंडित लोचन प्रसाद पांडेय, पंडित कामता गुरु, पं० रघुवर प्रसाद द्विवेदी, पं० माधवराव सप्रे आदि कुछ ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनके कृतित्व और विचार-सरणियों ने द्विवेदी-युग के ताने-बाने की कसावट को निस्सन्देह एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया है और इसलिए वे उस काल की ऐतिहासिक महत्ता के अधिकारी भी हैं।”वही श्री त्रिपाठी जी ने भी जबलपुर की काव्य धारा,वार्ता– प्रसंग ,चरित चर्चा, एवम् सृजन के सशक्त हस्ताक्षर,नमक अपने ग्रंथों में जबलपुर महाकोशल क्षेत्र के साहित्य तथा साहित्यकारो का  एक दस्तावेज बड़ी मधुरता के साथ अलोचनात्मक शैली में प्रस्तुत किया है।  आधुनिक हिन्दी साहित्य के व्यवस्थित विकास की प्रक्रिया में जबलपुर का योगदान सराहनीय रहा है। भाषा-विज्ञान के आचार्यों के मतानुसार प्रचलित खड़ीबोली हिन्दी का विशुद्ध रूप जबलपुर की भाषायी विशेषता रही है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में जबलपुर खड़ी बोली हिन्दी का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। भाषा के विकास एवं साहित्य-सृजन में इसका अपना विशिष्ट स्थान रहा ।इसलिए जबलपुर की काव्यधारा का संकलन किया जाना अपेक्षित था। इस लिए श्री त्रिपाठी जी ने “जबलपुर की काव्य धारा” में भारतेन्दुयुग के अवसान बेला से  द्विवेदीयुग के प्रवर्तनकाल तक अद्यतन कालावधि के 75 दिवंगत कवियों का समावेश किया है जिससे इन रचनाकारों की कविताएं सहज ही भविष्य में सुलभ हो पाएंगी । उन्होंने अपने लिए ही नहीं साहित्य में कार्य किया क्योंकि साहित्यकारों के साथ एक विडंबना रहती है कि वे अपने लिए काम करना चाहते है वे अपने प्रचार- प्रसार के लिए, अपने यश के लिए काम करना चाहते हैं , लेकिन पंडित हरि कृष्ण त्रिपाठी जी ने उन तमाम साहित्यकारों के लिए कार्य किया ,जो उनकी दृष्टि में साहित्य की सेवा कर रहे थे और संकोच के कारण जो अपने आपको प्रकाश में नहीं ला पाते थे ऐसे लोगों को भी उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया हैं यह उनके व्यक्तित्व की एक गरिमा थी जिसके कारण वह संस्कारधानी के पितामह कहे जाने की योग्य है।

लेखक – श्री अजय कुमार मिश्रा (शोध छात्र के लेख से साभार)

संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

डॉ. गीता पुष्प शॉ

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में डॉ. गीता पुष्प शॉ जी द्वारा आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

स्व. सुभद्रा कुमारी चौहान

☆ कहाँ गए वे लोग # २३ ☆

☆ “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” ☆ डॉ. गीता पुष्प शॉ

मुझे ख़ुशी है कि मेरा जन्म जबलपुर, मध्य-प्रदेश में हुआ जहाँ मुझे बचपन से बड़े-बड़े साहित्यकारों के बीच रहने का, उन्हें देखने-सुनने का मौक़ा मिला. आज मैं अपनी मुंहबोली नानी सुभद्रा कुमारी चौहान को याद कर रही हूं जिन्होंने हिन्दी में सबसे अधिक पढ़ी और गाई जाने वाली कविता ‘झाँसी की रानी’ लिखी है.

मेरी मां स्कूल में पढ़ाती थीं और कहानियाँ भी लिखती थीं. उनकी साहित्य में रुचि थी. सुभद्रा कुमारी चौहान मेरी मां को अपनी बेटी की तरह मानती थीं. मेरी मां पद्मा बैनर्जी (बंगाली) और पिताजी माधवन पटरथ (मलयाली) का विवाह सुभद्रा जी ने ही करवाया था. उनका घर मेरी मां के मायके जैसा था. मैं भी बचपन में मां के साथ उनके घर जाती थी. मुझे गर्व है कि मैंने उन महान कवयित्री को देखा और उनकी गोद में खेली. उनके बाद भी उनकी अगली तीन पीढ़ियों और उस घर से मेरा प्यार भरा रिश्ता बना हुआ है. आज उन्हीं सुभद्रा जी को याद कर रही हूँ जैसा कि मैंने उन्हें जाना.

आरंभिक जीवन में

सुभद्रा जी का जन्म इलाहाबाद (प्रयाग) में 16 अगस्त 1904 में हुआ था. वे वहां क्रॉस्थवेट स्कूल में पढ़ती थीं. महादेवी वर्मा उनसे जूनियर थीं. सुखद संयोग है कि ये दोनों सहेलियां तभी से कविताएं लिखती थीं और आगे चलकर प्रसिद्ध साहित्यकार सिद्ध हुईं. सुभद्रा जी की पहली कविता जो उन्होंने नौ वर्ष की आयु में लिखी थी ‘सुभद्राकुंवरि’ के नाम से प्रयाग की पत्रिका ‘मर्यादा’ में छपी थी. यह कविता नीम के पेड़ के बारे में थी. बचपन से सुभद्रा जी निडर, साहसी और सामाजिक कुप्रथाओं के खिलाफ थीं. इनका विवाह कम आयु में सन 1919 में खण्डवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान से हुआ जो पेशे से तो वकील थे पर उससे महत्वपूर्ण वे एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे जो इस कारण कई बार जेल गए.

उनकी भी साहित्य में रुचि थी और वे नाटककार थे. पति-पत्नी दोनों प्रगतिशील विचारधारा के संवाहक थे यह अच्छी बात थी. कहते हैं जब पहली बार सुभद्रा जी सास से मिलने खण्डवा गई तो उन्होंने घूंघट काढ़ने ‌ने से इंकार कर दिया था. इसमें उनके पति ने भी साथ दिया. सास बोलीं- “बिना घूंघट की दुल्हन देखकर लोग क्या कहेंगे?” इस पर लक्ष्मण सिंह ने कहा कि मैं भी इन्हें घूंघट निकालने के लिए नहीं कहूंगा क्योंकि मैं इस प्रथा का विरोधी हूँ. वे दोनों लौट आए, पर सुभद्रा जी ने आखिर घूंघट नहीं निकाला.

स्वतन्त्रता संग्राम में

उस समय देश में स्वतंत्रता के लिए गांधी जी के आव्हान पर सत्याग्रह आंदोलन चल रहा था. सुभद्रा जी स्वयं राष्ट्र प्रेम की भावना से ओत-प्रोत थीं ऐसे में उन्हें अपने पति का पूरा सहयोग मिला जो स्वयं स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय थे. दोनों पति-पत्नी खादी पहनते थे. सुभद्रा जी न कोई ज़ेवर पहनतीं न कोई श्रृंगार करतीं. एकदम सीधी-सादी वेशभूषा में उन्हें देख कर गांधी जी उनसे पूछ बैठे थे- “क्या आप शादीशुदा हैं?” तब सुभद्रा जी ने कहा- “जी हाँ. ये साथ में मेरे पति हैं.” इस पर गांधी जी बोले-“अरे तो कम से कम  पाड़‌वाली साड़ी तो पहना करो.”

जबलपुर में सुभद्रा जी जेल जाने वाली अग्रणी महिला थीं जिन्होंने हंसी-खुशी सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लिया.  देश भक्ति के जज़्बे में पति-पत्नी कई बार जेल गये. कभी अलग-अलग तो कभी एक साथ. जब दोनों एक साथ जेल में रहते तो उनके परिचित या पड़ोसी उनके बच्चों की देखभाल करते या उनकी बड़ी बेटी सुधा छोटे भाई-बहनों को संभालतीं.

साहित्य के क्षेत्र में

सुभद्रा जी के लेखन की बात करें तो साहित्य के क्षेत्र में भी वे अग्रणी रहीं. उन्होंने वीर रस की जो कविताएं लिखी वैसी शायद ही किसी दूसरी कवयित्री ने लिखी हो. जन मानस में रची-बसी और उस समय लोक गाथाओं में चर्चित झांसी की रानी लक्ष्मी बाई पर उनकी प्रसिद्ध कविता-

सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,

बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी!…

यह कविता लिखकर उन्होंने परतंत्र भारत के लोगों में जागृति फैलाने काम किया कि जब एक अकेली झांसी की रानी अंग्रेजों से लोहा ले सकती है तो हम सब मिलकर क्यों नहीं! सुनते हैं ‘झांसी की रानी’ कविता जला दी गई थी.  बाद में याद कर के सुभद्रा जी उसे दुबारा लिखा.

वैसी ही एक और कविता है-

वीरों का कैसा हो वसन्त

आ रही हिमाचल से पुकार

है उदधि गरजता बार-बार

प्राची पश्चिम भू नभ अपार

सब पूछ रहे हैं दिग् दिगन्त

वीरों का कैसा हो वसन्त

सहज सरल भाषा में लिखी ये कविताएं उस समय उन लोगों में जोश भर देती थीं जो लोग स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से लड़ रहे थे. उन्होंने राष्ट्रप्रेम, भक्ति, प्रेम, वात्सल्य, प्रकृति सभी विषयों के साथ-साथ बच्चों के लिए कई भी कई कविताएं लिखी हैं. जिनमें से कुछ अभी भी स्कूलों की पाठ्‌य-पुस्तकों में शामिल हैं. सुभद्रा जी के दो काव्य संकलन प्रकाशित हुए थे, ‘मुकुल’ और ‘त्रिधारा’. ‘मुकुल’ पर उन्हें ‘सेकसरिया पुरस्कार’ पुरस्कार मिला था. उस समय कविता छपने पर प्राय: पारिश्रमिक नहीं मिलता था इस लिए सुभद्रा जी ने कहानियां लिखनी शुरु कीं. उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए – बिखरे मोती (1930), उन्मादिनी (1934)और सीधे सादे चित्र (1947).

सुभद्रा जी की आधिकतर कहानियां स्वतंत्रता पूर्व भारत के सामाजिक परिवेश का चित्रण करती हैं. मुझे उनकी कहानी ‘हींगवाला’ बहुत पसन्द है जो हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द दर्शाती है. सुभद्राजी प्रकृति प्रेमी थीं जैसा कि उनकी पहली रचना ‘नीम का पेड़’ थी. उनकी ‘कदम्ब का पेड़’ कविता भी बहुत प्रसिद्ध है. एक कहानी का शीर्षक भी ‘कदम्ब के फूल’ है. इस कहानी में एक सास (जैसा कि हमेशा सास प्रायः ऐसी ही होती हैं ) अपने बेटे से बहू की शिकायत करती है कि यह मिठाई मंगवा कर खाती है. पड़ोस का एक लड़‌का इसे बेसन के लड्डू दे जाता है. बात बढ़ जाती है. अन्त में रहस्य खुलता है कि वे बेसन के लड्डू नहीं, पूजा के लिए कदम्ब के फूल थे गोल-गोल, पीले लड्डुओं जैसे. सहज सरल भाषा सुभद्रा जी की कहानियों की विशेषता है जो इन्हें हृदयग्राही बनाती है.

घर परिवार में

सुभद्रा जी और उनके पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान दोनों कांग्रेसी और गांधीवादी थे. हमेशा खद्दर पहनते थे. जबलपुर राइट टाऊन में उनका बहुत बड़ा सा घर. सामने घुसते ही बड़ा आँगन और बगीचा फूल पौधों से भरा. एक शहतूत का पेड़ भी था जो मुझे बड़ा प्यारा लगता था. पति-पत्नी दोनों के सहज सरल स्वभाव और राष्ट्रीय विचारधारा के कारण उनके यहां हरदम मिलनेवालों का आना-जाना लगा रहता सभी उन्हें काका जी और काकी जी कहकर सम्बोधित करते यहाँ तक कि उनके बच्चे भी उन्हें काका-काकी कहकर संबोधित करते थे . सुभदा जी मेरी मुंहबोली नानी थीं, यह मैं पहले ही बता चुकी हूँ. उनके बच्चे मेरे मामा-मौसी.

उनकी पांच संतानें थीं. सबसे बड़ी बेटी सुधा का विवाह कथा सम्राट प्रेमचन्द के बेटे अमृत राय से हुआ था. सुधा मौसी को सब जीजी कहते थे. फिर तीन बेटे थे- अजय (बड़े), विजय (छोटे) और अशोक (मुन्ना). उनके बाद सबसे छोटी बेटी ममता जो मुझसे तीन-चार साल बड़ी थीं. उनके घर के नाम इसलिए लिख रही हूं, क्योंकि सुभद्रा नानी ने कई बाल-कविताएं अपने बच्चों पर लिखी हैं. ये नाम देखकर आप पहचान जाएंगे जैसे यह कविता- ‘सभा का खेल’

सभा-सभा का खेल आज हम खेलेंगे जीजी आओ,

मैं गांधी जी, छोटे नेहरु, तुम सरोजिनी बन जाओ.

मेरा तो सब काम लंगोटी गमछे में चल जाएगा,

छोटे भी खद्दर का कुरता पेटी से ले आएगा.

लेकिन जीजी तुम्हें चाहिए एक बहुत बढ़िया साड़ी,

वह तुम माँ से ही ले लेना, आज सभा होगी भारी

मोहन लल्ली पुलिस बनेंगे, हम भाषण करने वाले

वे लाठियां चलाने वाले, हम घायल मरने वाले…

यह कविता सत्याग्रह आन्दोलन की स्थिति को दर्शाती है. बड़ों को देख बच्चे भी गुड्डे-गुड़ियों का खेल के छोड़‌कर देशभक्ति के नाटक, और सभा-सभा का खेल करने को प्रेरित होते थे. इस तरह की शायद ही कोई दूसरी कविता होगी.

बेटे अजय (बड़े) पर उन्होंने ‘ अजय की पाठशाला’ शीर्षक की कविता लिखी.

मां ने कहा दूध पी लो तो बोल उठे मां रुक जाओ

वहीं रहो पढ़ने बैठा हूं मेरे पास नहीं आओ

शाला का काम बहुत सा मां, उसको कर लेने दो

ग म भ झ लिखकर मां, पट्टी को भर लेने दो

अजय मामा वकील होने के साथ-साथ कई ऊंचे पदों पर थे.

विजय (छोटे) पर ‘नटखट विजय’ कविता लिखी-

कितना नटखट मेरा बेटा,

क्या लिखता है लेटा-लेटा,

अभी नहीं अक्षर पहचाना,

ग म भ का भेद न जाना,

फिर पट्टी पर शीश झुकाए,

क्या लिखता है ध्यान लगाए,

मैं लिखता हूँ बिटिया रानी,

मुझे पिला दो ठंडा पानी.

विजय(छोटे)मामा बड़े होकर प्रोफेसर बने. इनकी पत्नी जर्मन थीं. बाद में वे भी जर्मनी चले गये जहाँ उनकी मृत्यु हो गई.

अपनी छोटी बेटी को देखकर सुभद्रा नानी ने बचपन को याद करते हुए प्रसिद्ध कविता लिखी थी- ‘मेरा बचपन’

मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी,

नन्दन वन सी कूक उठी, यह छोटी सी कुटिया मेरी.

मां ओ कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी,

कुछ मुंह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी.

यह लम्बी कविता आज भी स्कूलों में पढ़ाई जाती है.

मैं तब तीन-चार बरस की थी. मैं और मेरी मां सुभद्रा नानी से मिलने के बाद जब अपने घर जाने लगते तो अशोक मामा (उर्फ मुन्ना, उनके तीसरे बेटे) मुझे कंधे पर बिठाकर छोड़‌ने चलते. रास्ते में दो पैसे की लइया खरीद देते थे, जो मैं उनके कंधे पर बैठी कुटुर-कुटुर खाती रहती. लाई के रामदाने झड़कर उनके सिर के घुंघराले बालों के बीच बिखर जाते तब मामा हंसकर कहते – “अरे गीता मेरे बाल क्यों खराब कर रही है?” यही अशोक मामा यानी मुन्ना मामा के बारे में कहा जाता था कि जब ये स्कूल से लौटते थे तो पहले अपना बस्ता पटक कर घर के बाहर लगे कदम्ब के पेड़ पर चढ़ जाते थे. कुछ देर उछल-कूद कर लेते तब घर में घुसते थे. इन्हीं अशोक मामा पर सुभद्रा नानी ने ‘कदम्ब का पेड़’ कविता लिखी थी.

यह कदम्ब का पेड़ अगर मां होता जमुना तीरे,

मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे.

ले देती मां मुझे बांसुरी तुम  दो पैसे वाली,

किसी तरह नीची हो जाती यह कदम्ब की डाली…

‘कदम्ब का पेड़’ कविता स्कूलों की पाठ्‌य-पुस्तकों में संकलित है और कई लोगों की जुबान पर चढ़ी है. अशोक चौहान मामा की शादी प्रेमचन्द की नतिनी मंजुला से हुई थी. उनका भी घर का नाम मुन्नी था. बड़ी प्यारी और खूब सुन्दर थीं हमारी मुन्नी मामी.

यही अशोक मामा बड़े होकर जबलपुर के रॉबर्टसन कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर हो गए थे. मेरे बचपन में पिताजी का ट्रांसफर हो जाने के कारण मेरा जबलपुर छूट गया था. मैट्रिक के बाद जब मैं यहां होम साइंस कॉलेज होस्टल में रहकर पढ़ने आई तो अजय चौहान और अशोक चौहान मामा मेरे लोकल गार्जियन बने थे.

अशोक मामा बहुत गोरे, सुन्दर और ऊंचे पूरे दिखते थे. जब छुट्टी में मुझे घर ले जाने आते तो मेरे होस्टल की लड़‌कियां उन्हें झांक-झांक कर देखतीं. वे थे तो प्रोफेसर पर पैरों में तीन रुपये वाली टायर की चप्पल पहन लेते जैसी उस समय मजदूर पहना करते थे. यह उनका अपना ‘इश्टाइल’ था जो सबके लिए अचम्भे और आकर्षण का केन्द्र बन जाता था. वे गाते बहुत अच्छा थे. जब कबीर गाते तो सुनने वालों की आंखों से आंसू बहने लगते.

सुभद्रा नानी की सबसे छोटी बेटी हैं ममता. मेरी ममता मौसी. सुभद्रा नानी की संतानों में से बस एक यही बची हैं. सुभद्रा नानी की संतानों में से प्यार से मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देने वाले सभी हाथ कालचक्र की भेंट चढ़ गये. मुन्नी मामी (मंजुला चौहान) फोन पर बातें करती थीं, कोरोना काल में वे भी चल बसीं. अब ममता मौसी हैं जो अमेरिका में रहती हैं. मुझे वे बचपन से प्यार करती थीं. जब मैं होस्टल  से उनके घर आती थी, उस समय वे एम.ए. में पढ़ ही रही थीं, पर अपने पॉकेटमनी से मुझे फ्रॉक का कपड़ा खरीदकर देती थीं. मैं शाम को होस्टल लौटते समय कपड़ा लेकर जाती और मेरी प॔जाबी दोस्त सिंधु नाग रातोंरात होस्टल की मशीन पर फ्रॉक सी देती थी. मैं दूसरे दिन उसे पहनकर कॉलेज चली जाती और शान से सबको बताती कि मेरी ममता मौसी ने दी है. वे मेरी बचपन से दोस्त थीं.

इसी संदर्भ में बचपन की एक अविस्मरणीय घटना याद आती है. माँ जब उनके घर जातीं, सुभद्रा नानी से बातें करती तब मैं ममता मौसी के साथ खेला करती थी. एक बार हम उनके घर गये थे तभी सुभद्रा नानी बनारस से लौटीं. उन्होंने हम दोनों को एक-एक पिटारी खिलौनों की दी उसमें सुन्दर-सुन्दर लकड़ी के रंग-बिरंगे बर्तन, कड़ाही, करछुल, चूल्हा, तवा, चकला-बेलन रखे थे. मैं और ममता मौसी झट से अपने-अपने खिलौने लेकर खेलने बैठ गईं.

ममता मौसी ने चूल्हे पर तवा चढ़ाया और आँगन से शहतूत की पत्तियां तोड़कर चकले पर रखकर फटाफट झूठ-मूठ की रोटियां बेलने लगीं. उनकी देखा-देखी मैंने भी अपने चूल्हे पर तवा रखकर चकला निकाला, पर यह क्या मेरे वाले सेट में तो बेलन था ही नहीं. दुकान वाला शायद बेलन रखना भूल गया था. मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, हाथ-पैर पटकने लगी. अश्रुधारा बह निकली. अब भला मैं रोटी कैसे बेलूंगी? तब सुभद्रा नानी ने मुझे प्यार से गोदी में बिठाया और चौके की तरफ आवाज़ देकर बोली- ‘महाराजिन बेलन लाओ’. उनकी महाराजिन खूब मोटी थुलथुल थीं. छोटे बच्चे उन्हें चुपके से ताड़का कहकर भागते थे तो वे भी मारने दौड़तीं पर मोटापे के कारण दौड़ न पातीं. और वहीं खड़ी होकर हंसने लगतीं उन्हें खुद भी इस खेल में मज़ा आता था.

हाँ, तो महराजिन रसोई से बेलन लेकर हाजिर हो गईं. सुभद्रा नानी ने मेरे हाथ में वह बड़ा-सा बेलन देकर कहा- “गीता बेटा लो, देखो यह अन्नपूर्णा का बेलन है. हमारी महाराजिन अन्नपूर्णा है. इसी बेलन से बेलकर हम सबको रोटियां बनाकर खिलाती है. यह संसार का सबसे अच्छा बेलन है. जाओ इससे रोटियां बेलो.” मैंने आंसू पोंछकर बेलन ले लिया और उस छोटे से चकले पर बड़ा सा बेलन रखकर रोटियां बेलने लगी. ममता मौसी कनखियों से मुझे देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं.

आज भी कभी-कभी रोटी बेलते हुए वह अन्नपूर्णा का बेलन याद आ जाता है. सोचती हूं कितनी महान थीं सुभद्रा नानी, उन्होंने एक साधारण सी खाना बनानेवाली स्त्री को ‘अन्नपूर्णा’ की संज्ञा दे डाली थी. स्वयं मालकिन होते हुए भी उसे ‘अन्नदात्री’ कहकर उसका मान बढ़ा दिया था. ऐसी उदारता तो सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी विभूतियां ही दर्शा सकती हैं.

और अन्त में…

सुभद्रा कुमारी चौहान उदार हृदया, सरलता की मूर्ती और ममतामई थीं. उनके कोमल ह्रदय में साहस और दृढ़ विश्वास भरा हुआ था. उन्होंने घर-बार संभालते हुए स्वतन्त्रता संग्राम में में भाग लिया. कई बार जेल गयीं. साहित्य रचा. जेल में भी वे कहानियां लिखती थीं. जेल की दीवारों पर कवितायें लिखती थीं. अपने राष्ट्रवादी पति का हर कदम पर साथ दिया. विवाहित स्त्रियाँ पति से अनेक सुविधाओं, ज़ेवर और धन-दौलत की अपेक्षा रखती हैं परन्तु उन्होंने ऐसी कोई कामना नहीं कीं. बिना शिकायत हंसते-हंसते पति के साथ जेल चली गईं. जेल में वे अकेली राजनैतिक महिला कैदी के रूप में थीं. जनता द्वारा जो फूलों के हार पहनाए गए थे, उनका तकिया बना कर जेल में सो गईं. उन्होंने स्वयं के बारे में लिखा भी है-

मैंने हंसना सीखा है, मैं नहीं जानती रोना.

बरसा करता है मेरे जीवन के पल-पल पर सोना.

एक जगह और लिखती हैं-

सुख भरे सुनहले बादल, रहते हैं मुझको घेरे.

विश्वास, प्रेम, साहस हैं, जीवन के साथी मेरे.

सुभद्रा जी को जीवन में कई मान-सम्मान मिले. साहित्य में दो बार ‘मुकुल’ और ‘बिखरे मोती’ किताब पर ‘सेकसरिया पुरस्कार’ मिला. भारत स्वतंत्र होने के बाद उत्तर प्रदेश की सरकार ने सुभद्रा जी को विधान परिषद् की सदस्या मनोनीत किया. दुर्भाग्यवश, एक मीटिंग से लौटते हुए सिवनी के पास कार दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई. संयोग की बात है यह दुर्घटना 15 फरवरी 1948 वसंत पंचमी (सरस्वती पूजा) के दिन हुई थी. सुभद्रा जी का जन्म नाग पंचमी (16 अगस्त 1904) में हुआ था. अर्थात् जन्म और निधन दोनों दिन पंचमी तिथि थी. मध्य प्रदेश के सिवनी के पास कलबोड़ी ग्राम में सुभद्रा कुमारी चौहान की समाधि है जहां लोग फूल चढ़ाने जाते हैं.

उनके निधन के अगले वर्ष ही 1949 में जबलपुर नगर निगम परिसर में सुभद्रा जी की आदम-कद प्रतिमा लगाई गई जिसका अनावरण उनकी सहेली प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने किया था. उनकी याद में भारत सरकार के डाक-तार विभाग ने 1976 में पच्चीस पैसे का डाक टिकट भी जारी किया था. 24 अप्रेल 2006 में उनकी राष्ट्र प्रेम की भावनाओं को सम्मान देने के लिए भारत में जल-सेना द्वारा तट-रक्षक जहाज़ का नाम ‘सुभद्रा’ रखा गया.

मात्र 43 वर्ष की अल्पायु में ही उनका निधन हो गया किन्तु इतनी कम अवधि में वे कई महत्वपूर्ण कार्य कर गईं. सुभद्रा कुमारी चौहान बीसवीं सदी की महानायिका, प्रखर लेखिका, कवयित्री, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सेविका के रूप में सदा याद रखी जाएंगी. हिन्दी साहित्य के आकाश में सदा जगमग नक्षत्र की तरह चमकता रहेगा सुभद्राकुमारी चौहान का नाम. उनकी स्मृतियों को शत-शत प्रणाम.

*****

(लेखिका – डॉ. गीता पुष्प शॉ जी से अनुमति लेकर यह संस्मरण ई-अभिव्यक्ति में प्रकाशनार्थ साभार लिया गया।)

© डॉ. गीता पुष्प शॉ

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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